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सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

पर्यटन पत्रकारिता - श्रीनगर में चार दिन रहकर कश्मीर समस्या पर लिखना ख़तरनाक ट्रेंड

हरिगोविंद विश्वकर्मा
लेखकीय धर्म यह है कि जब तक आप किसी टॉपिक या सब्जेक्ट को पूरी तरह समझ न लें और मसले के हर ऐंगल को क्रॉस चेक न कर लें, तब तक उस पर लिखने की कोशिश न करें। किसी विषय को बिना समझे या बिना जाने उस पर लिखना ब्लंडर से कम नहीं। ख़ासकर अगर वह टॉपिक या सब्जेक्ट बेहद संवेदनशील हो और सीधे राष्ट्रीय हित से जुड़ा हो, तब तो बिना इतिहास पर नज़र डाले अंदाज़ लगाकर या केवल स्थानीय लोगों से बातचीत कर या फिर किसी वेस्टेड इंटरेस्ट वाले व्यक्ति से मिली सूचना के आधार पर तो कतई कुछ मत लिखिए या मत बोलिए। इससे अर्थ का अनर्थ होने की पूरी गुंज़ाइश रहती है। इससे बतौर लेखक आपकी साख़ पर भी बहुत बुरा असर पड़ सकता है।

भारत में इन दिनों इस तरह का लेखन धड़ल्ले से हो रहा है। फ़ैशन की तरह। जम्मू-कश्मीर का इतिहास-भूगोल न जानने वाले लोग भी कश्मीर पर अकसर लेख लिखने लगे हैं। अख़बार हो, सोशल मीडिया या फिर कुछ साल से फ़ैशन में आया वॉट्सअप, हर फोरम पर लोग धड़ल्ले से क़रीब तीन दशक पुरानी इस समस्या पर लिख रहे हैं। सबसे दुर्भाग्य की बात है कि कश्मीर और कश्मीर समस्या पर ज़्यादातर वे ही लोग लिख रहे हैं जो कभी वहां रहे ही नहीं। कई ऐसे उत्साही लोग भी मिल जाएंगे, जो कश्मीर घूमने जाते हैं और घूमने को जस्टीफाई करने के लिए स्थानीय लोगों से बातचीत के आधार पर भावुक होकर लंबी रिपोर्ट या लेख लिख मारते हैं।

कश्मीर में दो-चार दिन रहकर उस पर लिखने वालों में कई लोग अपने आपको मानवाधिकार के प्रवक्ता के रूप में पेश करते हैं। ऐसे लोग और भी ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं, क्योंकि ये घाटी में स्थानीय लोगों की आंखों में कृत्रिम आंसू देखकर भावुक हो जाते हैं और भावुकता में कभी-कभार या अकसर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के नाम चिट्ठी लिख देते हैं। चूंकि ये बड़े नाम होते हैं, इसलिए एक बार तो देश के बाक़ी लोग इनके बहकावे में आ ही जाते हैं और इनकी सूचना को सच मानकर कहने लगते हैं - कश्मीर में वाक़ई हालात बहुत ख़राब हैं। वहां भारतीय सशस्त्र सेना वास्तव में खलनायक के रूप में है और स्थानीय लोगों का क़त्लेआम कर रही है, मासूम बच्चों की आंख फोड़ रही है, युवकों की हत्याएं कर रही है और महिलाओं से बलात्कार कर रही है।

दरअसल, यह उसी तरह का मामला है, जैसे कोई बड़ा नेता किसी गंदी बस्ती के विज़िट का प्रोग्राम बनाता है। जब वह निर्धारित समय पर वहां पहुंचता है, तो उसे वहां गंदगी दिखती ही नहीं। वस्तुतः कार्यक्रम बनते ही संबंधित अधिकारीगण रातोंरात उस जगह की साफ़-सफ़ाई करवा देते हैं और चूना वगैरह डलवा कर इलाके को चमका देते हैं। इतना ही नहीं, दौरा करने वाले नेता से बातचीत करने के लिए आर्टिफिशियल आदमी खड़ा कर देते हैं। नेता के सामने वह आर्टिफिशियल आदमी गजब का अभिनय करता है। वह बस्ती का ऐसा वर्णन करता है कि वहां रहने वाला भी न कर पाए। मतलब, नौकरशाही के चक्कर में नेता गंदी बस्ती की असलियत जानने से वंचित रह जाता है।

