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शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

क्या सचमुच भारत गुलाम था, जो आजाद हुआ?


पूरा देश बड़े ज़ोर-शोर और उत्साह से हर साल 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता है। जो भी नेता देश का प्रधानमंत्री होता है, वह लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा फहराकर टीवी देखने वाली जनता को एड्रेस करता है। उसका भाषण दूर-दराज के इलाक़ों में रेडियो पर सुना जाता है और जो लोग उससे भी वंचित रहते हैं, वे दूसरे दिन अख़बार में यह सब पढ़ते हैं। हर पीएम दरअसल आदर्शवादी बातें करता है। सबसे बड़ी बात, उसकी किसी घोषणा पर अमल नहीं होता और, अगर किसी पर होता भी है, तो उससे देश के आम लोगों को कोई फ़ायदा नहीं होता। 15 अगस्त, 1947 से यही सब चल रहा है। इतना ही नहीं देश में आज़ादी का जश्न मनाने के लिए हर साल अरबों-खरबों रुपए बहा दिए जाते हैं। लोगों को याद दिलाया जाता है कि हम कभी ग़ुलाम थे, अंग्रज़ों के ग़ुलाम। इसी दिन सवा दो सौ साल से ज़्यादा समय तक रही उस ग़ुलामी से आज़ाद हुए। कांग्रेस और सेक्यूलर विचारधारा के लोग इस आज़ादी का क्रेडिट महात्मा गांधी ऐंड कंपनी को देते हैं, तो अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले लोग सुभाषचंद्र बोस, सावरकर और भगत सिंह वगैरह को इसका श्रेय देते हैं।

आज़ादी-आज़ादी चिल्लाने और इतना तामझाम करने से आम आदमी के मन में कभी-कभी सवाल उठता है कि क्या सचमुच भारत ग़ुलाम था? क्या वाक़ई अंग्रेज़ अत्याचारी थे? क्या वास्तव में हिंद महासागर की करोड़ों जनता, जैसा कि देशभक्ति थीम पर बनने वाली फिल्मों में दिखाया जाता है, को अंग्ज़ों ने ग़ुलाम यानी बंधक बना रखा था? सबके हाथ में हथकड़ी और पैर में बेड़ी डाल रखी थी। और 15 अगस्त को अचानक सब के सब आज़ाद हो गए। सच पूछो तो 14 अगस्त 1947 की रात सत्ता-हस्तांतरण हुआ था, न कि आज़ादी की घोषणा। हां, सत्ता-हस्तांतरण में ब्रिटिश इंडिया के दो टुकड़े कर दिए गए। विश्व मानचित्र पर इंडिया यानी भारत और पाकिस्तान नाम के दो राष्ट्र अस्तित्व में आए। ऐसे में सत्ता-हस्तांतरण को आज़ादी कहना क्या सही है? संतुलित सोचने और इतिहास की मामूली समझ रखने वाला आदमी हैरान होता है कि आख़िर अंग्रेज़ों के शासन को ग़ुलामी क्यों कहा जाता है? आज भी सारा सिस्टम, पुलिस, ब्यूरोक्रेसी, ज्यूडिशियरी और क़ानून, आर्मी और गवर्नेंस सिस्टम अंग्रेज़ों का ही बनाया हुआ है, तब उनका शासन ग़ुलामी की प्रतीक कैसे हो सकता है?

यह भी सर्वविदित है कि अंग्रेज़ों का शासन ऐय्याश हिंदू सम्राटों-नरेशों और वहशी मुस्लिम सुल्तानों की तुलना में ज़्यादा सिविलाइज़्ड, लॉ-ओरिएंटेड और लॉ-अबाइडिंग था। जलियांवाला में फायरिंग की वारदात को अगर छोड़ दें, तो दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जब अंग्रेज़ों ने आम जनता पर कोई अत्याचार किया हो। हालांकि जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की 'हाउस ऑफ़ कॉमंस' ने निंदा की थी। विंस्टन चर्चिल की पहल पर हंटर कमीशन ने जांच की और ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को पदावनत (डिमोट) करके कर्नल बना दिया गया था। उसे भारत में पोस्ट न देने का भी निर्णय लिया गया था। कहने का मतलब, अंग्रेज़ हर घटना के लिए किसी न किसी की जवाबदेही तय करते थे, जिसका स्वतंत्र भारत में नामोनिशान नहीं दिखता। फिर अंग्रेज़ी हुकूमत में सभी आदेशों का पालन यहां के स्थानीय लोग ही करवाते थे, जैसे आजकल पुलिस या सरकारी कर्मचारी करते हैं। यानी जिस शासन में स्थानीय लोगों की भागीदारी हों, उस शासन को ग़ुलामी कैसे कहा जा सकता है?

अंग्रेज़ी शासन में सामाजिक परिस्थितियों का बारीक़ी से विश्लेषण करने पर साफ़ लगता है कि गोरों के सवा दो सौ साल की अवधि में हालात उतने ख़राब नहीं थे, जितने हिंदू-मुस्लिम शासकों के दो से ढाई हज़ार साल के शासनकाल में थे। मसलन, सभ्य समाज के लिए कलंक सती प्रथा चंद्रगुप्त मौर्य के शासन से जारी थी। सती के नाम पर हर साल लाखों महिलाओं को उनके मृत पतियों की चिता पर ज़बरी ज़िंदा जला दिया जाता था। अंग्रेज़ सभ्य थे। उनको सती प्रथा नागवार और बर्बर लगी। स्त्री को इसलिए ज़िंदा जला देना, क्योंकि उसका पति मर गया, क्रूरतम घटना थी। यह जिसके भी शासन में हुआ, उसे सभ्य नहीं कहा जा सकता। इस जंगली प्रथा को अंग्रेज़ों ने सन् 1829 में पहले बंगाल में फिर अगले साल पूरे ब्रिटिश इंडिया के दूसरे हिस्से में क़ानून बनाकर बंद कर दिया। भारत की संस्कृति को गौरवशाली कहने वाले कुछ लोगों ने बेशर्मी का प्रदर्शन करते हुए सती प्रथा को रोकने के सरकार के फ़ैसले को प्रिवी कॉउंसिल में चुनौती दी, लेकिन प्रिवी कॉउंसिल के सदस्यों ने भी माना गया कि सती प्रथा जैसी जंगली व्यवस्था जारी रखने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। उस समय दास प्रथा के रूप में एक और गंदी परंपरा थी। इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त होती थी। दासों को इंसान समझा ही नहीं जाता था। लिहाज़ा, अंग्रेज़ों ने 1834 में लॉ कमीशन बनाया और उसकी सिफ़ारिश पर 1860 में इंडियन पैनल कोड बनाकर सदियों पुरानी दास प्रथा को भी ख़त्म किया। अंग्रजों ने आईपीसी में महिलाओं के साथ ज़बरी सेक्स की प्रवृत्ति को रोकने के लिए ऐसा करने वाले पुरुषों को 376 सेक्शन के तहत रेप के आरोप में विधिवत सज़ा का प्रावधान किया। इससे पहले सती प्रथा, बहुतपत्नी प्रथा और दास प्रथा जैसी बुराइयों को संरक्षण देने वाले ही अपनी सुविधा के मुताबिक न्याय करते थे। जो किसी भी नज़रिए से न्याय नहीं होता था। आजकल जिस क़ानून से इंसाफ़ किया जाता है वह पूरा के पूरा आईपीसी को अंग्रेज़ों ने बनाया है।

गौरवशाली, स्वर्णकाल, सोने की चिड़िया और पता नहीं, क्या-क्या कहे जाने वाले प्राचीन और मध्यकाल में बहुपत्नीवाद की पाशविक व्यवस्था थी। पुरुष एक से ज़्यादा महिलाओं को बीवी बना कर रखता था। हिंदू-मुस्लिम शासक, राजा, सामंत, भूस्वामी, शासकों के दलाल और सत्ता का लाभ भोगने वाले लोगों के पास सेक्स के लिए कई दर्जन महिलाएं बीवी के रूप में होती थीं। ख़ुद चंद्रगुप्त मौर्य ने चार शादियां की थी। उसकी एक बीवी ग्रीक की राजकुमारी हेलेना भी थी। मुस्लिम शासकों की तो अनगिनत बीवियाँ होती थीं। उस समय हर राजा के पास एक रनिवास या हरम होता था। जहां रानी और चेरी के रूप में सैकड़ों-हज़ारों महिलाएं और अनेक किन्नर होते थे। सभी राजाओं का जीवन कमोबेश लिबिया में दौड़ा-दौड़ा कर मारे गए ऐय्याश शासक मुअम्मर गद्दाफी जैसा था। सभी राजा, नरेश और सुल्तान तबीयत से विलासी थे। हरम में ऐसी भी तरुणियां होती थीं, जिनसे राजा एकाध बार ही सेक्स कर पाता था। शेष उम्र वे नारकीय जीवन जीती थीं और मनोरोगी हो जाती थीं। मतलब, जिन्हें इतिहास की क़िताबों में गर्व से नायक या महानायक कहा जाता है, वे नायक अथवा महानायक नहीं, बल्कि ऐय्याश और वहशी थे। उन्हें विकास नहीं, बल्कि सेक्स के लिए जवान लड़की चाहिए थी। अंग्रेज़ों ने क़ानून बनाकर आईपीसी 494 के तहत राजाओं के कई शादियां करने पर रोक लगा दी। जो बाद में हिंदू मैरिज एक्ट 1955 का आधार बना। दरअसल, पूरा प्राचीन और मध्यकाल का दौर औरतों के लिए त्रासदीपूर्ण था। महिलाओं और ग़रीबों को इंसान ही नहीं समझा जाता था। उस दौर में बाल-विवाह, छूआछूत व जातिवाद जैसी बुरी प्रथाएं अपने शबाबा पर थीं! कई कथित इतिहासकार भ्रम पैदा करने के लिए प्राचीनकाल में संस्कृति को गौरवशाली बताते हुए अंग्रज़ों के शासन को ग़ुलामी करार देते हैं, जबकि इस भूखंड पर संस्कृति कभी गौरव करने लायक रही ही नहीं।

कहने का मतलब सामाजिक मुद्दों पर अंग्रेज़ नौकरशाह हिंदू-मुस्लिम शासकों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील और दूरदर्शी थे। सबसे बड़ी बात अंग्रेज़ों ने अपने शासनकाल में विधिवत चुनाव भी करवाते थे। सन् 1920 के बाद कई बार चुनाव हुए, जिसमें अपने को स्वतंत्रता सेनानी कहने वाले कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदूवादी दलों के नेताओं ने शिरकत की थी। गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट के बाद 1937 के प्रॉविंशियल चुनाव में तो बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। अंतिम चुनाव आज़ादी से कुछ साल पहले कराया गया और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार भी बनी थी। अगर ग़ुलाम रहे होते तो क्या चुनाव में हिस्सा ले पाते? सरकार में शामिल हो पाते? यानी अंग्रेज़ के शासनकाल में देश में विधि का शासन था। जो क़ानून तोड़ता था, उसके ख़िलाफ़ बेशक कार्रवाई होती थी। क़ानून तोड़ने वालों के साथ आज भी वैसा ही सलूक होता है। ऐसे में सवाल उठता है, अंग्रेज़ों के इतने सभ्य शासन को ग़ुलामी क्यों कहा जाता है? जबकि हर अंग्रेज़ शासक अपने देश की संसद हाउस ऑफ़ कॉमंस के प्रति जवाबदेह होता था।

सबसे अहम अंग्रेज़ों के यहां आने से पहले भारत या इंडिया जैसे किसी देश का अस्तित्व ही नहीं था। अगर इंडिया नाम का एक राष्ट्र आज अस्तित्व में है, तो इसका श्रेय केवल और केवल अंग्रेज़ों को जाता है। वर्ना इंडियन सब-कॉन्टिनेंट फ़िलहाल देश नहीं, यूरोप की तरह छोटे-छोटे अनगिनत राष्ट्रों का भूखंड होता। यह भी जानना रोचक होगा कि इंडिया शब्द का प्रादुर्भाव कहां से हुआ?

