हरिगोविंद विश्वकर्मा
जिन लोगों ने उम्मीद लगा रखी थी कि देश की सबसे बड़ी जनपंचायत संसद में बजट
सत्र का पहले दिन कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष बीजेपी और उसके गठबंधन दलों को
बैकफुट पर ला देगी, ऐसे लोगों के लिए पहले दिन का कार्यवाही गहरी निराशा लेकर आई। पूरे दिन लोकसभा
ही नहीं राज्यसभा में हमला करने की बजाय उलटे विपक्ष ही बैकफुट पर नज़र आया और
बीजेपी की आक्रामकता का सामना करने में पूरी तरह असफल रहा। यह साफ़ लगा कि सही
मायने में सवा सौ साल से ज़्यादा पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में दलित और
राष्ट्रवाद के मुद्दे पर अधिकार और इनपुट्स के साथ बोलने वाला नेताओं का भारी अकाल
है। बाप की विरासत के बदौलत लोकसभा में पहुंचे ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसै तथाकथित
यंगब्रिगेड सदन में पार्टी की संख्या भले बढ़ा दें, तर्कपूर्ण बहस करना उनके वश की
बात नहीं और अगर बोलेंगे तो उससे पार्टी को नुकसान ही होगा।
ऐसे में यह कहना न तो अतिशयोक्तिपूर्ण होगा न ही अनुचित कि कांग्रेस अपने
युवराज राहुल गांधी की अपरिपक्व और कन्फ़्यूज़्ड सियासत के चलते लड़ाई शुरू होने
से पहले ही हार मान बैठी थी। पूरे दिन कांग्रेसी ही नहीं सेक्युलरिज़्म के बैनर
तले हर नैतिक-अनैतिक काम करने वाले दल और उनके नेताओं ने भी साफ़ महसूस किया कि
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कैंपस में नौ फरवरी की अप्रिय घटना के बाद छात्रसंघ
के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सिंह की कथित तौर पर देशद्रोह की आरोप में गिरफ़्तारी के
समर्थन करने के लिए कांग्रेस उपाध्यक्ष का जेएनयू कैंपस जाना एक ऐतिहासिक भूल थी,
जिसने उन्हें हंसी का पात्र बनाकर रख दिया है।
राहुल गांधी की इसी ऐतिहासिक भूल ने मानव संसाधन मंत्री स्मृति जुबीन ईरानी को
पहले दिन चैंपियन बना दिया, जिन्होंने संसद पटल पर ज़ोरदार तरीक़े से राष्ट्रवाद की
व्याख्या की। ज़बरदस्त होमवर्क करके संसद में आईं स्मृति को कांग्रेस की 2004 से 2014 के दस साल के शासन से
ही नहीं, बल्कि
छह दशक तक सत्ता में रहने के दौरान कांग्रेस द्वारा की गई हर ग़लती से स्मृति ईरानी
और दूसरे बीजेपी नेताओं को ज़बरदस्त खाद-पानी मिलता रहा और वे लोग लच्चेदार भाषा
में राष्ट्रवाद की अपने ढंग से व्याख्या तो करते ही रहे, लगे हाथ कांग्रेस की ग़लतियों
को भी रेखांकित करते रहे, जिससे कांग्रेस को ही बचाव की मुद्रा में आना पड़ा।
इसकी मिसाल तब देखने को मिली जब हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित
वेमुला की ख़ुदकुशी और जेएनयू विवाद पर स्मृति ईरानी ने दोनों सदनों में विपक्ष को
करारा जवाब देते हुए कहा कि रोहित वेमुला को सस्पेंड करने का फ़ैसला जिस समिति ने
किया था उसकी नियुक्ति कांग्रेस के दस साल के शासन में हुई थी। बकौल स्मृति ईरानी,
“रोहित वेमुला को
सस्पेंड करने का फैसला लेने वाली समिति के सदस्यों को मैंने नियुक्त नहीं किया था।
हां, लेकिन
केंद्र सरकार ने जब देखा कि उस समिति में कोई भी दलित प्रतिनिधि नहीं है, तो उसमें कोऑप्ट करने का
फैसला ज़रूर किया गया।“
विपक्ष का दरअसल, रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी और जेएनयू विवाद को एकसाथ क्लिप करना, बीजेपी के लिए
बड़े फ़ायदे कौ सौदा साबित हुआ, क्योंकि दोनों सब्जेक्ट का आपस में बस इतना संबंध था कि
दोनों घटनाएं दो सेंट्रल यूनिवर्सिटीज़ में हईं। जेएनयू विवाद का दलित शोषण से कोई
लेना देना नहीं था, तो रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी का मुद्दा राष्ट्रवाद या
अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे मुद्दों से कोसों दूर रहा। इसीलिए जहां, बीएसपी सुप्रीमो मायावती
के अगुवाई में दलितों की राजनीति करने वाले रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी मामला प्रमुखता
से उठाते रहे वहीं, सेक्युलिरज़्म की रोटी पर पल रहे लोग जेएनयू विवाद में कन्हैया कुमार सिंह और
खालिद उमर की गिरफ्तारी जैसे मुद्दे उठा रहे थे। दोनों मुद्दों को एकसाथ उठाए जाने
से भ्रम की स्थिति बन गई।
संसद की बहस से एक बात और साफ़ हो गई कि देश के ख़िलाफ़ या देश के टुकड़े करने
या फिर कश्मीर की तथाकथित आज़ादी का राग अलापने वाले लोग पूरी तरह आउटडेटेड हो
चुके हैं। उनका समर्थन इक्का दुक्का लोगों के अलावा कोई नहीं देगा। इस मुल्क के
लोग किसी भी कीमत पर संसद पर हमले की साज़िश रचने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत
द्वारा दंडित किए गए जैश-ए-मोहम्मद के दुर्दांत आतंकवादी मोहम्मद अफजल गुरू की
तीसरी बरसी मनाने और देश विरोधी नारे लगाने वालों का कतई समर्थन नहीं कर सकते। ऐसे
तत्वों का साथ केवल टीवी स्क्रीन को काला करने वाले कन्यप़्य़ूज़्ड लोग या
राग-सेक्युलिरज़्म अलापने वाले या फिर अपनी अतिवादी बौद्धिकता के कारण डायनासोर के
नक्शे क़दम पर चल रहे कम्युनिस्ट ही कर सकते हैं।
ज़ाहिर-सी बात है, जेएनयू की घटना के चलते इस समय देश में अचानक यह एक तरह से 2014 की गर्मियों जैसा माहौल
बन गया है, जब देश को लगा कि राग-सेक्युलिरज़्म के नाम पर कांग्रेस देश का बंटाधार कर रही
है, तो मुलायम सिंह यादव गिन-गिनकर अपने बेटे-पुत्रवधू, भाइयों-भतीजों और
नाती-पोतों को या तो संसद या उत्तर प्रदेश की विधान सभा में भेज रहे हैं। देश की
जनता ने साफ़ देखा कि मुलायम जैसे लोग राजनीतिक लाभ के लिए कल्याण सिंह जैसे
नेताओं को लगा लेते हैं तो मायावती और नीतीश कुमार जैसे लोग बीजेपी के साथ सरकार
बनाने के बावजूद ख़ुद को बेशर्मी से सेक्युलिरज़्म का पैरोकार बताते हैं।
देश ने यह भी देखा कि सेक्युलिरज़्म के नाम ये तमाम दल मुसलमानों को बेवकूफ़
ही नहीं बना रहे हैं, बल्कि उनके अंदर कथित तौर पर अल्पसंख्यक और असुरक्षित होने का भाव जगा रहे
हैं। अब तो ख़ुद मुस्लिम समुदायके लोग खुलेआम कहने लगे हैं कि कम्युनिस्ट,
कांग्रेस और दूसरे तथाकथि धर्मनिरपेक्ष दलों के कारण ही वे हाशिये पर जा रहे हैं।
यह तो सर्वविदित है कि जेएनयू में अफ़ज़ल गुरु की तीसरी बरसी में एक प्रोग्राम हुआ
और उसे खालिद उमर नाम के छात्र ने ही शेखी बघारने के लिए आयोजित किया। उससे
कन्हैया कुमार सिंह या खालिद उमर ने देश विरोधी नारा लगाया या नहीं यह अदालत
देखेगी।
जेएनयू के इनछात्रों का व्यवहार देशद्रोह की कैटेगरी में आता हैं या नहीं,
यह भी उपलब्ध फोटोग्राफ
और वीडियों के रूप में उपलब्ध सबूतों और दूसरे साक्ष्यों की सत्यता की जांच करने
के बाद अदालत तय करेगी। लेकिन एफआईआर दर्जकरने के बाद इनको अदालत में पेश करना तो
पुलिस का काम था, लोग उसमें भी बाधा डाल रहे थे। यह बात लोगों के गले नहीं उतरी।
ख़ासकर जेएनयू के वाइस चांसलर प्रो. एम जगदीश कुमार ने देशद्रोह का संगीन आरोप और
लुकआउट नोटिस वाले आरोपी को गिरफ़्तार करने से दिल्ली पुलिस को रोकना भी रास नहीं
आया। पिछले दो हफ़्ते से सोशल नेटवर्किंग पर लोगों के पोस्ट और रेलवे-बस में
यात्रा करते लोगों की बहस से यह साफ़ हो गया था।
जो भी हो, इस बार भी साफ़ हो गया है कि संसद के बजट सत्र में बजट पेश करने के
अलावा कोई रचनात्मक कार्य नहीं होने वाला। विपक्ष की अकर्मण्यता ने बीजेपी सरकार
की 20 महीने के जनविरोधी और कुशासन पर ज़रूर परदा डाल दिया है। क्रूड ऑयल का भाव
25 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे आने से देश के आम लोगों को जो लाभ होना था उससे
वंचित करने का बीजेपी और नरेंद्र मोदी का अपराध भी जेएनयू विवाद और रेहित वेमुला
की आत्महत्या की मामले के नीचे दब गया।
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