हरिगोविंद विश्वकर्मा
3 जून 2013
जी हां, सपनों के शहर में ज़िदगियां बचाने के सपने लेकर आई थी वह, लेकिन देखिए नियति का खेल, सपनों के उसी शहर ने उससे उसकी ही ज़िदगी छीन ली। और, इस शहर से आज (3 जून 2013) लौटा तो उसका पार्थिव शरीर। उस बदनसीब लड़की का नाम है प्रीति राठी। एसिड अटैक ने प्रीति से जिंदगी छीन ली जिसने खुद ज़िंदगियां बचाने की राह चुनी थी। जी हां, प्रीति ने सेवा को करियर बनाने का फ़ैसला किया था इसीलिए नर्सिंग को कोर्स किया था और नेवी के अस्पताल आईएनएस अश्विन पर उसकी पोस्टिंग हुई थी। ड्यूटी जॉइन करने के लिए ही वह सपनों के शहर मुंबई आई थी, लेकिन मुंबई नगरी की धरती पर क़दम रखा ही था कि एक वहशी दरिंदे ने उसके चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। दिल्ली की रहने वाली प्रीति महीने भर मौत से लड़ती रही। आख़िरकार शनिवार की शाम क़रीब चार बजे अति आधुनिक मेडिकल साइंस ने भी मौत के सामने सरेंडर कर दिया और बांबे अस्पताल के डॉक्टरों ने ख़ेद के साथ कहा, ‘सॉरी प्रीति ने दम तोड़ दिया’।
मुंबई को सपनों का शहर इसलिए कहा जाता है कि यहां जो भी आता है उसके सपने पूरे हो जाते हैं। बॉलीवुड में यह सिलसिला ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान तक लंबी परंपरा है। मुंबई ने सबके सपने पूरे किए, लेकिन प्रीति के सपने पूरे करने तो दूर मुंबई ने उसकी जान ही ले ली। मुंबई के चहरे पर लगा यह बदनुमा दाग़ शायद ही कभी धुल पाए।
क्योंकि मामले की जांच कर रही मुंबई पुलिस का सारा अटेंशन स्पॉट फ़िक्सिंग पर ही रह गया और वह प्रीति के साथ जस्टिस करने में फ़ेल रही। तभी तो प्रीति पर एसिड फेंकने वाला दरिंदा कौन है यह पुलिस पुख़्ता तौर पर तय नहीं कर सकी। प्रीति 2 मई 2013 को बांद्रा टर्मिनस के प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर उतरी थी। परिजनों के साथ वह अपना सामान उतार रही थी। इसी बीच दरिंदे ने उसके चेहरे पर एसिड फेंक दिया और फरार हो गया।
पहले रेलवे घूसकांड, उसके बाद स्पॉट फ़िक्सिंग और महेंद्र कर्मा वध ने मीडिया का अटेंशन डाइवर्ट कर दिया था और प्रीति के साथ हुए हादसे को उतनी कवरेज नहीं मिल पाई जितनी दिल्ली गैंगरेप की शिकार ज्योति सिंह को मिली थी। ख़ैर, प्रीति के साथ जो कुछ हुआ उससे नई जनरेशन की लड़कियों को नसीहत लेने और सतर्क रहने की ज़रूरत है। विकास के तमाम दावों के बावजूद यह देश पुरुष-प्रधान ही रहा। ऐसे समाज में स्त्री ख़ासकर लड़की पर क़दम-क़दम पर ख़तरा रहता है। यह ख़तरा तब तक बना रहेगा जब तक समाज में हर जगह उसकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर नहीं हो जाती या जब तक स्त्री आर्थिक रूप से पुरुष के बराबर नहीं हो जाती। आइए, प्रीति को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए यह संकल्प ले कि समाज में महिलाओं की बढ़ाकर पुरुषों के बराबर करने का अभियान आगे बढ़ाएंगे। जैसा कि हमें पता है घर के चहारदीवारी के बाहर महिलाओं की कम विज़िबिलिटी ही सबसे बड़ी समस्या या प्रॉब्लम है। यानी घर के बाहर महिलाएं दिखती ही नहीं, दिखती भी हैं तो बहुत कम तादाद में। सड़कों, रेलवे स्टेशनों और दफ़्तरों में उनकी प्रज़ेंस नाममात्र की है। चूंकि समाज में महिलाओं की आबादी 50 फ़ीसदी है तो हर जगह उनकी मौजूदगी भी उसी अनुपात में यानी 50 फ़ीसदी होनी चाहिए। अगर लड़कियों की विज़िबिलिटी की समस्या को हल कर लिया गया यानी महिलाओं की प्रज़ेंस 50 फ़ीसदी कर ली गई तो महिलाओं की ही नहीं, बल्कि मानव समाज की 99 फ़ीसदी समस्याएं ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाएंगी। महिलाएं बिना किसी क़ानून के सही-सलामत और महफ़ूज़ रहेंगी।
इस क्रम में सबसे पहले केंद्र और राज्य सरकार में 50 फीसदी जगह महिलाओं को देने को लिए सरकार और राजनैतिक दलों पर फ़ौरन दबाव बनाया जाना चाहिए। यानी पूरे देश की हर सरकार के कैबिनेट में महिला मंत्रियों की संख्या पुरुष मंत्रियों के बराबर होनी चाहिए। इसी तरह विधायिका यानी संसद (लोकसभा-राज्यसभा) और राज्य विधानसभाओं समेत देश की हर जनपंचायत में महज़ 33 फ़ीसदी नहीं, बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए आरक्षित (सुनिश्चित) की जानी चाहिए। हमारे देश में महिलाओं की आबादी फ़िफ़्टी परसेंट है तो विधायिका में आरक्षण 33 फ़ीसदी ही क्यों भाई? यह तो सरासर बेईमानी है। यानी संसद (लोकसभा-545 और राज्यसभा-245) में 790 सदस्यों में से 395 महिलाएं किसी भी सूरत में होनी ही चाहिए।
