हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या भारतीय समाज हिंसक हो
रहा है। ज़रा-ज़रा सी बात पर लोग लड़ने-झगड़ने लगे हैं। आए दिन होने वाले
सांप्रदायिक तनाव इसके गवाह हैं। आख़िर ख़ून-ख़राबा यानी क़त्ल-ए-आम की बातें
लोगों को पसंद क्यों आ रही हैं? अनपढ़ लोग अगर दंगे-फ़साद की राह पर जाते तो बात समझ में
आती कि अज्ञानी हैं, उनमें समझ नहीं है, लेकिन यहां तो पढ़े लिखे यहां तक कि कॉन्वियन्स
लोग और सेक्यूलर पत्रकार भी धर्म के नाम पर मरने-मारने की बात कर रहे हैं।
आने वाला समय बहुत सुखद
संकेत नहीं कर रहा है। देश में अच्छे दिन नहीं, बहुत ही बुरे दिन की दस्तक हो रही
है। फिलहाल, इस देश में हर जगह धर्म के
आधार पर ध्रुवीकरण बहुत तेज़ी से हो रहा है। अपने आपको सेक्यूलर कहने वाले लोग
अप्रासंगिक हो रहे हैं। इसका फ़ायदा भारतीय जनता पार्टी यानी बीजेपी और
मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एमआईएम को हो रहा है।
इस बार अक्टूबर में हुए महाराष्ट्र
विधानसभा चुनाव पर गौर करें तो अभिजात्य वर्ग के नेता असदुदीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम
को काफ़ी समर्थन मिला। चुनाव के समय असदुद्दीन तो नहीं उनके छोटे भाई विधायक अकबरुद्दीन
ने ज़रूर तूफानी प्रचार किया। अकबर की मुंबई, ठाणे के मुंब्रा, औरंगाबाद, नांदेड और परभणी में हुई चुनावी सभाओं में भारी भीड़ होती
थी।
ईसाई महिला से निकाह करने
का बावजूद 43 साल के अकबर को बेहद कट्टर ख़ासकर हिंदुओं के ख़िलाफ़ बहुत ही आपत्तिजनक
बयान देने के लिए जाना जाता है। चंद साल पहले उन्होंने हिंदू समुदाय के ख़िलाफ़
बहुत ही ख़तरनाक बयान दिया था। यू-ट्यूब पर उपलब्ध उस बयान को जो भी सुनता है सन्न
रह जाता है, पसीने छूट जाते हैं। लोगों को यकीन ही नहीं हुआ कि दूसरे मजहब के
ख़िलाफ़ कोई ऐसा बयान दे सकता है। ख़ासकर धर्मनिरपेक्ष संविधान पर चलने वाले भारत
में। बहरहाल, उस बयान के चलते अकबर को गिरफ़्तार भी किया गया था और काफी जद्दोजहद
के बाद उन्हें बेल मिली थी।
अगर इतिहास पर नज़र डालें
तो हिंदुओं के ख़िलाफ़ इस तरह का ज़हर कभी किसी मुस्लिम नेता ने नहीं उगला। यहां
तक कि 1946 में मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना या अली बंधु भी। इतिहासकारों और
उनकी किताबों के मुताबिक विभाजन के समय मुस्लिम लीग की ओर से हिंदुओं के मारकाट के
लिए ऐक्शन प्लान ज़रूर चलाया गया था लेकिन सब गुप्त रूप से। पब्लिक फ़ोरम पर ऐसा
बयान किसी ने नहीं दिया था जैसा बयान अकबर ने हैदराबाद में दिया।
बुद्धिजीवी तबक़े का मानना
है कि ऐसे में मुसलमानों द्वारा अकबर की भर्त्सना होनी चाहिए थी यानी उनका
बहिष्कार किया जाना चाहिए था। जैसे गैर-मराठियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वाले राज
ठाकरे को इस बार मराठी समाज ने रिजेक्ट कर दिया। लेकिन अकबर को तो मुसलमानों का बहुत
भारी समर्थन मिला। कई मुस्लिम बुद्धिजीवी और पत्रकार एमआईएम के टिकट पर चुनाव
लड़ने की इच्छा जता रहे हैं। इसका अर्थ तो यही हुआ कि मुसलमान वोटर्स अकबर के
हिंदुओं के ख़िलाफ़ बयान का अपने वोटों के जरिए दिल खोलकर स्वागत कर रहे हैं। एमआईएम
को इतना अधिक पसंद कर रहे हैं कि इस बाहरी पार्टी को महाराष्ट्र एसेंबली में
इंट्री मिल गई। पार्टी ने मुंबई की 14 सीटों समेत राज्य में कुल 24 विधानसभा
क्षेत्र में उम्मीदवार खड़े किए थे। जिनमें अपने आपको सेक्यूलर घोषित करने वाले न्यूज़
चैनल एनडीटीवी के पुणे संवाददाता रहे इम्तियाज जलील औरंगाबाद पश्चिम से और वारिस यूसुफ पठान ने भायखला से जीत दर्ज की। तीन सीटों पर दूसरे नंबर पर रही और नौ साटों पर
तीसरे स्थान पर बाक़ी दस सीटों पर भी पार्टी को भरपूर वोट मिले। सबसे अहम, एमआईएम
के किसी भी उम्मीदवार की ज़मानत जब्त नहीं हुई। 2012 में नांदेड़ नगरपालिका में
एमआईएम के 12 नगरसेवक चुने गए थे।
कहने का मतलब, इस देश के
धर्मनिरपेक्षता या सेक्युलिरिज़्म की राजनीति करने वाले लोग बड़ी तेज़ी से हाशिए
पर जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, सेक्यूलर लोग संघ परिवार, बीजेपी या नरेंद्र मोदी को जितनी गाली देते हैं, संघ और मोदी उतना ही फायदा मिलता है। 2002 के बाद हर किसी ने मोदी को “हत्यारा मोदी” कहा जिसकी परिणति 2014 के
आम चुनाव में बीजेपी को 282 सीट के रूप में हुई। कहने का मतलब हिंदुओं को भी अब लगने
लगा है कि बीजेपी में ही उनका भविष्य सुरक्षित है।
बहुमत में मुसलमानों का
कट्टरवादी सियासत की जानिब उन्मुख होना उतना चिंतित नहीं करता। लेकिन मुस्लिम समाज
जिस तरह अकबर को पसंद कर रहा है, वह ख़तरनाक संकेत हैं। कांग्रेस से पहले से ही
मुंह मोड़ चुके मुसलमान वोटर आने वाले दिनों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज
पार्टी, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को वोट नहीं देंगे। वे केवल और केवल
एमआईएम को वोट देंगे। तब इस देश का धर्म के आधार पर पूरी तरह ध्रुवीकरण हो जाएगा।
अगर इतिहास में जाएं तो पिछली
सदी के आरंभ में माहौल ऐसा ही था। अंग्रेज़ों ने देश बंग-भंग के जरिए अलगाववाद को
जो पौधा रोपा उसके उगते हैं 1906 में इसी माहौल में जनाब सैयद अहमद खान खान ने
मुस्लिम लीग की स्थापना की। महज 41 साल की उम्र में इस पौधे ने देश का धर्म के
आधार पर विभाजन कर दिया। तो क्या यह देश एक और विभाजन की ओर बढ़ रहा है? भले ही वह कई सदी बाद आए।
लिहाज़ा, अभी से चौकन्ना होने की ज़रूरत है, कि कही देर न हो जाए।
समाप्त
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