हरिगोविंद विश्वकर्मा
इसमें कोई संदेह नहीं कि आत्महत्या एक अमानवीय, दुखद, दहलाने वाली और निंदनीय वारदात होती है। वह किसी अच्छे नागरिक की हो
या बुरे की। वह किसी विद्वान की हो या अज्ञानी की। हर हाल में होती तो है हानि एक मनुष्य जीवन
की ही। इसमें क़ुदरत से मिली एक बेशकीमती जान चली जाती है, जिसे कोई मां पूरे नौ
महीने अपने गर्भ में पालती है। इसीलिए इसे इंसान के जीने के अधिकार का हनन भी माना
जा सकता है। आत्महत्या कमोबेश हर संवेदनशील को विचलित करती है। कोई आम आदमी इनके
बारे में सोच कर ही थरथरा उठता है। इसके बावजूद, कोई अगर अपनी ही हत्या जैसा घातक
क़दम उठाए, तो मन और भी ज़्यादा विचलित होता है। हर आदमी सोचने लगता है कि आख़िर
ऐसा क्या हुआ उसके साथ, जिसके चलते उस इंसान ने अपने आपको ही ख़त्म कर लिया?
कमोबेश, विजयवाड़ा के गुरुज़ाला टाउन के दलित समुदाय के छात्र रोहित वेमुला की
पिछले हफ़्ते कथित ख़ुदकुशी ऐसे ही सवाल खड़े करती है कि आख़िर ऐसा क्या हुआ जो एक
मिशनरी किस्म के जूझारू छात्र ने अचानक से हथियार डाल दिया और उसे अपने तमाम संघर्षों
का हल केवल और केवल अपनी मौत में ही नज़र आया। लिहाज़ा, उसने मौत का आलिंगन भी कर
लिया। देखिए रोहित का सूइसाइड नोट...
“मैं राइटर बनना चाहता था, साइंस का राइटर, लेकिन
नौबत ऐसी आ गई है कि अब राइटर के नाम पर मैं अपने हाथ से अपना ही सूइसाइड नोट लिख
रहा हूं...” कमोबेश यही लिखकर उसने मौत को आत्मसात् कर लिया था।
कोई हफ़्ताभर पहले... रोहित की आत्महत्या पर किसी तरह, पक्ष या विपक्ष में चर्चा
से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि रोहित का किरदार था कैसा? साइंटिस्ट और साइंस लेखक बनने का सपना देखने वाला साइंस का छात्र कैसे साइंस
से सोशल साइंस की दुनिया में चला गया ? जी हां, रोहित ने एमएससी साइंस से की थी, लेकिन
पीएचडी वह सोशल साइंस से कर रहा था। यह बहुत बड़ा बदलाव था उसमें जो उसमें छात्र
राजनीति का हिस्सा बनने के बाद आया।
दरअसल, जब रोहित गांव से हैदराबाद आया तो खालिस मेधावी छात्र था। उसने अपने
दोस्त के आग्रह पर सबसे पहले 2009 के छात्रसंघ के चुनाव में अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद के उम्मीदवार को वोट भी दिया था। तब वह साइंस से पढ़ाई कर रहा
था। दरअसल, 2004 में हैदराबाद वह एक मिशन लेकर आया था, लेकिन संभवतः विश्वविद्यालय
की राजनीति ने उसे भ्रमित कर दिया। साइंटिस्ट बनने का मकसद पीछे रह गया और वह नये
ज़माने की राजनीति का हिस्सा बन गया। हैदराबाद पहुंचने पर रोहित के पहले परिचित
आंध्रप्रदेश रेज़िडडेंशियल कॉलेज के प्रिंसिपल बी कोंडैया, जो 2004 में वहां
लेक्चरर थे, उसे मधुरभाषी और असाधारण प्रतिभाशाली छात्र बताते हैं। कोंडैया के शब्दों
में, “वह राजनीति से पूरे तरह अछूता था। वह तक तक सही
ट्रैक पर था। बारहवीं में उसे 600 में सले 521 अंक मिले थे, 86 फ़ीसदी अंक।“ रोहित के केमिस्टी टीचर ने भी बताया कि वह फिज़िक्स, केमिस्ट्री और बॉटनी में
आसाधारण रूप से तेज़ छात्र था।
22 जुलाई 2010 में फेसबुक वॉल पर अंग्रेज़ी में लिखा, “मैंने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया है। विश्वविद्यालय
में माहौल खुशगंवार है। यहां बहुत अच्छे लोग हैं। मैं बहुत अच्छा महसूस कर रहा
हूं। कुछ अच्छे दोस्त बनाने की सोच रहा हूं।“ एक ख़ास दोस्त के
