हरिगोविंद विश्वकर्मा
आप लोगों को शायद याद होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने का
बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत का दौरा किया था। मोदी के जन्मदिन पर 17
सितंबर 2014 को जिनपिंग श्रीलंका से नई दिल्ली की बजाय सीधे अहमदाबाद पहुंचे थे।
उसी दिन शाम को साबरमती रिवरफ्रंट पर मोदी ने शी को स्पेशल डिनर पार्टी दी थी। वस्तुतः
मोदी ने यह सब बड़े साफ़ मन से किया था, इस सोच के साथ कि भारत और चीन के बीच लंबे
समय से जमी अविश्वास की बर्फ़ पिघले और दोनों देश आपसी सहयोग से विकास की नई
ऊचाइयां तय करें, जिसका लाभ दोनों देश की जनता को मिले। लेकिन मोदी चीन के मन में
बैठे चोर को देखने में कामयाब नहीं हुए। अब भारत को परमाणु सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी
की सदस्यता लेने से वंचित करवाने में चीन के मन में बैठा वही चोर सामने आ गया।
इसका मतलब यह भी होता है - जनाब हम तो सदा चोर यानी धोखेबाज़ ही थे, आपने हमें
वफ़ादार समझ लिया तो यह आपकी नादानी। हम चीन के नेता हैं, जो दिमाग़ से काम लेते
हैं, भारत के नेता नहीं, जो दिल की सुनते हैं। दरअसल, सिओल में भारत का खुला विरोध
करके चीन ने साबित कर दिया कि नई दिल्ली चाहे जितनी कोशिश या मान-मनुहार कर ले, जितनी
खातिरदारी करनी हो कर ले, या चीन की कंपनियों को निवेश के लिए चाहे जितना
प्रोत्साहन देना हो दे दे, मगर चीन अपने ‘भारत
विरोधी’ परंपरागत नीति पर कायम ही रहेगा।
बीजिंग नईदिल्ली को दोस्त मान ही नहीं सकता।
अगर प्रधानमंत्री मोदी को सिओल एपिसोड के बाद भी लगता है, जैसा कि मोदी अब तक
सोचते रहे हैं, कि चीन और चीनी नेतृत्व अपने स्वभाव को बदलेगा और भारत का अच्छा दोस्त
बनेगा तो यह मोदी की वैसी ऐतिहासिक भूल होगी, जैसी भयंकर भूल पहले प्रधानमंत्री पं.
जवाहरलाल नेहरू ने 1950-60 के दशक में ‘हिंदी-चीनी
भाई-भाई’ का नारा देकर की थी। वैसे भारतीय
प्रधानमंत्री को अब जुमलों की दुनिया से बाहर आकर एक ‘सीरियस प्राइम मिनिस्टर’ का
रुख अख़्तियार करना चाहिए। हमेशा से ‘इनविज़िबल एनेमी’ रहे चीन पर “इमोशनल डिपेंडेंसी” मोदी ही नहीं, उनकी पूरी टीम और भारतीय विदेश मंत्रालय के
लिए भी ठीक नहीं है।
इतिहास गवाह है, चीन कभी किसी का दोस्त नहीं रहा। उसका पाकिस्तान प्रेम भी
उसकी विस्तारवादी नीति का एक हिस्सा है। भारत को चीन हमेशा से अपने विरोधियों की
सूची में रखता आया है। इसका प्रमाण चीन ने अभी इसी साल अप्रैल में दिया था। बीजिंग
ने भारत को आंख दिखाते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में आतंकी संगठन जैश-ए मोहम्मद के
सरगना मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने के भारत के प्रस्ताव को वीटो कर
दिया। मोदी के कार्यकाल में विदेश नीति की यह सबसे बड़ी असफलता मानी गई थी। इतना
ही नहीं जब भारत ने जर्मनी में रह रहे उइगुर नेता डोलकुन ईसा को अमेरिकी ‘इनीशिएटिव्स फॉर चाइना’
की ओर से एक कॉन्फ्रेंस
में शामिल होने के लिए वीज़ा दिया तो चीन आंखें लाल-पीली करने लगा। चीन के दबाव
में भारत ने डोलकुन ईसा को जारी वीज़ा रद्द कर दिया। चीन ने कहा कि वह ईसा को
आतंकवादी मानता है, लेकिन उसने भारत की मौलाना मसूद के इसी फॉर्मूले के तहत आतंकी कहने की दलील
नहीं मानी।
बहरहाल, एनएसजी की सदस्यता न मिल पाने से सोशल मीडिया में लोग बेहद मुखर हैं।
इस पर कड़ी प्रतिक्रिया हो रही है। ज़्यादातर लोग चीन में बने सामानों के बहिष्कार
का आह्वान कर रहे हैं तो ढेर सारे लोग ख़ुद शपथ ले रहे हैं कि आज से चीन में बना
कोई सामान इस्तेमाल नहीं करेंगे। लब्बोलुआब यह माना जा रहा है कि अगर हर भारतीय
चीन में बने सामान का इस्तेमाल करना छोड़ दे तो चीनी अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी।
सोशल मीडिया पर लोगों के इस दावे में कितनी सच्चाई है, यह शोध का विषय है, लेकिन
इतना तो है, कि अगर हर भारतवासी तय कर ले कि चीन में बना कोई माल नहीं ख़रीदेगा तब
इससे चीन के निर्यात पर व्यापक जडरूर असर पड़ सकता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या
ऐसा वाक़ई मुमकिन है या यह तत्कालिक रिएक्शन है जो बाद में फुस्स हो जाएगी।
जहां लोग चीन को लेकर ग़ुस्से में हैं, वहीं हैरान करने वाली बात यह है कि चीन
तब भारत का विरोध कर रहा है, जब भारत इस ख़तरनाक पड़ोसी की कंपनियों के निवेश के लिए
अपने दरवाज़े खोल रखे हैं। कई चीनी कंपनियां भारत में अरबो-खरबों का मुनाफा कमा
रही हैं। नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में चीन को भारत में कितनी अहमियत दी जा रही
है, इसका उदारण प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है। चीन पिछले दो साल में 956 अमेरिकी
मिलियन डॉलर यानी क़रीब 65 अरब रुपए का निवेश करके भारत में निवेश के मामले में दसवें
नंबर पर पहुंच गया है। वैसे चीन भारत में निवेश के मामले में 18 नंबर पर है, लेकिन
पिछले दो साल में चीन ने हांगकांग, इटली, केमेन आईलैंड और दक्षिण कोरिया जैसे
देशों को पीछे छोड़ दिया। चीन अब ई-कॉमर्स, टेलीकम्युनिकेशन्स, और मैनुफैक्चिरंग
सेक्टर में निवेश कर रहा है।
इसमें दो राय नहीं कि भारत अमेरिका के साथ साथ चीन के लिए भी बहुत बड़ा बाज़ार
है। चीन में बने माल से पूरा बाज़ार भार पड़ा है, क्योंकि चीन कंपनियों के माल
भारत में धड़ल्ले से बिक रहे हैं। अभी चीन की यात्रा पर गए वित्तमंत्री अरुण जेटली
ने सरकारी चैनल सीसीटीवी को दिए साक्षात्कार में चीन की कंपनियों को भारत में
निवेश के लिए आमंत्रित करते हुए कहा कि भारत में निवेश के असीमित अवसर हैं। उसके
आर्थिक विकास की दर टिकाऊ है। जेटली ने भारत के बढ़ते बुनियादी क्षेत्र में भी निवेश
के लिए चीनी कंपनियों को आमंत्रित किया।
अलबत्ता, पिछले छह सात दशक में चीन के व्यवहार और रवैये की बात करें तो चीन ने
हमेशा अपने आपको भारत के दुश्मन के ही किरदार में रखता रहा है। आज़ादी के बाद
नेहरू भारत-चीनी भाई-भाई का नारा लगा रहे थे। क़ानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर ने
संसद में अपने भाषण के दौरान नेहरू को बार बार आगाह किया। उन्होंने उसी समय कह
दिया था, चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। अंबेडकर ने चीन के भविष्य के रवैए पर भी
कई प्रश्न उठाए थे और पाकिस्तान के साथ साथ चीन को ख़तरनाक पड़ेसी क़रार दिया था।
अंबेडकर चीन को अलग तरीक़े से डील करने पर जोर देते थे। वह नेहरू के चीन प्रेम की
तीखी आलोचना करते थे।
इतना ही नहीं, इससे पहले की अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार
में रक्षामंत्री रहे जार्ज फर्नांडिस खुलकर कहते थे कि भारत को पाकिस्तान के
मुक़ाबले चीन से ज़्यादा ख़तरा है। फर्नांडिस कहते थे कि चीन पर बिलकुल भरोसा नहीं
किया जा सकता, क्योंकि 1949 में तिब्बत को अपने क़ब्ज़े में लेने और 13 साल बाद
भारत के बड़े भूभाग पर क़ब्ज़ा करने वाला यह देश भारत की तरक़्क़ी कभी देख ही नहीं
सकता। फर्नांडिस झूठ नहीं बोल रहे थे। उनका बयान चीन की हरकतों को देखकर था। वैसे
भी मोदी के कार्यकाल में भी चीन और भारत के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं रहे हैं, सीमा
विवाद को लेकर पिछले डेढ़ सालों में तल्खी और बढ़ी है। भारत और अमरीका की बढ़ती दोस्ती
भी चीन को रास नहीं आ रहा है।
दरअसल, चीन सिओल-बैठक भारत के सामने सबड़ा
बड़ा दुश्मन बनकर खड़ा हुआ। यह भारतीय लीडरशिप को जेहन में रखना चाहिए, क्योंकि
सिओल-बैठक भारत के लिए कड़ा अनुभव लेकर आई। इससे दुनिया में भारत की भद्द पिट गई।
वह भी उस समय जब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत अपने को
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता का दावेदार मानता है। खैर
अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस तरह की जीत-हार होती रहती है। इसमें दो राय नहीं कि भारत
की कूटिनीतिक तैयारी पर्याप्प नहीं थी। लिहाज़ा, इस मसले पर भविष्य में बेहतर
होमवर्क की ज़रूरत है।
बहरहाल, डैमेज कंट्रोल में अमेरिका ने संकेत दिया है कि इस साल किसी भी कीमत
पर भारत को एनएसजी का सदस्य बनाने की हर संभव कोशिश की जाएगी। इसके लिए साल के अंत
तक एनएसजी के सदस्य दशों की एक विशेष बैठक हो सकती है। अब भारत को इस मौक़े पर
पूरी तैयारी करनी होगी और हां, चीन को आंख मूंदकर निवेश करने की छूट देने की
मौजूदा नीति की समीक्षा भी ज़रूरी है, ताकि यह नौबत न आए कि हमारे यहां अरबों
खरबों का मुनापा कमाकर चीन हमें ही आंख दिखाए। भारत को एक बात कभी नहीं भूलना कि
चीन भारत की शुभचिंतक कभी हो ही नहीं सकता। इसलिए उसके साथ हमेशा डिप्लोमेटिक
रिलेशन ही रखने की सोचना चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें