हरिगोविंद विश्वकर्मा
इस साल गणतंत्र दिवस के दिन अहमदनगर जिले में शनि शिंगणापुर मंदिर के चबूतरे तक जाने की हिंदू महिलाओं की कोशिश और महालक्ष्मी (मुंबई) के हाजीअली दरगाह में मुस्लिम महिलाओं को प्रवेश देने की मांग, दरअसल, सदियों से चली आ रही आउटडेटेड पुरुषवादी परंपराओं को गिराने की शुरुआत भर है। लकीर के फकीर पुरुष प्रधान समाज के पैरोकार अगर होश में नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं, जब भूमाता रण रागिनी ब्रिगेड की अध्यक्ष तृप्ति देसाई और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह संस्थापक नूरजहां साफिया नियाज़ ने नेतृत्व में हर भारतीय महिला पुरुषवादी परंपरा से लड़ने के लिए तैयार हो जाएगी। लिहाज़ा, समय के साथ सोच और व्यवहार में बदलाव वक़्त का तकाजा है, जो भी ऐसा नहीं करेगा, वह निश्तिच रूप से आउटडेट घोषित कर दिया जाएगा।
साढ़े चार सौ साल से भी अधिक पुराने शनि शिंगणापुर मंदिर के चबूतरे पर महिलाओं का जाना और उनका सरसों का तेल चढ़ाना मना है। पता नहीं किसने इस बेतुकी और पक्षपातपूर्ण परंपरा का आरंभ किया है। इसी तरह छह सदी से ज़्यादा पुराने हाजीअली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर मनाही है। जबकि किसी भी धार्मिक पुस्तक में कही नहीं लिखा है कि महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर भेदभाव किया जाए। ज़ाहिर सी बात है, इस तरह की दकियानूसी परंपराएं पुरुष-प्रधान समाज में हर जगह हैं। पहले तो महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर ही अघोषित पाबंदी थी, लेकिन वक्त के साथ उसमें बदलाव आया और महिलाओं सीमित संख्या में ही सही हर जगह दिखती हैं।
महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर किसी तरह का भेदभाव करना और उन्हें किसी भी धर्मस्थल पर जाने से रोकना दरअसल सामाजिक और मानवीय दोनों तरह का अपराध है। यह भारतीय संविधान में महिलाओं को मिले अधिकार का भी गंभीर हनन है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं। चाहे वे शनि शिंगणपुर के शनि मंदिर के पुजारी हों या सबरीमाला मंदिर के पुजारी या फिर मस्जिदों के मौलवी सबके सब मानवता के खिलाफ अपराध के दोषी हैं और इन सबके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की जानी चाहिए और पूरे देश में हर धार्मिक स्थल पर जाने की महिलाओं को आज़ादी दी जानी चाहिए। शनि शिंगणापुर के मुद्दे पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस को फ़ैसला लेने के लिए अधिकृत किया गया है।
यहां तक कि मासिक धर्म (रजोधर्म) या पीरियड के समय भी किसी महिला को किसी धार्मिक अनुष्ठान से दूर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि पीरियड हर महीने गर्भाशय की सफाई का एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। उसके बाद स्त्री गर्भधारण (अगर चाहे तो) के लिए शारीरिक तौर पर तैयार होती है। इसे उसी तरह की सफाई माना जा सकता है, जिस तरह स्त्री-पुरुष दैनिक नित्यकर्म करते हैं। अगर नित्यकर्म अशुद्ध नहीं है, तो पीरियड को भी अशुद्ध नहीं माना जा सकता। अब तो मेडिकल से जुड़े लोग कहने लगे हैं कि पीरियड के समय सहवास करने में कोई हानि नहीं होती। मेडिकल साइंस के मुताबिक़, महिला का शरीर भी कमोबेश पुरुष की तरह ही है। पुरुष का शरीर स्पर्म पैदा करता है तो स्त्री के शरीर में एग्स पैदा होते हैं, जिसकी ब्रिडिंग गर्भाशय में होता है और नौ महीने बाद मानव जन्म लेता है। लिहाज़ा, स्त्री को अशुद्ध कहने का मतलब संतानोत्पत्ति को ही अशुद्ध कहना है।
राहुल सांकृत्यायन के “वोल्गा से गंगा” के मुताबिक आठ से दस हज़ार साल पहले मानव दो पैरों पर खड़ा होने के बाद निर्वस्त्र हाल में एक झुंड में जंगलों और गुफाओं में रहता था। तब मनुष्य का शरीर इतना मज़बूत होता था कि कोई बीमारी नहीं लगती थीं। आजकल जानवरों की तरह उस समय हर स्त्री-पुरुष का अनगिनत लोगों से सेक्सुअल रिलेशनशिप होता था, इसलिए किसी शिशु का पिता कौन है, यह कोई नहीं जानता था। हां, दूध पीने के कारण माता को सब लोग पहचानते थे। झुंड की सबसे ताक़तवर महिला ही झुंड की मुखिया होती थी। यह परंपरा कई हज़ार साल तक चलती रही। महिला मुखिया झुंड के हर सदस्य के साथ इंसाफ करती थी। इसलिए उस समय आपसी झगड़े या लड़ाइयां भी बहुत कम हुआ करती थीं। तब सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट या अबॉर्शन की प्रथा भी नहीं थी। लिहाज़ा, धरती पर स्त्री और पुरुष की तादाद लगभग बराबर होती थी। यानी जनसंख्या संतुलित थी। यह तथ्य मानव विकास पर लिखी गई किताबों में भी मिलता है। कभी-कभार जब दो झुंडों की आपस में संघर्ष होती था तब दोनों झुंड की मुखिया स्त्रियां ही आपस में मलयुद्ध करती थीं।
हुआ यूं कि एक बार एक झुंड की महिला मुखिया किसी कारण से मर गई। उसी समय उस झुंड पर दूसरे झुंड ने आक्रमण कर दिया। तब लड़ाई के लिए मर चुकी महिला मुखिया के बलिष्ठ बेटे, जो उसका प्रेमी भी था, को आगे आना पड़ा। उसका दूसरे झुंड की मादा से भयानक मलयुद्ध हुआ। पुरुष ने दूसरे झुंड की महिला को हार दिया। मानव समाज के विकास की संरचना में यह घटना अहम मोड़ थी। पुरुष ने पहली बार महसूस किया कि औसतन वह महिला से ज़्यादा ताक़तवर है। इसके बाद झुंड प्रमुख पद को सबसे ताकतवर पुरुष हथियाने लगे। यहीं से पुरुष आधिपत्य शुरू हुआ और स्त्री के साथ पक्षपात होने लगा। पुरुष उसे महज भोग की वस्तु समझने लगा और उसके मानवीय अधिकारों का भी हनन करने लगा। परिवारवाद प्रथा शुरू होने पर शुरू में एक पुरुष कई-कई पत्नियां रखता था, लेकिन स्त्री को दूसरे पुरुष की ओर देखने पर कुलटा कह दिया जाता था। जब शिक्षा की अवधारणा शुरू हुई तो पुरुष ने उस पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद धर्म की स्थापना हुई। पुरुष आधिपत्य का कराण हर धर्म पुरुष प्रधान बनाए गए। जितने भी धार्मिक ग्रंथ रचे गए सबके सब पुरुषों ने रचे और सबमें पुरुष को ही महिमामंडित किया गया। जितने त्यौहार बनाए गए सब के सब पुरुष वर्चस्व के प्रतीक हैं। पत्नी पति के लिए व्रत रहती है, लेकिन कोई पति अपनी पत्नी के लिए व्रत नहीं रहता।
सारी पुरुष-प्रधान परंपराएं कमोबेश आज भी बदस्तूर जारी हैं। घर के बाहर हर जगह पुरुष ही दिखते हैं। महिलाओं की विज़िबिलिटी 10-15 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है। सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति के दौर में भी मुंबई-दिल्ली जैसे महानगर छोड़ दिए जाएं तो महिलाओं की घर के बाहर विज़िबिलिटी पांच फ़ीसदी भी नहीं है। महिलाओं की कम विज़िबिलिटी के चलते दुस्साहसी पुरुष उनके साथ उनकी मर्जी के विरुद्ध हरकते करते हैं। उनके साथ भेदभाव करते हैं। महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों की असली वजह यही है, जिसे क़ानून को सख़्त करके नहीं रोका जा सकता। इसके लिए देश में हर जगह महिलाओं को 50 प्रतिशत जगह आरक्षित करनी पड़ेगी। हर जगह जितने पुरुष है उतनी स्त्री करनी ही पड़ेगी। शनि शिंगणापुर और हर मंदिर मस्जिद में महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित ही नहीं करना पड़ेगा बल्कि शनि शिंगणापुर और सबरीमाला जैसे धर्मस्थलों पर महिला पुजारी भी नियुक्त करना पड़ेगा।
कितने शर्म की बात है, कि अपने ही धर्म के स्थल पर जाने के लिए महिलाओं को आंदोलन करना पड़ रहा है और तथाकथित लोग मध्यस्थता कर रहे हैं। यहां जनता दल अध्यक्ष शरद यादव का बयान समीचीन है कि शनि मंदिर शिंगणापुर और हाजीअली दरगाह में महिलाओं का प्रवेश रोकने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए ऐसे लोगों को फौरन जेल भेजा जाना चाहिए। भारतीय संविधान जब स्त्री-पुरुष को पूजा या इबादत का समान अधिकार देता है, तब ये पुजारी या मौलवी कौन होते हैं स्त्रियों को रोकने वाले? समाज के इन तथाकथित ठेकेदारों को महिलाओं को इन धर्मस्थलों में जाने से रोकने का अधिकार किसने दे दिया?
इस साल गणतंत्र दिवस के दिन अहमदनगर जिले में शनि शिंगणापुर मंदिर के चबूतरे तक जाने की हिंदू महिलाओं की कोशिश और महालक्ष्मी (मुंबई) के हाजीअली दरगाह में मुस्लिम महिलाओं को प्रवेश देने की मांग, दरअसल, सदियों से चली आ रही आउटडेटेड पुरुषवादी परंपराओं को गिराने की शुरुआत भर है। लकीर के फकीर पुरुष प्रधान समाज के पैरोकार अगर होश में नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं, जब भूमाता रण रागिनी ब्रिगेड की अध्यक्ष तृप्ति देसाई और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह संस्थापक नूरजहां साफिया नियाज़ ने नेतृत्व में हर भारतीय महिला पुरुषवादी परंपरा से लड़ने के लिए तैयार हो जाएगी। लिहाज़ा, समय के साथ सोच और व्यवहार में बदलाव वक़्त का तकाजा है, जो भी ऐसा नहीं करेगा, वह निश्तिच रूप से आउटडेट घोषित कर दिया जाएगा।
साढ़े चार सौ साल से भी अधिक पुराने शनि शिंगणापुर मंदिर के चबूतरे पर महिलाओं का जाना और उनका सरसों का तेल चढ़ाना मना है। पता नहीं किसने इस बेतुकी और पक्षपातपूर्ण परंपरा का आरंभ किया है। इसी तरह छह सदी से ज़्यादा पुराने हाजीअली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर मनाही है। जबकि किसी भी धार्मिक पुस्तक में कही नहीं लिखा है कि महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर भेदभाव किया जाए। ज़ाहिर सी बात है, इस तरह की दकियानूसी परंपराएं पुरुष-प्रधान समाज में हर जगह हैं। पहले तो महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर ही अघोषित पाबंदी थी, लेकिन वक्त के साथ उसमें बदलाव आया और महिलाओं सीमित संख्या में ही सही हर जगह दिखती हैं।
महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर किसी तरह का भेदभाव करना और उन्हें किसी भी धर्मस्थल पर जाने से रोकना दरअसल सामाजिक और मानवीय दोनों तरह का अपराध है। यह भारतीय संविधान में महिलाओं को मिले अधिकार का भी गंभीर हनन है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं। चाहे वे शनि शिंगणपुर के शनि मंदिर के पुजारी हों या सबरीमाला मंदिर के पुजारी या फिर मस्जिदों के मौलवी सबके सब मानवता के खिलाफ अपराध के दोषी हैं और इन सबके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की जानी चाहिए और पूरे देश में हर धार्मिक स्थल पर जाने की महिलाओं को आज़ादी दी जानी चाहिए। शनि शिंगणापुर के मुद्दे पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस को फ़ैसला लेने के लिए अधिकृत किया गया है।
यहां तक कि मासिक धर्म (रजोधर्म) या पीरियड के समय भी किसी महिला को किसी धार्मिक अनुष्ठान से दूर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि पीरियड हर महीने गर्भाशय की सफाई का एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। उसके बाद स्त्री गर्भधारण (अगर चाहे तो) के लिए शारीरिक तौर पर तैयार होती है। इसे उसी तरह की सफाई माना जा सकता है, जिस तरह स्त्री-पुरुष दैनिक नित्यकर्म करते हैं। अगर नित्यकर्म अशुद्ध नहीं है, तो पीरियड को भी अशुद्ध नहीं माना जा सकता। अब तो मेडिकल से जुड़े लोग कहने लगे हैं कि पीरियड के समय सहवास करने में कोई हानि नहीं होती। मेडिकल साइंस के मुताबिक़, महिला का शरीर भी कमोबेश पुरुष की तरह ही है। पुरुष का शरीर स्पर्म पैदा करता है तो स्त्री के शरीर में एग्स पैदा होते हैं, जिसकी ब्रिडिंग गर्भाशय में होता है और नौ महीने बाद मानव जन्म लेता है। लिहाज़ा, स्त्री को अशुद्ध कहने का मतलब संतानोत्पत्ति को ही अशुद्ध कहना है।
राहुल सांकृत्यायन के “वोल्गा से गंगा” के मुताबिक आठ से दस हज़ार साल पहले मानव दो पैरों पर खड़ा होने के बाद निर्वस्त्र हाल में एक झुंड में जंगलों और गुफाओं में रहता था। तब मनुष्य का शरीर इतना मज़बूत होता था कि कोई बीमारी नहीं लगती थीं। आजकल जानवरों की तरह उस समय हर स्त्री-पुरुष का अनगिनत लोगों से सेक्सुअल रिलेशनशिप होता था, इसलिए किसी शिशु का पिता कौन है, यह कोई नहीं जानता था। हां, दूध पीने के कारण माता को सब लोग पहचानते थे। झुंड की सबसे ताक़तवर महिला ही झुंड की मुखिया होती थी। यह परंपरा कई हज़ार साल तक चलती रही। महिला मुखिया झुंड के हर सदस्य के साथ इंसाफ करती थी। इसलिए उस समय आपसी झगड़े या लड़ाइयां भी बहुत कम हुआ करती थीं। तब सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट या अबॉर्शन की प्रथा भी नहीं थी। लिहाज़ा, धरती पर स्त्री और पुरुष की तादाद लगभग बराबर होती थी। यानी जनसंख्या संतुलित थी। यह तथ्य मानव विकास पर लिखी गई किताबों में भी मिलता है। कभी-कभार जब दो झुंडों की आपस में संघर्ष होती था तब दोनों झुंड की मुखिया स्त्रियां ही आपस में मलयुद्ध करती थीं।
हुआ यूं कि एक बार एक झुंड की महिला मुखिया किसी कारण से मर गई। उसी समय उस झुंड पर दूसरे झुंड ने आक्रमण कर दिया। तब लड़ाई के लिए मर चुकी महिला मुखिया के बलिष्ठ बेटे, जो उसका प्रेमी भी था, को आगे आना पड़ा। उसका दूसरे झुंड की मादा से भयानक मलयुद्ध हुआ। पुरुष ने दूसरे झुंड की महिला को हार दिया। मानव समाज के विकास की संरचना में यह घटना अहम मोड़ थी। पुरुष ने पहली बार महसूस किया कि औसतन वह महिला से ज़्यादा ताक़तवर है। इसके बाद झुंड प्रमुख पद को सबसे ताकतवर पुरुष हथियाने लगे। यहीं से पुरुष आधिपत्य शुरू हुआ और स्त्री के साथ पक्षपात होने लगा। पुरुष उसे महज भोग की वस्तु समझने लगा और उसके मानवीय अधिकारों का भी हनन करने लगा। परिवारवाद प्रथा शुरू होने पर शुरू में एक पुरुष कई-कई पत्नियां रखता था, लेकिन स्त्री को दूसरे पुरुष की ओर देखने पर कुलटा कह दिया जाता था। जब शिक्षा की अवधारणा शुरू हुई तो पुरुष ने उस पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद धर्म की स्थापना हुई। पुरुष आधिपत्य का कराण हर धर्म पुरुष प्रधान बनाए गए। जितने भी धार्मिक ग्रंथ रचे गए सबके सब पुरुषों ने रचे और सबमें पुरुष को ही महिमामंडित किया गया। जितने त्यौहार बनाए गए सब के सब पुरुष वर्चस्व के प्रतीक हैं। पत्नी पति के लिए व्रत रहती है, लेकिन कोई पति अपनी पत्नी के लिए व्रत नहीं रहता।
सारी पुरुष-प्रधान परंपराएं कमोबेश आज भी बदस्तूर जारी हैं। घर के बाहर हर जगह पुरुष ही दिखते हैं। महिलाओं की विज़िबिलिटी 10-15 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है। सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति के दौर में भी मुंबई-दिल्ली जैसे महानगर छोड़ दिए जाएं तो महिलाओं की घर के बाहर विज़िबिलिटी पांच फ़ीसदी भी नहीं है। महिलाओं की कम विज़िबिलिटी के चलते दुस्साहसी पुरुष उनके साथ उनकी मर्जी के विरुद्ध हरकते करते हैं। उनके साथ भेदभाव करते हैं। महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों की असली वजह यही है, जिसे क़ानून को सख़्त करके नहीं रोका जा सकता। इसके लिए देश में हर जगह महिलाओं को 50 प्रतिशत जगह आरक्षित करनी पड़ेगी। हर जगह जितने पुरुष है उतनी स्त्री करनी ही पड़ेगी। शनि शिंगणापुर और हर मंदिर मस्जिद में महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित ही नहीं करना पड़ेगा बल्कि शनि शिंगणापुर और सबरीमाला जैसे धर्मस्थलों पर महिला पुजारी भी नियुक्त करना पड़ेगा।
कितने शर्म की बात है, कि अपने ही धर्म के स्थल पर जाने के लिए महिलाओं को आंदोलन करना पड़ रहा है और तथाकथित लोग मध्यस्थता कर रहे हैं। यहां जनता दल अध्यक्ष शरद यादव का बयान समीचीन है कि शनि मंदिर शिंगणापुर और हाजीअली दरगाह में महिलाओं का प्रवेश रोकने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए ऐसे लोगों को फौरन जेल भेजा जाना चाहिए। भारतीय संविधान जब स्त्री-पुरुष को पूजा या इबादत का समान अधिकार देता है, तब ये पुजारी या मौलवी कौन होते हैं स्त्रियों को रोकने वाले? समाज के इन तथाकथित ठेकेदारों को महिलाओं को इन धर्मस्थलों में जाने से रोकने का अधिकार किसने दे दिया?
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