मुताबिक यूजीसी जूनियर रिसर्च फेलोशिप के लिए चयनित होते ही रोहित को हर महीने 28
हज़ार रुपए वजीफा मिलने लगे जिसमें से, बताया जाता है, वह हर महीने 20 हजार रुपए अपनी
मां को गांव में भेजता था। पहले वह स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (छात्रों की लेफ़्ट
विंग) से जुड़ा था, लेकिन 2014 में अंबेडकर स्टूडेंट असोसिएशन से जुड़कर वह उसका युवा
विचारक बन गया था। संभवतः वह इसीलिए सोशल साइंस विषय पर में रिसर्च कर रहा था।
बड़ी अहम बात यह कि ‘मौत में हर समस्या का समाधान’ उसे अचानक नहीं, बल्कि तीन साल पहले ही लगने लगा था। दरअसल, दिल्ली गैंगरेप की
पीड़ित लड़की ज्योति सिंह की सिंगापुर में मौत के बाद अगर रोहित का फेसबुक वाल पर देखा
जाए तो यही लगेगा कि ज्योति प्रकरण से ही उसका व्यवस्था से मोहभंग होना शुरू हो
गया था। उसने 29 दिसंबर 2012 को लिखा, “545 चुने हुए लोग
लड़की के लिए कोई स्टैंड लेने में असफल रहे। एक ऐसा देश, जहां राजनेता चुने हुए
दलाल की तरह काम करते हों, जो बिना रिश्वत के काम ही न करें। एक ऐसा देश, जहां
बुराई के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में छात्र शर्म यार डर महसूस करें। एक ऐसा देश, जहां
बुद्धिजीवी रुपए बनाने वाली मशीन की तरह चालित हो। ऐसी जगह मौत ही हमें समस्याओं
से मुक्त कर सकती है।“ यानी रोहित के व्यक्तित्व
में ख़ुदकुशी के लिए जगह तीन साल पहले से बनने लगी थी। हां, विश्वविद्यालय में
छोटे से अपराध के लिए बहुत लंबी सज़ा ने बेशक उसे हताश कर दिया होगा और उसने मौत
को गले लगाना ही श्रेयस्कर समझा होगा।
रोहित के साथ सब ठीक चल रहा था, लेकिन पिछले साल 30 जुलाई को देश के क़ानून (जिसे
निष्पक्ष मानते हैं) द्वारा मुबंई में 257 निर्दोष लोगों की हत्या के दोषी ठहराए
गए आतंकवादी याक़ूब मेमन को फ़ांसी के विरोध में अंबेडकर स्टूडेंट असोसिएशन ने प्रोटेस्ट
मार्च निकाला। दरअसल, देश में सेक्युलर जमात के तथाकथित बुद्धिजीवी पता नहीं किस फिलॉसफी
के तहत याक़ूब जैसे आतंकवादियों को डिफेंड करते रहे हैं। वैसे, याक़ूब के समर्थन
में एएसए जैसे किसी दलित संगठन के उतरने की बात हज़म नहीं होती। याक़ूब मुंबई की
आलिशान इमारत में रहने वाला अरबपति चार्टर्ड अकाउंटेट था। उसका दलित जैसे मसलों से
कोई लेना-देना तक नहीं था। फिर भी अंबेडकर स्टूडेंट असोसिएशन ने उसके लिए
प्रोटेस्ट मार्च क्यों किया? ज़ाहिर है, रोहित अपने मकसद
से भटका हुआ लग रहा था। याक़ूब के मसले पर एएसए का स्टैड प्रथमदृष्ट्या मूर्खतापूर्ण
लगता है, क्योंकि याक़ूब किसी ह्यूमन राइट वायलेशन का शिकार नहीं था। उसे फांसी
सुप्रीम कोर्ट ने दी थी। उसे बचाव के हर संभव मौके दिए गए। यहां तक कि उसकी फ़ांसी
टालने वाली याचिका पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने आधी रात को सुनवाई की। हर बार
जजों पाया कि अंबेडकर ने जो संविधान बनाया है, उसके मुताबिक़ याक़ूब फ़ांसी का ही
हक़दार है। पूरे विवेक के साथ सुप्रीम कोर्ट ने याकूब को फांसी पर लटकाने का फ़ैसला
सुनाया था। लिहाज़ा, याकूब को फ़ांसी का विरोध असंवैधानिक था और अंबेडकर विरोधी भी।
यानी रोहित और उसके साथी भ्रमित थे। इसी मुद्दे पर रोहित का अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद से टकराव हुआ और केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने एचआरडी
