उत्तरप्रदेश शिया सेंट्रल बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी ने हाल ही में प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मदरसों पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाकर उन्हें बंद करने की मांग की थी। जैसा कि अपेक्षित था, कट्टरपंथी मुसलमान उनके खिलाफ हो गए। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष सैयद गैयूरूल हसन रिज़वी ने कहा कि यह मदरसों को बदनाम करने की साजिश है। इससे पहले 2015 में महाराष्ट्र सरकार ने राज्य के सभी मदरसों के बच्चों को “आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रेन” घोषित करने का फैसला किया था। इससे महज़ मज़हबी तालीम यानी उर्दू और शरीयत पढ़ाने वाले 1890 मदरसों में से 1340 मदरसे स्कूल श्रेणी से बाहर हो गए थे। 550 मदरसों ने हर विषय पढ़ाने का सरकार का आदेश मान लिया और उनकी स्कूल की मान्यता बची रह गई।
लंबे समय से इस बात पर बहस होती रही है कि क्या यक़ीनी तौर पर मुसलमानों के बच्चों के विकास में सबसे बड़ी बाधा मदरसे ही हैं और मदरसे में तालीम हासिल करने वाले कट्टर हो जाते हैं और उन्हें आतंकवाद की ओर खींचना आसान होता है? इसी बिना पर प्रगतिशील मुसलमान मदरसा कल्चर की मुखालफत करते रहे हैं। इन लोगों का कहना है कि ग़रीब तबक़े के मुस्लिम बच्चे एजुकेशन को मेन स्ट्रीम में लाना जरूरी है। इससे अब तक उपेक्षित बच्चों के लिए भविष्य में अवसर बनेंगे और अगर मेहनत करेंगे तो अच्छा पढ़-लिखकर अफ़सर बन सकेंगे।
प्रगतिशील मुसलमानों के तर्क को नकारा भी नहीं जा सकता। वस्तुतः मदरसे मुस्लिम बच्चों के ही नहीं, बल्कि समस्त मुस्लिम समाज के विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, विश्व एक गांव में तब्दील हो गया, लेकिन मदरसा चलाने वाले मुसलमान अब भी बच्चों को कई सदी पीछे रखना चाहते हैं। अब मुसलमानों को यह समझना ही होगा कि वर्तमान दौर अंग्रेज़ी शिक्षा का दौर है। इस दौर में बच्चों को भाषा के रूप में बेशक संस्कृत, उर्दू, मराठी या दूसरी क्षेत्रीय भाषाएं पढ़ाइए, लेकिन साथ में उन्हें अंग्रेज़ी, मैथ और साइंस पढ़ाना ही होगा। उन्हें इंजीनियर, डॉक्टर, आईएएस-पीसीएस और जज बनाना होगा। इसके लिए मदरसों का बंद करना समय की मांग है।
दरअसल, विद्यालय यानी स्कूल को अरबी में मदरसा कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि पहला मदरसा हज़रत ज़ैद बिन अकरम के परिसर की पहाड़ी के पास खुला था, जिसे “सफ़ा” कहा गया। प्रमाण तो नहीं है, मगर माना जाता है कि सफ़ा में मोहम्मद साहब अध्यापक थे और उनके अनुयायी छात्र। 12वीं सदी के अंत तक बग़दाद, दमिश्क, मोसल और दूसरे मुस्लिम शहरों में मदरसे फल-फूल रहे थे। भारत में मदरसे 12वीं सदी में दिल्ली सल्तनत काल में शुरू हुए, लेकिन ज़्यादा शोहरत मुग़ल काल में मिली। इतिहासकारों के मुताबिक़ शाह वली अल्लाह के पिता शाह अब्दुर्रहीम ने 17वीं सदी के आख़िर में दिल्ली में पहला मदरसा मदरसा-ए रहीमिया खोला था। लखनऊ में 18वीं शताब्दी के आरंभ में मुल्ला निज़ामुद्दीन सिहलवी ने मदरसा-ए फ़िरंगी महल शुरू किया था। 1867 में देवबंद में मुहम्मद आबिद हुसैन ने मदरसा-ए दारूल उलूम की स्थापना की, जो इस्लामी अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से है। हालांकि, आज के दौर के मदरसों में केवल उर्दू और शरीयत सिखाए जाते हैं। यह तालीम बेशक मौलवी बनने वालों के लिए ठीक है, मगर इसमें पढ़े बच्चे बुनकर या मज़दूर ही बन सकते हैं, डॉक्टर-इंजीनियर या अफ़सर नहीं। लिहाज़ा, या तो मदरसों को आधुनिक कॉन्वेंट स्कूलों जैसा बनाया जाए, या फिर उन्हें बंद करके उनकी जगह बेहतर शिक्षा देने वाले स्कूल-कॉलेज खोले जाएं, जिन्हें शिक्षा बोर्डों या यूनिवर्सिटी से आधिकारिक मान्यता मिली हो।
लंबे समय से इस बात पर बहस होती रही है कि क्या यक़ीनी तौर पर मुसलमानों के बच्चों के विकास में सबसे बड़ी बाधा मदरसे ही हैं और मदरसे में तालीम हासिल करने वाले कट्टर हो जाते हैं और उन्हें आतंकवाद की ओर खींचना आसान होता है? इसी बिना पर प्रगतिशील मुसलमान मदरसा कल्चर की मुखालफत करते रहे हैं। इन लोगों का कहना है कि ग़रीब तबक़े के मुस्लिम बच्चे एजुकेशन को मेन स्ट्रीम में लाना जरूरी है। इससे अब तक उपेक्षित बच्चों के लिए भविष्य में अवसर बनेंगे और अगर मेहनत करेंगे तो अच्छा पढ़-लिखकर अफ़सर बन सकेंगे।
प्रगतिशील मुसलमानों के तर्क को नकारा भी नहीं जा सकता। वस्तुतः मदरसे मुस्लिम बच्चों के ही नहीं, बल्कि समस्त मुस्लिम समाज के विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, विश्व एक गांव में तब्दील हो गया, लेकिन मदरसा चलाने वाले मुसलमान अब भी बच्चों को कई सदी पीछे रखना चाहते हैं। अब मुसलमानों को यह समझना ही होगा कि वर्तमान दौर अंग्रेज़ी शिक्षा का दौर है। इस दौर में बच्चों को भाषा के रूप में बेशक संस्कृत, उर्दू, मराठी या दूसरी क्षेत्रीय भाषाएं पढ़ाइए, लेकिन साथ में उन्हें अंग्रेज़ी, मैथ और साइंस पढ़ाना ही होगा। उन्हें इंजीनियर, डॉक्टर, आईएएस-पीसीएस और जज बनाना होगा। इसके लिए मदरसों का बंद करना समय की मांग है।
दरअसल, विद्यालय यानी स्कूल को अरबी में मदरसा कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि पहला मदरसा हज़रत ज़ैद बिन अकरम के परिसर की पहाड़ी के पास खुला था, जिसे “सफ़ा” कहा गया। प्रमाण तो नहीं है, मगर माना जाता है कि सफ़ा में मोहम्मद साहब अध्यापक थे और उनके अनुयायी छात्र। 12वीं सदी के अंत तक बग़दाद, दमिश्क, मोसल और दूसरे मुस्लिम शहरों में मदरसे फल-फूल रहे थे। भारत में मदरसे 12वीं सदी में दिल्ली सल्तनत काल में शुरू हुए, लेकिन ज़्यादा शोहरत मुग़ल काल में मिली। इतिहासकारों के मुताबिक़ शाह वली अल्लाह के पिता शाह अब्दुर्रहीम ने 17वीं सदी के आख़िर में दिल्ली में पहला मदरसा मदरसा-ए रहीमिया खोला था। लखनऊ में 18वीं शताब्दी के आरंभ में मुल्ला निज़ामुद्दीन सिहलवी ने मदरसा-ए फ़िरंगी महल शुरू किया था। 1867 में देवबंद में मुहम्मद आबिद हुसैन ने मदरसा-ए दारूल उलूम की स्थापना की, जो इस्लामी अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से है। हालांकि, आज के दौर के मदरसों में केवल उर्दू और शरीयत सिखाए जाते हैं। यह तालीम बेशक मौलवी बनने वालों के लिए ठीक है, मगर इसमें पढ़े बच्चे बुनकर या मज़दूर ही बन सकते हैं, डॉक्टर-इंजीनियर या अफ़सर नहीं। लिहाज़ा, या तो मदरसों को आधुनिक कॉन्वेंट स्कूलों जैसा बनाया जाए, या फिर उन्हें बंद करके उनकी जगह बेहतर शिक्षा देने वाले स्कूल-कॉलेज खोले जाएं, जिन्हें शिक्षा बोर्डों या यूनिवर्सिटी से आधिकारिक मान्यता मिली हो।
मदरसों की स्कूली मान्यता ख़त्म करने के फ़ैसले का दो तरह के लोग विरोध कर रहे हैं। पहले तो मौलवी हैं, जिनकी रोज़ी-रोटी मदरसों से चलती रही है। उनका विरोध जायज़ कहा जा सकता है। दूसरे सियासतदां हैं, जिनकी पूरी राजनीति ही मुस्लिम वोटों से होती है। इनमें एमआईएम के लोकसभा सदस्य असदुद्दीन ओवैसी भी शामिल हैं। सवाल उठता है कि इनका विरोध क्या जायज़ है? क्योंकि ओवैसी साहब ख़ुद तो लंदन में पढ़े हैं, उनके बच्चे कॉन्वेंट या इंग्लिश मीडियम से पढ़ रहे हैं। ओवैसी के अलावा वे लोग ज़्यादा मुखर विरोध कर रहे हैं, जिनके भी बच्चे कॉन्वेंट या विदेशों में पढ़े हैं। ये तथाकथित हितैषी चाहते हैं कि ग़रीबों के बच्चे मदरसे के चक्कर में अंग्रेज़ी, मैथमेटिक्स और साइंस पढ़ने से वंचित रहें और अपना भविष्य चौपट कर लें, ताकि भविष्य में उनके डॉक्टर-इंजीनियर या अफ़सर की संभावना ही ख़त्म हो जाए और अच्छी सेलरी वाले जॉब के जो मौक़े आएं, उन्हें धनी मुसलमानों के अंग्रेज़ी, मैथ व साइंस पढ़ने वाले बच्चे लपक लें।
दरअसल, जस्टिस राजिंदर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद तत्कालीन सीएम विलासराव देशमुख ने मई 2008 में महाराष्ट्र में मुसलमानों की शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अध्ययन के लिए रिटायर ब्यूरोक्रेट डॉ. महमूदुर रहमान की अगुवाई में छह सदस्यों वाली महमूदुर रहमान कमेटी बनाई थी। कमेटी ने रिपोर्ट अक्टूबर 2013 में सरकार को सौंप दी थी, लेकिन अभी तक उसे सार्वजनिक नहीं किया गया है। लीक्ड रिपोर्ट में मुसलमानों के बारे कई हैरान करने वाले तथ्य सामने आए हैं। मसलन, महाराष्ट्र में, देहात की बात तो छोड़ दें, मुंबई जैसे शहर में रहने वाले मुसलमानों की भी हालत एकदम पिछड़ी मानी जाने वाली अनुसूचित जाति और जनजाति से भी बदतर है। मुसलमानों को कोई भी बैंक क़र्ज़ नहीं देती है। मुंबई से सटा मीरारोड का मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ा नयागनर जीता जागता उदाहरण है, जहां घर लेने वालों को किसी भी बैंक से होमलोन नहीं मिलता है।
महमूदुर रहमान समिति ने रिपोर्ट में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, एसएनडीटी वीमेन यूनिवर्सिटी की इकोनॉमिक्स फैकेल्टी और मुंबई यूनिवर्सिटी के निर्मला निकेतन कॉलेज ऑफ़ सोशल वर्क समेत, कुल सात संस्थानों के भरोसेमंद सर्वेज़ और स्टडीज़ का हवाला दिया है। सभी सर्वेज़ और स्टडीज़ क़मोबेश एक जैसी हैं, मगर सत्यता की कसौटी पर खरी उतरती हैं।
महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ राज्य में 1.20 करोड़ मुसलमान हैं, जिनमें 15 साल तक की जनसंख्या 37 फ़ीसदी है, जो अपेक्षाकृत ज़्यादा जन्म दर दर्शाती है। पुरुष मुखिया वाले हर मुस्लिम परिवार में औसतन 6.1 सदस्य हैं जबकि महिला मुखिया वाले परिवार में 4.9 सदस्य। रिपोर्ट में 60 साल या उससे ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी महज़ 6.6 फ़ीसदी बताई गई है, जिसका मतलब मुस्लिम समाज में लोग 60 साल के बाद जल्दी मर जाते हैं, इसकी वजह ग़रीबी और उचित मेडिकेयर का अभाव हो सकता है। यह अलग सीरियस शोध का विषय है।
महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़, राज्य में केवल 10 फ़ीसदी मुसलमान अपने खेत में खेती करते हैं। आधे यानी 49 फ़ीसदी मुस्लिम ग़रीबी रेखा के नीचे हैं जबकि पूरे देश में 34.4 फ़ीसदी मुसलमान ग़रीब हैं। राज्य में 20 फ़ीसदी मुसलमानों के पास राशन कार्ड नहीं है, जबकि 59 फ़ीसदी मुसलमान स्लम यानी गंदी बस्तियों में रहते हैं। इनमें केवल 18 फ़ीसदी लोगों के ही घर पक्के हैं। राज्य में बहुत बड़ी तादाद में युवक बेरोज़गार हैं। 32.4 फ़ीसदी लोग छोटे-मोटे काम करते हैं। शायद यही वजह है कि 45 फ़ीसदी मुस्लिमों की परकैपिटा आमदनी महज़ 500 रुपए ही है। 34 फ़ीसदी मुसलमानों (आबादी का एक तिहाई) की मासिक आमदनी 10 हज़ार रुपए से भी कम है। 24 फ़ीसदी 10 से 20 हज़ार महीने कमाते हैं, जबकि 20 से 30 हज़ार कमाने वाले मुसलमानों की तादाद 3.8 फ़ीसदी है। अपेक्षाकृत अच्छा यानी 30 से 40 हज़ार रुपए कमाने वालों की संख्या महज़ 1.0 फ़ीसदी है।
हालांकि ऐसा नहीं कि मुस्लिम समाज में सभी ग़रीब ही हैं। रिपोर्ट कहता है कि मुस्लिम समाज काफ़ी संपन्न है, देश का बस बाक़ी समुदायों की तरह मुसलमानों में भी मुट्ठी भर लोग बेहतर जीवन जी पाते हैं। यानी केवल 6.0 फ़ीसदी मुस्लिम हर महीने 50 हज़ार या उससे ज़्यादा आमदनी करते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. महमूदुर की रिपोर्ट क़रीब-क़रीब सच्चर की रिपोर्ट जैसी ही है। मतलब, एजुकेशन में मुसलमानों की दशा बहुत दयनीय है। जहां देश में साक्षरता की दर 74 फ़ीसदी है, वहीं मुस्लिम साक्षरता केवल 67.6 फ़ीसदी हैं। महाराष्ट्र में यह 65.5 फ़ीसदी से भी नीचे है। हालांकि, प्राइमरी स्तर पर मुस्लिम बच्चे हिंदुओं से बेहतर स्थिति में हैं। यानी हिंदुओं के 38 फ़ीसदी बच्चे प्राइमरी तक पहुंचे हैं तो मुस्लिमों के 47 फ़ीसदी बच्चे। रिपोर्ट कहती है, आमतौर पर 14 साल की उम्र में मुस्लिम बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं और बाल मज़दूर के रूप में काम करने लगते हैं। आर्थिक तंगी इसकी मुख्य वजह है। सेकेंडरी यानी 12वीं तक केवल 4.2 फ़ीसदी बच्चे पहुंच पाते हैं। उच्च शिक्षा का मुस्लिमों का आंकड़ा भयावह है। महज़ 3.1 युवक स्नातक तक पहुंचते हैं। 2011 के आईएएस में 203 चयनित उम्मीदवारों में महाराष्ट्र का एक ही मुस्लिम युवक था, जबकि आईपीएस में चुने गए 302 लोगों में महाराष्ट्र से बस चार मुस्लिम युवक थे। राज्य की फडनवीस सरकार इसकी वजह मदरसा कल्चर मानती है।
रिपोर्ट के मुताबिक़, राज्य में मुस्लिम लड़कियों के शिक्षा का आंकड़ा तो निराश करने वाला है। महज़ एक फ़ीसदी लडकियां कॉलेज तक पहुंचती हैं। उच्च शिक्षा हासिल न कर पाने से वे पुरुषों का अत्याचार सहती हैं। उनके शौहर विरोध के बावजूद एक से ज़्यादा निकाह कर लेते हैं। 2006 की थर्ड नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वें के मुताबिक़, 2.55 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाओं के पतियों के पास एक से अधिक बीवियां हैं, जबकि हिंदुओं में यह आंकड़ा 1.77 फ़ीसदी है। राज्य में मुसलमानों में दूसरे समुदायों की तुलना में अविवाहितों, तलाकशुदा और विधवाओं की संख्या बहुत ज़्यादा है। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिमों में मैरिटल स्टैटस महज़ 29 फ़ीसदी है।
