हरिगोविंद विश्वकर्मा
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सिंह की
कथित तौर पर देशद्रोह की आरोप में गिरफ़्तारी के समर्थन और विरोध में देश भर में
प्रदर्शन हो रहे हैं। यूनिवर्सिटी में पिछले 9 फरवरी को संसद पर हमले की साज़िश
में फ़ांसी पर लटकाए गए जैश-ए-मोहम्मद के दुर्दांत आतंकवादी मोहम्मद अफजल गुरू की
तीसरी बरसी मनाने और देश विरोधी नारे लगाने के मुद्दे पर पूरा देश दो खेमे में बंट
गया है। क़रीब 50 साल पुराने जेएनयू को लेकर पूरा देश तो नहीं, बौद्धिक खेमा ज़रूर लेफ्ट-राइट
कर रहा है। लेफ़्ट-विंग के समर्थक बीजेपी और संघ परिवार को फासिस्ट
करार देते हुए लामबंद हो रहे हैं। उसी तरह राइट-विंग के पैरोकार कम्युनिस्ट और
सेक्यूलर विचारधारा के लोगों को देशद्रोही करार देते हुए उनके ख़िलाफ़ बयानबाज़ी कर
रहे हैं। लेफ़्ट-राइट के इस कांव-कांव में असली मुद्दा गौण हो गया।
कन्हैया कुमार सिंह का काम देशद्रोह की कैटेगरी में आता हैं या नहीं, यह फोटोग्राफ और वीडियों
के रूप में उपलब्ध सबूतों और दूसरे साक्ष्यों की सत्यता की जांच करने के बाद अदालत
तय करेगी न कि मीडिया या नुक्कड़ चर्चाओं में शामिल लोग। इसके बावजूद कुछ देर के
लिए मान लिया जाए कि कन्हैया सिंह निर्दोष हैं। यह भी मान लिया जाए, जैसा कि उनके पैरोकारों
का आरोप है कि दिल्ली पुलिस ने उन पर नरेंद्र मोदी सरकार के इशारे पर देशद्रोह का मामला दर्आज किया है। परंतु कन्हैया सिंह के लिए आंदोलन और धरना-प्रदर्शन कर रहे लोग यह
बताएं कि उनका नेता 9 फरवरी की शाम उस कार्यक्रम में क्या कर रहा था, जो अफ़ज़ल गुरु की बरसी के
दिन ही आयोजित की गई थी। कन्हैया सिंह कोई नादान या अपरिपक्व व्यक्ति नहीं, वह कॉमरेड हैं और जेएनयू
से पीएचडी कर रहे हैं। उन्हें यह जानकारी थी कि उनका दोस्त और डेमोक्रेटिक
स्टूडेंट यूनियन से जुड़ा उमर खालिद कई महीने से अफ़ज़ल बरसी मनाने में जुटा है।
उसने 7 फरवरी को कश्मीर से 10 युवकों को दिल्ली बुलाया और सभी लोग जेएनयू कैंपस में ही
ठहरे। 9 फरवरी की शाम 20-25 लोगों ने बेहद नियोजित ढंग अफ़ज़ल की बरसी मनाई।
कन्हैया सिंह ने साबरमती ढाबे के पास कार्यक्रम में खालिद के साथ नारेबाजी कर
रहे लोगों की अगुवाई की थी।
अफ़ज़ल को शहीद घोषित करने वाले किसी कार्यक्रम में शामिल होने से
पहले हर समझदार व्यक्ति यह सोचेगा कि अफ़ज़ल को बलात् फ़ांसी पर नहीं लटका दिया
गया। जांच एजेंसियों ने अफ़ज़ल के अलावा दिल्ली यूनिवर्सिटी के तत्कालीन प्रोफ़ेसर एसएआर
गिलानी और दूसरे लोगों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया था। अफ़ज़ल ने
एक टीवी इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि वह 2001 में संसद पर हमले का सूत्राधार
था और जैश-ए-मोहम्मद के इंडिया चीफ़ गाज़ी बाबा के बराबर संपर्क में था। उसने यह भी माना था
कि हमला करने वाले पांचों पाकिस्तानी आतंकियों को कश्मीर दिल्ली लेकर वही आया था।
अफ़ज़ल ने अपने कार्य को जस्टीफाई करने के लिए आर्थिक तंगी का हवाला देते हुए कहा
था कि पैसे के लिए वजह इस साज़िश में शामिल हुआ था।
बहरहाल, सुनवाई के बाद निचली अदालत ने अफ़ज़ल और गिलानी को फ़ांसी की सज़ा सुनाई थी।
दिल्ली हाईकोर्ट ने अफ़ज़ल की सज़ा बरकरार रखी। इसके बाद भी अफ़ज़ल को बचाव के कई
और अवसर दिए गए, लेकिन हर बार वह दोषी पाया गया। अंततः उसे 9 फरवरी 2013 को तिहाड़ जेल में
फ़ांसी दी गई। उधर दिल्ली हाईकोर्ट ने गिलानी के ख़िलाफ़ जुटाए गए सबूत को पर्याप्त नहीं
माना और उसे रिहा कर दिया।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को कायम रखा और गिलानी को रिहा कर दिया, लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने संसद पर हमले में गिलानी के रोल को संदेहजनक मानते हुए कहा था कि ऐसा लगता है गिलानी संसद पर हमले का समर्थन कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि गिलानी ने अपने बचाव के लिए अपने ख़िलाफ़ लाए गए सबूतों की ग़लत व्याख्या की थी। अब गिलानी का प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में अफ़ज़ल और मकबूल बट के लिए प्रोग्राम करना सुप्रीम कोर्ट के उस संदेह को पुख़्ता किया है।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को कायम रखा और गिलानी को रिहा कर दिया, लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने संसद पर हमले में गिलानी के रोल को संदेहजनक मानते हुए कहा था कि ऐसा लगता है गिलानी संसद पर हमले का समर्थन कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि गिलानी ने अपने बचाव के लिए अपने ख़िलाफ़ लाए गए सबूतों की ग़लत व्याख्या की थी। अब गिलानी का प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में अफ़ज़ल और मकबूल बट के लिए प्रोग्राम करना सुप्रीम कोर्ट के उस संदेह को पुख़्ता किया है।
अंग्रेज़ों द्वारा 1870 में ताजी-रात-ए-हिंद यानी इंडियन पैनल कोड में शामिल किए गए क़ानून 124ए के
मुताबिक़, इस कैटेगरी के आतंकवादी की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित करना और उसमें
शिरकत करना देशद्रोह की कैटेगरी में आता है। यह नारेबाज़ी, व्यवस्था में सुधार की
कैटेगरी में नहीं आता, क्योंकि नारेबाज़ी करने वाले लोग अफ़जल को शहीद बताते हुए देश
के विरुद्ध नारे लगा रहे थे। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 20 जनवरी 1962 के केदारनाथ सिंह बनाम
स्टेट ऑफ बिहार मुक़दमे में साफ़ किया था कि सरकार के विरुद्ध कठोर शब्दों का प्रयोग
अगर इस दृष्टि से किया गया है कि व्यवस्था या सिस्टम में सुधार हो तो वह दंडनीय
अपराध नहीं होगा।
प्राइमा फेसाई साफ़ लग रहा है कि जेएनयू, जिसे सारा देश शिक्षा के विशेष
मंदिर के रूप में देखता आया है, ऐसे नकारा और असामाजिक तत्वों का अड्डा बन गया है, जो देश की एकता अखंडता
का भी सम्मान नहीं करते हैं। ऐसे में इस मामले में कन्हैया सिंह और खालिद उमर समेत
हर दोषी के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई होनी ही चाहिए। कन्हैया सिंह ही नहीं, बल्कि खालिद की जिस-जिस
ने मदद की उन सबके ख़िलाफ़ आएआईआर दर्ज किया जाना चाहिए। बेशक भारत एक डेमोक्रिटिक
नेशन हैं। बेशक यह सभ्य देश अपने हर नागरिक को कुछ बुनियादी अधिकार देता है। इसका
यह मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि लोगों को देश के विरुद्ध काम करने का
लाइसेंस मिल गया है। कोई भी नागरिक अगर देश हित के ख़िलाफ़ काम करने लगे तो उससे
सख़्ती से निपटना समय की मांग है।
जेएनयू में वामपंथी संगठनों की शह पर कश्मीरी छात्र, ख़ासकर अलगाववादी बेहद ऐक्टिव
रहते हैं. इससे पहले भी जेएनयू में ऐसी राष्ट्रविरोधी हरकतें होती रही हैं। अफजल
को फांसी देने के बाद भी यहां बवाल हुआ था। बेशक जेएनयू ने देश को बड़े-बड़े
बुद्धिजीवी दिए हैं। लेकिन देश विरोधी गतिविधियां के यहां पनपने से जेएनयू की छवि
ख़राब हुई है। कांग्रेस की कनफ़्यूज़िग पॉलिसी ने पहले ही कश्मीर समस्या पैदा कर दी
है। अब अलगाववादी तत्वों से बहुत सख़्ती से निपटने का समय आ गया है।
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