संजू - हिरानी की हैरान करने वाली फ़िल्म
हरिगोविंद विश्वकर्मा
अभिनेता संजय दत्त की बायोपिक ‘संजू’ हिट हो गई। राजकुमार हिरानी ने दोस्ती का फ़र्ज़ निभा दिया। करोड़ों की कमाई कर रहे हैं सो अलग। फ़िल्म देखने वाले हर दर्शक को मुंबई बमकांड के षड्यंत्र और उसमें संजय दत्त की भूमिका के बारे में भी पढ़ना चाहिए ताकि वे जान सकें और यह महसूस कर सकें कि अगर संजय दत्त ने हथियार लाने की जानकारी मुंबई पुलिस को समय रहते दे दी होती तो निश्चित रूप से 257 निर्दोष लोगों की जान बच जाती। ब्लास्ट की जांच करने वाले पूर्व पुलिस कमिश्नर महेश नारायण सिंह कहते हैं कि अगर संजय दत्त ने जनवरी 1993 में ही अपने महान देशभक्त पिता सुनील दत्त को एके 56 के बारे में बता दिया होता और अगर सुनील दत्त पुलिस को बता देते तो शायद मार्च 1993 के मुंबई ब्लास्ट न होते।
फ़िलहाल इस बात पर चर्चा जरूरी है कि क्या संजय ने अपराध जान-बूझकर किया या उनसे अनजाने में हो गया। जब संजय ने मुंबई बमकांड के मास्टर माइंड और मुख्य आरोपी दाऊद इब्राहिम कासकर के भाई अनीस से अपनी और अपने परिवार की रक्षा करने के लिए एके-56 मंगवाई थी, तब उनकी उम्र 33 साल थी यानी उन्हें बालिग हुए 15 साल बीत चुका था। मज़ेदार पहलू यह है कि संजय बांद्रा के जिस पॉश पाली हिल इलाक़े में रहते हैं, वहां तो दंगा हुआ ही नहीं। मुंबई के दंगे पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि झुग्गीबाहुल्य क्षेत्रों में हुए थे। सो संजय का अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की दुहाई देना सरासर बेमानी है। यानी उस समय कम से कम संजय या उनके परिवार के लिए किसी तरह के ख़तरे का सवाल ही नहीं पैदा होता था। संजय दत्त के सांसद पिता सुनील दत्त के पास पहले ही 3 लाइसेंसी हथियार थे।
दंगे, दरअसल, मुस्लिम इलाकों से ही शुरू हुए और उस मारकाट में सबसे जानमाल का नुकसान अल्पसंख्यक समुदाय को ही उठाना पड़ा। वस्तुत: 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश की तरह मुंबई में भी दंगा भड़क उठा था। देश की आर्थिक राजधानी में 6 से 10 दिसंबर 1992 और 6 से 15 जनवरी 1993 के दौरान दो चरण में ख़ून की होली खेली गई, जिसमें, दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग के मुताबिक, कुल 850 लोग (575 मुसलमान और 275 हिंदू) दंगे में मारे गए। कहने का तात्पर्य संजय ने किसी तरह का ख़तरा न होने के बावजूद केवल शेखी बघारने के लिए एके-56 राइफ़ल जैसा ख़तरनाक़ हथियार मंगवाया था।
सच पूछो तो, 1993 में मुंबई बम विस्फोट से पहले तक माफिया डॉन दाऊद केवल वांछित ख़तरनाक अपराधी था, इसलिए बॉलीवुड के सितारे चाहे-अनचाहे उनके बुलाने पर अकसर दुबई पहुंच जाते थे। इसके लिए उन्हें अच्छा नज़राना मिल जाता था। सिल्वर स्क्रीन के लोगों के लिए दुबई तो मुंबई के बाद दूसरा ठिकाना था। नब्बे के दशक में कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री नहीं होगा, जिसने दाऊद के दरबार में ठुमके न लगाए हों। तब दुबई एक महफ़ूज़ ऐशगाह था। लिहाज़ा, संजय दत्त भी दाऊद ऐंड कंपनी के ग्लैमर से ख़ुद को नहीं बचा पाए। मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक एक बार वे अनीस के संपर्क में आए तो दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गई। उनमें अकसर बातचीत होने लगी। संजय अनीस से अपने पर्सनल इशूज़ भी शेयर करने लगे। संजय समेत बॉलीवुड के लोगों को दाऊद या उससे जुड़े अपराधियों से ताल्लुक़ात रखने के ख़तरे का अहसास 12 मार्च 1993 को मुंबई में भारी तबाही के बाद हुआ। अगर संजय दत्त मुंबई धमाकों के बाद अनीस से जान-पहचान ख़त्म कर लेते तो इस बात में थोड़ा दम रहता कि उनसे अनजाने में ग़लती हुई है और वे भूल-सुधार करना चाहते हैं। लेकिन बमकांड का आरोपी होते हुए भी 2002 में संजय (तब उनकी उम्र 42 साल थी) ने छोटा शकील से फिर बातचीत की और उससे अभिनेता गोविंदा को सबक सिखाने का आग्रह किया, जिसे मुंबई पुलिस ने रिकॉर्ड कर लिया। यानी संजय दत्त ने अपनी ग़लतियों से कुछ भी नहीं सीखा। उच्च पदों पर बैठे लोगों को माफी या सज़ा कम करने की किसी भी अपील पर विचार करते समय इस तथ्य को ज़ेहन में ज़रूर रखना चाहिए था।
