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गुरुवार, 29 सितंबर 2016

क्या होता है सर्जिकल स्ट्राइक ?

सर्जिकल स्ट्राइक का मतबल घर में घुसकर मारना
हरिगोविंद विश्वकर्मा 
18 सितंबर 2016 को जम्मू-कश्मीर के उरी सेक्टर में आतंकी हमले के बाद 10 दिन बाद भारतीय सेना ने लाइन ऑफ कंट्रोल पार करके पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आतंकवादियों को उनके घर में घुसकर हमला किया। सेना के डीजीएमओ लेफ्टिनेंट जनरल रणबीर सिंह ने बताया कि हमले में बड़ी संख्या में आतंकवादियों को मार गिराया गया है। डीजीएमओ ने साथ ही बताया कि इस्लामाबाद को सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में बता दिया गया है और भारत ने इस ऑपरेशंस को तत्काल बंद कर दिया है, लेकिन पाकिस्तान की ओर से अगर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया या दुस्साहस किया जाता है तो भारतीय सेना पूरी दमखम के साथ सामना करने के लिए तैयार हैं।

भारतीय सेना का सर्जिकल स्ट्राइक नाम का ऑपरेशन चार घंटे चला। ऑपरेशन की शुरुआत बुधवार रात क़रीब साढ़े बारह बजे भिंबर, हॉटस्प्रिंग केल और लीपा सेक्टर्स में हुई। ऑपरेशन में सेना के स्पेशल फोर्स के जवान शामिल थे। कमांडों को एलओसी पर हेलीकॉप्टर्स के जरिए उतारा गया। वहां से रेंगकर एलओसी के अंदर गए। तीन किलोमीटर तक गए थे। उसके बाद उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक किया। सभी जवान नाइट विजन से लैस थे।

भारतीय़ सेना ने जब से इस ऑपरेशन को सर्जिकल स्ट्राइक नाम दिया है, तब से लोग चर्चा कर रहे हैं कि मिलिट्री ऐक्शन या हमला तो ठीक है, यह सर्जिकल स्ट्राइक आख़िर क्या बला है? सीधे शब्दों में सर्जिकल स्ट्राइक का मतलब घर में घुसकर मारना। दरअसल, 18 सितंबर के उरी आतंकवादी हमले का बदला लेते हुए भारतीय सेना लाइन ऑफ़ कंट्रोल के उस पार घुस गई और आतंकवादी टेरर लॉन्चिंग पैड पर हमला कर दिया। इसमें 40 प्रशिक्षित आतंकवादी और पाकिस्तानी सेना के दो जवान मार डाले गए।

दरअसल, जब भी सेना कोई ऐसा ऑपरेशन करती है जो स्पेशिफिक टारगेट ओरिएंटेड होता है यानी वह ऑपरेशन जिसमें सिविलियन्स को कोई नुकसान नहीं होता, केवल दुश्मन की सेना या जो टारगेट पर है उस पर स्टाइक करती है और उसी को नुकसान पहुंचाती है। सर्जिकल स्ट्राइक सेना की योजनाबद्ध तरीके से हमला करने की नीति है। इसमें सैनिकों को बता दिया जाता है कि जवान इस बात का ख्याल रखें कि उनके हमले में ऐसा कोई नुकसान न हो जिससे आम नागरिक आहत हों।

कहने का मतलब सेना हमला करती है, परंतु आम नागरिक, भवन, वाहन को नुकसान न के बराबर करने की कोशिश करती है। तब हमला सर्जिकल स्ट्राइक कहा जाता है। सर्जिकल स्ट्राइक में इमारत, बस्ती या नागरिकों को कोई नुकसान नहीं होता। भारत ने भी 28-29 सितंबर की रात जो ऑपरेशन किया उसमें पाकिस्तान सिविलियन्स को कोई नुकसान नहीं हुआ। सेना ने इस बात का ख्याल रखा कि आम नागरिकों और इलाके को नुकसान न हो सिर्फ उन आतंकियों को मार गिराया जाए जो भारत में घुसने का प्रयास पिछले कई दिनों से कर रहे थे। इसी बिना पर भारतीय सेना ने इस ऑपरेशन को सर्जिकल ऑपरेशन कहा है।

वस्तुतः भारत को ख़ुफिया इनपुट्स मिला था कि पाकिस्तानी सेना लाइन ऑफ कंट्रोल से 40 से 50 प्रशिक्षित आतंकवादियों को कश्मीर में घुसपैठ कराना चाहती है। इसके बाद सेना ने प्रधानमंत्री को सूचना दी गई। पीएमओ से गो अहेड का सिग्नल मिलने के बाद भारतीय सेना एलओसी के अंदर घुस गई और सात आतंकवादी पैड को नष्ट कर दिया। सेना के साथ लड़ने के लिए दो पाकिस्तानी सैनिक आए। लिहाज़ा, उन्हें भी अपनी जान गंवानी पड़ी। समझा जाता है इस ऑपरेशन में 70 से ज़्यादा आतंकवादी मारे गए है।

दरअसल, सर्जिकल स्ट्राइक में 'सरप्राइज' होता है, यानी टारगेट पर अचानक हमला कर दिया जाता है ताकि सामने वाले को जवाब देने का मौका ही न मिले। असल में यह सेना द्वारा किया जाने वाला एक नियंत्रित हमला होता है, जिसमें किसी खास इलाके में पहले से तय विशेष ठिकाने पर हमला करके उसे नष्ट किया जाता है. इससे सेना द्वारा बड़े पैमाने पर उस इलाके में बर्बादी को रोका जाता है और खास तरह से अटैक को डिजाइन किया जाता है।

भारतीय सेना का यह दूसरा सर्जिकल स्ट्राइक है। इससे पहले सेना के स्पेशल फोर्सेज के 70 कमांडोज़ ने पिछले साल जून में म्यानमार के जंगल में घुसकर 38 नगा आतंकवादियों को मार डाला था। आतंकियों ने चार जून को 18 भारतीय सैनिकों की हत्या कर दी थी।

सर्जिकल स्ट्राइक शब्द पहली बार 2001 में तब चर्चा में आया था। जब अमेरिका की अगुवाई में तालिबान और अल कायदा के ठिकानें पर हमला किया गया। अमेरिकी सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक के तहत एयरक्राफ्ट का इस्तेमाल किया था। बहरहाल, सर्जिकल स्ट्राइक का यह सिलसिला 2003 में शुरू हुए इराक युद्ध में भी चला। इराक युद्ध के दौरान इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन को पकड़ने के लिए अमेरिकी सेनाएं सर्जिकल स्ट्राइक करती थीं। अमेरिकी और 2004 में सद्दाम हुसैन को पकड़ने के लिए अमेरिका ने सर्जिकल स्ट्राइक किया था।

दुनिया का सबसे बड़ा सर्जिकल स्ट्राइक अमेरिका ने मई 2011 में किया और दुनिया के मोस्ट वांटेड आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को उसके ठिकाने पर घुस कर मार गिराया और उसका शव समुद्र में फेंक दिया। इस कार्य को अंजाम दिया अमेरिकी की इलीट पोर्स यूएस नेवी सील्स ने।