दरअसल, यूरोप के लोग ‘पश्चिम’ की ओर स्थित अमेरिका के आसपास के द्वीपों को ‘वेस्ट’ इंडीज़ कहते थे और उधर ही व्यापार करने के लिए जाते थे। कुछ यूरोपीय व्यापारी पूरब में स्थित द्वीपों पर भी जानते थे। लिहाज़ा, पूरब की ओर स्थित एशियाई द्वीप समूहो को पूर्वी द्वीप यानी ‘ईस्ट’ इंडीज़ कहने लगे। 15 वीं शबाब्दी में ही अंग्रेज़ व्यापारियों ने पूरब की ओर व्यापार के लिए जाने का मन बनाया और महारानी की अनुमति से पूरब में स्थित एशियाई द्वीप समूहों (ईस्ट इंडीज़) में कारोबार के लिए 31 दिसंबर सन् 1600 को आख़िरी दिन ईस्ट इंडीज शब्द से प्रेरित होकर ईस्ट इंडिया कंपनी बनाई। वास्को डिगामा के 1498 में भारत (कालीकट) में क़दम रखने के बाद सौ साल में पुर्तगाल, हॉलैंड और फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों के व्यापारी आज के भारत और दूसरे एशियाई देशों मे पांव जमाने लगे थे। लिहाज़ा, ब्रिटेन के राजा भी भी चाहते था कि उनके व्यापारी दुनिया के पूर्वी हिस्सें में कारोबार के लिए जाएं। बहरहाल ईस्ट इंडिया कंपनी 17वीं सदी के आरंभ में भारत पहुंची। 1617 में मुग़ल शासक नुरूद्दीन मोहम्मद सलीम उर्फ जहांगीर ने अंग्रेज़ों को व्यापार की इजाज़त दे दी। इस तरह अग्रेज़ों की व्यापारिक गतिविधियां शुरू हो गईं।

तक़रीबन सौ साल तक व्यापार करने के बाद, ख़ासकर औरंगज़ेब के शासनकाल के बाद देश का शासन किसी एक व्यक्ति के पास नहीं रहा। उस समय अंग्रेज़ व्यापारियों ने गौर किया कि हिंद महासागर का भूभाग साढ़े छह सौ से ज़्यादा रियासतों और सूबों में बंटा हुआ है। राजा एक दूसरे से ही लड़ रहे हैं। लड़ाइयां भी जनता के हित के लिए नहीं, बल्कि किसी सुंदरी को हासिल करने या सीमा-विस्तार के लिए लड़ी जा रही हैं। राजाओं की इस आपसी फूट को देखकर अंग्रेज़ों को लगा कि इस भूभाग को अपने नियंत्रण में लिया जा सकता है। बस ईस्ट इंडिया कंपनी ने सुरक्षा का हवाला देकर निजी सेना का गठन किया। 1757 में प्लासी युद्ध में बंगाल नवाब सिराजुद्दौला और फ्रांसीसी सेना को हराने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन आधिकारिक रूप से शुरू भी हो गया। बाद में राजाओं -सुल्तानों और नवाबों की आपसी फूट का फ़ायदा उठाकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक-एक करके सबको हरा दिया और अपने अधीन कर लिया। 19वीं सदी के शुरुआत में गोरों ने कमोबेश पूरे भूभाग पर क़ब्ज़ा कर लिया था। सन् 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया। लिहाज़ा, ईस्ट इंडिया कंपनी से ईस्ट और कंपनी शब्द हटाकर ब्रिटिश शब्द जोड़ दिया और इस भूखंड का नाम `ब्रिटिश इंडिया' हो गया जो अंततः एक देश बना। उसका शासन सीधे ब्रिटिश संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स से होने लगा।

अगर सोलह जनपदीय व्यवास्था को छोड़ दें तो प्राचीन भारत का इतिहास मोटा-मोटी मौर्यवंश (ईसा पूर्व 340) से शुरू होता है, लेकिन कभी भारत नाम का कोई देश अस्तित्व में नहीं रहा। चंद्रगुप्त ने मगध पर शासन किया। बाद में कई राजा हुए, जिन्होंने अलग-अलग समय पर अलग-अलग भूखंडों पर राज किया। यानी चंद्रगुप्त से हर्षवर्धन और पृथ्वीराज चौहान तक किसी को भारत का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता। आठवीं सदी में मोहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण का सिलसिला शुरू किया। उस दौर में जनता निरक्षर और ग़रीब होती थी, लेकिन हिंदू राजाओं के पास अपार दौलत होती थी। मंदिरों में भी स्वर्ण मूर्तियां समेत स्वर्ण भंडार होता था। यही दौलत लुटेरों को लुभाती थी। इसीलिए महमूद गजनवी ने धावा बोला और सोमनाथ मंदिर समेत कई धार्मिक स्थलों को लूटा। सोमनाथ पर आक्रमण के समय की एक कथा प्रचलित है, जब गडनवी सेना लेकर सोमनाथ पर आक्रमण किया तो पुजारियों ने लोगों को बताया कि जैसे ही वह अपवित्र व्यक्ति मंदिर परिसर में घुसेगा, शिव भगवान उसे अपने नेत्रों से भस्म कर देंगे। लेकिन उनका भ्रमस तब टूटा जब गजनवी ने पूरा मंदिर लूट लिया। लुटेरे इसलिए कामयाब होते थे, क्योंकि राजा आपस में लड़ते थे और सेना में केवल राजपूत होते थे। बहरहाल, 12वीं सदी में दिल्ली सल्तनत के साथ यहां मुस्लिम शासन का आग़ाज़ हुआ। उस समय कई हिंदू राजाओं का भी शासन था। सारे राजा या सुल्तान एक दूसरे से लड़ रहे थे। 16वीं सदी के आरंभ में इब्राहिम लोदी के राज में ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने आक्रमण किया। वह लूटने के मकसद से आया था, पर पानीपत युद्ध में लोदी का सिर क़लम करने के बाद उसे लगा कि यहां लंबे समय तक राज किया जा सकता है। उसने मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की। बाबर के बाद हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगज़ेब उसके उत्तराधिकारी रहे। मुग़लों का राज्य बहुत बड़ा था, परंतु उन्हें बराबर कई हिंदू, मराठा, राजस्थानी या सिख राजाओं से चुनौती मिलती रही। यानी पूरे हिंद सब-कॉन्टिनेंट पर प्राचीन काल की तरह मध्यकाल में भी कभी किसी एक सुल्तान का क़ब्ज़ा नहीं रहा। यानी कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर अंतिम मुग़ल सुल्तान बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय तक किसी को संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता।

अगर प्रशासनिक नज़रिए से देखें तो ब्रिटिशकाल की किसी से तुलना ही नहीं हो सकती। राजा-सुल्तान जीवन भर मंदिर, मस्जिद, स्मारक और मक़बरे ही बनवाते रहे। जो पुजारी एवं मौलवी जैसी जाहिल-काहिल क़ौम का अड्डा बन जाता था। अस्पताल, कॉलेज या यूनिवर्सिटीज़ यहां अंग्रेज़ों ने उन्नीसवीं सदी ही बनवाए। कभी-कभी लगता है कि अंग्रेज़ आ गए, तो यहां के लोग पढ़-लिख लिए, नहीं तो अब तक गुरुकुल या मदरसे में क्रमश: संस्कृत और उर्दू पढ़ रहे होते। फ़िरंगीकाल में नेचर ऑफ़ ऐडमिनिस्ट्रेशन बहुत बेहतर था। सच यह भी है कि यहां रेल, सेना, टेलीफोन, डाकघर, पुलिस, सड़क, बंदरगाह, पुल, इमारतें वगैरह अंग्रेज़ों ने ही बनवाए? मुंबई का उदाहरण लें तो यह भूभाग प्राचीनकाल से जस का तस पड़ा था। सात छोटे द्वीपों में उजड़ा पड़ा था। इस दौरान यह द्वीप समूह पहले हिंदू शासकों फिर मुसलमानों के अधीन रहा। 1534 में गुजरात सल्तनत ने मुग़लों के डर से इसे पुर्तगालियों को दे दिया। सन् 1661 में पुर्तगालियों ने इसे इंग्लैंड के चार्लस द्वीतीय की पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन की शादी के बाद अंग्रेज़ों को दहेज में दे दिया। अंग्रेज़ों ने इसे 1668 में ईस्ट इंडिया कंपनी को लीज़ पर दे दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे डेवलप करके इसे बंदरगाह बनाया। यहां से व्यापारी जहाज आने जाने लगे। कोई सौ साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे कॉमर्शिल हब बनाने का मिशन शुरू किया।

