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रविवार, 6 मार्च 2016

जेएनयू में आज़ादी-आज़ादी का उद्घोष बेहद ख़तरनाक संकेत

हरिगोविंद विश्वकर्मा
हम क्या चाहते हैं- आज़ादी! ज़ोर से बोलो- आज़ादी! इधर से बोलो- आज़ादी, उधर से बोलो- आज़ादी। फिर से बोलो- आज़ादी। हम चाहते हैं- आज़ादी! आज़ादी! आज़ादी!! आज़ादी!!! हमें आज़ादी से कम कुछ भी मंजूर नहीं, हम आज़ादी लेकर ही रहेंगे, इस आज़ादी लेने से हमें कोई ताक़त रोक नहीं सकती, हम आज़ादी चाहते हैं। अंत में छोटा-सा स्पष्टीकरण हम देश सेनहीं, बल्कि देश मेंआज़ादी चाहते हैं। यानी सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। इसी को कहते हैं, शब्दों की कारीगरी। मतलब अपनी बात भी कह दी और देश के टीवी देखने वाले तबके ने आज़ादी की इस परिभाषा को प्रशंसा भाव से मान भी लिया और आज़ादी पर लट्टू भी हो गया। लगे हाथ संविधान का उल्लंघन भी नहीं हुआ। निश्चित तौर पर यह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सिंह के लिए वैल्यू ऐडेडे मुद्दा साबित हुआ। आज़ादी का नारा देकर वह रातोरात देश का स्टार पोलिटिशियन बन गया।

आप नौ फरवरी 2016 की शाम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कैंपस में लगे कश्मीर की आज़ादी के नारे और तीन मार्च की रात कन्हैया कुमार सिंह की आज़ादी वाले नारे की तुलना कीजिए। बस सेकी जगह मेंने ले लिया। बाक़ी सारा मंजर, मतलब मन्तव्य और मकसद वही था। यानी इसमें शब्दों का भले हेरफेर कर दिया गया हो, लेकिन इसका संदेश वही गया, जो संदेश अलगाववादी तत्व भारतीय संसद पर हमला करवाने वाले जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी मोहम्मद अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने की तीसरी बरसी पर देना चाहते थे और जिसके लिए सारा तामझाम किया गया था। मतलब, नौ फरवरी को लगा भारत से आज़ादीका नारा 25 दिन बाद भारत में आज़ादीमें तब्दील हो गया। गहराई से मनन करने पर लगता है क़ानूनी दांव-पेंच के चलते यह किया गया, क्योंकि देशद्रोह का आरोप झेल रहे कन्हैया कुमार छह महीने की अंतरिम ज़मानत पर हैं।

बहरहाल, किसी भी देश में आज़ादी का उद्घोष और वह भी राष्ट्रीय राजधानी में, उस जगह, जहां तीन हफ़्ते पहले कश्मीर की आज़ादी और देश के टुकड़े-टुकड़े करने वाले नारे लगे हों, वहां इस तरह आज़ादी का उद्घोष किसी भी दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है। ख़ास कर कन्हैया ने भाषण से पहले और भाषण के बाद जिस तरह आज़ादी का उद्घोष किया, वह गंभीर व चिंताजनक है। आज़ादी के उद्घोष के दूरगामी परिणामों से अनजान अरविंद केजरीवाल जैसे अपरिपक्व नेता अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस तरह के दुस्साहस को प्रमोट करके ऐतिहासिक भूल कर रहे हैं। यह उसी तरह की भूल जैसे कभी खिलाफत आंदोलन में शामिल हो कर  महात्मा गांधी ने की थी या जवाहरलाल नेहरू ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देकर या फिर इस सीमावर्ती राज्य के एक तिहाई हिस्से से पाकिस्तानी क़ब्ज़ा ताक़त से ख़त्म करने की बजाय मसला संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर की थी।

दरअसल, “आज़ादीएक उर्दू शब्द है। इसका सहज और पहला यानी प्रचलित और सबसे ज़्यादा मान्य अर्थ स्वतंत्रतायानी स्वाधीनता”, अंग्रेज़ी में फ्रीडमही होता है। यानी जब कोई आज़ादी मांगता है तो इसका मतलब वह व्यक्ति, समाज, संस्थान, सिस्टम, सरकार और देश से आज़ाद यानी स्वाधीन होना चाहता है। यानी आज़ादी की मांग केवल व्यक्ति, समाज, संस्थान, सिस्टम, सरकार और देश से ही की जा सकती है। क्योंकि व्यक्ति पर व्यक्ति, समाज, संस्थान, सिस्टम, सरकार और देश का ही नियंत्रण होता है। कन्हैया ने कहा कि हम भारत में आज़ादी चाहते हैं। फिर तपाक् से कह दिया कि देश से नहीं बल्कि ग़रीबी, जातिवाद या मनुवाद आदि से आज़ादी चाहते हैं। दरअसल, यहां आज़ादी का मतलब ही ग़लत समझा गया, क्योंकि ग़रीबी, जातिवाद या मनुवाद आदि अवस्थाएं हैं, इनसे कोई आज़ादी नहीं मांग सकता। इन अवस्थाओं में बदलाव लाया जा सकता है यानी इन्हें समूल नष्ट किया जा सकता है, इनसे आज़ाद नहीं हुआ जा सकता है।

जो शब्द देश के लिए, भले ही पहले कांग्रेस लीडरशिप और अब बीजेपी लीडरशिप के नकारपन के कारण, सिरदर्द जैसा हो गया हो और जिसका सही अर्थ देश के तमाम लोग 1990 में कश्मीर में आतंकवाद के उदय से जानते हों। आज़ादी रूपी जिस शब्द को भारत और भारतीय व्यवस्था में भरोसा न करने वाले अलगाववादी तत्व लगाते आ रहे हैं। या जिस आज़ादी शब्द से देश का मेजॉरिटी पापुलेशन चिढ़ता हो, उसी शब्द का चयन या तो मूर्खता कही जाएगी या असली मन्तव्य छुपाने के लिए लोगों की आंख में धूल झोंकने वाला क़दम कहा जाएगा। कन्हैया जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष है, इसलिए वह इस तरह की मूर्खता नहीं कर सकते। हां, वह उमर खालिद जैसे अपने दोस्तों का हिडेन एजेंडा लागू करने के लिए लोगों की आंख में धूल ज़रूर झोंक सकते हैं।

देश और देशवासियों को यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि अफ़ज़ल गुरू ने देश के लोकतंत्र पर हमला करवाया था। उसी अफज़ल की बरसी पर कार्यक्रम में देश विरोधी और कश्मीर की आज़ादी के समर्थन में नारे लगाए गए थे। लिहाज़ा, कन्हैया का समर्थन करते समय हर सच्चे भारतीय को यह ज़रूर सोचना चाहिए, कि कन्हैया का समर्थन करके कहीं कोई ऐतिहासिक ग़लती तो नहीं कर रहे हैं, जिसके बाद पछताने के अलावा कुछ भी हाथ में नहीं आएगा।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और 22 महीने उनकी सरकार की नीतियों से जिन-जिन लोगों का नुकसान हो रहा है या दिल दुख रहा है, उन सबको कन्हैया का भाषण दिल छू लेने वाला या ऐतिहासिक लगा। कुछ लोगों ने तो इतना ओजस्वी भाषण जीवन में पहली बार सुना। चाहे वह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हों, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार या फिर वामपंथी दल हो, सबको कन्हैया का भाषण असाधारण लगा। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने तो घोषणा भी कर दी कि कन्हैया पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में वामदलों का प्रचार भी करेंगे।

कन्हैया कुमार का इंटरव्यू लेने वाले पत्रकारों से उम्मीद थी कि आमने-सामने मिलने पर जेएनयू नेता से ज़रूर पूछेंगे कि क्या आप आज़ाद नहीं हैं, जो आज़ादी मांग रहे हैं। आप राजधानी में देश के प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे हैं और आज़ादी का उद्घोष कर रहे हैं, क्या यह आज़ादी नहीं है? आप देश के सबसे बेहतरीन शिक्षण संस्थान जेएनयू में देश के ख़र्च पर में रिसर्च कर रहे हैं, क्या यह आज़ादी नहीं है? कन्हैया से यह भी पूछा जाना चाहिए था कि देश में किसने उन्हें ग़ुलाम बनाकर रखा है जो उससे आज़ादी चाहते हैं। ख़ासकर जो देश अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता रहा हो, उस देश के अंदर आज़ादी की बात करना कहां तक उचित है।

लोग उम्मीद कर रहे थे कि कि कन्हैया जेएनयू जैसे संस्विथान के छात्रसंघ के अध्यक्ष हैं। लिहाज़ा, वह कुछ सीरियस और इश्यू-ओरिएंटेड बात करेंगे। मोदी की नीतियों में खामियों या ईपीएफ पर प्रस्तावित टैक्स पर बात करेंगे। वह लोकपाल की बात करेंगे, कि किस तरह मोदी ने उसे लटका रखा है। मोदी के एक रिटायर्ड चीफ़ जस्टिस को राज्यपाल बनाने कर जजों को पोस्टरिटायर प्रलोभन देकर एक बहुत ग़लत परिपाटी शुरू करने का मुद्दा उठाएंगे। मौजूदा संसद में कोई विपक्ष का नेता नहीं है, इससे कई समितियों में विपक्ष का प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है, लोग उम्मीद कर रहे थे कि कन्हैया यह मसला भी उठाएंगे। कन्हैया महिला आरक्षण की बात करेंगे, जिसे पिछले दो दशक से पहले कांग्रेस और अब बीजेपी ने ठंडे बस्ते में डाल रखा है। वह आरक्षण की बात करेंगे, जिसका लाभ केवल पासवान-मीरा कुमार, लालू-मुलायम जैसे लोग ही उठा रहे हैं। वह लोकतंत्र को पोलिटिकल फैमिलीज़ के क़ब्ज़े से मुक्त कराने की बात करेंगे, जिसके कारण किसानों को आत्महत्या करने के लिए मज़बूर होना पड़ रहा है और देश का लोकतंत्र मूकदर्शक बना हुआ है। लिहाज़ा, कन्हैया नकली लोकतंत्र की जगह असली लोकतंत्र लाने की बात करेंगे, लेकिन कन्हैया मोदी” “संघीऔर एबीवीपीकी टर्मिनॉलॉजी से उबर ही नहीं पाए। पूरे भाषण में वह संघी, मोदी, स्मृति, हिंदू और मनुवाद की उल्टी करते रहे। यह उलटी कई नामचीन लोगों को ऐतिहासिक लगी। कन्हैया के भाषण में आदर्शवाद हावी रहा और आदर्शवादी बातें भावुक किस्म के लोगों को बहुत अच्छी लगती हैं। लोगों ने गौर किया होगा कि कन्हैया हिदीभाषी बिहार से हैं, लेकिन ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पा रहे थे। तो क्या जेएनयू में कमोबेश सभी छात्र ऐसे ही हैं। सभी सीरियस बात करने की बजाय क्या जुमलेबाज़ी और हुल्लड़ ही करते हैं?

कन्हैया ने यह ज़रूर कहा कि उन्हें कानून पर भरोसा है, बाबसाहेब भीमराव अंबेडकर के संविधान की एक एक धारा पर भरोसा है। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान की प्रस्तावना में कहे गए हैं समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, समानता के साथ खड़े हैं। लगे हाथ उन्होंने यह भी कहा कि वह उमर खालिद और दूसरे साथियों की रिहाई के लिए संघर्ष करेंगे। इसका मतलब गाहे-बगाहे या स्मार्टनेस तरीक़े से वह अपने दोस्त उमर के समर्थन में ही खड़े नज़र आए। 48 मिनट से ज़्यादा चले के भाषण में कन्हैया और उनके साथी क़रीब पहले पांच मिनट और बाद के चार मिनट किसी उन्मादी की तरह आज़ादी का उद्घोष करते रहे। इस दौरान करीब दो सौ बार आज़ादी के नारे लगे। नारे में सेकी जगह मेंका इस्तेमाल करके क़ानून और संविधान की नज़र में बच गए।

पूरा देश सोच रहा था, कि कन्हैया चश्मदीद होने के कारण देश को बताएंगे कि अफज़ल की बरसी पर आख़िर जेएनयू कैंपस में हुआ क्या था। यह तो सच है न कि वहां अफजल की बरसी मनाई गई थी और देश विरोधी और आज़ादी के समर्थन में नारे लगाए गए थे। उसमें किसकी कितनी भागीदारी है, यह देश की अदालत तय करेगी, लेकिन अपनी तरफ से कन्हैया को बताना चाहिए था कि उसमें उनका किरदार क्या था। लेकिन सबज्यूडिस के बहाने वह असली मुद्दे को टाल गए। असली मुद्दे पर बात करने की बजाय वह पूरे भाषण में मोदी, संघ, एबीवीपी और मनुवाद को कोसते रहे।

अगर इतिहास में जाएं तो पिछली सदी के आरंभ में सन् 1906 माहौल ऐसा ही था। वायसराय लॉर्ड कर्ज़न की अगुवाई में अंग्रेज़ों ने देश बंग-भंग के जरिए अलगाववाद को जो पौधा रोपा उसके उगते ही उसी माहौल में जनाब सैयद अहमद खान मुस्लिम लीग की स्थापना की। मुस्लिम लीग पाकिस्तान-पाकिस्तान कर रही थी। महज 41 साल की उम्र में उस पौधे ने देश का धर्म के आधार पर विभाजन कर दिया। तो क्या यह देश एक और विभाजन की ओर बढ़ रहा है? भले ही वह कई सदी बाद आए। लिहाज़ा, अभी से इस आज़ादी की असली मंशा पर चौकन्ना होने की ज़रूरत है, कि कही देर न हो जाए।

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