हरिगोविंद विश्वकर्मा
1993 के मुंबई बम धमाकों से जुड़े मामले में दोषी संजय दत्त आज जेल से रिहा हो गए। पुणे की येरवडा जेल में अधिकारियों ने औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उन्हें रिहा कर दिया। जेल में अच्छे व्यवहार के चलते समय से पहले 114 दिन पहले उनकी रिहाई हुई है।
संजय दत्त ने येरवडा जेल में फहरा रहे तिरंगे को सैल्यूट किया, धरती को चूमा और फिर अपना बैग कंधे में डालकर जेल के बाहर आ गए। बाहर पत्नी मान्यता दत्त उनका इंतजार कर रही थीं। यहां से संजय दत्त सीधे पुणे एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गए। संजय दत्त सबसे पहले सिद्धिविनायक मंदिर जाएंगे। इसके अलावा अपनी मां नरगिस की कब्र पर भी जाएंगे।
अगर 257 निर्दोष लोगों की जान लेने वाले 1993 के मुंबई बम धमाकों में शामिल रहे लोगों के भाग्य की बात करें तो 123 आरोपियों में अगर याकूब मेमन सबसे बदनसीब रहा तो अभिनेता और नेता पुत्र संजय दत्त सबसे ख़ुशनसीब। तभी तो दो मई 2013 से मई 2014 के बीच पैरोल और फर्लो के तहत 118 दिन जेल से बाहर रहे संजय दत्त पूरी सजा काटे बगैर ही जेल से रिहा हो गए हैं।
संजू बाबा की रिहाई की खबर से उनके पूरे परिवार के साथ साथ बॉलीवुड भी बेहद खुश है। बॉलीवुड अभिनेता मनोज बाजपेयी ने संजय की रिहाई पर खुशी जताई। मनोज ने कहा कि मैं संजू (संजय) को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और खुश हूं कि वह एक-दो दिन में आखिरकार अपने परिवार और दोस्तों के पास वापस आ रहे हैं। हम उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं और हमेशा उनकी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं।
लेकिन संजय दत्त की इस रिहाई पर कई तरह के सवालों का घेरा भी मंडरा रहा है। उन सवालों में सबसे महत्वपूर्ण सवाल खुद संजय दत्त की इस पूरे बम कांड में भूमिका, उसके बाद उनकी देरी से गिरफ्तारी और फिर बाद में जेल के बाद फिर जेल वह बीच-बीच में 30 दिन 60 दिन जैसे अविध में बाहर आना। जाहिर है यह सारे सवाल उनकी किस्मत और हमारे सिस्टम से आकर जुड़ते हैं ।
आइए जानने की कोशिश करते हैं कि कैस संजय दत्त की किस्मत ने इस पूरे मामले में उनका साथ दिया और कैसे सिस्टम उनके लिए मेहरबान बनारहा।
दरअसल, यूं तो मुंबई सीरियल बमकांड में किसी न किसी किरदार में शामिल रहे सभी आरोपी निर्दोषों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार रहे और सभी याकूब मेमन जैसी कठोर सज़ा के हक़दार थे, लेकिन याकूब मेमन सबसे ज़्यादा बदनसीब रहा, उसके साथ तकदीर थी ही नहीं। जीने की प्रबल इच्छा रखने वाला याकूब जहां मुकद्दर के साथ के लिए तरसता रहा, वहीं शेष सभी आरोपियों को भाग्य का कुछ न कुछ साथ ज़रूर मिला।
फ़ांसी की सज़ा पाए 12 लोग अच्छी किस्मत के चलते मौत के मुंह में जाने से बच गए। हालांकि पुणे की येरवड़ा जेल से घर पहुंचे संजय दत्त सबसे ज़्यादा खुशनसीब रहे। संजय बमकांड में शामिल होने के आरोप में गिरफ़्तारी बावजूद भाग्य की बदौलत जांच ऐजेंसियों का कथित “फेवर” पाने में सफल रहे और अंततः आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप से मुक्त हो गए। इसीलिए उन्हें सबसे कम सज़ा मिली। यानी मुन्ना भाई यक़ीनन मुकद्दर का सिकंदर निकला।
संजय पर तकदीर मेहरबानी की फ़ेहरिस्त बड़ी लंबी है। उन पर पहली बार मुकद्दर तब मेहरबान हुआ जब 3 अप्रैल 1993 को पुलिस इंटरोगेशन के दौरान इब्राहिम मुस्तफ़ा चौहान उर्फ बाबा चौहान ने बताया कि इस साज़िश में एक बहुत बड़ी मछली शामिल है और उसने संजय दत्त का नाम लिया।“शांतिदूत” सुनील दत्त का बेटा साज़िश में शामिल है, यह सुनकर सबके होश उड़ गए और विशेष जांच टीम के मुखिया राकेश मारिया (फ़िलहाल मुंबई के पुलिस कमिश्नर) भी हतप्रभ रह गए।
चूंकि संजय पर मुकद्दर मेहरबान था, इसलिए, बाबा चौहान की जानकारी के बावजूद मारिया को सुनील दत्त के घर पर रेड करने की इजाज़त मुंबई पुलिस आयुक्त अमरजीत सिंह सामरा ने नहीं दी। वरना एके-56 राइफल उसी समय रिकवर हो जाती। हालांकि, खुलासा हुआ कि उसकी राजनीतिक वजह थी। राज्य में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी और सुनील दत्त की पहुंच बहुत ऊपर तक थी।