ज़ाहिर है, कॉमर्शिल हब के लिए लंबे-चौड़े भूखंड की ज़रूरत थी, लिहाज़ा, समुद्र को पाटने का फ़ैसाल किया गया और 1782 से समुद्र को रिक्लेम करने का महाअबियान शुरू किया गया जो पचास साल से भी ज़्यादा सममय तक चला। 19वीं सदी में रिक्लेम का कार्य पूरा हो गया। सातों द्वीपों को मिलाकर एक भूभाग बना दिया गया। इसके बाद यहां अस्पताल (किंग्स सीमेन्स हॉस्पीटल 1756), स्कूल (एल्फिंसटन हाईस्कूल 1822), रेलवे (1853), मिलें (बॉम्बे स्पिनिंग ऐंड वीविंग कंपनी ताड़देव 1856), कॉलेज (मुंबई यूनिवर्सिटी 1857), बिजली एवं ट्रांसपोर्ट (बेस्ट 1873) और कारोबारी गतिविधियां (बॉम्बे स्टॉक एक्चेंज 1875) शुरू हुईं, जिसके चलते मुंबई अहम व्यवसायिक केंद्र बन गया। यानी देश फिरंगी शासन में हिंदुओं-मुस्लमानों के शासनकाल से अधिक गति विकास कर रहा था।

अंग्रेज़ों के शासन से प्रजा को कोई कष्ट नहीं था। कह सकते हैं कि परिवहन का साधन हो जाने ले लोगों का जीवन और आजीविका आसान होने लगी। हां, क़ानून बनने और देश में विधि का शासन हो जाने से राजाओं-सुल्तानों और उनके दलालों की हालत बेशक ठीक नहीं थी, क्योंकि उनकी ऐय्याशी पर अंकुश लग गया। वे चाहते थे, सत्ता उनके पास रहे, ताकि निरंकुश होकर फिर से ऐय्याशी करें। लिहाज़ा, अंग्रेज़ों का विरोध राजाओं-सुल्तानों के वारिसों के इशारे पर उनकी रोटी पर पलने वाले उनके दलालों ने शुरू किया और उसे स्वतंत्रता आंदोलन का नाम दे दिया। जबकि वह फ्रीडम स्ट्रगल नहीं, बल्कि पॉवर स्ट्रगल था। उस आंदोलन में विदेशों में पढ़े-लिखे संपन्न लोगों की भागीदारी थी। ज़मींदार व भूस्वामी उसमें इसलिए शामिल हुए क्योंकि उन्हें अपनी संपत्ति-ज़मीन की रक्षा करनी थी। आज आज़ादी का मज़ा भी वही ले रहे हैं। देश में पोलिटिकल फैमिलीज़ बन गई है। इन राजनीतिक परिवारों ने लोकतंत्र को हाईजैक कर लिया है। सबसे मज़ेदार बात कि आज़ादी मिलने का बाद भी गवर्नेंस सिस्टम अंग्रेज़ों का ही चल रहा है। जब सब कुछ वही रहना है तो फिर आज़ादी किस बात की। अगर मान ले कि अंग्रेज़ जनता को लूट रहे थे तो आज के नेता क्या कर रहे हैं।

सन् 1943 में ब्रिटिश सरकार ने हेल्थ सेवा के लिए नौकरशाह सर जोसेफ भोर की अध्यक्षता में एक कमिशन का गठन किया था, जिसने 1946 में रिपोर्ट दी। भोर कमिशन ने कहा, भारत में लोग इतना ग़रीब हैं कि इलाज के अभाव में असमय मर जाते है, लिहाज़ा, हेल्थ सर्विस उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। क्योंकि पैसे के अभाव में किसी नागरिक को अच्छी स्वास्थ सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता। अंग्रेज़ इस सिफ़ारिश को मान कर भारत में इलाज एकदम मुफ़्त करने वाले थे, तभी विश्वयुद्ध अपने चरम पर पहुंच हया था। विश्वयुद्ध के बाद महाशक्ति बने अमेरिका ने अंग्रेज़ों से पैकअप करने को कहा और अंग्रेज़ अपने उपनिवेश को छोड़कर जाने लगे।  1947 में भारत से भी चले गए, लेकिन उनके जाने के बाद आज़ाद भारत में जोसेफ भोर मुफ़्त हेल्थकेयर वाली रिपोर्ट को धरतीपुत्रों ने डस्टबिन में डाल दिया। इससे यह साबित होता है, कि ग़ुलाम जनता के लिए जितने चिंतित गोरे थे, उतनी अपनी सरकार नहीं थी। अंग्रेज़ जब देश को छोड़ रहे थे, तब देश पर एक पाई भी क़र्ज़ नहीं था, आज हर भारतीय पर औसतन 44 हज़ार रुपए से ज़्यादा क़र्ज़ है। इसी तरह अंग्रेज़ों के समय भारतीय रुपया डॉलर के बराबर था, लेकिन आज एक डॉलर की कीमत 76 रुपए से ज़्यादा है। इन परिस्थितियों में ऐसे बहुत सारे लोग भी मिलेंगे, जो निःसंकोच कह देंगे कि इससे बेहतर को अंग्रेज़ों का शासन था। फिर गोरों के शासन को ग़ुलामी को संबोधन क्यों दिया जाता है, यहr समझ से परे है।

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

क्या याकूब मेमन की आख़िरी इच्छा अधूरी रही?

1993 में मुंबई बम धमाकों के साजिशकर्ताओं में से एक याकूब मेमन की जीवित रहने बहुत प्रबल इच्छा थी, लेकिन आख़िरकार उसके ग़ुनाहों ने उसे जीने नहीं ही दिया और वह फांसी पर लटका दिया गया। 12 मार्च 1993 के मुंबई सीरियल ब्लास्ट के इस ग़ुनाहगार ने देश के सबसे अच्छे वकीलों की सेवाएं ली और अपने आपको फांसी के फंदे से बचाने की हर मुमकिन कोशिश की। यहां तक कि उसकी ओर से सुप्रीम कोर्ट, महाराष्ट्र के राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास याचिका पर याचिका दायर की गई कि वह मौत की सज़ा से बच जाए, लेकिन उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई और मौत ने उससे 257 हत्याओं का बदला ले लिया।
इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने भी उसे जीवित रहने का मौक़ा देने के लिए ही रात 2.30 बजे उसके वकीलों की ओर से दायक याचिका पर सुनवाई की। याकूब के मौत के वॉरंट पर रोक लगाने के लिए उसके वकीलों की ओर से दायर याचिका खारिज़ सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को तड़के खारिज़ कर दी। तीन जजों की खंडपीठ ने कोर्ट चार में अपने आदेश में कहा कि मौत के वॉरंट पर रोक लगाना न्याय का मज़ाक़ होगा, लिहाज़ा, उसकी याचिका खारिज़ की जाती है। याचिका पर सुनवाई के लिए आधी रात में कोर्ट खोला गया। सुनवाई तड़के 3.20 बजे शुरू हुई और 90 मिनट चली। ऐसा भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार हुआ, जब एक फांसी की सज़ा पाए क़ैदी को जीवित रहने का मौक़ा देने के लिए उसकी अपील पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने आधी रात को सुनवाई की हो, यह इसलिए भी हुआ कि याकूब या उसके परिजन या समर्थक यह न कहें कि उसके साथ इंसाफ़ नहीं हुआ।
दरअसल, जेल सूत्रों के हवाले से बताया जा रहा है कि गुरुवार की सुबह याकूब मौत का फंदा गले में डालने से पहले अपनी 21 साल की बेटी ज़ुबेदा को देखना चाहता था, लेकिन बेटी फांसी के समय मुंबई थी, लिहाज़ा, जेल अधिकारी उसकी वह इच्छा पूरी नहीं कर सकते थे। तब याकूब से पूछा गया कि उसके बदले उसकी आख़िरी ख्‍वाहिश क्या है? तो याकूब ने कहा कि वह जुबेदा से बात करना चाहेगा। याकूब की आखिरी इच्छा का सम्मान करते हुए जेल से उसके घर फोन लगाया गया और उसने फोन पर बेटी से तीन-चार मिनट बातचीत की। फांसी की सज़ा पाए क़ैदी से उसकी आखिरी इच्छी पूछने का दस्तूर है, तो कह सकते हैं कि याकूब मेमन की आख़िरी इच्छा पूरी तरह तो नहीं बल्कि आंशिक तौर पर पूरी हो गई। वैसे याकूब का परिवार 24 जुलाई को उससे मिला था।  उसकी पत्नी रूहीन मेमन, दो बहने और बेटी ज़ुबेदा रिश्तेदार इक़बाल मेमन के साथ याकूब से नागपुर जेल में ही मिले थे। इस मुलाकात के दौरान वह फूट-फूटकर रोने लगा था।
एक अति भरोसेमंद सूत्र के मुताबिक़, याकूब मेमन ने फोन पर अपनी बेटी से कहा कि ऐसा कोई काम नहीं करना, जिससे ऐसे लाचारी भरे दिन देखने पड़े। संभवतः याकूब अपनी अप्रत्यक्ष रूप से अपनी मौजूदा लाचारी की ज़िक्र कर रहा था कि कहां वह अच्छा खाता-पिता चार्टर्ड अकाउंटेंट था, कहां भाई का साथ देकर 257 लोगों की हत्या का गुनाहग़ार बन गया और इतना लाचार हो गया कि वह जीना चाहता है, लेकिन उसका ग़ुनाह उसे जीने नहीं दे रहा है।
जेल अधिकारियों ने ऐसा महसूस किया याकूब को टाइगर मेमन का साथ देने का गहरा अफसोस है। बहरहाल, याकूब को इसके तुरंत बाद साढ़ छह बजे नागपुर सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई है। लोग भी मानते हैं कि मुंबई बम कांड के बाद परिवार की जलालत होते देखकर याकूब टाइगर से नाराज़ हो गया था। बुधवार की शाम वह जेल के लोगों से बराबर पूछता रहा कि सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ. संभवतः उसके मन में कहीं न कहीं उम्मीद थी कि संभव हो कोई चमत्कार हो और वह ज़िंदगी पा जाए।  लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रात को जब उसकी आख़िरी दया याचिका राष्ट्रपति ने केंद्रीय गृहमंत्री से बातचीत के बाद ठुकराई तब उसके वकील सुप्रीम कोर्ट चले गए। यह याकूब को बताया गया था। बहरहाल, रात भर जेल अधिकारी भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इंतज़ार करते रहे।
फांसी देने के समय याकूब एकदम चुप था। शायद वह अपने किए पर पछता रहा था। उसने अन्य कैदियों और जेलकर्मियों से कहा कि अगर उससे कभी कोई कोई ग़लती हो गई हो तो माफ़ कर देना। इससे पहले सुबह कुरान पढऩे के बाद याकूब का मेडिकल चेकअप किया गया। हालांकि याकूब ने यह कहते हुए कि वह एकदम फिट है, और उसने चेकअप करवाने से इनकार कर दिया। मगर जैल मैनुअल के अनुसार उसका मेडिकल किया गया और उसे फांसी देने के लिए फिट घोषित किया गया। इसके बाद तय नियमों और प्रक्रिया के तहत उसे फांसी दे दी गई।
इस मौक़े पर मुंबई धमाकों का ज़िक्र करना ग़लत नहीं होगा कि जब 12 मार्च 1993 को1.30 से 3.20 के बीच मुंबई में सिलसिलेवार 12 जगह बम धमाके हुए थे, जिसमें 257लोग मारे गए थे और  713 से ज़्यादा लोग ज़ख़्मी हुए थे। दरअसल, उस शुक्रवार को सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था।  मुंबई में लोग दो चरण में हुए दंगे से उबरने लगे थे। दंगे के लिए दोषी ठहराए गए मुख्यमंत्री सुधाकरराव नाईक को कांग्रेस ने हटा दिया था और उनकी जगह रक्षामंत्री शरद पवार राज्य के मुख्यमंत्री बनकर आ चुके थे। दंगों के समय पुलिस कमिश्नर रहे श्रीकांत बापट की जगह अमरजीत सिंह सामरा आ चुके थे। मुंबई दंगों की जांच के लिए श्रीकृष्ण आयोग का गठन हो चुका था। अचानक शुक्रवार को लंच के समय दोपहर 1.30 बजे मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में बहुत ज़ोरदार धमाका हुआ। लोग समझ ही नहीं पाए कि क्या हो गया। तब देश पर आतंकी हमले के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। पुलिस और फायर ब्रिगेड की टीम मौक़े पर पहुंच गई। घेरे बंदी के बाद बचाव कार्य शुरू हो गया, तभी कोई पौने घंटे बाद 2.15 बजे मस्जिद बंदर में नरसीनाथ स्ट्रीट में दूसरा धमाके की ख़बर आई। इसी बीच 15 मिनट बाद जब 2.30 बजे तीसरा शिवसेना भवन के पास के पेट्रोल पंप पर धमाका हुआ तो पहली बार मुंबई पुलिस के वायरलेस सेट पर घोषणा की गई कि यह आतंकवादी हमला है।
इसके बाद तो ऐसा लगा मुंबई ज्वालामुखी पर बैठी है और पांच-पांच दस-दस मिनट पर धमाके पर धमाके हो रहे हैं। शिवसेना भवन के धमाके के कुछ मिनट बाद 2.33 बजे नरीमन पॉइंट में एक्सप्रेस टॉवर के पास एयरइंडिया बिल्डिंग के बेसमेंट में बम फटा यह चौथा धमाका था। पांचवा धमाका 12 मिनट बाद 2.45 बजे सेंचुरी बाज़ार में हुआ जहां एक पेड़ और एक बस ही ग़ायब से हो गए। इसी समय यानी 2.45 बजे माहिम में छठा विस्फोट हुआ, यहां ग्रेनेड फेंका गया था, बाद में पता चला दाऊद के गुर्गों ने बम फेंका था। आम आदमी ही नहीं, मुंबई पुलिस और फायर ब्रिगेड के लोग भी परेशान कि कहां जाएं, किस जगह को प्राथमिकता दे।
क़रीब 3.05 बजे सातवां धमाका जवेरी बाज़ार में हुआ जबकि पांच मिनट बाद 3.10 बजे बैंडस्टैंड में सीरॉक होटल में आठवां बम फटा। शिवसेना भवन के पास 3.13 बजे प्लाजा सिनेमा में नौवां धमाका हुआ। कुछ ही पलों बाद ख़बर आई कि दसवां बम जुहू सेंटूर होटल में 3.20 बजे फटा. 3.30 बजे सहार हवाई अड्डे के पास ग्यारवां धमाका हुआ जब किसी ने ग्रेनेड फेंक और बारहवां धमाका 3.40 बजे एयरपोर्ट के पास सेंटूर होटल में हुआ। इसके बाद तो पूरा शहर ही एक अज्ञात ख़ौफ़ से घिर गया।  लोग डर रहे थे कि पता नहीं कहां-कहां बम रखा गया है? तब टीवी न्यूज़ का कल्चर नहीं था, लिहाज़ा, लोग जान ही नहीं पा रहे थे क्या हो रहा है?
बहरहाल, शाम को अमरजीस सिंह सामरा ने प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में बताया कि यह देश की आर्थिक राजधानी मुंबई आतंकी हमला था। तीसरे दिन पता चला कि इसके पीछे मोस्ट वॉन्‍टेड क्रिमिनल दाउद इब्राहिम का हाथ है। उसके इशारे पर इन हत्याओं को इब्राहिम मुश्ताक अब्दुल रज्जाक मेमन और उसके भाइयों ने अंजाम दिया जिनमें याकूब मेमन भी था।

सोमवार, 20 जुलाई 2015

प्रतिबंध के बावजूद बेरोक-टोक चलते हैं डांस बार

हरिगोविंद विश्‍वकर्मा
पिछले साल क़ानून बना देने से महाराष्ट्र के डांस बार भले ही फ़ाइलों में भले ही बंद हो गए हों, लेकिन वास्तविकता यह थी कि बारों में डांस कभी रुका ही नहीं था। न सन् 2005 में बार डांस पर रोक प्रतिबंध लगाने से और न ही 2014 में क़ानून बना देने से। दरअसल, सरकार के आदेश या क़ानून के पालन की जवाबदेही पुलिस की है, परंतु जब पुलिस में भ्रष्ट अफ़सरों की ही चलती हो तो कैसी जवाबदेही?
कहना ग़लत नहीं होगा कि क़ानून बन जाने से बीयर-बारों में डांस तो नहीं रुका, हां, पुलिस का हफ़्ता ज़रूर बढ़ गया। मुंबई ही नहीं राज्य के बाक़ी इलाकों में बार मालिक पुलिस को हफ़्ता देकर धड़ल्ले से बार में लड़कियां नचाते हैं। पिछले गुरुवार की रेड में मीरारोड के ह्वाइट हाऊस में मिली 14 गर्ल्स इसकी गवाह हैं कि वहां उनका डांस हो रहा था। यानी क़ानून की चादर चर्र-चर्र पुलिस के लोग ही फाड़ रहे थे। कोई नहीं पूछ रहा है कि पाबंदी होने के बाद भी बार में डांस क्यों हो रहा था? अभी तक किसी पुलिस वाले के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं हुई है। जांच चल रही है यानी लीपापोती हो रही है।
80 के दशक में बीयर बारों के डांस दरअसल “शराब के साथ शबाब भी” के फॉर्मूले के तहत शुरू हुआ था। हालांकि लड़कियों का डांस और उन पर पैसे लुटाने का नज़ारा पहले मुंबई के बारों तक सीमित था। बाद में ठाणे और नई मुंबई में भी बारों में डांस धड़ल्ले से होने लगे और पूरे राज्य में फैल गया।
डांस बार सुबह चार-पांच बजे तक चलते हैं। इससे इनका साइड इफेक्ट अपराधों में बढ़ोतरी के रूप में सामने आया। कई बीयर बार रिहायशी इलाक़ों में भी होते हैं, जिससे आम आदमी पर भी इनका असर देखा जाने लगा। महिलाओं के साथ रेप और छेड़छाड की घटनाएं बढ़ने लगी। इससे बार मालिक, बार गर्ल्स, उनके संगठन और शराबियों को छोड़कर बाक़ी लोग डांस बार का विरोध करने लगे। चूंकि महिलाओं पर अपराध में बढ़ोतरी के लिए डांस बार ज़िम्मेदार थे, इसलिए इन्हें रोकने के लिए कांग्रेस-एनसीपी सरकार पर दबाव बढ़ने लगा। अंततः सरकार झुकी और डांस बार बंद करने का फैसला किया गया।
सरकार ने बॉम्बे पुलिस एक्ट में संशोधन करके 2005 में डांस बारों पर रोक लगा दी। हालांकि थ्री स्टार और फाइव स्टार होटलों को प्रतिबंध से बाहर रखा गया। इसे आधार बनाकर डांस बार वाले बॉम्बे हाईकोर्ट गए। कोर्ट ने फ़ैसला रद्द कर दिया, जिससे सरकार को सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी पड़ी। 16 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फ़ैसले को बरकारार रखते हुए थ्री स्टार होटलों से नीचे के डांस पर रोक हटा दी थी।
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बावजूद सरकार डांस बार पर रोक लगाने के लिए प्रतिबद्ध थी। लिहाज़ा, डांस बार बंद कराने के लिए विधिवत क़ानून का सहारा लेना पड़ा। राज्य सरकार ने पहले जस्टिस सीएस धर्माधिकारी की अगुवाई में समिति का गठन किया था। समिति का दायरा महिलाओं पर अपराधों रोकने का उपाय सुझाना था, लेकिन डांस बार इसमें अहम मुद्दा था। इस बीच कैबिनेट की मंजूरी के बाद राज्य की एसेंबली ने 13 जून 2014 को डांस बार क़ानून पास कर दिया। उसी साल सितंबर में धर्माधिकारी समिति ने डांस बारों पर पूर्ण प्रतिबंध की सिफारिश कर दी। बस फिर क्या था, डांस बारों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए। इस बार दायरे में थ्री स्टार और फाइव स्टार होटलों को भी लाया गया। महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम में संशोधन करके क़ानून का उल्लंघन करने वाले होटल या बार की परमिट निरस्त करने के अलावा तीन महीने से पांच साल तक की जेल और एक से पांच लाख रुपए तक ज़ुर्माने का प्रावधान किया गया।
वैसे अधिकृत तौर पर राज्य में महज़ 345 बीयर बार हैं, लेकिन बारों पर नज़र रखने वाले जानकार मानते हैं कि राज्य में दो हज़ार से ज़्यादा गैरक़ानूनी बार हैं, जो लोकल पुलिस को हफ़्ता देकर चलते हैं। बारों में डांस की इजाज़त तो नहीं है लिहाज़ा, ऑर्केस्ट्रा के नाम पर डांस होता है।  जिसमें लोकल पुलिस की मौन स्वीकृति होती है। इसके बदले बार वाले पुलिस वालों को “उचित ख़याल” रखते हैं। इसमें इनमें 65 हज़ार बार गर्ल्स समेत क़रीब सवा लाख लोगों को रोज़गार भी मिला हुआ है। मुंबई से सटे मीरा रोड उपनगर में पत्रकार बताए जा रहे राघवेंद्र दुबे नाम के युवक की हत्या की गई, उस मीरारोड-भाइंदर में 60 से ज़्यादा बीयर बार हैं, जहां धड़ल्ले से क़ानून की धज्जियां उड़ाकर रात भर डांस होता है। इसी डांस बार के चक्कर में राघवेंद्र की जान गई।
हत्या बेशक अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात होती है। हत्या किसी अच्छे नागरिक की हो या फिर बुरे आदमी की, उसकी भर्त्सना होनी ही चाहिए। हत्या की वारदात में क़ुदरत द्वारा दी हुई बेशकीमती जान चली जाती है। हत्या को इंसान के जीने के अधिकार का हनन भी माना जाता है,  इसीलिए दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत हत्याओं का विरोध करता है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील को विचलित करती है।  कोई सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोच कर ही दहल उठता है। यही मानसिकता मानव को हत्या की वारदात को लेकर संवेदनशील बनाती है।
हत्या को लेकर हर अच्छे नागरिक को संवेदनशील होना ही चाहिए। मीडिया को ख़ासकर कवरेज करते समय ज़्यादा संवेदनशील होना चाहिए। हत्या पर कोई तर्क-वितर्क नहीं होनी चाहि। एक स्वर से हत्या की भर्त्सना करनी चाहिए। इसी तरह में राघवेंद्र दुबे की हत्या की भी निंदा की जानी चाहिए। घटना पर विरोध दर्ज कराया जाना चाहिए। जिस हालात में हत्या हुई, उससे संदिग्ध पुलिसवालों के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई होनी चाहिए। इतना ही नहीं इसमें जिन लोगों की संलिप्तता हो, उन पर आईपीसी के उचित सेक्शन्स के तहत मामला दर्ज करके त्वरित ऐक्शन करनी चाहिए। अपराधी चाहे जितने प्रभावशाली क्यों न हों, उन्हें बख़्शा नहीं जाना चाहिए। राघवेंद्र दुबे के परिवार को आर्थिक मदद देने की भी पहल होनी चाहिए। सुखद संकेत यह है कि ये सब बाते हो रही हैं।
सबसे अहम बात यह है कि मुंबई और ठाणे के पत्रकार, ख़ासकर हिंदी ख़बरनवीस, इस घटना को “माडिया पर हमला” कहने के मुद्दे पर दो खेमे में बंट गए हैं। एक तबक़ा कह रहा है कि हत्या का पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं है। उसका तर्क है कि कथित तौर पर बीयर-बार वालों द्वारा मारे गए राघवेंद्र दुबे पत्रकार नहीं थे। दूसरी ओर दूसरा वर्ग इस तर्क से सहमत नहीं हैं। उसका अपना तर्क है जिसके मुताबिक़ राघवेंद्र 'ख़ुशबू उजाला' नाम का हिंदी साप्ताहिक अख़बार निकालते थे, इसलिए वह पत्रकार थे। इसी बिना पर यह धड़ा हत्या को “मीडिया पर हमला” करार दे रहा है।
सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि जिस साप्ताहिक अख़बार की बात हो रही है, वह मीरारोड के पेपर स्टॉल्स पर भी नहीं दिखता था। यहां तक कि शहर में अख़बार बांटने वाले भी उस अख़बार के बारे में नहीं जानते हैं। लिहाज़ा, आम आदमी का अख़ाबर से अनभिज्ञ होना सहज है। कई लोगों को राघवेंद्र दुबे की हत्या के बाद पता चला वह पत्रकार भी थे।
तो क्या यह सचमुच मीडिया पर हमला है? मीडिया पर हमला एक व्यापक टर्म है, जो लोग इसे मीडिया पर हमला कह रहे हैं, उन्हें कुछ सवालों का जवाब देना पड़ेगा। सबसे बड़ा सवाल है कि गुरुवार की रात ह्वाइट हाऊस बीयर-बार रेड के दौरान तीन ग़ुमनाम साप्ताहिक अख़बारों के तीन पत्रकार क्या करने गए थे? क्या वीकली अख़बारों में बार रेड की अपडेट कवरेज होती है? अगर नहीं तो लोकल वीकली न्यूज़पेपर्स के जर्नलिस्ट्स वहां क्यों गए? उनका क्या इंटरेस्ट था? आमतौर पर बार रेड को कवर करने के लिए बड़े-बड़े अख़बार के रिपोर्टर क्राइम भी स्पॉट पर नहीं जाते, क्योंकि पूरी दुनिया जानती है, बार-रेड भ्रष्ट पुलिस की अपनी छवि सुधारने की कवायद होती है। बारों में रेड तब पड़ती है, जब बार मालिक लोकल पुलिस को मान माफिक हफ़्ता देने से कतराने लगता है।
आमतौर पर बीयर-बारों में रेड पुलिस की सोशल सर्विस ब्रांच करती है। वह रेड से पहले टीवी वालों को ख़बर कर देती है, लेकिन ह्वाइट हाऊस में कथित रेड लोकल पुलिस के चंद अफसरान वसूली के लिए डाल रहे थे। शुरू में इसमें एसएस ब्रांच का कोई योगदान नहीं था। चर्चा में आ जाने से रेड को फ़ॉर्मल कर दिया गया और कुछ अरेस्ट और लड़कियों के रेस्क्यू का नाटक भी किया गया।
अमूमन इस तरह के अनॉफ़िशियल रेड मुंबई और ठाणे के उपनगरों में बीयर बारों में होते रहते हैं, जिन्हें वसूली रेड कहा जाता है, जो ऑन द स्पॉट भुगतान के बाद बंद हो जाते हैं। बार रेड अख़बारों की बमुश्किल सिंगल कॉलम की ख़बर होती है। ख़बरों का टोटा होने पर कभी-कभार डबल कॉलम स्थान पा जाती है। ख़बर भी फिलिंग द ब्लैंक स्टाइल की होती हैः अमुक बार में रेड पड़ी, इतनी बार-बालाएं, इतने ग्राहक और इतने कर्मचारी अरेस्ट हुए। सभी अरेस्टेड लोगों को दूसरे दिन कोर्ट से बेल मिल जाती है। बार भी दूसरे दिन से फिर से पुलिस संरक्षण में मज़े करने वाले ग्राहकों को खींचने लगता है।
इस सदी के आरंभ में टीवी मीडिया कल्चर शुरू होने पर बार रेड की ख़बर ब्रेकिंग न्यूज़ बनने लगी। टीवी पर अकसर ब्रेकिंग न्यूज़ चलती है कि अमुक बार में रेड पड़ी। मज़ेदार बात यह है कि इससे होता-जाता कुछ नहीं। चैनल पर थोड़ी देर सनसनी ज़रूर रहती है। देखा-देखी सारे टीवी न्यूज़ वाले यह ख़बर चलाते हैं। प्रतिस्पर्धा के चलते बार रेड कवर करना टीवी वालों की मजबूरी बन गई है। टीवी चैनल्स के नाइट रिपोर्टर रात ड्यूटी पर पहुंचने पर सबसे पहले सहयोगियों से पता करते हैं कि कहीं बार में रेड तो नहीं हुई। मतलब विज़ुअल और बाइट के लिए केवल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग बार रेड कवर करते हैं। इससे वसंतराव ढोबले जैसे अफ़सरों का लाइमलाइट में आने का मौक़ा मिल जाता है।
चूंकि बार में रोक के बावजूद डांस हो रहा है, ऐसे में कुछ लोग साप्ताहिक अख़बार निकाल कर डांस बार की शिकायत करते हैं। यदा-कदा छपने वाले साप्ताहिक या पक्षिक या मंथली अख़बार निकाले ही इसलिए जाते हैं ताकि धन उगाही की जा सके। कहा जाता है कि शिकायत के बदले में शिकायतकर्ता को डांस बार से हर महीने नियमित राशि नज़राने के रूप में मिलती है।
मुंबई और ठाणे इस तरह के लाभार्थी पत्रकारों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। पुलिस सूत्र बताते हैं कि राघवेंद्र दुबे खुशबू उजाला के लेटरहेड का इस्तेमाल शिकायत के लिए करते थे। हत्या में लवबर्ड बार का मालिक भी अरेस्टेड है। लवबर्ड के ख़िलाफ़ राघवेंद्र के सौ से ज़्यादा शिकायती पत्र मीरारोड पुलिस स्टेशन की फाइल में पड़े हैं। अब मुंबई के पत्रकारों को तय करना है कि राघवेंद्र दुबे को आजतक के अक्षय सिंह की कैटेगरी में खड़ा कर दिया जाए या नहीं?

सोमवार, 13 जुलाई 2015

आबादी पर अंकुश लगाने के लिए सख़्त प्रावधान की ज़रूरत

हरिगोविंद विश्वकर्मा
जनसंख्या एक ग्लोबल समस्या बन गई है। हर जगह इंसानों की भीड़ बढ़ रही है। इंसान इतने ज़्यादा पैदा हो गए हैं कि धरती छोटी पड़ने लगी है। भारत में तो जनसंख्या सभी समस्याओं की जननी बन गई है। देश की तमाम समस्याएं; मसलन- ग़रीबी, कुपोषण, पिछड़ापन, बेरोज़गारी, निरक्षरता, अपराध, नक्सलवाद, आतंकवाद, आवासहीनता, अपर्याप्त स्वास्थ सेवा, धार्मिक उन्माद, कट्टरता और स्कूल-कॉलेज में दाख़िला, सबकी सब जनसंख्या की नाभि से ही निकल रही हैं। जनसंख्या अकेले दम पर सरकार की सभी योजनाओं, नीतियों और प्रोग्राम्स की हवा निकाल रही है। कह लीजिए कि आबादी सुरसा बन गई है जो मानव कल्याण के लिए सरकार द्वारा लिए गए हर फ़ैसले को निगलती जा रही है।

आबादी में इज़ाफ़े से पर्यावरण का संतुलन भी गड़बड़ा रहा है। मनुष्यों के बढ़ने से उनके द्वारा छोड़ी गई कार्बनडाईआक्साइड भी बढ़ रही है। इसे ऑक्सीजन में बदलने वाले पेड़ कम हो रहे हैं। इससे वातावरण में कार्बनडाईआक्साइड ज़रूरत से ज़्यादा हो रही है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। इंसानों की आबादी बढ़ने से वन्यजीवों की संख्या पिछले 40 साल में घटकर आधी रह गई है। आबादी के कारण दुनिया में भारत का इंट्रोडक्शन एक नकारात्मक देश के रूप में होता है। जहां दुनिया के बाक़ी देशों में लोग बेहतर जीवन जी रहे हैं, वहीं भारत में लोग थोक के भाव बच्चे पैदा करके ख़ुद तो परेशान हो ही रहे हैं, दूसरों को भी परेशान कर रहे हैं। इसीलिए देश में आबादी पर सख़्ती से अंकुश लगाने का समय आ गया है।

आबादी पर हर पल नज़र रखने वाली भारत सरकार की अधिकृत बेवसाइट सेंसस इंडिया के मुताबिक़ देश में हर घंटे 3080 से ज़्यादा बच्चे पैदा हो रहे हैं, जबकि मृत्यु दर प्रति घंटे 1099 से भी कम है। यानी आबादी की भीड़ में क़रीब दो हज़ार लोग हर घंटे बढ़ रहे हैं, जो किसी बड़ी कंपनी में कर्मचारियों की संख्या के बराबर है। हर घंटे पैदा हो रहे बच्चों के लिए भविष्य में रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ, शिक्षा और रोज़गार की व्यवस्था करना बहुत बड़ी गंभीर समस्या बन रही है। जनसंख्या विस्फोट को देखकर ही वर्ल्‍ड हेल्‍थ ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट वर्ल्ड पॉप्युलेशन प्रोस्पेक्ट्स-दी 2012 रिवाइज्ड’ में कहा गया है कि जन्म दर इसी तरह बनी रही तो 2028 तक भारत की आबादी चीन से ज़्यादा हो जाएगी। अगर अगले कुछ दशक तक पॉप्युलेशन ऐसे ही बढ़ती रही तो लोगों को रहने के लिए जगह नहीं बचेगी। फ़िलहाल भारत के पास विश्व की समस्त भूमि का केवल 2.4 फ़ीसदी हिस्सा ही है, जबकि विश्व की जनसंख्या का 16.7 फ़ीसदी हिस्सा इस देश में रहता है। फ़िलहाल, देश की आबादी 1.296 अरब है जिसमें 66.89 करोड़ पुरुष और 62.66 करोड़ महिलाएं हैं।

2011 की जनगणना पर गौर करें तो आबादी एक दशक में 18.1 करोड़ बढ़ गई। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में इस भूभाग (तब भारत नहीं ब्रिटिश इंडिया था) की आबादी ही क़रीब 17 करोड़ थी, लेकिन अब उससे ज़्यादा लोग दस साल में बढ़ रहे हैं। हालांकि, इस बार की जनगणना में आबादी वृद्धि दर में कमी देखी गई है, लेकिन यह बहुत मामूली है। ऊंट के मुंह में जीरा की तरह। वैसे, कन्या भ्रूण-हत्या के ख़िलाफ़ राष्ट्रव्यापी अभियान के कारण महिलाओं की जनसंख्या बढ़ रही है। देश में प्रति हज़ार पुरुषों पर 933 महिलाएं थींजो दस साल बाद 940 हो गई हैं। फ़िलहाल, आबादी में पुरुषों की संख्या 51.54 फ़ीसदी और महिलाओं की संख्या 48.46 फ़ीसदी है। 20वीं सदी के आरंभ में ब्रिटिश इंडिया की आबादी 23.84 करोड़ से दस साल में 25.21 करोड़ हो गई। मज़ेदार यह रही कि 1921 में आबादी घट कर 25.13 करोड़ हो गई। मगर अगले दो दशकों में जनसंख्या 27.89 और 31.86 करोड़ पहुंच गई। जनसंख्या वृद्धि में बूम आज़ादी के बाद आया। 1951 की जनगणना में पता चला कि भारत की आबादी 36 करोड़ को पार कर चुकी है। 1961 में और उछली और 43.9 करोड़ को टच कर गई। सत्तर के दशक में लगा कि लोगों में बच्चे पैदा करने की होड़ मची है। दस साल में 11 करोड़ लोग बढ़ गए और आबादी आधा अरब (54 करोड़) पार कर गई। इसके बाद तो मानो आबादी को पंख लग गए। 1981 में 68.3 करोड़ तो 1991 में 84.6 करोड। अगले 10 साल में क़रीब 16 करोड़ लोग बढ़ गए तो न्यू मिलेनियम में तो जन्मदर के सारे रिकॉर्ड टूट गए। एक दशक में 21 करोड़ बच्चे पैदा हुए और 2011 में आबादी 1.21 करोड़ हो गई। जनसंख्या-वृद्धि बदस्तूर जारी है।

मज़ेदार बात यह है कि आज़ादी के बाद से ही केंद्र और सभी राज्य सरकारें कोशिश कर रही हैं कि इस पर अंकुश लगाया जाए लेकिन हर कोशिश टांय-टांय फिस्स हो रही है। भारत में एक नहीं दो-दो बार जनसंख्या नीति बनाई जा चुकी है। तय हुआ कि जनसंख्या विस्फोट पर अंकुश लगाया जाएगा और छोटे परिवार प्रमोट किए जाएंगे। सन् 2000 से जनसंख्या आयोग भी अस्तित्व में आ चुका है। फिर भी यह थमने का नाम नहीं ले रही है। पचास के दशक में भारत में चीन से पहले नसबंदी शुरू की गई लेकिन 65 साल में कोई ख़ास नतीजा नहीं निकला। नसबंदी योजना कैसे काम करती है, इसकी मिसाल प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में मिली। इसी साल 31 जनवरी को ज़िला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर चिरईगांव के हेल्थसेंटर के बाहर 73 महिलाओं की ज़मीन पर लिटाकर नसबंदी की गई। चूंकि अस्पताल में बिस्तर की व्यवस्था नहीं थीलिहाज़ा, खुले आसमान के नीचे ज़मीन बेड बना दी गई। यह घटना ग्रामीण स्वास्थ केंद्रों की बदहाली की कहानी कहती है, जिस देश में 70 फ़ीसदी आबादी गांवों में रहती हो,वहां बजट का आधार ही ग्रामीण विकास होना चाहिए, लेकिन होता इसके उल्टा है। विकास का ज़्यादा शेयर शहर झटक रहे हैं, इसीलिए ग्रामीण इलाक़े में लोग दीन ही हालत में रहते हैं।

आबादी में बढ़ोतरी के लिए किसी एक समाज या धर्म को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। हिंदू हों या मुसलमान, बढ़ती आबादी के लिए दोनों ज़िम्मेदार हैं। भारतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अब तक 1991-92, 1998-99 और 2005-06 में तीन सर्वे हो चुके हैं। चौथा सर्वे चल रहा है। डेटाज़ के मुताबिक़ आबादी पर अंकुश लगाने की कोई युक्ति कारगर नहीं हो रही है। 1991-92 में मुस्लिम महिलाओं की कुल प्रजनन दर यानी टोटल फर्टिलिटी रेट 4.41 थी तो हिंदू महिलाओं की 3.31 जो बहुत कम नहीं थी। 1998-99 और 2005-06 में मुस्लिमों की प्रजनन दर 3.39 और 3.4 थी तो इसी दौरान हिंदुओं की प्रजनन दर 2.78 और 2.59 दर्ज की गई। रिपोर्ट कहती है कि आबादी में बढ़ोतरी की दर का राष्ट्रीय फीगर 18 फ़ीसदी है, परंतु मुसलमानों की आबादी 24 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है। 1991-2001 के दौरान तो मुस्लिम आबादी 29 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही थी, जो चिंता का विषय थी। परंतु अब इसमें गिरावट आई है, जिसमें और ध्यान देने की ज़रूरत है। आईएनएफएचएस की रिपोर्ट के मुताबिक जहां देश की हर महिलाएं औसतन 2.4 बच्चे पैदा कर रही हैं, वहीं मुस्लिम महिलाएं 3.6 बच्चे पैदा कर रही हैं। यह सही है कि मुस्लिम महिलाएं अब भी परिवार नियोजन में हिंदू महिलाओं से पीछे हैं। मगर इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम महिलाओं में भी परिवार नियोजन अपनाने की चेतना बढ़ रही है। हिंदू महिलाओं में गर्भ निरोध के साधनों का प्रयोग 1991-92 में 37.7 फ़ीसदी से बढ़कर 1998-99 में 44.3 फ़ीसदी हो गया, जो 6.6 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी है। मुस्लिम महिलाओं में यह 22 फ़ीसदी से बढ़कर 30.2 फ़ीसदी हो गया। यानी जो 8.2 फ़ीसदी की वृद्धि दर्शाता है जो हिंदू महिलाओं से ज़्यादा है। इसी तरह 1998-99 से 2005-06 के बीच गर्भ निरोध के तरीक़े इस्तेमाल करनेवाली हिंदू महिलाओं की संख्या में 5.9 फ़ीसदी इज़ाफ़ा हुआ तो मुस्लिम महिलाओं के मामले में बढ़ोतरी 6.2 फ़ीसदी की रही। यानी हिंदू महिलाओं के मुकाबले 0.3 फ़ीसदी ज़्यादा। संभवतः यही बात हिंदूवादी संगठनों और नेताओं को मुस्लिमों पर हमला करने का मौक़ा देती है।

जनसंख्या वृद्धि में भारत की परंपराएं भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। भारतीय समाज में संयुक्त परिवार का कॉन्सेप्ट हैं। नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की उपेक्षा नहीं करती। लोग बुढ़ापे में अपने बच्चों के साथ रहते हैं। दरअसल, यह परंपरा भी आबादी में विस्फोट की प्रमुख वजह है। देश में सोसल सिक्योरिटी नाम की चीज़ ही नहीं है. लिहाज़ा, लोग बुढ़ापे का ख़याल करके पुत्र चाहते हैं। मानते हैं कि बेटियां शादी के बाद दूसरे के घर चली जाती हैं, इसलिए बुढ़ापे में देखभाल के लिए पुत्र ज़रूरी है। पुत्र की चाहत इसी सोच का नतीजा है। हर दंपत्ति चाहता है, उसे एक बेटा ज़रूर हो। इसीलिए दो बेटियां होने पर कई लोग बेटे के लिए तीसरा बच्चा पैदा करते हैं। दो बेटे पैदा हो जाने पर बेटी के लिए कोई तीसरी संतान पैदा नहीं करता। कभी-कभी बेटे की प्रतीक्षा ख़त्म ही नहीं होती और छह-सात बेटियां पैदा हो जाती हैं। दो साल पहले पन्ना में एक हिंदू महिला ने 42 साल की उम्र में 14 वीं संतान को जन्म दिया। वैसे यह परंपरा अब टूट रही है। आजकल बच्चे बुजुर्गो को बोझ मानकर उनका तिरस्कार भी करने लगे हैं। ऐसी भी मिसाल देखने को मिलती है जब वृद्ध माता-पिता को घर से बाहर निकाल दिया जाता है। उम्र के अंतिम दौर में लोग वृद्धाश्रम में अकेले रहने को मजबूर किए जा रहे हैं। पं मदनमोहन मालवीय की 90 साल की सगी पोती विजया पारिख मिसाल हैं जो नोएडा के सेक्टर 55 के वृद्धाश्रम में पांच साल से रह रही हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले भारत को सबसे युवा देश में कहें लेकिन 60 साल के लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। डब्ल्यूएचओ और हेल्पेज के मुताबिक, 2026 में भारत में बूढ़ों की आबादी 17.32 करोड़ होने का अनुमान है। मज़ेदार यह है कि पुरुष महिलाओं से ज़्यादा हैं लेकिन बड़ी उम्र में स्त्रियां पुरुषों से ’ज़्यादा हैं। पॉप्युलेशन को उम्र के हिसाब से नज़र रखने वाली संस्था कंट्री मीटर्स की वेबसाइट के मुताबिक भारत में 65 साल या उससे ऊपर की आबादी 5.5 फ़ीसदी यानी सात करोड़ है। अनुमानतः 50 लाख लोग ऐसे होंगे, जिनके पास बुढ़ापे में कोई सहारा नहीं होगा। ऐसे लोगों को 65 साल की उम्र होने पर सरकार की ओर से 10 हज़ार रुपए महीने वेतन देने की योजना शुरू करनी चाहिए। वैसे भी सरकार कई फ़ालतू योजनाओं में लाखों करोड़ रुपए बर्बाद कर रही है। अगर वृद्धावस्था में सामाजिक सुरक्षा की योजना शुरू की गई तो निश्तित रूप से लोगों में बेटे की चाहत कम होगी और आबादी पर अंकुश लगेगा.

सत्तर के दशक में चीन में कमोबेश ऐसे हालात थे। लिहाज़ा, बेतहाशा बढ़ रही आबादी पर लगाम लगाने के लिए चीन में 1979 में एक बच्चा नीति लागू हुई थी। एक बच्चा नीति के तहत शादी-शुदा जोड़ों को केवल एक ही बच्चा पैदा करने की इजाज़त है। दूसरा बच्चा पैदा करने पर माता-पिता के ख़िलाफ़ तो कार्रवाई होती ही है, बच्चे को 'गैरकानूनी' बच्चा कहा जाता है। उसे पहचान पत्र जारी नहीं किया जाता, जिससे बच्चा निःशुल्क शिक्षा या सेहत संबंधी सुविधाएं नहीं ले सकता। यही नहीं, बच्चा अपने ही देश में यात्रा नहीं कर सकता और किसी लाइब्रेरी का इस्तेमाल नहीं कर सकता है। एक बच्चा नीति के लागू होने से पहले चीन में लोगों के औसतन चार बच्चे हुआ करते थे। एक संतान नीति लागू होने के बाद देश की आबादी पर तो अंकुश लगा ही, वहां ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई। अब भारत चीन को 2028 तक ओवरटेक करने वाला है।

भारत में राजनीति के चलते चीन जैसा कठोर क़ानून बनाना शायद संभव नहीं होगा, लेकिन ऐसा कुछ क़दम उठाना ही होगा ताकि धड़ल्ले से बच्चे पैदा करने वालों के मन में ख़ौफ़ पैदा हो। जब तक भय पैदा नहीं किया जाएगा, आबादी पर अंकुश लगाना मुमकिन नहीं। इसके लिए सरकार को कुछ ऐसे कड़े क़ानून बनाने पड़ेंगे, जिन पर आसानी से अमल करके जनसंख्या पर अंकुश लगाया जा सके। जब तक दो से ज़्यादा बच्चा पैदा करने वालों को शर्मिंदा नहीं किया जाएगा, यह सिलसिला नहीं थमेगा। ऐसे लोगों को हतोत्साहित किया जाए। उन्हें एहसास कराया जाए कि दो से ज़्यादा बच्चे पैदाकर करके उन्होंने सामाजिक अपराध किया है। मसलन, दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने वालों को इनकम टैक्स में मिलने वाली छूट ख़त्म की जा सकती है। सरकारी योजनाओं का लाभ केवल उन्हीं को दिया जाए जिनके पास केवल एक बच्चा है। जिनके पास केवल एक बेटी है, उन्हें अनिवार्य रूप से सरकारी नौकरी देने का प्रावधान भी कारगर हो सकता है। इसके अलावा एक संतान वाले दंपति को इनकम टैक्स स्लैब में पांच लाख रुपए तक की छूट देकर ऐसा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
समाप्त

बुधवार, 8 जुलाई 2015

क्या मुस्लिम बच्चों के विकास में बाधा हैं मदरसे?


उत्तरप्रदेश शिया सेंट्रल बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी  ने हाल ही में प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मदरसों पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाकर उन्हें बंद करने की मांग की थी। जैसा कि अपेक्षित था, कट्टरपंथी मुसलमान उनके खिलाफ हो गए। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष सैयद गैयूरूल हसन रिज़वी ने कहा कि यह मदरसों को बदनाम करने की साजिश है। इससे पहले 2015 में महाराष्ट्र सरकार ने राज्य के सभी मदरसों के बच्चों को “आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रेन” घोषित करने का फैसला किया था। इससे महज़ मज़हबी तालीम यानी उर्दू और शरीयत पढ़ाने वाले 1890 मदरसों में से 1340 मदरसे स्‍कूल श्रेणी से बाहर हो गए थे। 550 मदरसों ने हर विषय पढ़ाने का सरकार का आदेश मान लिया और उनकी स्कूल की मान्यता बची रह गई।

लंबे समय से इस बात पर बहस होती रही है कि क्या यक़ीनी तौर पर मुसलमानों के बच्चों के विकास में सबसे बड़ी बाधा मदरसे ही हैं और मदरसे में तालीम हासिल करने वाले कट्टर हो जाते हैं और उन्हें आतंकवाद की ओर खींचना आसान होता है? इसी बिना पर प्रगतिशील मुसलमान मदरसा कल्चर की मुखालफत करते रहे हैं। इन लोगों का कहना है कि ग़रीब तबक़े के मुस्लिम बच्चे एजुकेशन को मेन स्ट्रीम में लाना जरूरी है। इससे अब तक उपेक्षित बच्चों के लिए भविष्य में अवसर बनेंगे और अगर मेहनत करेंगे तो अच्छा पढ़-लिखकर अफ़सर बन सकेंगे। 

प्रगतिशील मुसलमानों के तर्क को नकारा भी नहीं जा सकता। वस्तुतः मदरसे मुस्लिम बच्चों के ही नहीं, बल्कि समस्त मुस्लिम समाज के विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, विश्व एक गांव में तब्दील हो गया, लेकिन मदरसा चलाने वाले मुसलमान अब भी बच्चों को कई सदी पीछे रखना चाहते हैं। अब मुसलमानों को यह समझना ही होगा कि वर्तमान दौर अंग्रेज़ी शिक्षा का दौर है। इस दौर में बच्चों को भाषा के रूप में बेशक संस्कृत, उर्दू, मराठी या दूसरी क्षेत्रीय भाषाएं पढ़ाइए, लेकिन साथ में उन्हें अंग्रेज़ी, मैथ और साइंस पढ़ाना ही होगा। उन्हें इंजीनियर, डॉक्टर, आईएएस-पीसीएस और जज बनाना होगा। इसके लिए मदरसों का बंद करना समय की मांग है।

दरअसल, विद्यालय यानी स्कूल को अरबी में मदरसा कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि पहला मदरसा हज़रत ज़ैद बिन अकरम के परिसर की पहाड़ी के पास खुला था, जिसे सफ़ा कहा गया। प्रमाण तो नहीं है, मगर माना जाता है कि सफ़ा में मोहम्मद साहब अध्यापक थे और उनके अनुयायी छात्र। 12वीं सदी के अंत तक बग़दाददमिश्कमोसल और दूसरे मुस्लिम शहरों में मदरसे फल-फूल रहे थे। भारत में मदरसे 12वीं सदी में दिल्ली सल्तनत काल में शुरू हुएलेकिन ज़्यादा शोहरत मुग़ल काल में मिली। इतिहासकारों के मुताबिक़ शाह वली अल्लाह के पिता शाह अब्दुर्रहीम ने 17वीं सदी के आख़िर में दिल्ली में पहला मदरसा मदरसा-ए रहीमिया खोला था। लखनऊ में 18वीं शताब्दी के आरंभ में मुल्ला निज़ामुद्दीन सिहलवी ने मदरसा-ए फ़िरंगी महल शुरू किया था। 1867 में देवबंद में मुहम्मद आबिद हुसैन ने मदरसा-ए दारूल उलूम की स्थापना की, जो इस्लामी अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से है। हालांकि, आज के दौर के मदरसों में केवल उर्दू और शरीयत सिखाए जाते हैं। यह तालीम बेशक मौलवी बनने वालों के लिए ठीक है, मगर इसमें पढ़े बच्चे बुनकर या मज़दूर ही बन सकते हैं, डॉक्टर-इंजीनियर या अफ़सर नहीं। लिहाज़ा, या तो मदरसों को आधुनिक कॉन्वेंट स्कूलों जैसा बनाया जाए, या फिर उन्हें बंद करके उनकी जगह बेहतर शिक्षा देने वाले स्कूल-कॉलेज खोले जाएं, जिन्हें शिक्षा बोर्डों या यूनिवर्सिटी से आधिकारिक मान्यता मिली हो।
मदरसों की स्कूली मान्यता ख़त्म करने के फ़ैसले का दो तरह के लोग विरोध कर रहे हैं। पहले तो मौलवी हैं, जिनकी रोज़ी-रोटी मदरसों से चलती रही है। उनका विरोध जायज़ कहा जा सकता है। दूसरे सियासतदां हैं, जिनकी पूरी राजनीति ही मुस्लिम वोटों से होती है। इनमें एमआईएम के लोकसभा सदस्य असदुद्दीन ओवैसी भी शामिल हैं। सवाल उठता है कि इनका विरोध क्या जायज़ है? क्योंकि ओवैसी साहब ख़ुद तो लंदन में पढ़े हैं, उनके बच्चे कॉन्वेंट या इंग्लिश मीडियम से पढ़ रहे हैं। ओवैसी के अलावा वे लोग ज़्यादा मुखर विरोध कर रहे हैं, जिनके भी बच्चे कॉन्वेंट या विदेशों में पढ़े हैं। ये तथाकथित हितैषी चाहते हैं कि ग़रीबों के बच्चे मदरसे के चक्कर में अंग्रेज़ी, मैथमेटिक्स और साइंस पढ़ने से वंचित रहें और अपना भविष्य चौपट कर लें, ताकि भविष्य में उनके डॉक्टर-इंजीनियर या अफ़सर की संभावना ही ख़त्म हो जाए और अच्छी सेलरी वाले जॉब के जो मौक़े आएं, उन्हें धनी मुसलमानों के अंग्रेज़ी, मैथ व साइंस पढ़ने वाले बच्चे लपक लें।
दरअसल, जस्टिस राजिंदर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद तत्कालीन सीएम विलासराव देशमुख ने मई 2008 में महाराष्ट्र में मुसलमानों की शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अध्ययन के लिए रिटायर ब्यूरोक्रेट डॉ. महमूदुर रहमान की अगुवाई में छह सदस्यों वाली महमूदुर रहमान कमेटी बनाई थी। कमेटी ने रिपोर्ट अक्टूबर 2013 में सरकार को सौंप दी थी, लेकिन अभी तक उसे सार्वजनिक नहीं किया गया है। लीक्ड रिपोर्ट में मुसलमानों के बारे कई हैरान करने वाले तथ्य सामने आए हैं। मसलन, महाराष्ट्र में, देहात की बात तो छोड़ दें, मुंबई जैसे शहर में रहने वाले मुसलमानों की भी हालत एकदम पिछड़ी मानी जाने वाली अनुसूचित जाति और जनजाति से भी बदतर है। मुसलमानों को कोई भी बैंक क़र्ज़ नहीं देती है। मुंबई से सटा मीरारोड का मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ा नयागनर जीता जागता उदाहरण है, जहां घर लेने वालों को किसी भी बैंक से होमलोन नहीं मिलता है।
महमूदुर रहमान समिति ने रिपोर्ट में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, एसएनडीटी वीमेन यूनिवर्सिटी की इकोनॉमिक्स फैकेल्टी और मुंबई यूनिवर्सिटी के निर्मला निकेतन कॉलेज ऑफ़ सोशल वर्क समेत, कुल सात संस्थानों के भरोसेमंद सर्वेज़ और स्टडीज़ का हवाला दिया है। सभी सर्वेज़ और स्टडीज़ क़मोबेश एक जैसी हैं, मगर सत्यता की कसौटी पर खरी उतरती हैं।
महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ राज्य में 1.20 करोड़ मुसलमान हैं, जिनमें 15 साल तक की जनसंख्या 37 फ़ीसदी है, जो अपेक्षाकृत ज़्यादा जन्म दर दर्शाती है। पुरुष मुखिया वाले हर मुस्लिम परिवार में औसतन 6.1 सदस्य हैं जबकि महिला मुखिया वाले परिवार में 4.9 सदस्य। रिपोर्ट में 60 साल या उससे ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी महज़ 6.6 फ़ीसदी बताई गई है, जिसका मतलब मुस्लिम समाज में लोग 60 साल के बाद जल्दी मर जाते हैं, इसकी वजह ग़रीबी और उचित मेडिकेयर का अभाव हो सकता है। यह अलग सीरियस शोध का विषय है। 
महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़, राज्य में केवल 10 फ़ीसदी मुसलमान अपने खेत में खेती करते हैं। आधे यानी 49 फ़ीसदी मुस्लिम ग़रीबी रेखा के नीचे हैं जबकि पूरे देश में 34.4 फ़ीसदी मुसलमान ग़रीब हैं। राज्य में 20 फ़ीसदी मुसलमानों के पास राशन कार्ड नहीं है, जबकि 59 फ़ीसदी मुसलमान स्लम यानी गंदी बस्तियों में रहते हैं। इनमें केवल 18 फ़ीसदी लोगों के ही घर पक्के हैं। राज्य में बहुत बड़ी तादाद में युवक बेरोज़गार हैं। 32.4 फ़ीसदी लोग छोटे-मोटे काम करते हैं। शायद यही वजह है कि 45 फ़ीसदी मुस्लिमों की परकैपिटा आमदनी महज़ 500 रुपए ही है। 34 फ़ीसदी मुसलमानों (आबादी का एक तिहाई) की मासिक आमदनी 10 हज़ार रुपए से भी कम है। 24 फ़ीसदी 10 से 20 हज़ार महीने कमाते हैं, जबकि 20 से 30 हज़ार कमाने वाले मुसलमानों की तादाद 3.8 फ़ीसदी है। अपेक्षाकृत अच्छा यानी 30 से 40 हज़ार रुपए कमाने वालों की संख्या महज़ 1.0 फ़ीसदी है।
हालांकि ऐसा नहीं कि मुस्लिम समाज में सभी ग़रीब ही हैं। रिपोर्ट कहता है कि मुस्लिम समाज काफ़ी संपन्न है, देश का बस बाक़ी समुदायों की तरह मुसलमानों में भी मुट्ठी भर लोग बेहतर जीवन जी पाते हैं। यानी केवल 6.0 फ़ीसदी मुस्लिम हर महीने 50 हज़ार या उससे ज़्यादा आमदनी करते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. महमूदुर की रिपोर्ट क़रीब-क़रीब सच्चर की रिपोर्ट जैसी ही है। मतलब, एजुकेशन में मुसलमानों की दशा बहुत दयनीय है। जहां देश में साक्षरता की दर 74 फ़ीसदी है, वहीं मुस्लिम साक्षरता केवल 67.6 फ़ीसदी हैं। महाराष्ट्र में यह 65.5 फ़ीसदी से भी नीचे है। हालांकि, प्राइमरी स्तर पर मुस्लिम बच्चे हिंदुओं से बेहतर स्थिति में हैं। यानी हिंदुओं के 38 फ़ीसदी बच्चे प्राइमरी तक पहुंचे हैं तो मुस्लिमों के 47 फ़ीसदी बच्चे। रिपोर्ट कहती है, आमतौर पर 14 साल की उम्र में मुस्लिम बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं और बाल मज़दूर के रूप में काम करने लगते हैं। आर्थिक तंगी इसकी मुख्य वजह है। सेकेंडरी यानी 12वीं तक केवल 4.2 फ़ीसदी बच्चे पहुंच पाते हैं। उच्च शिक्षा का मुस्लिमों का आंकड़ा भयावह है। महज़ 3.1 युवक स्नातक तक पहुंचते हैं। 2011 के आईएएस में 203 चयनित उम्मीदवारों में महाराष्ट्र का एक ही मुस्लिम युवक था, जबकि आईपीएस में चुने गए 302 लोगों में महाराष्ट्र से बस चार मुस्लिम युवक थे। राज्य की फडनवीस सरकार इसकी वजह मदरसा कल्चर मानती है।
रिपोर्ट के मुताबिक़, राज्य में मुस्लिम लड़कियों के शिक्षा का आंकड़ा तो निराश करने वाला है। महज़ एक फ़ीसदी लडकियां कॉलेज तक पहुंचती हैं। उच्च शिक्षा हासिल न कर पाने से वे पुरुषों का अत्याचार सहती हैं। उनके शौहर विरोध के बावजूद एक से ज़्यादा निकाह कर लेते हैं। 2006 की थर्ड नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वें के मुताबिक़, 2.55 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाओं के पतियों के पास एक से अधिक बीवियां हैं, जबकि हिंदुओं में यह आंकड़ा 1.77 फ़ीसदी है। राज्य में मुसलमानों में दूसरे समुदायों की तुलना में अविवाहितों, तलाकशुदा और विधवाओं की संख्या बहुत ज़्यादा है। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिमों में मैरिटल स्टैटस महज़ 29 फ़ीसदी है।
मुस्लिम समाज की बदहाली के लिए और ढेर सारे कारक ज़िम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन इस पिछड़ेपन के लिए मदरसा कल्चर काफी हद तक ज़िम्मेदार ज़रूर है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 33 फ़ीसदी बच्चे उर्दू पढ़ते हैं,तो शहरों में क़रीब आधे (49 प्रतिशत) बच्चों को उर्दू की तालीम दी जाती है। मदरसे में अंग्रेज़ी पढ़ने वाले छात्रों का प्रतिशत नहीं के बराबर है। 96 फ़ीसदी स्टूडेंट्स जनरल स्टडी करते हैं। महज़ 4 प्रतिशत ही तकनीकी संस्थानों में जाते हैं। वोकैशनल एजुकेशन का परसेंटेज तो नहीं के बराबर यानी 0.3 फ़ीसदी है। इसके लिए भी मदरसों के सिलैबस को ही कसूरवार ठहराया जा सकता है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि सरकारी ही नहीं, निजी संस्थानों में भी मुसलमानों को बहुत कम नौकरियां मिलती हैं। 
इस तरह उर्दू मीडिया को छोड़ दें तो बाक़ी मीडिया जैसे बौद्धिक संस्थानों में भी इक्का-दुक्का मुस्लिम पत्रकार मिलते हैं। महमूदुर रहमान कमेटी का निष्कर्ष है कि महाराष्ट्र में वाक़ई बहुमत में मुसलमानों की हालत बहुत दयनीय है। यही तर्क देते हुए सच्चर कमेटी भी मुस्लिम समाज के विकास पर ख़ास ध्यान देने की बात कहती है। संभवतः इसी तरह की फाइंडिंग्स के आधार पर 2007 की जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमेटी ने मुसलमानों को नौकरी में 10 फ़ीसदी आरक्षण देने की पैरवी की है। मज़ेदार बात यह है कि हर नेता अपने आपको मुसलमानों का हितैषी बताता ही नहीं मानता भी है, इसके बावजूद मुसलमानों के जीवनस्तर को बेहतर बनाने वाली सभी सिफ़ारिशें फ़ाइल्स के नीचे दबी धूल खा रही हैं। 
दरअसल, यह समस्या मुस्लिम समाज की है। लिहाज़ा, हल करने के लिए उसे ही आगे आना होगा। मुस्लिम समाज को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कोई न कोई वजह तो है जिसके कारण देश में हर क्षेत्र में मुसलमान दूसरे समुदाय से पिछड़ रहे हैं और समस्या के रूप में इसे चिन्हित किए बिना, हल नहीं निकाला जा सकता है। मुंबई के पत्रकार आबिद नक़वी भी राज्य के मदरसों के आधुनिकीकरण और उनकी शिक्षा आम स्कूलों जैसी करने की ज़ोरदार पैरवी करते हैं, हालांकि नक़वी यह भी कहते हैं कि महाराष्ट्र में मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे दूसरे मुस्लिम देशों के मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों जितने कट्टर नहीं होते। हालांकि, अशिक्षा, ग़रीबी और बेरोज़गारी के कारण युवक अपराध या आतंकवाद की ओर उन्मुख हो रहे हैं और इसमें मदरसों के योगदान को पूरी तरह रूल्डआउट नहीं किया जा सकता है। कम से कम इसी बिंदु पर महाराष्ट्र की बीजेपी-शिवसेना सरकार के फ़ैसले का बहुत ज़्यादा विरोध पूरी तरह सही नहीं जान पड़ता।