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रविवार, 31 अगस्त 2014

स्मरणः सचमुच बहुत कठिन होता है सोनिया से मिलना

कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके सांसद जगदंबिका पाल सिंह सही कह रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलना सचमुच बहुत कठिन होता है। चंद लोगों को छोड़कर आम कांग्रेसियों से भी वह बमुश्किल ही मिल पाती हैं। 

1999 की गर्मियों में जब शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर काग्रेस से बग़ावत की थी, तब कांग्रेस संकट में थी। उस समय मैंने भी सोनिया गांधी से मिलने की कोशिश की थी। दरअसल, मैं सोनिया का इंटरव्यू लेना चाहता था। सो मिलने की हिमाकत की। हालांकि तब मेरे जैसे छोटे से पत्रकार के लिए यह असंभव सा कार्य था, फिर भी मैंने मिलने को ठान लिया था।

बहुत कोशिश के बाद मिला तो, 
लेकिन अंततः उनका औपचारिक इंटरव्यू नहीं मिल सका। दरअसल, रिपोर्टिंग के दौरान मैं हर जगह अपना सूत्र बना लेता था। 10 जनपथ में भी एक सूत्र बना लिया था। अपने उस सूत्र के ज़रिए कई दिन लगातार फ़ील्डिंग करता रहा। जब सूत्र बोलता था, तब फोन करता था। क़रीब 10 दिन की अनवरत मेहनत के बाद मौक़ा मिल ही गया। 27 या 28 मई 1999 की शाम थी वह। सूत्र ने कहा था कि 4 बजे 10 जनपथ के मेन गेट पर पहुंच जाना। मैं निर्धारित समयसे पहले ही गेट पर पहुंच गया। वहां तैनात गार्डों को बताया कि मुझे सोनिया गांधी से मिलना है। सब के सब हंसने लगे। वे लोग हैरानी से मुझे देखने लगे, क्योंकि तब जो भी सोनिया से मिलने आते थे, सब वीआईपी टाइप लोग होते थे और बहुत महंगी कार में सवार होकर आते थे। उनके पास मोबाइल फोन होते थे। तब मोबाइल स्टैटस सिंबल के रूप में भारत में आ चुका था, लेकिन मेरे पास न तो मोबाइल था, न ही कार थी। महंगी कार की बजाय, मैं डीटीसी की बस से उतर कर पैदल ही 10 जनपथ के गेट तक गया था। मुझे पैदल आते गार्डों ने भी देख लिया था। 

बहरहाल, मेरे दोबारा आग्रह पर 
गोर्डों ने मुलाकातियों की सूची देखी तो उसमें मेरा भी नाम था।

अपना नाम सूची में देखकर मुझे विश्वास हो गया कि आज मैडम से मुलाक़ात हो जाएगी। वरना अपने सूत्र पर भी बहुत भरोसा नहीं था मुझे। इसके बावजूद गार्डों ने मुझे गोट पर ही रोक कर रखा। शाम शार्प 4 बजे मुझे अंदर जाने की इजाज़त मिली। गेट के अंदर जाने वाला मैं इकलौता विजिटर था। 

गेट की सुरक्षा केबिन में मेरी बहुत ही सघन तलाशी हुई थी। मेरी बॉलपेन तक को भी बहुत बारीक़ी से चेक किया गया था। शायद उनको लगा होगा कि कहीं मेरे पास कोई कैप्सूल बम तो नहीं है। खैर, जब अंदर प्रवेश किया तो, कैंपस में एक बहुत बड़ा लॉन नज़र आया। बंगले के कोई 50 मीटर पहले वहीं मुझे रुककर इंतज़ार करने को कहा गया। मैं रुक कर इंतज़ार करने लगा।

मैंने देखा कि दिल्ली कांग्रेस के बहुत बड़े-बड़े नेता लॉन में इंतज़ार कर रहे हैं। मैंने दाढ़ी के कारण सज्जन कुमार को पहचान लिया। दूसरे किसी नेता को पहचान नहीं सका। बहरहाल, 20 मिनट इंतज़ार करने के बाद मैंने देखा कि सुरक्षा गार्डों से घिरी सोनिया गांधी आ रही थीं। उनके साथ उनके निजी सहायक विंस्टन जार्ज और कांग्रेस नेता (जिन्हे मैंने बाद में पहचान सका) इमरान किदवई भी थे, हालांकि तब मैं दोनों को पहचानता नहीं था। 

वहां मौजूद सभी लोग अचानक एक लाइन से खड़े हो गए। कांग्रेस के लोग भी उसी क़तार में खड़े हो गए। मुझे उस समय यह हैरानी हुई कि कांग्रेस के लोग भी मैडम से इस तरह मिलते हैं, क्योंकि तब तक मैं सोचता था कि कांग्रेस के धुरंधर नेता उनसे अकेले मिलते होंगे।

बहरहाल, सोनिया गांधी मेरी बाईं ओर से लोगों से मिलते हुए आ रही थीं। विंस्टन जार्ज और इमरान किदवई के अलावा पांच सुरक्षा गार्ड (कमांडो) भी थे। दो सुरक्षा गार्ड सोनिया गांधी के साथ थे, जबकि दो कमांडो खड़े लोगों के पीछे चल रहे थे। इसके अलावा एक सुरक्षा गार्ड पंक्ति में खड़े लोगों के पीछे पीछे क़रीब से फ़लो कर रहा था। एक कैमरामैन भी था जो हर मुलाक़ाती और सोनिया गांधी की फोटो खींच रहा था। 

क़तार में मुझसे ठीक पहले एक महिला खड़ी थी। शायद वह भी दिल्ली कांग्रेस की नेता थी। कम से कम वह शीला दीक्षित नहीं थीं। बहरहाल, जब सोनिया उसके पास पहुंचीं तो वह बहुत भावुक हो गई और फूट-फूटकर रोने लगी। दरअसल, बग़ावत के बाद सोनिया गांधी के प्रति कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बहुत अधिक सहानुभूति थी। कांग्रेसियों के अनुसार सोनिया गांधी ने भारतीय परंपरा को अपना लिया था और साड़ी का पल्लू बहू की तरह सिर पर रखती थीं, पर पवार, संगमा और तारिक के अलावा भाजपा के लोग भी उन्हें विदेशी कहते थे।

बहरहाल, सोनिया ने उस महिला को गले लगा लिया था। वह सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ बग़ावत से बहुत दुखी लग रही थी। तब सोनिया गांधी हिंदी नहीं बोल पाती थीं। लिहाज़ा, मैंने सुना कि वह अंग्रेज़ी में ही महिला को सांतवना दे रही हैं, लेकिन महिला थी कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सोनिया गांधी क़रीब 10 मिनट उसके पास खड़ी रहीं और ढांढस बंधाती रही। मुझे लगा वाक़ई सोनिया गांधी सच्ची भारतीय बहूं हैं, वरना वहां इतनी देर क्यों रुकतीं। मैंने सोनिया गांधी को भी भावुक होते देखा। 10 मिनट बाद सोनिया गांधी के चुप कराने पर वह महिला शांत हो गई। मुझे उसी समय लगा सोनिया गांधी नेता चाहे जैसी हो, बहुत अच्छी महिला हैं, भावुक किस्म की महिला, जिसमें इंसानिया भरा है।.

मैं भी बेसब्री से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। बहरहाल जब वह मेरे पास पहुंची तो मैंने बहुत साहस करके पूछ ही लिया. “मैंडम, विल यू विकम द प्राइम मिनिस्टर, इफ गेट मेज़ारिटी इन द इलेक्शन? वीकॉज दं पीपुल ऑफ इंडिया सी यू एज अ बहू, डाटर-इन-लॉ।" 

जैसे ही मैंने यह सवाल किया सब लोग टेंशन में आ गए। मैं ख़ुद बहुत टेंशन में था। पसीना छूट रहा था।

सोनिया गांधी हैरान होकर कुछ सेकेंड मुझे देखती रहीं। शायद वह जानने की कोशिश कर रही थीं, कि मैं कौन हूं, जो उनसे इस तरह का सवाल पूछने की कोशिश की। 

क़रीब 20-25 सेकेंड बाद उन्होंने बहुत धीरे से “नो” कहा। 

मैं कुछ और सवाल पूछ पाता, उससे पहले ही उन्होंने इमरान किदवई को बुलाया और कहा, “आई नीड सच पीपल, जस्ट टाक टू हिम ऐंड इफ़ ही इज़ इंटरेस्टेड आस्क हिम टू वर्क फ़ॉर पार्टी।” 

इमरान किदवई ने मुझसे कहा कि आप मैडम से अलग से मिल लीजिएगा। अभी मैडम को लोगों से मिलने दीजिए।

उसी दौरान फोटोग्राफर ने सोनिया गांधी से मिलते हुए मेरी फोटो भी खींची। बहरहाल, एक मिनट और कुछ सेकेंड की उस मुलाकात के बाद सोनिया गांधी आगे बढ़ गईं।

मज़ेदार बात यह रही कि जब में सोनिया गांधी से बात कर रहा था, तो पीछे के गार्ड ने आहिस्ता से मेरी पैंट की बेल्ट पीछे से पकड़ ली थी, ताकि मैं सोनिया गांधी की ओर और अधिक न बढ़ सकूं।

बहरहाल, मुलाक़ात करने वाले 30-35 लोग थे। सबसे मिलने में शाम के सवा छह बज गए। जब मुलाक़ात का दौर ख़त्म हो गया तो सोनिया गांधी अंदर चली गईं। जाते समय उन्होंने इमरान किदवई को शायद मुझसे मिलने को कहा, क्योंकि सोनिया गांधी के अंदर जाते के फ़ौरन बाद फिर इमरान किदवई मेरे पास आ गए।

