हरिगोविंद विश्वकर्मा
नववर्ष की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली दिल्ली सरकार फिर आमने-सामने आ गए। दिल्ली के गृहमंत्री सतेंद्र जैन का आदेश नहीं मानने पर जिन दो अफसरों को सस्पेंड किया गया था, केंद्र ने उनके सस्पेंशन को रद्द कर दिया। केंद्र के क़दम के बाद दिल्ली की लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार एक बार फिर अपने आपको असहाय महसूस कर रही है। जो भी हो, केंद्र के क़दम से प्राइमा फेसाई यह साफ़ हो गया है कि केंद्र को चाहे जो भी क़ीमत चुकानी पड़े, वह केजरीवाल सरकार को पूरे पांच साल तक काम करने ही नहीं देगी।
दरअसल, इस बार पंगा सरकारी वकील और तिहाड़ जेल के कर्मियों की वेतनवृद्धि को लेकर हुआ। दिल्ली सरकार ने बिना केंद्र की मंजूरी के कैबिनेट से पास करके फ़ाइल लेफ़्टिनेंट गवर्नर नज़ीब जंग के पास भेज दी थी। नज़ीब ने संविधान का हवाला देकर फ़ाइल केंद्र के पास भेज दी। सतेंद्र जैन दिल्ली गृह विभाग में स्पेशल सेक्रेटरी यशपाल गर्ग और सुभाष चंद्रा से नोटिफिकेशन जारी करने का आग्रह कह रहे थे, परंतु संविधान का हवाला देते हुए दोनों अफ़सर आनाकानी कर रहे थे। इस पर सतेंद्र जैन ने दोनों को सस्पेंड कर दिया था। संविधान के मुताबिक दोनों निलंबित अफ़सरान दानिक्स कैडर में आते थे और और उन्हें केंद्र की मंजूरी के बाद केवल लेफ़्टिनेंट गवर्नर ही निलंबित कर सकते हैं। दरअसल, केंद्र शासित प्रदेशों के अधिकारियों को दानिक्स कैडर का माना जाता है. दानिक्स अफसरों का चयन संघ लोकसेवा आयोग की सिविल सर्विस परीक्षा के माध्य से किया जाता है।
2013-14 में केजरीवाल सरकार ने 49 दिन में गुड गवर्नेंस का परिचय दिया था। इसी आधार पर दिल्ली के लोगों ने सोचा था कि आम आदमी पार्टी को वोट देकर वे अच्छा फ़ैसला कर रहे हैं। पर केजरीवाल के दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी, कैबिनेट और भारतीय जनता पार्टी जिस तरह शुरू से नज़ीब जंग के ज़रिए जनता द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार को काम नहीं करने दे रहे हैं, उससे पूरे देश में बीजेपी के बारे में कम से कम अच्छा संदेश तो नहीं जा रहा है। केजरीवाल हर जगह कैमरे के सामने यही कह रहे हैं, “प्रधानमंत्री जी हमें काम करने दीजिए।“ इससे ख़ुद प्रधानमंत्री की छवि सबसे ज़्यादा ख़राब हो रही है। कमोबेश पिछले बिहार विधान सभा के चुनाव नतीजों में बीजेपी की इस कथित खुलेआम बेईमानी का भी कहीं न कहीं योगदान ज़रूर था।
हालांकि दूसरे कार्यकाल में केजरीवाल ख़ुद ही बेनकाब हो रहे थे। एक-एक करके वही क़दम उठा रहे थे, जिसकी कभी वह मुखालफत किया करते थे। उन्होंने जिस तरह गाली देकर आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों को निकाल बाहर फेंका था, वह कार्यशैली कमोबेश सोनिया गांधी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, जयललिता या ममता बैनर्जी जैसी सुप्रीमो कल्चर वाली थी। लेकिन, चूंकि आम आदमी पार्टी को दिल्ली की जनता ने ख़ुद अभूतपूर्व समर्थन दिया था, ऐसे में नरेंद्र मोदी, उनके कैबिनेट और बीजेपी को जनता के फ़ैसले को स्वीकार कर राज्य सरकार को उसी तरह चलने देना चाहिए था, जिस तरह आमतौर पर इस देश में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार चलती है। लेकिन केंद्र ने केजरीवाल के कामों में अनावश्यक दख़ल देकर उन्हें ख़ुद एक्सपोज़ होने ही नहीं दिया।
देश का आम आदमी यह भलीभांति जानता है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला है। लोग यह भी जानते हैं कि चूंकि भारत सरकार का मुख्यालय दिल्ली में है, इसलिए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता और यह संभव भी नहीं। साथ में लोग की जानकारी में यह भी है कि दिल्ली में विधान सभा का चुनाव उसी तरह होता है, जिस तरह देश में लोकसभा या किसी राज्य की विधानसभा के लिए चुनाव होता है। लोग यह भी जानते हैं कि कोई भी जनता जब किसी नेता को सरकार का नेतृत्व करने के लिए चुनती है, तो इसका मतलब यही होता है कि जनता पूरे होशों-हवास से उस नेता या उस दल अथवा उस गठबंधन को देश या राज्य में पांच साल तक शासन करने, जिसे नरेंद्र मोदी ‘सेवा’ कहते हैं, का अधिकार दिया है। इसी तरह देश की जनता ने मई 2014 में नरेंद्र मोदी और बीजेपी को वोट दिया था, तो दिल्ली की जनता ने साढ़े आठ महीने बाद अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को वोट दिया।
इन परिस्थितियों में संविधान का हवाला देकर लोकतांत्रिक चुनाव में जीत दर्ज करने वाले नेता, दल या गठबंधन को काम न करने देना अनैतिक, असंवैधानिक अपरिपक्व और तानाशाही भरा क़दम माना जाता है। ख़ासकर तब, जब केजरीवाल सरकार पुलिस को छोड़कर उन विषयों पर फैसले कर रही है, जो सीधे दिल्ली की जनता के हितों से जुड़े हैं। कम से कम केजरीवाल दिल्ली में पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति करने की हिमाकत तो कर नहीं रहे हैं, न ही वह केंद्र सरकार के कामकाज में दख़ल दे रहे हैं या कोई अवरोध खड़ा कर रहे हैं। वह अपने दायरे में रहकर काम कर रहे हैं, लेकिन केंद्र संविधान का हवाला देकर नज़ीब जंग के ज़रिए उनके हर फ़ैसले को पलट रहा है। देश के लोग इस बात का भी बहुत अच्छी तरह नोटिस ले रहे हैं और मुमकिन है साल भर बाद उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव में उसकी अभिव्यक्ति करें भी।
इस बात पर संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं कि प्रधानमंत्री, उनका कैबिनेट और बीजेपी पिछले 11 महीने से वह सब कर रहे हैं, जिसे तानाशाही कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। लोकतांत्रिक ढंग से जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को संविधान या क़ानून का हवाला देकर कोई फ़ैसले न लेने देना, एक तरह से अघोषित आपातकाल है। ऐसी मिसाल केवल 1975 में मिली थी, जब कई निर्वाचित सरकारों को इंदिरा गांधी ने बर्खास्त कर दिया था। दिल्ली में अप्रत्यक्ष रूप से वहीं सब हो रहा है, जिसे दिल्ली की जनता की इनसल्ट कहें तो ग़लत नहीं होगा।
नज़ीब जंग जो कुछ कर रहे हैं, उसे बीजेपी या उसके शासन के बेनिफिशियरीज़ के अलावा दूसरा कोई व्यक्ति अप्रूव नहीं कर सकता। नज़ीब केंद्र के इशारे पर लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को कोई काम नहीं करने दे रहे हैं। लोग समझ रहे हैं कि मोदी सरकार दिल्ली और दिल्ली की जनता के साथ खुला पक्षपात और बेइमानी कर रही है। जब यही सब करना था तो दिल्ली में विधान सभा या मुख्यमंत्री की क्या ज़रूरत? आख़िर जब काम ही नहीं करने देना था तो दिल्ली में विधान सभा का चुनाव कराने की क्या ज़रूरत थी? दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगे रहने देना था।
