हरिगोविंद विश्वकर्मा
लोकसभा सदस्य असदुद्दीन ओवैसी और उनके फ़ायरब्रांड भाई विधायक अकबरूद्दीन की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन को अल्पसंख्यक समाज से मिल रहे बड़े जनसमर्थन से भारतीय जनता पार्टी का तो नहीं, सेक्यूलरिज़्म यानी की धर्मनिरपेक्षता का झंडा लेकर चलने वाले समाजवादी पार्टी और जनता दल यूनाइटेड जैसे दलों के नेताओं का बल्डप्रेशर ज़रूर बढ़ रहा है।
88 साल पुरानी इस पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव में मैदान में उतरने का फ़ैसला किया है। मुबंई समेत समूचे महाराष्ट्र में मुलायम सिंह यादव की पार्टी का सफ़ाया करने वाली एमआईएम के बिहार (उत्तर भारत) का रुख करने पर राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि क्या असद-अकबर की जोड़ी देश में सेक्यूलरिज़्म की सियासत ख़त्म कर देंगी? कहा जा रहा है कि एमआईएम मुलायम, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी के लिए सबसे ज़्यादा ख़तरा बन रही है।
ओवैसी ने कहा है कि पार्टी बिहार के सीमांचल क्षेत्र के मुस्लिम बाहुल्य अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार में उम्मीदवार उतारेगी। हालांकि सीटों की संख्या का अभी खुलासा नहीं किया है। अख़्तर इमाम को बिहार में पार्टी का अध्यक्ष भी नियुक्त करते हुए ओवैसी ने राज्य के पिछड़ेपन के लिए कांग्रेस, नीतीश कुमार और अन्य दूसरी पार्टियों को ज़िम्मेदार ठहराया। नीतीश के ख़िलाफ़ उनके बयान से साफ़ है, वे चुनाव में उनका जमकर विरोध करेंगे।
दरअसल, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र और बिहार के बाद असद के एजेंडे में उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे राज्य हैं, जहां साल-दो साल में विधानसभा चुनाव होंगे। इन राज्यों में मुस्लिम मतदाता ही सेक्यूलर दलों के भाग्य का फ़ैसला करते रहे हैं। वैसे मतदाता जिस तरह से अकबर के भड़काने वाले और नफ़रत भरे भाषणों के दीवाने हो रहे हैं, उससे सेक्यूलर पार्टियों की चिंता बढ़ना लाज़िमी है। राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि आने वाला समय धर्मनिरपेक्षता के नज़रिए से कोई सुखद संकेत नहीं दे रहा है। कह सकते हैं, अच्छे दिन नहीं, बहुत बुरे दिनों की दस्तक हो रही है। अपने को सेक्यूलर कहने वाले नेता अप्रासंगिक हो रहे हैं। इसका सीधा फ़ायदा बीजेपी और एमआईएम को मिल रहा है।
राजनीति पर नज़र रखने वालों का मानना है कि एमआईएम को हैदराबाद की क्षेत्रीय पार्टी कहकर ख़ारिज़ करना बड़ी भूल होगी। इसने कर्नाटक और महाराष्ट्र में बेस बना लिया है। पार्टी अब उत्तर भारत में पांव फैला रही है। बिहार में एसेंबली चुनाव लड़ना उसी रणनीति का हिस्सा है। संभावना भी जताई जा रही है कि बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे राज्यों में अल्पसंख्यकों का एक बहुत बड़ा वोटबैंक एमआईएम से जुड़ सकता है। मुलायम यादवों और मुस्लिम वोटों के दम पर ही अपने परिवार को देश का सबसे ताक़तवर परिवार बनाते हुए शासन कर रहे हैं।
अगर यूपी में उनसे मुस्लिम वोटबैंक खिसका तो निश्चित तौर पर बाप-बेटे का राजनीतिक कॅरियर ख़त्म हो सकता है, क्योंकि असदुद्दीन ऐसा मुंबई में कर चुके हैं। कुछ महीने पहले मुंबई के बांद्रा पूर्व सीट पर उपचुनाव एवं औरंगाबाद कॉरपोरेशन इलेक्शन में एमआईएम ने ख़ूब वोट बटोरे। बांद्रा में पार्टी ज़रूर तीसरे नंबर पर रही, परंतु औरंगाबाद कॉरपोरेशन में 25 सीट जीत ली। इससे पहले 2012 में मराठवाड़ा की नांदेड़ नगरपालिका में इसके 12 नगरसेवक चुने गए थे। विदेश में शिक्षा ग्रहण करने वाले ओवैसी बंधु महाराष्ट्र एसेंबली इलेक्शन में भी सक्रिय रहे। अकबर ने तो तूफानी प्रचार किया था।
