हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारत एक भावुक देश है। यहां के लोग भी भावुक हैं। तभी तो पेशावर के
बाल-नरसंहार (संभवतः यह दुनिया का पहला ऐसा नरसंहार है जिसमें केवल बच्चे मारे गए
हैं) पर यहां लोग दुखी हैं। कई लोग तो विचलित है और रो भी रहे हैं। दूसरों के दर्द
से दुखी होना मानव स्वभाव है। भारत के लोग भावुक स्वभाव के हैं इसलिए इंसानियत के
ज़्यादा क़रीब हैं। लेकिन यह ध्यान देना होगा कि आंसू किसी समस्या के समाधान नहीं होते।
अगर आंसुओं से समस्याएं हल होतीं तो भारत, ख़ासकर कश्मीर, से आतंकवाद कब का चला
गया होता, लेकिन भारत और भारत के “अभिन्न अंग” कश्मीर में आतंकवाद आज भी ज़िंदा है। लोकसभा के चुनाव प्रचार में कांग्रेस को “चुप” रहने के लिए कोसने वाले नरेंद्र मोदी के
प्रधानमंत्री बनने के बाद सीज़ फ़ायर के उल्लंघन में पाकिस्तानी सेना के हाथ 135
लोगों की मौत इसकी गवाह है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि जब 26/11 के मुंबई आतंकी
हमले के बाद मासूस लोगों को श्रद्धाजलि देने का कोई कार्यक्रम पूरे
पाकिस्तान में कहीं नहीं हुआ था। उस समय वे लोग यह कहकर इससे ख़ुश हो रहे थे कि
भारत को गहरा दर्द दिया है। लेकिन इसके विपरीत भारत भर में
बहुत ढेर सारे जगह श्रद्धा सुमन अर्पित करने के प्रोग्राम हो रहे हैं। यानी भारत और भारत के लोग पीड़ित होते हुए भी पाकिस्तान के
साथ हमदर्दी रखते हैं।
दरअसल, जो बच्चे पेशावर सैनिक स्कूल में मारे गए, वे ज़्यादातर उन सैनिक
अफ़सरों के बेटे हैं जो इन राक्षसों को भारत पर हमला करने के लिए तैयार किया था।
ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि पाकिस्तान आर्मी और आईएसआई ने जो बारूद भारत
में आग लगाने के लिए बनवाया था वह उनके घर में ही फट गया। यह कहने में कोई गुरेज
नहीं होना चाहिए कि आतंकवाद पाकिस्तान और पाकिस्तानी आर्मी के लिए भस्मासुर बन गया
है। जैसे भस्मासुर पार्वती को पाने के लिए शंकर भगवान की जान का दुश्मन बन गया था
उसी तरह आतंकवाद पाकिस्तान का दुश्मन बन गया है। यानी जिसे पाकिस्तान ने भारत के
लिए पाला, खाद पानी दिया अब
वही आतंकवाद उसके गले में फांस की तरह अटक गया है। आतंकवादी पाकिस्तान के नियंत्रण
से बाहर हो गए हैं।
सवाल यह है, क्या अब क़रीब 150 बच्चों की हत्या के बाद पाकिस्तान होश आएगा? क्या वह असमय मरने वालों का दर्द समझेगा? जिसे उसका पड़ोसी
पिछले 20 साल से भुगत रहा है। इस बात का कोई संकेत नहीं मिला है कि पाकिस्तानी
हुक़्मरानों को अपने ब्लंडर का एहसास होगा। क्योंकि पाकिस्तानी बच्चों की मौत आंसू बहाने वालों में हाफ़िज़ सईद
भी है जो अपने आप में मौत देने वाला संस्थान है। सईद को अब भी प्रोटेक्ट करने का
सीधा सा अर्थ है पाकिस्तान कभी नहीं सुधरेगा। चाहे जितने पेशावर हमले हो जाएं। समस्या
पाकिस्तानी लीडरशिप या पाकिस्तानी आर्मी में नहीं है। समस्या वहां की जनता में
हैं। जो भारत को हिंदू राष्ट्र मानती है और हिंदू राष्ट्र से नफ़रत करने वाले का
दिल खोलकर समर्थन करती है। वहां की जनता ठीक होती तो पाकिस्तानी लीडरशिप या
पाकिस्तानी आर्मी रात भर में सुधर गए होते। यानी खोट पाकिस्तानी जनता में है, जो
भारत का विरोध करने वाले नेताओं को वोट देती है। यह उसी तरह का ब्लंडर है जैसे
भारत में हिंदुओं के क़त्लेआम की बात करने वाले एमआईएम के विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी
(यू-ट्यूब पर उसका टेप उपलब्ध है) को वोट देना। जो आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के
मुसलमान दिल खोल कर कर रहे हैं।
बहरहाल, यह भी कटु सच है आतंकवादियों का सईद जैसे लोग ब्रेनवॉश करते हैं। उन