दरअसल, दिल्ली की जनता ने बीजेपी को वोट क्यों नहीं दिया? इस पर बीजेपी लीडरशिप ने कभी विचार ही नहीं किया। नरेंद्र मोदी ने 26 मई 2014 प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। उनके पास लोकसभा में 282 सीट यानी पूर्ण बहुमत से 10 सीट ज़्यादा थी। सरकार की गैरमौजीदगी में लेफ़्टिनेंट गवर्नर तब दिल्ली के शासक थे। यानी एक तरह से बीजेपी ही दिल्ली की सरकार चला रही थी। तब बीजेपी ने कोई अहम फ़ैसला नहीं लिया। वह सरकार बनाने का असफल जोड़तोड़ करती रही। 13 फरवरी को केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। यानी 26 मई 2014 से 12 फरवरी 2015 तक यानी 263 दिन दिल्ली का शासन बीजेपी के हाथ में था और जनता को दिल जीतने के लिए किसी नेता के लिए यह पर्याप्त समय था। लेकिन बीजेपी उसे भुना नहीं पाई। कांग्रेस से परेशान दिल्ली की जनता बीजेपी के 263 दिन के कार्यकाल में भी परेशान रही इसलिए उसने आम आदमी पार्टी को वेट दिया। इसमे जनता की क्या ग़लती, जिसका बदला नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार दिल्ली के लोगों से ले रही है। अब भी वक़्त है, नरेंद्र मोदी, उनका कैबिनेट और बीजेपी बालहठ छोड़कर दिल्ली सरकार को काम करने दें। ताकि केजरीवाल यह कह न सकें कि मोदी ने उन्हें काम ही नहीं करने दिया।
नववर्ष की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली दिल्ली सरकार फिर आमने-सामने आ गए। दिल्ली के गृहमंत्री सतेंद्र जैन का आदेश नहीं मानने पर जिन दो अफसरों को सस्पेंड किया गया था, केंद्र ने उनके सस्पेंशन को रद्द कर दिया। केंद्र के क़दम के बाद दिल्ली की लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार एक बार फिर अपने आपको असहाय महसूस कर रही है। जो भी हो, केंद्र के क़दम से प्राइमा फेसाई यह साफ़ हो गया है कि केंद्र को चाहे जो भी क़ीमत चुकानी पड़े, वह केजरीवाल सरकार को पूरे पांच साल तक काम करने ही नहीं देगी।
दरअसल, इस बार पंगा सरकारी वकील और तिहाड़ जेल के कर्मियों की वेतनवृद्धि को लेकर हुआ। दिल्ली सरकार ने बिना केंद्र की मंजूरी के कैबिनेट से पास करके फ़ाइल लेफ़्टिनेंट गवर्नर नज़ीब जंग के पास भेज दी थी। नज़ीब ने संविधान का हवाला देकर फ़ाइल केंद्र के पास भेज दी। सतेंद्र जैन दिल्ली गृह विभाग में स्पेशल सेक्रेटरी यशपाल गर्ग और सुभाष चंद्रा से नोटिफिकेशन जारी करने का आग्रह कह रहे थे, परंतु संविधान का हवाला देते हुए दोनों अफ़सर आनाकानी कर रहे थे। इस पर सतेंद्र जैन ने दोनों को सस्पेंड कर दिया था। संविधान के मुताबिक दोनों निलंबित अफ़सरान दानिक्स कैडर में आते थे और और उन्हें केंद्र की मंजूरी के बाद केवल लेफ़्टिनेंट गवर्नर ही निलंबित कर सकते हैं। दरअसल, केंद्र शासित प्रदेशों के अधिकारियों को दानिक्स कैडर का माना जाता है. दानिक्स अफसरों का चयन संघ लोकसेवा आयोग की सिविल सर्विस परीक्षा के माध्य से किया जाता है।
2013-14 में केजरीवाल सरकार ने 49 दिन में गुड गवर्नेंस का परिचय दिया था। इसी आधार पर दिल्ली के लोगों ने सोचा था कि आम आदमी पार्टी को वोट देकर वे अच्छा फ़ैसला कर रहे हैं। पर केजरीवाल के दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी, कैबिनेट और भारतीय जनता पार्टी जिस तरह शुरू से नज़ीब जंग के ज़रिए जनता द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार को काम नहीं करने दे रहे हैं, उससे पूरे देश में बीजेपी के बारे में कम से कम अच्छा संदेश तो नहीं जा रहा है। केजरीवाल हर जगह कैमरे के सामने यही कह रहे हैं, “प्रधानमंत्री जी हमें काम करने दीजिए।“ इससे ख़ुद प्रधानमंत्री की छवि सबसे ज़्यादा ख़राब हो रही है। कमोबेश पिछले बिहार विधान सभा के चुनाव नतीजों में बीजेपी की इस कथित खुलेआम बेईमानी का भी कहीं न कहीं योगदान ज़रूर था।
हालांकि दूसरे कार्यकाल में केजरीवाल ख़ुद ही बेनकाब हो रहे थे। एक-एक करके वही क़दम उठा रहे थे, जिसकी कभी वह मुखालफत किया करते थे। उन्होंने जिस तरह गाली देकर आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों को निकाल बाहर फेंका था, वह कार्यशैली कमोबेश सोनिया गांधी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, जयललिता या ममता बैनर्जी जैसी सुप्रीमो कल्चर वाली थी। लेकिन, चूंकि आम आदमी पार्टी को दिल्ली की जनता ने ख़ुद अभूतपूर्व समर्थन दिया था, ऐसे में नरेंद्र मोदी, उनके कैबिनेट और बीजेपी को जनता के फ़ैसले को स्वीकार कर राज्य सरकार को उसी तरह चलने देना चाहिए था, जिस तरह आमतौर पर इस देश में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार चलती है। लेकिन केंद्र ने केजरीवाल के कामों में अनावश्यक दख़ल देकर उन्हें ख़ुद एक्सपोज़ होने ही नहीं दिया।
देश का आम आदमी यह भलीभांति जानता है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला है। लोग यह भी जानते हैं कि चूंकि भारत सरकार का मुख्यालय दिल्ली में है, इसलिए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता और यह संभव भी नहीं। साथ में लोग की जानकारी में यह भी है कि दिल्ली में विधान सभा का चुनाव उसी तरह होता है, जिस तरह देश में लोकसभा या किसी राज्य की विधानसभा के लिए चुनाव होता है। लोग यह भी जानते हैं कि कोई भी जनता जब किसी नेता को सरकार का नेतृत्व करने के लिए चुनती है, तो इसका मतलब यही होता है कि जनता पूरे होशों-हवास से उस नेता या उस दल अथवा उस गठबंधन को देश या राज्य में पांच साल तक शासन करने, जिसे नरेंद्र मोदी ‘सेवा’ कहते हैं, का अधिकार दिया है। इसी तरह देश की जनता ने मई 2014 में नरेंद्र मोदी और बीजेपी को वोट दिया था, तो दिल्ली की जनता ने साढ़े आठ महीने बाद अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को वोट दिया।
इन परिस्थितियों में संविधान का हवाला देकर लोकतांत्रिक चुनाव में जीत दर्ज करने वाले नेता, दल या गठबंधन को काम न करने देना अनैतिक, असंवैधानिक अपरिपक्व और तानाशाही भरा क़दम माना जाता है। ख़ासकर तब, जब केजरीवाल सरकार पुलिस को छोड़कर उन विषयों पर फैसले कर रही है, जो सीधे दिल्ली की जनता के हितों से जुड़े हैं। कम से कम केजरीवाल दिल्ली में पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति करने की हिमाकत तो कर नहीं रहे हैं, न ही वह केंद्र सरकार के कामकाज में दख़ल दे रहे हैं या कोई अवरोध खड़ा कर रहे हैं। वह अपने दायरे में रहकर काम कर रहे हैं, लेकिन केंद्र संविधान का हवाला देकर नज़ीब जंग के ज़रिए उनके हर फ़ैसले को पलट रहा है। देश के लोग इस बात का भी बहुत अच्छी तरह नोटिस ले रहे हैं और मुमकिन है साल भर बाद उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव में उसकी अभिव्यक्ति करें भी।
इस बात पर संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं कि प्रधानमंत्री, उनका कैबिनेट और बीजेपी पिछले 11 महीने से वह सब कर रहे हैं, जिसे तानाशाही कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। लोकतांत्रिक ढंग से जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को संविधान या क़ानून का हवाला देकर कोई फ़ैसले न लेने देना, एक तरह से अघोषित आपातकाल है। ऐसी मिसाल केवल 1975 में मिली थी, जब कई निर्वाचित सरकारों को इंदिरा गांधी ने बर्खास्त कर दिया था। दिल्ली में अप्रत्यक्ष रूप से वहीं सब हो रहा है, जिसे दिल्ली की जनता की इनसल्ट कहें तो ग़लत नहीं होगा।
नज़ीब जंग जो कुछ कर रहे हैं, उसे बीजेपी या उसके शासन के बेनिफिशियरीज़ के अलावा दूसरा कोई व्यक्ति अप्रूव नहीं कर सकता। नज़ीब केंद्र के इशारे पर लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को कोई काम नहीं करने दे रहे हैं। लोग समझ रहे हैं कि मोदी सरकार दिल्ली और दिल्ली की जनता के साथ खुला पक्षपात और बेइमानी कर रही है। जब यही सब करना था तो दिल्ली में विधान सभा या मुख्यमंत्री की क्या ज़रूरत? आख़िर जब काम ही नहीं करने देना था तो दिल्ली में विधान सभा का चुनाव कराने की क्या ज़रूरत थी? दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगे रहने देना था।
दरअसल, दिल्ली की जनता ने बीजेपी को वोट क्यों नहीं दिया? इस पर बीजेपी लीडरशिप ने कभी विचार ही नहीं किया। नरेंद्र मोदी ने 26 मई 2014 प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। उनके पास लोकसभा में 282 सीट यानी पूर्ण बहुमत से 10 सीट ज़्यादा थी। सरकार की गैरमौजीदगी में लेफ़्टिनेंट गवर्नर तब दिल्ली के शासक थे। यानी एक तरह से बीजेपी ही दिल्ली की सरकार चला रही थी। तब बीजेपी ने कोई अहम फ़ैसला नहीं लिया। वह सरकार बनाने का असफल जोड़तोड़ करती रही। 13 फरवरी को केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। यानी 26 मई 2014 से 12 फरवरी 2015 तक यानी 263 दिन दिल्ली का शासन बीजेपी के हाथ में था और जनता को दिल जीतने के लिए किसी नेता के लिए यह पर्याप्त समय था। लेकिन बीजेपी उसे भुना नहीं पाई। कांग्रेस से परेशान दिल्ली की जनता बीजेपी के 263 दिन के कार्यकाल में भी परेशान रही इसलिए उसने आम आदमी पार्टी को वेट दिया। इसमे जनता की क्या ग़लती, जिसका बदला नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार दिल्ली के लोगों से ले रही है। अब भी वक़्त है, नरेंद्र मोदी, उनका कैबिनेट और बीजेपी बालहठ छोड़कर दिल्ली सरकार को काम करने दें। ताकि केजरीवाल यह कह न सकें कि मोदी ने उन्हें काम ही नहीं करने दिया।
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