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सोमवार, 9 जुलाई 2018

मुन्ना बजरंगी : ख़त्म कहानी हो गई

हरिगोविंद विश्वकर्मा
तीन दशक तक क़रीब दर्जनों लोगों को असमय मौत की नींद सुलाने वाले पूर्वांचल के कुख्यात डॉन मुन्ना बजरंगी को उसी की स्टाइल में आज 9 जुलाई 2018) मौत की नींद सुला दिया गया। यह काम मुन्ना की ही बिरादरी के दुर्दांत अपराधी सुनील राठी ने बागपत जेल में किया। उसने जेल में ही मुन्ना को गोलियों से भून डाला। मुन्ना को रविवार को ही झांसी जेल से बागपत जेल लाया गया था। उसे अलग बैरक में सुनील राठी और विक्की सुंहेड़ा के साथ रखा गया था। उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपराध जगत में सुनील राठी का नाम बड़ा है। अहम बात यह भी है कि 29 जून को मुन्ना की पत्नी सीमा सिंह ने झांसी जेल प्रशासन और एसटीएफ के साथ मिलकर मुन्ना की हत्या करवाने की आशंका जताई थी।

उत्तर प्रदेश समेत देश भर के अपराध जगत में अपने नाम का खौफ पैदा करने वाले अपराधी मुन्ना बजरंगी की कहानी ख़त्म होने तक उसके नाम की दहशत लोगों में कायम थी। उसका असली नाम प्रेम प्रकाश सिंह था। उसका जन्म 1965 में जौनपुर के मड़ियाहूं तहसील में पड़ने वाले जमालापुर-रामपुर के पूर्व कसेरू से सटे पूरेदयाल गांव में हुआ था। कसेरू पूरेदयाल के लोगों को पता नहीं था कि जिस प्रेमप्रकाश को प्यार-दुलार दे रहे हैं वही एक दिन क्राइम किंग बनकर उनके सामने आएगा और बुलेट के बल पर अपने नाम का ख़ौफ़ पैदा कर देगा।

प्रेमप्रकाश के पिता पारसनाथ सिंह का सपना था कि उनका सबसे छोटा बेटा पढ़ लिखकर नामचीन और बड़ा आदमी बने। मुन्ना बड़ा आदमी तो बना लेकिन सभ्य समाज का नहीं, बल्कि अपराध जगत का बड़ा आदमी। उसने पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी और गांव में ही मटरगश्ती करने लगा। इसी दौरान वह अपराधी किस्म के युवकों की बुरी संगत में आ गया। किशोर अवस्था तक आते आते उसे ऐसे शौक लग गए जो जुर्म की दुनिया में ढकेलने के लिए पर्याप्त थे। गांव के लोग बताते हैं कि उसे हथियार रखने का बड़ा शौक था।

मुन्ना ने पहला अपराध 15 साल की नाबालिग उम्र में 1980 में किया, जब कहीं से एक देसी कट्टे का इंतजाम कर लिया। गोपालापुर बाजार में गोली मारकर छिनैती की। उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 307 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। 17 साल की उम्र में उसने गांव के झगड़े में कट्टा निकाल कर फ़ायर कर दिया। यह 1982 का साल था, जब उसके खिलाफ पास के सुरेरी थाने मे मारपीट और अवैध असलहा रखने का मामला धारा 147, 148, 323 के तहत दर्ज हुआ।

मटन लेने के विवाद के चलते मुन्ना ने अपने गांव में एक व्यक्ति की हत्या कर दी और भदोही से ट्रेन पकड़कर मुंबई भाग आया। शुरुआती दिनों में उसका ठिकाना सांताक्रुज़ का वाकोला रहा, जहां वह एक निर्माणाधीन इमारत में रहने लगा। यहां उसने एक गिरोह बनाया। 1983 में ही मुन्ना मुंबई उपनगर के 14 पेट्रोल पंप लूट लिया। कुछ दिनों बाद ही मुंबई क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर आरडी कुलकर्णी ने मुन्ना और उसके तीन साथियों के साथ गिरफ़्तार किया। उसे जेल भेज दिया गया। छह महीने बाद उसे ज़मानत मिली और वह आर्थर रोड जेल से बाहर आया। इसके बाद वह फ़रार हो गया और जौनपुर वापस लौट गया।

