पुरस्कार तो रिश्वत होता है, लिया ही क्यों था..?
देश में फ़िलहाल पुरस्कार, ख़ासकर साहित्य अकादमी पुरस्कार, लौटाने का मानो सीज़न चल रहा है। कई साहित्यकारों की सोई हुई अंतरआत्मा धीरे-धीरे जाग रही है। उन्हें लग रहा है कि देश में इतने ढेर सारे अनर्थ कार्य हो रहे हैं और वे कुछ कर ही नहीं रहे हैं। कई लोगों को अतंरआत्मा की आवाज़ उचित लग रही है, कि जो कुछ हो रहा है, वह ठीक कतई नहीं हो रहा है। लिहाज़ा, उसका पुरज़ोर विरोध होना चाहिए। विरोध किस तरह करें,इस पर कन्फ़्यूज़न था।
दरअसल, सभी को पब्लिसिटी वाले विरोध की दरकार थी। उसी समय एक साहित्यकार के दिमाग़ में नायाब आइडिया आया और उन्होंने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया। उनके फ़ैसले से विरोध के तरीक़े के बारे में तमाम कंफ़्यूज़न दूर हो गए। सभी को पुरस्कार लौटाने वाला तरीक़ा सबसे ज़्यादा टीआरपी बटोरने वाला लगा। बस पुरस्कार लौटाने वालों की लाइन लग गई है। अब तक दो दर्जन से ज़्यादा लोग यह “त्याग” कर चुके हैं।
कई लोगों ने जब पुरस्कार लौटाने वालों शाबाशी दी तो कई और साहित्यकार-कलाकार उत्साहित हो गए और अकादमी अवॉर्ड सरकार के मुंह पर दे मारा। बहरहाल, कई लोग सम्मान लौटाने वालों को केवल शाबाशी ही नहीं दे रहे हैं, बल्कि आह्वान भी कर रहे हैं कि बाक़ी लोग भी पुरस्कार लौटाने वाले क्लब की सदस्यता ग्रहण कर लें। इस तरह के बयान से सम्मान लौटाने के लिए साहित्यकारों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बन रहा है।
ज़ाहिर है, जो पुरस्कार नहीं लौटाएंगे, उन्हें नॉन-सेक्यूलर यानी कम्युनल या सांप्रदायिक साहित्यकार का पुरस्कार दे दिया जाएगा। अकादमी पुरस्कार लौटाने के फैशन शो में कैटवॉक करने वाले कई बेनिफिशियरीज़ ने औपचारिक रूप से सम्मान नहीं लौटाया है। मतलब घोषणा तो कर दी, लेकिन पुरस्कार लौटाने की फॉर्मैंलिटी पूरी नहीं की। यानी उनका विरोध केवल घोषणाओं तक सीमित रहा। आमतौर पर अगर पुरस्कार लौटाने का मतलब जो कुछ मिला है, वह सब लौटा देना। धनराशि तो ब्याज समेत लौटानी चाहिए, क्योंकि लेखक ने राशि पर बैंक से व्याज लिया ही होगा। हालांकि उतना त्याग आज के सेक्यूलर साहित्यकार तो करेंगे नहीं। हां, उस राशि पर अब तक जितने ब्याज कमाए हैं, उसे तो वापस करना ही चाहिए था।
साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने का सिलसिला लेखक उदय प्रकाश से शुरू हुआ। वह अच्छे साहित्यकार ही नहीं अच्छे इंसान भी हैं। वह थोड़े ज़्यादा संवेदनशील हैं। दुनिया भर की सैर करते हुए विश्व-साहित्य पढ़ चुके हैं। युवावस्था में कहानियों से वाहवाही लूटने वाले उदय प्रकाश कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या से इतने विचलित हुए कि अकादमी पुरस्कार वापस कर दिया। उनका फेसबुक वॉल देखिए। उनके बाद जिस-जिस लेखक या कलाकार ने पुरस्कार लौटाया, उन्होंने उसे बधाई दी और आभार व्यक्त किया। जैसे वह कोई मूवमेंट चला रहे हैं और जो जो उसमें शामिल हो रहा है, उसे धन्यवाद दे रहे हैं। इतना ही नहीं, पुरस्कार लौटाने के समर्थन में जितने लेख लिखे गए, उन सभी लेखों को उदय प्रकाश ने अपने वॉल पर शेयर किया है। सभी लेख उनके वॉल पर पढ़े जा सकते हैं। वह फेसबुक पर जो कुछ लिख रहे हैं, उससे लॉबिंग की बू आ रही है।
हैरानी वाली बात है कि उन्होंने फेसबुक वॉल पर 26 मार्च 2015 रिपीट 26 मारट 2015 को लिखा है, "दोस्तो, क्या मुझे हिंदी साहित्य के लिए मिले समस्त पुरस्कारों को लौटा देना चाहिए? मुझे लगता है, अवश्य! ये जीवन के माथे पर दाग हैं।" यानी पुरस्कार लौटाने का मन उदय प्रकाश ने बहुत पहले बना लिया था। कुलबर्गी की हत्या अच्छा मौक़ा था। इन सारी कवायदों से साफ़ लग रहा है कि पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को सत्ता की बाग़डौर सौंपने के देश की जनता के फ़ैसले से पुरस्कार लौटाने वाले तमाम साहित्यकार बुहत दुखी हैं और मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं। ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा है कि लेखक-वृंद तटस्थ हैं। दरअसल, पुरस्कार लौटाने वालों की संख्या गिनी जा रही है कि बहुमत में हुआ कि नहीं।
नयनतारा सहगल और कृष्णा सोबती ने पुरस्कार लौटाते समय जो पत्र लिखा है, उसके मुताबिक़, दिल्ली से सटे दादरी में मोहम्मद अखलाक़ की हत्या से विचलित होकर पुरस्कार वापस कर दिया। क्या दिल्ली या आसपास होने वाली हत्याओं से साहित्यकार ज़्यादा विचलित होते हैं? अगर नहीं तो पुणे में मोहम्मद सादिक शेख की हत्या से कोई लेखक विचलित क्यों नहीं हुआ। सोलापुर के सादिक की मौत अखलाक़ से बहुत ज़्यादा भयावह थी। कुछ लोग उसे दो जून 2014 की रात पुणे की एक सड़क पर लाठी डंडे से पीट रहे थे और वह चिल्ला-चिल्ला कर अपने जीवन की भीख मांग रहा था। लेकिन हत्यारे तब तक पीटते रहे जब तक वह मर नहीं गया।
सबसे हैरान करने वाली बात है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली के दंगे में क़रीब 2800 सिख कत्ल कर दिए गए। सबकी मौत कमोबेश अखलाक़ जैसी या उससे भी भयानक रहीं। इसके अलावा बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुंबई में भड़के दंगे में 900 लोग मार दिए गए, जिनमें ज़्यादातर मुस्लिम थे। सभी मौतें अखलाक़ से कई गुना वीभत्स और बर्बर थी, लेकिन किसी ने कोई पुरस्कार नहीं लौटाया।
इसी तरह 2002 में गोधरा में 59 लोगों को ज़िंदा जला दिया गया था। उसके बाद पूरे गुजरात में लोग थोक के भाव जलाए और मारे-काटे गए। दंगे के बाद सभी नरेंद्र मोदी को कोसते रहे, लेकिन पुरस्कार किसी ने भी नहीं लौटाया। 20 अगस्त 2013 को अंधविश्वास के प्रखर विरोधी नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हो गई। इस साल 16 फरवरी को कोल्हापुर में कॉमरेड गोविंद पानसरे पर हमला हुआ और चार दिन बाद उनका निधन हो गया। कुलबर्गी की हत्या पर पुरस्कार वापस करने वाले सारे साहित्यकार दाभोलकर और पानसरे की हत्या के समय सो रहे थे।
