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मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

क्या लालू यादव जैसे सज़ायाफ़्ताओं के भाषण पर रोक लगनी चाहिए?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
बिहार चुनाव में वह सब हो रहा है, जो आमतौर पर आज़ादी के बाद से भारत के किसी भी चुनाव में होता रहा है. मसलन, इस बार भी नेताओं की भाषा तल्ख होते-होते अप्रिय शब्दों तक पहुंच गई है. खैर, अब चुनाव प्रचार के दौरान इस्तेमाल होने वाली भाषा मुद्दा ही नहीं रह गई, क्योंकि देश की जनता अपने कर्णधारों के मुंह से इस तरह की अशोभनीय भाषा सुनने के क़रीब-क़रीब आदी हो चुकी है. इन नेताओं पर अंकुश लगाना संभव भी नहीं है. हां, ऐसे में चर्चा इस बात पर ज़रूर होनी चाहिए कि कि राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालूप्रसाद यादव या फिर इंडियन नैशनल लोकदल के ओमप्रकाश चौटाला जैसे भारतीय न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए गए अपराधियों को जनता को संबोधित करने से नहीं रोका जाना चाहिए या नहीं?

अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद किसी आरोपी को ‘अपराधी’ ही संबोधित किया जाता है, क्योंकि उसके नाम के आगे ‘सज़ायाफ़्ता’ शब्द जुड़ जाता है. इसका मतलब यह हुआ कि सज़ायाफ़्ता आदमी ने अतीत में जो कुछ ग़लत काम किया था, वह अदालत में भी साबित हो गया कि वाक़ई उसका काम ग़लत था और उसी को आधार मानकर अदालत ने भी उस आदमी को अपराधी घोषित कर दिया है. ऐसे में अदालत द्वारा अपराधी घोषित किए गए लोगों पर सार्वजनिक सभाओं में बोलने पर रोक लगाने का प्रावधान तो होना ही चाहिए.

अब तक दो साल या उससे ज़्यादा अवधि की जेल की सज़ा पाने वाले नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक है. प्रथम दृष्ट्या यह प्रावधान अधूरा-अधूरा-सा लगता है. दो साल से ज़्यादा सज़ा पाने वाले अपराधी को जिस मकसद से चुनाव लड़ने देने से रोका जाता है, सज़ायाफ़्ता के धुंआधार चुनाव प्रचार करने से उस मकसद का पूरी तरह उल्लंघन हो जाता है, क्योंकि सज़ा पाने वाला अपराधी केवल बतौर प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ता है, चुनाव में होने वाले बाक़ी सभी कार्य वह आराम से और खुलेआम करता है.

दरअसल, जो व्यक्ति अदालत द्वारा एक बार अपराधी घोषित कर दिया गया है, वह जो कुछ बोलेगा वह जनता के सामने अपने आपको पाक-साफ़ साबित करने की ही कोशिश करेगा. वह अपने उस हर कार्य को भी जस्टीफाई करने की हर संभव कोशिश करेगा, जिसे करने के कारण उसे दंडित करते हुए जेल की सज़ा सुनाई गई है. यह तो न्याय-व्यवस्था में अपराध के लिए दंड देने की परिपाटी का भी उल्लंघन है.

चूंकि आमतौर पर सार्वजनिक मंच से भाषण देते समय वह सज़ायाफ़्ता न तो अपने वक्तव्य पर कोई अंकुश रख पाता है, न ही देश में ऐसे लोगों के लिए ऐसी कोई गाइडलाइंस तय की गई रहती है कि वह अमुक मुद्दे पर बोले और अमुक मुद्दे पर कुछ न बोले.

ऐसे में अपराधी जनता के सामने क्या बोल देगा, इसका कुछ भरोसा नहीं और उसकी बात का इंपैक्ट कितना होगा यह भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन, चूंकि वह आदमी या नेता सज़ायाफ़्ता है, इसलिए वह जो कुछ बोलेगा, वह उसी तरह समाज हित में नहीं होगा, जैसे का कोई काम समाज हित में नहीं होता है. या जैसे किसी अपराधी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह लोगों को साधुवचन सुनाएगा यानी जनता को नैतिकता, सिद्धांत और भाईचारे का संदेश देगा या लोगों को अच्छा नागरिक बनने की नसीहत देगा, क्योंकि वह ख़ुद ही अदालत द्वारा बुरा नागरिक और क़ानून तोड़ने वाला नागरिक घोषित किया जा चुका है और उसी आधार पर उसे सज़ा हुई है.

भारतीय संविधान की दो साल या उससे ज़्यादा की सज़ा पाए लोगों को चुनाव लड़ने से रोकने के प्रावधान के तहत ही लालूप्रसाद यादव बिहार विधान सभा चुनाव में बतौर प्रत्याशी भाग नहीं ले पा रहे हैं. लेकिन वह प्रचार के फ्रंट पर सुपरऐक्टिव हैं और आए दिन विवादास्पद बयान दे रहे हैं. लालूप्रसाद के भाषण से किसी की भावनाएं आहत हो रही है या नहीं हो रही हैं, यह बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन प्रथम दृष्ट्या ऐसी बातें तो बोल रहे हैं, जो बातें सार्वजनिक मंच से नहीं बोली जानी चाहिए.

चूंकि चुनाव प्रचार में ज़हर उगलने वाले नेताओं के ख़िलाफ़ निर्वाचन आयोग केवल एफआईआर दर्ज करवाता है. इस एफआईआर के तहत संभवतः आज़ाद भारत किसी बड़े नेता को अब तक सज़ा सुनाए जाने की मिसाल नहीं मिलती. हालांकि इस देश आईपीसी की 153, 153 ए और 153 बी के तहत किसी को सज़ा हुई हो इसकी मिसाल कम मिलती है. लिहाज़ा, विवादास्पद बयान दोने वाले नेताओं को चेतावनी देने के अलावा निर्वाचन आयोग भी बहुत कुछ नहीं कर पाता है. हां, बतौर निर्वाचन आयुक्त टीएन शेषन का कार्यकाल अपवाद रहा है. हालांकि कांग्रेस सरकार ने निर्वाचन आयोग को तीन सदस्यीय बनाकर शेषन के फैसले पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी, लेकिन शेषन को रिटायर होने तक नहीं रोक पाई. कहने का मतलब निर्वाचन आयोग के रोके भी नेता नहीं रुक रहे हैं.

ऐसे में क्या लालू प्रसादव, ओपी चौटाला और अभय चौटाला और रशीद मसूद जैसे सज़ायाफ़्ता नेताओं को भी जहर उगलने या ऊल-जलूल बोलने से नहीं रोका जा सकता है. ऐसे में सज़ायाफ़्ता नेताओं को कम से कम सार्वजनिक मंचों को शेयर करने से रोकना चाहिए. अभी हरियाणा विधान सभा चुनाव में इलाज के लिए जेल से बाहर आए चौटाला चुनाव प्रचार करने लगे थे, इसलिए उकी ज़मानत रद कर दी गई थी. गौरतबल है कि अक्टूबर 2013 में चारा घोटाले में पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद को प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट 120 बी 5 साल जेल और 25 लाख रुपये के जुर्माने की की सजा सुनाई गई थी.

लालू की ज़मानत याचिका झारखंड हाईकोर्ट ने ख़ारिज़ कर दी थी, लेकिन दो महीने से जेल की हवा खाने के बाद नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने लालू को जमानत दी थी, क्योंकि तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और सीबीआई ने लालू की जमानत का विरोध नहीं किया. लालू की तरफ से राम जेठमलानी ने पैरवी की थी. सजा सुनाए जाते ही जनप्रतिनिधि क़ानून के तहत लालू की लोकसभा सदस्यता रद हो गई थी और उन पर 11 साल यानी 2024 तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लग गई थी. लालू के साथ जेडीयू सांसद जगदीश शर्मा और जगन्नाथ मिश्रा को भी सजा सुनाई गई है. इसली तरह कांग्रेस को रशीद मसूद कोभी सज़ा सुनाई गई है, लेकिन इस पर बहस होनी चाहिए कि क्यों न सज़ायाफ़्ता से चुनाव प्रचार करने और वोट डालने का भी अधिकार छीन लिया जाना चाहिए.

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