हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी कैबिनेट और ख़ुद बीजेपी वह सब कर रहे हैं, जिसे तानाशाही कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को संविधान या क़ानून का हवाला देकर कोई फ़ैसले न लेने देना, एक तरह से अघोषित आपातकाल है। ऐसी मिसाल केवल 1975 में मिली थी, जब कई निर्वाचित सरकारों को इंदिरा गांधी ने बर्खास्त कर दिया था। दिल्ली में अप्रत्यक्षरूप से वहीं हो रहा है, जो दिल्ली की जनता की इनसल्ट है।
उपराज्यपाल नज़ीब जंग जो कुछ कर रहे हैं, उसे बीजेपी या उसके शासन के बेनिफिशियरीज़ लोगों के अलावा दूसरा कोई अप्रूव नहीं कर सकता। नज़ीब केंद्र के इशारे पर लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को काम नहीं करने दे रहे हैं। हर कोई समझ रहा है कि मोदी की अगुवाई में केंद्र दिल्ली सरकार और दिल्ली की जनता के साथ खुला पक्षपात और बेइमानी कर रही है। हालांकि इसे अरविंद केजरीवाल“दिल्ली की जनता से बदला लेना” क़रार दे रहे हैं, लेकिन खुले पक्षपात और बेइमानी पर न तो दिल्ली में, न ही देश में, किसी का ख़ून खौल रहा है। लोग एकदम चुप हैं, कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहे हैं। इसका मतलब यह भी है कि लोग जान गए हैं कि आम आदमी पार्टी यानी “आप” और केजरीवाल भी दूध के धुले नहीं हैं। लिहाज़ा, न तो “आप” को न ही केजरीवाल को जनता की सहानुभूति नहीं मिल रही है।
दरअसल, दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी को लोग ऐसी राजनीतिक पार्टी मानते थे, जो दूसरी मुख्य धारा की पार्टियों से एकदम अलग थी। अलग तरह की राजनीति करने वाली पार्टी थी। लोग मानते थे, यह एकमात्र पार्टी है, जिसकी कथनी करनी में कोई अंतर नहीं है। मसलन, हर मुद्दे पर इस नवोदित राजनीतिक पार्टी का नज़रिया और नीति अलग दिखता था। मसला अपराधियों को राजनीति से दूर रखने की बात हो, चंदे में पारदर्शिता की या पार्टी में सुप्रीमो कल्चर की, हर मुद्दे पर “आप” का साफ़, सर्वमान्य और लोकतांत्रिक रवैया था, जिसका इंपैक्ट सीधे आम जनता पर होता था। जनता मानती और समझती थी कि बीजेपी या कांग्रेस जैसी दूसरी पार्टियां “आप” को ख़त्म करने की साज़िश में लगी हुईं हैं, ताकि पिछले 68 साल से जिस तरह की राजनीति ये पार्टियां करती आई हैं, वह बदस्तूर जारी रहे। यही वजह है कि एसेंबली इलेक्शन में तमाम मीडिया सर्वेक्षण को दर किनार करते हुए जनता ने “आप” को वह अभूतपूर्व मैंडेट दिया जिसकी किसी राजनीतिक पंडित ने कल्पना भी नहीं की थी। इसके बाद “आप” संयोजक केजरीवाल जनता के चीफ़ मिनिस्टर के रूप में शपथ ली।
शपथ लेते समय अरविंद ने अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं से अपील करते हुए कहा था, “कुछ भी हो किसी भी क़ीमत पर अपने ऊपर अंहकार को हावी मत होने देना, क्योंकि इसी अहंकार ने बीजेपी और कांग्रेस का बेड़ा गर्क किया है। ” अरविंद की यह बात लोगों को बहुत पसंद आई। दिल्ली की जनता को धन्यवाद दिया कि उसके फ़ैसले से क़रीब सात दशक बाद ही सही, कम से कम ऐसा आदमी और ऐसी पार्टी तो सत्ता में आई, जिसे जनता का नुमाइंदा या जनता की पार्टी कहा जा सकता है। राजनीतिक हलकों में सुगबुगाहट होने लगी कि मुमकिन है 2019 का आम चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी न होकर नरेंद्र मोदी बनाम अरविंद केजरीवाल हो।
बहराहल, शपथ लेते ही अरविंद ने पहले फ़ैसले में “आप” का संयोजक बने रहने का फ़ैसला किया। लोग हैरान हुए, ‘एक व्यक्ति एक पद’की बात करने वाली पार्टी में यह क्या हो रहा है। अरविंद क्या-क्या करेंगे?दिल्ली की समस्याएं हल करेंगे या “आप” संगठन को राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा करेंगे। अरविंद ने दूसरे फ़ैसले में मनीष सिसोदिया को डिप्टी सीएम बना दिया। लोग फिर असहज़ हुए, छह लोगों के छोटे से मंत्रिमंडल में डिप्टी सीएम की क्या ज़रूरत? ख़ैर, इसे भी नज़रअंदाज़ कर दिया गया। अरविंद का तीसरा फ़ैसला आया, उनके कैबिनेट में किसी महिला के न होने का। लोग तीसरी बार हैरानी हुए, छह महिलाएं विधायक चुनी गई हैं, उनमें एक भी ऐसी नहीं जो सरकार में महिलाओं को रिप्रजेंट कर सके।
इसी तरह अरविंद का चौथा फ़ैसला था, जीतेंद्र तोमर जैसे संदिग्ध डिग्रीहोल्डर को विरोध के बावजूद टिकट देना और फिर मंत्री बनाना। लोग समझ नहीं पाए, किस आधार पर अरविंद संदिग्ध नेता को इतना प्रमोट कर रहे हैं। तोमर की फ़र्ज़ी डिग्री का मामला चुनाव में ही सुर्खियों में आ गया था। कहा तो यह भी गया कि प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव से अरविंद के मतभेद की वजह तोमर की फ़र्ज़ी डिग्री ही थी। बहरहाल, इसके बावजूद अरविंद ने सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा जैसे हाईप्रोफाइल अधिकारी को बेनक़ाब करने वाले प्रशांत जैसे नेता की कीमत पर तोमर जैसे लोगो को गले लगाया।
इसके बाद तो जो हुआ, उसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। संजय सिंह, दिलीप पांडे, आशुतोष गुप्ता और आशीष खेतान जैसे लोग “आप” के तीन स्तंभों, अरविंद-योगेंद्र और प्रशांत, में से दो योगेंद्र और प्रशांत के ख़िलाफ़ बयान दिया। किसी के समझ में ही नहीं आया, यह क्या हो रहा है। आंतरिक लोकतंत्र की बात करने वाली पार्टी में यह सब क्या है? अरविंद ने तो अहंकार को दूर रखने की बात की थी। फिर “आप” की दूसरी पंक्ति के नेताओं में यह अहंकार कहां से आ गया। बयानों से साफ़ हो गया कि भारतीय राजनीति में“आप”जैसी आदर्शवादी पार्टी के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए, “आप” भी ‘सुप्रीमो कल्चर’ को वहन कर रही है। यानी केजरीवाल पार्टी में सुप्रीमो बन रहे हैं। “आप” यहीं बीजेपी, कांग्रेस, एसपी, बीएसपी, शिवसेना, आरजेडी, टीएमसी और एआईडीएमके की क़तार में आ गई, जहां पहले से सुप्रीमो कल्चर है। जैसे कोई बीजेपी में मोदी, कांग्रेस में सोनिया, एसपी में मुलायम, बीएसपी में मायावती, शिवसेना में ठाकरे, आरजेडी में लालू और टीएमसी में ममता और एआईडीएमके में जयललिता से मत-भिन्नता रख कर नहीं रह सकता, उसी तरह अब साफ़ हो गया कि केजरीवाल से मत-भिन्नता रखने वाले की “आप” में कोई जगह नहीं।
बहरहाल, इन विवादों के बीच अरविंद मौन रहे और इलाज के लिए बंगलुरु चले गए। तभी उनका ऐसा स्टिंग आया, जिससे उनकी पर्सनॉलिटी कल्ट ही ख़त्म हो गई। आदर्शवाद और संस्कार की बात करने वाले अरविंद के मुंह से गाली पूरे देश ने सुनी, वह भी प्रशांत, योगेंद्र और आनंद कुमार जैसे सौम्य लोगों के लिए। किसी को यक़ीन ही नहीं हुआ, लेकिन यह सच था।
दिल्ली की सत्ता छोड़ने के लिए क़रीब हर मंच से माफ़ी मांगने वाले अरविंद ने उस धृष्टता पर एक बार भी ख़ेद व्यक्त नहीं किया। उल्टे“आप” के दो स्तंभों को दूध की मक्खी तरह निकाल फैंका गया। लोगों ने महसूस किया कि “आप” भी वह सब कर रही है , जो बीजेपी और कांग्रेस जैसी पार्टियां पिछले कई दशक से करती आ रही हैं। पार्टी की साख़ पर सबसे बड़ा धब्बा क़ानून मंत्री रहे तोमर की गिरफ़्तारी ने लगाया। जैसे, बीजेपी निहालचंद मेघवाल और स्मृति ईरानी या कांग्रेस रॉबर्ट वॉड्रा को डिफेंड करती रही है, उसी तरह अरविंद और“आप” ने तोमर का गिरफ़्तारी होने तक बचाव किया। अब तोमर से जुड़े सवालों का अरविंद जवाब क्या देंगे। ज़ाहिर है, तोमर के मामले में वह भी दूसरे करप्ट या संदिग्ध नेताओं का नाम लेंगे। जैसे, उत्तर प्रदेश की क़ानून व्यवस्था का ज़िक्र होने पर एसपी नेता दिल्ली या दूसरे राज्यों के क्राइम डेटा पेश करने लगते हैं।
सबसे अंत में आया सीनियर लीडर और विधायक सोमनाथ भारती की कथित तौर पर अपनी पत्नी के साथ मारपीट. का मामला। आप जैसी पार्टी के नेता पर उसकी ही पत्नी उत्पीड़न का आरोप लगाए, यह विचलित करने वाली बात रही। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकला कि “आप” के नेताओं का कैरेक्टर बाक़ी दलों के नेताओं जैसा ही है। ये लोग आदर्शवाद की ऐक्टिंग कर रहे थे जो अंततः बेनक़ाब हो गया।
अरविंद बिजली सस्ती या पानी मुफ़्त में देकर एक ख़ास तबक़े की वाहवाही भले लूट लें, लेकिन यह लंबी राजनीति के कारगर नहीं होगा। यह हज़ार-दो हज़ार रुपए रिश्वत लेने वालों को पकड़ने और करोड़ों रुपए का ग़बन करने वालों को क्लीनचिट देने जैसा है। दिल्ली की जनता ने उन्हें एक शानदार मौक़ा दिया था, जिसे उन्होंने अपने अहंकार और अपने चमचों की बात मानकर गंवा दिया। इस समय पुराने अरविंद की ज़रूरत थी। ख़ासकर ऐसे समय, जब केंद्र में सरकार की सारी ताक़त एक आदमी के हाथों में केंद्रित होती जा रही है। विरोध के हर तरीक़े पर लगाम ही नहीं लग रहा है, बल्कि विरोध के हर स्रोत को सुनियोजित ढंग से नष्ट भी किया जा रहा है। हर मीडिया हाउस एक ही व्यक्ति के अधिनायकवाद का गुणगान कर रहा है। लोकपाल को कूड़ेदान में फेंक दिया गया है।
कई संवैधानिक संस्थान मुखियाविहीन हैं। एक रिटायर चीफ़ जस्टिस को राज्यपाल बनाकर न्यायपालिका को भ्रष्ट करने की ग़लत परंपरा शुरू कर दी गई है, जो भी हो, मोदी ने अरविंद की अपरिपक्वता के चलते उन्हें दिल्ली में उलझा दिया है क्योंकि अरविंद ने अपने को दूसरे नेताओं की पंक्ति में ही लाकर खड़ा किया जिससे उनका ही नहीं दल का भी परसनॉलिटी कल्ट ही ख़त्म हो गया। अरविंद की ज़िद ने“आप” को क्षेत्रीय पार्टी बनाकर रख दिया।
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