इसीलिए यहां डॉ. नामवर सिंह के वक्तव्य को कतई ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता कि महज़ सुर्खियां बटोरने के लिए लेखक और कलाकार पुरस्कार वापस कर रहे हैं। दरअसल, जब इन लोगों को साहित्य अकादमी या नाटक अकादमी पुरस्कार मिला था, तब किसी को पता ही नहीं चल सका था। अब ये लोग पुरस्कार वापस कर रहे हैं, तो सब लोग जान रहे हैं कि इस आदमी को पुरस्कार मिला था, अब वह उसे वापस कर रहा है। कुछ लोग यह सोच कर सहानुभूति जता रहे हैं कि देश में “ख़राब हालत” के लिए साहित्यकार-कलाकार अपने पुरस्कार की क़ुर्बान दे रहे हैं।
वैसे आम आदमी हैरान होता है, कि पुरस्कार हैं क्या और शुरु कब हुए? पुरस्कारों के शुरू होने के बारे में मज़ेदार तथ्य मिलते हैं। लब्बोलुआब, बड़े लोगों द्वारा खुश होकर छोटे लोगों को कुछ भेंट करना नज़राना, बख्शीश, उपहार या ईनाम कहा जाता है। यानी देने वाला दाता होता है, लेने वाला दीन। प्राचीन ग्रंथों में जिक्र आता है कि नर्तकियों के नृत्य से जब राजा खुश होते थे, तो नर्तकी को पुरस्कार यानी बख्शीश देते थे। इसी तरह अच्छी ख़बर सुनाने वाले अनुचरों को राजा द्वारा अपना आभूषण उतार कर देने की भी परंपरा रही है। यह परंपरा मध्यकाल में भी चलती रही। सुल्तान किसी की सेवा या स्वामिभक्ति से ख़ुश होने पर उसे इनाम या बख्शीश के रूप सुबेदारी या जागीरदारी दे देता था।
दरअसल, यह परंपरा अंग्रेजी शासन में भी जारी रही। अंग्रेज़ अपने भक्त भारतीयों को इनाम के रूप में रायबहादुर या दूसरी पदवी देते थे। उन्होंने गीताप्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार उर्फ भाई जी को रायबहादुर की पदवी देनी चाही थी, लेकिन भाई जी ने ठुकरा दिया। गोरों ने रवींद्रनाथ टेगोर को नाइटहुड दिया तो ले लिया, लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद लौटा दिया था। हालांकि टैगोर के फ़ैसले पर सवाल उठे थे कि देश पर बलात् शासन करने वाले अंग्रज़ों का सम्मान स्वीकार ही क्यों किया।
पुरस्कारों को रिश्वत कहा जाता है, क्योंकि क़रीब-क़रीब दुनिया का हर पुरस्कार मैनेज़्ड होता है। किसी पुरस्कार को स्वीकार करने का ही मतलब है कि देने वाली सरका या संस्थान के हर कार्य, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, में सहभागी होना। कई बार सरकारें या संस्थान मुंह बंद करने के लिए भी पुरस्कार देते हैं। यह भी कह सकते हैं कि हर सरकार या संस्थान पुरस्कार के पात्र उम्मीदवारों की भीड़ में अपने-अपने आदमी खोजते हैं, और अपने आदमी को सम्मान देना चाहते हैं। इसी कारण फ्रांस के महान दार्शनिक और अस्तित्ववाद के प्रणेता ज्यां पॉल सार्त्र ने जीवन भर कोई पुरस्कार लिया ही नहीं।
सार्त्र मानते थे कि लेखक को पुरस्कार स्वीकार ही नहीं करना चाहिए। पुरस्कार ले लेने से लेने वाला न तो स्वतंत्र रह पाता है न ही तटस्थ। खुद सार्त्र ने 1964 में नोबेल पुरस्कार स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। पुरस्कार लेने से ही मना करते हुए सार्त्र स्वीडिश नोबेल अकादमी को लिखे पत्र में कहा था कि लेखक को खुद को किसी भी सरकार या संस्थान से जुड़ने नहीं देना चाहिए। पुरस्कार या सम्मान ग्रहण करने के बाद लेखक उस सरकार या संस्थान से जुड़ जाता है। इसी आधार पर सार्त्र ने 1945 में फ्रांस का सर्वोच्च सम्मान लिजन ऑफ द ऑनर भी लेने से मना कर दिया था। हालांकि सन् 1973 में विएतनाम के ले डुक थो ने भी नोबेल पुरस्कार लेने से मना कर दिया था, लेकिन उन्होंने यह फैसला देश के अंदरुनी हालात के मद्देनज़र लिया था।