हालांकि इस सच को नहीं भूलना चाहिए कि संजू बाबा पर शुरू से हर कोई मेहरबान रहा है। चूंकि उन्हें फ़िल्म में हीरो की तरह पेश किया गया है, तो इस बात की पड़ताल ज़रूरी है कि संजय को कांग्रेस सांसद का बेटा होने का कहां-कहां फ़ायदा मिला और किस-किस ने उन पर मेहरबानी की बरसात की। 12 मार्च 1993 के बाद से संजय दत्त से जुड़े घटनाक्रम पर ग़ौर करने के बाद यह साफ़ हो जाता है कि अभिनेता पर मेहरबानियों की बरसात शुरू से हो रही है। यह सिलसिला तब शुरू हुआ जब पहली बार उनका नाम बमकांड में सामने आया।
पहली मेहरबानी मुंबई पुलिस की ओर से तब हुई जब बमकांड में सज़ायाफ़्ता इब्राहिम मुस्तफ़ा चौहान उर्फ बाबा ने 3 अप्रैल 1993 को संजय का नाम लिया। बाबा ने ख़ुलासा किया कि इस साज़िश में एक बहुत बड़ी मछली शामिल है जिसका नाम सुनकर लोगों के होश उड़ जाएंगे। जब बाबा ने हैवीवेट कांग्रेस सांसद सुनील दत्त के बेटे संजय दत्त का नाम लिया तो विशेष जांच टीम के मुखिया राकेश मारिया भी हतप्रभ रह गए। किसी ने सोचा भी न था कि पदयात्रा करने वाले “शांति के पुजारी” का बेटा बम धमाके की साज़िश का हिस्सेदार हो सकता है। बहरहाल, मुन्नाभाई पर मेहरबानी हुई और तत्कालीन पुलिस आयुक्त अमरजीत सिंह सामरा ने राकेश मारिया को संजय का घर रेड करने की इजाज़त नहीं दी। हालांकि बाद में खुलासा हुआ कि इसके पीछे राजनीतिक वजह थी क्योंकि संजय के पिता कांग्रेस के लॉ मेकर थे। सूबे में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी और कांग्रेस के लोकप्रिय सांसद सुनील दत्त की पार्टी के आला नेताओं से अच्छी ट्यूनिंग थी।
बहरहाल, 19 अप्रैल 1993 की रात मॉरीशस से लौटते ही संजय गिरफ़्तार कर लिए गए। लेकिन गिरफ़्तारी के बाद उनसे पुलिस बेहद शराफ़त से पेश आई। यह भी पुलिस की ओर से की गई मेहरबानी थी क्योंकि रात में संजय को अफ़सर के केबिन में रखे सोफ़े पर सोने की इजाज़त दी गई। उनसे आरोपी की तरह नहीं, राजनेता के बेटे की तरह पूछताछ की गई यानी उनसे थर्ड डिग्री इंटरोगेशन नहीं हुआ। हालांकि संजय ने “ईमानदारी” से एमएन सिंह (तत्कालीन क्राइम ब्रांच प्रमुख) और मारिया को बता दिया कि दाऊद का भाई अनीस उनका दोस्त है और दोनों की अकसर बातचीत होती रहती है। अनीस ने तीन एके-56 राइफ़ल्स, 9 मैगज़िन्स, 450 राउंड्स (गोली) और 20 हैंडग्रेनेड्स (हथगोले) का कन्साइनमेंट उनके पास भेजा। संजय के मुताबिक प्रतिबंधित हथियारों की ख़ेप लेकर अनीस का आदमी अबू सालेम 16 जनवरी 1993 की सुबह उनके घर आया। सालेम के साथ समीर हिंगोरा और बाबा चौहान भी थे। बहरहाल, तीन दिन बाद यानी 18 जनवरी की शाम सालेम हनीफ़ कड़ावाला और मंज़ूर अहमद के साथ फिर संजय के घर आया और 2 एके-56 राइफ़ल, कुछ हैंडग्रेनेड और गोलियां वापस लेकर गया। यानी संजय ने उसी अनीस से ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से एके-56 राइफ़ल मंगवाई जो बमकांड का मुख्य आरोपी था। दरअसल, आरोप पत्र के मुताबिक, दाऊद ने 300 सौ चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 राइफ़ल्स और सैकड़ों की संख्या में ग्रेनेड, मैगज़िन, गोलियां और कई क्विंटल विस्फोटक पावडर आरडीएक्स (दाऊद की साज़िश कितनी भयंकर थी कि पुलिस ने विस्फोट के बाद भी 3.5 टन आरडीएक्स, 71 AK 47 और AK 56 और सैकड़ों ग्रेनेड ज़ब्त किया) 9 जनवरी और 9 फ़रवरी 1993 के बीच कई खेप में रायगड़ के दिघी जेट्टी और शेखाड़ी के रास्ते मुंबई में भेजी। ये काम एक अन्य मास्टर माइंड टाइगर मेमन और मोहम्मद डोसा लेकर आए। हथियारों और आरडीएक्स से भरा ट्रक रायगड़ के जंगल के रास्ते नासिक होता हुआ गुजरात रवाना हुआ। कस्टम की टीम ने ट्रक को ट्रैप किया भी लेकिन आठ लाख रुपए रिश्वत मिलने पर उसे जाने की इजाज़त दे दी। कस्टम की उस टीम के लोगों को टाडा के तहत सज़ा सुनाई गई।बहरहाल, ट्रक का सामान गुजरात के भरुच ज़िले में बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में छिपाया गया। यहां अंकलेश्वर में इस टीम में अबू सालेम शामिल हो गया। हथियारों को पूर्व निर्धारित ठिकानों और लोगों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सालेम को दी गई। वह 9 एके-56 राइफ़ल, सौ से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर सड़क के रास्ते मुंबई आया। सालेम ने अनीस के कहने पर उसी कन्साइनमेंट में से एक राइफ़ल संजय को दी। यानी संजय ने 12 मार्च के धमाके के बाद जिस राइफल को नष्ट करने के लिए यूसुफ़ नलवाला को मॉरीशस से फोन किया, वह राइफ़ल दिग्घी जेटी पर ही उतारी गई थी।
इसके बावजूद, आतंकवाद एवं विध्वंस निरोधक क़ानून (टाडा) जज ने संजय दत्त का वह क़बूलनामा स्वीकार कर लिया जिसमें मुन्नाभाई ने कहा था कि वह असुरक्षित महसूस कर रहा था इसलिए उसने घातक और ग़ैरक़ानूनी हथियार लिए। संजय दत्त और उनसे सहानुभूति रखने वाले शुरू से यह तर्क दे रहे हैं कि मुंबई दंगों के समय उनको धमकियां मिल रही थीं, इसलिए संजय ने अनीस से एके-56 मांगी। मतलब साफ़ है, जो लोग इन मुद्दे पर बेलौस टिप्पणी कर रहे हैं, उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी ही नहीं। मतलब संजय के क़बूलनामे को स्वीकार करना और मान लेना कि उनके परिवार को जानमाल का ख़तरा था, अभिनेता के लिए टाडा जज पीडी कोड़े की ओर से की गई अहम मेहरबानी थी।
दरअसल, गिरफ़्तार होने के बाद संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट तक जाने के बावजूद साल भर तक बेल नहीं मिली। ज़मानत रद होने के बाद बेटे का जेल प्रवास साल भर से ज़्यादा खिंचने से सुनील दत्त विचलित हो गए। वह हर पार्टी के नेता का चक्कर लगाने लगे। उन्होंने धुर कांग्रेस विरोधी शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के बंगले पर भी गए। दरअसल, उसी दौरान सेक्यूलर जमात लोगों की ओर से यह शोर मचाया जाने लगा कि टाडा क़ानून का दुरुपयोग हो रहा है। यह भी कहा गया है कि टाडा क़ानून के चलते बड़ी तादाद में ऐसे लोग जेलों में सड़ रहे हैं जिनका आतंकवाद से कुछ लेना-देना भी नहीं। ऐसे लोगों के मामलों पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार ने नौकरशाहों और पुलिस अफ़सरों की एक क़्वासी-ज्यूडिशियल (अर्धन्यायिक) कमेटी का गठन किया गया। यहां संजय दत्त पर एक और बहुत बड़ी मेहरबानी हुई। क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी ने सबसे पहले संजय को ही सबसे ज़्यादा “टाडा पीड़ित” माना और उनको ज़मानत पर रिहा करने की सिफ़ारिश कर दी। संजय के 18 महीने में ही जेल से बाहर आने में मातोश्री की विशेष कृपा रही। जबकि इसी मामले में बाबा चौहान, मंज़ूर अहमद, यूसुफ़ नलवाला, समीर हिंगोरा और हनीफ़ कड़ावाला जैसे लोगों को ज़मानत के लिए 5 साल या उससे अधिक इंतज़ार करना पड़ा। इतना ही नहीं सालेम ने जिस 64 वर्षीय ज़ैबुन्निसा क़ादरी के घर में 2 एके-56 और हथियार 2 दिन रखे थे। उसे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा और अदालत ने उसे पांच साल की सज़ा सुनाई है। हालांकि कन्साइनमेंट का बॉक्स खोलना तो दूर ज़ैबुन्निसा ने तो उसे देखा तक नहीं जबकि संजय ने बॉक्स को खोला था और हथियार देखने के बाद अनीस को फोन पर बताया भी कि “सामान” मिल गया। हैरानी वाली बात यह है कि 12 मार्च 1993 को सीरियल ब्लास्ट की ख़बर सुनकर मॉरीसश में शूटिंग कर रहे संजय डर गए और अपने मित्र नलवाला को फोन करके कहा कि उनके घर (बेडरूम) में रखी एक 56 राइफ़ल और बाक़ी हथियार फ़ौरन नष्ट कर दे।