यही हाल श्रीनगर में चार दिन ठहरने वालों का होता है। कल्पना कीजिए, जिस राज्य में पहाड़ पर रहने वाले लोगों तक पहुंचने के लिए चढ़ने में पूरा दिन का दिन निकल जाता हो, वहां चार दिन में आप कितने लोगों से मिलेंगे और सूबे के बारे में कितना जान पाएंगे। चार दिन में तो आप किसी छोटी-सी बस्ती को भी जान नहीं पाएंगे। ऐसे में एक लाख (1,01,387) वर्ग किलोमीटर से ज़्यादा क्षेत्रफल वाले राज्य और वहां के लोगों की समस्या कितनी जान पाएंगे, यह कोई सहज कल्पना कर सकता है। ज़ाहिर है, आप भी उन्हीं लोगों की तरह आउट ऑफ एजेंडा हो जाएंगे, जो लोग कश्मीर समस्या को हल करने में लंबे समय से पसीना बहा रहे हैं और समस्या है कि 1947 से ही हल नहीं हो रही है।

दरअसल, कश्मीर में चार दिन रह कर ऐसी ही रिपोर्ट बनाने वाले एक बहुत सीनियर पत्रकार ने बिना एक पल सोचे तपाक् से कह दिया, -"राज्य में 6 साल से लेकर 80 साल तक के सभी नागरिक एक सुर से आज़ादी की मांग कर रहे हैं। वे भारत में रहना ही नहीं चाहते।" कल्पना करिए, आपके घर कोई बच्चा अगर छह साल का है, तो हितैषी और दुश्मन के बारे में उसकी समझ और धारणा कितनी साफ़ होगी? वैसे राज्य की जनसंख्या क़रीब सवा करोड़ है, इसमें कश्मीर की आबादी साठ लाख है। श्रीनगर में क़रीब 10 लाख लोग रहते हैं। अब सवाल उठता है, आपने कितने लोगों से बातचीत की और राज्य का मूड कितना समझा जो एक सुर से सब लोग आज़ादी की मांग कर रहे हैंजैसा बेहद गैरज़िम्मेदाराना और आपत्तिजनक स्टेटमेंट दे दिया।

बहरहाल, एक और रिपोर्ट में कहा गया कि पैलेट गन से 500 बच्चों की आंख चली गई। पैलेट गन से पांच सौ नागरिकों की आंख जाना बहुत बड़ी ख़बर है और आंख गंवाने वाले 500 लोग अगर बच्चे हैं, तो घटना और भी ज़्यादा सीरियस हो जाती है। लिहाज़ा, इस तरह की ख़बर लिखने या बोलने से पहले ऑफिशियली कनफ़र्म करना पड़ता है, लेकिन इस ख़बर को बिना कनफ़र्म किए लिख दिया गया और टीवी पर स्टेटमेंट भी दे दिया गया। आंख की रोशनी गंवाने वाले दस-बीस लोगों के नाम, पते और उम्र लिख दिए गए होते तो स्टोरी थोड़ी तो ऑथेंटिक लगती।

खैर, यहां एक प्रसंग का ज़िक्र करना समीचीन हो। 2014 में एक बार महाराष्ट्र के नांदेड़ के एक टीवी रिपोर्टर ने ख़बर भेजी कि सूखे के कारण सैकड़ों लोग अपने गांव से पलायन कर गए हैं। यह बहुत बड़ी ख़बर थी। लिहाज़ा, जैसे ही ख़बर असाइनमेंट पर लैंड हुई, फ़ौरन आउटपुट को फॉरवर्ड कर दी गई। ख़बर चलती, उससे पहले एक सीनियर पत्रकार की नज़र पड़ी। उसने ख़बर होल्ड करवाई और रिपोर्टर से कहा, -पलायन करने वाले लोगों के नाम और गांव समेत सूची या परिवार के किसी सदस्य का नाम भेजिए। रिपोर्ट अटक गई। अंततः तीन दिन तक रिपोर्टर कोई नाम बताने में असमर्थ रहा। मतलब, ख़बर पूरी तरह हवा-हवाई थी। उसने बिना क्रॉस चेक किए ही भेज दी गई थी।

यही हाल दिल्ली या दूसरी जगह से से कश्मीर जाने वाले पत्रकारों का होता है। इसमें उनका दोष नहीं, क्योंकि वे कश्मीर में नेता के नाम पर केवल सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारुक, यासिन मलिक, मसरत आलम, शाबिर अहमद शाह या असिया अंद्राबी (एक आतंकवादी की पत्नी) को ही जानते हैं और घाटी में लैंड करते ही सबसे पहले इन्हीं नेताओं के पास जाते हैं या जाने को कोशिश करते हैं। इन अलगाववादी नेताओं के लोग ही कश्मीर के बारे में इन पर्यटक पत्रकारों को गाइड करते हैं। अब बाहरी पत्रकार को कैसी सूचनाएं मिलेंगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। इसीलिए, कहा जाता है कि अगर आप वाक़ई कश्मीर की हक़ीक़त जानना चाहते हैं तो कम से कम इन आठ-दस नेताओं के पास मत जाइए।

अगर इनके पास जाना ही है तो वापसी के समय जाइए, ताकि ये लोग आपके समझने की बुद्धि को अपने झूठ से हाईजैक न कर सकें। आप वाक़ई कश्मीर समस्या को लेकर बहुत संजीदा हैं तो घाटी में जाकर साल-दो साल रहिए। हर तरह के लोगों से भी मिलिए। श्रीनगर ही नहीं, बारामुला, कुपवाड़ा, गंडरबल, अनंतनाग, कुलगाम, शोपियां, बांडीपुरा और पहलगांव जाइए। आप पहाड़ों पर चढ़िए और वहां रहने वालों के साथ रहिए। आतंकवादी परिवारों से भी मिलिए और उनसे भी बातचीत कीजिए कि उऩका लड़का कैसा था। वह आतंकवादी क्यों बन गया। अगर आप आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर ऐक्ट (एएफएसपीए) की सच्चाई जानना चाहते हैं तो सुरक्षा बलों से भी मिलिए।

जब आप कश्मीर में रहेंगे और घूमेंगे, तब अपने आप अलगाववादी नेताओं के झूठ को समझने लगेंगे। आपको पता चलेगा कि राज्य की 80 फ़ीसदी आबादी को इन आंदोलनों से कोई मतबल ही नहीं। आप यह भी जान जाएंगे कि कश्मीर की आधी से ज़्यादा आबादी कभी जम्मू या लद्दाख नहीं गई है। इसी तरह जम्मू की आधी से ज्यादा आबादी कभी घाटी में नहीं गई है। बहुत लोगों को शायद नहीं पता है, कश्मीर के लोग आज भी बिजली का बिल भरने में आनाकानी करते हैं। राज्य में मीटर लगाने का काम 15 साल पहले शुरू किया गया है। जम्मू व लद्दाख रिजन में मीटर लग गए हैं, लेकिन घाटी में अभी तक मीटर लगाने का काम पूरा कई साल तक नहीं हो सका। श्रीनगर में ज़्यादातर लोग चोरी का या मुफ़्त का बिजली इस्तेमाल करते हैं। सबसे बड़ी बात बिजली विभाग के कर्मचारी भी उनसे मिले हैं। सब लोग मिलकर लूट खा रहे हैं।

यह कटु सच है कि केंद्र राज्य को आंख मूंदकर पैसे देता है। यहां का शासक वर्ग मतलब नेताओं- नौकरशाहों और पुलिस अफसरों का नैक्सस केंद्र सरकार से मिलने वाले पैसे से ऐश करता है। राज्य में शराबबंदी है, मगर हर जगह शराब मिल जाती है। केंद्र ते इतना पैसा देने के बाद भी राज्य में उद्योगधंधा खड़ा नहीं हो सका। यहां पूंजी लगाने के लिए कोई बाहरी आदमी तैयार नहीं होता, क्योंकि धारी 370 आड़े आती है। उद्योग नहीं होगा तो रोज़गार नहीं होंगे। राज्य सरकार की रोज़गार देने की क्षमता कम हो रही है। क़ुदरती तौर पर बेहद समृद्ध होने के बावजूद अब्दुल्ला फैमिली और दूसरे शासकों ने राज्य को इतना दीन-हीन बना दिया है कि यह केंद्र के दान पर बुरी तरह निर्भर है। इसकी माली हालत इतनी ख़राब रहती है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन का 86 फ़ीसदी हिस्सा केंद्र देता है। राज्य के ख़र्च का 90 फ़ीसदी हिस्सा केंद्र वहन करता है।

दरअसल, कश्मीर सदियों से सैर करने की जगह रही है। लोग यहां सैर-सपाटा और मनोरंजन करने के लिए आते रहे हैं। बाहर से यहां केवल पर्यटक ही आते रहे हैं और वे यहां अच्छी सेवा के बदले स्थानीय सेवादारों को टिप्स देते रहे हैं। टिप्स पूरे ख़र्च के अलावा बख़्शीश के रूप में मिलने वाले पैसे को कहते हैं। उसे लोग खैरात के रूप में देते हैं। इस तरह सदी-दर-सदी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी यहां लोगों को टिप्स यानी खैरात की आदत पड़ गई। दूसरी किसी जगह टिप्स लेने वाले कृतज्ञता का इजहार करते हैं, लेकिन कश्मीर में सत्ता वर्ग के लोग टिप्स को अपना अधिकार मानते हैं। मतलब टिप्स भी लेंगे और आंख भी दिखाएंगे। दिल्ली ने पिछले सात दशक में इन्हें जितना पैसा दिया, उससे सत्ता में रहने वालों को अहसानमंद होना चाहिए था, लेकिन ये लोग अब भी देश विरोधी बात करते हैं।

