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मंगलवार, 19 मई 2015

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मिशन विश्वनेता

हरिगोविंद विश्वकर्मा
देश के शक्तिशाली प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ऑफ़िस में एक साल का कार्यकाल पूरा कर रहे हैं। लिहाज़ा, उनके कार्यकाल का आंकलन होने लगा है। हालांकि, किसी नेता की सफलता या असफलता का आकलन एक साल में नहीं किया जा सकता लेकिन एक साल यह पता लगाने के लिए पर्याप्त होता है कि वह नेता किस लाइन ऑफ़ ऐक्शन की ओर जा रहा है. वैसे सत्ता की बाग़डोर संभालने के बाद से ही मोदी जिस तरह विश्व-भ्रमण कर रहे हैं, राजनीतिक हलक़ों में अटकलें लगाई जाने लगी हैं कि कहीं उनकी इच्छा विश्वनेता बनने की तो नहीं है? कई जानकार कहने लगे हैं कि मोदी की विदेश यात्राओं से तो यही लगता है कि पांच साल में वह अपने को विश्वनेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, और, फिलहाल उसी मिशन पर काम कर रहे हैं।
हां, इस बात पर दो राय नहीं कि साल भर में मोदी ने विदेश यात्राओं के तमाम रिकॉर्ड तोड़ चुके हैं। वस्तुतः प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद भूटान यात्रा से विदेश दौरे जो सिलसिला शुरू हुआ, वह फ़िलहाल जारी है। अब तक मोदी अमेरिका, जापान, फ्रांस, चीन, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे बड़े देशों और नेपाल, फ़िज़ी, मॉरीशस और मंगोलिया जैसे छोटे देशों की यात्रा कर चुके हैं। कह सकते हैं कि मोदी अफ्रीका को छोड़कर सभी महाद्वीपों के 18 देशों के दौरे पर जा चुके हैं। सिंगापुर तो मोदी वहां के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे ली कुआन येव के अंतिम संस्कार में चले गए थे।
मज़ेदार बात यह है कि जैसे पिछले साल आम चुनाव के दौरान मोदी भारत के हर शहर को गुजरात से जोड़ देते थे, उसी तरह हर देश को आजकल वह भारत से जोड़ रहे हैं। नवीनतम जानकारी यह है कि मोदी ने 18 मई को मंगोलिया की संसद को संबोधित करते हुए कहा कि भारत और मंगोलिया का बहुत प्राचीन आध्यात्मिक रिश्तारहा है। कहने का मतलब, मोदी हर देश के साथ भारत का रिश्ता गढ़ ही लेते हैं। कई टीकाकार मोदी की इस ख़ासियत के क़ायल भी हैं। वैसे, मोदी अपनी हर विदेश यात्रा की जमकर मार्केटिंग भी करते हैं। विदेश यात्राओं की ऐसी रिपोर्टिंग करवाते हैं कि सूचनाओं के लिए मीडिया पर निर्भर व्यक्ति सोचने लगता है कि मोदी का क्रेज़ जिस तरह पिछले चुनाव में देश में था, अब वही क्रेज़ अब विदेशों में है। मोदी की जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया यात्रा इस तरह की मार्केटिंग की मिसाल है, जैसे जापान में ढोल बजाया था वैसे ही मोदी ने मंगोलिया में वहां के वाद्य को बजाने की कोशिश की। इस स्पेशल रिपोर्ट दिखाई भी गई और लिखी भी।
पिछले साल नरेंद्र मोदी के शपथ-ग्रहण समारोह में पाकिस्तान समेत दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सभी सदस्य देश के राष्ट्राध्यक्ष आमंत्रित किए गए थे। मोदी की वह पहल राजनयिक स्तर पर काफी सराही गई थी। विदेशी मामलों में दख़ल रखने टीकाकारों ने कहा था, कट्टर हिंदूवादी नेता के प्रधानमंत्री बनने की घटना को ऐतिहासिक महत्व की घटना साबित करने के लिए ही शपथग्रहण में सभी को न्यौता भेजकर बुलवाया गया था, जो एक सकारात्मक शुरुआत थी। मोदी ख़ुद अमेरिका गए और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को भी गणतंत्र दिवस के मौक़े पर भारत बुलाने में सफल रहे। उनके साथ 'मन की बात' भी प्रस्तुत की।
मोदी की इन विदेश यात्राओं का कितना फ़ायदा इस देश या देशवासियों को हुआ? इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। इतना ज़रूर है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो विज़िबल हो। यानी विश्वमंच पर अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसे उल्लेखनीय घटना कहा जा सके। यह दावा करना कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने और धुआंधार विदेश यात्राओं से दुनिया में भारत की हैसियत बढ़ गई है, सही नहीं होगा। ऐसा कहने वाले एक झूठे आशावाद की परिकल्पना कर रहे हैं।
दरअसल, अमेरिका ही नहीं पश्चिम के क़रीब-क़रीब सभी देश चीन से आशंकित रहते हैं क्योंकि अपना राष्ट्रीय हित साधने में चीन नंबर एक है। अपने फ़ायदे के लिए बीजिंग कब क्या कर दे, कोई नहीं जानताइसीलिए किसी को चीन पर विश्वास नहीं रहता है। यहां तक कि चीन की पाकिस्तान से दोस्ती एक सोची समझी रणनीति के तहत है। चीन अपने को सिर्फ़ अपने प्रति जिम्मेदार मानता है, इसीलिए यूरोप और अमेरिका को भारत में चीन का एक विकल्प दिखता है। लिहाज़ा, विश्वमंच पर पीठ थपथपाने वाला आशावादी बयान देकर नई दिल्ली को प्रोत्साहित करते रहते हैं। हमारे प्रधानमंत्रीजी को भी विदेशों से वहीं प्रोत्‍साहन मिला है, और वे उसी से गद्गद् हैं।
अगर इतिहास पर नज़र डालें तो विश्वनेता बनने की बीमारी भारतीय नेताओं में ख़ासी पुरानी रही है। पं. जवाहरलाल नेहरू की विश्वनेता बनने की बड़ी हसरत थी। लिहाज़ा, उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन शुरू किया। विश्वनेता बनने की चाह में नेहरू ने हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया, लेकिन उनकी आंख तब खुली, जब चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया और अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में बहुत बड़े भूभाग को हड़प लिया।
इंदिरा गांधी में भी यह लालसा किसी से छिपी नहीं थी, इसीलिए वह भी गुटनिरपेक्ष आंदोलन को खाद-पानी देती रहीं। हालांकि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध ख़त्म होते ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन रूपी पौधा अपने आप सूख गया। इसी तरह राजीव गांधी ने भी बतौर मिस्टर क्लीनकई देशों की धुआंधार यात्रा की। कई राष्ट्राध्यक्षों ने तो प्रोटोकोल को धता-बताकर राजीव की आगवानी की। उसके बाद के नेता वस्तुतः अल्पमत सरकारों के मुखिया रहे, लिहाज़ा, वे किसी तरह सरकार चलाने और साथी दलों के नेताओ के नखरे झेलने में ही बिज़ी रहे।
कुल मिलाकर विश्वनेता बनने के आकांक्षी भारतीय नेताओं की कोशिश चाहे रंग लाई हो या नहीं, लेकिन भारत की विश्वमंच पर आज भी वही औक़ात है, उसकी जो औक़ात स्वतंत्रता मिलने के समय थी। हां, देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति विदेश जिस देश की यात्रा करता है, वह देश संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का पब्लिकली समर्थन करता है। कई विश्वमंच पर अमेरिका भी भारत के दावे का समर्थन कर चुका है। चीन और पाकिस्तान के छोड़ दें, तो दुनिया का हर छोटा-बड़ा देश मानता है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट मिलनी चाहिए, लेकिन सच यह है कि भारत को वीटो पॉवर अभी तक नहीं मिल पाया है। देश को अभी कितना इंतज़ार करना होगा कोई नहीं जानता। कभी-कभी तो लगता है कि भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य कभी नहीं बन पाएगा। मोदी भी जिस देश के दौरे पर जा रहे हैं, उस देश की लीडरशिप भारत के दावे का समर्थन का ऐलान कर देते हैं जो पिछले कई दशक से चल रहा है।
बहरहाल, राजनैतिक टीकाकार कहने लगे हैं कि मोदी जितना ध्यान विदेशी निदेश पर लगा रहे हैं उसके आधा अगर देश के अंदरूनी मामले पर लगाए होते तो नतीजा दिखने लगता, तब बलिया के बीजेपी सांसद भरत सिंह को यह न कहना पड़ता कि इस सरकार ने एक साल में भाषण पिलाने के अलावा ऐसा कुछ नहीं किया कि मतदाताओं को बताया जा सके। जहां तक निवेश की बात है तो भारत ने 1991 से अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक देशों के लिए खोल रखी है, फिर भी विदेशी निवेश उतना नहीं आ रहा है, जितनी उम्मीद थी। जाहिर है, विदेशी निवेश किसी प्रधानमंत्री के कहने से नहीं बल्कि अपने सुविधा और फ़ायदे के मुताबिक आएगा।
मोदी ने पिछले साल जब सत्ता संभाली थी लोगों ने यह कयास लगाया था कि उनकी अगुवाई में देश कुछ ठोस क़दम उठाएगा। मसलन, स्विस और दूसरे विदेशी बैंकों में जमा काला धन भारत आएगा और भारत की छवि एक सशक्त देश की बनेगी, लेकिन एक साल में लफ़्फ़ाज़ी के सिवाय हुआ कुछ नहीं। काले धन पर तो बीजेपी के एक सीनियर लीडर को कहना पड़ा कि मोदी के उस बयान को सीरियस न माना जाए, यानी मोदी ने चुनाव में कैजुअली कह दिया था कि उनकी सरकार हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए जमा करवाएगी। वैसे देखा जाए तो दूसरे मोर्चों पर भी मोदी के कार्यकाल कछ नहीं हुआ। कहीं-कहीं तो वह मनमोहन से भी गए गुज़रे साबित हो रहे हैं।
पाकिस्तान की ओर से सीमा पर अंधाधुंध फायरिंग चलती रहती है। मोहम्मद हाफिज़ सईद आए दिन भारत को धमकी देता रहता है। इतना ही नहीं, मुंबई आतंकी हमले के मास्टरमाइंड ज़किउर रहमान लखवी को रिहा कर दिया गया। भारत विरोध जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाया. दाऊद इब्राहिम के बारे में भारत अब भी प्रमाण देने में व्यस्त है कि भारत में वांछित यह अपराधी पाकिस्तान में ही है। कुल मिलाकर इन तमाम मसलों पर मोदी के पीरियड में भी भारत कुछ नहीं कर पाया है सिवाय विरोध जताने के। इससे भारत की छवि दुनिया में साफ़्ट नेशनकी बन गई है। साफ़्ट नेशन की यही इमैज विश्वमंच पर भारत की भूमिका को सीमित कर देती है।

अटलबिहारी वाजपेयी ने परमाणु विस्फोट करके इस इमैज से निकलने की कोशिश की थी, लेकिन बहुमत न होने से वह बैकफुट पर आ गए थे। मोदी के साथ ऐसी कोई मज़बूरी नहीं थी। उन्हें महानायक बनने का मौक़ा मिला था, लेकिन उनके एक साल के कामकाज पर नज़र डालें तो यही लगता है, फिलहाल मोदी वह मौक़ा गंवा रहे हैं।

रविवार, 25 जनवरी 2015

भारत केवल टैक्स देने वालों का देश, हर सुविधा और योजना केवल टैक्स देने वालों के लिए...

हरिगोविंद विश्वकर्मा
आपको बुरा लग सकता है, लेकिन सच यही है कि यह पूरा देश महज 10 फ़ीसदी लोगों का होकर रह गया है। वहीं दस प्रतिशत लोग गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस समेत तमाम सरकारी त्यौहार मनाते हैं। फिलहाल देश की कुल आबादी 1.25 अरब है। वित्त मंत्रालय के मुताबिक 2012-13 में केवल 42,800 लोगों की सालाना आमदनी एक करोड़ रुपए या उससे ज़्यादा थी। यानी फ़र्स्ट कैटेगरी में आबादी का मात्र 0.00354 फ़ीसदी ऐसा है, जो हर साल एक करोड़ या उससे ज़्यादा कमा रहा है। 

इस फेहरिस्मेंत उद्योगपति, बिल्डर, कारोबारी, राजनेता, अभिनेता, बड़े खिलाड़ी और भ्रष्ट नौकरशाह, भ्रष्ट पुलिस अफ़सर और भ्रष्ट जज शामिल हैं। इस कैटेगरी में सत्तावर्ग के प्रति स्वामिभक्ति दिखाने वाले सेकेंड कैटेगरी वे लोग भी शामिल किए जा सकते हैं जिनकी जनसंख्या 4.06 लाख है। ये भी देश की आबादी का महज 0.0319 फ़ीसदी हिस्सा है। इनकी सालाना कमाई 20 लाख से 1 करोड़ के बीच होती है। इन दोनों कैटेगरी (फ़र्स्ट और सेकेंड कैटेगरी) के लोगों को सत्तावर्ग का आदमी यानी रूलिंग फ़ैमिली कहा जाता है। अगर इन दोनों वर्ग को मिला दीजिए तो होता हैः 0.00354 + 0.03190 = 0.03544 फीसदी। यह देश की कुल आबादी का एक (1.0) फ़ीसदी भी नहीं है। आधी (0.5) फ़ीसदी या एक चौथाई (0.25) फ़ीसदी भी नहीं है। बल्कि एक आठवां (0.125) फ़ीसदी भी नहीं है और एक सोलहवां (0.0625) फ़ीसदी भी नहीं है। यह आबादी देश की कुल आबादी की एक बत्तीसवां फ़ीसदी के आसपास है।

कहने का मतलब हमारी आबादी का एक बहुत कम हिस्सा ख़ुशहाल है। मनचाही ज़िंदगी जीता है। इनके सामने जीवित रहने या रोज़ी-रोटी का संकट नहीं जो आम आदमी रोज़ाना झेलता है। महंगाई कितनी भी बढ़ जाय सत्तावर्ग को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इनके पास इतनी दौलत है कि आने वाली कई पीढ़ियां ख़र्च नहीं कर पाएंगी। इस वर्ग पर किसी तरह के संकट का असर नहीं होता है। यह वर्ग ठाट से वातानुकूलित घरों में सोता है। जहां भी रहता है, वहां उसे एसी कमरे में रखा जाता है। यह वर्ग केवल प्लेन से सफ़र करता है और समस्याओं के हल करने के लिए वातानुकूलित कमरे में बातचीत करता है। इसी 0.03544 फ़ीसदी हिस्से के लोग लोकसभा और राज्यसभा में पहुंचने की हैसियत रखते हैं। चुनाव के बाद सरकार बनाते हैं। अब सोचिए, आप पर शासन कौन लोग करते हैं और आपके मुक़ाबले उनकी हैसियत क्या है? ये लोग जो भी दान देते हैं, या धर्म-कर्म करते हैं, वह इसलिए करते हैं ताकि इन्हें इनकम टैक्स में छूट मिले। वरना ये हमारे आपकी ओर देखना भी पसंद नहीं करते हैं।

देश की संसद पर इन लोगों का क़ब्ज़ा है। ब्यूरोक्रेसी यानी कार्यपालिका को इन लोगों ने ही बंधक बना रखा है। तमाम इकॉनॉमी में इन्हीं का दख़ल है। शेयर बाज़ार में यही लोग निवेश करते हैं। मुंबई जैसे महानगरों में करोड़ों रुपए के महंगे फ़्लैट ख़रीदने की हैसियत इन्ही लोगों की है। हर छोटी-बड़ी इंडस्ट्रीज़ इनके ही कंट्रोल में है। सभी खेल संघों में अहम पदों पर यही लोग हैं। छोटे-बड़े सभी संस्थानों में इनका ही वर्चस्व है। मीडिया के असली ओनर यही लोग हैं, जहां पत्रकारों को ये लोग टूल की तरह इस्तेमाल करते हैं और ज़रूरत ख़त्म होने पर दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं। सीमा पर सैनिक और आतंकवादी एक दूसरे का ख़ून बहाते हैं लेकिन हर डायलॉग यही लोग करते हैं। देश की 95 फ़ीसदी संपत्ति, संसाधन और धन इन्हीं के क़ब्ज़े में है।

अभी रिज़व बैंक ऑफ़ इंडिया में आरटीआई के ज़रिए एक विस्फोटक सूचना निकाली गई। देश की बड़ी बैंकों ने 5 लाख करोड़ रुपए रिपीट 5 लाख करोड़ रुपए औद्योगिक घरानों को और 3.75 लाख करोड़ रुपए रिपीट 3.75 करोड़ रुपए बिल्डरों यानी रियल इस्टेट की कंपनियों को लोन के रूप में दिया था। अब पौने नौ लाख करोड़ रुपए की यह धनराशि बैड लोन कैटेगरी में रख दी गई है। बैड लोन का मतलब इसकी रिकवरी नहीं हो सकती। इसमें किंगफ़ीशर के कर्मचारियों को वेतन न दे पाने लेकिन पिछले साल 14 करोड़ में आईपीएल टीम के लिए युवराज को ख़रीदने वाले उद्योगपति विजय माल्या शामिल हैं जिनका उधार लिया गया क़रीब 3000 करोड़ रुपए का क़र्ज़ बैड लोन की कैटेगरी में चला गया है। यानी उसे वापस करने की बाध्यता माल्या पर नहीं क्योंकि वह कंपनी ही सिक कंपनी की कैटेगरी में आ गई है तो वे क्या करें। मज़ेदार बात यह है कि इस मामले में अभी तक केवल एक बैंक के बड़े अफ़सर के ख़िलाफ़ कार्रवाई की गई है। बैड लोन को मंज़ूर करने वाले बाक़ी बैंक अफ़सर रिश्वत की रकम से ऐश कर रहे हैं। तो ये हैं रूलिंग क्लास यानी रूलिंग फ़ैमिली।

इस रूलिंग फ़ैमिली का साथ हमारे-आपके बीच के दो कैटेगरी के लोग देते हैं। जिन्हें हम थर्ड कैटेगरी और फोर्थ कैटेगरी कह सकते हैं। आइए इसे भी आंकड़ों के ज़रिए समझते हैं। थर्ड कैटेगरी में देश की आबादी का 0.108 फ़ीसदी हिस्सा यानी 13.78 लाख लोग आते हैं। जिनकी आमदनी 10 से 20 लाख रुपए के बीच होती है। इन पर भी महंगाई वगैरह का बहुत ज़्यादा असर नहीं होता है। इस वर्ग के क़रीब 90 फ़ीसदी लोग सत्ता परिवार की ओर झुके रहते हैं। यानी दलाली या चमचागिरी करते हैं। इसमें फोर्थ कैटेगरी के लोगों को भी शामिल कर लीजिए। फोर्थ कैटेगरी की संख्या 17.88 लाख है और यह आबादी का 0.140 फ़ीसदी है। ये लोग हर साल 5 से 10 लाख रुपए की कमाई कर लेते हैं। इसमें हमारे आप के बीच के मोटी सेलरी वाले चंद सीनियर पत्रकार भी हैं। इस फ़ोर्थ कैटगरी के 80 फ़ीसदी से ज़्यादा लोग यथास्थितिवादी होते हैं। यानी परिवार पालने या दूसरी मज़बूरियों के चलते अपने ज़मीर से समझौता करके सत्ता वर्ग की हां में हां मिलाते हैं और फ़ेसबुक या दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपनी जमात यानी आम आदमी को ख़ूब गाली देते हैं या उसकी आलोचना करते हैं।

अब इन चारों वर्ग को मिला दीजिए तो होता हैः 0.00354 + 0.0319 + 0.108 + 0.140 = 0.28344... यह देश की आबादी का आधा प्रतिशत भी नहीं है। यानी कह सकते हैं कि मुट्ठी भर लोग देश को चला रहे हैं या उनका समर्थन कर रहे हैं।

आमदनी की फ़िफ़्थ कैटेगरी में आमदनी न्यूनतम टेक्स सीमा 1 लाख अस्सी हज़ार रुपए से 5 लाख के बीच के लोग आते हैं। टैक्स देने वालों में ये सबसे नीचे हैं। इसे लोअर मिडिल क्लास कहा जाता है जिसकी जनसंख्या 288.44 लाख है। यह देश की कुल आबादी का 2.271 फ़ीसदी है।

पूरे देश में टेक्सपेयर्स की कुल संख्या  3.25 फ़ीसदी है। यानी जितने संपन्न हैं सब इसी में हैं। इसमें 3.25 फ़ीसदी पर आश्रित लोगों को जोड़ दिया जाए तो यह क़रीब 10 फ़ीसदी होता है। यानी इस देश में महज दस फ़ीसदी लोग ही इंसान की तरह रहते हैं। बाक़ी लोग जीवन के लिए संघर्ष करते हैं।

जिस नौकरी में आरक्षण होता है और वह आरक्षण हमें अगड़े-पिछड़े या हंदू-मुस्लिम रूप में आपस में लड़ाता है उसका परसेंटेज बहुत कम है। महज़ 3 फ़ीसदी के क़रीब है। इस तीन फ़ीसदी के लिए हम कहीं धर्म, कहीं जाति, कहीं क्षेत्र, कही भाषा तो कहीं नस्ल के नाम पर आपस में बंटे हैं।

दूसरी ओर प्रजा परिवार यानी पूरे देश की जनता है, जो देश की आबादी का 96 फ़ीसदी है। प्रजावर्ग परिवार के लोग अनाज की बोरी की तरह ट्रेन में ठुंसने वाले लोग होते हैं। ये वे लोग हैं, जिनके न तो पैदा होने की नोटिस ली जाती है न ही मरने की।  बड़े ज़ोर-शोर से मनरेगा रोज़गार योजना का जिक्र की जाती है। मनरेगा में साल भर में युवा बेरोज़गार को 100 दिन के रोज़गार की गारंटी मिली है। इसमें सौ रुपए दैनिक मज़दूरी मिलती है। कोई सहज कल्पना कर सकता है कि साल भर में किसी को 100 दिन काम यानी 10 हज़ार रुपए मिल जाए तो क्या वह साल भर इतनी धनराशि से सरवाइव कर सकता है?

चाहे साबित हो या न हो, पर पूरा देश जान गया है कि सत्ता के शिखर पर बैठे सभी लोग महाभ्रष्ट हैं। और इस ग़रीब देश को और आम जनता को बिना किसी अपराधबोध के ख़ुलेआम लूट रहे हैं। लूटमारी के धंधे में कोई नेता किसी से कम नहीं है। ये इतने निरंकुश हैं कि इन्हें अपने किए पर ज़रा भी पछतावा नहीं है। इनकी छांव में फल-फूल रहे, इनके चमचे, इन भ्रष्टों का बेखौफ़ होकर बचाव करतो हैं। भारतीय क़ानून में बचाव-पक्ष को दिए जाने वाले मौक़े का नाजायज़ तरीक़े से दुरुपयोग कर रहे हैं।

नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री है। सब डींग हांकते हैं कि वह चाय बेचकर प्रधानमंत्री बने हैं। अपने अब तक के कार्यकाल में उन्होंने अपनी जमात चायवालों के लिए क्या किया? ज़ाहिर है कुछ नहीं। प्रधानमंत्री बनते ही सबसे पहले दिल्ली कटरा (वैष्णोदेवी) के बीच श्रीशक्ति एक्सप्रेस चलाई जो पूरी तरह एसी ट्रेन है। इसमें कितने चायवाले यात्रा करेंगे, कोई सहज सोच सकता है। मोदी की दूसरी बहु-प्रचारित जन-धन योजना है। जिसमें लोगों का खाता खुल रहा है और परिवार के मुखिया को एक लाख रुपए का मुफ़्त दुर्घटना बीमा मिल रहा है। इसका लाभ हादसे में मरने के बाद ही मिल सकता है। बेहतर होता, मोदी लाख की जगह 50 हज़ार का ही बीमा देते और वह भी हेल्थ बीमा ताकि लोग जीते जी उसका लाभ लेते और बीमार होने पर अपना इलाज करवाते। खैर ऐसा नहीं हुआ क्योंकि मोदी अब चायवालों के नहीं सत्तावर्ग के प्रतिनिधि हैं।

इसी तरह सत्ता-परिवार में सोनिया गांधी, नितिन गडकरी, शरद पवार, मुलायम यादव, मायावती, लालू प्रसाद यादव, करुणानिधि, जयललिता, प्रकाश बादल, नीतीश कुमार, ममता बैनर्जी, राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे, शीबू सोरेन, अशोक गहलोत, देवेंद्र फडनवीस, पृथ्वीराज चव्हाण, अशोक चव्हाण के अलावा सभी राजनेता, सभी सांसद, 99 फ़ीसदी विधायक है। हमें लगता है ये एक दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन यक़ीन मानिये ये एक दूसरे के हितैषी हैं। इनकी मदद करते हैं अंबानी-बंधु, टाटा-बिरला, महिंद्रा, एन श्रीनिवासन और सभी औद्योगिक घराने। इसके अलावा अमिताभ बच्चन, शाहरुख ख़ान, सलमान खान, अक्षयकुमार, सचिन तेंदुलकर, महेंद्रसिंह धोनी और बाक़ी खरबपति लोग भी सत्तावर्ग क्लब में शामिल हैं।

मुलायम से पूछना चाहिए, पिछले 45 साल के दौरान आपने ऐसा क्या किया कि इतने दौलतमंद हो गए? आपके परिवार का हर सदस्य संसद या विधनसभा में क्यों है? क्या देश में दूसरे लोग नहीं हैं? बादल से पूछना चाहिए, ख़ुद मुख्यमंत्री बन गए, चलो ठीक है, बेटे को डिप्टी सीएम बनाते वक़्त आपको जरा भी शर्म नहीं आई? चुनाव में जीत मिली इसका मतलब आपका परिवार ही सरकार चलाएगा।  

नवीन पटनायक और अखिलेश यादव (कुछ समय पहले उमर अब्दुल्ला और हेमंत सोरेन) इसलिए सीएम हैं क्योंकि पॉलिटिशियन्स के बेटे हैं। उमर के पिता फ़ारुक अब्दुल्ला भी शेख अब्दुल्ला का बेटा होने के कारण सीएम थे। सोनिया गांधी इसलिए देश की सबसे ताक़तवर महिला हैं क्योंकि राजीव गांधी की पत्नी हैं। राहुल इसलिए कांग्रेस उपाध्यक्ष हैं क्योंकि वे सोनिया-राजीव के बेटे हैं। उनकी युवा टीम में माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिर्दित्य, राजेश पायलट के बेटे सचिन, मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद, जीतेंद्र प्रसाद के बेटे जतिन जैसे लोग हैं जो बाप की बोई गई फसल काट रहे हैं। उत्तरप्रदेश में मुलायम, रामगोपाल, धर्मेंद्र, ट्विंकल, तेज प्रताप सभी सांसद, अखिलेश और शिवपाल विधायक एक ही परिवार के हैं।

देश का लोकतंत्र, लोकतंत्र के स्तंभ- कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया, तमाम व्यवस्थाएं- शासन-तंत्र, पुलिस, बैंक, सभी योजनाएं सब की सब फ़र्ज़ी हैं। देश में 1.25 अरब लोग रहते हैं। पिछली सदी या उससे पहले और अंग्रेज़ों के जाने के बाद शुरुआत में जिन्हें मौक़ा मिला उन्होंने ही संपत्ति का बहुत बड़ा हिस्सा, क़रीब नब्बे फ़ीसदी, हथिया लिया और आज वही धन्नासेठ कहलाते हैं।

इस बात की ख़ूब डींग हांकी जाती है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां जनता के हित के लिए जनता के द्वारा चलाई जा रही जनता की सरकार है। क्या यह सही है? बिल्कुल नहीं। इस देश में और इस देश के लोकतंत्र में आम जनता की कितनी भागीदारी शून्य है?

