हरिगोविंद विश्वकर्मा
2016 आख़िरकार बीत गया। साल के अंतिम 53 दिन बेहद संकट भरे रहे। संकट इतना
गहरा रहा कि पैसे होने के बावजूद मध्यम वर्ग पाई-पाई का मोहताज़ रहा। डिमोनिटाइज़ेशन
की घोषणा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने समर्थकों (जिन्हें मोदी विरोधी भक्त
कहते हैं) के हीरो बन गए, लेकिन अपने विरोधियों, ख़ासकर गैरदक्षिणपंथी विचारधारा
के लोगों के लिए मोदी विलेन बन गए। नोटबंदी की घोषणा के बाद मोदी समर्थकों के साथ
आम जनता को भी लगा कि कालधन रखने वालों के बुरे दिन आ गए, लेकिन जब धन्नासेठों के
पास नए नोटों की गड्डियां मिलने लगी तो लोगों का मोदी से मोहभंग होने लगा और लोग
मानने लगे कि आम आदमी को बेवकूफ बनाने के लिए यह योजना शुरू की गई।
कई लोगों ने और बहुसंख्यक जनता ने भी माना कि मोदी की नोटबंदी की योजना ठीक
थी, लेकिन बैंकवालों ने एक साज़िश के तहत इसे फेल कर दिया। इसीलिए देश में आजकल
बैंक और बैंक अधिकारी विलेन बने हुए हैं। ट्रेन हो, बस हो या फिर चाय की दुकान,
लोग बैंकवालों को ही कोस रहे हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी, बीजेपी और आरएसएस के
टिपिकल विरोधी इसे प्रधानमंत्री की नई चाल मान रहे हैं। उनके अनुसार नोटबंदी फेल
होने पर लोग मोदी को नहीं, बल्कि बैकों को गाली दे रहे हैं यानी मोदी के किए की
सज़ा भुगत रहे हैं बैंकवाले। दरअसल, बैंकों को लोग इसलिए भी कोस रहे हैं, क्योंकि
नोटबंदी के बाद जो भी रुपए वितरित हुए, उसे केवल बैंकों ने ही वितरित किया।
लिहाज़ा, लोगों को जो भी असुविधा हुई या हो रही है, उसके लिए सरकार से ज़्यादा
बैंकें ज़िम्मेदार हैं।
दरअसल, अतीत पर नज़र डाले तो भारत में बैंकों का कामकाज कभी भी चर्चा का विषय
नहीं रहा है। एकाध मामले को छोड़ दें, तो बैंकवाले आमतौर पर ऊपर से देखने में बहुत
ईमानदार माने जाते रहे हैं, जबकि यह सच नहीं है। सच तो यह है कि तमाम बैंक अफ़सरान
आम जनता के लिए बहुत सख़्त मालूम पड़ते हैं, लेकिन धन-कुबेरपतियों के सामने नरम हो
जाते हैं और बिना बारीक़ी से जांच पड़ताल किए करोड़ों रुपए का क़र्ज़ मंजूर करके ख़ूब
दरियादिली दिखाते हैं। इसके बावजूद इक्का-दुक्का केसेज़ को छोड़ दें तो बैंकवालों पर
सरकार या दूसरी एजेंसियों की नज़र नहीं के बराबर रहती है।
यही वजह है कि बेइमान धन्नासेठों से सांठगांठ करके बैंकवाले करोड़ों रुपए का
क़र्ज़ बांटते रहे हैं, जो दो चार साल बाद बैड लोन में तब्दील हो जाता है, लेकिन
इसके लिए किसी क़र्ज़दाता बैंक ने कभी क़र्ज़ मंजूर करने वाली शाखा के तत्कालीन
मैंनेजर को दोषी नहीं ठहराया। यहां तक कि ऐयाशी के लिए मशहूर विजय माल्या की
किंगफिशर एयरलाइंस के क़रीब 1201 करोड़ रुपए समेत 63 लोन डिफॉल्टर्स के 7000 (सात
हज़ार) करोड़ रुपए को बट्टे खाते (क़रीब-क़रीब माफ़ कर देना) में डालने के स्टेट
बैंक ऑफ इंडिया के फ़ैसले पर किसी ने सवाल नहीं उठाया। इतनी बड़ी रकम बट्टे खाते
में डालने पर एसबीआई के एक भी अधिकारी की नौकरी नहीं गई। यहां तक कि इन 63 लोगों
को लोन मंज़ूर करने वाले एसबीआई अफ़सरों से भी जवाब-तलब नहीं किया गया।
लब्बोलुआब यह कि परदे के पीछे काम करने के कारण बैंकवालों को पूरा भरोसा था कि
नोटबंदी के बाद भी वे जो कुछ करेंगे उस पर किसी एजेंसी की नज़र नहीं पड़ेगी।
लिहाज़ा, मौक़ा मिला है तो हाथ साफ़ कर लेने में कोई बुराई नहीं। लगता है, बैंकवालों
का यही अति आत्मविश्वास अब भारी पड़ रहा है। दरअसल, 8 नवंबर 2016 की शाम जब प्रधानमंत्री
ने 500/1000 की नोट बंद करने की घोषणा की तो जनता को लगा
बहुत अच्छा फ़ैसला है, लेकिन बैंकवाले उसी समय भांप गए कि बिना तैयारी के शुरू की
गई यह योजना देर-सबेर टांय-टांय फिस्स होने वाली ही है। सरकार ने इस योजना में
इतनी ज़्यादा बार संशोधन किया कि वाक़ई लगने लगा कि उसने इसे बिना तैयारी के शुरू
कर दिया था।
जो भी हो बैंकवालों ने नोटबंदी योजना के तमाम लूप होल्स को फ़ौरन पढ़ लिए। लिहाज़ा,
उन्होंने सोचा कि क्यों न इन लूप होल्स का फ़ायदा उठाकर अपने ख़ास लोगों का कल्याण
करते हुए उनके पुराने नोट (कालेधन) नई करेंसी में बदल दिए जाएं। जोड़-घटाने और
आंकड़बाजी में बेहद उस्ताद बैंकवालों ने कैलकुलेट कर लिया था कि अगर बांटने के लिए
रिज़र्व बैंक से मिली धनराशि जनता से पैनकार्ड लेकर अपने ख़ास लोगों को दे दी जाए
तो सरकार बिल्कुल भांप ही नहीं पाएंगी। न ही पकड़ पाएगी। इससे उनकी सेहत पर कोई
ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि इतने माइक्रो लेवल पर जांच पड़ताल करेगा कौन?
इसके बाद बैंक वालों ने वह खेल खेलना शुरू किया जो अब तक अरबपतियों के क़र्ज़
को बैडलोन में तब्दील होने को जस्टीफाई करने के लिए खेलते आ रहे हैं। इस बार खेल
था 500/1000 की पुरानी करेंसी को 2000 की नई करेंसी में
बदलने का। पूरे देश सोचता रहा कि बेचारे बैंकवाले बिना छुट्टी के दिन-रात काम कर
रहे हैं, जबकि बैंकवाले कैश बांटने की बजाय रसूखदार लोगों को नई करेंसी की गड्डी
की गड्डी पहुंचाने में लगे थे। पहले दो हफ़्ते नोटबंदी की आड़ में ब्लैक मनी हो
ह्वाइट करने का खेल बदस्तूर जारी रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि एक सीरीज़ के ढेर सारे
नोट कुछ चंद लोगों तक पहुंच गए।
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), इनकम टैक्स (आईटी)
और लोकल पुलिस द्वारा
देशव्यापी छापे मारकर जिस तरह से रसूखदार लोगों के पास से रोज़ाना करोड़ों
रुपए पकड़े जा रहे हैं। यानी जिस तरह दो हज़ार की नई करेंसी की गड्डियां और सोने
के भंडार ज़ब्त किए जाने की ख़बरें आ रही हैं। उससे ऐसा लगता है जैसे बैंकवालों ने
2000 रुपए की नई करेंसी का ज़्यादातर हिस्सा रातोंरात रसूखदार लोगों को दे डाला और
बेचारा आम आदमी लाइन में खड़ा अपनी बारी का इंतज़ार करता रह गया। नंबर आने पर उसे
कैश ख़त्म होने का बोर्ड देखने को मिला।
सरकार के निर्देश पर रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने कहा कि एक आदमी एक दिन में
केवल दो हज़ार रुपए एटीएम से निकाल पाएगा। यानी एक एटीएम कार्ड होल्डर एक दिन में
केवल 2000 रुपए (500 की नई नोट जारी होने के बाद 2500) की एक नोट पा सकता है। यानी
अगर एटीएम 24 घंटे चलता (जो हुआ नहीं) तब एक आदमी के पैसे निकालने में 2 मिनट जोड़
लें तो दिन भी में अधिकत 720 लोग 14 लाख 40 हज़ार रुपए निकाल सकते थे। इसी तरह चेक
के ज़रिए शेविंग अकाउंट से 10 हज़ार रुपए यानी 2000 की पांच नोट और करेंट अकाउंट
से 24 हज़ार रुपए यानी 2000 की 12 नोट ले सकते हैं, लेकिन यहां तो रसूखदार लोगों
के पास से एक-एक, दो-दो, तीन-तीन, चार-चार करोड़ नहीं बल्कि दस-दस और बीस-बीस
करोड़ रुपए मिल रहे हैं। एक सज्जन के पास तो 250 करोड़ रुपए की 2000 की गड्डियां
मिलीं, वह भी एक सीरियल की नोट यानी ये नोट एक ही बैंक से आए होंगे। इसका यह भी
मतलब है कि बैंकें आम आदमी को “पैसे नहीं हैं” कहकर बेरंग लौटा रही थीं और पैसे रसूखदार लोगों तक पहुंचा रही थीं।
सवाल यह है कि 2000 की एक नोट (एटीएम) या पांच नोट (शेविंग खाता) की बजाय
लोगों के पास गड्डी की गड्डी कैसे पहुंच गई। इसका क्या जवाब है, जो लोग बैंकवालों
को ईमानदार बता रहे हैं। जिस तरह से काला धन रोज़ाना पकड़ा जा रहा है, उसे
बैंकवाले कैंस करेंगे जस्टीफाई। ज़ाहिर है, भारतीय बैंकों ने देशवासियों ही नहीं
पूरे देश को धोखा दिया। चंद ईमानदार बैंक अफ़सरों व कर्मचारियों को स्वाभाविक तौर
पर बुरा लग सकता है, लेकिन इस कटु सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि नोटबंदी की
घोषणा और 2000 की नोट जारी किए जाने के बाद भारतीय बैंकों ने देश के साथ गद्दारी
की।
8 नवंबर के बाद बैंकों ने जो कुछ किया, उसकी गहन जांच-पड़ताल के लिए एक आयोग
यानी कमीशन बिठाने की ज़रूरत है और ज़ब्त की जा रही 2000 रुपए की गड्डियां जिस
बैंक से दी गई हों, उस बैंक के पूरे ब्रांच के सभी अधिकारियों-कर्मचारियों के
ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार ही नहीं, बल्कि देशद्रोह का भी मामला दर्ज करके उन पर मुक़दमा
चलाया जाना चाहिए और उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए, क्योंकि बैंक अफसरों
ने कैश धनराशि अगर रसूखदार लोगों को न देकर आम जनता में बांटा होता तो लोगों को
इतनी ज़्यादा असुविधा नहीं होती, जितनी हुई या अभी तक हो रही है। बैंकवालों को माफ़ नहीं किया जाना चाहिए।