बहरहाल, सीरियल ब्लास्ट की जांच का ज़िम्मा संभालने के बाद सीबीआई ने जाने या अनजाने कई ऐसे फ़ैसले लिए जिसका सीधा लाभ केवल और केवल संजय दत्त को मिला। मसलन संजय की अनीस से बातचीत के कॉल्स डिटेल्स को आरोप पत्र से ही अलग कर दिया। मुंबई पुलिस ने इसे जुटाने में कड़ी मेहनत की थी लेकिन सीबीआई ने उसे डस्टबिन में फेंक दिया। इस दस्तावेज़ से आसानी से सिद्ध हो रहा था कि संजय का अनीस से बहुत घनिष्ठ संबंध है और जो राइफ़ल संजय को दी गई वह दाऊद द्वारा रायगड़ समुद्र तट के रास्ते भेजे गए कन्साइन्मेंट के साथ देश में लाई गई थी। यानी संजय उस आतंकवादी साज़िश में सीधे सीधे शामिल हो जाते क्योंकि दाऊद का भाई उनके “टच” में था। सीबीआई ने दूसरी और सबसे बड़ी मेहरबानी संजय पर सालेम के ट्रायल को बमकांड के मुक़दमे से अलग करके की। जी हां, सालेम को भारत लाए जाने के बाद उसके केस को बमकांड से अलग कर दिया गया। सीबीआई की ओर से तर्क दिया गया कि मुक़दमे की सुनवाई में अनावश्यक देरी से बचने के लिए ऐसा किया गया। दरअसल, संजय और दाऊद-अनीस के बीच सालेम अहम कड़ी था जो पुष्ट कर देता कि कम से कम संजय एके-56 लाने की साज़िश में शामिल थे। यह सीबीआई या कहें कांग्रेस (तब सीबीआई की असली बॉस) की ओर से संजय पर बड़ी मेहरबानी थी जिसने उन्हें कम से कम 10 साल की सज़ा से बाल-बाल बचा लिया। देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी ने 2002 में संजय की छोटा शकील से बातचीत का भी संज्ञान नहीं लिया। हालांकि इसके बाद उसे संजय की बेल रद करने के लिए कोर्ट में अप्रोच करना चाहिए था। इसे सीबीआई की संजय के लिए एक और मेहरबानी कहा जा सकता है।
केस के ट्रायल के दौरान भी संजय को मेहरबानी का प्रतिसाद मिलता रहा और सालेम की लाई एके-56 राइफ़ल से जुड़े सभी आरोपियों को टाडा के तहत लंबी सज़ा मिली लेकिन संजय केवल आर्म्स ऐक्ट के तहत दोषी माने गए और उन्हें केवल 6 साल की सज़ा सुनाई गई। सीबीआई इसके बाद भी संजय पर मेहरबानी की बारिश करती रही और टाडा कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ही नहीं दी। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट में भी किसी माननीय जस्टिस ने यह सवाल नहीं किया कि एक ही मामले में दो तरह के फ़ैसले कैसे आए और अगर आ गए हैं तो कम सज़ा पाने वाले के ख़िलाफ़ अपील क्यों नहीं की गई। उलटे देश की सबसे बड़ी अदालत ने संजय दत्त की सज़ा एक साल और कम कर दी। अगर सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल किया होता तो शर्तिया संजय के वकीलों के लिए जवाब देना आसान नहीं होता।
जस्टिस मार्कंडेय काटजू की अगुवाई में लोग संजय दत्त के जेल जाने के बाद इनको “मानवीय” आधार पर माफ़ कर देने की पैरवी कर रहे थे। संभवत: उसी अपील का नतीजा रहा है संजय दत्त को बार बार पेरोल और फर्लो के तहत जेल से बाहर आने का अवसर मिलता रहा। बहरहाल, संजय दत्त अपनी सज़ा पूरी करके सामान्य नागरिक की तरह जीवन जी रहे हैं, ऐसे में उनका मूल्याँकन करते समय उन ग़लतियों पर भी प्रकाश डालना होगा जिनके कारण देश की न्याय व्यवस्था ने उन्हें सज़ा सुनाई थी।
समाप्त
हरिगोविंद विश्वकर्मा
अभिनेता संजय दत्त की बायोपिक ‘संजू’ हिट हो गई। राजकुमार हिरानी ने दोस्ती का फ़र्ज़ निभा दिया। करोड़ों की कमाई कर रहे हैं सो अलग। फ़िल्म देखने वाले हर दर्शक को मुंबई बमकांड के षड्यंत्र और उसमें संजय दत्त की भूमिका के बारे में भी पढ़ना चाहिए ताकि वे जान सकें और यह महसूस कर सकें कि अगर संजय दत्त ने हथियार लाने की जानकारी मुंबई पुलिस को समय रहते दे दी होती तो निश्चित रूप से 257 निर्दोष लोगों की जान बच जाती। ब्लास्ट की जांच करने वाले पूर्व पुलिस कमिश्नर महेश नारायण सिंह कहते हैं कि अगर संजय दत्त ने जनवरी 1993 में ही अपने महान देशभक्त पिता सुनील दत्त को एके 56 के बारे में बता दिया होता और अगर सुनील दत्त पुलिस को बता देते तो शायद मार्च 1993 के मुंबई ब्लास्ट न होते।
फ़िलहाल इस बात पर चर्चा जरूरी है कि क्या संजय ने अपराध जान-बूझकर किया या उनसे अनजाने में हो गया। जब संजय ने मुंबई बमकांड के मास्टर माइंड और मुख्य आरोपी दाऊद इब्राहिम कासकर के भाई अनीस से अपनी और अपने परिवार की रक्षा करने के लिए एके-56 मंगवाई थी, तब उनकी उम्र 33 साल थी यानी उन्हें बालिग हुए 15 साल बीत चुका था। मज़ेदार पहलू यह है कि संजय बांद्रा के जिस पॉश पाली हिल इलाक़े में रहते हैं, वहां तो दंगा हुआ ही नहीं। मुंबई के दंगे पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि झुग्गीबाहुल्य क्षेत्रों में हुए थे। सो संजय का अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की दुहाई देना सरासर बेमानी है। यानी उस समय कम से कम संजय या उनके परिवार के लिए किसी तरह के ख़तरे का सवाल ही नहीं पैदा होता था। संजय दत्त के सांसद पिता सुनील दत्त के पास पहले ही 3 लाइसेंसी हथियार थे।
दंगे, दरअसल, मुस्लिम इलाकों से ही शुरू हुए और उस मारकाट में सबसे जानमाल का नुकसान अल्पसंख्यक समुदाय को ही उठाना पड़ा। वस्तुत: 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश की तरह मुंबई में भी दंगा भड़क उठा था। देश की आर्थिक राजधानी में 6 से 10 दिसंबर 1992 और 6 से 15 जनवरी 1993 के दौरान दो चरण में ख़ून की होली खेली गई, जिसमें, दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग के मुताबिक, कुल 850 लोग (575 मुसलमान और 275 हिंदू) दंगे में मारे गए। कहने का तात्पर्य संजय ने किसी तरह का ख़तरा न होने के बावजूद केवल शेखी बघारने के लिए एके-56 राइफ़ल जैसा ख़तरनाक़ हथियार मंगवाया था।
सच पूछो तो, 1993 में मुंबई बम विस्फोट से पहले तक माफिया डॉन दाऊद केवल वांछित ख़तरनाक अपराधी था, इसलिए बॉलीवुड के सितारे चाहे-अनचाहे उनके बुलाने पर अकसर दुबई पहुंच जाते थे। इसके लिए उन्हें अच्छा नज़राना मिल जाता था। सिल्वर स्क्रीन के लोगों के लिए दुबई तो मुंबई के बाद दूसरा ठिकाना था। नब्बे के दशक में कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री नहीं होगा, जिसने दाऊद के दरबार में ठुमके न लगाए हों। तब दुबई एक महफ़ूज़ ऐशगाह था। लिहाज़ा, संजय दत्त भी दाऊद ऐंड कंपनी के ग्लैमर से ख़ुद को नहीं बचा पाए। मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक एक बार वे अनीस के संपर्क में आए तो दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गई। उनमें अकसर बातचीत होने लगी। संजय अनीस से अपने पर्सनल इशूज़ भी शेयर करने लगे। संजय समेत बॉलीवुड के लोगों को दाऊद या उससे जुड़े अपराधियों से ताल्लुक़ात रखने के ख़तरे का अहसास 12 मार्च 1993 को मुंबई में भारी तबाही के बाद हुआ। अगर संजय दत्त मुंबई धमाकों के बाद अनीस से जान-पहचान ख़त्म कर लेते तो इस बात में थोड़ा दम रहता कि उनसे अनजाने में ग़लती हुई है और वे भूल-सुधार करना चाहते हैं। लेकिन बमकांड का आरोपी होते हुए भी 2002 में संजय (तब उनकी उम्र 42 साल थी) ने छोटा शकील से फिर बातचीत की और उससे अभिनेता गोविंदा को सबक सिखाने का आग्रह किया, जिसे मुंबई पुलिस ने रिकॉर्ड कर लिया। यानी संजय दत्त ने अपनी ग़लतियों से कुछ भी नहीं सीखा। उच्च पदों पर बैठे लोगों को माफी या सज़ा कम करने की किसी भी अपील पर विचार करते समय इस तथ्य को ज़ेहन में ज़रूर रखना चाहिए था।