मिनिस्टर स्मृति ईरानी को पत्र लिखा। इसमें दो राय नहीं कि हैदराबाद विश्वविद्यालय
के कुलपति अप्पाराव पोडिले ने रोहित समेत पांच छात्रों को विश्वविद्यालय और
हॉस्टेल से निकाल कर उनसे भी बड़ा गुनाह किया। इस बिना पर बंडारू और अन्य लोगों के
ख़िलाफ़ तेलंगाना पुलिस का एफ़आईआर ग़लत नहीं है।
दरअसल, फेलोशिप बंद हो जाने से रोहित भयानक आर्थिक संकट में था। वह उसी व्यवस्था
का शिकार हो गया, जिसने अब तक पता नहीं कितने दलित या मजबूर छात्रों की जान ली है।
रोहित के सूइसाइडल नोट को ध्यान से पढ़ें, तो पता चलता है कि उसमें खालीपन का
अहसास भर गया था, जिसने ख़ुदकुशी जैसा क़दम उठाने को मजबूर किया। दरअसल, फेलोशिप
बंद होने से उसके पास खाने को भी पैसे नहीं थे। दरअसल, दलित समुदाय के लोग चूंकि
आर्थिक तौर पर बहुत कमज़ोर होते हैं, इसलिए व्यवस्था के हल्के प्रहार को भी झेल
नहीं पाते हैं। आज़ादी के क़रीब सात दशक के दौरान दलित समुदाय के लोगों को संविधान
से ख़ूब सहूलियत मिली, लेकिन तमाम सहूलियतें जगजीवन राम, मायावती, रामविलास पासवान
और रामदास अठावले जैसे धनाध्य दलित नेता हज़म करते रहे और दलित समुदाय की हालत,
ख़ासकर सामाजिक और आर्थिक स्थिति कमोबेश पहले जैसी ही रही। मतलब, दलितों के
आरक्षित नौकरी धनी दलित छीनते रहे। दलित संसदीय या विधानसभा सीटों से करोड़पति
दलित नेता संसद या विधान सभा में पहुंचते रहे। ये नेता अपनी व्यक्तिगत हैसियत बढ़ते
रहे, लेकिन उनका समाज पहले की तरह वैसे ही मुख्यधारा से कटा रहा। इसीलिए आज भी ढेर
सारे दलित छात्र आरक्षण के बावजूद पढ़ नहीं पाते, उनकी सीटे रिक्त रहती हैं, या
भरी जाती हैं तो आर्थिक रूप से संपन्न दलित नेताओं के बाल-बच्चों द्वारा। बेशक आरक्षण
ने अनुसूचित जाति-जनजाति छात्रों की संख्या बढ़ाई है। परंतु आबादी के अनुपात के
हिसाब से अब भी यह संतोषजनक नहीं है। हालांकि असमानता और शोषण को जीवन मूल्य समझने
वाले यथास्थितवादी लोग इस बदलाव से चिढ़ते हैं।
बहरहाल, रोहित बहुत ग़रीब पृष्ठिभूमि से आया था। उसके सूइसाइड नोट में काटे गए
अंश बताते हैं कि उसका अंबेडकर स्टूडेंट यूनियन से भी मोहभंग हो गया था। संभवतः
आतंकी याक़ूब का समर्थन करके शायद उसमें आत्मग्लानि भर गई थी। जिसके चलते उसके
अंदर खालीपन का अहसास भर जाना स्वाभाविक था। यह इस देश की सामूहिक त्रासदी है.
रोहित जैसे न जाने कितने नागरिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ते हुए इसी तरह के खालीपन से
भर जाते हैं। भयानक ग़रीबी झेलते हुए पीएचडी तक पहुंचने वाले इन छात्रों को उनके अपराध
से कई गुना ज़्यादा सज़ा दी गई थी? सात महीने से बंद फेलोशिप ने रोहित तोड़ दिया था। उसे कोई समाधान नहीं मिल
रहा था। उसने अपने सूइसाइड नोट में अपनी तंग हालत का ज़िक्र किया है। भयानक आर्थिक
तंगी के कारण क़र्ज़दार हो चुके रोहित को अंततः मौत ही एकमात्र समाधान नज़र आया,
जो उसके दिमाग़ में तीन साल से चल रहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केवल भावुक
होने से ही काम नहीं चलेगा, बल्कि इस प्रकरण में सभी जवाबदेह और ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ ऐक्शन लेना होगा। यह सही क्षतिपूर्ति होगी। वैसे
ख़बर आ रही है कि कुलपति को लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया है। यह ऐक्शन लेने के रास्ते
में सकारात्मक पहल है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें