किसी भी इंसान को, चाहे वह जिस भी प्रोफेशन में हो, इमेज बनाने में कई साल क्या, कभी-कभी कई दशक लग जाते हैं। कई लोग तो थोड़ी बहुत अच्छी इमेज बनाने में पूरी ज़िंदगी खपा देते हैं। कहने का मतलब, आदमी सालों-साल मेहनत और ईमानदारी से काम करता है, तब जाकर उसकी अच्छे व्यक्ति की इमेज बनती है। उसे एक पहचान मिलती है, लेकिन इतनी मेहनत से बनाई गई इमेज या पहचान को मटियामेट होने में पल भर भी नहीं लगता।
दरअसल, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ आजकल ऐसा ही कुछ हो रहा है। भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने से आजकल उनकी इमेज राष्ट्रीय खलनायक की बन गई है? जो लोग फेसबुक या ट्विटर जैसे सोशल मीडिया या वॉट्सअप जैसे फोरम से जुड़े हैं, और इन पर पोस्ट हो रही सामग्रियों को नियमित रूप से चेक करते हैं, क्या उन्हें गवाह माना जा सकता है कि वाक़ई केजरीवाल इस समय देश के नंबर एक विलेन बन गए हैं?
सोशल वेबसाइट्स पर इन दिनों जितनी नकारात्मक और आपत्तिजनक चुटकुले, कविताएं, व्यंग्य, विचार और दूसरी सामग्रियां केजरीवाल के लिए धड़ल्ले से पोस्ट की जा रही हैं, उस तरह की नकारात्मक सामग्री या विचार कभी किसी दूसरे भारतीय नेता के ख़िलाफ़ नहीं बनाई गई। ऐसा लगता है, पूरा सोशल मीडिया एंटी-केजरीवाल हो गया है।
केजरीवाल के ख़िलाफ़ हो रही टिप्पणियों के लिए चौबीसों घंटे ‘भक्त-भक्त’ और ‘संघ-संघ’ अलापने वाले तथाकथित सेक्युलर, इंटलेक्चुअल्स, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और बीजेपी की धारदार मार्केटिंग को ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन यह अर्द्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि इन दिनों वाक़ई केजरीवाल के बारे में हर दस पोस्ट में से नौ से ज्यादा पोस्ट उनके ख़िलाफ़ होते हैं, जबकि बमुश्किल एक पोस्ट उनका समर्थन करता या उन्हें डिफेंड करता दिखता है।
पहले ऐसा बिलकुल नहीं था। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद दस पोस्ट में आठ केजरीवाल के पक्ष में और दो विपक्ष में होते थे। आप में फूट और केजरीवाल की गाली सार्वजनिक होने के बाद भी दस पोस्ट में पांच उनके पक्ष और पांच विपक्ष होने लगे थे। केजरीवाल के भ्रष्ट लोगों का समर्थन करने और आम मंत्रियों-नेताओं की गिरफ्तारी के बाद भी उनके पक्ष में दस में से चार पोस्ट तो होते ही थे, लेकिन सितंबर में सेना के सर्जिकल का मसला केजरीवाल के लिए आत्मघाती साबित हो रहा है, क्योंकि उनकी लोकप्रियता के आंकड़े चिंताजनक हैं।
सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल के इतने विरोधी कहां से पैदा हो गए? क्या सर्जिकल स्ट्राइक की सबूत मांगकर केजरीवाल ने वाक़ई ब्लंडर कर दिया? सबसे बड़ी बात कि केजरीवाल के बारे में यह मूड राजधानी दिल्ली से बाहर का है। मुमकिन है सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने की केजरीवाल की बात दिल्ली के लोगों को भी बुरी लगी होगी, क्योंकि दिल्ली देश का ही हिस्सा है और दिल्ली के लोग भी संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों पर पूरे देश की तरह ही सोचते हैं।
अगर देश की तरह दिल्ली के लोगों का ऐसा हुआ तो दिल्ली के मुख्यमंत्री के लिए यह सबसे बुरी ख़बर होगी। उनका जो भी जनाधार है, वह दिल्ली में ही है। ऐसे में दिल्ली के लोगों का नाराज़ होना केजरीवाल के लिए आत्मघाती हो सकता है। ज़ाहिर सी बात है, भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर पाकिस्तानी लाइन का अनुकरण करते हुए केजरीवाल का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सबूत मांगना, उसके लिए बहुत भारी पड़ गया और उनकी वर्षों की बनाई इमैज को मटियामेट कर दिया।
इसमें दो राय नहीं कि समाजसेवी अण्णा हज़ारे के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जन आंदोलन के समय अरविंद हीरो थे। भ्रष्टाचार से परेशान आम आदमी ने उन्हें नायक का दर्जा दे दिया था, इसीलिए उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभूतपूर्व जनादेश मिला, लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में अपरिपक्व बयान देकर केजरीवाल ने जीवन भर की कमाई गंवा दी।