इसके बाद पुलिस ने उसे धीरे धीरे पेशेवर अपराधी बना दिया। मुन्ना अपराध के दलदल में धंसता ही चला गया। उसने पहली हत्या 1984 में रामपुर के व्यापारी भुल्लन सेठ के पैसे छीनने के लिए की थी। उसी साल रामपुर थाने में उसके खिलाफ हत्या और डकैती के दो और मुक़दमे दर्ज हुए।  उसका क्राइम ग्राफ तेजी से बढ़ने लगा। अंततः वह कांट्रेक्ट किलर बन गया। जौनपुर से फ़रार होकर वह वाराणसी में डिप्टी मेयर अनिल सिंह के पास गया और उनके साथ रहा। वहां भी कई आपराधिक घटना को अंजाम दिया।

वहां से वह जौनपुर चला गया। वहां कुख्यात बदमाश विनोद सिंह चितोड़ी उर्फ़ नाटे विनोद का साथी बन गया। नाटे से दोस्ती निभाने के लिए उसने बदलापुर पड़ाव पर पलकधारी पहलवान की हत्या कर दी। विनोद चितोड़ी के इशारे पर 1993 में जौनपुर के लाइन बाज़ार थाना के कचहरी रोड पर दिन दहाड़े भाजपा नेता रामचंद्र सिंह, सरकारी गनर अब्दुल्लाह और भानु सिंह की हत्या कर दी। इसी दौरान मुन्ना जौनपुर के कादीहद के दबंग माफिया और सहदेव इंटर कॉलेज भोड़ा के प्रिंसिपल पीटी टीचर गजराज सिंह और उसके अपराधी बेटे आलम सिंह के साथ हो लिया। मुन्ना बाप-बेटे के साथ काम करने लगा था। सुरेरी थाना क्षेत्र से शुरू हुआ वारदातों का सिलसिला बढ़ने लगा। पूर्वांचल में उसकी तूती बोलने लगी। उसके बाद उसने फिर वाराणसी का रुख किया। 1995 में उसने कैंट में छात्र नेता रामप्रकाश शुक्ल की हत्या कर दी। इसी तरह वाराणसी में राजेंद्र सिंह और बड़े सिंह की एके 47 से भूनकर अपने मित्र अजय यादव की हत्या का बदला लिया। वह बृजेश सिंह और मुख़्तार अंसारी के समांतर तीसरे डान के रूप में उभरा।

नब्बे के दशक में जौनपुर के दो युवक राजनीति के क्षितिज पर बड़ी तेज़ी से उभरे। इनका नाम था कैलाश दूबे और राजकुमार सिंह। कैलाश रामपुर के ब्लाक प्रमुख चुने गए तो राजकुमार पंचायत सदस्य निर्वाचित हुए। दो  स्थानीय युवकों का उभरना गजराज सिंह को हजम नहीं हुआ। उसने दोनों को रास्ते से हटाने की सुपारी मुन्ना को दे दी। 24 जनवरी 1996 की शाम जमालापुर बाजार के जानकी मंदिर तिराहे पर मुन्ना ने कैलाश, राजकुमार और राजस्व अमीन बांकेलाल तिवारी पर एके-47 से अंधाधुंध फायरिंग कर उनकी हत्या कर दी। हमले में रामपुर थाने के उपनिरीक्षक लोहा सिंह, जो कुछ साल बाद थाना प्रभारी हुए, घायल हो गए। इस केस में कैलाश के भाई लालता दुबे ने मुन्ना के अलावा गजराज, उनके पुत्र आलम सिंह और अन्य लोगों पर प्राथमिकी दर्ज कराई।

बड़ी-बड़ी हत्वााएं करके मुन्ना ने अपना नेटवर्क देश की राजधानी दिल्ली तक बढ़ा लिया। 1998 से 2000 के बीच उसने कई हत्याएं कीं। व्यापारियों, डाक्टरों और धनाढ्य लोगों से वह फिरौती वसूलने लगा। इतना ही नहीं, वह सरकारी ठेकों में भी हस्तक्षेप करने लगा। 2002 के बाद उसने एक बार फिर से पकड़ बनाने के लिए वाराणसी के चेतगंज में एक सोने के कारोबारी की दिन दहाड़े हत्या कर दी। मुन्ना के जेल प्रवास कैदौरान उसकी पत्नी का संबंध उसके बड़े भाई भुवाल सिंह से हो गया और पत्नी ने अपने जेठ से ही विवाह कर लिया। इसके बाद मुन्ना ने फैजाबाद की सीमा सिंह से शादी की।

