बेक़ाबू अकसर हो जाती हैं मेरी उम्मीदें
मेरी बात नहीं मानती हैं मेरी उम्मीदें
हर रोज़ सुला देता हूं अपने ही हाथों
पर सुबह जाग जाती हैं मेरी उम्मीदें
जानती हैं तुम हो दरिया के उस किनारे
फिर भी ज़ोर मारती हैं मेरी उम्मीदें
पस्त नहीं होती तेरी उदासीनता से
मुझे मज़बूर करती हैं मेरी उम्मीदें
इन्हें शायद दर्द का अंदाज नहीं होता
तभी तो दर्द बढ़ाती हैं मेरी उम्मीदें
मन को दिखाती हैं ढेर सारे सपने
फिर मुझको रुलाती हैं मेरी उम्मीदें
पैदा हो गईं ये पता नहीं कैसे ये
मुझे लाचार करती हैं मेरी उम्मीदें
ज़हर देना ही पड़ेगा इन्हें एक दिन
मेरे दर्द की सबब हैं मेरी उम्मीदें
माफ करना हे मेरे सपनों की परी
सब मुझसे लिखवाती हैं मेरी उम्मीदें
हरिगोविंद विश्वकर्मा
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