कभी-कभी लगता है कि संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों पर देश का पॉलिटिकल और इंटलेक्चुअल क्लास अभी परिपक्व नहीं हुआ है। सेना की कार्रवाई का सबूत मांगना उसी अपरिपक्वता को दर्शाता है। दुनिया का हर देश संकट या युद्ध के समय दलगत भावना से ऊपर उठकर एक रहता है, लेकिन भारत में आज भी संवेदनशील मसले पर नेता लेफ़्ट-राइट करते दिखते हैं।
यहां अमेरिका का ज़िक्र करना उचित होगा। शायद लोगों को याद हो, अमेरिका में जब 2001 में आतंकी हमला हुआ था, तो पूरा देश एक होकर अपनी सरकार और जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ खड़ा था। अपेक्षाकृत उदार अमेरिका में भी उस समय किसी ने सरकार या ख़ुफिया विभाग पर असफल होने का आरोप नहीं लगाया। इसका पॉज़िटिव रिज़ल्ट यह हुआ कि ह्वाइट हाउस को आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने की ताक़त मिली। अमेरिकी सैनिक भी पूरी ताक़त से यह सोचकर लड़े कि उनके देश का हर नागरिक उनके साथ है। यह राष्ट्रीय एकता का गजब की मिसाल थी, जिसका फ़ायदा अमेरिका को मिला।
हमारे देश में तस्वीर उलटी है। यहां अति संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों भी राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक़ अलग-अलग तरीक़े से डिफाइन किया जाता है। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर भी राजनीतिक दल एक मत नहीं है। सेना ने आतंकवादियों और उनके शिविर को नष्ट करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक किया, तो उस पर भी राजनीति शुरू है। यहां इस अहम मुद्दे का राजनीतिकरण करने के लिए केवल विपक्ष को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। सत्तारूढ़ बीजेपी और उसके नेता कम ज़िम्मेदार नहीं। बेशक सर्जिकल स्ट्राइक का क्रेडिट नरेंद्र मोदी को दीजिए क्योंकि वह देश के प्रधानमंत्री हैं। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को किस आधार पर क्रेडिट दिया जा रहा है, यह समझ से परे है।
खैर, बात हो रही थी केजरीवाल की। उनके ऊपर आजकल जितनी आपत्तिजनक सामग्री लिखी जा रही हैं, इससे लगता है उनके प्रति पूरे देश में गहरा आक्रोश हैं। दरअसल, केजरीवाल ने सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत उस समय मांग लिया जब पाकिस्तान भारतीय सेना के ऐक्शन को सिरे से ख़ारिज़ कर रहा था, इसीलिए केजरीवाल के बयान को देश के आम लोगों ने माना कि दिल्ली के मुख्यमंत्री तो पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं।
मीडिया में आई खबरों पर गौर भी किया जाए तो बयान के बाद ही केजरीवाल पाकिस्तानी मीडिया में जहां हीरो बन गए, वहीं राष्ट्रीय मीडिया में वे खलनायक के रूप में सामने आए! देखा जाए तो पूरी आम आदमी पार्टी और खुद अरविंद केजरीवाल को भी अपने बयान को लेकर अब अफसोस हो रहा होगा, क्योंकि बेहद छोटे राजनीतिक कॅरियर में उन्होंने खुद से भी इस तरह की पॉलिटिकल ब्लंडर की अपेक्षा नहीं की होगी।
दरअसल, वे खुद भी समझ रहे होंगे की जो कांग्रेस इस मुद्दे पर अपने दिग्गज नेताओं से दूरी साध रही थी, तो कम से कम से उन्हें अपने स्टेटमेंट की टाइमिंग पर सोचना चाहिए था। चुनावों से पहले आप को इस पर मंथन करना होगा और अपने एकमात्र राष्ट्रीय चेहरे की इमेज बिल्डिंग जरूर करनी होगी, वरना मीडिया से खड़े हुए नेता और पार्टी, दोनों को ही सोशल मीडिया के आभासीय यथार्थ का पता तो जरूर होगा।
दरअसल, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ आजकल ऐसा ही कुछ हो रहा है। भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने से आजकल उनकी इमेज राष्ट्रीय खलनायक की बन गई है? जो लोग फेसबुक या ट्विटर जैसे सोशल मीडिया या वॉट्सअप जैसे फोरम से जुड़े हैं, और इन पर पोस्ट हो रही सामग्रियों को नियमित रूप से चेक करते हैं, क्या उन्हें गवाह माना जा सकता है कि वाक़ई केजरीवाल इस समय देश के नंबर एक विलेन बन गए हैं?
सोशल वेबसाइट्स पर इन दिनों जितनी नकारात्मक और आपत्तिजनक चुटकुले, कविताएं, व्यंग्य, विचार और दूसरी सामग्रियां केजरीवाल के लिए धड़ल्ले से पोस्ट की जा रही हैं, उस तरह की नकारात्मक सामग्री या विचार कभी किसी दूसरे भारतीय नेता के ख़िलाफ़ नहीं बनाई गई। ऐसा लगता है, पूरा सोशल मीडिया एंटी-केजरीवाल हो गया है।
केजरीवाल के ख़िलाफ़ हो रही टिप्पणियों के लिए चौबीसों घंटे ‘भक्त-भक्त’ और ‘संघ-संघ’ अलापने वाले तथाकथित सेक्युलर, इंटलेक्चुअल्स, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और बीजेपी की धारदार मार्केटिंग को ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन यह अर्द्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि इन दिनों वाक़ई केजरीवाल के बारे में हर दस पोस्ट में से नौ से ज्यादा पोस्ट उनके ख़िलाफ़ होते हैं, जबकि बमुश्किल एक पोस्ट उनका समर्थन करता या उन्हें डिफेंड करता दिखता है।
पहले ऐसा बिलकुल नहीं था। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद दस पोस्ट में आठ केजरीवाल के पक्ष में और दो विपक्ष में होते थे। आप में फूट और केजरीवाल की गाली सार्वजनिक होने के बाद भी दस पोस्ट में पांच उनके पक्ष और पांच विपक्ष होने लगे थे। केजरीवाल के भ्रष्ट लोगों का समर्थन करने और आम मंत्रियों-नेताओं की गिरफ्तारी के बाद भी उनके पक्ष में दस में से चार पोस्ट तो होते ही थे, लेकिन सितंबर में सेना के सर्जिकल का मसला केजरीवाल के लिए आत्मघाती साबित हो रहा है, क्योंकि उनकी लोकप्रियता के आंकड़े चिंताजनक हैं।
सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल के इतने विरोधी कहां से पैदा हो गए? क्या सर्जिकल स्ट्राइक की सबूत मांगकर केजरीवाल ने वाक़ई ब्लंडर कर दिया? सबसे बड़ी बात कि केजरीवाल के बारे में यह मूड राजधानी दिल्ली से बाहर का है। मुमकिन है सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने की केजरीवाल की बात दिल्ली के लोगों को भी बुरी लगी होगी, क्योंकि दिल्ली देश का ही हिस्सा है और दिल्ली के लोग भी संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों पर पूरे देश की तरह ही सोचते हैं।
अगर देश की तरह दिल्ली के लोगों का ऐसा हुआ तो दिल्ली के मुख्यमंत्री के लिए यह सबसे बुरी ख़बर होगी। उनका जो भी जनाधार है, वह दिल्ली में ही है। ऐसे में दिल्ली के लोगों का नाराज़ होना केजरीवाल के लिए आत्मघाती हो सकता है। ज़ाहिर सी बात है, भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर पाकिस्तानी लाइन का अनुकरण करते हुए केजरीवाल का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सबूत मांगना, उसके लिए बहुत भारी पड़ गया और उनकी वर्षों की बनाई इमैज को मटियामेट कर दिया।
इसमें दो राय नहीं कि समाजसेवी अण्णा हज़ारे के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जन आंदोलन के समय अरविंद हीरो थे। भ्रष्टाचार से परेशान आम आदमी ने उन्हें नायक का दर्जा दे दिया था, इसीलिए उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभूतपूर्व जनादेश मिला, लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में अपरिपक्व बयान देकर केजरीवाल ने जीवन भर की कमाई गंवा दी।
कभी-कभी लगता है कि संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों पर देश का पॉलिटिकल और इंटलेक्चुअल क्लास अभी परिपक्व नहीं हुआ है। सेना की कार्रवाई का सबूत मांगना उसी अपरिपक्वता को दर्शाता है। दुनिया का हर देश संकट या युद्ध के समय दलगत भावना से ऊपर उठकर एक रहता है, लेकिन भारत में आज भी संवेदनशील मसले पर नेता लेफ़्ट-राइट करते दिखते हैं।
यहां अमेरिका का ज़िक्र करना उचित होगा। शायद लोगों को याद हो, अमेरिका में जब 2001 में आतंकी हमला हुआ था, तो पूरा देश एक होकर अपनी सरकार और जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ खड़ा था। अपेक्षाकृत उदार अमेरिका में भी उस समय किसी ने सरकार या ख़ुफिया विभाग पर असफल होने का आरोप नहीं लगाया। इसका पॉज़िटिव रिज़ल्ट यह हुआ कि ह्वाइट हाउस को आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने की ताक़त मिली। अमेरिकी सैनिक भी पूरी ताक़त से यह सोचकर लड़े कि उनके देश का हर नागरिक उनके साथ है। यह राष्ट्रीय एकता का गजब की मिसाल थी, जिसका फ़ायदा अमेरिका को मिला।
हमारे देश में तस्वीर उलटी है। यहां अति संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों भी राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक़ अलग-अलग तरीक़े से डिफाइन किया जाता है। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर भी राजनीतिक दल एक मत नहीं है। सेना ने आतंकवादियों और उनके शिविर को नष्ट करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक किया, तो उस पर भी राजनीति शुरू है। यहां इस अहम मुद्दे का राजनीतिकरण करने के लिए केवल विपक्ष को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। सत्तारूढ़ बीजेपी और उसके नेता कम ज़िम्मेदार नहीं। बेशक सर्जिकल स्ट्राइक का क्रेडिट नरेंद्र मोदी को दीजिए क्योंकि वह देश के प्रधानमंत्री हैं। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को किस आधार पर क्रेडिट दिया जा रहा है, यह समझ से परे है।
खैर, बात हो रही थी केजरीवाल की। उनके ऊपर आजकल जितनी आपत्तिजनक सामग्री लिखी जा रही हैं, इससे लगता है उनके प्रति पूरे देश में गहरा आक्रोश हैं। दरअसल, केजरीवाल ने सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत उस समय मांग लिया जब पाकिस्तान भारतीय सेना के ऐक्शन को सिरे से ख़ारिज़ कर रहा था, इसीलिए केजरीवाल के बयान को देश के आम लोगों ने माना कि दिल्ली के मुख्यमंत्री तो पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं।
मीडिया में आई खबरों पर गौर भी किया जाए तो बयान के बाद ही केजरीवाल पाकिस्तानी मीडिया में जहां हीरो बन गए, वहीं राष्ट्रीय मीडिया में वे खलनायक के रूप में सामने आए! देखा जाए तो पूरी आम आदमी पार्टी और खुद अरविंद केजरीवाल को भी अपने बयान को लेकर अब अफसोस हो रहा होगा, क्योंकि बेहद छोटे राजनीतिक कॅरियर में उन्होंने खुद से भी इस तरह की पॉलिटिकल ब्लंडर की अपेक्षा नहीं की होगी।
दरअसल, वे खुद भी समझ रहे होंगे की जो कांग्रेस इस मुद्दे पर अपने दिग्गज नेताओं से दूरी साध रही थी, तो कम से कम से उन्हें अपने स्टेटमेंट की टाइमिंग पर सोचना चाहिए था। चुनावों से पहले आप को इस पर मंथन करना होगा और अपने एकमात्र राष्ट्रीय चेहरे की इमेज बिल्डिंग जरूर करनी होगी, वरना मीडिया से खड़े हुए नेता और पार्टी, दोनों को ही सोशल मीडिया के आभासीय यथार्थ का पता तो जरूर होगा।
जहां तक सर्जिकल स्ट्राइक की बात है तो समझा जाता है कि सेना ने सर्जिकल
स्ट्राइक का फ़ैसला इसलिए भी लिया था, क्योंकि उसे देश में लोगों के मन में पनप
रहे अविश्वास को दूर करना था। उरी आतंकी हमले में डेढ़ दर्जन जवानों की मौत में
बाद देश में निराशा का माहौल था। लोगों को लगने लगा था कि आतंकवादी और पाकिस्तान वाक़ई
बेलगाम हो गए हैं। जब वे सेना पर हमला करने से नहीं डर रहे हैं तो निहत्थे
नागरिकों की क्या औक़ात है? इसलिए लोगों की चिंता को
दूर करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक किया गया और देश का बताया गया कि अपनी सेना पर
भरोसा रखें, अगर ज़रूरत पड़ी तो सैनिक पाकिस्तानियों को उनके घर में घुसकर मारने
में सक्षम हैं।
अकसर लोग सोचते होंगे कि नेता देशविरोधी बातें क्यों करते हैं? दरअसल, नेताओं के लिए सेना और सीमा कोई ख़ास मायने नहीं रखती। सेना और सीमा किसी
देश के नागरिकों के लिए सर्वोपरि होती होती है। लोग उम्मीद करते हैं कि कोई सरकार
कुछ करे या न करे कम से कम सरहद को अक्षुण्ण रखेगी। किसी भी मुल्क में देशप्रेम की
भावना केवल जनता में होती है। सरहदों से जनता का भावनात्मक लगाव होता है, इसलिए जनता
देश की सीमा कम होने के बारे में सोच ही नहीं पाती। पॉलिटिकल क्लास जब तक जनता के
रूप में सोचता है, तब उसे सीमाओं से लगाव होता है, लेकिन जब वह सत्ता के बारे में
सोचता है तब सीमाओंसे उसका लगाव ख़त्म हो जाता है।
दरअसल, देश के बंटवारे का असर नेताओं पर नहीं होता। किसी भी राष्ट्र का इतिहास
देखें, देश हमेशा पॉलिटिकल
क्लास यानी सत्तावर्ग बांटता आया है। यही सोच 1947 में भी थी। ताओं का सीमाओं या
देश से लगाव होता तो 1947 में विभाजन के समय एकाध नेता को हार्टअटैक आता, लेकिन
ऐसा नहीं हुआ। आमतौर पर दिल की बीमारी के कारण मरने वाले नेताओं में से किसी को देश
के विभाजन के समय दिल का दौरा नहीं पड़ा। जो लाखों लोग मरे वे जनता के बाच के थे। यानी
आज़ादी के समय नेता जनता के प्रतिनिधि होते तो देश कभी न बंटने देते। कहते, शासक कोई भी हो, देश धर्म के आधार पर नहीं
बंटेगा।
मजेदार बात यह है कि तीन जून उन्नीस सौ सैंतालीस को दो राष्ट्र की अवधारणा मोहम्मद
अली जिन्ना ने ही नहीं; महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, जेबी कृपलानी ने भी मंज़ूर की। ये लोग सत्तावर्ग के लोग थे, उन्हें सत्ता चाहिए थी। उसे
ले लिया। देश से कोई सरोकार ही नहीं था। वही सोच आज भी है। इसीलिए लोग सेना की
कार्रवाई को भी वोटबैंक के चश्मे से देखते हैं। इसीलिए सेना के काम का श्रेय नेता
ले रहे हैं, जो नहीं ले पा रहे हैं पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं यानी सर्जिकल
स्ट्राइक का सबूत मांग रहे हैं। चाहे वे केजरीवाल हों, संजय निरुपम हो, दिग्विजय
सिंह हों या भक्त की उल्टी करने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी।
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