मुझसे बिना कुछ पूछे ही उन्होंने कहा, "आप कल 24 अकबर रोड (कांग्रेस मुख्यालय) आइए. आपसे बात करनी है।" 

उस समय मुझे लगा, वाकई सोनिया गांधी का इंटरव्यू मिल जाएगा। मैं बहुत उत्साहित और रोमांचित था।

सो दूसरे दिन 24 अकबर रोड पहुंच गया। वहां तो बहुत अधिक इंतज़ार करवाने के बाद इमरान मुझसे मिले और मुझे जनार्दन द्विवेदी से मिलने को कहा। मुझे सोनिया गांधी का इंटरव्यू चाहिए था, सो जनार्दन द्विवेदी के पास गया। कहा जाता है कि उन दिनों वह सोनिया गांधी का भाषण लिखा करते थे। वह मुझसे नहीं मिले। अपने सहायक से दूसरे दिन आने को कहलवा दिया। मैं दूसरे दिन भी गया पर वह नहीं मिले। उनके सहायक ने अगले दिन आने को कहा। पांच बार टालने के बाद आख़िरकार वह मुझसे मिले ज़रूर, लेकिन बहुत अनिच्छा के साथ। उस समय मुझे साफ़ लगा कि सोनिया गांधी का इंटरव्यू नहीं मिल सकता, क्योंकि उनके आसपास चमचों का बहुत स्ट्रांग घेरा होता है।

लिहाज़ा, मैंने व्यर्थ का चक्कर लगाना छोड़ दिया। क़रीब दो साल तक मैं दिल्ली में रहा। इस दौरान दिल्ली की हर प्रमुख शख़्सियत चाहे वह साहित्यकार हो, पत्रकार हो, कलाकार हो या राजनेता हो, से मिला। कमलेश्वर से मिलने उनके बंगले पर पहुंच गया। बहुत प्रेम से मिले और अपने बैठक में बिठाया और शरबत पिलाया। अटलबिहारी वाजपेयी तब प्रधानमंत्री थे, मैं उनसे मिलने 7 रेसकोर्स पहुंच गया। उनसे संक्षिप्त मुलाक़ात हुई। उन्हें एक पत्र दिया। बाद में पीएमओ से उस पत्र का जबाव आया, लेकिन कार्रवाई कुछ नहीं हुई। उसी दौरान तब शरद पवार, वीवी सिंह, कांशीराम समेत क़रीब-क़रीब सभी शीर्ष नेताओं से उनके बंगलों पर मिला। कई लोगों से मिल भी नहीं पाया, लेकिन कोशिश सबसे मिलने की की। 

वयोवृद्ध सीताराम केसरी तो मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे। उनके निजी सहायक नन्हकी और टेलीफोन ऑपरेटर शिवजी और बंगले के सभी कर्मचारियों से घनिष्ठ रिश्ता सा बन गया था। केसरी के यहां से मेरे कार्यालय में अकसर फोन आता था। उसी दौरान मेरे सीनियर पत्रकार अनिल ठाकुर जी को केसरी का एक इंटरव्यू चाहिए था, पर केसरी किसी को इंटरव्यू नहीं देते थे। तो अनिल जी का इंटरव्यू मैंने ही किया। जिसका मुझे 400 रुपए पारिश्रमिक मिला। 

मगर दुर्भाग्य से तंगी के उस दौर में 400 रुपए पर डीटीसी बस में किसी पाकेटमारों ने हाथ साफ़ कर दिया. बहरहाल, जब केसरी बीमार होकर एम्स में भर्ती हुए तो मुझे अख़बार पढ़कर सुनाने के लिए बुलावाते थे। वह बमुश्किल उठ पाते थे। केसरी के पुराना किला रोड के बंगले पर मेरी कई कांग्रेस नेताओं से मुलाकात हुई, जिनमें स्वर्गीय माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट भी थे। विलासराव देशमुख भी केसरी से मिलने उनके बंगले पर आते थे। सिंधिया केसरी को बहुत मानते थे क्योंकि नरसिंह राव के समय कांग्रेस छोड़ने के बाद केसरी ही उन्हें और विलासराव देशमुख को वापस कांग्रेस में लेकर आए थे।

इन लोगों से मेरी पुराना किला वाले बंगले पर कई मुलाक़ात हुई, क्योंकि मैं केसरी के बंगले पर अक्सर चला जाता था। वह लोगों की बड़ी मदद करते थे। केसरी के बंगले पर कई बहुत ही बड़े पत्रकारों को भी आते मैं देखता था। कई लोगों को देखकर मुझे हैरानी भी होती थी। बहरहाल, उन्हीं दिनों अचानक घर से फोन आने पर वापस मुंबई चला आया। मुंबई में उसी साल यूएनआई में नौकरी मिल गई और फिर कभी दिल्ली गया ही नहीं।

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