पर जेहाद का भूत सवार कर देते हैं और आतंकवादी मौत के साक्षात् रूप बन जाते हैं।
इन आतंकवादियों को अपनी ग़लती का एहसास तक तक नहीं होता जब तक वे पकड़े नहीं जाते
और की तरह अंडा सेल में नहीं रख दिए जाते। सैयद ज़बिउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जिंदल उदाहरण
है, अबू गिरफ़्तारी के बाद से मुंबई के ऑर्थर रोड जेल में अंडा सेल में है। अजमल
कसाब की तरह वह भी मानसिक रोगी हो गया है। जेल अधिकारी कहते हैं अंडा सेल में आने
के बाद उसके सिर से जेहाद का भूत उतर गया है। वह चिड़चिड़ा और विक्षिप्त हो गया
है। अब वह कभी-कभी सईद और लश्कर-ए-तैयबा के नेताओं को गाली देता है।
दरअसल, पाकिस्तान को समझना होगा कि आतंकवाद का कोई क्लासिफ़िकेशन नहीं होता।
आतंकवादी केवल आतंकवादी यानी दहशतगर्द या टेररिस्ट होता है। उसका कोई मजहब धर्म या
राष्ट्रीयता नहीं होती। जैसे आतंकवादी “इस्लामिक आतंकवादी” नहीं हो सकता वैसे ही आतंकवादी “कश्मीरी आतंकवादी” नहीं हो सकता। आतंकवादी तो केवल आतंकवादी होता है, केवल हत्यारा होता है। यानी
पाकिस्तान आतंकवादियों को “कश्मीरी आतंकवादी” कहकर उन्हें संरक्षण नहीं दे सकता अगर देगा तो वे आतंकवादी पेशावर की तरह के
नरसंहार को अंजाम देते रहेंगे।
यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत एक कायर देश की तरह अपने यहां आतंकवाद के लिए
पाकिस्तान को दोषी ठहराता है। भारत को यह समझना होगा इससे काम नहीं चलेगा। उसे आतंकवादियों
के लिए नया कठोर क़ानून बनाना होगा। ताकि उन्हें जेल में रखने की बजाय मार दिया
जाए। जब तक आतंक और आतंकियों के ख़िलाफ़ कठोर कार्रवाई नहीं होती इसे रोक पाना
मुश्किल होगा। अपने यहां हमले के लिए किसी
और को दोषी ठहराने या सबूत देने का दौर चला गया। मगर भारत अब भी आतंकी वारदातों
में पाकिस्तान के शामिल होने का दुनिया को सबूत देता है। यह काम यह कथित तौर पर
परमाणु हथियार बना लेने वाला देश 20 साल से कर रहा है और अपने जवानों और नागरिकों
को कायर बना रहा है। जबकि उसे राष्ट्रीय पॉलिसी बनाकर पाकिस्तान में घुसकर
आतंकवादियों को मारना चाहिए। भारत के पास यह मौक़े कई बार आ चुके हैं। चार बार तो
ख़ुला मौक़ा था लेकिन हर बार भारत ने अपने कायराना इरादा का प्रदर्शन करने के
अलावा कुछ नहीं कर पाया। पहला मौक़ा कारगिल युद्ध के समय आया था, भारत को उसी समय
सारा हिसाब चुकता कर लेना चाहिए था, पर अटलबिहारी वाजपेयी कारगिल का लेकर शांत हो
गए। दूसरा मौक़ा संसद पर आतंकी हमले के समय आया तब वाजपेयी दूसरी बार चूक गए थे।
तीसरा मौक़ा मुंबई पर आतंकी हमले के समय आया उस समय कमज़ोर प्रधानमंत्री मनमोहन
सिंह चूक गए। उनसे इतने साहस की उम्मीद भी नहीं थी। चौथा मौक़ा तीस साल में सबसे ताक़तवर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिला। जब अभी हाल ही में आतंक ने कश्मीर के उरी सेक्टर पर हमला
किया। चुनाव में खूब दहाड़ने वाले मोदी भी इस बार चूक गए। युद्ध से दूर रहने की
नीति से भारत का बहुत भला नहीं हुआ है। जनता महंगाई से वैसे भी परेशान है। युद्ध
से महंगाई मान लो दोगुनी हो जाएगी, उसे जनता झेल लेगी। वैसे भी इस जनता ने 1998
में परमाणु विस्फोट के बाद प्रतिबंध झेला ही था। यह रोज़-रोज़ की किच-किच ख़त्म होनी
चाहिए। मान लो इस युद्ध में भारत की एक फ़ीसदी जनता मर जाती है लेकिन यह भी सच है कि तब तक पाकिस्तान
में कोई श्रद्धांजलि देने वाला भी नहीं बचेगा। लेकिन सवाल फिर वही, गांधीवाद के
फ़र्ज़ी सिद्धांत पर चलने वाला भारत क्या इतनी हिम्मत दिखाएगा?
समाप्त
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