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रविवार, 20 दिसंबर 2015

दिल्ली गैंगरेप के क्रूरतम हत्यारे की रिहाई के लिए कौन ज़िम्मेदार?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
''अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गईं खेत'' यह कहावत दिल्ली गैंग रेप से सबसे क्रूर हत्यारे की रिहाई पर बहाए जा रहे घड़ियाली आंसू एकदम फिट बैठती है। दरअसल, पूरे तीन साल का समय था, तब किसी ने कुछ नहीं किया। न नेताओं ने, न संसद ने और न ही जनता ने। अब भावनात्मक आधार पर चाहते हैं कि नाबालिग आरोपी जेल में रहे। अगर देश का शासन भावनाओं से चलता तो बेशक आरोपी को जेल में रखा जाता, लेकिन यहां देश भावना से नहीं क़ानून से चलता है, ऐसे में उसे रिहा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।

इस मामले में अदालत कुछ कर ही नहीं सकता। किसी भी आरोपी को अदालत सज़ा पूरी होने के बाद जेल में नहीं रख सकती। सबसे पहली बात अदालत हर अपराधी को सज़ा क़ानून के मुताबिक़ देती है और नाबालिग आरोपी को भी सज़ा क़ानून के मुताबिक दी गई थी। अब वह क़ानून के मुताबिक़ दी गई सज़ा काट लिया, तो उसे किस आधार पर जेल में रखा जाए? दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल 19 दिसंबर को रात में सुप्रीम कोर्ट गई। आम आदमी पार्टी वाले सभी को बेवकूफ समझते हैं। दिल्ली हाईकोर्ट का फ़ैसला 18 दिसंबर को दोपहर आ गया था। तब सवाल उठता है स्वाति 24 घंटे से ज़्यादा समय तक क्या कर रहीं थीं जो दूसरे दिन रात में सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं।

दरअसल, अवयस्क आरोपी को कड़ी सज़ा दिलाने के लिए राजनेताओं, संसद और देश की जनता के पास तीन साल का समय था, लेकिन तब राजनेता, संसद और जनता दोनों कुंभकरणी नींद सोए रहे। लिहाजा, जब अवयस्क आरोपी (जो अब वयस्क हो चुका है) को रिहा कर दिया गया तो सभी लोग विरोध दर्ज करवा रहे हैं। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में चलती बस में पैरामेडिकल की छात्रा के साथ गैंगरेप से हर आदमी सदमे में था। गली-मोहल्ला हो, सड़क हो, बस-ट्रेन हो या फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद, हर जगह लोग दुखी और ग़ुस्से में थे। कहीं लोग आक्रोश व्यक्त कर रहे थे तो कहीं धरना प्रदर्शन। बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत देने की पुरज़ोर पैरवी की जा रही थी। कहीं-कहीं तो रिएक्शन और आक्रोश एकदम एक्स्ट्रीम पर था, लोग इस तरह रिएक्ट कर रहे हैं कि अगर उनका बस चले तो रेपिस्ट्स को फ़ौरन फ़ांसी के फ़ंदे से लटका दें।

देश में अचानक बने जनादेश के दबाव के चलते केंद्र सरकार ने महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते य़ौन अपराध को रोकने के लिए कठोर क़ानून बनाने का मन बनाया और 23 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में सीन सदस्यों वाली एक कमेटी का गठन कर दिया। कमेटी के दूसरे सदस्य रिटायर्ड जज लीला सेठ और सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम थे। कमेटी को महिलाओं पर यौन अत्याचार करने वालों को कठोरतम दंड के प्रावधान की सिफारिश करनी थी। लोगों को यह भी उम्मीद बंधी थी कि बलात्कारियों को फ़ांसी की सज़ा देने और जेवुलाइल की उम्र 18 से घटाकर 16 साल करने का प्रावधान किया जाएगा। जस्टिस वर्मा ने दिन रात काम करते हुए केवल 29 दिन में ही 630 पेज की रिपोर्ट पूरी करके 23 जनवरी 2013 को केंद्र सरकार को सौंप दी। कमेटी को देश और विदेश से केवल 80 हजार सुझाव ही मिले। सवा अरब आबादी वाले देश में केवल 80 हज़ार लोगों सुझाव दिए, इससे पता चलता है कि लोग रेप की वारदात को लेकर कितने संवेदनशील हैं।

वर्मा कमेटी की रिपोर्ट निराशाजनक रही, क्योंकि कमेटी ने नाबालिग की उम्र न तो 18 साल से घटाकर 16 साल किया, न ही रेप को रेयर ऑफ़ रेयरेस्ट नहीं माना। मतलब जस्टिस वर्मा लोगों का मन भांपने में असफल रहे। जबकि कई शीर्ष राष्ट्रीय नेता भी बलात्कारियों को फ़ांसी की सज़ा देने और नाबालिग आरोपी की उम्र 18 साल से घटाकर 16 साल करने के पक्ष में थे। जस्टिस वर्मा ने रेप के बाद हत्या को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर माना। जबकि रेप के साथ हत्या पहले से ही रेयरेस्च ऑफ़ रेयर कैटेगरी में था। सबसे दुखद बात यह रही कि केंद्र सरकार ने वर्मा कमेटी की सिफारिशों के आधार पर ही बिल की ड्राफ्टिंग करवा दी, जबकि सरकार हर तरह के रेप को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर कैटेगरी में रखने के अलावा नाबालिग आरोपी की उम्र 18 से घटाकर 16 कर सकती थी। लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया। किसी नेता या संगठन या नागरिक ने सरकार पर ऐसा करने के लिए दबाव भी नहीं डाला। कोई विरोध प्रदर्शन भी नहीं हुआ। लिहाज़ा, 21 मार्च 2013 को लोकसभा ने बलात्कार विरोधी बिल पास कर दिया और इस क़ानून को क्रिमिनल लॉ संशोधन अधिनियम 2013 कहा गया।

दऱअसल, जस्टिस वर्मा कमेटी ने कई सिफारिशे ऐसी की थीं, जिन पर अमल न तो तब मनमोहन सिंह सरकार ने किया न ही अब नरेंद्र मोदी सरकार कर रही है। वर्मा कमेटी ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव करके आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को राजनीति से दूर रखने की बात कही थी। रिपोर्ट के मुताबिक़ अगर किसी नेता पर बलात्कार या फिर दूसरे अपराध का आरोप है तो उसे चुनाव लडऩे से रोका जाना चाहिए, लेकिन रोकना तो दूर बलात्कार के आरोपी केंद्रीय मंत्रिमंडल में हैं। इसे क्या कहेंगे ? वर्मा कमेटी ने पुलिस की जवाबदेही तय करने और अदालतों में कामकाज की गति बढ़ाने के मकसद से जजों के खाली पदों को भरने के भी सुझाव दिये थे। सवाल यह है कि क्या जजों की भर्ती हो गई? वर्मा ने अपनी रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया था कि महिलाओं के खिलाफ बढ़ती वारदातों के पीछे शासन की संजीदगी का अभाव सबसे बड़ी वजह है। वर्मा ने कहा था कि सबसे जरूरी है कि शासनतंत्र जवाबदेह और बेदाग हो। इसकी शुरुआत पुलिस सुधारों से की जा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकारों को पुलिस तंत्र को सुधारने के निर्देश दिए थे, मगर कई राज्य सरकारें सुझावों पर आनाकानी कर दीं। अधिकांश राजनैतिक पार्टियां पुलिस की नकेल अपने हाथ से जाने देना नहीं चाहती हैं। अगर पुलिस ईमानदार और निष्पक्ष हो जाएगी तो शासकों के लिए अपनी काली करतूतें छिपाना कठिन हो जाएगा। पुलिस की कमजोरी के कारण ही आपराधी राजनीति में आ रहे हैं, क्योंकि देश का क़ानून अपराधियों को सज़ा देने में नाकाफी है। यही कारण है कि कई कुख्यात अपराधी भी अब संसद या विधानसभा में पहुंचने लगे हैं। जस्टिस वर्मा ने हर पुलिस स्टेशन में प्रवेश और पूछताछ कक्ष में सीसीटीवी कैमरे लगाने और हर थाऩे में रेप क्राइसिस सेल के गठन की सिफारिश की थी, सरकार बताए, इस सिफारिश पर क्या अमल किया गया।ल मिलाकर कहा जा सकता है कि जब कुछ करने का समय था तब नेता, सरकार और लोग मूकदर्शक बने रहे। फिर अब हायतौबा मचाने से क्या फायदा?

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