बहरहाल, 19 अप्रैल 1993 की रात मॉरीशस से लौटते ही संजय एयरपोर्ट पर अरेस्ट हो गए। लेकिन भाग्य उनके साथ था, इसलिए पुलिस ने उनसे आरोपी नहीं, बल्कि नेता-पुत्र तरह पूछताछ की। संजय ने तत्कालीन क्राइम ब्रांच हेड महेश नारायण सिंह और राकेश मारिया के सामने कबूल कर लिया कि मास्टरमाइंड दाऊद इब्राहिम का भाई अनीस उनका दोस्त है। दोनों की अक्सर फोन पर बातचीत होती है। अनीस ने 16 जनवरी 1993 को 3 एके-56 राइफ़ल्स, 9 मैगज़िन्स, 450 राउंड्स और 20 हैंडग्रेनेड्स का कन्साइनमेंट अबू सालेम (जो केवल राइफल मामले के चलते बमकांड का आरोपी बनाया गया है) फ़िल्मकार समीर हिंगोरा और बाबा चौहान के साथ भेजी। तीन दिन बाद यानी 18 जनवरी की शाम सालेम हनीफ़ कड़ावाला और मंज़ूर अहमद के साथ संजय के यहां फिर आया और 2 राइफ़ल, कुछ हैंडग्रेनेड और गोलियां लेकर गया। यानी संजय ने अनीस से ग़ैरक़ानूनी तौर पर घातक राइफ़ल ली।
बमकांड में दायर आरोप पत्र के मुताबिक, दाऊद ने 300 सौ चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 राइफ़ल्स और कई सौ ग्रेनेड्स, मैगज़िन्स, गोलियां और कई क्विंटल विस्फोटक आरडीएक्स 9 जनवरी और 9 फ़रवरी 1993 के बीच कई खेप में रायगड़ के दिग्घी जेट्टी और शेखाड़ी के रास्ते मुंबई भेजी। यह काम इब्राहिम मुश्ताक़ मेमन उर्फ टाइगर मेमन और मोहम्मद डोसा ने किए। हथियारों और विस्फोटकों को बम बनाने के लिए मुंबई और भिवंडी भेजा गया और बाद में उसी से 12 मार्च को धमाके को अंजाम दिया गया। हथियारों और आरडीएक्स से भरा एक ट्रक रायगड़ के जंगल के रास्ते नासिक होता हुआ गुजरात के लिए भी रवाना किया गया। कस्टम टीम ने ट्रक ट्रैप किया भी, लेकिन 8 लाख रुपये रिश्वत लेकर उसे जाने की इजाज़त दे दी।
यकीनन, कस्टम टीम के सभी लोगों को टाडा के तहत सज़ा हुई। ट्रक का सामान गुजरात के अंकलेश्वर (भरुच) में बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में छिपाया गया। यहां टीम में सालेम शामिल हुआ। हथियार तयशुदा ठिकानों और लोगों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सालेम की थी। 9 एके-56 राइफ़ल, सौ से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर सालेम सड़क के रास्ते मुंबई आया। उसने अनीस के कहने पर कन्साइनमेंट में से एक राइफ़ल संजय को दी।
यानी संजय ने ब्लास्ट के बाद जिस राइफल को नष्ट करने के लिए यूसुफ़ नलवाला को मॉरीशस से फोन किया, वह राइफ़ल दिग्घी जेटी पर ही उतारी गई थी। ये बातें यहां इसलिए विस्तार से बताई गई है, ताकि साफ़ हो जाए कि संजय से ग़लती नहीं हुई, बल्कि वह बमकांड की साज़िश का हिस्सा थे। फिर भी जांच एजेंसियां उनके साथ उस तरह पेश नहीं आईं जिस तरह बाक़ी आरोपियों के साथ। यह भाग्य का ही कमाल था।
बहरहाल, एक दर्जन से ज़्यादा लोगों को फांसी की सज़ा सुनाने वाली टाडा कोर्ट ने भी संजय का क़बूलनामा स्वीकार कर लिया कि वाक़ई संजय असुरक्षित महसूस कर रहे थे, इसलिए विनाशकारी ग़ैरक़ानूनी हथियार मंगवाए। संजय के मुताबिक, मुंबई दंगों के समय उन्हें धमकियां मिल रही थी, इसलिए उन्होंने अनीस से एके-56 मांगी। संजय के क़बूलनामे को स्वीकार करना और मान लेना कि उन्हें वाक़ई जानमाल का ख़तरा था, संजय पर भाग्य की कृपा से ही हुआ। मुकद्दर की ऐसी मेहरबानी राइफल से जुड़े दूसरे आरोपियों को नहीं मिली।
दरअसल, गिरफ्तारी के बाद सुप्रीम कोर्ट तक हाथ-पैर मारने के बावजूद साल भर तक संजय को बेल नहीं मिली। उनके बढ़ते जेल प्रवास से पिता सुनील दत्त बहुत विचलित हो गए। हर नेता का चक्कर लगाते हुए वह धुर कांग्रेस विरोधी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की शरण में गए। मज़ेदार बात यह रही कि इस बार याकूब की फांसी का विरोध कर रहे सेक्यूलर जमात कुछ लोगों ने उसी दौरान भी मीडिया के ज़रिए शोर मचाना शुरू किया कि टाडा का दुरुपयोग हो रहा है। यह भी कहा गया है कि टाडा के चलते बड़ी तादाद में ऐसे लोग जेलों में “सड़” रहे हैं, जिनका आतंकवाद से कुछ लेना-देना नहीं है।
ऐसे लोगों के केसों पर विचार करने के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार ने आईएएस और आईपीएस की एक क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी यानी अर्ध-न्यायिक समिति का गठन किया। भाग्य ने यहां भी संजय के साथ खड़ा हो गया और क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी ने भी माना कि संजय दत्त ही सबसे ज़्यादा “टाडा पीड़ित”आरोपी हैं। लिहाज़ा कमेटी ने उनके बेल की सिफ़ारिश कर दी और संजय केवल 18 महीने में ही जेल से बाहर आ गए। जबकि उसी केस में पकड़े गए बाबा, मंज़ूर, नलवाला, हिंगोरा और कड़ावाला को ज़मानत के लिए पांच साल या उससे ज़्यादा वक़्त इंतज़ार करना पड़ा।
इतना ही नहीं जिस ज़ैबुन्निसा क़ादरी (तब उसकी उम्र 64 साल थी) के घर में 2 एके-56 और हथियार 2 दिन रखे गए। उसे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा, जबकि उसके मुताबिक़,कन्साइनमेंट का बॉक्स खोलना तो दूर उसने देखा तक नहीं था। दूसरी ओर संजय ने बॉक्स को खोला ही नहीं था, बल्कि हथियार देखने के बाद अनीस को फोन करके बताया भी कि “भाई सामान मिल गया है” और नाम सामने आने पर मित्र नलवाला को फोन पर अपने बेडरूम में रखी एके-56 राइफ़ल और बाक़ी हथियार फ़ौरन नष्ट करने का निर्देश भी दिया था।
यह संजय दत्त के भाग्य का ही कमाल था कि देश की सर्वोत्तम जांच एजेंसी सीबीआई ने भी कई ऐसे फ़ैसले लिए जिसका सीधा लाभ केवल संजय को ही मिला। मसलन, संजय-अनीस बातचीत के कॉल्स डिटेल्स आरोप-पत्र से ही अलग कर दिए। जो इस्टेब्लिश्ड करता था संजय की अनीस से दंगे और बम धमाके के बीच बहुत ज़्यादा बातचीत हुई थी। इस साक्ष्य को जुटाने के लिए मुंबई पुलिस ने एड़ी-चोटी को ज़ोर लगाया था और दुबई तक गई थी, लेकिन सीबीआई ने उसे डस्टबिन में डाल दिया। यह दस्तावेज़ साबित कर रहा था कि संजय का अनीस से घनिष्ठ संबंध है और जो राइफ़ल उनको दी गई थी, वह रायगड़ समुद्र तट के रास्ते भेजे कन्साइन्मेंट के साथ लाई गई थी। यानी संजय आतंकवादी साज़िश का सीधे साझीदार थे, क्योंकि अनीस उनके “टच” में था। इससे केस बहुत स्ट्रॉंग हो रहा था। यह भाग्य का ही कमाल था कि सीबीआई फिर संजय पर मेहरबान हुई और सालेम का ट्रायल बमकांड के मुक़दमे से ही अलग कर दिया।
दरअसल, संजय और दाऊद-अनीस के बीच सालेम अहम कड़ी था, जो पुष्ट कर रहा था कि कम से कम संजय एके-56 राइफल लाने की साज़िश में सीधे तौर पर शामिल थे। यहां भाग्य का साथ होना संजय को कड़ी सज़ा से बचा लिया,क्योंकि सीबीआई अगर सख़्त होती तो संजय को कम से कम 10 साल की सज़ा मिल सकती थी। यह भाग्य का साथ ही था कि सीबीआई ने 2002 में संजय की छोटा शकील बातचीत के सार्वजनिक होने का भी संज्ञान नहीं लिया। हालांकि इसके बाद भी उसे संजय की बेल रद करने के लिए कोर्ट अप्रोच करना चाहिए था। केस के ट्रायल के दौरान भी संजय को मुकद्दर का साथ मिलता रहा। एके-56 राइफ़ल से जुड़े सभी आरोपियों को टाडा के तहत सज़ा मिली, लेकिन संजय को केवल आर्म्स ऐक्ट के तहत 6 साल की सज़ा हुई।
यह तकदीर की खेल था कि सीबीआई ने टाडा कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ही नहीं दी। किसी ने भी सीबीआई से पूछा भी नहीं कि भाई एक ही मामले में दो तरह के फ़ैसले कैसे आए गए और अगर आ गए हैं तो कम सज़ा पाने वाले आरोपी के ख़िलाफ़ जांच एजेंसी ने अपील क्यों नहीं की? उलटे सुप्रीम कोर्ट ने संजय की सज़ा एक साल और कम कर पांच साल कर दिया। निश्चित तौर पर यह भी भाग्य का ही खेल ही कहा जाएगा। जेल जाने के बाद भी संजय मुकद्दर का सिकंदर बने रहे। उनके समर्थन में जस्टिस मार्कंडेय काटजू जैसे सर्वमान्य लोग आ गए और “मानवीय” आधार पर उन्हें माफ़ीनामा देने की पैरवी करने लगे, उनकी अपील महाराष्ट्र के राज्यपाल के पास अब भी विचाराधीन है।
संजय के चाहने वालों का मानना है कि उनसे“ग़लती” हो गई। यानी संजय ने अपराध जान-बूझकर नहीं किया। अपराध उनसे अपने आप अनजाने में हो गया। मज़ेदार बात यह है कि जब संजय ने एके-56 मंगवाई थी, तब वह 33 साल के थे यानी बालिग हुए 15 साल बीत चुके थे। वह बांद्रा के जिस पॉश पाली हिल इलाक़े में रहते हैं, वहां कभी दंगा हुआ ही नहीं। दंगे पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि झुग्गीबाहुल्य क्षेत्रों में हुए थे। लिहाज़ा, संजय का ख़तरे की दुहाई देना सरासर बेमानी थी। उस समय संजय के परिवार को कोई ख़तरा नहीं था।
दंगा, दरअसल, मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ा से शुरू हुआ और मारकाट में सबसे जानमाल का नुक़सान भी मुसलमानों को ही उठाना पड़ा। छह दिसंबर 1992 को अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश की तरह मुंबई में भी दंगा भड़का था। देश की आर्थिक राजधानी में 6 से 10 दिसंबर 1992 और 6 से 15 जनवरी 1993 के दौरान दो चरण में ख़ून की होली खेली गई, जिसमें, दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग के मुताबिक़, कुल 850 लोग (575 मुसलमान और 275 हिंदू) मारे गए। तात्पर्य यह है कि संजय ने किसी तरह का ख़तरा न होने के बावजूद केवल शेखी बघारने के लिए एके-56 राइफ़ल जैसा ख़तरनाक़ हथियार मंगवाए थे और तकदीर का धनी होने के नाते उन्हें केवल पांच साल की सज़ा हुई।
1993 बमकांड से पहले तक डॉन दाऊद केवल ख़तरनाक अपराधी था, सो बॉलीवुड के सितारे चाहे-अनचाहे उसके बुलाने पर अकसर दुबई पहुंच जाते थे। इसमें उन्हें अच्छा नज़राना भी मिलता था। सिल्वर स्क्रीन के लोगों के लिए दुबई तो मुंबई के बाद दूसरा ठिकाना था। 90 के दशक में दुबई महफ़ूज़ ऐशगाह था। तब कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री नहीं होगा, जिसने दाऊद के सामने ठुमके न लगाए हों। संजय भी दाऊद के ग्लैमर से नहीं बच सके।
मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक एक बार अनीस के संपर्क में आने के बाद दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गई। वे अक्सर बात करने लगे। संजय पर्सनल इशूज़ भी शेयर करने लगे। संजय समेत बॉलीवुड के लोगों को दाऊद से रिश्ता रखने के ख़तरे का अहसास मुंबई की तबाही के बाद हुआ। अगर संजय बमकांड के बाद अनीस से संपर्क ख़त्म कर लेते तो माना जा सकता कि उनसे ग़लती हुई और भूल-सुधार करना चाहते हैं। लेकिन आरोपी होते हुए भी 2002 में संजय (तब उम्र 42 साल) ने शकील से फिर बात की और गोविंदा को सबक सिखाने का आग्रह किया। जिसे मुंबई पुलिस ने रिकॉर्ड कर लिया। यानी संजय ने अपनी पिछली ग़लतियों से कुछ भी नहीं सीखा। इसके बावजूद भाग्य ने उसका साथ दिया।
वैसे 257 हत्या के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार बम प्लांटर शोएब घंसार, असगर मुक़ादम, शाहनवाज़ कुरैशी,अब्दुल गनी तुर्क, परवेज़ शेख़, मोहम्मद इक़बाल, यूसुफ़ शेख, नसीम बरमारे, मोहम्मद फ़ारूक पावले, मुश्ताक तरानी और इम्तियाज घवाटे को भी मौत की सज़ा मिली थी, लेकिन तकदीर उनके साथ थी। कहा जा सकता है कि बमकांड में शामिल सभी अभियुक्त भाग्यशाली रहे कि उन्हें ग़ुनाह के मुक़ाबले कम सज़ा मिली।
वैसे,मुकद्दर ने संजय का साथ छोड़ा ही नहीं तभी तो संजय को जेल गए दो साल भी नहीं हुए हैं, लेकिन उस पर शुरू से फर्लो और पैरोल की बारिश हो रही है। हालांकि पूर्व आईपीएस एडवोकेट वाईपी सिंह संजय दत्त को दिए गए पैरोल को सही नहीं मानते हैं। सिंह के मुताबिक पैरोल रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर कैटेगरी के क़ैदियों को मिलता है। हालांकि वह भी मानते हैं कि संजय दत्त वाक़ई भाग्यशाली हैं, जो उसे हर जगह फेवर मिल रहा है। वैसे अभी संजय को भाग्य की ज़रूरत है, क्योंकि उसकी क्षमादान याचिका राज्यपाल के पास विचारीधीन हैं। ऐसे में भविष्य में तकदीर उन पर दोबारा मेहरबान हो जाए और वह सज़ा ख़त्म करने से पहले छूट जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।
1993 के मुंबई बम धमाकों से जुड़े मामले में दोषी संजय दत्त आज जेल से रिहा हो गए। पुणे की येरवडा जेल में अधिकारियों ने औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उन्हें रिहा कर दिया। जेल में अच्छे व्यवहार के चलते समय से पहले 114 दिन पहले उनकी रिहाई हुई है।
संजय दत्त ने येरवडा जेल में फहरा रहे तिरंगे को सैल्यूट किया, धरती को चूमा और फिर अपना बैग कंधे में डालकर जेल के बाहर आ गए। बाहर पत्नी मान्यता दत्त उनका इंतजार कर रही थीं। यहां से संजय दत्त सीधे पुणे एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गए। संजय दत्त सबसे पहले सिद्धिविनायक मंदिर जाएंगे। इसके अलावा अपनी मां नरगिस की कब्र पर भी जाएंगे।
अगर 257 निर्दोष लोगों की जान लेने वाले 1993 के मुंबई बम धमाकों में शामिल रहे लोगों के भाग्य की बात करें तो 123 आरोपियों में अगर याकूब मेमन सबसे बदनसीब रहा तो अभिनेता और नेता पुत्र संजय दत्त सबसे ख़ुशनसीब। तभी तो दो मई 2013 से मई 2014 के बीच पैरोल और फर्लो के तहत 118 दिन जेल से बाहर रहे संजय दत्त पूरी सजा काटे बगैर ही जेल से रिहा हो गए हैं।
संजू बाबा की रिहाई की खबर से उनके पूरे परिवार के साथ साथ बॉलीवुड भी बेहद खुश है। बॉलीवुड अभिनेता मनोज बाजपेयी ने संजय की रिहाई पर खुशी जताई। मनोज ने कहा कि मैं संजू (संजय) को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और खुश हूं कि वह एक-दो दिन में आखिरकार अपने परिवार और दोस्तों के पास वापस आ रहे हैं। हम उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं और हमेशा उनकी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं।
लेकिन संजय दत्त की इस रिहाई पर कई तरह के सवालों का घेरा भी मंडरा रहा है। उन सवालों में सबसे महत्वपूर्ण सवाल खुद संजय दत्त की इस पूरे बम कांड में भूमिका, उसके बाद उनकी देरी से गिरफ्तारी और फिर बाद में जेल के बाद फिर जेल वह बीच-बीच में 30 दिन 60 दिन जैसे अविध में बाहर आना। जाहिर है यह सारे सवाल उनकी किस्मत और हमारे सिस्टम से आकर जुड़ते हैं ।
आइए जानने की कोशिश करते हैं कि कैस संजय दत्त की किस्मत ने इस पूरे मामले में उनका साथ दिया और कैसे सिस्टम उनके लिए मेहरबान बनारहा।
दरअसल, यूं तो मुंबई सीरियल बमकांड में किसी न किसी किरदार में शामिल रहे सभी आरोपी निर्दोषों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार रहे और सभी याकूब मेमन जैसी कठोर सज़ा के हक़दार थे, लेकिन याकूब मेमन सबसे ज़्यादा बदनसीब रहा, उसके साथ तकदीर थी ही नहीं। जीने की प्रबल इच्छा रखने वाला याकूब जहां मुकद्दर के साथ के लिए तरसता रहा, वहीं शेष सभी आरोपियों को भाग्य का कुछ न कुछ साथ ज़रूर मिला।
फ़ांसी की सज़ा पाए 12 लोग अच्छी किस्मत के चलते मौत के मुंह में जाने से बच गए। हालांकि पुणे की येरवड़ा जेल से घर पहुंचे संजय दत्त सबसे ज़्यादा खुशनसीब रहे। संजय बमकांड में शामिल होने के आरोप में गिरफ़्तारी बावजूद भाग्य की बदौलत जांच ऐजेंसियों का कथित “फेवर” पाने में सफल रहे और अंततः आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप से मुक्त हो गए। इसीलिए उन्हें सबसे कम सज़ा मिली। यानी मुन्ना भाई यक़ीनन मुकद्दर का सिकंदर निकला।
संजय पर तकदीर मेहरबानी की फ़ेहरिस्त बड़ी लंबी है। उन पर पहली बार मुकद्दर तब मेहरबान हुआ जब 3 अप्रैल 1993 को पुलिस इंटरोगेशन के दौरान इब्राहिम मुस्तफ़ा चौहान उर्फ बाबा चौहान ने बताया कि इस साज़िश में एक बहुत बड़ी मछली शामिल है और उसने संजय दत्त का नाम लिया।“शांतिदूत” सुनील दत्त का बेटा साज़िश में शामिल है, यह सुनकर सबके होश उड़ गए और विशेष जांच टीम के मुखिया राकेश मारिया (फ़िलहाल मुंबई के पुलिस कमिश्नर) भी हतप्रभ रह गए।
चूंकि संजय पर मुकद्दर मेहरबान था, इसलिए, बाबा चौहान की जानकारी के बावजूद मारिया को सुनील दत्त के घर पर रेड करने की इजाज़त मुंबई पुलिस आयुक्त अमरजीत सिंह सामरा ने नहीं दी। वरना एके-56 राइफल उसी समय रिकवर हो जाती। हालांकि, खुलासा हुआ कि उसकी राजनीतिक वजह थी। राज्य में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी और सुनील दत्त की पहुंच बहुत ऊपर तक थी।
बहरहाल, 19 अप्रैल 1993 की रात मॉरीशस से लौटते ही संजय एयरपोर्ट पर अरेस्ट हो गए। लेकिन भाग्य उनके साथ था, इसलिए पुलिस ने उनसे आरोपी नहीं, बल्कि नेता-पुत्र तरह पूछताछ की। संजय ने तत्कालीन क्राइम ब्रांच हेड महेश नारायण सिंह और राकेश मारिया के सामने कबूल कर लिया कि मास्टरमाइंड दाऊद इब्राहिम का भाई अनीस उनका दोस्त है। दोनों की अक्सर फोन पर बातचीत होती है। अनीस ने 16 जनवरी 1993 को 3 एके-56 राइफ़ल्स, 9 मैगज़िन्स, 450 राउंड्स और 20 हैंडग्रेनेड्स का कन्साइनमेंट अबू सालेम (जो केवल राइफल मामले के चलते बमकांड का आरोपी बनाया गया है) फ़िल्मकार समीर हिंगोरा और बाबा चौहान के साथ भेजी। तीन दिन बाद यानी 18 जनवरी की शाम सालेम हनीफ़ कड़ावाला और मंज़ूर अहमद के साथ संजय के यहां फिर आया और 2 राइफ़ल, कुछ हैंडग्रेनेड और गोलियां लेकर गया। यानी संजय ने अनीस से ग़ैरक़ानूनी तौर पर घातक राइफ़ल ली।
बमकांड में दायर आरोप पत्र के मुताबिक, दाऊद ने 300 सौ चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 राइफ़ल्स और कई सौ ग्रेनेड्स, मैगज़िन्स, गोलियां और कई क्विंटल विस्फोटक आरडीएक्स 9 जनवरी और 9 फ़रवरी 1993 के बीच कई खेप में रायगड़ के दिग्घी जेट्टी और शेखाड़ी के रास्ते मुंबई भेजी। यह काम इब्राहिम मुश्ताक़ मेमन उर्फ टाइगर मेमन और मोहम्मद डोसा ने किए। हथियारों और विस्फोटकों को बम बनाने के लिए मुंबई और भिवंडी भेजा गया और बाद में उसी से 12 मार्च को धमाके को अंजाम दिया गया। हथियारों और आरडीएक्स से भरा एक ट्रक रायगड़ के जंगल के रास्ते नासिक होता हुआ गुजरात के लिए भी रवाना किया गया। कस्टम टीम ने ट्रक ट्रैप किया भी, लेकिन 8 लाख रुपये रिश्वत लेकर उसे जाने की इजाज़त दे दी।
यकीनन, कस्टम टीम के सभी लोगों को टाडा के तहत सज़ा हुई। ट्रक का सामान गुजरात के अंकलेश्वर (भरुच) में बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में छिपाया गया। यहां टीम में सालेम शामिल हुआ। हथियार तयशुदा ठिकानों और लोगों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सालेम की थी। 9 एके-56 राइफ़ल, सौ से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर सालेम सड़क के रास्ते मुंबई आया। उसने अनीस के कहने पर कन्साइनमेंट में से एक राइफ़ल संजय को दी।
यानी संजय ने ब्लास्ट के बाद जिस राइफल को नष्ट करने के लिए यूसुफ़ नलवाला को मॉरीशस से फोन किया, वह राइफ़ल दिग्घी जेटी पर ही उतारी गई थी। ये बातें यहां इसलिए विस्तार से बताई गई है, ताकि साफ़ हो जाए कि संजय से ग़लती नहीं हुई, बल्कि वह बमकांड की साज़िश का हिस्सा थे। फिर भी जांच एजेंसियां उनके साथ उस तरह पेश नहीं आईं जिस तरह बाक़ी आरोपियों के साथ। यह भाग्य का ही कमाल था।
बहरहाल, एक दर्जन से ज़्यादा लोगों को फांसी की सज़ा सुनाने वाली टाडा कोर्ट ने भी संजय का क़बूलनामा स्वीकार कर लिया कि वाक़ई संजय असुरक्षित महसूस कर रहे थे, इसलिए विनाशकारी ग़ैरक़ानूनी हथियार मंगवाए। संजय के मुताबिक, मुंबई दंगों के समय उन्हें धमकियां मिल रही थी, इसलिए उन्होंने अनीस से एके-56 मांगी। संजय के क़बूलनामे को स्वीकार करना और मान लेना कि उन्हें वाक़ई जानमाल का ख़तरा था, संजय पर भाग्य की कृपा से ही हुआ। मुकद्दर की ऐसी मेहरबानी राइफल से जुड़े दूसरे आरोपियों को नहीं मिली।
दरअसल, गिरफ्तारी के बाद सुप्रीम कोर्ट तक हाथ-पैर मारने के बावजूद साल भर तक संजय को बेल नहीं मिली। उनके बढ़ते जेल प्रवास से पिता सुनील दत्त बहुत विचलित हो गए। हर नेता का चक्कर लगाते हुए वह धुर कांग्रेस विरोधी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की शरण में गए। मज़ेदार बात यह रही कि इस बार याकूब की फांसी का विरोध कर रहे सेक्यूलर जमात कुछ लोगों ने उसी दौरान भी मीडिया के ज़रिए शोर मचाना शुरू किया कि टाडा का दुरुपयोग हो रहा है। यह भी कहा गया है कि टाडा के चलते बड़ी तादाद में ऐसे लोग जेलों में “सड़” रहे हैं, जिनका आतंकवाद से कुछ लेना-देना नहीं है।
ऐसे लोगों के केसों पर विचार करने के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार ने आईएएस और आईपीएस की एक क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी यानी अर्ध-न्यायिक समिति का गठन किया। भाग्य ने यहां भी संजय के साथ खड़ा हो गया और क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी ने भी माना कि संजय दत्त ही सबसे ज़्यादा “टाडा पीड़ित”आरोपी हैं। लिहाज़ा कमेटी ने उनके बेल की सिफ़ारिश कर दी और संजय केवल 18 महीने में ही जेल से बाहर आ गए। जबकि उसी केस में पकड़े गए बाबा, मंज़ूर, नलवाला, हिंगोरा और कड़ावाला को ज़मानत के लिए पांच साल या उससे ज़्यादा वक़्त इंतज़ार करना पड़ा।
इतना ही नहीं जिस ज़ैबुन्निसा क़ादरी (तब उसकी उम्र 64 साल थी) के घर में 2 एके-56 और हथियार 2 दिन रखे गए। उसे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा, जबकि उसके मुताबिक़,कन्साइनमेंट का बॉक्स खोलना तो दूर उसने देखा तक नहीं था। दूसरी ओर संजय ने बॉक्स को खोला ही नहीं था, बल्कि हथियार देखने के बाद अनीस को फोन करके बताया भी कि “भाई सामान मिल गया है” और नाम सामने आने पर मित्र नलवाला को फोन पर अपने बेडरूम में रखी एके-56 राइफ़ल और बाक़ी हथियार फ़ौरन नष्ट करने का निर्देश भी दिया था।
यह संजय दत्त के भाग्य का ही कमाल था कि देश की सर्वोत्तम जांच एजेंसी सीबीआई ने भी कई ऐसे फ़ैसले लिए जिसका सीधा लाभ केवल संजय को ही मिला। मसलन, संजय-अनीस बातचीत के कॉल्स डिटेल्स आरोप-पत्र से ही अलग कर दिए। जो इस्टेब्लिश्ड करता था संजय की अनीस से दंगे और बम धमाके के बीच बहुत ज़्यादा बातचीत हुई थी। इस साक्ष्य को जुटाने के लिए मुंबई पुलिस ने एड़ी-चोटी को ज़ोर लगाया था और दुबई तक गई थी, लेकिन सीबीआई ने उसे डस्टबिन में डाल दिया। यह दस्तावेज़ साबित कर रहा था कि संजय का अनीस से घनिष्ठ संबंध है और जो राइफ़ल उनको दी गई थी, वह रायगड़ समुद्र तट के रास्ते भेजे कन्साइन्मेंट के साथ लाई गई थी। यानी संजय आतंकवादी साज़िश का सीधे साझीदार थे, क्योंकि अनीस उनके “टच” में था। इससे केस बहुत स्ट्रॉंग हो रहा था। यह भाग्य का ही कमाल था कि सीबीआई फिर संजय पर मेहरबान हुई और सालेम का ट्रायल बमकांड के मुक़दमे से ही अलग कर दिया।
दरअसल, संजय और दाऊद-अनीस के बीच सालेम अहम कड़ी था, जो पुष्ट कर रहा था कि कम से कम संजय एके-56 राइफल लाने की साज़िश में सीधे तौर पर शामिल थे। यहां भाग्य का साथ होना संजय को कड़ी सज़ा से बचा लिया,क्योंकि सीबीआई अगर सख़्त होती तो संजय को कम से कम 10 साल की सज़ा मिल सकती थी। यह भाग्य का साथ ही था कि सीबीआई ने 2002 में संजय की छोटा शकील बातचीत के सार्वजनिक होने का भी संज्ञान नहीं लिया। हालांकि इसके बाद भी उसे संजय की बेल रद करने के लिए कोर्ट अप्रोच करना चाहिए था। केस के ट्रायल के दौरान भी संजय को मुकद्दर का साथ मिलता रहा। एके-56 राइफ़ल से जुड़े सभी आरोपियों को टाडा के तहत सज़ा मिली, लेकिन संजय को केवल आर्म्स ऐक्ट के तहत 6 साल की सज़ा हुई।
यह तकदीर की खेल था कि सीबीआई ने टाडा कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ही नहीं दी। किसी ने भी सीबीआई से पूछा भी नहीं कि भाई एक ही मामले में दो तरह के फ़ैसले कैसे आए गए और अगर आ गए हैं तो कम सज़ा पाने वाले आरोपी के ख़िलाफ़ जांच एजेंसी ने अपील क्यों नहीं की? उलटे सुप्रीम कोर्ट ने संजय की सज़ा एक साल और कम कर पांच साल कर दिया। निश्चित तौर पर यह भी भाग्य का ही खेल ही कहा जाएगा। जेल जाने के बाद भी संजय मुकद्दर का सिकंदर बने रहे। उनके समर्थन में जस्टिस मार्कंडेय काटजू जैसे सर्वमान्य लोग आ गए और “मानवीय” आधार पर उन्हें माफ़ीनामा देने की पैरवी करने लगे, उनकी अपील महाराष्ट्र के राज्यपाल के पास अब भी विचाराधीन है।
संजय के चाहने वालों का मानना है कि उनसे“ग़लती” हो गई। यानी संजय ने अपराध जान-बूझकर नहीं किया। अपराध उनसे अपने आप अनजाने में हो गया। मज़ेदार बात यह है कि जब संजय ने एके-56 मंगवाई थी, तब वह 33 साल के थे यानी बालिग हुए 15 साल बीत चुके थे। वह बांद्रा के जिस पॉश पाली हिल इलाक़े में रहते हैं, वहां कभी दंगा हुआ ही नहीं। दंगे पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि झुग्गीबाहुल्य क्षेत्रों में हुए थे। लिहाज़ा, संजय का ख़तरे की दुहाई देना सरासर बेमानी थी। उस समय संजय के परिवार को कोई ख़तरा नहीं था।
दंगा, दरअसल, मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ा से शुरू हुआ और मारकाट में सबसे जानमाल का नुक़सान भी मुसलमानों को ही उठाना पड़ा। छह दिसंबर 1992 को अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश की तरह मुंबई में भी दंगा भड़का था। देश की आर्थिक राजधानी में 6 से 10 दिसंबर 1992 और 6 से 15 जनवरी 1993 के दौरान दो चरण में ख़ून की होली खेली गई, जिसमें, दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग के मुताबिक़, कुल 850 लोग (575 मुसलमान और 275 हिंदू) मारे गए। तात्पर्य यह है कि संजय ने किसी तरह का ख़तरा न होने के बावजूद केवल शेखी बघारने के लिए एके-56 राइफ़ल जैसा ख़तरनाक़ हथियार मंगवाए थे और तकदीर का धनी होने के नाते उन्हें केवल पांच साल की सज़ा हुई।
1993 बमकांड से पहले तक डॉन दाऊद केवल ख़तरनाक अपराधी था, सो बॉलीवुड के सितारे चाहे-अनचाहे उसके बुलाने पर अकसर दुबई पहुंच जाते थे। इसमें उन्हें अच्छा नज़राना भी मिलता था। सिल्वर स्क्रीन के लोगों के लिए दुबई तो मुंबई के बाद दूसरा ठिकाना था। 90 के दशक में दुबई महफ़ूज़ ऐशगाह था। तब कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री नहीं होगा, जिसने दाऊद के सामने ठुमके न लगाए हों। संजय भी दाऊद के ग्लैमर से नहीं बच सके।
मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक एक बार अनीस के संपर्क में आने के बाद दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गई। वे अक्सर बात करने लगे। संजय पर्सनल इशूज़ भी शेयर करने लगे। संजय समेत बॉलीवुड के लोगों को दाऊद से रिश्ता रखने के ख़तरे का अहसास मुंबई की तबाही के बाद हुआ। अगर संजय बमकांड के बाद अनीस से संपर्क ख़त्म कर लेते तो माना जा सकता कि उनसे ग़लती हुई और भूल-सुधार करना चाहते हैं। लेकिन आरोपी होते हुए भी 2002 में संजय (तब उम्र 42 साल) ने शकील से फिर बात की और गोविंदा को सबक सिखाने का आग्रह किया। जिसे मुंबई पुलिस ने रिकॉर्ड कर लिया। यानी संजय ने अपनी पिछली ग़लतियों से कुछ भी नहीं सीखा। इसके बावजूद भाग्य ने उसका साथ दिया।
वैसे 257 हत्या के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार बम प्लांटर शोएब घंसार, असगर मुक़ादम, शाहनवाज़ कुरैशी,अब्दुल गनी तुर्क, परवेज़ शेख़, मोहम्मद इक़बाल, यूसुफ़ शेख, नसीम बरमारे, मोहम्मद फ़ारूक पावले, मुश्ताक तरानी और इम्तियाज घवाटे को भी मौत की सज़ा मिली थी, लेकिन तकदीर उनके साथ थी। कहा जा सकता है कि बमकांड में शामिल सभी अभियुक्त भाग्यशाली रहे कि उन्हें ग़ुनाह के मुक़ाबले कम सज़ा मिली।
वैसे,मुकद्दर ने संजय का साथ छोड़ा ही नहीं तभी तो संजय को जेल गए दो साल भी नहीं हुए हैं, लेकिन उस पर शुरू से फर्लो और पैरोल की बारिश हो रही है। हालांकि पूर्व आईपीएस एडवोकेट वाईपी सिंह संजय दत्त को दिए गए पैरोल को सही नहीं मानते हैं। सिंह के मुताबिक पैरोल रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर कैटेगरी के क़ैदियों को मिलता है। हालांकि वह भी मानते हैं कि संजय दत्त वाक़ई भाग्यशाली हैं, जो उसे हर जगह फेवर मिल रहा है। वैसे अभी संजय को भाग्य की ज़रूरत है, क्योंकि उसकी क्षमादान याचिका राज्यपाल के पास विचारीधीन हैं। ऐसे में भविष्य में तकदीर उन पर दोबारा मेहरबान हो जाए और वह सज़ा ख़त्म करने से पहले छूट जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।
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