बहरहाल, पुरस्कार देने की परंपरा दुनिया भर में रही है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उसी परंपरा का निर्वहन करते हुए आज़ादी मिलने पर भारत रत्न से लेकर पद्मविभूषण, पद्मश्री, अकादमी और खेलरत्न पुरस्कार आदि शुरू किया। लेकिन पुरस्कारों को लेकर देश में ऐसा माहौल रहा है कि सारे पुरस्कार संदिग्ध हो गए हैं। यहां तक कि भारत रत्न जैसे सर्वोच्च पुरस्कार पर भी राजनीति होती रही है। इसीलिए जब 1988 में तमिलनाडु के सीएम रहे एमजी रामचंद्रन को मरणोपरांत भारत रत्न दिया गया तो इसे राजनीतिक फायदा लेने वाला क़दम कहा गया। इसी तरह पुरस्कार का नियम बदलकर उन लोगों को भी पुरस्कार देने की शुरुआत कर दी गई, जिनका निधन आज़ादी के पहले हो चुका था।
सीधी सी बात है, जो बहुत ज़्यादा आदर्शवादी हैं, उन्हें कोई पुरस्कार लेना ही नहीं चाहिए, क्योंकि पुरस्कार देने वाली कोई भी सरकार या राजनीतिक पार्टी पाक-साफ़ नहीं होती। ऐसी सरकार या पॉलिटिकल पार्टी से पुरस्कार लेने का मतलब उसकी नीतियों का समर्थन करना होता है। मसलन, उदय प्रकाश को पता था कि कांग्रेस इमरजेंसी लगा चुकी है, 1984 में उसके राज में सिखों का क़त्लेआम हो चुका है, कांग्रेस के कार्यकाल में मुंबई में दंगे हुए और कांग्रेस के ज़माने में ख़ूब भ्रष्टाचार हुए, इसके बावजूद उदय प्रकाश ने कांग्रेस के दौर में साहित्य अकादमी पुरस्कार स्वीकार किया। यानी कहीं न कहीं उनके मन में भी ललक थी कि उनका नाम भी साहित्य अकादमी का पुरस्कार पाने वालों की फेहरिस्त में जुड़े। संवेदनशील होते हुए भी उन्होंने सरकारी पुरस्कार ले लिया। एक बार जब बेनिफिशियरी हो गए तब चुप रहना चाहिए था। संवेदनशील होने का नाटक नहीं करना चाहिए था।
ऐसा ही नाटक फणीश्वरनाथ रेणु ने किया था। पहले पद्मश्री लिया फिरा आपातकाल और सरकारी दमन के विरोध में पुरस्कार लौटा दिया था। इस फेहरिस्त में लेखक खुशवंत सिंह भी हैं। उन्हें इंदिरा गांधी के दौर में 1974 पद्मभूषण पुरस्कार दिया गया। उन्होंने अमृतसर स्वर्ण मंदिर में सेना के प्रवेश के विरोध में 1984 में इसे लौटा दिया था। मज़ेदार बात थी कि जब जरनैल सिंह भिंडरवाला स्वर्ण मंदिर जैसे पवित्र जगह से आतंकवादी गतिविधियों का संचालन कर रहा था, तब खुशवंत आहत नहीं हुए, लेकिन स्वर्ण मंदिर को आतंकियों चंगुल से छुड़ाने के लिए जवान घुसे तो खुशवंत हर्ट हो गए।
लेखिका व सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती राय की कहानी भी ऐसी है। उन्होंने अफगानिस्तान और इराक पर अमेरिकी सैन्य कार्रवाई के विरोध में 2006 में साहित्य अकादमी सम्मान ठुकरा दिया था। लेकिन मैग्सेसे सम्मान नहीं लौटाया। यह दोहरा मापदंड सम्मान वापस करने वाले साहित्यकारों को बेनकाब करता है। सवाल यह है कि पुरस्कार तो रिश्वत होता है, उसे लिया ही क्यों?
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