एक बात और, महिला आरक्षण की बेनिफ़िशियरी केवल एडवांस-फ़ैमिलीज़ यानी राजनीतिक परिवार की लड़कियां या महिलाएं न हों, जैसा कि अमूमन होता रहा है। क्योंकि पॉलिटिकल क्लास की ये महिलाएं अपने पति, पिता, ससुर या बेटे की पुरुष प्रधान मानसिकता को ही रिप्रज़ेंट करती हैं। इसलिए रिज़र्वेशन का लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब, देहाती, आदिवासी, दलित, पिछड़े वर्ग और मुस्लिम परिवार की महिलाओं को मिले यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, पुलिस बल, आर्मफोर्स, न्यायपालिका, बैंक, मीडिया हाउसेज़ और धार्मिक संस्थानों में आधी आबादी महिलाओं की होनी ही चाहिए। सरकारी और निजी संस्थानों, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी या अन्य शिक्षण संस्थानों में 50 प्रतिशत पोस्ट महिलाओं को दी जानी चाहिए। महिला घर में क्यों बैठें? वह काम पर क्यों न जाएं? अगर 50 परसेंट महिलाएं काम पर जाएंगी तो घर के बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होंगी यानी हर जगह जितने पुरुष होंगे उतनी ही महिलाएं। ज़्यादा संख्या निश्चिततौर पर महिलाओं का मोरॉल बुस्टअप करेगा। जब सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन, दफ़्तर, पुलिस स्टेशन, अदालत में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि वह महिला की ओर बुरी निग़ाह से देखे तक। या उस पर एसिड फेंके, क्योंकि महिलाओं की कम संख्या लंपट पुरुषों को प्रोत्साहित करती है। इस मुद्दे पर जो भी ईमानदारी से सोचेगा वह इसका समर्थन करेगा और कहेगा कि महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाना है तो उन्हें इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है।
कल्पना कीजिए, केंद्रीय और राज्य मंत्रिमंडल, लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं में पुरुषों के बहुमत की जगह बराबर संख्या में महिलाएं हो तो कितना बदलाव सा लगेगा। किसी ऑफ़िस में जाने पर 50 फ़ीसदी महिलाएं दिखने पर नारी-जाति वहां जाने पर रिलैक्स्ड फ़ील करेगी। पुलिस स्टेशन में आधी आबादी महिलाओं की होने पर ख़ुद महिलाएं शिकायत लेकर बेहिचक थाने में जाया करेंगी। जब लड़कियों को बड़ी तादाद में नौकरी मिलेगी तो उनमें सेल्फ़-रिस्पेक्ट पैदा होगा। वे अपने को पराश्रित और वस्तु समझने की मानसिकता से बाहर निकलकर स्वावलंबी बनेंगी। वे माता-पिता पर बोझ नहीं बनेंगी। उनकी शादी माता-पिता के लिए बोझ या ज़िम्मेदारी नहीं होगी। जब लड़कियां बोझ नहीं रहेंगी तो कोई प्रेगनेंसी में सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट ही नहीं करवाएगा। लोग लकड़ी के पैदा होने पर उसी तरह ख़ुशी मनाएंगे जैसे पुत्रों के आगमन पर मनाते हैं। यक़ीन मानिए तब 1000 लड़कों के सामने 100 लड़कियां होंगी। हमारा समाज संतुलित और ख़ुशहाल होगा। जहां हर काम स्त्री-पुरुष दोनों कर सकेंगे।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष-प्रधान समाज अपनी सत्ता महिलाओं को सौंपने के लिए तैयार होगा? इस राह में पक्षपाती परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की जानी चाहिए। यानी ‘ढोल, गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ जैसी चौपाई रचने वाले तुलसीदास जैसे पुरुष मानसिकता वाले कवियों को ख़ारिज़ करना पड़ेगा। इतना ही नहीं तुलसी के महाकाव्य ‘रामचरित मानस‘ को भी संशोधित करना पड़ेगा, जहां पत्नी की अग्निपरीक्षा लेने वाले और उसे गर्भावस्था के दौरान घर से निकालकर जंगल में भेजने वाले पति राम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’माना गया है। हमें उस महाकाव्य ‘महाभारत‘ और उसके लेखक व्यास की सोच को भी दुरुस्त करना होगा जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले जुआड़ी पति युधिष्ठिर को ‘धर्मराज’ मानता है। हमें उन सभी परंपराओ और ग्रंथो में संशोधन करना होगा जहां पुरुष (पति) को ‘परमेश्वर’ और स्त्री (पत्नी) को ‘चरणों की दासी’ माना गया है। इतना ही नहीं हमें उन त्यौहारों में बदलाव करना होगा, जिसमें पति की सलामती के लिए केवल स्त्री के व्रत रखने का प्रावधान है, पत्नी की सलामती के लिए पति के व्रत रखने का प्रवधान नहीं है। इसके अलावा स्त्री को घूंघट या बुरका पहनने को बाध्य करने वाली नारकीय परंपराओं भी छोड़ना होगा। और इस बदलाव की शुरुआत तुरंत होनी चाहिए। यही प्रीति के लिए हम सबकी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (समाप्त)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें