हरिगोविंद विश्वकर्मा
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस
मनाकर महिलाओं को ख़ुश करने की कोशिश की जा रही है। दरअसल, जो हो रहा है, वह मुद्दे से ध्यान हटाने
की कवायद है। यह वैसी ही प्रैक्टिस है जैसे, कभी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तो कभी लोकसभा
अध्यक्ष पद पर किसी महिला को बिठाकर मान लेना कि नारी सशक्तिकरण यानी वूमैन
इम्पॉवरमेंट हो गया। दरअसल, जो लोग धूमधाम से महिला
दिवस मनाते हैं, उनमें ज़्यादातर लोग
महिलाओं का हक़ मारते हैं। चूंकि महिलाओं का हक़ मारना यानी उनके साथ पक्षपात एक
सामाजिक अपराध है, लिहाज़ा, उसी सामाजिक अपराध का प्रायश्चित करने के लिए ही पुरुष
प्रधान-समाज महिला दिवस मनाता है।
सवाल उठता है कि क्या सचमुच
समाज के पैरोकार महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के पक्षधर हैं, क्या सचमुच महिलाओं का उत्थान चाहते हैं। अगर हां, तो वे सभी प्रावधान किए जाएं जो सही मायने में स्त्री को
बराबरी के मुकाम तक पहुंचाते हैं। इस क्रम में सबसे ज़रूरी है कि पहले असली समस्या
को जानने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि, किसी को पता ही नहीं
कि असली समस्या क्या है। ज़ाहिर है मर्ज़ के नेचर का पता नहीं चलेगा तो दवा अंदाज़
से दी जाएगी, जिससे ठीक होने की बजाय
कभी-कभार मरीज़ की मौत तक हो जाती है।
अगर नेशनल क्राइम ब्यूरो के डेटा देश में नया पर गौर करें तो नया रेप क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद रेप की घटनाएं ज्यादा तेजी से बढ़ी हैं। सन् 2009, 2010, 2011 और 2012 में रेप के मामले क्रमशः 21,397, 22172, 24206 और 24923 तो 2013 में नया कानून बनने के बाद रेप के मामले ऊछलकर सन् 2013, 2014, 2015 और 2016 में 33707, 34098, 36,735 और 38,947 हो गया। इसका अर्थ है
डर्टी सोचवाले क़ानून से नहीं डरते। क़ानून कठोरतम यानी रेपिस्ट को पब्लिकली
ज़िंदा जलाने का भी बना दिया जाए। तब भी वे महिलाओं पर ज़ुल्म जारी रखेंगे। यानी
रेप समेत महिलाओं पर होने वाले ज़ुल्म क़ानून कठोर करके नहीं रोके जा सकते। दरअसल,
समाज ही असंतुलित और पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है और
ऐसे समाज में रेप नहीं रोका जा सकता, क्योंकि अपनी
जटिलताओं के चलते यह समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक बनाता है।
कठोर रेप लॉ के बावजूद
बढ़ती रेप की वारदातें साबित करती हैं कि क़ानून-निर्माता अब भी मूल समस्या समझ
पाने में नाकाम हैं। या तो उनकी सोच वहां तक पहुंच नहीं रही है कि समस्या
आइडेंटीफाई कर उसे हल करें या फिर वे इतने शातिर हैं कि समस्या हल ही नहीं करना
चाहते। यह भावना मे बहकर अनाप-शनाप बयान देने का वक़्त नहीं, बल्कि पता करने का वक़्त है कि रेप जैसे क्राइम रोके कैसे
जाएं। रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में आती है। अगर ऐसे प्रावधान हो जाएं कि
रेप जैसे अपराध हो ही न, तो दंड पर ज़्यादा दिमाग़
खपाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। सवाल उठता है कि आख़िर रेप जैसे जघन्य अपराध हो
ही क्यों रहे हैं। आख़िर क्यों औरत को अकेले या एकांत में देखकर चंद पुरुष अपना
विवेक, जो सही मायने में उन्हें इंसान बनाता है,
खो देते हैं और हैवान का रूप धारण कर लेते हैं? एक स्त्री जो हर किसी के लिए आदरणीय होनी चाहिए, माता-बहन के समान होनी चाहिए, आख़िर क्यों अविवेकी लोगों के लिए महज ‘भोग की वस्तु” बन जाती है?
दरअसल, महिलाओं की बहुत कम संख्या देखकर पुरुष उन्हें कमज़ोर मान
लेते हैं और मनमानी करने का दुस्साहस करने लगते हैं। महिलाओं पर होने वाले हर
ज़ुल्म के लिए समाज का मैल-डॉमिनेटेड ताना-बाना ही ज़िम्मेदार है। ऐसे समाज में
स्त्री पुरुष की बराबरी कर ही नहीं सकती, क्योंकि यह सेटअप
स्त्री को सेकेंड सेक्स का दर्जा देता है। सभ्यता के विकास के बाद जब से मौजूदा
समाज प्रचलन में आया, तब से स्त्री दोयम दर्जे की
ही नागरिक रही। बॉलीवुड अभिनेत्रियों या शहरों की लड़कियों को जींस-टीशर्ट या
स्कर्ट में देखकर कुछ क्षण के लिए ख़ुश हुआ जा सकता है कि महिलाएं पुरुषों की
बराबरी कर रही हैं लेकिन सच यह है कि स्त्री कभी पुरुष की बराबरी कर ही नहीं पाई।
यह सच स्त्रियों से बेहतर कौन समझ सकता है।
दरअसल, पुरुष-प्रधान मानसिकता ही स्त्री को बराबरी का दर्जा देने
भी नहीं देती। लिहाजा, ज़रूरत उन प्रावधानों पर
अमल करने की है जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक लाते हैं। इसके लिए
शुरुआत घर से करनी होगी। क्या लोग अपने घर में स्त्री या लड़कियों को बराबरी का
दर्जा देते हैं? क्या घर में बेटे-बेटी में
फ़र्क़ नहीं करते? विकसित परिवारों में स्त्री
के साथ खुला पक्षपात होता है, उसे एहसास दिलाया जाता है
कि दोयम दर्जे की नागरिक है। ऐसे में पिछड़े और दूर-दराज़ के समाज में स्त्री की
क्या पोज़िशन होती होगी, सहज समझा जा सकता है।
पुरुष-प्रधान संसद और
विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण मिलेगा,
अब इसकी संभावना नहीं के बराबर है। महिला आरक्षण तो किसी भी
सरकार के एजेंडा में ही नहीं था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपवाद नहीं हैं।
ऐसे में जो नेता रेप पर आंसू बहाते हैं, वे लोगों को बेवकूफ़
बनाते हैं। इनकी स्त्रियों को बराबरी
का दर्जा देने में दिलचस्पी ही नहीं। अगर लोग सचमुच महिलाओं को बराबरी का दर्जा
देने के हिमायती हैं तो सबसे पहले राजनीतिक दलों के अलावा केंद्र और राज्य सरकार
में 50 फ़ीसदी पद महिलाओं को दें। यानी देश की हर
सरकार में महिला-मंत्रियों की तादाद पुरुष-मंत्रियों के बराबर हो। विधायिका में 33 फ़ीसदी नहीं बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित हो। महिलाओं की आबादी फ़िफ़्टी परसेंट
है तो विधायिका में आरक्षण 33 फ़ीसदी क्यों? संसद में 790 सदस्यों (लोकसभा-545 और राज्यसभा-245) में से किसी भी सूरत
में 395 सदस्य महिलाएं होनी ही चाहिए।
एक बात और, महिला आरक्षण का लाभ केवल गांधी, पवार, बादल, पटनायक, या मुलायम
जैसे राजनीतिक परिवारों की महिलाएं या लड़कियां ही हाईजैक न कर लें, जैसा कि होता रहा है। पॉलिटिकल फैमिलीज़ की महिलाएं अपने
पति, पिता, ससुर या बेटे की
पुरुष प्रधान सोच को ही रिप्रज़ेंट करती हैं। लिहाज़ा, महिला रिज़र्वेशन का लाभ आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े यानी ग़रीब, देहाती, आदिवासी, दलित, पिछड़े वर्ग और मुस्लिम
जमात की महिलाओं को भी मिले, यह भी सुनिश्चित होना
चाहिए। इसके अलावा मेन स्ट्रीम से ग़ायब उच्च जाति की महिलाओं को भी मौक़ा मिले।
विधायिका ही नहीं, न्यायपालिका में आधे जज और
आधी एडवोकेट महिलाएं होनी चाहिए। फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट में 25 जज हैं, उनमें केवल एक ही महिला
हैं। यही वजह है कि दिल्ली गैंगरेप का मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट में तीन साल से लंबित
है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या 400 की जानी चाहिए, उनमें 200 जज महिलाएं हों। इसी तरह हाईकोर्ट और निचली अदालतों में
जजों की संख्या सीधे 16 गुना बढ़ा देनी चाहिए और
महिला-पुरुष जजों की संख्या बराबर होनी चाहिए।
विधायिका और न्यायपालिका के
बाद नंबर आता है ब्यूरोक्रेसी का। इसमें भी हर साल छात्र-छात्राओं को चयन बराबर
संख्या में होनी चाहिए। पुलिस तंत्र में महिला-पुरुष की संख्या बराबर की जानी
चाहिए। कल्पना कीजिए, किसी पुलिस स्टेशन में जाते
हैं और वहां जितने पुरुष हैं, उतनी ही महिलाएं भी तो आपका
डर, ख़ासकर महिलाओं का डर ख़त्म हो जाएगा। इसी तरह
आर्मफोर्स, बैंक, मीडिया संस्थानों और
धार्मिक संस्थानों में आधी स्ट्रेंथ महिलाओं की होनी ही चाहिए। सरकारी व निजी
संस्थानों, स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटीज़ में 50 प्रतिशत पोस्ट महिलाओं को दी जानी चाहिए। आख़िर महिला घर
में क्यों बैठें? वे काम पर क्यों न जाएं?
यदि 50 फ़ीसदी महिलाएं काम पर
जाएंगी तो घर के बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होगी। यानी हर जगह जितने
पुरुष दिखेंगे उतनी ही महिलाएं भी। इससे महिलाओं का मोरॉल बुस्टअप करेगा।
जब गली, सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन, दफ़्तर, थाने, कोर्ट और स्कूल-कॉलेज यानी
हर जगह में महिलाओं की संख्या और मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो पुरुष की
ज़ुर्रत नहीं कि महिला को बुरी नज़र से देखे। वस्तुतः महिलाओं की कम संख्या ही
लंपट पुरुषों को प्रोत्साहित करती हैं। सो महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से
बचाना है तो उन्हें इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है। जिस दिन केंद्र और राज्य
सरकार, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, न्यापालिका, कार्यपालिका और पुलिस तंत्र में पुरुष-वर्चस्व ख़त्म हो
जाएगा और महिलाएं बराबर की संख्या में मौजूद रहेंगी, उस दिन हालात एकदम बदल जाएंगे।
नतीजा यह होगा कि जब
लड़कियों को लड़कों की तरह सरकारी और प्राइवेट नौकरी मिलने लगेगी तो उनमें
सेल्फ़-रिस्पेक्ट पैदा होगा। वे अपने को “पराश्रित” और “वस्तु” समझने की मानसिकता से बाहर निकलेंगी। वे पति या पिता रूपी
पुरुष पर निर्भर नहीं रहेंगी, बल्कि स्वावलंबी होंगी। तब
वे माता-पिता पर बोझ नहीं होंगी। तब प्रेगनेंसी के दौरान सेक्स-डिटरमिनेशन टेस्ट
की परंपरा ख़त्म हो जाएगी। घर में लड़की के जन्म पर उसी तरह ख़ुशी मनाई जाएगी जैसे
पुत्र के आगमन पर। लोग केवल पुत्र की कामना नहीं करेंगे, बल्कि लड़की की भी कामना
करेंगे। यक़ीन मानिए, तब 1000 लड़कों के मुक़ाबले 1000 लड़कियां पैदा होंगी। समाज संतुलित और ख़ुशहाल होगा। जहां
हर काम स्त्री-पुरुष दोनों कर सकेंगे।
मगर यक्ष-प्रश्न यह है कि
क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष-प्रधान समाज अपनी सत्ता महिलाओं को
सौंपने के लिए तैयार होगा? इस राह में पक्षपाती
परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की जानी चाहिए।
यानी ‘ढोल, गंवार शूद्र पशु
नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ चौपाई रचने वाले तुलसीदास जैसे पुरुष मानसिकता वाले कवियों को ख़ारिज़ करना
पड़ेगा। ‘रामचरित मानस‘ को संशोधित करना होगा, जहां पत्नी की अग्निपरीक्षा
लेने और गर्भावस्था में उसे घर से निकाल देने वाले पति को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ माना गया है। ‘महाभारत‘ और व्यास की सोच भी सुधारनी
होगी, जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले जुआड़ी पति युधिष्ठिर
को ‘धर्मराज’ मानती है। उन सभी परंपराओं और ग्रंथो में संशोधित करना होगा, जहां पुरुष को ‘पति-परमेश्वर’ और स्त्री को ‘चरणों की दासी’ माना गया है। इतना
ही नहीं उन त्यौहारों में बदलाव करना होगा, जिसमें पुरुष की सलामती के लिए केवल स्त्री व्रत रखती है। स्त्री की सलामती के
लिए पुरुष व्रत नहीं रखता। स्त्री को घूंघट या बुरक़ा पहनने को बाध्य करने वाली
नारकीय परंपराओं भी छोड़ना होगा। इतना ही नहीं लड़कियों को पिता की संपत्ति में
बराबर की हिस्सेदारी सुनिश्चित करनी होगी और उस पर सख़्ती से अमल करना होगा। सवाल
खड़ा होता है, क्या यह पुरुष-प्रधान समाज
इसके लिए तैयार होगा?
वस्तुतः समाज में महिलाओं
की बहुत कम विज़िबिलिटी ही सबसे बड़ी समस्या या प्रॉब्लम है। घर के बाहर महिलाएं
दिखती ही नहीं, दिखती भी हैं तो नाममात्र
तादाद में। सड़कों, रेलवे स्टेशनों और दफ़्तरों
में उनकी प्रज़ेंस बहुत कम होती है। मुंबई और दिल्ली जैसे डेवलप्ड सिटीज़ में भी
महिलाओं की विज़िबिलिटी दस-पंद्रह फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है। देश के बाक़ी
हिस्सों में तो हालत भयावह है। चूंकि महिलाओं की आबादी 50 फ़ीसदी है तो हर जगह उनकी मौजूदगी भी 50 फ़ीसदी होनी चाहिए। अगर विज़िबिलिटी की इस समस्या को हल कर लिया गया यानी
महिलाओं की प्रज़ेंस 50 फ़ीसदी कर ली गई तो
महिलाओं की ही नहीं, बल्कि मानव समाज की 99 फ़ीसदी समस्याएं ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाएंगी। इसके बाद महिला
दिवस मनाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। महिलाएं बिना किसी क़ानून के सही-सलामत और
महफ़ूज़ रहेंगी।
(समाप्त)
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