दरअसल, हमारी क़ुदरत ने जो दिया है वह समस्त देशवासियों के लिए है। लेकिन सत्ता-परिवार के लोगों ने दूसरों के हिस्से के रिसोर्सेज़ पर भी क़ब्ज़ा कर लिया है। रूलिंग क्लास ने निर्धन लोगों का हक़ मारने का सामाजिक और नैतिक अपराध किया है। लिहाज़ा इनके साथ अपराधियों की तरह सलूक किया जाना चाहिए। इनके लिए दंड निर्धारित किया जाना चाहिए।


इन चंद लोगों के पास लाखों-हज़ारों करोड़ रुपए की संपत्ति है जबकि बाक़ी पूरा देश कंगाल है और केवल हवा खा रहा है। इसलिए हे देशवासियों जागो! इन बेइमानों को पहचानो! ये तुम्हारे दुश्मन हैं! इन्हें इनकी असली जगह आप ही ला सकते हैं। इसके लिए होना होगा आप सबको एकजुट! अंधेरनगरी को ख़त्म करने के लिए जनता को ही आगे आना होगा।

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

पाकिस्तान क्या अब समझेगा मौतों की टीस? समस्या का एकमात्र है युद्ध ही है!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारत एक भावुक देश है। यहां के लोग भी भावुक हैं। तभी तो पेशावर के बाल-नरसंहार (संभवतः यह दुनिया का पहला ऐसा नरसंहार है जिसमें केवल बच्चे मारे गए हैं) पर यहां लोग दुखी हैं। कई लोग तो विचलित है और रो भी रहे हैं। दूसरों के दर्द से दुखी होना मानव स्वभाव है। भारत के लोग भावुक स्वभाव के हैं इसलिए इंसानियत के ज़्यादा क़रीब हैं। लेकिन यह ध्यान देना होगा कि आंसू किसी समस्या के समाधान नहीं होते। अगर आंसुओं से समस्याएं हल होतीं तो भारत, ख़ासकर कश्मीर, से आतंकवाद कब का चला गया होता, लेकिन भारत और भारत के अभिन्न अंगकश्मीर में आतंकवाद आज भी ज़िंदा है। लोकसभा के चुनाव प्रचार में कांग्रेस को चुप रहने के लिए कोसने वाले नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सीज़ फ़ायर के उल्लंघन में पाकिस्तानी सेना के हाथ 135 लोगों की मौत इसकी गवाह है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि जब 26/11 के मुंबई आतंकी हमले के बाद मासूस लोगों को श्रद्धाजलि देने का कोई कार्यक्रम पूरे पाकिस्तान में कहीं नहीं हुआ था। उस समय वे लोग यह कहकर इससे ख़ुश हो रहे थे कि भारत को गहरा दर्द दिया है। लेकिन इसके विपरीत भारत भर में बहुत ढेर सारे जगह श्रद्धा सुमन अर्पित करने के प्रोग्राम हो रहे हैं। यानी भारत  और भारत के लोग पीड़ित होते हुए भी पाकिस्तान के साथ हमदर्दी रखते हैं।

दरअसल, जो बच्चे पेशावर सैनिक स्कूल में मारे गए, वे ज़्यादातर उन सैनिक अफ़सरों के बेटे हैं जो इन राक्षसों को भारत पर हमला करने के लिए तैयार किया था। ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि पाकिस्तान आर्मी और आईएसआई ने जो बारूद भारत में आग लगाने के लिए बनवाया था वह उनके घर में ही फट गया। यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि आतंकवाद पाकिस्तान और पाकिस्तानी आर्मी के लिए भस्मासुर बन गया है। जैसे भस्मासुर पार्वती को पाने के लिए शंकर भगवान की जान का दुश्मन बन गया था उसी तरह आतंकवाद पाकिस्तान का दुश्मन बन गया है। यानी जिसे पाकिस्तान ने भारत के लिए पाला, खाद पानी दिया अब वही आतंकवाद उसके गले में फांस की तरह अटक गया है। आतंकवादी पाकिस्तान के नियंत्रण से बाहर हो गए हैं।

सवाल यह है, क्या अब क़रीब 150 बच्चों की हत्या के बाद पाकिस्तान होश आएगा? क्या वह असमय मरने वालों का दर्द समझेगा? जिसे उसका पड़ोसी पिछले 20 साल से भुगत रहा है। इस बात का कोई संकेत नहीं मिला है कि पाकिस्तानी हुक़्मरानों को अपने ब्लंडर का एहसास होगा। क्योंकि पाकिस्तानी  बच्चों की मौत आंसू बहाने वालों में हाफ़िज़ सईद भी है जो अपने आप में मौत देने वाला संस्थान है। सईद को अब भी प्रोटेक्ट करने का सीधा सा अर्थ है पाकिस्तान कभी नहीं सुधरेगा। चाहे जितने पेशावर हमले हो जाएं। समस्या पाकिस्तानी लीडरशिप या पाकिस्तानी आर्मी में नहीं है। समस्या वहां की जनता में हैं। जो भारत को हिंदू राष्ट्र मानती है और हिंदू राष्ट्र से नफ़रत करने वाले का दिल खोलकर समर्थन करती है। वहां की जनता ठीक होती तो पाकिस्तानी लीडरशिप या पाकिस्तानी आर्मी रात भर में सुधर गए होते। यानी खोट पाकिस्तानी जनता में है, जो भारत का विरोध करने वाले नेताओं को वोट देती है। यह उसी तरह का ब्लंडर है जैसे भारत में हिंदुओं के क़त्लेआम की बात करने वाले एमआईएम के विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी (यू-ट्यूब पर उसका टेप उपलब्ध है) को वोट देना। जो आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के मुसलमान दिल खोल कर कर रहे हैं।

बहरहाल, यह भी कटु सच है आतंकवादियों का सईद जैसे लोग ब्रेनवॉश करते हैं। उन पर जेहाद का भूत सवार कर देते हैं और आतंकवादी मौत के साक्षात् रूप बन जाते हैं। इन आतंकवादियों को अपनी ग़लती का एहसास तक तक नहीं होता जब तक वे पकड़े नहीं जाते और की तरह अंडा सेल में नहीं रख दिए जाते। सैयद ज़बिउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जिंदल उदाहरण है, अबू गिरफ़्तारी के बाद से मुंबई के ऑर्थर रोड जेल में अंडा सेल में है। अजमल कसाब की तरह वह भी मानसिक रोगी हो गया है। जेल अधिकारी कहते हैं अंडा सेल में आने के बाद उसके सिर से जेहाद का भूत उतर गया है। वह चिड़चिड़ा और विक्षिप्त हो गया है। अब वह कभी-कभी सईद और लश्कर-ए-तैयबा के नेताओं को गाली देता है।

दरअसल, पाकिस्तान को समझना होगा कि आतंकवाद का कोई क्लासिफ़िकेशन नहीं होता। आतंकवादी केवल आतंकवादी यानी दहशतगर्द या टेररिस्ट होता है। उसका कोई मजहब धर्म या राष्ट्रीयता नहीं होती। जैसे आतंकवादी इस्लामिक आतंकवादी नहीं हो सकता वैसे ही आतंकवादी कश्मीरी आतंकवादी नहीं हो सकता। आतंकवादी तो केवल आतंकवादी होता है, केवल हत्यारा होता है। यानी पाकिस्तान आतंकवादियों को कश्मीरी आतंकवादी कहकर उन्हें संरक्षण नहीं दे सकता अगर देगा तो वे आतंकवादी पेशावर की तरह के नरसंहार को अंजाम देते रहेंगे।