सर्जिकल स्ट्राइक के मामले में इजराइल अमेरिका से भी ज़्यादा ख़तरनाक रहा है। इजराइल डिफेंस फोर्सेस के 100 कमांडो ने 1976 में यूगांडा में फिलीस्तीन आतंकवादियों के ख़िलाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक किया था और सभी को मौत के घाट उतार दिया था। दरअसल, आतंकियों ने फ्रैंच विमान का अपहरण करके 106 इज़राइली नागरिकों को बंधक बना लिया था, इजराइली कमांडो ने यूगांडा की सेना के 37 जवानों को भी मार डाला था। अततः अपने नागरिकों को मुक्त कराकरे इजराइल वापस लौट गए थे।

इसी तरह 1961 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैंनेडी ने क्यूबा के फीडल कास्ट्रो को सत्ताच्युत करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक किया था और कास्ट्रो को हटाने में सफल रहा। इस लड़ाई में स्पेशल फोर्स के कमांडोज़ ने कास्ट्रो समर्थक 100 सैनिकों को मार डाला था। 1979 में ईरानी छात्रों ने तेहरान में 53 अमेरिकी कर्मचारियों को अमेरिकन दूतावास में बंधक बना लिया था। जिमी कार्टर का वह सर्जिकल स्ट्राइक –ऑपरेशन ईगल क्लॉ- असफल रहा, क्योंकि अमेरिकन स्पेशल फोर्सेस को भारी नुसान उठाना पड़ा और किसी बंधक को छुड़ाया नहीं जा सका। 1989 में पनामा के तानाशह मैनुएल नोरिगा को सत्ताच्युत करने के लिए अमेरिका की स्पेशल फोर्सेस ने सर्जिकल स्ट्राइक किया। इस ऑपरेशन को अंजाम लादेन को मारने वाली यूएस नेवी सी ने दिया। हमले के बाद अततः नोरिगा ने समर्पण कर दिया।

इसी तरह 1993 में यूएस स्पेशल फोर्स को सोमाली सेनापति मोहम्मद फराह ऐदीदी को पकड़ने वाला सर्जिकल स्ट्राइक भी बुरी तरह अस्फल रहा। विरोधी सैनिकों ने दो यूएस ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर को मार गिराया। 18 अमेरीकी जवा3न मारे गए जबकि 70 ज़ख्मी हुए। सन् 2003 में इराकी सेना ने नासिरिया में यूएस सोल्जर जेसिका लिंच को पकड़ लिया। नौ दिन बाद अमेरिकी स्पेशल फोर्स ने अस्पताल पर सर्जिकल स्ट्राइक करके जसिका को छुड़ा लिया।

सन् 2003 में ही सीआईए ने सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान में किया। दरअसल 9/11 का की प्लानर खालिद शेख मोहम्मद समेत कई आतंकवादियों के पकड़ने के लिए यह ऑपरेशन किया गया। सर्जिकल स्ट्राइक रावलपिंडी में हुई थी। सन् 2006 में इराक में अल क़ायदा नेता अबु मुसाब अल-ज़रवाक़ी को पकड़ने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक किया था। इस हमले में अबु मुसाब अल-ज़रवाक़ी अमेरिकी सेना के हाथ मारा गया।
  

रविवार, 18 सितंबर 2016

धर्म,मजहब या रिलिजन अफीम का नशा है और हर अनुयायी अफीमची

हरिगोविंद विश्वकर्मा
किसी ऐसी विचारधारा अथवा धर्म, मजहब या रिलिजन, चाहे वह कितनी भी सही या सामयिक हो, का अंधभक्त हो जाना, कोरी अज्ञानता, मूर्खता और पागलपन है। वजह यह है कि कोई भी विचारधारा या धर्म मानवता की विचारधारा और मानवता के धर्म के समकक्ष नहीं पहुंच सकती। दरअसल, जब किसी भी विचारधारा, मान्यता या धर्म का प्रतिपादन किया गया था तब, परिवहन, प्रौद्योगिकी या सूचना तकनीक आज जितनी विकसित नहीं थी। कहने का मतलब तब न सड़कें थीं, न मशीन और न ही संचार के साधन। लिहाज़ा, लोगों को एक जगह से दूसरे जगह जाने में कई साल और कभी कभी दशक तक लग जाते थे। लोग किसी की खोज खबर नहीं ले पाते थे।

ऐसे परिवेश में हर संप्रदाय ने जीवन जीने की अपनी शैली विकसित की, जिसे धर्म कहा गया और वह शैली तब के माहौल के मुताबिक थी। वह धर्म या जीवन शैली बेशक सही थी, लेकिन आज वह सही नहीं है, उसमें उसी तरह फेरबदल यानी परिवर्तन की ज़रूरत है, जैसे समाज समय के साथ विकसित हो रहा है। मतलब इंसान पहले पैदल चलता था, फिर बैलगाड़ी विकसित हुई, इसी तरह वाहन के रूप में घोड़ागाड़ी, साइकल, रेलगांडी और विमान। लेकिन धर्म आज भी वहीं है।

सबसे दुखद बात यह है कि तमाम विचारधाराएं, मान्यताएं एवं धर्म जैसे विकसित हुई थीं, वैसी ही आज भी जारी हैं और लोग उन्हें आंख मूंद कर मान रहे हैं। कुछ लोग स्वेच्छा से मान रहे हैं, तो कुछ लोग मजबूरी वश। कुछ लोगों को ज़बरी मनवाया जा रहा है तो कुछ लोगों की उसे मानने से दुकान चल रही है। लिहाज़ा, ऐसे लोग चाहे वे वामपंथी हों, या दक्षिणपंथी, अपने कुतर्कों से व्यक्ति, समाजदेश और दुनिया का नुक़सान करते हैं। इस वर्ग के लोग अगर थोड़ा पढ़े लिखे हैं, तो वे व्यक्ति, समाज, देश और दुनिया के लिए और भी घातक हो जाते हैं। फेसबुक, वॉट्सअप और दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइउट्स पर आजकल ऐसे लोग सबसे ज़्यादा सक्रिय हैं और वातावरण में ज़हर छोड़ रहे हैं।

सदी के महानायक अमिताभ बच्चन पर कमेंट करने के लिए फ़िलहाल मार्कंडेय काटजू पिछले साल सोशल मीडिया पर सबके निशाने पर आ गए थे। काटजू ने कहा था कि अमिताभ दिमाग़ से ख़ाली हैं। जस्टिस काटजू ने लिखा था, ‘अमिताभ बच्चन ऐसे शख्स हैं जिनका दिमाग खाली है और ज़्यादातर मीडिया वाले उनकी तारीफ़ करते हैं, मैं समझता हूं उन सभी का दिमागट भी खाली ही है।इसका अर्थ निकालने वाले कहने लगे कि काटजू ने सदी के महानायक को दिमाग़ से खाली यानी मूर्खकी संज्ञा दी। कई लोग बतौर सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस काटजू की योग्यता पर ही उंगली उठाना शुरू कर दिए।

दरअसल, जस्टिस काटजू ने कार्ल मार्क्‍स को कोट करते हुए कहा था, “कार्ल मार्क्‍स ने कहा था कि धर्म जनसमुदाय के लिए अफीम की तरह है जिसका इस्‍तेमाल शासक वर्ग लोगों को शांत रखने के लिए ड्रग्‍स की तरह करता है ताकि वे विद्रोह नहीं कर सकें। हालांकि, भारतीय जनसमुदाय को शांत रखने के लिए कई तरह के ड्रग्‍स हैं। धर्म इनमें से एक है। इसके अलावा फिल्‍म, मीडिया, क्रिकेट, बाबा आदि भी हैं।इसमें ग़लत कुछ भी नहीं है। वस्तुतः मानव समाज को ख़तरा धर्म को मामने वाले मूर्खों से है। धर्म उनकी तार्किक क्षमता को शून्य कर देता है और वे साइंस के युग में भी मानने लगते हैं कि ऊपरवाला ही सबको कंट्रोल कर रहा है।

कार्ल मार्क्‍स की ढेर सारी बातों से कई लोग सहमत नहीं होंगे, क्योंकि मार्क्‍स भले मजदूरों के हितों की बात करता था, लेकिन वह जर्मनी के बहुत विकसित समाज का प्रतिनिधि था और वह हर चीज़ों की व्याख्या अपनी हैसियत के अनुसार ही करता था। हां, धर्म के बारे में कार्ल मार्क्‍स की व्याख्या से हर समझदार और बुद्धिजीवी सहमत होगा। मार्क्‍स ने कहा है, “धर्म जनता के लिए अफीम की तरह है। जिस तरह लोग अफीम खाकर नशे में मस्त रहते हैं, जिससे उनकी विद्रोह करने की क्षमता ख़त्म हो जाती है, उसी तरह धर्म को मानने वाले लोग अपने धर्म को लेकर मस्त रहते हैं और शासक वर्ग के लोग उसी धर्म का इस्तेमाल करके उन पर शासन करते हैं।यहां मार्क्‍स की व्याख्या एकदम सही है। शासक वर्ग जनसमुदाय को अफीम रूपी धर्म की घुट्टी पिलाकर मस्त कर देता है, फिर उनका हक़ मारते हुए उन पर शासन करता है और धर्म के चक्कर में जनसमुदाय मस्त रहता है।

अगर मार्क्‍स की व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए भारतीय संदर्भ की बात करें तो सत्तावर्ग के लोग यहां धर्म के अलावा फिल्‍म्, मीडिया, क्रिकेट, साधु आदि का इस्तेमाल करके जनता को उसका आदी बनाते हैं और उस पर शासन करते हैं। वही बात तो जस्टिस काटजू ने कही है। दरअसल, आधुनिकता के दौर में जनता की याददाश्त कमज़ोर होती जा रही है। अमिताभ अभी अप्रैल में अपने जीवन के सर्वाधिक कठिन घड़ी में थे। जब पनामा लीक्स का विस्फोट हुआ था और उसमें अमिताभ और उनकी बहू ऐश्वर्या राय का नाम आया था।

पनामा पेपर्स सफ़ेदपोश आर्थिक अपराध की दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा पर्दाफ़ाश था। पत्रकारों की संस्था ' इंटरनेशनल कंसोर्टियम आफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स ' के खुलासे से अमिताभ गोपनीय कंपनी के ज़रिए पैसा लगाने के विवादों में आ गए थे। पनामा की क़ानूनी सहायता संस्था मोजाक फोंसेका के लीक हुए पेपर्स में दुनिया भर के कई हस्तियों के नाम थे। पनामा पेपर्स के नाम के इस लीक के जरिये खुलासा हुआ था कि अमिताभ समेत कई दिग्‍गजों ने टैक्‍स हेवन देशों में सीक्रेट फर्म खोली। पर्दे पर अग्निपथ के इस यात्री को उम्र के 73वें साल में अब वास्तविक जीवन के अग्निपथ से गुज़रना था। उन पर आर्थिक भ्रष्टाचार के ठोस आरोप लगे हैं।

इतने गंभीर आरोप की क़ायदे से जांच हो तो मुमकिन है अमिताभ को भी जेल जाना पड़ सकता है, लेकिन चूंकि, जस्टिस काटजू के अनुसार, वह सत्ता वर्ग के आदमी हैं, इसलिए, टैक्स चोरी करके अकूत धन बनाने के बावजूद वह शानदार जीवन जी रहे हैं। क़रीब-क़रीब हर राजनीतिक दल में अमिताभ की पूजा करने वाले लोग हैं। लिहाज़ा, अमिताभ का कभी बांल बांका नहीं होगा, उन पर भ्रष्टाचार के चाहे जितने आरोप लगे।

दरअसल, किसी के बारे में कमेंट करने से पहले थोड़ा विचार कर लेना चाहिए कि इस तरह का कमेंट कितना उचित होगा। पहले अमिताभ के ऊपर जो आरोप लगे हैं, उन पर विचार करिए इसके बाद जस्टिस काटजू के कमेंट पर विचार करिए और पता करिए कि क्या वाक़ई जस्टिस काटजू ने ग़लत कहा है।

सोमवार, 12 सितंबर 2016

क्या ‘स्टिंग ऑपरेशन’ ही ख़त्म कर देगा आम आदमी पार्टी को

हरिगोविंद विश्वकर्मा
शायद लोगों को याद हो पर दो-तीन साल पहले भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ पूरे देश में आक्रोश के चलते अचानक जननायक बन गए अरविंद केजरीवाल स्टिंग ऑपरेशन करने पर ख़ूब ज़ोर देते थे। वह बेबाक कहते थे, कोई ग़लत कर रहा हो तो उसका स्टिंग कर लो और उस स्टिंग को पब्लिक कर दो। 2013 में दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह कहते रहे, जो रिश्वत मांगे, उसकी आवाज़ रिकॉर्ड कर लो और मेरे पास भेज दो, मैं उसे फ़ौरन जेल भेज दूंगा। अब लगता है, वही स्टिंग ऑपरेशन आम आदमी पार्टी के गले की हड्डी बन गया है, क्योंकि स्टिंग ऑपरेशन के चलते पहले अरविंद खुद बेनक़ाब हुए और अब उनकी पार्टी के आदर्शवादी नेता एक-एक करके एक्सपोज़ हो रहे हैं।

फ़िलहाल, स्टिंग ऑपरेशन से आप सुप्रीमो अरविंद को पता चला कि उनकी पार्टी में संदीप कुमार नाम की एक गंदी मछली है। शायद अरविंद ने संदीप कुमार को साफ़-सुथरी मछली समझकर पहले चुनाव में टिकट दिया, फिर जीतने के बाद उन्हें महिलाओं को डिपार्टमेंट दे दिया। अब पता चला कि वह मछली साफ़ नहीं, बल्कि गंदी थी। वह गंदी मछली महिलाओं परबुरी नज़र रखती थी और उनसे सेक्सुअल फेवर मांगती थी। लिहाज़ा, उस गंदी मछली को सरकार से बाहर निकाल फेंका गया। कभी निष्पक्ष पत्रकार रहे आप सुप्रीमो के लेफ़्टिनेंट आशुतोष गुप्ता अब उस गंदी मछली की तुलना महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, अटलबिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेताओं से कर रहे हैं। आशुतोष तो जेएनयू प्रोडक्ट हैं, इसके बावजूद उन्हें शायद पता नहीं कि जिन भारतीय नेताओं का नाम वह ले रहे हैं, उन पर किसी स्त्री ने कभी रेप का आरोप नहीं लगाया था।

दिल्ली में महिला विकास मंत्रालय के प्रभारी रहे संदीप कुमार का स्टिंग तो तमाम स्टिंग्स पर भारी पड़ा। यह स्टिंग आप नेताओं के बारे में जनता की सोच ही बदल दी। भारतीय समाज ऐसे नेता को पसंद नहीं करता। इस स्टिंग से यही संदेश गया कि केजरीवाल ने प्रशांत-योगेंद्र के विरोध का धता-बताकर चुनाव में अनेक दाग़दार छवि वाले नेताओं को टिकट ही नहीं दिया बल्कि उनमें से दो को तो मंत्री भी बना दिया। ज़ाहिर है, इस स्टिंग से पार्टी को जो नुकसान हुआ है, उसकी गंभीरता अभी कम से कम आशुतोष जैसे नेता नहीं समझ रहे हैं। भारतीय राजनीति में नेता का चरित्र बहुत अहम होता है। संदीप कुमार प्रकरण से लोग यही सोचना शुरू कर सकते हैं कि इस पार्टी में सभी नेता ऐसे ही हैं।

बहरहाल, यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि स्टिंग ऑपरेशन आप के लिए ख़ासा सिरदर्द साबित हो रहा है। स्टिंग ऑपरेशन की पार्टी पहली बार नवंबर 2013 में शिकार हुई, जब मीडिया सरकार के अनुरंजन झा ने दिल्ली विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कुमार विश्वास और साज़िया इल्मी (तब आप में थीं) समेत 13 आप उम्मीदवारों का स्टिंग कर सनसनी फैला दी। स्टिंग के चलते आप चुनाव में बहुतम पाने से वंचित रह गई। लिहाज़ा, त्रिशंकु एसेंबली में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाने का अपयश झेलना पड़ा। हर वक़्त कांग्रेस को कोसने वाले अरविंद के उसी के समर्थन से सरकार बनाने पर पहली बार लोगों को संदेह हुआ कि कहीं केजरीवाल भी आम भारतीय नेताओं की तरह तो नहीं हैं। जो बातें आदर्शवाद की करते हैं लेकिन अंदर से सत्ता का भूखा है।

जो भी हो, ख़ुद आप सुप्रीमो अरविंद के असली और स्वाभाविक चरित्र और चेहरे को उजागर किया उनके ही कार्यकर्ता उमेश सिंह के सनसनीख़ेज़ स्टिंग ने। आदर्शवाद और संस्कार की बात करने वाले अरविंद के मुंह से गाली पूरे देश ने सुनीवह भी प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और आनंद कुमार जैसे बेहद सौम्य और जनता के बीच अच्छी छवि रखने वाले लोगों के लिए। किसी को यक़ीन ही नहीं हुआलेकिन यह सच था। मई 2015 में पब्लिक हुए स्टिंग ने साबित कर दिया कि केजरीवाल गाली-गलौज़ करने वाले नेता हैं। इस स्टिंग के बाद भारतीय राजनीति में उनकी पर्सनॉलिटी कल्ट ही ख़त्म हो गई। वह जोक्स और उपहास के सब्जेक्ट बन गए।

बहरहाल, भ्रष्टाचार को सबसे गंभीर सामाजिक बुराई मानने वाली आप के पंजाब प्रभारी सुच्चा सिंह छोटेपुर का भी स्टिंग इसी साल हुआ। सुच्चा एक नेता से कथित तौर पर टिकट देने के बदले दो लाख रुपए लेते हुए पकड़े गए। बतौर सीएम 1984 के दिल्ली दंगे की फिर से जांच कराने का आदेश देकर सिख जनता के हीरो बने केजरीवाल पंजाब में सरकार बनाने का सपना देख रहे थे, क्योंकि लोकसभा में पार्टी के चारों सांसद पंजाब से ही हैं, लेकिन स्टिंग ने उनका समीकरण ही गड़बड़ा दिया है।

वस्तुतः कुछ दिन पहले पंजाब से ही एक और स्टिंग पब्लिक हुआ, जिसमें आप नेता हरदीप किंगरा ने पंजाब प्रभारी संजय सिंह और सह प्रभारी दुर्गेश पाठक पर पैसे लेने का आरोप लगाया। स्टिंग के मुताबिक़, माघी मेले के लिए पार्टी की फाइनेंस कमेटी के सुरिंदर अरोड़ा ने जो छह लाख रुपए जमा कराए थेउनमें से एक लाख रुपए तो पार्टी फंड में जमा हुआ, लेकिन बाक़ी पांच लाख रुपए संजय सिंह ने कैश ले लिए। अभी तक संजय सिंह ने इस आरोप का खंडन नहीं किया है।

पिछले दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले आप को दूसरी पार्टियों से अलग पार्टी माना जाता था। लोग मानते थेआप एकमात्र पार्टी हैजिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं है। मसलन,हर मुद्दे पर इसका नज़रिया और नीति साफ़ है। मसला अपराधियों को राजनीति से दूर रखने की होचंदे में पारदर्शिता की हो या फिर पार्टी में सुप्रीमो कल्चर कीहर मुद्दे पर कम से कम आप का रवैया पारदर्शीसर्वमान्य और लोकतांत्रिक था। इसका इंपैक्ट सीधे जनता पर होता था। लोग मानते थे कि बीजेपी-कांग्रेस जैसी दूसरी पार्टियां आप को ख़त्म करने की साज़िश में लगी हुई हैंताकि पिछले क़रीब सात दशक से जिस तरह की राजनीति हो रही हैवह बदस्तूर जारी रहे।

यही वजह है कि चुनाव में जनता ने आप को वह मैंडेट दिया, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। केजरीवाल ने चीफ़ मिनिस्टर बनते समय अपील की, “कुछ भी हो अपने ऊपर अंहकार हावी मत होने देनाक्योंकि अहंकार ने बीजेपी-कांग्रेस का बेड़ा गर्क कर दिया। यह बात लोगों को बहुत पसंद आई। राजनीतिक हलकों में सुगबुगाहट होने लगी कि मुमकिन है,2019 का आम चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी न होकर नरेंद्र मोदी बनाम अरविंद केजरीवाल हो। लेकिन योगेंद्र-प्रशांत को जिस तरह बाहर का रास्ता दिखाया गया उससे साफ़ लगा कि इस पार्टी में सभी नेताओं में अहंकार भर गया है।

अब लग रहा है कि जनता से मिला शानदार मौक़ा अरविंद अहंकार और अपने चमचों की बात मानकर गंवा रहे हैं। 2013-14 में उनकी सरकार ने 49 दिन में गुड गवर्नेंस का परिचय दिया था। इसी आधार पर लोगों ने वोट दिया। परंतु दूसरे कार्यकाल में वह ख़ुद ही बेनकाब हो रहे है। एक-एक करके वही काम कर रहे थेजिसकी कभी वह मुखालफत किया करते थे। वह लालबत्ती-वीआईपी-बंगला कल्चर ख़त्म करने की बात करते थे। क्या उसका पालन कर रहे हैं? उनके सारे नेता बंगलों में रह रहे हैं और लालबत्ती कार से चल रहे हैं।

बेशक, केजरीवाल के साथ केंद्र सरकार गंभीर अन्याय कर रही है। लोग जान रहे हैं कि लेफ़्टिनेंट गवर्नर नज़ीब जंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इशारे पर दिल्ली सरकार को काम नहीं करने दे रहे हैं। यह किसी इमरजेंसी जैसे हालात से कम नहीं है, लेकिन न तो दिल्लीन ही देश मेंकिसी का ख़ून खौल रहा है। मतलब, केजरीवाल को जनसमर्थन नहीं मिल रहा है। लोग चुप हैंकोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं। इसका मतलब यह भी है कि लोग जान गए हैं कि आप और केजरीवाल भी दूध के धुले नहीं हैं। लिहाज़ान तो आप को, न ही केजरीवाल को सहानुभूति नहीं मिल रही है।

अब जिस तरह से आप के नेताओं के स्टिंग सामने आ रहे हैं और एक के बाद एक आप एमएलए की गिरफ़्तारी हो रही है। उससे ख़तरा यह पैदा हो गया है कि कहीं स्टिंग ऑपरेशन से पार्टी का अस्तित्व ही संकट में न पड़ जाए। लोग यह भी मानने लगे हैं कि संभवतः केजरीवाल ने लोगों का ट्रैक रिकॉर्ड चेक किए बिना ही पार्टी में शामिल किया, टिकट दे दिया और जीतने पर अपनी सरकार में मंत्री बना दिया। इसका यह भी मतलब कि अरविंद में अच्छे-बुरे लोगों की पहचान करने का हुनर नहीं है। यानी आप बंडलबाज़ और स्त्रियों का शोषण करने वाले नेताओं का जमघट हो गया है।

भारतीय जनता, ख़ास करके वोटर बड़े उदार रहे हैं। नेताओं के ग़ुनाह माफ़ करते रहे हैं। अगर केजरीवाल वाक़ई चाहते हैं कि उनकी पार्टी की साख़ पर लगा दाग़ धुले तो उन्हें ग़लत नेताओं को पार्टी में शामिल करने, टिकट देने और फिर मंत्री बनाने की भूल के लिए सार्वजनिक तौर पर माफ़ी मांगनी चाहिए। उन्हें तमाम संदिग्ध चरित्र वाले नेताओं को पार्टी से निकाल बाहर करना चाहिए। चाहे संदीप कुमार हो, जीतेंद्र तोमर हों या अपनी पत्नी का टॉर्चर करने वाले सोमनाथ भारती। अगर अरविंद माफ़ी मांगकर यह क़दम उठाते हैं तो मुमकिन है जनता उन्हें माफ़ कर दे।

रविवार, 11 सितंबर 2016

ग़ज़ल - गुजरता जा रहा है रोज़ाना एक दिन

गुजरता जा रहा है रोज़ाना एक दिन
तुमको भी पड़ेगा ही जाना एक दिन
क्यों कहते हो आत्महंताओं को कायर
सबको पड़ेगा ज़हर खाना एक दिन
जंग जीतकर कोई ना यहां से गया
मुंहकी खाएगा हर सयाना एक दिन
दौलत क्या जिस्म भी नहीं तुम्हारा
समझोगे ज़िंदगी का फसाना एक दिन
पूरी ज़िदगी तुमने जो जो भी किया

पड़ेगा सब कुछ बताना एक दिन
हरिगोविंद विश्वकर्मा

सोमवार, 5 सितंबर 2016

सार्वजनिक गणेशोत्सव - उदारवादी कांग्रेसी नहीं चाहते थे तिलक शुरू करें यह आयोजन

हरिगोविंद विश्कर्मा
जिस सार्वजनिक गणेशोत्सव को आजकल लोग इतनी धूमधाम से मनाते थे, उस पब्लिक फंक्शन को शुरू करने में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को काफी मुश्किलात और विरोध का सामना करना पड़ा था। हालांकि, सन् 1894 में कांग्रेस के उदारवादी नेताओं के भारी विरोध की परवाह किए बिना दृढ़निश्चय कर चुके लोकमान्य तिलक ने इस गौरवशाली परंपरा की नींव रख ही दी। बाद में सावर्जनिक गणेशोत्सव स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को एकजुट करने का ज़रिया बना।

1890 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तिलक अकसर चौपाटी पर समुद्र के किनारे जाकर बैठते थे और सोचते थे कि कैसे लोगों को एकजुट किया जाए। अचानक उनके दिमाग़ में आइडिया आया, क्यों न गणेशोत्सव को घरों से निकाल कर सार्वजनिक स्थल पर मनाया जाए, ताकि इसमें हर जाति के लोग शिरकत कर सकें। विघनहर्ता गणेश पूजा भारत में प्राचीन काल से होती रही है। पेशवाओं ने गणेशोत्सव का त्यौहार मनाने की परंपरा शुरू की और सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू करने का श्रेय तिलक को जाता है।

तिलक ने जनमानस में सांस्कृतिक चेतना जगाने और लोगों को एकजुट करने के लिए हीसार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरूआत की। हालांकि कांग्रेस पर 1885 से 1905 पर वर्चस्व रखने वाला व्योमेशचंद्र बैनर्जी, सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, बदरुद्दीन तैयबजी और जी सुब्रमण्यम अय्यर जैसे नेताओं का उदारवादी खेमा नहीं चाहता था कि गरम दल के नेता तिलक सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू करें।

दरअसल, उदारवादी धड़ा इसलिए भी सार्वजनिक गणेशोत्सव का विरोध कर रहा था, क्योंकि 1893 में मुंबई और पुणे में दंगे हुए थे। लिहाजा, किसी भी दूसरे कांग्रेसी ने तिलक का साथ नहीं दिया। चूंकि गणेशोत्सव की अवधारणा हिंदू धर्म से संबंधित थी, इससे कांग्रेस के दूसरे नेता इस सार्वजनिक आयोजन में शामिल नहीं हुए। उन्हें डर थ कि इससे उनकी सेक्यूलर इमैज को धक्का लग सकता है। लेकिन तिलक ने चिंता नहीं की। व मानते थे कि लक्ष्य पाने के लिए जीवन के सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं करना चाहिए।

बहरहाल, जब उदारवादियों की बात तिलक नहीं माने, तब कांग्रेस ने आशंका जताई किगणेशोत्सव को सार्वजनिक करने से दंगों हो सकते हैं। यह दीगर बात है कि आयोजन के बाद हुए दंगे के लिए गणेशोत्सव को ही ज़िम्मेदार माना गया। अब समझा जा सकतहै कि पहले आयोजन से दूर रहनाफिर दंगों की आशंका जताना और अंत में दंगों के लिए गणेशोत्सव को दोषी ठहराना उदारवादी कांग्रेसियों की चाल थी। हालांकि उस समय तिलक का राष्ट्रीय स्तर पर साथ लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल, अरविंदो घोष, राजनरायण बोस और अश्विनीकुमार दत्त ने दिया था। जो भी हो, तिलक इसके बाद तो अपने ज़मानेके सबसे ज़्यादा प्रखर कांग्रेस नेता के रूप में लोकप्रिय हो गए।

बीसवी सदी में तो सार्वजनिक गणेशोत्सव बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हो गया। वीर सावरकर और कवि गोविंद ने नासिक में गणेशोत्सव मनाने के लिए मित्रमेला संस्था बनाई थी। इसका काम था देशभक्तिपूर्ण मराठी लोकगीत पोवाडे आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना। पोवाडों ने पश्चिमी महाराष्ट्र में धूम मचा दी थी। कवि गोविंद को सुनने के लिए भीड़ उमड़ने लगी। राम-रावण कथा के आधार पर लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल होते थे। लिहाज़ा, गणेशोत्सव के ज़रिए आजादी की लड़ाई को मज़बूत किया जाने लगा। इस तरह नागपुरवर्धाअमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का आंदोलन छेड़ दिया था।

बताया जाता है कि सार्वजनिक गणेशोत्सव से अंग्रेज घबरा गए थे। इस बारे में रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी गंभीर चिंता जताई गई थी। रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन का विरोध करती हैं और ब्रिटेन के ख़िलाफ़ गीत गाती हैं। स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाने और शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। इतना ही नहीं, अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष ज़रूरी बताया जाता है। सार्वजनिक गणेशोत्सवों में भाषण देने वाले में प्रमुख राष्ट्रीय नेता तिलकसावकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोसरेंगलर परांजपे,  मौलिकचंद्र शर्मादादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू होते थे।

तिलक उस समय युवा क्रांतिकारी दल के नेता बन गए थे। वह स्पष्ट वक्ता और प्रभावी ढंग से भाषण देने में माहिर थे। यह बात ब्रिटिश अफसर भी अच्छी तरह जानते थे कि अगर किसी मंच से तिलक भाषण देंगे तो वहां आग बरसना तय है। तिलक 'स्वराजके लिए संघर्ष कर रहे थे। तिलक के सार्वजनिक गणेशोत्सव से दो फायदे हुएएक तो वह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचा पाए और दूसरा यह कि इस उत्सव ने जनता को भी स्वराज के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी और उन्हें जोश से भर दिया।

दरअसल, सन् 1857 की क्रांति के बाद स्वाधीनता आंदोलन में तिलक का प्रमुख भूमिका मेंहोना सबसे महत्वपूर्ण रहा। कई लोग कहते हैं कि तिलक न होतेतो आज़ादी पाने में कई दशक और लगते। यह भी सत्य है कि कांग्रेस के भीतर तिलक की घोर अवहेलना हुई। वह मोतीलाल नेहरू जैसे समकालीन नेताओं की तरह ब्रिटिश राज से समझौते की मुद्रा में नहीं रहे। लिहाजा,  ब्रिटिश राज के लिए चुनौती बनकर उभरे। तिलक की राय थी कि अंग्रेज़ोंको यहां से किसी भी कीमत पर भगाना है। लिहाज़ाउन्होंने दूसरे कांग्रेस नेताओं की तरह ब्रिटिश सत्ता के समक्ष हाथ फैलाने के बजाय उन्हें भारत से खदेड़ने की राह मज़बूत करने में अपनी मेहनत लगाई।

स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार हैमैं इसे लेकर रहूंगा’, इस घोषणा के ज़रिए सन 1914में तिलक ने जनमानस में ज़बरदस्त जोश भर दिया। तिलक से पहले समस्त भारतीय समाज में देश के लिए सम्मान और स्वराष्ट्रवाद का इतना उत्कट भाव इतने प्रभावी ढंग से कोई जगा नहीं पाया था। भारत से ब्रिटिश राज की समाप्ति के लिए उन्होंने सामाजिक आंदोलनों के ज़रिए सामाजिक चेतना का प्रवाह तेज़ करके अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ जनमत का निर्माण किया।

तिलक के नेतृत्व में जनमानस में पनपते असंतोष को फूटने से रोकने के लिए 1885 मेंवायसराय लॉर्ड डफ़रिन की सलाह पर एनेल ऑक्टेवियन ह्यूम ने 28 दिसंबर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी। लिहाज़ा, अपने जन्म से ही कांग्रेस ने तिलक को दरकिनार करने की पूरी कोशिश की अंग्रेज़ों को अहसास था कि अगर तिलक का सामाजिक चेतना का प्रयास मज़बूत हुआ तोउनकी विदाई का समय और जल्दी आ जाएगा। इसलिए शातिराना अंदाज़ में अंग्ऱों ने सवतंत्रता आंदोलन पर नियंत्रण करने के लिए कांग्रेस की स्थापना की।

सन् 1995 में क्रिसमस के दौरान पुणे में कांग्रेस क 11 वें अधिवेशन में तिलक को आम राय से 'स्वागत समितिका प्रमुख बनाया गया। लेकिन कांग्रेस पंडाल में सामाजिक परिषद आयोजित किए जाने के नाम पर पार्टी में ज़बरदस्त विवाद हुआ। लिहाज़ा, तिलक को कांग्रेस अधिवेशन की स्वागत समिति छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। उनका मानना था कि स्वतंत्रता मांगने से कभी नहीं मिलेगी। लिहाजा, इसे लेने के लिए खुल संघर्ष करना पड़ेगा और हर प्रकार के बलिदान के लिए तैयार रहना होगा।

दरअसल, अगर गणेशोत्सव के पौराणिक इतिहास पर नज़र डाले तो नारद पुराण की कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती ने शरीर के मैल से बालक की जीवंत मूर्ति बनाई और उसका नाम गणेश रखा तथा उन्हें दरवाज़े पर खड़ा कर दिया। पार्वती ने कहा, मैं स्नान करने जा रही हूं', इसलिए इस बीच किसी को अंदर नहीं आने देना। गणेशजी ने माता की आज्ञा का पालन करते हुए भगवान शिव को ही अंदर नहीं आने दिया। क्रोध में शंकरजी ने उनका गला धड़ से अलग कर दिया। इस पर पार्वती विलाप करने लगीं। इसके बाद शिवजी ने हाथी के बच्चे का सिर बालक के शरीर में जोड़कर उसे जीवित कर दिया। उसी चतुर्थी थी और तब से भगवान गणेश का जन्म उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा।

कालांतर में गणेश हिंदुओं के आदि आराध्य देव बन गए। हिंदू धर्म में उनको विशष्टि स्थान प्राप्त हो गया। अब तो कोई भी धार्मिक उत्सव होयज्ञपूजन सत्कर्म हो या फिर विवाहोत्सव होनिर्विध्न कार्य संपन्न हो इसलिए शुभ के रूप में गणेश की पूजा सबसे पहले की जाती है। अगर इतिहास की बात करें तो महाराष्ट्र में सात वाहनराष्ट्रकूटचालुक्य जैसे राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलाई। छत्रपति शिवाजी महाराज भी गणेश की उपासना करते थे। पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। पुणे में कस्बा गणपति की स्थापना राजमाता जीजाबाई ने की थी। महाराष्ट्र का गणेशोत्सव सबसे बड़ा त्यौहार है।

यह उत्सवहिंदू पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास की चतुर्थी से चतुर्दशी तक दस दिनों तक चलता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी भी कहते हैं। गणेश की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण भारत में समान रूप में व्याप्त है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है। पहले गणेश पूजा घर में होती थी। महोत्सव को सार्वजनिक रूप देते समय तिलक ने उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा,बल्कि आजादी की लड़ाईछूआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने और आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। अंत में इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

अगर भारत हिम्मत दिखाकर केवल सिंधु जल संधि को रद कर दे तो घुटने टेक देगा पाकिस्तान

हरिगोविंद विश्वकर्मा
हनुमानजी के बारे में कहा जाता है कि उन्हें ख़ुद पता ही नहीं था कि वह कितने शक्तिशाली हैं और क्या कर सकते हैं, लिहाजा, अपने आपको वह साधारण बानर समझते थे। जब जामवंत ने उन्हें याद दिलाया कि वह बचपन में ही आग के प्रचंड गोले जैसे सूर्य देवता को निगल गए थेतब हनुमानजी को एहसास हुआ कि वाक़ई उनके पास बहुत ज़्यादा ताक़त है और वह बहुत कुछ कर सकते हैं और लंका फूंक आए। यही हाल कमोबेश भारत का हैकमज़ोर लीडरशिप के चलते इस देश को पता ही नहीं है कि वह कितना ताक़तवर है और क्या-क्या कर सकता है। कहने का मतलब इस देश को भी उसकी शक्ति का अहसास कराने के लिए जामवंत की ज़रूरत है।

दरअसलदेश के तथाकथित महान नेताओं ने जनता को सहिष्णुता और शांति की ऐसी घुट्टी पिलाई कि सारे देशवासी सहिष्णु और शांति का उपासक हो गए। यह सर्वविदित है कि पूरी दुनिया केवल और केवल ताक़त को सलाम करती है। सहिष्णुता या शांति की बात करने वाले को कायर और कमज़ोर मानती है। प्रधानमंत्री के सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल भी मानते हैं कि इतिहास केवल ताकतवर लोगों को ही याद रखता है। लिहाज़ा, हरदम सहिष्णुता और शांति का राग आलापने के कारण दुनिया में भारत की इमैज सॉफ़्ट और वीक नेशन की बन गई है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़र में भारत ऐसा लाचार देश है, जो अपने ही नागरिकों की रक्षा कर पाने में सक्षम नहीं और अपने निर्दोष नागरिकों की हत्या करने वाले आतंकवादियों और उन्हें पनाह देने वालों के ख़िलाफ़ कोई ऐक्शन नहीं ले पाता। भारत ऐक्शन लेने की जगह हत्यारों के ख़िलाफ़ सबूत पेश करता है। भारत की इस नीति पर पूरी दुनिया हंसती है।

भारत जैसा विशाल देश सन् 1947 में विभाजन के बाद से पाकिस्तान जैसे छोटे शरारती देश की हरकतों को ख़ासा परेशान रहा है। भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस आतंकी देश की हरकतों की मय सबूत शिकायत करता हैलेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगता। सब हंसकर कह देते हैं, "ये प्रमाण पर्याप्त नहीं हैं। लिहाज़ा, कोई ऐक्शन नहीं लिया जा सकता।" सबसे मज़ेदार बात यह कि देश के पास एक ऐसा ब्रम्हास्त्र है जिसे इस्तेमाल करके वह शरारती पाकिस्तान को सबक ही नहीं सिखा सकता है, बल्कि इस्लामाबाद को आतंकवाद की मदद एवं समर्थन करने से रोक सकता है और आतंकवादी शिविर बंद करने पर विवश भी कर सकता है। इसके अलावा दाऊद इब्राहिम, हाफिज़ सईद और मौलाना मसूद जैसे आतंकवादियों को अपने हवाले करने पर पाकिस्तान को मज़बूर भी कर सकता है।

भारत सक्षम और समर्थ होने के बावजूद बेचारा बना हुआ है। यह सब बेहद कमज़ोर बिल पावर वाली लीडरशिप के कारण हो रहा है। भारतीय नेता अपने यहांख़ासकर कश्मीर में आतंकवाद के खात्मे के लिए पाकिस्तान पर निर्भर हैं। अब भी भारतीय नेताओं को लगता है कि वार्ता से बात बन जाएगी और अंततः वह बददिमाग़ देश मान जाएगा और अपनी हरकत से बाज आएगा। इस उम्मीद के साथ वार्ताओं का सिलसिला कई दशक से चल रहा है। उधर देश का हर नागरिक, ख़ासकर शहरों में रहने वाले लोग, इस बात को लेकर तनाव में रहता है कि पाकिस्तान पोषित सिरफिरे आतंकवादी जेहाद के नाम पर कब और कहां बम न फोड़ दें या सशस्त्र हमला न कर दें और सैकड़ों मासूमों की जान न ले लें।

भारत का वह अचूक ब्रह्मास्त्र है, इंडस वॉटर ट्रीटी यानी सिंधु जल संधि। दरअसलइंटरनेशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन ऐंड डेवलपमेंट (अब विश्व बैंक) की मध्यस्थता में 19 सितंबर 1960 को कराची में इंडस वॉटर ट्रीटी पर भारतीय प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल अयूब ख़ान ने हस्ताक्षर किए। तब से भारत सिधु वॉटर ट्रीटी यानी सिंधु जल संधि को ढो रहा है।

सिंधु जल संधि के अनुसार भारत अपनी छह प्रमुख नदियों का अस्सी (80.52) फ़ीसदी से ज़्यादा यानी हर साल 167.2 अरब घन मीटर जल पाकिस्तान को देता है। तीन नदियां सिंधु, झेलम और चिनाब तो पूरी की पूरी पाकिस्तान को भेंट कर दी गई हैं। यह संधि दुनिया की इकलौती संधि हैजिसके तहत नदी की ऊपरी धारा वाला देश निचली धारा वाले देश के लिए अपने हितों की अनदेखी करता है। ऐसी उदार मिसाल दुनिया की किसी संधि में नहीं मिलेगी। आधुनिक विश्व के इतिहास में यह संधि सबसे उदार जल बंटवारा है। इससे पाकिस्तान की 80 फ़ीसदी खेती यानी 2.6 करोड़ एकड़ ज़मीन की सिंचाई इन छह नदियों से होती है। 

सबसे हैरान करने वाली बात है कि इस बेजोड़ संधि का लाभार्थी देश पाकिस्तान भारत की उदारता का जवाब आतंकवादी हरकतों से देता है। लाभार्थी पाकिस्तान संधि के बाद जलदाता देश भारत के साथ दो बार (1965 और 1971 युद्ध) घोषित तौर पर और एक बार (कारगिल घुसपैठ 1999) अघोषित तौर पर युद्ध छेड़ चुका है। इतना ही नहीं, सीमा पर गोलीबारी और घुसपैठ हमेशा करता रहता है। भारत के पानी पर जीवन यापन करने वाला यह देश जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों को शुरू से शह और मदद देता रहा है। जबकि किसी देश के संसाधन पर दूसरे देश का अधिकार तभी तक माना जाता हैजब तक लाभार्थी देश का रवैया दोस्ताना हो। सिंधु जल संधि की बात करें तो यहां तो पाकिस्तान का रवैया दुश्मन की तरह है, इसलिए भारत को उसे पानी देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

लिहाज़ा, इन परिस्थितियों में भारत को अपने इस ब्रम्हास्त्र का इस्तेमाल करना चाहिए। पाकिस्तान के सामने पानी देने के लिए स्पष्ट रूप से तीन शर्त रख देनी चाहिए। पहली शर्त, कश्मीरी आतंकवादियों को समर्थन बंद करे। दूसरी शर्त, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के आतंकवादी शिविर को नष्ट करे और शिविर नष्ट किया या नहीं, यह जांच भारतीय एजेंसियों को करने की इजाज़त दे। तीसरी शर्त, पाकिस्तान हाफिज़ सईद, ज़कीउररहमान लखवी (दोनों लश्करे तैयबा), मौलाना मसूद अज़हर (जैश-ए-मोहम्मद), सैयद सलाउद्दीन (हिज़बुल मुजाहिद्दीन), भटकल बंधु (इंडियन मुजाहिद्दीन) और दाऊद इब्राहिम एवं टाउगर मेमन (1993 मुंबई बम ब्लास्ट के आरोपी) को भारत को सौंपे।