इस सदी के शुरुआती दिनों में पूर्वांचल में सरकारी  ठेकों, देसी शराब के ठेकों और वसूली के अवैध धंधे पर माफिया डॉन मुख्तार का कब्जा था। मुख्तार किसी को अपने सामने खड़ा नहीं होने देता था। लिहाजा, तेजी से उभरे गाजीपुर से भाजपा विधायक कृष्णानंद राय उसके लिए चुनौती बन गए। कृष्णानंद राय पर मुख्तार के जानी दुश्मन ब्रृजेश सिंह का वरदहस्त था। 2004 में कृष्णानंद राय गाजीपुर से विधानसभा चुनाव जीत गए। उनका बढ़ता प्रभाव मुख्तार को रास नहीं आया। लिहाज़ा उन्हें खत्म करने की जिम्मेदारी मुन्ना को दी। मुन्ना 29 नवंबर 2005 को कृष्णानंद समेत सात लोगों को दिन दहाड़े मौत की नींद सुला दिया। उसने अपने साथियों के साथ मिलकर करीमुद्दीनपुर में हाइवे पर कृष्णानंद की दो गाड़ियों पर एके 47 से 400 गोलियां बरसाई। कृषणानंद की बुलेटप्रूफ कार में होने के बावजूद हत्या कर दी।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हर मृतक के शरीर से 60 से 80 गोलियां निकली। इस हत्याकांड से हड़कंप मच गया। हर कोई मुन्ना के नाम से ही डरने लगा। कृष्णानंद की हत्या के अलावा कई केस में उत्तर प्रदेश पुलिस, एसटीएफ और सीबीआई मुन्ना को खोजने लगी। उस पर सात लाख रुपए का इनाम घोषित किया गया। लिहाजा वह लगातार अपना स्थान बदलता रहा। उसका उत्तर या बिहार में रहना मुश्किल और जोखिम भरा हो गया। दिल्ली भी सुरक्षित नहीं थी। इसलिए वह मुंबई आ गया और एक लंबा अरसा यहीं गुजारा। इस दौरान वह कई बार विदेश भी गया। उसके अंडरवर्ल्ड से रिश्ते भी मजबूत हो गए। यहीं से वह फोन पर अपने लोगों को निर्देश देने लगा।

बहरहाल, 29 अक्टूबर 2009 को दिल्ली पुलिस ने मुन्ना को मुंबई के मालाड उपनगर से नाटकीय ढंग से गिरफ्तार किया। तब वह ऑटो रिक्शा चालक के भेस में था। कहते हैं कि उसे पुलिस के साथ दुश्मनों से भी खतरा था। सो वह मालाड में दिखाने को आटो चलाने लगा, ताकि किसी को संदेह न हो। जब उसके खास लोगों को जानकारी हुई तो सब को आश्चर्य हुआ। दरअसल उसे एनकाउंटर का डर सता रहा था। इसलिए योजना के तहत गिरफ्तार हो गया। दरअसल, मुन्ना की गिरफ़्तार सुनियोजित तरीके से हुई थी। इसमें तब मुंबई में कांग्रेस के बेहद प्रभावशाली नेता रहे कृपा शंकर सिंह ने अहम भूमिका निभाई थी।

गिरफ्तारी के बाद तक़रीबन चार साल नज़रबंद रहने के बाद मुन्ना में राजनीति की चाहत जगने लगी। उसने एक महिला को गाजीपुर से भाजपा टिकट दिलवाने की कोशिश की। जिसके चलते मुख्तार से संबंध खराब हो गए। बीजेपी से लिफ़्ट न मिलने पर उसने कांग्रेस का दामन थाम लिया और मुंबई में कांग्रेस के एक बहुत प्रभावशाली नेता की शरण में चला आया। कहा तो यह भी जाता है कि तब मुन्ना ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उनके लिए काम भी किया था।

2009 में उसको मिर्जापुर जिला जेल में रखा गया। कृष्णानंद हत्याकांड मे उसे मिर्जापुर से 10 अप्रैल 2013 को सुल्तानपुर जिला जेल में शिफ्ट किया गया था। 2012 के विधान सभा चुनाव के समय मुन्ना तिहाड़ जेल में था। उसने सपा का टिकट लेने की कोशिश की, ताकि साइकिल से विधायक बन जाए। पर सपा ने मड़ियाहूं सीट से श्रद्दा यादव को उम्मीदवार बनाया। मुन्ना बतौर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरा लेकिन कामयाब नहीं हो सका। जिला पंचायत चुनाव के चलते उसे सितंबर 2015 में झांसी जेल भेज दिया गया। कुछ समय के लिए वह 2017 मे पीलीभीत जेल में भी रहा। मई 2017 में उसे फिर झांसी जेल भेजा गया। जहां यह खौफनाफ अपराधी अपने किए कि सजा काट रहा था। कल उसे बागपत जेल में लाया गया था और आज उसका काम तमाम हो गया।

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