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत एक कायर देश की तरह अपने यहां आतंकवाद के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराता है। भारत को यह समझना होगा इससे काम नहीं चलेगा। उसे आतंकवादियों के लिए नया कठोर क़ानून बनाना होगा। ताकि उन्हें जेल में रखने की बजाय मार दिया जाए। जब तक आतंक और आतंकियों के ख़िलाफ़ कठोर कार्रवाई नहीं होती इसे रोक पाना मुश्किल होगा। अपने यहां हमले के लिए किसी और को दोषी ठहराने या सबूत देने का दौर चला गया। मगर भारत अब भी आतंकी वारदातों में पाकिस्तान के शामिल होने का दुनिया को सबूत देता है। यह काम यह कथित तौर पर परमाणु हथियार बना लेने वाला देश 20 साल से कर रहा है और अपने जवानों और नागरिकों को कायर बना रहा है। जबकि उसे राष्ट्रीय पॉलिसी बनाकर पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों को मारना चाहिए। भारत के पास यह मौक़े कई बार आ चुके हैं। चार बार तो ख़ुला मौक़ा था लेकिन हर बार भारत ने अपने कायराना इरादा का प्रदर्शन करने के अलावा कुछ नहीं कर पाया। पहला मौक़ा कारगिल युद्ध के समय आया था, भारत को उसी समय सारा हिसाब चुकता कर लेना चाहिए था, पर अटलबिहारी वाजपेयी कारगिल का लेकर शांत हो गए। दूसरा मौक़ा संसद पर आतंकी हमले के समय आया तब वाजपेयी दूसरी बार चूक गए थे। तीसरा मौक़ा मुंबई पर आतंकी हमले के समय आया उस समय कमज़ोर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चूक गए। उनसे इतने साहस की उम्मीद भी नहीं थी। चौथा मौक़ा तीस साल में सबसे ताक़तवर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिला। जब अभी हाल ही में आतंक ने कश्मीर के उरी सेक्टर पर हमला किया। चुनाव में खूब दहाड़ने वाले मोदी भी इस बार चूक गए। युद्ध से दूर रहने की नीति से भारत का बहुत भला नहीं हुआ है। जनता महंगाई से वैसे भी परेशान है। युद्ध से महंगाई मान लो दोगुनी हो जाएगी, उसे जनता झेल लेगी। वैसे भी इस जनता ने 1998 में परमाणु विस्फोट के बाद प्रतिबंध झेला ही था। यह रोज़-रोज़ की किच-किच ख़त्म होनी चाहिए। मान लो इस युद्ध में भारत की एक फ़ीसदी जनता मर जाती है लेकिन यह भी सच है कि तब तक पाकिस्तान में कोई श्रद्धांजलि देने वाला भी नहीं बचेगा। लेकिन सवाल फिर वही, गांधीवाद के फ़र्ज़ी सिद्धांत पर चलने वाला भारत क्या इतनी हिम्मत दिखाएगा?

समाप्त

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

क़त्लेआम की बातें लोगों को पसंद क्यों आ रही हैं?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या भारतीय समाज हिंसक हो रहा है। ज़रा-ज़रा सी बात पर लोग लड़ने-झगड़ने लगे हैं। आए दिन होने वाले सांप्रदायिक तनाव इसके गवाह हैं। आख़िर ख़ून-ख़राबा यानी क़त्ल-ए-आम की बातें लोगों को पसंद क्यों आ रही हैं? अनपढ़ लोग अगर दंगे-फ़साद की राह पर जाते तो बात समझ में आती कि अज्ञानी हैं, उनमें समझ नहीं है, लेकिन यहां तो पढ़े लिखे यहां तक कि कॉन्वियन्स लोग और सेक्यूलर पत्रकार भी धर्म के नाम पर मरने-मारने की बात कर रहे हैं।

आने वाला समय बहुत सुखद संकेत नहीं कर रहा है। देश में अच्छे दिन नहीं, बहुत ही बुरे दिन की दस्तक हो रही है। फिलहाल, इस देश में हर जगह धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण बहुत तेज़ी से हो रहा है। अपने आपको सेक्यूलर कहने वाले लोग अप्रासंगिक हो रहे हैं। इसका फ़ायदा भारतीय जनता पार्टी यानी बीजेपी और मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एमआईएम को हो रहा है।

इस बार अक्टूबर में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव पर गौर करें तो अभिजात्य वर्ग के नेता असदुदीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम को काफ़ी समर्थन मिला। चुनाव के समय असदुद्दीन तो नहीं उनके छोटे भाई विधायक अकबरुद्दीन ने ज़रूर तूफानी प्रचार किया। अकबर की मुंबई, ठाणे के मुंब्रा, औरंगाबाद, नांदेड और परभणी में हुई चुनावी सभाओं में भारी भीड़ होती थी।

ईसाई महिला से निकाह करने का बावजूद 43 साल के अकबर को बेहद कट्टर ख़ासकर हिंदुओं के ख़िलाफ़ बहुत ही आपत्तिजनक बयान देने के लिए जाना जाता है। चंद साल पहले उन्होंने हिंदू समुदाय के ख़िलाफ़ बहुत ही ख़तरनाक बयान दिया था। यू-ट्यूब पर उपलब्ध उस बयान को जो भी सुनता है सन्न रह जाता है, पसीने छूट जाते हैं। लोगों को यकीन ही नहीं हुआ कि दूसरे मजहब के ख़िलाफ़ कोई ऐसा बयान दे सकता है। ख़ासकर धर्मनिरपेक्ष संविधान पर चलने वाले भारत में। बहरहाल, उस बयान के चलते अकबर को गिरफ़्तार भी किया गया था और काफी जद्दोजहद के बाद उन्हें बेल मिली थी।

अगर इतिहास पर नज़र डालें तो हिंदुओं के ख़िलाफ़ इस तरह का ज़हर कभी किसी मुस्लिम नेता ने नहीं उगला। यहां तक कि 1946 में मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना या अली बंधु भी। इतिहासकारों और उनकी किताबों के मुताबिक विभाजन के समय मुस्लिम लीग की ओर से हिंदुओं के मारकाट के लिए ऐक्शन प्लान ज़रूर चलाया गया था लेकिन सब गुप्त रूप से। पब्लिक फ़ोरम पर ऐसा बयान किसी ने नहीं दिया था जैसा बयान अकबर ने हैदराबाद में दिया।

बुद्धिजीवी तबक़े का मानना है कि ऐसे में मुसलमानों द्वारा अकबर की भर्त्सना होनी चाहिए थी यानी उनका बहिष्कार किया जाना चाहिए था। जैसे गैर-मराठियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वाले राज ठाकरे को इस बार मराठी समाज ने रिजेक्ट कर दिया। लेकिन अकबर को तो मुसलमानों का बहुत भारी समर्थन मिला। कई मुस्लिम बुद्धिजीवी और पत्रकार एमआईएम के टिकट पर चुनाव लड़ने की इच्छा जता रहे हैं। इसका अर्थ तो यही हुआ कि मुसलमान वोटर्स अकबर के हिंदुओं के ख़िलाफ़ बयान का अपने वोटों के जरिए दिल खोलकर स्वागत कर रहे हैं। एमआईएम को इतना अधिक पसंद कर रहे हैं कि इस बाहरी पार्टी को महाराष्ट्र एसेंबली में इंट्री मिल गई। पार्टी ने मुंबई की 14 सीटों समेत राज्य में कुल 24 विधानसभा क्षेत्र में उम्मीदवार खड़े किए थे। जिनमें अपने आपको सेक्यूलर घोषित करने वाले न्यूज़ चैनल एनडीटीवी के पुणे संवाददाता रहे इम्तियाज जलील औरंगाबाद पश्चिम से और वारिस यूसुफ पठान ने भायखला से जीत दर्ज की। तीन सीटों पर दूसरे नंबर पर रही और नौ साटों पर तीसरे स्थान पर बाक़ी दस सीटों पर भी पार्टी को भरपूर वोट मिले। सबसे अहम, एमआईएम के किसी भी उम्मीदवार की ज़मानत जब्त नहीं हुई। 2012 में नांदेड़ नगरपालिका में एमआईएम के 12 नगरसेवक चुने गए थे।

कहने का मतलब, इस देश के धर्मनिरपेक्षता या सेक्युलिरिज़्म की राजनीति करने वाले लोग बड़ी तेज़ी से हाशिए पर जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, सेक्यूलर लोग संघ परिवार, बीजेपी या नरेंद्र मोदी को जितनी गाली देते हैं, संघ और मोदी उतना ही फायदा मिलता है। 2002 के बाद हर किसी ने मोदी को हत्यारा मोदी कहा जिसकी परिणति 2014 के आम चुनाव में बीजेपी को 282 सीट के रूप में हुई। कहने का मतलब हिंदुओं को भी अब लगने लगा है कि बीजेपी में ही उनका भविष्य सुरक्षित है।

बहुमत में मुसलमानों का कट्टरवादी सियासत की जानिब उन्मुख होना उतना चिंतित नहीं करता। लेकिन मुस्लिम समाज जिस तरह अकबर को पसंद कर रहा है, वह ख़तरनाक संकेत हैं। कांग्रेस से पहले से ही मुंह मोड़ चुके मुसलमान वोटर आने वाले दिनों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को वोट नहीं देंगे। वे केवल और केवल एमआईएम को वोट देंगे। तब इस देश का धर्म के आधार पर पूरी तरह ध्रुवीकरण हो जाएगा।

अगर इतिहास में जाएं तो पिछली सदी के आरंभ में माहौल ऐसा ही था। अंग्रेज़ों ने देश बंग-भंग के जरिए अलगाववाद को जो पौधा रोपा उसके उगते हैं 1906 में इसी माहौल में जनाब सैयद अहमद खान खान ने मुस्लिम लीग की स्थापना की। महज 41 साल की उम्र में इस पौधे ने देश का धर्म के आधार पर विभाजन कर दिया। तो क्या यह देश एक और विभाजन की ओर बढ़ रहा है? भले ही वह कई सदी बाद आए। लिहाज़ा, अभी से चौकन्ना होने की ज़रूरत है, कि कही देर न हो जाए।

समाप्त

बुधवार, 5 नवंबर 2014

सचिन तेंदुलकर के दावे कितने सच?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
आजकल सचिन तेंदुलकर अपनी किताब 'प्लेइंग इट माई वे' को बेचने के लिए, पूर्व कोच ग्रेग चैपल के बारे में खूब बयान दे रहे हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि अगर भारतीय क्रिकेट को ग्रेग चैपल से इतना खतरा था तो संचिन तेंदुलकर ने उसी समय आवाज क्यों नहीं उठाई। तब वह टीम के बेहद सीनियर खिलाड़ी थे और भारतीय क्रिकेट का कोई अगर नुकसान कर रहा था तो उसे फौरन उसे हटाने की मांग कर सकते थे लेकिन सचिन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उलटे सचिन ग्रेग चैपल के मार्गदर्शन में खेलते रहे। यहां तक कि जब ग्रेग चैपल ने जब सौरव गांगुली को निशाना बनाना शुरू किया तब भी एकदम सचिन चुप थे। और तटस्थ होकर खेलते रहे। सचिन की यही चुप्पी उनकी भारतीय क्रिकेट के प्रति निष्ठा पर एक गंभीर सवाल खड़ा करती है। अब किताब बेचनी है तो वह भी नटवर सिंह और संजय बारू की तरह सनसनी परोस रहे हैं।

एक ऐसे खिलाड़ी जिसे भारत रत्न दिया जा चुका हो उससे अपनी किताब बेचने के लिए इस तरह के हथकंडे का सहारा नहीं लेना चाहिए था, लेकिन सचिन अब किताब को बेचने के लिए उसमें उन घटनाओं का जिक्र कर दिया है, जिनकी सत्यता संदिग्ध है।

जो भी हो सचिन तेंदुलकर अगस्त के बाद फिर चर्चा में है। सचिन और लता मंगेशकर और अमिताभ बच्चन हर काम केवल और केवल अपने या अपने परिवार या अपनी कंपनी के फ़ायदे के लिए करते हैं। ये महान व्यक्तित्व इतनी ऊंचाई तक पहुंचने के बावजूद कभी निहित स्वार्थ से ऊपर नहीं ऊठ पाए। यह आदत इनके महान क़द को छोटा कर देता है।

सचिन का दमन साफ नहीं है। कांग्रेस द्वारा राज्यसभा सदस्य बनाने जाने के बाद भी वह विज्ञापनों की शूटिंग के लिए ख़ूब समय निकालते रहे हैं, क्योंकि उससे मोटी रकम मिलती है। इसीलिए, क्रिकेट को अलविदा कहने के बावजूद महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली के सचिन विज्ञापन से सबसे ज़्यादा कमाई करने वाले मॉडल हैं। सचिन आज भी बहुराष्ट्रीय कंपनी अविवा, कोकाकोला, अदिदास, तोशीबा, फ़्यूचर ग्रुप, एसएआर ग्रुप, स्विस घड़ी कंपनी ऑडिमार्स से जुड़े हुए हैं। कई छोटी-मोटी कंपनियों के प्रॉडक्ट भी बेचते रहते हैं। तभी तो 2013 में फ़ोर्ब्स ने उनकी कमाई 22 मिलियन डॉलर बताई थी। दरअसल, राज्यसभा में सचिन जाएं या न जाएं, उनको उतना ही पैसा (वेतन-भत्ता) मिलेगा। लिहाज़ा संसद में बैठकर वक़्त जाया करने की बजाय वह अपना कीमती वक़्त कॉमर्शियल शूटिंग्स को देते हैं।

क्रिकेटर के रूप में सचिन ने कभी कोई ऐसी पारी नहीं खेली जिससे भारत को जीत मिली हो। इसीलिए, “विज़डन की 100 बेस्ट इनिंग्समें सचिन की कोई पारी नहीं है। जबकि सुनील गावस्कर, वीवीएस लक्ष्मण, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली, गुलडप्पा विश्वनाथ, कपिलदेव और वीरेंद्र सेहवाग जैसे अनेक भारतीय बल्लेबाज़ हैं जिनकी कोई न कोई पारी विज़डन का 100 बेस्ट पारियों में रही है।

सचिन की टेस्ट मैच, वनडे और टी-20 मैचों में बल्लेबाज़ी का बारीक़ी से अध्ययन करें तो जब भी भारत संकट में रहा, वह सस्ते में पैवेलियन लौट गए। टेस्ट मैच में एक बार पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत मैच जीतने की पोज़िशन में था लेकिन शतक बनाने के थोड़ी देर बाद ही सचिन आउट हो गए और भारत मैच हार गया। सचिन ने 200 टेस्ट की 329 पारियों में 53 के औसत से 15921 रन बनाए लेकिन उनके ज़्यादातर शतक ड्रा हुए मैचेज़ में रहे। वह गेंदबाज़ों की तूफानी या शॉर्टपिच गेंद कभी विश्वास से नहीं खेल पाए। उन्हें डेनिस लिली, माइकल होल्डिंग, गारनर, मार्शल आदि की गेंदे खेलने का अवसर तो नहीं मिला। हां, अपने मसय में उन्होंने डेल स्टेन, डोनाल्ड, मैकग्रा, ली, वकार, इयान, विशप या मलिंगा की गेंदों के सामने उनके खाते में बहुत ज़्यादा रन नहीं हैं। उनका खेल बांग्लादेश या जिंबाब्वे की फिसड्डी टीमों के ख़िलाफ़ सबसे उम्दा रहा है। उनका करीयर बेस्ट अविजित 248 भी बांग्लादेश के ख़िलाफ़ ही है। दरअसल, यूएनआई में नौकरी के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने काफ़ी रिसर्च के बाद सचिन पर इसी तरह की एक बढ़िया रिपोर्ट फ़ाइल की थी लेकिन उसे सचिन विरोधी क़रार देते हुए एजेंसी ने रिलीज़ नहीं की क्योंकि उस समय सचिन के बारे में निगेटिव लिखना तो दूर कोई सोचता भी नहीं था।

सचिन ने राज्यसभा की मर्यादा को ही नहीं घटाया बल्कि, भारतरत्न पुरस्कार की प्रतिष्ठा में भी बट्टा लगा दिया है। भारत रत्न पुरस्कार पा चुका खिलाड़ी टीवी पर लोगों से एक ख़ास किस्म के प्रोडक्ट ख़रीदने की अपील करता है। जबकि दुनिया जानती है सारे किरदार टीवी विज्ञापन में झूठ बोलते हैं। सचिन एक आम अभिनेता या खिलाड़ी के रूप में यह झूठ बोलते तो कोई हर्ज़ नहीं था, लेकिन यह झूठ सचिन भारत रत्न के रूप में बोलते हैं। इसका निश्चित तौर पर ग़लत संदेश जाता है।


बहरहाल, अब सचिन को अपनी किताब बेचने के लिए ग्रेग चैपल का वह व्यवहार याद आ गया। काश सचिन चैपल का वह पक्षपात पहले ही उजागर कर दिए होते।

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

3,787 भारतीयों का हत्यारा एंडरसन बिना सज़ा भोगे मर गया

3,787 भारतीयों का हत्यारा एंडरसन बिना सज़ा भोगे मर गया
सरकार और न्यायपालिका के गाल पर तमाचा
हरिगोविंद विश्वकर्मा
भोपाल के करीब चार हजार मासूमों का हत्यारा अंततः मगर गया। उसे भारत लाकर सजा नहीं दी जा सकी. यह भारत सरकार की असफलता तो है ही, उससे ज़्यादा सड़ी हुई भारतीय न्याय-व्यवस्था की असफलता है। अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड का प्रमुख और भोपाल गैस त्रासदी में भगोड़ा वारेन एंडरसन बिना दंड भोगे ही मर गया। एंडरसन की मौत 29 सितंबर को ही हो गई थी लेकिन खबर अब सामने आई है।

जो न्याय-व्यवस्था किसी केस की सुनवाई 30 साल में भी न कर सके, वह बेकार उसे तुरंत बदलने की ज़रूरत है। उसे इंसाफ़ करने के और नाटक करने से रोका जाना चाहिए। तमाम जज आख़िर करते क्या रहे। अभी तक मुकदमे का निपटारा नहीं हो सका।

हादसे के बाद एंडरसन गिरफ्तार भी हुआ था, लेकिन कुछ ही घंटों में कोर्ट द्वारा उसे जमानत पर छोड़ दिया गया। अदालत को पता था एंडरसन रिहा होते ही अमेरिकी भाग जाएगा। फिर उसे जमानत क्यों दी। ढेर सारे अपराधी अदालत द्वारा रिहा कर दिए जाते हैं और बाद में फरार हो जाते हैं। यानी भोपाल के लोगों को इंसाफ न मिल पाने की सबसे ज्यादा जवाबदेही भारतीय आदालतों पर हैं। इसके बाद से उसे अमेरिका से भारत लाने का नाटक हुआ। नाटक तो नाटक होता है लिहाजा कामयाबी कैसे मिलती। एक कोर्ट ने उसे भगोड़ा घोषित जरूर किया। लेकिन हुआ कुछ नहीं। अब एंडरसन की मौत के साथ ही इंसाफ की उम्‍मीद भी खत्‍म हो गई।

30 साल पहले 1984 में 2-3 दिसंबर की रात में भोपाल में कार्बाइड के प्‍लांट से गैस रिसने से मध्य प्रदेश सरकार के मुताबिक कुल 3,787 मौते हुई थी। गैर सरकारी आकलन का कहना है कि मौतों की संख्या 10 हजार से भी ज्यादा थी। पांच लाख से ज्यादा लोग घायल हो गए थे, बहुतों की मौत फेफड़ों के कैंसर, किडनी फेल हो जाने और लीवर से जुड़ी बीमारी के चलते हुई।

भोपाल के लोगों को इसलिए भी इंसाफ नहीं मिल पाया क्योंकि सारे मरने वाले और विकलांग होने वाले प्रजा वर्ग के लोग थे। सत्ता वर्ग के लिए वे कीड़े-मकोड़े से ज्यादा हैसियत नहीं रखते. इसीलिए वे इंसाफ से वंचित रहे। इतने ढेर सारे लोगों की हत्या करने वाले को सत्ता वर्ग के लोगों ने बचा लिया क्योंकि वह उन्ही की जमात का था।

ये मूर्ख सोचते हैं सत्ता वर्ग के लोग उनका ध्यान रखेंगे। कितने गलतफहमी में जीते हैं ये भोलेभाले लोग। भगवान इनमूर्खों को सद्बुद्धि दे। ये हितैषी औरदुश्मन में फर्क कर सकें।

वर्ष 1989 में, यूनियन कार्बाइड ने भारत सरकार को इस आपदा के कारण शुरू हुए मुकदमे के निपटान के लिए 47 करोड़ डॉलर दिए थे। वह भी सत्ता वर्ग के लोग डकार गए।