क्या सबसे ज़्यादा ख़तरा आडवाणी से ही है मोदी ब्रांड को?
हरिगोविंद विश्वकर्मा
जीवन के आख़िरी दौर में प्रवेश कर चुके भारतीय राजनीति के पुरोधा लालकृष्ण आडवाणी
क्यों रिटायर नहीं होना चाहते। वह उम्र के उस दौर में है, जब सामान्यतया इंसान की शारीरिक-मानसिक
काम करने लायक नहीं रह जाता। ऐसे समय आडवाणी सक्रिय है। उनकी सक्रियता का अंदाज़ा
इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह चुनाव के ऐन मौक़े पर ब्लॉग लिखकर सरकार और
भारतीय जनता पार्टी को सलाह दे रहे हैं। ऐसी सलाह दे रहे हैं, जिसका उत्तर देने
में बीजेपी के मैनेजर्स को असुविधा हो रही है।
दिसंबर के बाद से ही आडवाणी चुप थे। मगर चुनावी प्रक्रिया शुरू होते ही ब्लॉग
लिख दिया। अपने ब्लॉग में आडवाणी ने लिखा, “बीजेपी में राजनीतिक
असहमति रखने वालों को देशद्रोही बताने की परंपरा नहीं रही है।” ज़ाहिर है, आडवाणी के ब्लॉग के बाद बीजेपी बचाव की मुद्रा में आ गई। सोशल
मीडिया गर्म चुनावी मौसम में और गर्मी भर दी है। बीजेपी के विरोधियों को
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पर निशाना साधने का मौका दे
दिया है। ऐसी बात नहीं है कि आडवाणी ने अपनी विशेष ‘गांधी स्टाइल’ में मोदी पर पहली बार हमला बोला है। वह पिछले पांच साल से इसी तरह धीरे-धीरे
ब्रांड मोदी की धार कम करने की असफल कोशिश कर रहे हैं।
अभी पिछले दिसंबर में अटलबिहारी वाजपेयी की शोकसभा में की एक फोटो वायरल हो गई
थी, जिसमें मोदी और आडवाणी
आमने सामने थे। तस्वीर में मोदी हाथ पीछे करके खड़े थे, जबकि आडवाणी हाथ जोड़े दीन-हीन अवस्था में दिख रहे थे।
यह तस्वीर इतनी ज़्यादा अपीलिंग थी कि इसे देखकर भावुक किस्म का आम आदमी निष्कर्ष
निकलने लगा था कि देखिए मोदी ने कभी गुरु रहे आडवाणी को किस अवस्था में लाकर खड़ा
कर दिया। एकलव्य जैसी गुरु-शिष्य की परंपरा में विश्वास करने वाले लोग अगले पर मन
ही मन कहने लगे कि शिष्य का व्यवहार ठीक नहीं और अंत में सबकी सहानुभूति
आडवाणी के साथ हो गई।
अगर इस प्रसंग के तह मे जाएं, तो मज़ेदार निष्कर्ष निकलता है। अमूमन होता है
कि हम किसी से मिलते हैं, तो अभिवादन की भारतीय परंपरा के अनुसार हाथ जोड़ देते हैं या गर्मजोशी से हाथ मिलाते
हैं या आत्मीयता थोड़ी अधिक होने पर गले लग जाते हैं। अभिवादन की यह औपचारिकता केवल
चंद लमहों की ही होती हैं। लोग इसका नोटिस नहीं लेते, क्योंकि इसे भारतीय परंपरा में मानव का बहुत नैसर्गिक
गेस्चर माना गया है। जो लोग हाथ जोड़कर अभिवादन करना पंसद करते हैं, वे भी कुछ पल हाथ जोड़ते हैं,
फिर सामान्य अवस्था में आ
जाते हैं। वीआईपी कल्चर वाले नेता पब्लिक अपीयरेंस में सबसे हाथ तो मिला नहीं पाते
है, लिहाज़ा हाथ जोड़
लेते हैं।
आडवाणी के हावभाव और अभिवादन के तरीक़ा से पूरा देश वाकिफ रहा है। उनके हावभाव
