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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

बुरका महिला के लिए पुरुष की खोजी मोबाइल जेल

बुरक़ा पुरुष की महिला के लिए खोजी मोबाइल जेल
डॉ. शाज़िया नवाज़
हिंदी अनुवाद
हरिगोविंद विश्वकर्मा

हम सभी जानते हैं कि बुरक़े का धर्म या मज़हब से कोई लेना देना नहीं। धर्म केवल ये कहता है कि औरते ऐसे कपड़े पहने ताकि उच्चश्रृंखल न दिखें। फिर बुरक़ा या घूंघट आया कहा से? दुनिया भर में महिलाएं अपने चेहरे को ढंकती क्यों हैं? बुरक़ा पुरुष द्वारा खोजी गई वह चलती-फिरती जेल है जिसके अंदर वह उस स्त्री को रखता है जिससे वह प्रेम करता है। अगर इसमें मोहब्बत होती तो मैं इसे शायद मंज़ूर कर लेती। उस सूरतेहाल में यह जेल स्त्री को किसी दूसरे मायने में ज्यादा स्वीकार्य होती। तब किस स्वभाव का पुरुष उस इंसान को जेल में रखेगा जिसे वह मोहब्बत करता है। ऐसे में बुरक़ा उस तरह की जेल अधिक है जिसमें पुरुष ‘अपनी स्त्री’ को रखता है। औरत के ब्रेनवाश की प्रक्रिया बचपन में ही शुरू हो जाता है। बहुत कम उम्र में ही उसे बताया जाता है कि तुम्हें ख़ुद को पुरुषों से छिपाना है। तुम्हारा चेहरा छुपाकर रखना ‘धर्म’ है। औरत को पुरुषों से भयभीत रहना भी सिखाया जाता है। बहुत कम उम्र से औरत को बताया जाता है कि पुरुष ख़तरनाक़ होते हैं उन पर ऐतबार नहीं किया जा सकता। स्त्री से कहा जाता है, तुम केवल अपने पिता और भाई पर ऐतबार कर सकती हो। क्योंकि पुरुष आपको सहजता से फुसला सकता है। पाकिस्तान में तो औरतों को बताया जाता है ‘पुरुष भेड़िया यानी कामुक और क्रूर होता है जबकि औरत भेड़ या सीधी-सादी होती है।‘ इस नसीहत के चलते ही ज्यादतर पुरुष भेड़िये की तरह व्यवहार करने लगते हैं जबकि औरत भेड़ बन जाती है।

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हमारे पुरुष कहते हैं कि औरत को परदा करना चाहिए जबकि हम औरतों के पास पुरुष के लिए किसी तरह का विचार या नज़रिया नहीं होता। ये विचार औरत को नुकसान पहुंचाने और उनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करने का होता है। इसलिए वे (पुरुष) हमें (औरत) जेल में रखना चाहते हैं ताकि हमें लेकर उनका दिमाग़ साफ़ रहे। यह तो तोड़ा-मरोड़ा हुआ तर्क है। लेकिन क्या यक़ीनन उनका ये विचार यहां रुक जाता है? हक़ीक़त की दुनिया में उन्हें इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि आप बुरक़े में हैं, वे आपको तंग करेंगे ही। मेरा अनुभव बताता है कि चेहरे पर परदा सड़कों-गलियों में होने वाली छेड़छाड़ या छींटाकशी से मेरी कभी हिफ़ाज़त नहीं कर पाता। पाकिस्तान से छोटे शहरों में घर से निकलने पर हमेशा या मेरे फिता या मेरे भाई साथ होते हैं। अन्यथा गलियों से अकेले गुज़रते समय हमारे जिस्म पर चाहे जितने कपड़े हों, पुरुष चिल्लाएंगे, छींटाकशी करेंगे, पीछा करेंगे और हमारे जिस्म को छूने की कोशिश करेंगे।

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इसी के चलते औरत अपने घर से अकेली नहीं निकल सकती। और उसके साथ हमेशा घर का कोई पुरुष रहता है। पाकिस्तान और दूसरे मुस्लिम मुल्कों में पुरष अपने घर की औरतों की दूसरों से हिफ़ाज़त करते हैं। हां, लाहौर जैसे पाकिस्तान के बड़े शहरों में माहौल अलग होता है, आप यकीन करें या न करें. यहां औरतों को यौन-शोषण जैसी समस्या से औरत अपेक्षाकृत कम दो चार होती है। यहां हमारे आसपास के पुरुष सिर न ढंकने और परदा न करने वाली औरतों के सानिध्य आदी होते हैं। पुरुष अधिक शिक्षित होते हैं, इतना ही नहीं ख़ुद उनकी बहन और मां ज़्यादा आज़ाद होती हैं। आइए, अब बात करते हैं अमेरिका की, जी हां, यहां तो गलियों में पुरुष का व्यवहार अनुभव करना विस्मयकारी अनुभव रहा है। मैं जो चाहूं पहन कर आसपास जा सकती हूं। किसी की क्या मजाल की बुरी नज़र भी डाले। इससे मेरी समझ में आया कि बुरक़ा ख़तरनाक़ पुरुषों को हमसे दूर नहीं रखती, बल्कि यह समाज का धारण है। ख़ासकर क़ानून पर अमल का नतीजा जो किसी देश में स्त्री को महफ़ूज़ रखती है। हवाई के खूबसूरत बीच पर मस्ती भरी ठंड हवाओं के सुखद स्पर्श का मेरा पहला अनुभव हैरतअंगेज रहा। वरना पुरुष ने बुरक़ा कहे जाने वाले शामियाने में रखकर स्त्री से खुशनुमा मौसम को इंजॉय करने का उसका बुनियादी हक़ ही लूट लिया है। बुरक़े के भीतर अंधेरा होता है, गर्मी होती है, स्त्री को पुरुष ने वहां केवल इसलिए ढकेल दिया है कि स्त्री के बारे में उसके पास कोई विचार नहीं है तो वो बुरके के अंदर घुटती रहे रहे। डॉक्टर्स विचार को खुदा की बनाई स्वस्थ परंपरा मानते हैं। किसी सभ्य मुल्क में अगर सामने वाले की रज़ामंदी के बग़ैर आपने अपने विचार उस पर थोपने की कोशिश की तो आप 10-20 साल के लिए जेल भेज दिए जाएंगे।

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दबाए हुए समाज के पुरुष के लिए ये समझना बड़ा मुश्किल है कि खुले समाज के पुरुष वास्तव में अपने विचार पर अंकुश लगाना सीख गए हैं और उसके लिए वे औरतों पर दोषारोपण नहीं करते। जब फ्रांस में बुरक़े पर रोक की बात आती हैं, जहां यह तर्क दिया जाता है कि औरत जो चाहे उसे पहनने की आज़ादी होनी चाहिए और ये आज़ादी काम नहीं करती... हर समाज में ड्रेसकोड और आज़ादी की एक सीमा है। आपकी आज़ादी वहीं ख़त्म हो जाती है जहां से हमारा रास्ता शुरू होता है। नंगेपन के पैरोकार अकसर मांग करते हैं कि सड़क पर बिना कपड़े के घूमना उनका अधिकार और आज़ादी है जो पूरी होनी चाहिए। ज़ाहिर है उन्हें उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी जा सकती ताकि दूसरे समाज में अव्यवस्था न फैले। इसी तरह एक इंसान की उपर से नीचे तक परदे में रहना भी सुरक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है। आपको पता ही नहीं परदे में कौन है। ये अब ख़तरनाक दुनिया हो गई है। आप अपने बच्चे को पार्क में खेलने की इजाज़त नही दे सकता जहां सिर से पांव तक बुरके में ढंके लोग बैठे हैं। क्या मुसलमानों को फ्रांस से बुरक़े पर रोक लगाने की मांग करने का अधिकार है ऐसे में जब पश्चिम की औरते कम कपड़े में मुस्लिम देशों नहीं घूम सकती। आप उम्मीद कर रहे हैं कि वे आपकी संस्कृति का सम्मान करें और जब वे आपके देश में आए तब भी और जब आप उनके यहां जाए तब भी।

(नोट.. सुश्री शाज़िया नवाज़ पाकिस्तान की प्रमुख लेखिका और बुद्धिजीवी हैं, फ़्रांस में बुरक़े पर रोक लगाने के फ़ैसले पर पाकिस्तान में बहस चल रही है, उस बहस में शिरकत करते हुए बुरक़े पर उनका यह अंग्रेज़ी आर्टिकल पाकिस्तान की प्रमुख बेवसाइट “लेट अस बिल्ड पाकिस्तान” में प्रकाशित हुआ है। उसी लेख का यह हिंदी अनुवाद है।)

8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आलेख का अनुवाद करके लोगों को जानकारी देने के लिए आभार!

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

विचारणीय बात है और ये अच्छा है कि स्वयं लेखिका उसी समाज का हिस्सा है।

anshumala ने कहा…

काफी वास्तविक और जमीनी हकीकत है |

Patali-The-Village ने कहा…

आलेख का अनुवाद करके लोगों को जानकारी देने के लिए आभार!

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

गोविन्द जी, मैंने इस पोस्ट का लिंक अपने ब्लाग पर दिया था, यदि आप अनुमति दें तो पूरे लेख को आपके संदर्भ सहित वहां पर चिपका दूं...

Abhishek ने कहा…

गोविन्द जी लेख बोहोत अच्छा लगा. किन्तु आपके ब्लॉग के background के कारन पढ़ने में थोड़ी प्रॉब्लम होती है. अगर आपको आपत्ति न हो तो उसको बदल दे.

बेनामी ने कहा…

Very Nice!

बेनामी ने कहा…

Very Nice!