अगर पाकिस्तान तीनों शर्तें माने तभी उसे सिंधु, झेलम, चिनाब, सतलुज, व्यास और रावी का पानी देना चाहिए अन्यथा पानी की आपूर्ति बंद कर देनी चाहिए। यक़ीनी तौर पर पानी बंद करने से पाकिस्तान की खेती पूरी तरह नष्ट हो जाएगी, क्योंकि पूरे पाकिस्तान की 80 फ़ीसदी खेती इन छह नदियों से निकलने वाली नहरों के पानी पर निर्भर है। यह नुकसान सहन करना पाकिस्तान के बस में नहीं है। भारत से पर्याप्त पानी न मिलने से पूरे पाकिस्तान में हाहाकार मच जाएगा। इससे इस्लामाबाद की सारी अकड़ ख़त्म हो जाएगी और वह न तो आतंकवादियों का समर्थन करने की स्थिति में होगा और न ही कश्मीर में अलगाववादियों का।

ज़ाहिर है सिधु जल संधि का पाकिस्तान शुरू से बेज़ा फायदा उठाता रहा है। आतंकवाद को समर्थ देने के अलावा इस्लामाबाद बगलिहार परियोजना के लिए भारत को ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी। किशन-गंगावूलर बैराज और तुलबुल परियोजनाएं अधर में लटकी हैं। पाकिस्तान बगलियार और किशनगंगा पावर प्रोजेक्ट्स समेत हर छोटी-बड़ी जल परियोजना का अंतरराष्ट्रीय मंच पर विरोध करता रहा है। पाकिस्तान का मुंह बंद करने के लिए एक मात्र विकल्प है, सिधु जल संधि का ख़ात्मा।

सिधु जल संधि भंग करने के बाद पूरी संभावना है पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विलाप करेगा। निश्तिच तौर पर वह अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का भी दरवाज़ा खटखटाएगा। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय या अंतरराष्ट्रीय संस्थान को बताने के लिए भारत के पास पर्याप्त कारण और आधार है। भारत इस संधि को निरस्त किए बिना रिपेरियन कानून के तहत अपनी नदियों के पानी पर उस तरह अपना अधिकार नहीं जता सकता, जैसा स्वाभाविक रूप से जताना चाहिए। फिर 2002 में जम्मू-कश्मीर की विधान सभा आम राय से प्रस्ताव पारित कर सिंधु जल संधि को निरस्त करने की मांग कर चुकी है। राज्य की सबसे बड़ी जनपंचायत के इस सीरियस फ़ैसले का सम्मान किया जाना चाहिए।

सन् 2005 में पूरे मामले पर रिसर्च करने वाले इंटरनेशन वॉटर मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट (आईडब्ल्यूएमआई) और टाटा वॉटर पॉलिसी प्रोग्राम (टीडब्ल्यूपीपी) जैसे संस्थान भी अपनी रिपोर्ट में भारत को सिंधु जल संधि को रद करने की सलाह दे चुकाे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि सिंधु जल संधि से केवल जम्मू-कश्मीर को हर साल 65000 करोड़ रुपए की हानि होती है। "इंडस वॉटर ट्रीटी: स्क्रैप्ड ऑर अब्रोगेटेड" शीर्षक वाली रिपोर्ट में बताया गया है कि इस संधि के चलते घाटी में बिजली बनाने और कृषि संभावनों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक घाटी में 20000 मेगावाट से भी ज़्यादा बिजली पैदा करने की क्षमता है, लेकिन सिधु जल संधि इस राह में रोड़ा बनी हुई है।

हर साल देश के कई हिस्सों में सूखा पड़ता है। वहां पानी की बड़ी ज़रूरत पड़ती है। ऐसे में भारत अपने राज्यों को पानी क्यों न दे। जो देश ख़ुद पानी के संकट से दो चार हो, वह दूसरे देश, ख़ासकर जो देश दुश्मनों जैसा काम करे, उसे पानी देने की बाध्यता नहीं। अगर भारत जम्मू-कश्मीर में तीनों नदियों पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बांध बना दे और बिजली बनाने के बाद बांध से निकले पानी का सिंचाई के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दे, तब निश्चित तौर पर पाकिस्तान को कम पानी मिलने लगेगा और वह देश घुटने टेक देगा। पाकिस्तान को मिसाइल, तोप या बम से मारने की जरूरत नहीं, उसे मारने के लिए सिंधु जल संधि ही पर्याप्त है।

चूंकि सिंधु और सतलुज का उद्मग स्थल चीन है, लेकिन दोनों नदियां वृहद रूप भारतीय क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद अक़्तियार के बाद करती हैं। रावीब्यास झेलमसिंधु और चिनाब नदियों का आरंभिक बहाव भारतीय इलाके से है। इस हिसाब से रिपेरियन सिद्धांत के मुताबिक नदियों का नियंत्रण भारत के पास होना चाहिए। यानी नदियों के पानी पर सबसे पहला हक़ भारत का होना चाहिए। हां, भारत अपनी ज़रूरत पूरी होने पर चाहे तो अपना पानी पाकिस्तान को दे सकता है। वह भी उन परिस्थितियों में जब पाकिस्तान दोस्त और शुभचिंतक की तरह व्यवहार करे। पाकिस्तान का रवैया शत्रु जैसा होने पर भारत उसे एक बूंद भी पानी देने के लिए बाध्य नहीं है। भारत वियना समझौते के लॉ ऑफ़ ट्रीटीज़ की धारा 62 के अंतर्गत यह कह कर पीछे हट सकता है कि पाकिस्तान चरमपंथी गुटों का उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने कहा है कि अगर मूलभूत स्थितियों में परिवर्तन हो तो किसी संधि को रद्द किया जा सकता है।

भारत को चीन से सबक लेनी चाहिए। राष्ट्रीय हित का हवाला देते हुए चीन ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फ़ैसला मानने से इनकार कर दिया है। 2016 में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने 3.5 वर्गकिलोमीटर में फैले दक्षिण चीन सागर क्षेत्र पर बीजिंग के दावे को खारिज़ करके फिलीपींस के अधिकार को मान्यता दी। चीन ने दो टूक शब्दों में कहा कि वह इस फ़ैसले को मानने के लिए बाध्य नहीं है। चीनी के डिफेंस प्रवक्ता ने कहा कि चीनी सेना राष्ट्रीय संप्रभुता और अपने समुद्री हितों एवं अधिकारों की रक्षा करेगी। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी कहा कि देश की संप्रभुता और समुद्री अधिकारों पर असर डालने वाले किसी भी फ़ैसले या प्रस्ताव को उनका देश खारिज करता है।

भारत ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चीन का यह पॉइंट नोट करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फ़ैसले पर चीनी लीडरशिप की प्रतिक्रिया का फिलीपींस के अलावा किसी राष्ट्र ने विरोध नहीं किया। संयुक्त राष्ट्रसंघ में अमेरिकारूस,फ्रांस और ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली देश भी ख़ामोश रहे। इसकी मतलब यह है कि कोई भी राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हित का हवाला देकर दुनिया की सबसे बड़ी अदालत के फ़ैसले को भी मानने से इनकार कर सकता है। इसे कहते हैंविल पावरजो कम से कम अभी तक सिंधु जल संधि को लेकर भारतीय लीडरशिप में नहीं रहा है। सवाल यह है कि क्या बलूचिस्तान का मामला उठाने वाले भारतीय प्रधानमंत्री सिंधु जल संधि के मुद्दे को आतंकवाद, दाऊद इब्राहिम और हाफ़िज़ सईद से जोड़ने का साहस करेंगे।