मोदी की विदेश नीति की समीक्षा
हरिगोविंद विश्वकर्मा
दो साल के कार्यकाल में 35 देशों की यात्रा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ख़ुद तो विश्वनेताओं की क़तार में आ गए, लेकिन उनके विदेश दौरे और विदेश नीति से देश को कितना फायदा हुआ? यह चर्चा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि जनता ने 1984 के के बाद पहली बार किसी नेता को स्पष्ट बहुमत दिया था और मोदी ने सत्ता संभालते समय सबको साथ लेकर चलने का संकेत दिया था। शपथग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ समेत दक्षिण एशियाई सहयोग समिति सार्क के सभी राष्ट्राध्यक्षों को बुलाया था।
मोदी के इस क़दम को शपथग्हण डिप्लोमेसी कहते हुए राजनयिक स्तर पर सराहा गया था। विदेशी मामलों में दख़ल रखने वाले टीकाकारों ने इसे एक सकारात्मक शुरुआत करार दिया था। पड़ोसियों से संबंध सुधारने की दिशा में इसे अच्छी पहल मानकर पूरे देश ने भी उस क़दम का स्वागत और सराहना की थी। अब सवाल उठता है कि मोदी पड़ोसी देशों से मधुर संबंध बनाने में कामयाब रहे या नहीं, इसका आकलन ज़रूरी है। वैसे मोदी ख़ुद तो विश्वनेता बन गए, क्योंकि उनकी एक अपील पर संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भारत की प्राचीन योग परंपरा को स्वीकार कर 21 जून को अतंरराष्ट्रीय योग दिवस मानने की घोषणा कर दी। भारत जैसे देश के लिए यह बहुत बड़ी बात थी।
अगर मोदी के दो साल का आकलन करें तो कई फ्रंट पर सफलता उम्मीद से ज़्यादा मिली जबकि कई मोर्चे पर उनकी विदेश नीति असफल रही है। योग के बाद मोदी की सबसे बड़ी कामयाबी दूसरी सालगिरह के ऐन मौक़े पर मिली। जब भारत ने ईरान के साथ चाबहार पोर्ट परियोजना के डील पर प्रेसिडेंट हसन रोहानी और मोदी की मौजूदगी में हस्ताक्षर किया। इस समझौते के महत्व पर ज़्यादा कुछ नहीं लिखा गया लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि अभी तक भारत अपने सामान अफगानिस्तान, ईरान समेत मध्य एशिया और पूर्वी यूरोप तक समुद्री रास्ते से पाकिस्तानी बंदरगाहो के ज़रिए भेजता रहा है।
लिहाज़ा, इस डील से नई दिल्ली की कारोबार के क्षेत्र में इस्लामाबाद पर निर्भरता ख़त्म ही नहीं होगी और देश वाया अफगानिस्तान सीधे ईरान और दूसरे देशों में माल भेज सकेगा। इतना ही नहीं, आतंकवादियों की सप्लाई करने वाले इस कनफ्यूज़्ड देश को भारत भविष्य में अलग-थलग करने में भी कामयाब हो सकता है। ख़ुद पाकिस्तानी हुक़्मरान भी महसूस करने लगे हैं कि अगर चाबहार परियोजना सफल हुई तो उनका देश विश्वमंच पर अलग-थलग पड़ सकता है। लिहाजा, समझौते को मोदी के दो साल के कार्यकाल की सबसे बड़ी जीत मानने में गुरेज नहीं।
वैसे सत्ता की बाग़डोर संभालने के बाद से ही मोदी ने जिस तरह मिशन विश्व-भ्रमण शुरू किया, उससे राजनीतिक हलक़ों में अटकलें लगाई जाने लगीं कि कहीं उनकी इच्छा विश्वनेता बनने की तो नहीं है? जानकार कहने लगे थे कि मोदी के बेतहाशा विदेश दौरे से लगता है कि पांच साल में वह अपने को विश्वनेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। फिलहाल, मोदी 35 देशों की यात्रा और क़रीब 50 देशों के राष्ट्राध्यक्षों या शासनाध्यक्षों से मुलाकात करके विश्वनेता की क़तार में आ गए हैं।
शपथ लेने के बाद भूटान से विदेश दौरे जो सिलसिला शुरू हुआ, वह जारी है। मोदी अब तक अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, बेल्जियम, टर्की और कनाडा जैसे बड़े देशों और अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश, ब्राज़ील, फिजी, ईरान, आयरलैंड, कज़ाकिस्तान, किर्जिज़्स्तान, नेपाल, मंगोलिया, मलेशिया, मॉरीशस, बर्मा, पाकिस्तान, फ़िज़ी, सउदी अरब, सिंगापुर, सेचेलिस, श्रीलंका, तजाकिस्तान, तुर्कमिनिस्तान, यूनाइटेड अरब अमीरात और उज़्बेकिस्तान जैसे मध्यम और छोटे देशों की यात्रा कर चुके हैं। सिंगापुर तो वहां के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे ली कुआन येव के अंतिम संस्कार में चले गए थे। जहां उनके क़दम रूस, फ्रांस, सिंगापुर और नेपाल की धरती पर दो-दो बार पड़े हैं, वहीं अपने मित्र बराक ओबामा के देश अमेरिकी वह तीन बार जा चुके हैं। मोदी ओबामा को भी गणतंत्र दिवस के मौक़े पर भारत बुलाने में भी सफल रहे और बराक के साथ 'मन की बात' भी पेश किया। अब चौथी बार जाने की तैयारी कर रहे हैं और सितंबर में पांचवी बार अमेरिका पहुंचेंगे।
पिछले दो साल में प्रधानमंत्री के विदेश दौरे की देश-विदेश की मीडिया में सबसे ज़्यादा चर्चा रही। अलबत्ता, लकीर के फकीर की तरह काम करने वाली भारतीय विदेश नीति को रिसेट करने के लिए उनकी काफी तारीफ भी हुई। मोदी डिप्लोमैसी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि भारत और अमेरिका की दोस्ती उनके कार्यकाल में पहले से ज्यादा मज़बूत हुई। हालांकि, कूटनीतिक स्तर पर इस डिप्लोमेसी की असफलता यह रही कि ओबामा मोदी के ही कार्यकाल से पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमान बेच रहे हैं। वैसे, राहत की बात यह है कि यूएस कांग्रेस ने पाकिस्तान को मदद देने वाले बिल को रोक लिया है।
बहरहाल, जैसे अटलबिहारी वाजपेयी पाकिस्तान के साथ मधुर संबंध के हिमायती थे, उसी लाइन ऑफ ऐक्शन पर मोदी भी चल रहे हैं। इसीलिए क्रम में नवाज़ शरीफ के जन्मदिन अचानक पाकिस्तान पहुंच गए और उन्हें बधाई दी। लेकिन उनकी बथडे डिप्लोमेसी कारगर नहीं हुई, क्योंकि पाकिस्तान पीठ में छुरा घोंपने की अपनी आदत से बाज़ नहीं आया और पठानकोट में आतंकवादी हमला हो गया। आम चुनाव में कांग्रेस की पाकिस्तान नीति को जमकर कोसने वाले मोदी की सरकार ने भी वही सब किया जो भारत कांग्रेस की छत्रछाया में पिछले कई दशक से करता आ रहा है। यानी विरोध दर्ज कराना और हमले का प्रमाण देना।
अगर भारत-नेपाल संबंधों की विवेचना करें तो भारत अपने इस परंपरागत मित्र भी नाराज़ करता नज़र आ रहा है। दरअसल, नेपाल के नए संविधान में उचित भागीदारी को लेकर असंतुष्ट मधेसी समुदाय ने नेपाल-भारत सीमा पर क़रीब पांच महीने नाकेबंदी कर रखी, इससे नेपाल में ज़रूरी सामान की भारी किल्लत हुई। भारत ने इस नाकेबंदी को ख़त्म करवाने में वह भूमिका नहीं निभाया जो निभा सकता था। संभवतः उसी से सबक लेकर नेपाल ने चीन के साथ रेल परियोजनाओं पर समझौता किया है, ताकि काठमांडो की नई दिल्ली पर निर्भरता कम हो। यह चीन की बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत है।
चीन ने यहीं नहीं भारत को आंख दिखाया, बल्कि बीजिंग ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में जैश-ए मोहम्मद के सरगना मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने के भारत के प्रस्तावन को वीटो कर दिया। मोदी के कार्यकाल में विदेश नीति की यह सबसे बड़ी असफलता रही। इतना ही नहीं जर्मनी में रह रहे उइगुर नेता डोलकुन इसा को अमेरिकी ‘इनीशिएटिव्स फॉर चाइना’ की ओर से एक कॉन्फ्रेंस में शामिल होने के लिए भारत बुलाया गया था। लेकिन उन्हें जारी वीजा भारत ने चीन के विरोध में रद्द कर दिया। दरअसल, चीन इसा को उसी तरह आतंकवादी मानता है, जैसे भारत मौलाना मसूद को। चीन का कहना है कि उसके मुस्लिम बहुल प्रांत शिनजियांग में आतंकवाद को बढ़ावा देने में वर्ल्ड उइगुर कांग्रेस का ही हाथ है। तुर्किक मूल के मुसलमानों की तादाद शिनजियांग में एक करोड़ हैं। वह शिनजियांग में चीनी आबादी का विरोध करते हैं और इससे कई साल से शिनजियांग अशांत प्रांत माना जाता है।
दरअसल, चीन के साथ रिश्ते पर बात करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि आर्थिक व सामरिक दृष्टि से बीजिंग नई दिल्ली से बीस है। ऐसे में मोदी कितने ही बड़े राष्ट्रवादी क्यों ना हों, लेकिन चीन को नाराज़ करने का जोखिम नहीं ले सकते। चीन को वैश्विक शक्ति उसकी आर्थिक ताकत के कारण माना जाता है। मोदी के नेतृत्व में भारत को पता है कि केवल स्थायी और ऊंची आर्थिक वृद्धि दर के बल पर भारत, चीन के साथ एशिया के पॉवर गैप को भर सकता है। लिहाज़ा, मोदी चाहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था मज़बूत हो और वह इस एजंडे पर काम भी कर रहे हैं।
वैसे मोदी डिप्लोमैसी की बड़ी उपलब्धि प्रवासी भारतीयों के साथ कनेक्टिविटी रही। जैसे आम चुनाव में मोदी देश के हर शहर को गुजरात से जोड़ रहे थे, उसी तरह आजकल वह हर देश को भारत से जोड़ रहे हैं। मतलब, वह हर देश के साथ देश का रिश्ता गढ़ ही लेते हैं। टीकाकार मोदी की इस ख़ूबी के क़ायल भी हैं। वैसे, मोदी अपनी हर विदेश यात्रा की जमकर मार्केटिंग भी करते हैं। इस तरह की रिपोर्टिंग करवाते हैं कि सूचनाओं के लिए मीडिया पर निर्भर देश की अवाम सोचने लगती है कि मोदी का क्रेज़ जैसे चुनाव में देश में था, अब वही क्रेज़ अब विदेशों में है। अमेरिका में मैडिसन स्क्वेयर गार्डन हो या चीन का शंघाई, हर जगह मोदी ने भारतीय मूल के लोगों को संबोधित किया। जापान, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, मंगोलिया और तेहरान में भी भारतीय मूल के लोगों ने मोदी मैजिक अनुभव किया।
मोदी की विदेश यात्राओं का कितना फ़ायदा इस देश या देशवासियों को हुआ? इस पर अभी कुछ कहना बहुत जल्दबाज़ी होगी। हां, इतना ज़रूर है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो विज़िबल हो। यानी चाबहार पोर्ट डील के अलावा विश्वमंच पर अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जो उल्लेखनीय या ऐतिहासिक घटना कहलाए। यह दावा करना कि मोदी की विदेश यात्राओं से दुनिया में भारत की हैसियत बढ़ गई है, सही नहीं होगा। ऐसा कहने वाले झूठे आशावाद की परिकल्पना कर रहे हैं।
राष्ट्रीय हित साधने में भारत को चीन से नसीहत लेनी चाहिए। अपना राष्ट्रीय हित साधने में बीजिंग नंबर एक है। अपने फ़ायदे के लिए चीन कब क्या कर दे, कोई नहीं जानता? इसीलिए कोई चीन पर विश्वास नहीं रहता है। चीन ने पाकिस्तान तक से दोस्ती सोची समझी रणनीति के तहत की है। चीन अपने को सिर्फ़ अपने प्रति जिम्मेदार मानता है, इसीलिए अमेरिका ही नहीं पश्चिम के सभी देश चीन से आशंकित रहते हैं और भारत में चीन का विकल्प दिखते हैं। लिहाज़ा, ये देश विश्वमंच पर पीठ थपथपाने वाला आशावादी बयान देकर नई दिल्ली को प्रोत्साहित करते रहते हैं। मोदी को भी विदेशों से वहीं प्रोत्साहन मिला है, और वह उसी से गदगद हैं।
भारत की विश्वमंच पर आज भी वही औक़ात है, उसकी जो स्वतंत्रता मिलने के समय थी। मोदी जिस देश की यात्रा करते हैं, वह देश संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का समर्थन करता है। अमेरिका भी कई बार समर्थन कर चुका है। चीन व पाकिस्तान के छोड़ दें, तो हर छोटा-बड़ा देश मानता है कि भारत को वीटो पावर मिलनी चाहिए। मोदी के शासन में लोग वही जुमला दोहराते हैं. अगर ध्यान से देखे तो निकट भविष्य में भारत को स्ताई सदस्यात मिलेगी, इसमें बड़ा संदेह है। कभी-कभी तो लगता है कि भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य कभी नहीं बन पाएगा।
मोदी के सत्ता संभालते समय थी देश ने कयास लगाया था कि कुछ ठोस क़दम उठाए जाएंगे। मसलन, स्विस और दूसरे विदेशी बैंकों में जमा काला धन भारत आएगा। भारत की छवि सशक्त देश की बनेगी, लेकिन इस फ्रंट पर लफ़्फ़ाज़ी के सिवाय हुआ कुछ नहीं। काले धन पर तो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को सफाई द्नी पड़ी कि वह चुनावी जुमला था। यानी मोदी ने कैजुअली कह दिया था कि उनकी सरकार हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए जमा करवाएगी।
सीमा पर पाकिस्तानी रेंजर्स अंधाधुंध फायरिंग करते रहते हैं। हाफिज़ सईद भारत को धमकी देता रहता है। मुंबई आतंकी हमले के मास्टरमाइंड ज़किउर रहमान लखवी जेल से बाहर है। भारत विरोध जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाया। दाऊद इब्राहिम के बारे में नई दिल्ली अब भी प्रमाण देने में व्यस्त है कि यह अपराधी कराची में ही है। इससे भारत की छवि दुनिया में “साफ़्ट नेशन”की बन गई है। साफ़्ट नेशन की यही इमैज विश्वमंच पर भारत की भूमिका को सीमित कर देती है। वाजपेयी ने परमाणु विस्फोट करके इस इमैज से निकलने की कोशिश की थी, लेकिन बहुमत न होने से वह बैकफुट पर आ गए थे। मोदी के साथ ऐसी कोई मज़बूरी नहीं थी। उन्हें महानायक बनने का सुनहरा मौक़ा मिला था, लेकिन उनके एक साल के कामकाज पर नज़र डालें तो यही लगता है, फिलहाल मोदी वह मौक़ा गंवा रहे हैं।
हरिगोविंद विश्वकर्मा
दो साल के कार्यकाल में 35 देशों की यात्रा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ख़ुद तो विश्वनेताओं की क़तार में आ गए, लेकिन उनके विदेश दौरे और विदेश नीति से देश को कितना फायदा हुआ? यह चर्चा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि जनता ने 1984 के के बाद पहली बार किसी नेता को स्पष्ट बहुमत दिया था और मोदी ने सत्ता संभालते समय सबको साथ लेकर चलने का संकेत दिया था। शपथग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ समेत दक्षिण एशियाई सहयोग समिति सार्क के सभी राष्ट्राध्यक्षों को बुलाया था।
मोदी के इस क़दम को शपथग्हण डिप्लोमेसी कहते हुए राजनयिक स्तर पर सराहा गया था। विदेशी मामलों में दख़ल रखने वाले टीकाकारों ने इसे एक सकारात्मक शुरुआत करार दिया था। पड़ोसियों से संबंध सुधारने की दिशा में इसे अच्छी पहल मानकर पूरे देश ने भी उस क़दम का स्वागत और सराहना की थी। अब सवाल उठता है कि मोदी पड़ोसी देशों से मधुर संबंध बनाने में कामयाब रहे या नहीं, इसका आकलन ज़रूरी है। वैसे मोदी ख़ुद तो विश्वनेता बन गए, क्योंकि उनकी एक अपील पर संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भारत की प्राचीन योग परंपरा को स्वीकार कर 21 जून को अतंरराष्ट्रीय योग दिवस मानने की घोषणा कर दी। भारत जैसे देश के लिए यह बहुत बड़ी बात थी।
अगर मोदी के दो साल का आकलन करें तो कई फ्रंट पर सफलता उम्मीद से ज़्यादा मिली जबकि कई मोर्चे पर उनकी विदेश नीति असफल रही है। योग के बाद मोदी की सबसे बड़ी कामयाबी दूसरी सालगिरह के ऐन मौक़े पर मिली। जब भारत ने ईरान के साथ चाबहार पोर्ट परियोजना के डील पर प्रेसिडेंट हसन रोहानी और मोदी की मौजूदगी में हस्ताक्षर किया। इस समझौते के महत्व पर ज़्यादा कुछ नहीं लिखा गया लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि अभी तक भारत अपने सामान अफगानिस्तान, ईरान समेत मध्य एशिया और पूर्वी यूरोप तक समुद्री रास्ते से पाकिस्तानी बंदरगाहो के ज़रिए भेजता रहा है।
लिहाज़ा, इस डील से नई दिल्ली की कारोबार के क्षेत्र में इस्लामाबाद पर निर्भरता ख़त्म ही नहीं होगी और देश वाया अफगानिस्तान सीधे ईरान और दूसरे देशों में माल भेज सकेगा। इतना ही नहीं, आतंकवादियों की सप्लाई करने वाले इस कनफ्यूज़्ड देश को भारत भविष्य में अलग-थलग करने में भी कामयाब हो सकता है। ख़ुद पाकिस्तानी हुक़्मरान भी महसूस करने लगे हैं कि अगर चाबहार परियोजना सफल हुई तो उनका देश विश्वमंच पर अलग-थलग पड़ सकता है। लिहाजा, समझौते को मोदी के दो साल के कार्यकाल की सबसे बड़ी जीत मानने में गुरेज नहीं।
वैसे सत्ता की बाग़डोर संभालने के बाद से ही मोदी ने जिस तरह मिशन विश्व-भ्रमण शुरू किया, उससे राजनीतिक हलक़ों में अटकलें लगाई जाने लगीं कि कहीं उनकी इच्छा विश्वनेता बनने की तो नहीं है? जानकार कहने लगे थे कि मोदी के बेतहाशा विदेश दौरे से लगता है कि पांच साल में वह अपने को विश्वनेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। फिलहाल, मोदी 35 देशों की यात्रा और क़रीब 50 देशों के राष्ट्राध्यक्षों या शासनाध्यक्षों से मुलाकात करके विश्वनेता की क़तार में आ गए हैं।
शपथ लेने के बाद भूटान से विदेश दौरे जो सिलसिला शुरू हुआ, वह जारी है। मोदी अब तक अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, बेल्जियम, टर्की और कनाडा जैसे बड़े देशों और अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश, ब्राज़ील, फिजी, ईरान, आयरलैंड, कज़ाकिस्तान, किर्जिज़्स्तान, नेपाल, मंगोलिया, मलेशिया, मॉरीशस, बर्मा, पाकिस्तान, फ़िज़ी, सउदी अरब, सिंगापुर, सेचेलिस, श्रीलंका, तजाकिस्तान, तुर्कमिनिस्तान, यूनाइटेड अरब अमीरात और उज़्बेकिस्तान जैसे मध्यम और छोटे देशों की यात्रा कर चुके हैं। सिंगापुर तो वहां के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे ली कुआन येव के अंतिम संस्कार में चले गए थे। जहां उनके क़दम रूस, फ्रांस, सिंगापुर और नेपाल की धरती पर दो-दो बार पड़े हैं, वहीं अपने मित्र बराक ओबामा के देश अमेरिकी वह तीन बार जा चुके हैं। मोदी ओबामा को भी गणतंत्र दिवस के मौक़े पर भारत बुलाने में भी सफल रहे और बराक के साथ 'मन की बात' भी पेश किया। अब चौथी बार जाने की तैयारी कर रहे हैं और सितंबर में पांचवी बार अमेरिका पहुंचेंगे।
पिछले दो साल में प्रधानमंत्री के विदेश दौरे की देश-विदेश की मीडिया में सबसे ज़्यादा चर्चा रही। अलबत्ता, लकीर के फकीर की तरह काम करने वाली भारतीय विदेश नीति को रिसेट करने के लिए उनकी काफी तारीफ भी हुई। मोदी डिप्लोमैसी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि भारत और अमेरिका की दोस्ती उनके कार्यकाल में पहले से ज्यादा मज़बूत हुई। हालांकि, कूटनीतिक स्तर पर इस डिप्लोमेसी की असफलता यह रही कि ओबामा मोदी के ही कार्यकाल से पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमान बेच रहे हैं। वैसे, राहत की बात यह है कि यूएस कांग्रेस ने पाकिस्तान को मदद देने वाले बिल को रोक लिया है।
बहरहाल, जैसे अटलबिहारी वाजपेयी पाकिस्तान के साथ मधुर संबंध के हिमायती थे, उसी लाइन ऑफ ऐक्शन पर मोदी भी चल रहे हैं। इसीलिए क्रम में नवाज़ शरीफ के जन्मदिन अचानक पाकिस्तान पहुंच गए और उन्हें बधाई दी। लेकिन उनकी बथडे डिप्लोमेसी कारगर नहीं हुई, क्योंकि पाकिस्तान पीठ में छुरा घोंपने की अपनी आदत से बाज़ नहीं आया और पठानकोट में आतंकवादी हमला हो गया। आम चुनाव में कांग्रेस की पाकिस्तान नीति को जमकर कोसने वाले मोदी की सरकार ने भी वही सब किया जो भारत कांग्रेस की छत्रछाया में पिछले कई दशक से करता आ रहा है। यानी विरोध दर्ज कराना और हमले का प्रमाण देना।
अगर भारत-नेपाल संबंधों की विवेचना करें तो भारत अपने इस परंपरागत मित्र भी नाराज़ करता नज़र आ रहा है। दरअसल, नेपाल के नए संविधान में उचित भागीदारी को लेकर असंतुष्ट मधेसी समुदाय ने नेपाल-भारत सीमा पर क़रीब पांच महीने नाकेबंदी कर रखी, इससे नेपाल में ज़रूरी सामान की भारी किल्लत हुई। भारत ने इस नाकेबंदी को ख़त्म करवाने में वह भूमिका नहीं निभाया जो निभा सकता था। संभवतः उसी से सबक लेकर नेपाल ने चीन के साथ रेल परियोजनाओं पर समझौता किया है, ताकि काठमांडो की नई दिल्ली पर निर्भरता कम हो। यह चीन की बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत है।
चीन ने यहीं नहीं भारत को आंख दिखाया, बल्कि बीजिंग ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में जैश-ए मोहम्मद के सरगना मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने के भारत के प्रस्तावन को वीटो कर दिया। मोदी के कार्यकाल में विदेश नीति की यह सबसे बड़ी असफलता रही। इतना ही नहीं जर्मनी में रह रहे उइगुर नेता डोलकुन इसा को अमेरिकी ‘इनीशिएटिव्स फॉर चाइना’ की ओर से एक कॉन्फ्रेंस में शामिल होने के लिए भारत बुलाया गया था। लेकिन उन्हें जारी वीजा भारत ने चीन के विरोध में रद्द कर दिया। दरअसल, चीन इसा को उसी तरह आतंकवादी मानता है, जैसे भारत मौलाना मसूद को। चीन का कहना है कि उसके मुस्लिम बहुल प्रांत शिनजियांग में आतंकवाद को बढ़ावा देने में वर्ल्ड उइगुर कांग्रेस का ही हाथ है। तुर्किक मूल के मुसलमानों की तादाद शिनजियांग में एक करोड़ हैं। वह शिनजियांग में चीनी आबादी का विरोध करते हैं और इससे कई साल से शिनजियांग अशांत प्रांत माना जाता है।
दरअसल, चीन के साथ रिश्ते पर बात करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि आर्थिक व सामरिक दृष्टि से बीजिंग नई दिल्ली से बीस है। ऐसे में मोदी कितने ही बड़े राष्ट्रवादी क्यों ना हों, लेकिन चीन को नाराज़ करने का जोखिम नहीं ले सकते। चीन को वैश्विक शक्ति उसकी आर्थिक ताकत के कारण माना जाता है। मोदी के नेतृत्व में भारत को पता है कि केवल स्थायी और ऊंची आर्थिक वृद्धि दर के बल पर भारत, चीन के साथ एशिया के पॉवर गैप को भर सकता है। लिहाज़ा, मोदी चाहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था मज़बूत हो और वह इस एजंडे पर काम भी कर रहे हैं।
वैसे मोदी डिप्लोमैसी की बड़ी उपलब्धि प्रवासी भारतीयों के साथ कनेक्टिविटी रही। जैसे आम चुनाव में मोदी देश के हर शहर को गुजरात से जोड़ रहे थे, उसी तरह आजकल वह हर देश को भारत से जोड़ रहे हैं। मतलब, वह हर देश के साथ देश का रिश्ता गढ़ ही लेते हैं। टीकाकार मोदी की इस ख़ूबी के क़ायल भी हैं। वैसे, मोदी अपनी हर विदेश यात्रा की जमकर मार्केटिंग भी करते हैं। इस तरह की रिपोर्टिंग करवाते हैं कि सूचनाओं के लिए मीडिया पर निर्भर देश की अवाम सोचने लगती है कि मोदी का क्रेज़ जैसे चुनाव में देश में था, अब वही क्रेज़ अब विदेशों में है। अमेरिका में मैडिसन स्क्वेयर गार्डन हो या चीन का शंघाई, हर जगह मोदी ने भारतीय मूल के लोगों को संबोधित किया। जापान, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, मंगोलिया और तेहरान में भी भारतीय मूल के लोगों ने मोदी मैजिक अनुभव किया।
मोदी की विदेश यात्राओं का कितना फ़ायदा इस देश या देशवासियों को हुआ? इस पर अभी कुछ कहना बहुत जल्दबाज़ी होगी। हां, इतना ज़रूर है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो विज़िबल हो। यानी चाबहार पोर्ट डील के अलावा विश्वमंच पर अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जो उल्लेखनीय या ऐतिहासिक घटना कहलाए। यह दावा करना कि मोदी की विदेश यात्राओं से दुनिया में भारत की हैसियत बढ़ गई है, सही नहीं होगा। ऐसा कहने वाले झूठे आशावाद की परिकल्पना कर रहे हैं।
राष्ट्रीय हित साधने में भारत को चीन से नसीहत लेनी चाहिए। अपना राष्ट्रीय हित साधने में बीजिंग नंबर एक है। अपने फ़ायदे के लिए चीन कब क्या कर दे, कोई नहीं जानता? इसीलिए कोई चीन पर विश्वास नहीं रहता है। चीन ने पाकिस्तान तक से दोस्ती सोची समझी रणनीति के तहत की है। चीन अपने को सिर्फ़ अपने प्रति जिम्मेदार मानता है, इसीलिए अमेरिका ही नहीं पश्चिम के सभी देश चीन से आशंकित रहते हैं और भारत में चीन का विकल्प दिखते हैं। लिहाज़ा, ये देश विश्वमंच पर पीठ थपथपाने वाला आशावादी बयान देकर नई दिल्ली को प्रोत्साहित करते रहते हैं। मोदी को भी विदेशों से वहीं प्रोत्साहन मिला है, और वह उसी से गदगद हैं।
भारत की विश्वमंच पर आज भी वही औक़ात है, उसकी जो स्वतंत्रता मिलने के समय थी। मोदी जिस देश की यात्रा करते हैं, वह देश संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का समर्थन करता है। अमेरिका भी कई बार समर्थन कर चुका है। चीन व पाकिस्तान के छोड़ दें, तो हर छोटा-बड़ा देश मानता है कि भारत को वीटो पावर मिलनी चाहिए। मोदी के शासन में लोग वही जुमला दोहराते हैं. अगर ध्यान से देखे तो निकट भविष्य में भारत को स्ताई सदस्यात मिलेगी, इसमें बड़ा संदेह है। कभी-कभी तो लगता है कि भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य कभी नहीं बन पाएगा।
मोदी के सत्ता संभालते समय थी देश ने कयास लगाया था कि कुछ ठोस क़दम उठाए जाएंगे। मसलन, स्विस और दूसरे विदेशी बैंकों में जमा काला धन भारत आएगा। भारत की छवि सशक्त देश की बनेगी, लेकिन इस फ्रंट पर लफ़्फ़ाज़ी के सिवाय हुआ कुछ नहीं। काले धन पर तो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को सफाई द्नी पड़ी कि वह चुनावी जुमला था। यानी मोदी ने कैजुअली कह दिया था कि उनकी सरकार हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए जमा करवाएगी।
सीमा पर पाकिस्तानी रेंजर्स अंधाधुंध फायरिंग करते रहते हैं। हाफिज़ सईद भारत को धमकी देता रहता है। मुंबई आतंकी हमले के मास्टरमाइंड ज़किउर रहमान लखवी जेल से बाहर है। भारत विरोध जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाया। दाऊद इब्राहिम के बारे में नई दिल्ली अब भी प्रमाण देने में व्यस्त है कि यह अपराधी कराची में ही है। इससे भारत की छवि दुनिया में “साफ़्ट नेशन”की बन गई है। साफ़्ट नेशन की यही इमैज विश्वमंच पर भारत की भूमिका को सीमित कर देती है। वाजपेयी ने परमाणु विस्फोट करके इस इमैज से निकलने की कोशिश की थी, लेकिन बहुमत न होने से वह बैकफुट पर आ गए थे। मोदी के साथ ऐसी कोई मज़बूरी नहीं थी। उन्हें महानायक बनने का सुनहरा मौक़ा मिला था, लेकिन उनके एक साल के कामकाज पर नज़र डालें तो यही लगता है, फिलहाल मोदी वह मौक़ा गंवा रहे हैं।
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