तुम बहुत अच्छे इंसान हो
धीर-गंभीर और संवेदनशील
दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने वाले
बहुत कुछ मेरे पापा की तरह
तुम्हारे पास है बहुत आकर्षक नौकरी
कोई भी युवती सौभाग्य समझेगी अपना
तुम्हारी जीवन-संगिनी बनने में
मैं भी अपवाद नही हूं
तभी तो
अच्छा लगता है मुझे सान्निध्य तुम्हारा
इसे प्यार कह सकते हो तुम
हां तुममें जो पुरूष है
उससे प्यार करने लगी हूं मैं
स्वीकार नहीं कर पा रही हूं
फिर भी परिणय प्रस्ताव तुम्हारा
तुम एक चित्रकार हो
और मैं चित्रकार की बेटी
तुम्हारे अंदर देखती हूं मैं
अपने चित्रकार पापा को
एक ऐसा इंसान
जो पूरी ज़िंदगी रहा
दीन-हीन और पराजित
अपराधबोध से ग्रस्त
अपनी बेटी-पत्नी से डरता हुआ
पैसे-पैसे के लिए संघर्ष करता हुआ
हारता हुआ ज़िंदगी के हर मोर्चे पर
तमाम उम्र जो ओढ़े रहा
स्वाभिमान की एक झीनी चादर
उसके स्वाभिमान ने
उसके सिद्धांत ने
बनाए रखा उसे तमाम उम्र कंगाल
और छीन लिया मुझसे
मेरा अमूल्य बचपन
मेरी मां का यौवन
मेरी मां सहेजती रही
उस चित्रकार को
पत्नी की तरह ही नहीं
एक मां की तरह भी
एक संरक्षक की तरह भी
उसे खींचती रही
मौत के मुंह से
सावित्री की तरह
फिर भी वह चला गया
ख़ून थूकता हुआ
मां को विधवा और मुझे अनाथ करके
बेशक वह था एक महान चित्रकार
एक बेहद प्यार करने वाला पति
एक ख़ूब लाड़-दुलार करने वाला पिता
लेकिन वह चित्रकार था
एक असामाजिक प्राणी भी
समाज से पूरी तरह कटा हुआ
आदर्शों और कल्पनाओं की दुनिया में
जीने वाला चित्रकार
कभी न समझौते न करने वाला ज़िद्दी कलाकार
लेकिन जब वह बिस्तर पर पड़ा
भरभरा कर गिर पड़ीं सभी मान्यताएं
बिखर गए तमाम मूल्य
अंतत दया का पात्र बनकर
गया वह इस दुनिया से
उसके भयावह अंत ने
ख़ून से सनी मौत ने
हिलाकर रख दिया बहुत अंदर से मुझे
नफ़रत सी हो गई मुझे
दुनिया के सभी चित्रकारों से
मेरे अंदर आज भी
जल रही एक आग
जब मैं देखती हूं अपनी मां को
ताकती हूं उसकी आंखों में
तब और तेज़ी से उठती हैं
आग की लपटें
पूरी ताक़त लगाती हूं मैं
ख़ुद को क़ाबू में रखने के लिए
ख़ुद को सहज बनाने में
इसीलिए
तुमसे प्यार करने के बावजूद
तुम्हारे साथ
परिणय-सूत्र में नहीं बंध सकती मैं
जो जीवन जिया है मेरी मां ने
एक महान चित्रकार की पत्नी ने
मैं नहीं करना चाहती उसकी पुनरावृत्ति
तुम्हारी जीवनसंगिनी बनकर
नहीं दे पाऊंगी तुम्हें
एक पत्नी सा प्यार
इसलिए मुझे माफ़ करना
हे अद्वितीय चित्रकार
हरिगोविंद विश्वकर्मा
धीर-गंभीर और संवेदनशील
दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने वाले
बहुत कुछ मेरे पापा की तरह
तुम्हारे पास है बहुत आकर्षक नौकरी
कोई भी युवती सौभाग्य समझेगी अपना
तुम्हारी जीवन-संगिनी बनने में
मैं भी अपवाद नही हूं
तभी तो
अच्छा लगता है मुझे सान्निध्य तुम्हारा
इसे प्यार कह सकते हो तुम
हां तुममें जो पुरूष है
उससे प्यार करने लगी हूं मैं
स्वीकार नहीं कर पा रही हूं
फिर भी परिणय प्रस्ताव तुम्हारा
तुम एक चित्रकार हो
और मैं चित्रकार की बेटी
तुम्हारे अंदर देखती हूं मैं
अपने चित्रकार पापा को
एक ऐसा इंसान
जो पूरी ज़िंदगी रहा
दीन-हीन और पराजित
अपराधबोध से ग्रस्त
अपनी बेटी-पत्नी से डरता हुआ
पैसे-पैसे के लिए संघर्ष करता हुआ
हारता हुआ ज़िंदगी के हर मोर्चे पर
तमाम उम्र जो ओढ़े रहा
स्वाभिमान की एक झीनी चादर
उसके स्वाभिमान ने
उसके सिद्धांत ने
बनाए रखा उसे तमाम उम्र कंगाल
और छीन लिया मुझसे
मेरा अमूल्य बचपन
मेरी मां का यौवन
मेरी मां सहेजती रही
उस चित्रकार को
पत्नी की तरह ही नहीं
एक मां की तरह भी
एक संरक्षक की तरह भी
उसे खींचती रही
मौत के मुंह से
सावित्री की तरह
फिर भी वह चला गया
ख़ून थूकता हुआ
मां को विधवा और मुझे अनाथ करके
बेशक वह था एक महान चित्रकार
एक बेहद प्यार करने वाला पति
एक ख़ूब लाड़-दुलार करने वाला पिता
लेकिन वह चित्रकार था
एक असामाजिक प्राणी भी
समाज से पूरी तरह कटा हुआ
आदर्शों और कल्पनाओं की दुनिया में
जीने वाला चित्रकार
कभी न समझौते न करने वाला ज़िद्दी कलाकार
लेकिन जब वह बिस्तर पर पड़ा
भरभरा कर गिर पड़ीं सभी मान्यताएं
बिखर गए तमाम मूल्य
अंतत दया का पात्र बनकर
गया वह इस दुनिया से
उसके भयावह अंत ने
ख़ून से सनी मौत ने
हिलाकर रख दिया बहुत अंदर से मुझे
नफ़रत सी हो गई मुझे
दुनिया के सभी चित्रकारों से
मेरे अंदर आज भी
जल रही एक आग
जब मैं देखती हूं अपनी मां को
ताकती हूं उसकी आंखों में
तब और तेज़ी से उठती हैं
आग की लपटें
पूरी ताक़त लगाती हूं मैं
ख़ुद को क़ाबू में रखने के लिए
ख़ुद को सहज बनाने में
इसीलिए
तुमसे प्यार करने के बावजूद
तुम्हारे साथ
परिणय-सूत्र में नहीं बंध सकती मैं
जो जीवन जिया है मेरी मां ने
एक महान चित्रकार की पत्नी ने
मैं नहीं करना चाहती उसकी पुनरावृत्ति
तुम्हारी जीवनसंगिनी बनकर
नहीं दे पाऊंगी तुम्हें
एक पत्नी सा प्यार
इसलिए मुझे माफ़ करना
हे अद्वितीय चित्रकार
हरिगोविंद विश्वकर्मा
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