मुंबई, ठाणे के मुंब्रा, औरंगाबाद, नांदेड और परभणी में उनकी चुनावी सभाओं में बहुत भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी। ईसाई महिला से निकाह करने के बावजूद 44 साल के अकबर हिंदुओं के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक बयान देने के लिए जाने जाते हैं। कुछ साल पहले हैदराबाद में हिंदुओं के ख़िलाफ़ दिया गया उनका ख़तरनाक बयान यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। जो भी सुनता है, सन्न रह जाता है। यक़ीन नहीं होता कि दूसरे मजहब के ख़िलाफ़ किसी के मन में इतनी नफ़रत भरी है। ख़ासकर धर्मनिरपेक्ष संविधान पर चलने वाले भारत जैसे देश में।
इतिहास गवाह है, किसी क़ौम विशेष के ख़िलाफ़ इतना ज़हर कभी किसी नेता ने नहीं उगला था। यहां तक कि मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना या अली बंधु ने भी कभी खुले मंच से कुछ नहीं कहा था। इतिहासकारों के मुताबिक़ सन् 1946 में विभाजन से ठीक पहले मुस्लिम लीग ने ऐक्शन प्लान ज़रूर चलाया था, लेकिन गुप्त रूप से। बहरहाल, अकबर की उस बयान के कारण ही गिरफ़्तारी भी हुई थी और काफ़ी जद्दोजहद के बाद ज़मानत मिली थी। जेल से बाहर आते ही वह मुसलमानों, ख़ासकर युवाओं के सुपरहीरो बन गए।
बुद्धिजीवी तबक़े का मानना है कि नफ़रत भरे बयानों के लिए मुस्लिम समाज द्वारा अकबर की भर्त्सना होनी चाहिए थी, उनका बहिष्कार होना चाहिए था। जैसे गैर-मराठियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वाले राज ठाकरे को मराठी समाज ने ही चुनाव में रिजेक्ट कर दिया। लेकिन अकबर को भारी समर्थन मिल रहा है। अब तो कई बुद्धिजीवी और सेक्यूलर पत्रकार भी एमआईएम के टिकट की आस लगा बैठे हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि वोटर्स अकबर के नफ़रत भरे बयान का वोटों के ज़रिए स्वागत कर रहे हैं।
महाराष्ट्र में वोटरों के समर्थन का असर था कि एमआईएम को राज्य की एसेंबली में एंट्री मिल गई। पार्टी ने मुंबई की 14 सीटों समेत राज्य में कुल 24 उम्मीदवार खड़े किए थे। जिनमें एनडीटीवी के पुणे पूर्व संवाददाता इम्तियाज जलील (औरंगाबाद पश्चिम) और वारिस यूसुफ पठान (भायखला) जीतने में सफल रहे। तीन सीटों पर एमआईएम दूसरे नंबर पर रही और नौ साटों पर तीसरे स्थान पर। बाक़ी दस सीटों पर भी पार्टी को भरपूर वोट मिले। सबसे अहम, किसी भी एमआईएम उम्मीदवार की ज़मानत जब्त नहीं हुई। यह सेक्यूलर दलों को हैरान करने वाला डेटा है। महाराष्ट्र में कांग्रेस की नैया डुबोने में इस डेटा का बहुत बड़ा योगदान रहा।
बहरहाल, अकबर की सियासत को जिस तरह पसंद किया जा रहा है, वह ख़तरनाक संकेत हैं। एमआईएम का उदय दर्शाता है कि कांग्रेस से मुंह मोड़ चुके वोटर आने वाले दिनों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनतादल यूनाइटेड या तृणमूल कांग्रेस को वोट नहीं देंगे। वे एमआईएम को वोट दें सकते हैं। तब इस देश का धर्म के आधार पर पूरी तरह ध्रुवीकरण हो सकता है।
मतलब, सेक्यूलरिज़्म की राजनीति करने वाले तेज़ी से हाशिए पर जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, सेक्यूलर लोग संघ परिवार, बीजेपी या नरेंद्र मोदी को जितनी गाली देते हैं, संघ और मोदी उतना ही फ़ायदा मिलता है। गुजरात दंगों के बाद सेक्यूलर नेता 12 साल तक हर मंच से मोदी को ‘हत्यारा मोदी’ कहते रहे। इसकी परिणति 2014 के आम चुनाव में मोदी और बीजेपी के लिए 282 सीट के बहुमत के रूप में हुई।
अगर एमआईएम के इतिहास की बात करें तो इसकी स्थापना नवाब महमूद नवाज़ ख़ान क़िलेदार ने 1927 में की थी। एमआईएम के नेता भारत से अलग होने वाले मोहम्मद अली जिन्ना और अली बंधुओं के खेमे में थे। विभाजन के लिए दबाव बनाने के लिए इन लोगों ने 1928 में मुस्लिम लीग से गठबंधन भी किया था।
1944 में नवाब की मौत के बाद निज़ाम के पैरोकार एडवोकेट क़ासिम रिज़वी एमआईएम के अध्यक्ष बने थे। वह भी हैदराबाद स्टेट के भारत में विलय के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भारत के ख़िलाफ़ संघर्ष भी छेड़ दिया था। उनके राष्ट्रविरोधी कार्य को रोकने के लिए सेना को हैदराबाद में ऑपरेशन पोलो शुरू करना पड़ा था। सरदार बल्लभभाई पटेल ने एमआईएम पर प्रतिबंध लगाने के बाद रिज़वी को नज़रबंद करवा दिया। नौ साल बाद उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया था कि चुपचाप सीधे पाकिस्तान चले जाएंगे। रिज़वी पार्टी की ज़िम्मेदारी अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंपकर पाकिस्तान चले भी गए थे। अब्दुल ओवैसी के बाद एमआईएम की कमान उनके बेटे सुल्तान सलाउद्दीन ओवैसी ने संभाली और वह लोकसभा के लिए भी चुने गए। असद और अकबर सुल्तान के ही पुत्र हैं।
यह संयोग ही है कि 1928 में एमआईएम ने विभाजन के मुद्दे पर मुस्लिम लीग का साथ दिया था। 20वीं सदी के आरंभ में माहौल ऐसा ही था। दरअसल, अंग्रेज़ों ने बंग-भंग के ज़रिए अलगाववाद का पौधा 1906 में रोपा था और उसी समय 1906 में जनाब सैयद अहमद ख़ान ने मुस्लिम लीग की स्थापना की थी। महज 41 साल की उम्र में मुस्लिम लीग ने देश का धर्म के आधार पर विभाजन करवा दिया। लिहाज़ा, देश के व्यापक हित में राष्ट्रवादियों को एमआईएम की राजनीति से सावधान रहने की ज़रूरत है।
लोकसभा सदस्य असदुद्दीन ओवैसी और उनके फ़ायरब्रांड भाई विधायक अकबरूद्दीन की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन को अल्पसंख्यक समाज से मिल रहे बड़े जनसमर्थन से भारतीय जनता पार्टी का तो नहीं, सेक्यूलरिज़्म यानी की धर्मनिरपेक्षता का झंडा लेकर चलने वाले समाजवादी पार्टी और जनता दल यूनाइटेड जैसे दलों के नेताओं का बल्डप्रेशर ज़रूर बढ़ रहा है।
88 साल पुरानी इस पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव में मैदान में उतरने का फ़ैसला किया है। मुबंई समेत समूचे महाराष्ट्र में मुलायम सिंह यादव की पार्टी का सफ़ाया करने वाली एमआईएम के बिहार (उत्तर भारत) का रुख करने पर राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि क्या असद-अकबर की जोड़ी देश में सेक्यूलरिज़्म की सियासत ख़त्म कर देंगी? कहा जा रहा है कि एमआईएम मुलायम, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी के लिए सबसे ज़्यादा ख़तरा बन रही है।
ओवैसी ने कहा है कि पार्टी बिहार के सीमांचल क्षेत्र के मुस्लिम बाहुल्य अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार में उम्मीदवार उतारेगी। हालांकि सीटों की संख्या का अभी खुलासा नहीं किया है। अख़्तर इमाम को बिहार में पार्टी का अध्यक्ष भी नियुक्त करते हुए ओवैसी ने राज्य के पिछड़ेपन के लिए कांग्रेस, नीतीश कुमार और अन्य दूसरी पार्टियों को ज़िम्मेदार ठहराया। नीतीश के ख़िलाफ़ उनके बयान से साफ़ है, वे चुनाव में उनका जमकर विरोध करेंगे।
