हरिगोविंद विश्वकर्मा
महिलाओं के साथ खुला पक्षपात करने वाली सदियों पुरानी आउटडेटेड पंरपराओं को
ध्वस्त करने की श्रीगणेश बुधवार को तक हो गया जब बॉम्बे हाईकोर्ट ने अहमदनगर के शनि
शिंगणापुर मंदिर ट्रस्ट के लोगों को कड़ी फटकार लगाते हुए कि मिंदर में जहां-जहां
पुरुष जाते हैं, वहां-वहां महिलाओं को जाने का अधिकार है और जो भी भविष्य में
उन्हें जाने से रोकेगा उसे छह महीने के लिए जेल भेजा जाएगा। ज़ाहिर सी बात है
अदालत का फ़ैसला ऐतिहासिक है और देश भर के हर मजहब के धर्मस्थलों में महिलाओं को
प्रवेश को सुनिश्चित करने के लिए यह फ़ैसला एक मिसाल बनेगा।
इस तरह शनि शिंगणापुर मंदिर में जाने की हिंदू महिलाओं को मिली इजाज़त के बाद
मुंबई के महालक्ष्मी के हाजीअली दरगाह में मुस्लिम महिलाओं को प्रवेश करने का
रास्ता साफ़ हो गया है। यह मामला भी हाईकोर्ट के पास विचाराधीन है. महिलाओं को
बराबी का दर्जा देने के पैरोकारों का मानना है कि बॉम्बें हाईकोर्ट का फ़ैसला सदियों
से चली आ रही आउटडेटेड पुरुषवादी परंपराओं को गिराने की शुरुआत है।
साढ़े चार सौ साल से भी अधिक पुराने शनि शिंगणापुर मंदिर के चबूतरे तक महिलाओं
के जाने और उनके सरसों का तेल चढ़ाने पर मनाही है। यह साफ़ नहीं हो पाया है कि, किसने इस पक्षपातपूर्ण परंपरा का आरंभ किया। इसी
तरह छह सदी से ज़्यादा पुराने हाजीअली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर मनाही है।
जबकि किसी भी धार्मिक पुस्तक में कही नहीं लिखा है कि महिलाओं के साथ लैंगिक आधार
पर भेदभाव किया जाए। ज़ाहिर सी बात है, इस तरह की दकियानूसी परंपराएं पुरुष-प्रधान समाज में
हर जगह हैं। पहले तो महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर ही अघोषित पाबंदी थी,
लेकिन वक्त के साथ
उसमें बदलाव आया और महिलाओं सीमित संख्या में ही सही हर जगह दिखती हैं।
बहराहाल, महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर किसी तरह का भेदभाव करना और उन्हें
किसी भी धर्मस्थल पर जाने से रोकना दरअसल सामाजिक और मानवीय दोनों तरह का अपराध
है। यह भारतीय संविधान में महिलाओं को मिले अधिकार का भी गंभीर हनन है। जो लोग ऐसा
कर रहे हैं। चाहे वे शनि शिंगणपुर के शनि मंदिर के पुजारी हों या सबरीमाला मंदिर
के पुजारी या फिर मस्जिदों के मौलवी सबके सब मानवता के खिलाफ अपराध के दोषी हैं।
बॉम्बे हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ आपराधिक कार्रवाई का
रास्ता साफ़ हो गया है। भविष्य में देश में हर धार्मिक स्थल पर जाने की महिलाओं को
आज़ादी मिलेगी।
यहां तक कि मासिक धर्म (रजोधर्म) या पीरियड के समय भी किसी महिला को किसी
धार्मिक अनुष्ठान से दूर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि पीरियड हर महीने गर्भाशय की सफ़ाई का एक
नैसर्गिक प्रक्रिया है। उसके बाद स्त्री गर्भधारण (अगर चाहे तो) के लिए शारीरिक
तौर पर तैयार होती है। इसे उसी तरह की सफाई माना जा सकता है, जिस तरह स्त्री-पुरुष
दैनिक नित्यकर्म करते हैं। अगर नित्यकर्म अशुद्ध नहीं है, तो पीरियड को भी अशुद्ध नहीं
माना जा सकता। अब तो मेडिकल क्षेत्र से जुड़े लोग भी कहने लगे हैं कि पीरियड के
समय सेक्स करने में कोई हानि नहीं होती। मेडिकल साइंस के मुताबिक़, महिला का शरीर भी कमोबेश
पुरुष की तरह ही है। पुरुष का शरीर स्पर्म पैदा करता है तो महिला शरीर में एग्स बनते
हैं। स्पर्म और एग्स की ब्रिडिंग गर्भाशय में होता है, जो महिला के पेट में होता
है। वहीं से नौ महीने बाद मानव जन्म लेता है। लिहाज़ा, स्त्री को अशुद्ध कहने का मतलब
संतानोत्पत्ति को ही अशुद्ध कहना है।
राहुल सांकृत्यायन की कालजयी रचना “वोल्गा से गंगा” के मुताबिक आठ से दस हज़ार साल
पहले मानव दो पैरों पर खड़ा होने के बाद निर्वस्त्र हाल में एक झुंड में जंगलों और
गुफाओं में रहता था। तब मनुष्य का शरीर इतना मज़बूत होता था कि कोई बीमारी नहीं
लगती थीं। आजकल जानवरों की तरह उस समय हर स्त्री-पुरुष का अनगिनत लोगों से
सेक्सुअल रिलेशनशिप होता था, इसलिए किसी शिशु का पिता कौन है, यह कोई नहीं जानता था। हां,
दूध पीने के कारण
माता को सब लोग पहचानते थे। झुंड की सबसे ताक़तवर महिला ही झुंड की मुखिया होती
थी। यह परंपरा कई हज़ार साल तक चलती रही। महिला मुखिया झुंड के हर सदस्य के साथ
इंसाफ करती थी। इसलिए उस समय आपसी झगड़े या लड़ाइयां भी बहुत कम हुआ करती थीं। तब
सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट या अबॉर्शन की प्रथा भी नहीं थी। लिहाज़ा, धरती पर स्त्री और पुरुष
की तादाद लगभग बराबर होती थी। यानी जनसंख्या संतुलित थी। यह तथ्य मानव विकास पर
लिखी गई किताबों में भी मिलता है। कभी-कभार जब दो झुंडों की आपस में संघर्ष होती
था तब दोनों झुंड की मुखिया स्त्रियां ही आपस में मलयुद्ध करती थीं।
बहरहाल, शारीरिक रुप से स्त्रियों से ज़्यादा शक्तिशाली पुरुष झुंड के मुखिया
बनने लगे। यहीं से पुरुष आधिपत्य शुरू हुआ और स्त्री के साथ पक्षपात होने लगा। पुरुष
स्त्री को भोग की वस्तु समझने लगा और उसके मानवीय अधिकारों का हनन करने लगा।
परिवारवाद प्रथा शुरू होने पर पुरुष कई-कई पत्नियां रखने लगा, लेकिन स्त्री को दूसरे
पुरुष की ओर देखने पर कुलटा कह दिया जाता था। जब शिक्षा की अवधारणा शुरू हुई तो
पुरुष ने उस पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद धर्म की स्थापना हुई। पुरुष आधिपत्य
का कारण हर धर्म पुरुष प्रधान बनाए गए। जितने भी धार्मिक ग्रंथ रचे गए सभी पुरुषों
ने रचे और पुरुष को ही महिमामंडित किया। जितने त्यौहार बनाए गए, सभी सब पुरुष
वर्चस्व के प्रतीक बने। स्त्री (पत्नी के रूप में) पुरुष (पति) के लिए व्रत रहती
है, लेकिन
कोई पुरुष किसी स्त्री के लिए व्रत नहीं रहता।
पुरुष-प्रधान परंपराएं कमोबेश बदस्तूर जारी हैं, इसीलिए घर के बाहर हर जगह
पुरुष ही पुरुष दिखते हैं। महिलाओं की विज़िबिलिटी 10-15 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं
है। सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति के दौर में भी मुंबई-दिल्ली जैसे महानगर छोड़
दिए जाएं तो महिलाओं की घर के बाहर विज़िबिलिटी पांच फ़ीसदी भी नहीं है। महिलाओं
की कम विज़िबिलिटी के चलते दुस्साहसी पुरुष बाहर निकलने वाली एक्का-दुक्का औरतों
के साथ उनकी मर्जी के विरुद्ध हरकते करते हैं। भेदभाव करते हैं। महिलाओं के साथ
होने वाले यौन अपराधों की असली वजह यही है, जिसे क़ानून को सख़्त करके नहीं
रोका जा सकता। इसके लिए देश में हर जगह महिलाओं को 50 फ़ीसदी जगह रिज़र्व करनी
पड़ेगी। हर जगह जितने पुरुष हैं, उतनी स्त्री करनी ही पड़ेगी।
जो भी हो, इस मौक़े पर भूमाता रण रागिनी ब्रिगेड की अध्यक्ष तृप्ति देसाई और
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह संस्थापक नूरजहां साफिया नियाज़ जैसी बहुदुर
महिलाओं को अभिनंदन किया जाना चाहिए, जो आउटडेटेड परंपराओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा
रही है. लकीर के फकीर पुरुष प्रधान समाज के पैरोकार अगर अब भी होश में नहीं आए तो
वह दिन दूर नहीं, जब हर भारतीय महिला पुरुषवादी परंपरा से लड़ने के लिए तैयार हो जाएगी।
http://harigovindvishwakarma.blogspot.in/2016/02/blog-post.html
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