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सोमवार, 12 जुलाई 2010

ग़ज़ल - जिंदगी भर

जोड़-घटाने में उलझे रहे जिंदगी भर
सौदा घाटे का करते रहे जिंदगी भर

एक गुनाह की बड़ी कीमत चुकाई
खुद से ही डरते रहे जिंदगी भर

दुनिया के सामने आखिर आ ही गया
जिस राज को छिपाते रहे जिंदगी भर

कामयाबियों के नाम पर शिफर ही रहे
न मालूम क्या करते रहे जिंदगी भर

दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका
जिस शख्स से चिपके रहे जिंदगी भर

कलियुग का मतलब जान नहीं पाए
सतयुग का भ्रम पाले रहे जिंदगी भर

झूठ बोलने का साहस कभी न हुआ
सच से भी कतराते रहे जिंदगी भर

खुद रोने लगते थे कहीं देखकर आंसू
बस आंसू ही बहाते रहे जिंदगी भर

दिल को हमेशा दिमाग से ऊपर रखा
भावनाओं में बहते रहे जिंदगी भर

आखिर देखने भी नहीं आया वह शख्स
जिसका इंतजार करते रहे जिंदगी भर

हरिगोविंद विश्वकर्मा

1 टिप्पणी:

संगीता पुरी ने कहा…

आखिर देखने भी नहीं आया वह शख्स
जिसका इंतजार करते रहे जिंदगी भर

बहुत खूब !!