दरअसल, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र और बिहार के बाद असद के एजेंडे में उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे राज्य हैं, जहां साल-दो साल में विधानसभा चुनाव होंगे। इन राज्यों में मुस्लिम मतदाता ही सेक्यूलर दलों के भाग्य का फ़ैसला करते रहे हैं। वैसे मतदाता जिस तरह से अकबर के भड़काने वाले और नफ़रत भरे भाषणों के दीवाने हो रहे हैं, उससे सेक्यूलर पार्टियों की चिंता बढ़ना लाज़िमी है। राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि आने वाला समय धर्मनिरपेक्षता के नज़रिए से कोई सुखद संकेत नहीं दे रहा है। कह सकते हैं, अच्छे दिन नहीं, बहुत बुरे दिनों की दस्तक हो रही है। अपने को सेक्यूलर कहने वाले नेता अप्रासंगिक हो रहे हैं। इसका सीधा फ़ायदा बीजेपी और एमआईएम को मिल रहा है।
राजनीति पर नज़र रखने वालों का मानना है कि एमआईएम को हैदराबाद की क्षेत्रीय पार्टी कहकर ख़ारिज़ करना बड़ी भूल होगी। इसने कर्नाटक और महाराष्ट्र में बेस बना लिया है। पार्टी अब उत्तर भारत में पांव फैला रही है। बिहार में एसेंबली चुनाव लड़ना उसी रणनीति का हिस्सा है। संभावना भी जताई जा रही है कि बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे राज्यों में अल्पसंख्यकों का एक बहुत बड़ा वोटबैंक एमआईएम से जुड़ सकता है। मुलायम यादवों और मुस्लिम वोटों के दम पर ही अपने परिवार को देश का सबसे ताक़तवर परिवार बनाते हुए शासन कर रहे हैं।
अगर यूपी में उनसे मुस्लिम वोटबैंक खिसका तो निश्चित तौर पर बाप-बेटे का राजनीतिक कॅरियर ख़त्म हो सकता है, क्योंकि असदुद्दीन ऐसा मुंबई में कर चुके हैं। कुछ महीने पहले मुंबई के बांद्रा पूर्व सीट पर उपचुनाव एवं औरंगाबाद कॉरपोरेशन इलेक्शन में एमआईएम ने ख़ूब वोट बटोरे। बांद्रा में पार्टी ज़रूर तीसरे नंबर पर रही, परंतु औरंगाबाद कॉरपोरेशन में 25 सीट जीत ली। इससे पहले 2012 में मराठवाड़ा की नांदेड़ नगरपालिका में इसके 12 नगरसेवक चुने गए थे। विदेश में शिक्षा ग्रहण करने वाले ओवैसी बंधु महाराष्ट्र एसेंबली इलेक्शन में भी सक्रिय रहे। अकबर ने तो तूफानी प्रचार किया था।
मुंबई, ठाणे के मुंब्रा, औरंगाबाद, नांदेड और परभणी में उनकी चुनावी सभाओं में बहुत भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी। ईसाई महिला से निकाह करने के बावजूद 44 साल के अकबर हिंदुओं के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक बयान देने के लिए जाने जाते हैं। कुछ साल पहले हैदराबाद में हिंदुओं के ख़िलाफ़ दिया गया उनका ख़तरनाक बयान यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। जो भी सुनता है, सन्न रह जाता है। यक़ीन नहीं होता कि दूसरे मजहब के ख़िलाफ़ किसी के मन में इतनी नफ़रत भरी है। ख़ासकर धर्मनिरपेक्ष संविधान पर चलने वाले भारत जैसे देश में।
इतिहास गवाह है, किसी क़ौम विशेष के ख़िलाफ़ इतना ज़हर कभी किसी नेता ने नहीं उगला था। यहां तक कि मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना या अली बंधु ने भी कभी खुले मंच से कुछ नहीं कहा था। इतिहासकारों के मुताबिक़ सन् 1946 में विभाजन से ठीक पहले मुस्लिम लीग ने ऐक्शन प्लान ज़रूर चलाया था, लेकिन गुप्त रूप से। बहरहाल, अकबर की उस बयान के कारण ही गिरफ़्तारी भी हुई थी और काफ़ी जद्दोजहद के बाद ज़मानत मिली थी। जेल से बाहर आते ही वह मुसलमानों, ख़ासकर युवाओं के सुपरहीरो बन गए।
बुद्धिजीवी तबक़े का मानना है कि नफ़रत भरे बयानों के लिए मुस्लिम समाज द्वारा अकबर की भर्त्सना होनी चाहिए थी, उनका बहिष्कार होना चाहिए था। जैसे गैर-मराठियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वाले राज ठाकरे को मराठी समाज ने ही चुनाव में रिजेक्ट कर दिया। लेकिन अकबर को भारी समर्थन मिल रहा है। अब तो कई बुद्धिजीवी और सेक्यूलर पत्रकार भी एमआईएम के टिकट की आस लगा बैठे हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि वोटर्स अकबर के नफ़रत भरे बयान का वोटों के ज़रिए स्वागत कर रहे हैं।
महाराष्ट्र में वोटरों के समर्थन का असर था कि एमआईएम को राज्य की एसेंबली में एंट्री मिल गई। पार्टी ने मुंबई की 14 सीटों समेत राज्य में कुल 24 उम्मीदवार खड़े किए थे। जिनमें एनडीटीवी के पुणे पूर्व संवाददाता इम्तियाज जलील (औरंगाबाद पश्चिम) और वारिस यूसुफ पठान (भायखला) जीतने में सफल रहे। तीन सीटों पर एमआईएम दूसरे नंबर पर रही और नौ साटों पर तीसरे स्थान पर। बाक़ी दस सीटों पर भी पार्टी को भरपूर वोट मिले। सबसे अहम, किसी भी एमआईएम उम्मीदवार की ज़मानत जब्त नहीं हुई। यह सेक्यूलर दलों को हैरान करने वाला डेटा है। महाराष्ट्र में कांग्रेस की नैया डुबोने में इस डेटा का बहुत बड़ा योगदान रहा।
बहरहाल, अकबर की सियासत को जिस तरह पसंद किया जा रहा है, वह ख़तरनाक संकेत हैं। एमआईएम का उदय दर्शाता है कि कांग्रेस से मुंह मोड़ चुके वोटर आने वाले दिनों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनतादल यूनाइटेड या तृणमूल कांग्रेस को वोट नहीं देंगे। वे एमआईएम को वोट दें सकते हैं। तब इस देश का धर्म के आधार पर पूरी तरह ध्रुवीकरण हो सकता है।
मतलब, सेक्यूलरिज़्म की राजनीति करने वाले तेज़ी से हाशिए पर जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, सेक्यूलर लोग संघ परिवार, बीजेपी या नरेंद्र मोदी को जितनी गाली देते हैं, संघ और मोदी उतना ही फ़ायदा मिलता है। गुजरात दंगों के बाद सेक्यूलर नेता 12 साल तक हर मंच से मोदी को ‘हत्यारा मोदी’ कहते रहे। इसकी परिणति 2014 के आम चुनाव में मोदी और बीजेपी के लिए 282 सीट के बहुमत के रूप में हुई।
अगर एमआईएम के इतिहास की बात करें तो इसकी स्थापना नवाब महमूद नवाज़ ख़ान क़िलेदार ने 1927 में की थी। एमआईएम के नेता भारत से अलग होने वाले मोहम्मद अली जिन्ना और अली बंधुओं के खेमे में थे। विभाजन के लिए दबाव बनाने के लिए इन लोगों ने 1928 में मुस्लिम लीग से गठबंधन भी किया था।
1944 में नवाब की मौत के बाद निज़ाम के पैरोकार एडवोकेट क़ासिम रिज़वी एमआईएम के अध्यक्ष बने थे। वह भी हैदराबाद स्टेट के भारत में विलय के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भारत के ख़िलाफ़ संघर्ष भी छेड़ दिया था। उनके राष्ट्रविरोधी कार्य को रोकने के लिए सेना को हैदराबाद में ऑपरेशन पोलो शुरू करना पड़ा था। सरदार बल्लभभाई पटेल ने एमआईएम पर प्रतिबंध लगाने के बाद रिज़वी को नज़रबंद करवा दिया। नौ साल बाद उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया था कि चुपचाप सीधे पाकिस्तान चले जाएंगे। रिज़वी पार्टी की ज़िम्मेदारी अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंपकर पाकिस्तान चले भी गए थे। अब्दुल ओवैसी के बाद एमआईएम की कमान उनके बेटे सुल्तान सलाउद्दीन ओवैसी ने संभाली और वह लोकसभा के लिए भी चुने गए। असद और अकबर सुल्तान के ही पुत्र हैं।
यह संयोग ही है कि 1928 में एमआईएम ने विभाजन के मुद्दे पर मुस्लिम लीग का साथ दिया था। 20वीं सदी के आरंभ में माहौल ऐसा ही था। दरअसल, अंग्रेज़ों ने बंग-भंग के ज़रिए अलगाववाद का पौधा 1906 में रोपा था और उसी समय 1906 में जनाब सैयद अहमद ख़ान ने मुस्लिम लीग की स्थापना की थी। महज 41 साल की उम्र में मुस्लिम लीग ने देश का धर्म के आधार पर विभाजन करवा दिया। लिहाज़ा, देश के व्यापक हित में राष्ट्रवादियों को एमआईएम की राजनीति से सावधान रहने की ज़रूरत है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें