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सोमवार, 27 जून 2016

चीन भारत का शुभचिंतक कभी हो ही नहीं सकता

हरिगोविंद विश्वकर्मा
आप लोगों को शायद याद होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने का बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत का दौरा किया था। मोदी के जन्मदिन पर 17 सितंबर 2014 को जिनपिंग श्रीलंका से नई दिल्ली की बजाय सीधे अहमदाबाद पहुंचे थे। उसी दिन शाम को साबरमती रिवरफ्रंट पर मोदी ने शी को स्पेशल डिनर पार्टी दी थी। वस्तुतः मोदी ने यह सब बड़े साफ़ मन से किया था, इस सोच के साथ कि भारत और चीन के बीच लंबे समय से जमी अविश्वास की बर्फ़ पिघले और दोनों देश आपसी सहयोग से विकास की नई ऊचाइयां तय करें, जिसका लाभ दोनों देश की जनता को मिले। लेकिन मोदी चीन के मन में बैठे चोर को देखने में कामयाब नहीं हुए। अब भारत को परमाणु सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी की सदस्यता लेने से वंचित करवाने में चीन के मन में बैठा वही चोर सामने आ गया।

इसका मतलब यह भी होता है - जनाब हम तो सदा चोर यानी धोखेबाज़ ही थे, आपने हमें वफ़ादार समझ लिया तो यह आपकी नादानी। हम चीन के नेता हैं, जो दिमाग़ से काम लेते हैं, भारत के नेता नहीं, जो दिल की सुनते हैं। दरअसल, सिओल में भारत का खुला विरोध करके चीन ने साबित कर दिया कि नई दिल्ली चाहे जितनी कोशिश या मान-मनुहार कर ले, जितनी खातिरदारी करनी हो कर ले, या चीन की कंपनियों को निवेश के लिए चाहे जितना प्रोत्साहन देना हो दे दे, मगर चीन अपने भारत विरोधीपरंपरागत नीति पर कायम ही रहेगा। बीजिंग नईदिल्ली को दोस्त मान ही नहीं सकता।

अगर प्रधानमंत्री मोदी को सिओल एपिसोड के बाद भी लगता है, जैसा कि मोदी अब तक सोचते रहे हैं, कि चीन और चीनी नेतृत्व अपने स्वभाव को बदलेगा और भारत का अच्छा दोस्त बनेगा तो यह मोदी की वैसी ऐतिहासिक भूल होगी, जैसी भयंकर भूल पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने 1950-60 के दशक में हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा देकर की थी। वैसे भारतीय प्रधानमंत्री को अब जुमलों की दुनिया से बाहर आकर एक सीरियस प्राइम मिनिस्टर का रुख अख़्तियार करना चाहिए। हमेशा से इनविज़िबल एनेमी रहे चीन पर इमोशनल डिपेंडेंसी मोदी ही नहीं, उनकी पूरी टीम और भारतीय विदेश मंत्रालय के लिए भी ठीक नहीं है।

इतिहास गवाह है, चीन कभी किसी का दोस्त नहीं रहा। उसका पाकिस्तान प्रेम भी उसकी विस्तारवादी नीति का एक हिस्सा है। भारत को चीन हमेशा से अपने विरोधियों की सूची में रखता आया है। इसका प्रमाण चीन ने अभी इसी साल अप्रैल में दिया था। बीजिंग ने भारत को आंख दिखाते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में आतंकी संगठन जैश-ए मोहम्मद के सरगना मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने के भारत के प्रस्ताव को वीटो कर दिया। मोदी के कार्यकाल में विदेश नीति की यह सबसे बड़ी असफलता मानी गई थी। इतना ही नहीं जब भारत ने जर्मनी में रह रहे उइगुर नेता डोलकुन ईसा को अमेरिकी इनीशिएटिव्‍स फॉर चाइनाकी ओर से एक कॉन्‍फ्रेंस में शामिल होने के लिए वीज़ा दिया तो चीन आंखें लाल-पीली करने लगा। चीन के दबाव में भारत ने डोलकुन ईसा को जारी वीज़ा रद्द कर दिया। चीन ने कहा कि वह ईसा को आतंकवादी मानता है, लेकिन उसने भारत की मौलाना मसूद के इसी फॉर्मूले के तहत आतंकी कहने की दलील नहीं मानी।

बहरहाल, एनएसजी की सदस्यता न मिल पाने से सोशल मीडिया में लोग बेहद मुखर हैं। इस पर कड़ी प्रतिक्रिया हो रही है। ज़्यादातर लोग चीन में बने सामानों के बहिष्कार का आह्वान कर रहे हैं तो ढेर सारे लोग ख़ुद शपथ ले रहे हैं कि आज से चीन में बना कोई सामान इस्तेमाल नहीं करेंगे। लब्बोलुआब यह माना जा रहा है कि अगर हर भारतीय चीन में बने सामान का इस्तेमाल करना छोड़ दे तो चीनी अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। सोशल मीडिया पर लोगों के इस दावे में कितनी सच्चाई है, यह शोध का विषय है, लेकिन इतना तो है, कि अगर हर भारतवासी तय कर ले कि चीन में बना कोई माल नहीं ख़रीदेगा तब इससे चीन के निर्यात पर व्यापक जडरूर असर पड़ सकता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसा वाक़ई मुमकिन है या यह तत्कालिक रिएक्शन है जो बाद में फुस्स हो जाएगी।

जहां लोग चीन को लेकर ग़ुस्से में हैं, वहीं हैरान करने वाली बात यह है कि चीन तब भारत का विरोध कर रहा है, जब भारत इस ख़तरनाक पड़ोसी की कंपनियों के निवेश के लिए अपने दरवाज़े खोल रखे हैं। कई चीनी कंपनियां भारत में अरबो-खरबों का मुनाफा कमा रही हैं। नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में चीन को भारत में कितनी अहमियत दी जा रही है, इसका उदारण प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है। चीन पिछले दो साल में 956 अमेरिकी मिलियन डॉलर यानी क़रीब 65 अरब रुपए का निवेश करके भारत में निवेश के मामले में दसवें नंबर पर पहुंच गया है। वैसे चीन भारत में निवेश के मामले में 18 नंबर पर है, लेकिन पिछले दो साल में चीन ने हांगकांग, इटली, केमेन आईलैंड और दक्षिण कोरिया जैसे देशों को पीछे छोड़ दिया। चीन अब ई-कॉमर्स, टेलीकम्युनिकेशन्स, और मैनुफैक्चिरंग सेक्टर में निवेश कर रहा है।

इसमें दो राय नहीं कि भारत अमेरिका के साथ साथ चीन के लिए भी बहुत बड़ा बाज़ार है। चीन में बने माल से पूरा बाज़ार भार पड़ा है, क्योंकि चीन कंपनियों के माल भारत में धड़ल्ले से बिक रहे हैं। अभी चीन की यात्रा पर गए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सरकारी चैनल सीसीटीवी को दिए साक्षात्कार में चीन की कंपनियों को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित करते हुए कहा कि भारत में निवेश के असीमित अवसर हैं। उसके आर्थिक विकास की दर टिकाऊ है। जेटली ने भारत के बढ़ते बुनियादी क्षेत्र में भी निवेश के लिए चीनी कंपनियों को आमंत्रित किया।

अलबत्ता, पिछले छह सात दशक में चीन के व्यवहार और रवैये की बात करें तो चीन ने हमेशा अपने आपको भारत के दुश्मन के ही किरदार में रखता रहा है। आज़ादी के बाद नेहरू भारत-चीनी भाई-भाई का नारा लगा रहे थे। क़ानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संसद में अपने भाषण के दौरान नेहरू को बार बार आगाह किया। उन्होंने उसी समय कह दिया था, चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। अंबेडकर ने चीन के भविष्य के रवैए पर भी कई प्रश्न उठाए थे और पाकिस्तान के साथ साथ चीन को ख़तरनाक पड़ेसी क़रार दिया था। अंबेडकर चीन को अलग तरीक़े से डील करने पर जोर देते थे। वह नेहरू के चीन प्रेम की तीखी आलोचना करते थे।

इतना ही नहीं, इससे पहले की अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में रक्षामंत्री रहे जार्ज फर्नांडिस खुलकर कहते थे कि भारत को पाकिस्तान के मुक़ाबले चीन से ज़्यादा ख़तरा है। फर्नांडिस कहते थे कि चीन पर बिलकुल भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि 1949 में तिब्बत को अपने क़ब्ज़े में लेने और 13 साल बाद भारत के बड़े भूभाग पर क़ब्ज़ा करने वाला यह देश भारत की तरक़्क़ी कभी देख ही नहीं सकता। फर्नांडिस झूठ नहीं बोल रहे थे। उनका बयान चीन की हरकतों को देखकर था। वैसे भी मोदी के कार्यकाल में भी चीन और भारत के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं रहे हैं, सीमा विवाद को लेकर पिछले डेढ़ सालों में तल्खी और बढ़ी है। भारत और अमरीका की बढ़ती दोस्ती भी चीन को रास नहीं आ रहा है।

दरअसल, चीन सिओल-बैठक भारत के सामने सबड़ा बड़ा दुश्मन बनकर खड़ा हुआ। यह भारतीय लीडरशिप को जेहन में रखना चाहिए, क्योंकि सिओल-बैठक भारत के लिए कड़ा अनुभव लेकर आई। इससे दुनिया में भारत की भद्द पिट गई। वह भी उस समय जब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत अपने को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता का दावेदार मानता है। खैर अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस तरह की जीत-हार होती रहती है। इसमें दो राय नहीं कि भारत की कूटिनीतिक तैयारी पर्याप्प नहीं थी। लिहाज़ा, इस मसले पर भविष्य में बेहतर होमवर्क की ज़रूरत है।

बहरहाल, डैमेज कंट्रोल में अमेरिका ने संकेत दिया है कि इस साल किसी भी कीमत पर भारत को एनएसजी का सदस्य बनाने की हर संभव कोशिश की जाएगी। इसके लिए साल के अंत तक एनएसजी के सदस्य दशों की एक विशेष बैठक हो सकती है। अब भारत को इस मौक़े पर पूरी तैयारी करनी होगी और हां, चीन को आंख मूंदकर निवेश करने की छूट देने की मौजूदा नीति की समीक्षा भी ज़रूरी है, ताकि यह नौबत न आए कि हमारे यहां अरबों खरबों का मुनापा कमाकर चीन हमें ही आंख दिखाए। भारत को एक बात कभी नहीं भूलना कि चीन भारत की शुभचिंतक कभी हो ही नहीं सकता। इसलिए उसके साथ हमेशा डिप्लोमेटिक रिलेशन ही रखने की सोचना चाहिए।






बुधवार, 22 जून 2016

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर में संदिग्ध मौत की जांच आखिर क्यों नहीं करवाई नेहरू ने?

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि पर विशेष
हरिगोविंद विश्वकर्मा
अपने समय के असाधारण राजनेता, चिंतक, शिक्षाविद् और भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आज से ठीक 63 साल पहले कश्मीर में कथिततौर पर न्यायिक हिरासत के दौरान मौत हो गई थी। हैरानी की बात है कि उनकी मां लेडी जोगमाया देवी मुखर्जी की मांग के बावजूद न तो केंद्र सरकार और न ही जम्मू कश्मीर सरकार ने मौत की जांच करवाई। जोगमाया देवी ही नहीं पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. विधानचंद राय और तब के बड़े कांग्रेस नेता पुरुषोत्तमदास टंडन ने भी डॉ. मुखर्जी की मौत की जांच सुप्रीम कोर्ट के जज से कराने की ज़ोरदार मांग की थी, लेकिन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू टस से मस नहीं हुए।

दिनांक चार जुलाई, 1953 को जोगमाया ने नेहरू को अंग्रेज़ी में मार्मिक पत्र लिखा था। उन्होंने लिखा, “उसकी (डॉ. मुखर्जी) मौत रहस्य में डूबी हुई है। क्या यह हैरतअंगेज़ और अविश्वसनीय नहीं है कि बिना किसी ट्रायल के उसे गैरक़ानूनी ढंग से 43 दिन हिरासत में रखा गया और मुझे, उसकी मां को, जानकारी तक नहीं नहीं दी गई और वहां की सरकार ने मुझे सूचना उसके निधन के दो घंटे बाद दी। मैं अपने पुत्र की मृत्यु के लिए राज्य सरकार को ही ज़िम्मेदार मानती हूं और आरोप लगाती हूं कि उसने ही मेरे पुत्र की जान ली है। मैं तुम्हारी सरकार पर भी यह आरोप लगाती हूं कि घटना को छुपाने के लिए सांठगांठ करने की कोशिश की। इसलिए मैं, स्वतंत्र भारत के उस निडर सपूत की मां, उसकी दुखद और रहस्यमय मौत की अविलंब निष्पक्ष जांच की मांग करती हूं। मैं जानती हूं कि अब कुछ भी हो, उसका जीवन वापस नहीं लाया जा सकता, लेकिन मैं चाहती हूं भारत के लोगों पूरी घटना के असली कारणों से अवगत हों जिससे मेरे बेटे व्यक्ति की मौत हो गई।“

पांच जुलाई 1953 को जोगमाया को भेजे जवाब में नेहरू ने लिखा, “मैं डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हिरासत और मौत के बारे में ईमानदारी से जुटाई गई जानकारी के आधार पर आपको जवाब देना चाहता हूं। मैंने ढेर सारे लोगों से पूछताछ की जो उस समय घटनास्थल पर ही मौजूद थे। अब मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि मैं सच्चे और स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि डॉ. मुखर्जी की मौत पर इस तरह का कोई रहस्य नहीं है, जिस पर विचार किया जाए।”

दरअसल, नेहरू का डॉ. भीमराव अंबेडकर और सरदार पटेल की तरह डॉ. मुखर्जी से बहुत गंभीर मतभेद था। यहां तक कि 13 फरवरी 1953 को लोकसभा में दोनों की बीच बहुत तल्ख बहस हुई थी। जिसमें नेहरू ने अपना आपा तक खो दिया था। उसके बाद 14 अप्रैल को लोकसभा में अपने भाषण में जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की पैरवी करते हुए डॉ. मुखर्जी ने कहा कि नेहरू की नीतियों को देश के लिए विनाशकारी साबित होंगी।

वस्तुतः, 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के समझौते का बाद जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा तो हो गया, लेकिन धारा 370 के तहत उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झंडा और अलग संविधान था। वहां देश के सुप्रीम कोर्ट तक का फ़ैसला लागू नहीं होता था। इतना ही नहीं, वहां का मुख्यमंत्री वजीरे-आज़म अर्थात् प्रधानमंत्री कहलाता था और जम्मू कश्मीर में भारतीयों को प्रवेश करने के लिए पासपोर्ट की तरह परमिट लेनी पड़ती थी। यानी भारत के अंदर जम्मू कश्मीर को स्वतंत्र देश का दर्जा दे दिया गया।

डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाने के प्रबल पैरोकार थे।  इस मुद्दे पर पूरा देश उनके साथ था। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था और कहा था, “या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।“

नेहरू सरकार को डॉ. मुखर्जी ने चुनौती दी और अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वह मई 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वह पंजाब के उत्तरी छोर पर बसे माधोपुर तक पहुंच गए। माधोपुर में रावी को पार करते ही जम्मू कश्मीर राज्य शुरू होता है। राज्य में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई 1953 को वज़ीरे आज़म शेख़ अब्दुल्ला के आदेश पर हिरासत में ले लिया था।

सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात यह थी कि डॉ. मुखर्जी को माधोपुर से राज्य में प्रवेश करने पर लखनपुर में हिरासत में लिया गया था लेकिन उन्हें जम्मू की किसी जेल में रखने की बजाय क़रीब 500 किलोमीटर दूर श्रीनगर ले जाया गया। बताया जाता है कि वह रास्तें में ही बीमार पड़ गए और बीमारी की हालत में ही जीप में डालकर उन्हें श्रीनगर ले जाया गया। इतनी लंबी यात्रा उनकी सेहत के लिए घातक थी। परंतु जम्मू कश्मीर के पुलिस अधिकारी उन्हें श्रीनगर ले जाने के लिए अड़े रहे।

वस्तुतः पंजाब सरकार डॉ. मुखर्जी को माधोपुर में ही हिरासत में ले सकती थी, लेकिन उन्हें गुरुदासपुर के डिप्टी एसपी ने सूचित किया कि सरकार ने उन्हें जम्मू कश्मीर जाने की इजाज़त दे दी है। इसी बिना पर उन्हें पंजाब-जम्मू कश्मीर सीमा पार करने दिया गया। माधोपुर की बजाय लखनपुर में हिरासत में लेने का राज्य और केंद्र को यह लाभ हुआ कि एक लोकसभा सदस्य की गिरफ़्तारी पर भी सुप्रीम कोर्ट भी दख़ल नहीं दे सकता था, क्योंकि जम्मू कश्मीर राज्य तब देश की सबसे बड़ी अदालत की ज्यूरीडिक्शन से बाहर था।

डॉ. मुखर्जी को श्रीगनर में जिस जेल में रखा गया था, वह उस समय उजाड़ स्थान पर था और वहां से अस्पताल 15 किलोमीटर दूर था। श्रीनगर जेल में टेलीफोन की भी सुविधा नहीं थी। मृत्यु से पहले डॉ. मुखर्जी को अस्पताल में जिस गाड़ी में ले जाया गया उसमें जानबूझ कर उनके किसी और साथी को बैठने नहीं दिया गया। सबसे बड़ी बात यह कि डॉ. मुखर्जी की व्यक्तिगत डायरी को रहस्यमय ढंग से ग़ायब कर दिया गया। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से यह भी स्पष्ट होता है कि मुखर्जी को हिरासत में लेने के लिए भी किसी न किसी स्तर पर बड़ी साज़िश हुई थी।

सबसे बढ़कर, मुखर्जी के इलाज के तमाम दस्तावेज़ संदेहास्पद हालात में छिपा लिए गए। इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर भारतीय जनसंघ समेत देश के कई गणमान्य लोगों ने मुखर्जी की मौत की जांच की मांग की। शेख अब्दुल्ला सरकार पर मुखर्जी की मौत में शामिल होने का शक बहुत गहरा था। इसीलिए जब आठ अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला को गिरफ़्तार किया गया तो कई लोगों ने यही माना कि उनकी गिरफ़्तारी मुखर्जी की मौत के सिलसिले में हुई, जबकि, दस्तावेज़ों के मुताबिक़, शेख अब्दुल्ला को कथित तौर पर कश्मीर को भारत से अलग करने की साज़िश रचने के आरोप में डिसमिस कर जेल में डाला गया था। बहरहाल, अब्दुल्ला की गिरफ़्तारी के बाद भी मुखर्जी की मौत की जांच के लिए न तो जम्मू कश्मीर सरकार न ही केंद्र सरकार तैयार हुई।

छह जुलाई जुलाई 1901 को कलकत्ता के मशहूर शिक्षाविद् आशुतोष मुखर्जी एवं जोगमाया देवी की संतान के रूप में जन्मे डॉ. मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया और 1921 में स्नातक और 1923 में लॉ की डिग्री लेने के बाद वह विदेश चले गये। 1926 में इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही स्टडी शुरू कर दी थी। महज़ 33 साल की अल्पायु में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गए। एक विचारक और प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरंतर आगे बढ़ती गयी। वह 'इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस', बंगलौर की परिषद एवं कोर्ट के सदस्य और इंटर-यूनिवर्सिटी ऑफ़ बोर्ड के चेयरमैन भी रहे।

डॉ. मुखर्जी ने देशप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से ही राजनीति में प्रवेश किया था। वह सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतवादी थे। वह वीर सावरकर से ख़ासे प्रभावित थे और उनके राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिंदू महासभा में शामिल हुए। तब मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का माहौल हिंसक हो गया था। वहां सांप्रदायिक विभाजन की नौबत आ गई थी। कम्युनल लोगों की ब्रिटिश सरकार मदद कर रही थी। इस विषम परिस्थिति में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिंदुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया।

डॉ. मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से सभी भारतीय एक हैं। हममें कोई अंतर नहीं। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। इसलिए धर्म के आधार पर विभाजन नहीं होना चाहिए। परंतु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने दूसरे रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने अपने ऐक्शन प्लान के तहत जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई।

ब्रिटेन की विभाजन की योजना और साज़िश कांग्रेस नेताओं ने अखंड भारत संबंधी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। तब मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खंडित भारत के लिए बचा लिया। महात्मा गांधी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। संविधान सभा और प्रांतीय संसद के सदस्य और केंद्रीय मंत्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किंतु उनके राष्ट्रवादी चिंतन के चलते नेहरू समेत दूसरे नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। नेहरू और पाकिस्तानी पीएम लियाकत अली के बीच कथित तौर पर हिंदू विरोधी समझौते और पाकिस्तान के हिंदुओं के क़त्लेआम न रोक पाने के विरोध में छह  अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था।

डॉ. मुखर्जी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन संघचालक गुरु गोलवलकर से सलाह करने के बाद 21 अक्तूबर 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने। सन् 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीते। उन्होंने संसद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाया जिसमें 32 सदस्य लोकसभा तथा 10 सदस्य राज्य सभा शामिल हुए।

बहरहाल, इस देश में किसी भी संदिग्ध मौत की केंद्रीय एजेंसी, एसआईटी या आयोग गठित करके जांच की लंबी परंपरा रही है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कथित तौर पर हवाई दुर्घटना में मारे जाने की जांच के लिए तीन तीन आयोग बनाए गए, लेकिन डॉ. मुखर्जी के साथ घोर पक्षपात किया गया। प्रो. बलराज मोधक ने अक्टूबर 2008 में अपने एक लेख फाउंडिल ऑफ जनसंघ में कहा है कि डॉ. मुखर्जी की संदिग्ध मौत नेहरू और शेख़ के आशीर्वाद से हुई।

इस घटना को फ़िलहाल 63 साल हो गए। इस दौरान जम्मू-कश्मीर में कई सरकारें आईं और कई गईं। कई बार राज्य में राज्यपाल शासन भी रहा। इसी तरह दिल्ली में अनेक सरकारें बदली। जनसंघ के आधुनिक संस्करण भारतीय जनता पार्टी की भी सरकार रही, लेकिन किसी ने भी डॉ. मुखर्जी की संदिग्ध मौत से पर्दा उठाने का साहस नहीं किया। डॉ. मुखर्जी की मां जोगमाया देवी का नेहरु को लिखा गया पत्र दुर्भाग्य से अभी भी अपने उत्तर की तलाश कर रहा है।

सबसे विचित्र बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने दो साल के कार्यकाल में इस बारे में कोई पहल नहीं की। मोदी की सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति कमोबेश कांग्रेस सरकार जैसी ही है। कांग्रेस की तरह बीजेपी भी वहां की क्षेत्रीय पार्टी पीपुल्स डेमोक्रिटक पार्टी के साथ सत्ता सुख भोग रही है। और तो और बीजेपी ने पीडीपी को लिखित रूप में आश्वासन दिया है कि केंद्र सरकार अनुच्छे 370 को जस का तस बनाए रखेगी यानी उससे कोई छोड़छाड़ नहीं किया जाएगा, जिसके लिए डॉ. मुखर्जी ने अपना बलिदान दिया। 

मंगलवार, 21 जून 2016

रघुराम राजन भारतीय रिज़र्व बैंक के सर्वश्रेष्ठ गवर्नर के रूप में याद किए जाएंगे

हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. रघुराम गोविंदा राजन को भले ही नरेंद्र मोदी सरकार राजनीतिक वजह से दूसरा कार्यकाल नहीं दे रही है, लेकिन इस अर्थशास्त्री को सर्वश्रेष्ठ गवर्नर के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। सन् 2013 में जब रुपया अनियंत्रित होकर रोज़ औंधे मुंह गिर रहा था और महज़ 120 दिन में 15.17 गिरकर 68.82 तक आ गया था, उसी समय डॉ. राजन रुपए के लिए संकटमोचक बनकर आए थे और उन्होंने रुपए को केवल संभाला ही नहीं, बल्कि उसकी स्थिति बेहतर करने में भी कामयाब रहे।

सन् 2013 की गर्मियों में रुपए का ज़बरदस्त अवमूल्यन शुरू हुआ था। चूंकि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार का आख़िरी साल शुरू हो गया था, इसलिए सरकार के काम खड़े हो गए। भ्रष्टाचार के ढेर सारे आरोपों से पहले ही सरकार पस्त थी। उस पर भारतीय मुद्रा भी परेशानी खड़ी करने लगी। रुपया तत्कालीन गवर्नर डॉ. डी सुब्बाराव से संभल ही नहीं रहा था। वह बिलकुल असहाय दिख रहे थे। केंद्र सरकार और वित्त मंत्रालय में खलबली मची गई थी।

सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि उस समय प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री के रूप में  पी चिदंबरम, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाह परिषद के अध्यक्ष के रूप में सी रंगराजन, योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में मोंटेकसिंह अहलूवालिया और ख़ुद गवर्नर के रूप में सुब्बाराव जैसे पांच अर्थशास्त्र के महारथी देश को चला रहे थे, फिर भी रुपया रोज़ाना औंधे मुंह गिर रहा था।

चार माह में डॉलर का मूल्य 53.58 से 68.82 रुपए पहुंच गया यानी रुपया 15.17 रुपए सस्ता हो गया। भारतीय मुद्रा जितनी आज़ादी के 40 साल बाद यानी सन् 1987 तक नहीं गिरी थी उतनी चार महीने में गिर गई। उस समय एक बार लगा, कहीं वर्ष ख़त्म होते-होते कहीं एक डॉलर की कीमत 100 रुपए न हो जाए। किसी के कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि रुपए को संभालने के लिए करें तो क्या करें।

ठीक उसी समय रघुराम राजन ने भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर का पदभार संभाला। चंद दिन में देश ने देखा कि रुपए का अवमूल्यन अचानक रुक गया। फिर रुपया डॉलर के मुक़ाबले मज़बूत होने लगा। यह किसी करिश्मे से कम नहीं था। इसके लिए राजन को क्रेडिट भले न दिया जाए, लेकिन यह उनके ही नेतृत्व में हो रहा था। राजन ने जादुई ढंग से रुपए का अवमूल्यन रोका ही नहीं, बल्कि उसे नीचे लाने में भी कामयाब रहे। फ़िलहाल, जब उनकी विदाई तय हो गई है, रुपया 67.19 पर है। यानी जब उन्होंने कार्यभार संभाला था, तब से 1.63 सुधरा हुआ है।

रिज़र्व बैंक के इतिहास में 23 गवर्नर हुए, जिनमें आज़ादी के बाद 21 गवर्नरों ने काम किया। इनमें पांच गवर्नर कार्यकारी रहे यानी कुछ महीने ही काम किया। 16 पूर्णकालिक गवर्नरों में मात्र दो ऐसे रहे, जिनके कार्यकाल में ओवरऑल रुपए का अवमूल्यन नहीं, बल्कि अधिमूल्यन हुआ यानी रुपया मज़बूत हुआ। रुपए को बेहतर स्थिति में करके जाने वाले राजन दूसरे गवर्नर हैं। इससे पहले 21वें गवर्नर वाईवी रेड्डी रुपए की स्थिति बेहतर करके गए थे। सबसे अहम बात है, रेड्डी को पांच साल का मौक़ा मिला जबकि राजन तीन साल में विदा हो रहे हैं।

चार सिंतबर 2013 को आरबीआई भवन पहुंचकर काम शुरू करने वाले राजन ने आते ही कमाल करना शुरू कर दिया। पहले भारतीय रुपए का अवमूल्यन रोका फिर साल ख़त्म होते-होते रुपए की फीकी पड़ी चमक को वापस लाने में कामयाब रहे। उनके चार महीने की मेहनत की बदौलत रुपया 31 दिसंबर 2013 को डॉलर के मुक़ाबले 68.82 से मज़बूत होकर 61.82 पर आ गया था। देश के अर्थशास्त्रियों ने राजन के क़दम की सराहना की और उम्मीद बंधने लगी कि उनके नेतृत्व में देश की सेंट्रल बैंक देश की ख़राब अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाएगी।

अगर रुपए के अवमूल्यन के इतिहास पर नज़र डाले तो 2008 से 2013 तक आरबीआई को लीड करने वाले सुब्बाराव का कार्यकाल सबसे निराशाजनक रहा। उनके पांच साल से कार्यकाल में रुपया 43.41 से 68.75 चला गया था यानी डॉलर 25.34 रुपए महंगा हुआ। सी रंगराजन (1992 से 97) का कार्यकाल भी बेहद ख़राब रहा और उनके दौर में डॉलर का मूल्य 22.72 से बढ़कर 36.36 रुपए हो गया। यानी रुपए में 13.64 का अवमूल्यन हुआ। इसी तरह डॉ बिमल जालान (1997-2003) के छह साल के पीरियड में रुपए में 10.24 का अवमूल्यन हुआ।

गवर्नरों के बाद राजनीतिक दलों की बात करें, तो आज़ादी के बाद कांग्रेस के शासन में रुपए का सबसे ज़्यादा अवमूल्यन हुआ। कांग्रेस 1947 से 1977, 1980 से 1989, 1991 से 1996 और 2004 से 2014 तक सत्ता में रही और इस दौरान भारतीय मुद्रा के भाव में 57.29 रुपए का पतन हुआ। चौंकाने वाला सच यह है कि रुपए में 57.29 में 45 से ज़्यादा की गिरावट के लिए अकेले एक्स पीएम मनमोहन सिंह ज़िम्मेदार रहे।

दरअसल, सन् 1982 में मनमोहन क़रीब ढाई साल आरबीआई गवर्नर रहे, तब भारतीय मुद्रा 1.96 रुपए सस्ती हुई थी। नवंबर 1990 से वह आठ महीने प्रधानमंत्री (चंद्रशेखर सिंह) के आर्थिक सलाहकार रहे। तब रुपए में 2.97 का लॉस दर्ज हुआ था। जून 1991 से से 1996 तक मनमोहन वित्तमंत्री रहे, तब रुपया 14.51 गिरा। इसी तरह मई 2004 से वह 10 साल प्रधानमंत्री रहे। इस दौरान रुपया 24.93 सस्ता हुआ। इस तरह मनमोहन भारतीय मुद्रा के लिए अशुभ साबित हुए।

जिस अमेरिकी डॉलर का भाव आज 67.19 रुपए है, उसकी कीमत अंग्रेज़ों ने 15 अगस्त 1947 को जब नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस को सत्ता सौंपी, तब महज एक रुपया थी। यानी फ़िरंगी भारतीयों से बेहतर प्रशासक ही नहीं अर्थशास्त्री भी थे। अंग्रेज़ों ने ही एक अप्रैल 1935 को रिज़र्व बैंक को शुरू किया और सर ओसबोर्न स्मिथ पहले गवर्नर बने। सर सीडी देशमुख गवर्नर बनने वाले पहले भारतीय थे। सबसे अहम अंग्रेज़ों ने सन् 1773 से 1947 के बीच क़रीब पौने दो सौ साल शासन किया, लेकिन अर्थव्यवस्था गिरने नहीं दी। उनके शासन में देश पर एक पैसा भी विदेशी क़र्ज़ नहीं था।

नेहरू को कितना भी विज़नरी कहा जाए परंतु उनकी अगुवाई में अर्थ-व्यवस्था उत्तरोत्तर पतन ही हुआ। नेहरू ने 1951 में विदेशी कर्ज लेना शुरू किया। यह सिलसिला कभी थमा ही नहीं। क़र्ज़ का असर रुपए की सेहत पर पड़ा। नेहरू के पहले कार्यकाल में 1952 में डॉलर का दाम एक रुपए से बढ़कर 4.75 रुपए हो गया। उसके बाद रुपए का अवमूल्यन कभी तेज़ तो कभी सुस्त होता ही रहा।

नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ने देश की कमान संभाली, पर रुपए का पतन जारी रहा। इमरजेंसी के बाद कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई, तो डॉलर का मूल्य क़रीब 9 रुपए हो चुका था। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरराजी देसाई व चरण सिंह की कलह के चलते भले जनता सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई लेकिन जब चरण ने इंदिरा को सत्ता सौंपी तो रुपए की सेहत थोड़ी सुधरी हुई थी। डॉलर का भाव 7.99 रुपए आ चुका था।

कांग्रेस यानी इंदिरा के सत्ता में आते ही रुपया फिर गिरने लगा। राजीव गांधी भी रुपए की सेहत सुधार नहीं पाए. बोफोर्स तोप घोटाले के चलते जब 1989 में सत्ता से बाहर हुए तो रुपया 16.93 तक पहुंच गया था। यानी 10 साल के कांग्रेस शासन में रुपए में 8.94 की गिरावट दर्ज हुई। दूसरी बार बनीं ग़ैरकांग्रेसी सरकारें भी रुपए के लिए शुभ नहीं हुईं और अवमूल्यन जारी रहा। मई 1991 में जब पीवी नरसिंह राव ने चंद्रशेखर सिंह से सत्ता ली, तब डॉलर के मुक़ाबले रुपया 20.52 पर था।

1991 में राव ने मनमोहन को वित्तमंत्री बनाकर उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू की। उदारीकरण रुपए के लिए दिवास्वप्न साबित हुआ और अगले ही महीने ही रुपए का अभूतपूर्व अवमूल्यन हुआ और वह 25.61 तक आ गया। जब देश की जनता ने मई 1996 में कांग्रेस को सत्ता से बेदख़ल किया तो डॉलर की कीमत 35 रुपए हो चुकी थी।

कांग्रेस शासन में इकॉनमी इतनी ख़स्ताहाल हो गई थी कि एचडी देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल रुपए को संभाल नहीं पाए। जनता दल के 22 महीने की अवधि में रुपया 4.5 कमज़ोर हुआ। गुजराल ने मार्च 1998 में अटलबिहारी बाजपेयी को सत्ता सौंपी, तब रुपया 39.57 पर था। सत्ता संभालने के दो महीने बाद ही यानी 11 और 13 मई को अटल ने परमाणु परीक्षण कर दिया, जिससे अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया, लेकि भारत और भारतीय रुपए ने इस प्रतिबंध को बहादुरी से झेला। परमाणु विस्फोट वाले महीने में रुपए की कीमत 40.47 थी।

बहरहाल, संकट ख़त्म होने के बाद रुपए में फिर गिरावट शुरू हो गई, जिसकी रफ़्तार थामने में सरकार असफल रही। एनडीए के रिजिम में जून 2002 में रुपया लुढ़ककर 48.98 तक आया। हालांकि बाद में रिज़र्व बैंक ने इसे संभाला और रुपए की कीमत में इज़ाफ़ा भी हुआ। अटल सरकार का पतन मई 2004 में हुआ और एक महीने पहले तक रुपया संभलकर 43.89 तक आ गया था।

सन् 2004 के चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। सोनिया गांधी ने मनमोहन को प्रधानमंत्री बना दिया। मनमोहन कारोबारियों, खासकर शेयर बाज़ार में जुआ खेलने वाले तेजड़ियों और बिल्डरों के लिए सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बन गए। उनके पहले कार्यकाल में जो भी रियल इस्टेट में कूदा, कुबेर बन गया। लेकिन वह रुपए का अवमूल्यन नहीं रोक पाए और उनके कार्यकाल में ही डॉलर का 50 रुपए को पार कर गया। 2009 का चुनाव आया पर बीजेपी कांग्रेस की नाकामियों को भुनाने में नाकाम रही और मनमोहन की दूसरी बार बतौर प्रधानमंत्री ताजपोशी हुई, लेकिन इस बार रुपए ने अवमूल्यन के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। संभवतः देश के लोग भारतीय रुपए और अर्थ-व्यवस्था का हित चाहते थे इसीलिए मनमोहन से कहना पड़ा, प्लीज़ बस करिए, बहुत हो गया, अपनी तशरीफ़ वापस ले जाइए।

मनमोहन के नरेंद्र मोदी आए, उनके कार्यकाल में क्रूड ऑयल का भाव 116 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 25 डॉलर प्रति बैरल तक आ गया। इससे भारतीय रुपए पर अवमूल्यन का संकट नहीं आया। और उनके दो साल के कार्यकाल में भारतीय मुद्रा डॉलर के मुक़ाबले साठ के नीचे थी। यानी जिस दिन मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उस दिन राजन के नेतृत्व में रुपया 58.63 पर था। मोदी सरकार की पहली सालगिरह पर 63.98 पर रहा और दूसरी सालगिरह पर 66.96 रहा। हालांकि दो साल में डॉलर आठ रुपए महंगा होना ज़्यादा है, पर यह 2013 के 68.82 के मुक़ाबले ज़्यादा नहीं लगता। यानी, राजन के नेतृत्व में रिज़र्व बैंक संतोषजनक काम कर रहा है। इसके बावजूद राजन को तीन साल में जाना पड़ रहा है।

बहरहाल, बीजेपी नेता डॉ सुब्रमण्यम स्वामी पता नहीं क्यों राजन से नाराज़ हो गए और उनके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल लिया। उन्हें इस तरह अमेरिका भेजने की बात कर रहे थे, जैसे राजन भारतीय न होकर अमेरिकी नागरिक हों। जो भी हो बीजेपी एक बेहतरीन अर्थशास्त्री की सेवाओं से ख़ुद को वंचित कर रही है। जबकि मौजूदा दौर में सरकार को ज़रूरत थी।

मोदी सरकार के लोग दावा कर रहे हैं कि सरकार शानदार काम कर रही है, लेकिन मंदी का दौर छंटने का नाम नहीं ले रहा है। यह कमोबेश 2004 जैसा दौर है, जब अटल सरकार ‘फीलगुल’ के ज़रिए दावा कर रही थी कि सरकार अच्छा काम कर रही है, लेकिन जनता चुनाव में कनविंस्ड नहीं हुई। 2004 में कांग्रेस को सत्ता दी तो देश की एकॉनमी में बूम आ गया। इसलीए अगर अटल सरकार जैसी हालत 2019 मोदी सरकार की भी हो तो हैरान की बात नहीं होगी, क्योंकि बेहतर शासन करने के बावजूद बीजेपी विशेषज्ञों की मदद लेने में कांग्रेस जैसी परिपक्व नहीं है। शायद इसीलिए 2004 में मंदी थी और 2016 में भी मंदी है।

रविवार, 19 जून 2016

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नरों की सूची - List of Reserve Bank governor

By Hari Govind Vishwakarma
List of Reserve Bank governor

1.       सर ओसबोर्न स्मिथ   01-04-1935 से 30-06-1937
2.       सर जेम्स टेलर      01-07-1937 से 17-02-1943
3.       सर सी डी देशमुख    11-08-1943 से 30-06-1949
4.       सर बेनेगल रामा राव  01-07-1949 से 14-01-1957
5.       केजी अंबेगांवकर            14-01-1957 से 28-02-1957
6.       एचवीआर लेंगर       01-03-1957 से 28-02-1962
7.       पीसी भट्टाचार्य       01-03-1962 से 30-06-1967
8.       एलके झा           01-07-1967 से 03-05-1970
9.       बीएन अडारकर       04-05-1970 से 15-06-1970
10.   एस जगन्नाथन      16-06-1970 से 19-05-1975
11.   एनसी सेनगुप्ता      19-05-1975 से 19-08-1975
12.   केआर पुरी          20-08-1975 से 02-05-1977
13.   एम नरसिम्हम्       02-05-1977 से 30-11-1977
14.   डॉ आईजी पटेल            01-12-1977 से 15-09-1982
15.   डॉ मनमोहन सिंह     16-09-1982 से 14-01-1985
16.   ए घोष             15-01-1985 से 04-02-1985
17.   आरएन मल्होत्रा            04-02-1985 से 22-12-1990
18.   एस वेंकटरमणन            22-12-1990 से 21-12-1992
19.   डॉ सी रंगराजन      22-12-1992 से 21-11-1997
20.   डॉ बिमल जालान     22-11-1997 से 06-09-2003
21.   डॉ वाईवी रेड्डी       06-09-2003 से 05-09-2008
22.   डॉ. डी सुब्बाराव            05-09-2008 से 04-09-2013

23.   डॉ रघुराम राजन      04-09-2013 से अब तक
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नरों की सूची
(List of Reserve Bank governor)

1948-66     4.79
1.       सर ओसबोर्न स्मिथ   01-04-1935 से 30-06-1937 2        0.00
2.       सर जेम्स टेलर       01-07-1937 से 17-02-1943 5       0.00
3.       सर सी डी देशमुख    11-08-1943 से 30-06-1949 6        0.00
4.       सर बेनेगल रामा राव  01-07-1949 से 14-01-1957 8    4.75
5.       केजी अंबेगांवकर      14-01-1957 से 28-02-1957
6.       एचवीआर लेंगर       01-03-1957 से 28-02-1962 5
7.       पीसी भट्टाचार्य        01-03-1962 से 30-06-1967 5    2.91 
8.       एलके झा            01-07-1967 से 03-05-1970 3    0.75
9.       बीएन अडारकर       04-05-1970 से 15-06-1970      
10.   एस जगन्नाथन  16-06-1970 से 19-05-1975 5 0.75 रुपया पाउंड-USD (1971)
11.   एनसी सेनगुप्ता      19-05-1975 से 19-08-1975
12.   केआर पुरी           20-08-1975 से 02-05-1977 2         0.36
13.   एम नरसिम्हम्        02-05-1977 से 30-11-1977
14.   डॉ आईजी पटेल       01-12-1977 से 15-09-1982 5        0.71
15.   डॉ मनमोहन सिंह     16-09-1982 से 14-01-1985 3          2.86
16.   ए घोष              15-01-1985 से 04-02-1985
17.   आरएन मल्होत्रा       04-02-1985 से 22-12-1990 5      5.21 
18.   एस वेंकटरमणन       22-12-1990 से 21-12-1992 2      5.22
19.   डॉ सी रंगराजन       22-12-1992 से 21-11-1997 5      13.64
20.   डॉ बिमल जालान      22-11-1997 से 06-09-2003 6      10.24
21.   डॉ वाईवी रेड्डी        06-09-2003 से 05-09-2008 5      -5
22.   डॉ. डी सुब्बाराव       05-09-2008 से 04-09-2013 5       25.34
23.   डॉ रघुराम राजन      04-09-2013 से अब तक    3       -1.56

रुपए में अवमूल्यन
1.       1949  1
2.       1952  4.75  सर बेनेगल रामा राव 
3.       1966  7.10  पीसी भट्टाचार्य      
4.       1973  7.66  एलके झा/एस जगन्नाथन 0.75
5.       1974  8.03 
6.       1975  8.41  केआर पुरी             0.36
7.       1976  8.97 
8.       1977  8.77  डॉ आईजी पटेल         0.71
9.       1978  8.20 
10.   1979  8.16 
11.   1980  7.89 
12.   1881  8.68 
13.   1982  9.48  डॉ मनमोहन सिंह       2.86
14.   1983  10.11
15.   1984  11.36
16.   1985  12.34 आरएन मल्होत्रा        5.21
17.   1986  12.60
18.   1987  12.95
19.   1988  13.91      
20.   1989  16.21
21.   1990  17.50 एस वेंकटरमणन
22.   1991  22.72
23.   1992  22.72 डॉ सी रंगराजन
24.   1993  28.14
25.   1994  31.39
26.   1995  32.43
27.   1996  35.52
28.   1997  36.36 डॉ बिमल जालान
29.   1998  41.33
30.   1999  43.12
31.   2000  45.00
32.   2001  47.23
33.   2002  48.62
34.   2003  46.60 डॉ वाईवी रेड्डी
35.   2004  45.28
36.   2005  44.01
37.   2006  45.17
38.   2007  41.20
39.   2008  43.41 डॉ. डी सुब्बाराव
40.   2009  48.32
41.   2010  45.65
42.   2011  46.61
43.   2012  55.7817
44.   2013  61.82 (अगस्त 2013 - 68.75)     डॉ रघुराम राजन
45.   2014  63.20
46.   2015  66.27
47.    

इस चार्ट को देखिए कांग्रेस को अंग्रेज़ सरकार से मज़बूत इकोनॉमी मिली थी पर उसे कांग्रेसी मैनेजर बरकरार नहीं रख पाए.


1.     सत्तारूढ़ पार्टी        कार्यकाल                          अवधि (वर्ष+माह)    यूएस डॉलर के मुक़ाबले रुपया  लाभ या हानि        
2.     अंग्रेज़ी शासन        15 अगस्त 1947           00+00           01.0000 to 01.0000        00.0000         
3.     कांग्रेस            15 अगस्त 4724 मार्च 77    29+07           01.0000 to 08.9000        08.9052 (हानि)     
4.     जनता पार्टी          24 मार्च 7714 जनवरी 80    02+05           08.9052 to 07.9882        00.9170 (लाभ)     
5.     कांग्रेस            14 जनवरी 8002 दिसंबर 89  09+11           07.9882 to 16.9320        08.9438 (हानि)
6.     जनता दल       02 दिसंबर 8921 जून 91     01+07           16.9320 to 20.5186        03.5866 (हानि)
7.     कांग्रेस            21 जून 9116 मई 96       04+11           20.5186 to 35.0250        14.5064 (हानि)     
8.     बीजेपी+राष्ट्रीय मोर्चा   16 मई 9619 मार्च 98  01+10           35.0250 to 39.5686        04.5436 (हानि)     
9.     बीजेपी                 19 मार्च 9822 मई 04       06+02           39.5686 to 43.8918        04.2232 (हानि)
10.  कांग्रेस               22 मई 0428 अगस्त 13     09+03           43.8918 to 68.8250        24.9332 (हानि)


 Note: सभी आंकड़े आरबीआई या अन्य अथेंटिक वेबसाइट्स से लिए गए हैं.