सबसे दुर्भाग्य की बात है, जो इनकी ग़लती बताने की कोशिश करेगा, ये उसका विरोध करने लगते हैं। जो इनके और राज्य के विकास की बात करेगा, उसे अलगाववादी और राज्य की पोलिटिकल लीडरशिप मुस्लिम विरोधी कहने लगती है। अस्सी के दशक में एक बार राज्य का कायाकल्प कर देने वाले पूर्व गवर्नर जगमोहन का 21 अप्रैल 1990 को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को लिखा पत्र पढ़िए। वह पत्र इंटरनेट पर उपलब्ध है। जगमोहन ने 26 साल पहले ही कह दिया था, कश्मीरी लीडरशिप (अलगाववादी और सत्ता सुख भोगने वाले) जो कुछ कर रही है, उससे सावधान रहने की ज़रूरत है। वरना राज्य में हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे।

कई पत्रकार जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह की बात करते हैं। ये लोग पता नहीं किस मन्तव्य से कहते हैं। ऐसे लोगों को पहले जम्मू-कश्मीर के बारे में यूनाइटेड नेशन्स का चार्टर पढ़ना चाहिए। यूएन चार्टर में साफ़ लिखा है कि जनमत सर्वेक्षण से पहले पाकिस्तान को पीओके को खाली करना होगा और भारत को जम्मू-कश्मीर में उतनी ही सेना रखनी होगी, जितनी ज़रूरी है। कोई बताए, क्या पाकिस्तान पीओके को खाली करेगा? ज़ाहिर-सी बात है पाकिस्तान का जब तक अस्तित्व है, वह पीओके से क़ब्ज़ा नहीं छोड़ेगा। इसका मतलब जनमत संग्रह की बात का कोई औचित्य नहीं रह गया, लेकिन इसे बार-बार एक साज़िश के तरह उठवाया जाता है।

जो लोग कश्मीर की आज़ादी की बात करते हैं, उन्हें राज्य के भूगोल की जानकारी नहीं। दरअसल, अपने भौगोलिक स्थित के चलते राज्य का स्वतंत्र देश के रूप में अस्तित्व मुमकिन नहीं। अगस्त 1947 में कुछ समय राज्य आज़ाद था, परंतु बंटवारे के फ़ौरन बाद पाकिस्तान ने कबिलाइयों के साथ क़ब्ज़ा करने के मकसद से हमला कर दिया। मुज़फ़्फ़राबाद और मीरपुर जैसे समृद्ध इलाके उसके क़ब्ज़े में आ गए। कश्मीर को बचाने के लिए राजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला भागे-भागे दिल्ली आए और 26 अक्टूबर 1947 को राज्य के भारत में विलय के समझौते पर दस्तखत किए गए। इसके बाद कश्मीर भारत का हिस्सा हो गया। मतलब, कश्मीर अगर आज़ाद हो भी जाता है, तो पाकिस्तान उसे आज़ाद नहीं रहने देगा। अगर पाकिस्तान से बच गया तो चीन घात लगाए बैठा है। जैसे उसने तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लिया, वैसे ही कश्मीर पर क़ब्ज़ा कर लेगा। यानी कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व फिज़िबल नहीं है।

शेख अब्दुला 1947 में कश्मीर के आज़ाद न रह पाने की इस अवस्था को भलीभांति जानते और समझते थे। उन्हें पता था, पाकिस्तान पर पंजाबी मुसलमानों का वर्चस्व रहेगा। लिहाज़ा, अगर वह पाकिस्तान के साथ गए तो पंजाबी मुसलमान उनका वही हश्र करेंगे, जो हश्र उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के नेता शेख मुजीबुर रहमान का किया और जिसके कारण मुजीब को अलग राष्ट्र की मांग करनी पड़ी और जिसके फलस्वरूप 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद बांग्लादेश नाम का नया राष्ट्र बना। इसलिए शेख अब्दुल्लाह ने भारत के साथ रहने की इच्छा जताई और कश्मीर के भारत में विलय का समर्थन किया।

कश्मीर कभी आज़ाद नहीं रह सकता, यह तथ्य अलगाववादी और दूसरे नेता भी भली-भांति जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि कश्मीर कभी भारत से भी अलग नहीं हो सकता। लिहाज़ा, अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए वे आज़ादी का राग अलापते रहते हैं। देश के पैसे पर पल रहे ये लोग भारत को अपना देश मानते ही नहीं और देश के बारे में दुष्प्रचार करते रहते हैं। इनकी पूरी कवायद धारा 370 अक्षुण्ण रखने के लिए होती है। अपने इस एजेंडा पर आगे बढ़ने के लिए वे बाहरी पत्रकारों को बेवकूफ बनाते रहते हैं। बाहरी पत्रकार कश्मीर पर लिखने की खुशफहमी में इनके द्वारा मैनेज्ड हो जाते हैं।

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