पर गौर करने वाले जानते है कि वह हमेशा से पब्लिक अपीयरेंस में हाथ जोड़कर आगे
बढ़ते या लोगों से मिलते रहे हैं। 1990 के दशक में जब सोमनाथ से अयोध्या की
रथयात्रा पर निकले थे, तब भी आमतौर पर हाथ जोड़े रहते थे। वह हाथ जोड़े रहने वाली मुद्रा में इसलिए
भी रहते थे, क्योंकि लगातार
सामने लोग आते रहते थे, लिहाज़ा बार-बार हाथ जोड़ना और सामान्य अवस्था में आना असुविधाजनक था। इसी
तरह, आडवाणी जब केंद्र में गृहमंत्री थे तब भी पब्लिक अपीयरेंस में हाथ जोड़े रहते
थे। जून 2002 के दूसरे हफ़्ते में जब टाइम मैगज़िन के दिल्ली संवाददता नागरिक अलेक्स
पैरी ने वाजपेयी को 'हॉफडेड पीएम' करार देते हुए चर्चित कवर स्टोरी लिखी, जिसके चलते उन्हें देश छोड़ना पड़ा और रातोरात आडवाणी
उपप्रधानमंत्री बनाए गए थे, तक भी आडवाणी हाथ जोड़ने वाली मुद्रा में ही रहते थे। नब्बे
के दशक के अंतिम और पिछले दशक के आरंभ के आडवाणी के विजुअल्स देखें तो वह हाथ
जोड़े ही दिखेंगे।
दरअसल, आडवाणी की हाथ जोड़ने वाली स्टाइल जस की तस है, बस आजकल उसमें नई चीज़ जुड़ गई है। वह है चेहरे पर
याचक वाला इक्सप्रेशन। पिछले चार-पांच साल से लोग उनमें हर मंच पर हाथ जोड़े याचक ही
देख रहे हैं। ऐसा याचक, जिसके साथ बहुत ज़्यादा नाइंसाफ़ी हुई। आडवाणी का दूसरे नेताओं से सामना होने
पर नहीं नोटिस नहीं लिया जाता, लेकिन जब सामना कभी उनके शिष्य रहे मोदी से होता है, तब हर कैमरामैन फोटो क्लिक कर लेता है। वाजपेयी की शोकसभा
में हाथ मोदी भी जोड़े थे, लेकिन कुछ सेंकेंड के लिए, लेकिन आडवाणी हाथ जोड़े ही रहे और एक अवस्था ऐसी आ गई है कि मोदी सीधे खड़े
दिखे और आडवाणी दीन-हीन याचक। इसी कारण वह तस्वीर वाइरल हुई।
आडवाणी की याचक मुद्रा वाली तस्वीर देखकर लगता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद
मोदी अहंकारी हो गए और आडवाणी को दीन-हीन बना दिया। यह आडवाणी का अचूक हथियार है,
महाबली अंग्रेज़ों के समक्ष
महात्मा गांधी की अहिंसा की तरह। यह ब्रम्हास्त्र है और मोदी का पर्सनॉलिटी कल्ट डैमेज
कर रहा है। इसके ज़रिए आडवाणी वह व्यक्त कर दे रहे हैं, जो वह मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने का
विरोध कर नहीं व्यक्त कर सके थे।
हो सकता है आडवाणी यह नही चाहते हों, लेकिन उनकी दीनहीन याचक बुजुर्ग वाली मुद्रा मोदी को
गाहे-बगाहे खलनायक शिष्य की इमैज दे रहा है। आडवाणी की इस मुद्रा से यही निष्कर्ष
निकलता है कि जिस भाजपा को अपने ख़ून-पसीने से आडवाणी ने इस मुकाम तक पहुंचाया,
उसी भाजपा में उनको
राष्ट्रपति बनाना तो दूर की बात मोदी अब उनकी भी दुर्गति कर रहे हैं। आडवाणी का यह
अचूक हथियार मोदी की छवि को नष्ट करने की वैसी ही ताक़त रखता है। ठीक वैसे ही जैसे
अहिंसावादी ताक़त से गांधी जी ने अंग्रेज़ी साम्राज्य की नींव हिला दी थी।