हालांकि इस सच को नहीं भूलना चाहिए कि संजू बाबा पर शुरू से हर कोई मेहरबान रहा है। चूंकि उन्हें फ़िल्म में हीरो की तरह पेश किया गया है, तो इस बात की पड़ताल ज़रूरी है कि संजय को कांग्रेस सांसद का बेटा होने का कहां-कहां फ़ायदा मिला और किस-किस ने उन पर मेहरबानी की बरसात की। 12 मार्च 1993 के बाद से संजय दत्त से जुड़े घटनाक्रम पर ग़ौर करने के बाद यह साफ़ हो जाता है कि अभिनेता पर मेहरबानियों की बरसात शुरू से हो रही है। यह सिलसिला तब शुरू हुआ जब पहली बार उनका नाम बमकांड में सामने आया।
पहली मेहरबानी मुंबई पुलिस की ओर से तब हुई जब बमकांड में सज़ायाफ़्ता इब्राहिम मुस्तफ़ा चौहान उर्फ बाबा ने 3 अप्रैल 1993 को संजय का नाम लिया। बाबा ने ख़ुलासा किया कि इस साज़िश में एक बहुत बड़ी मछली शामिल है जिसका नाम सुनकर लोगों के होश उड़ जाएंगे। जब बाबा ने हैवीवेट कांग्रेस सांसद सुनील दत्त के बेटे संजय दत्त का नाम लिया तो विशेष जांच टीम के मुखिया राकेश मारिया भी हतप्रभ रह गए। किसी ने सोचा भी न था कि पदयात्रा करने वाले “शांति के पुजारी” का बेटा बम धमाके की साज़िश का हिस्सेदार हो सकता है। बहरहाल, मुन्नाभाई पर मेहरबानी हुई और तत्कालीन पुलिस आयुक्त अमरजीत सिंह सामरा ने राकेश मारिया को संजय का घर रेड करने की इजाज़त नहीं दी। हालांकि बाद में खुलासा हुआ कि इसके पीछे राजनीतिक वजह थी क्योंकि संजय के पिता कांग्रेस के लॉ मेकर थे। सूबे में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी और कांग्रेस के लोकप्रिय सांसद सुनील दत्त की पार्टी के आला नेताओं से अच्छी ट्यूनिंग थी।
बहरहाल, 19 अप्रैल 1993 की रात मॉरीशस से लौटते ही संजय गिरफ़्तार कर लिए गए। लेकिन गिरफ़्तारी के बाद उनसे पुलिस बेहद शराफ़त से पेश आई। यह भी पुलिस की ओर से की गई मेहरबानी थी क्योंकि रात में संजय को अफ़सर के केबिन में रखे सोफ़े पर सोने की इजाज़त दी गई। उनसे आरोपी की तरह नहीं, राजनेता के बेटे की तरह पूछताछ की गई यानी उनसे थर्ड डिग्री इंटरोगेशन नहीं हुआ। हालांकि संजय ने “ईमानदारी” से एमएन सिंह (तत्कालीन क्राइम ब्रांच प्रमुख) और मारिया को बता दिया कि दाऊद का भाई अनीस उनका दोस्त है और दोनों की अकसर बातचीत होती रहती है। अनीस ने तीन एके-56 राइफ़ल्स, 9 मैगज़िन्स, 450 राउंड्स (गोली) और 20 हैंडग्रेनेड्स (हथगोले) का कन्साइनमेंट उनके पास भेजा। संजय के मुताबिक प्रतिबंधित हथियारों की ख़ेप लेकर अनीस का आदमी अबू सालेम 16 जनवरी 1993 की सुबह उनके घर आया। सालेम के साथ समीर हिंगोरा और बाबा चौहान भी थे। बहरहाल, तीन दिन बाद यानी 18 जनवरी की शाम सालेम हनीफ़ कड़ावाला और मंज़ूर अहमद के साथ फिर संजय के घर आया और 2 एके-56 राइफ़ल, कुछ हैंडग्रेनेड और गोलियां वापस लेकर गया। यानी संजय ने उसी अनीस से ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से एके-56 राइफ़ल मंगवाई जो बमकांड का मुख्य आरोपी था। दरअसल, आरोप पत्र के मुताबिक, दाऊद ने 300 सौ चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 राइफ़ल्स और सैकड़ों की संख्या में ग्रेनेड, मैगज़िन, गोलियां और कई क्विंटल विस्फोटक पावडर आरडीएक्स (दाऊद की साज़िश कितनी भयंकर थी कि पुलिस ने विस्फोट के बाद भी 3.5 टन आरडीएक्स, 71 AK 47 और AK 56 और सैकड़ों ग्रेनेड ज़ब्त किया) 9 जनवरी और 9 फ़रवरी 1993 के बीच कई खेप में रायगड़ के दिघी जेट्टी और शेखाड़ी के रास्ते मुंबई में भेजी। ये काम एक अन्य मास्टर माइंड टाइगर मेमन और मोहम्मद डोसा लेकर आए। हथियारों और आरडीएक्स से भरा ट्रक रायगड़ के जंगल के रास्ते नासिक होता हुआ गुजरात रवाना हुआ। कस्टम की टीम ने ट्रक को ट्रैप किया भी लेकिन आठ लाख रुपए रिश्वत मिलने पर उसे जाने की इजाज़त दे दी। कस्टम की उस टीम के लोगों को टाडा के तहत सज़ा सुनाई गई।बहरहाल, ट्रक का सामान गुजरात के भरुच ज़िले में बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में छिपाया गया। यहां अंकलेश्वर में इस टीम में अबू सालेम शामिल हो गया। हथियारों को पूर्व निर्धारित ठिकानों और लोगों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सालेम को दी गई। वह 9 एके-56 राइफ़ल, सौ से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर सड़क के रास्ते मुंबई आया। सालेम ने अनीस के कहने पर उसी कन्साइनमेंट में से एक राइफ़ल संजय को दी। यानी संजय ने 12 मार्च के धमाके के बाद जिस राइफल को नष्ट करने के लिए यूसुफ़ नलवाला को मॉरीशस से फोन किया, वह राइफ़ल दिग्घी जेटी पर ही उतारी गई थी।
इसके बावजूद, आतंकवाद एवं विध्वंस निरोधक क़ानून (टाडा) जज ने संजय दत्त का वह क़बूलनामा स्वीकार कर लिया जिसमें मुन्नाभाई ने कहा था कि वह असुरक्षित महसूस कर रहा था इसलिए उसने घातक और ग़ैरक़ानूनी हथियार लिए। संजय दत्त और उनसे सहानुभूति रखने वाले शुरू से यह तर्क दे रहे हैं कि मुंबई दंगों के समय उनको धमकियां मिल रही थीं, इसलिए संजय ने अनीस से एके-56 मांगी। मतलब साफ़ है, जो लोग इन मुद्दे पर बेलौस टिप्पणी कर रहे हैं, उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी ही नहीं। मतलब संजय के क़बूलनामे को स्वीकार करना और मान लेना कि उनके परिवार को जानमाल का ख़तरा था, अभिनेता के लिए टाडा जज पीडी कोड़े की ओर से की गई अहम मेहरबानी थी।
दरअसल, गिरफ़्तार होने के बाद संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट तक जाने के बावजूद साल भर तक बेल नहीं मिली। ज़मानत रद होने के बाद बेटे का जेल प्रवास साल भर से ज़्यादा खिंचने से सुनील दत्त विचलित हो गए। वह हर पार्टी के नेता का चक्कर लगाने लगे। उन्होंने धुर कांग्रेस विरोधी शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के बंगले पर भी गए। दरअसल, उसी दौरान सेक्यूलर जमात लोगों की ओर से यह शोर मचाया जाने लगा कि टाडा क़ानून का दुरुपयोग हो रहा है। यह भी कहा गया है कि टाडा क़ानून के चलते बड़ी तादाद में ऐसे लोग जेलों में सड़ रहे हैं जिनका आतंकवाद से कुछ लेना-देना भी नहीं। ऐसे लोगों के मामलों पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार ने नौकरशाहों और पुलिस अफ़सरों की एक क़्वासी-ज्यूडिशियल (अर्धन्यायिक) कमेटी का गठन किया गया। यहां संजय दत्त पर एक और बहुत बड़ी मेहरबानी हुई। क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी ने सबसे पहले संजय को ही सबसे ज़्यादा “टाडा पीड़ित” माना और उनको ज़मानत पर रिहा करने की सिफ़ारिश कर दी। संजय के 18 महीने में ही जेल से बाहर आने में मातोश्री की विशेष कृपा रही। जबकि इसी मामले में बाबा चौहान, मंज़ूर अहमद, यूसुफ़ नलवाला, समीर हिंगोरा और हनीफ़ कड़ावाला जैसे लोगों को ज़मानत के लिए 5 साल या उससे अधिक इंतज़ार करना पड़ा। इतना ही नहीं सालेम ने जिस 64 वर्षीय ज़ैबुन्निसा क़ादरी के घर में 2 एके-56 और हथियार 2 दिन रखे थे। उसे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा और अदालत ने उसे पांच साल की सज़ा सुनाई है। हालांकि कन्साइनमेंट का बॉक्स खोलना तो दूर ज़ैबुन्निसा ने तो उसे देखा तक नहीं जबकि संजय ने बॉक्स को खोला था और हथियार देखने के बाद अनीस को फोन पर बताया भी कि “सामान” मिल गया। हैरानी वाली बात यह है कि 12 मार्च 1993 को सीरियल ब्लास्ट की ख़बर सुनकर मॉरीसश में शूटिंग कर रहे संजय डर गए और अपने मित्र नलवाला को फोन करके कहा कि उनके घर (बेडरूम) में रखी एक 56 राइफ़ल और बाक़ी हथियार फ़ौरन नष्ट कर दे।
बहरहाल, सीरियल ब्लास्ट की जांच का ज़िम्मा संभालने के बाद सीबीआई ने जाने या अनजाने कई ऐसे फ़ैसले लिए जिसका सीधा लाभ केवल और केवल संजय दत्त को मिला। मसलन संजय की अनीस से बातचीत के कॉल्स डिटेल्स को आरोप पत्र से ही अलग कर दिया। मुंबई पुलिस ने इसे जुटाने में कड़ी मेहनत की थी लेकिन सीबीआई ने उसे डस्टबिन में फेंक दिया। इस दस्तावेज़ से आसानी से सिद्ध हो रहा था कि संजय का अनीस से बहुत घनिष्ठ संबंध है और जो राइफ़ल संजय को दी गई वह दाऊद द्वारा रायगड़ समुद्र तट के रास्ते भेजे गए कन्साइन्मेंट के साथ देश में लाई गई थी। यानी संजय उस आतंकवादी साज़िश में सीधे सीधे शामिल हो जाते क्योंकि दाऊद का भाई उनके “टच” में था। सीबीआई ने दूसरी और सबसे बड़ी मेहरबानी संजय पर सालेम के ट्रायल को बमकांड के मुक़दमे से अलग करके की। जी हां, सालेम को भारत लाए जाने के बाद उसके केस को बमकांड से अलग कर दिया गया। सीबीआई की ओर से तर्क दिया गया कि मुक़दमे की सुनवाई में अनावश्यक देरी से बचने के लिए ऐसा किया गया। दरअसल, संजय और दाऊद-अनीस के बीच सालेम अहम कड़ी था जो पुष्ट कर देता कि कम से कम संजय एके-56 लाने की साज़िश में शामिल थे। यह सीबीआई या कहें कांग्रेस (तब सीबीआई की असली बॉस) की ओर से संजय पर बड़ी मेहरबानी थी जिसने उन्हें कम से कम 10 साल की सज़ा से बाल-बाल बचा लिया। देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी ने 2002 में संजय की छोटा शकील से बातचीत का भी संज्ञान नहीं लिया। हालांकि इसके बाद उसे संजय की बेल रद करने के लिए कोर्ट में अप्रोच करना चाहिए था। इसे सीबीआई की संजय के लिए एक और मेहरबानी कहा जा सकता है।
केस के ट्रायल के दौरान भी संजय को मेहरबानी का प्रतिसाद मिलता रहा और सालेम की लाई एके-56 राइफ़ल से जुड़े सभी आरोपियों को टाडा के तहत लंबी सज़ा मिली लेकिन संजय केवल आर्म्स ऐक्ट के तहत दोषी माने गए और उन्हें केवल 6 साल की सज़ा सुनाई गई। सीबीआई इसके बाद भी संजय पर मेहरबानी की बारिश करती रही और टाडा कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ही नहीं दी। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट में भी किसी माननीय जस्टिस ने यह सवाल नहीं किया कि एक ही मामले में दो तरह के फ़ैसले कैसे आए और अगर आ गए हैं तो कम सज़ा पाने वाले के ख़िलाफ़ अपील क्यों नहीं की गई। उलटे देश की सबसे बड़ी अदालत ने संजय दत्त की सज़ा एक साल और कम कर दी। अगर सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल किया होता तो शर्तिया संजय के वकीलों के लिए जवाब देना आसान नहीं होता।
जस्टिस मार्कंडेय काटजू की अगुवाई में लोग संजय दत्त के जेल जाने के बाद इनको “मानवीय” आधार पर माफ़ कर देने की पैरवी कर रहे थे। संभवत: उसी अपील का नतीजा रहा है संजय दत्त को बार बार पेरोल और फर्लो के तहत जेल से बाहर आने का अवसर मिलता रहा। बहरहाल, संजय दत्त अपनी सज़ा पूरी करके सामान्य नागरिक की तरह जीवन जी रहे हैं, ऐसे में उनका मूल्याँकन करते समय उन ग़लतियों पर भी प्रकाश डालना होगा जिनके कारण देश की न्याय व्यवस्था ने उन्हें सज़ा सुनाई थी।
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