मुस्लिम समाज की बदहाली के लिए और ढेर सारे कारक ज़िम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन इस पिछड़ेपन के लिए मदरसा कल्चर काफी हद तक ज़िम्मेदार ज़रूर है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 33 फ़ीसदी बच्चे उर्दू पढ़ते हैं,तो शहरों में क़रीब आधे (49 प्रतिशत) बच्चों को उर्दू की तालीम दी जाती है। मदरसे में अंग्रेज़ी पढ़ने वाले छात्रों का प्रतिशत नहीं के बराबर है। 96 फ़ीसदी स्टूडेंट्स जनरल स्टडी करते हैं। महज़ 4 प्रतिशत ही तकनीकी संस्थानों में जाते हैं। वोकैशनल एजुकेशन का परसेंटेज तो नहीं के बराबर यानी 0.3 फ़ीसदी है। इसके लिए भी मदरसों के सिलैबस को ही कसूरवार ठहराया जा सकता है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि सरकारी ही नहीं, निजी संस्थानों में भी मुसलमानों को बहुत कम नौकरियां मिलती हैं।
इस तरह उर्दू मीडिया को छोड़ दें तो बाक़ी मीडिया जैसे बौद्धिक संस्थानों में भी इक्का-दुक्का मुस्लिम पत्रकार मिलते हैं। महमूदुर रहमान कमेटी का निष्कर्ष है कि महाराष्ट्र में वाक़ई बहुमत में मुसलमानों की हालत बहुत दयनीय है। यही तर्क देते हुए सच्चर कमेटी भी मुस्लिम समाज के विकास पर ख़ास ध्यान देने की बात कहती है। संभवतः इसी तरह की फाइंडिंग्स के आधार पर 2007 की जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमेटी ने मुसलमानों को नौकरी में 10 फ़ीसदी आरक्षण देने की पैरवी की है। मज़ेदार बात यह है कि हर नेता अपने आपको मुसलमानों का हितैषी बताता ही नहीं मानता भी है, इसके बावजूद मुसलमानों के जीवनस्तर को बेहतर बनाने वाली सभी सिफ़ारिशें फ़ाइल्स के नीचे दबी धूल खा रही हैं।
दरअसल, यह समस्या मुस्लिम समाज की है। लिहाज़ा, हल करने के लिए उसे ही आगे आना होगा। मुस्लिम समाज को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कोई न कोई वजह तो है जिसके कारण देश में हर क्षेत्र में मुसलमान दूसरे समुदाय से पिछड़ रहे हैं और समस्या के रूप में इसे चिन्हित किए बिना, हल नहीं निकाला जा सकता है। मुंबई के पत्रकार आबिद नक़वी भी राज्य के मदरसों के आधुनिकीकरण और उनकी शिक्षा आम स्कूलों जैसी करने की ज़ोरदार पैरवी करते हैं, हालांकि नक़वी यह भी कहते हैं कि महाराष्ट्र में मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे दूसरे मुस्लिम देशों के मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों जितने कट्टर नहीं होते। हालांकि, अशिक्षा, ग़रीबी और बेरोज़गारी के कारण युवक अपराध या आतंकवाद की ओर उन्मुख हो रहे हैं और इसमें मदरसों के योगदान को पूरी तरह रूल्डआउट नहीं किया जा सकता है। कम से कम इसी बिंदु पर महाराष्ट्र की बीजेपी-शिवसेना सरकार के फ़ैसले का बहुत ज़्यादा विरोध पूरी तरह सही नहीं जान पड़ता।
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