हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. रघुराम गोविंदा राजन को भले ही नरेंद्र मोदी सरकार राजनीतिक वजह से दूसरा कार्यकाल नहीं दे रही है, लेकिन इस अर्थशास्त्री को सर्वश्रेष्ठ गवर्नर के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। सन् 2013 में जब रुपया अनियंत्रित होकर रोज़ औंधे मुंह गिर रहा था और महज़ 120 दिन में 15.17 गिरकर 68.82 तक आ गया था, उसी समय डॉ. राजन रुपए के लिए संकटमोचक बनकर आए थे और उन्होंने रुपए को केवल संभाला ही नहीं, बल्कि उसकी स्थिति बेहतर करने में भी कामयाब रहे।
सन् 2013 की गर्मियों में रुपए का ज़बरदस्त अवमूल्यन शुरू हुआ था। चूंकि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार का आख़िरी साल शुरू हो गया था, इसलिए सरकार के काम खड़े हो गए। भ्रष्टाचार के ढेर सारे आरोपों से पहले ही सरकार पस्त थी। उस पर भारतीय मुद्रा भी परेशानी खड़ी करने लगी। रुपया तत्कालीन गवर्नर डॉ. डी सुब्बाराव से संभल ही नहीं रहा था। वह बिलकुल असहाय दिख रहे थे। केंद्र सरकार और वित्त मंत्रालय में खलबली मची गई थी।
सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि उस समय प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री के रूप में पी चिदंबरम, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाह परिषद के अध्यक्ष के रूप में सी रंगराजन, योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में मोंटेकसिंह अहलूवालिया और ख़ुद गवर्नर के रूप में सुब्बाराव जैसे पांच अर्थशास्त्र के महारथी देश को चला रहे थे, फिर भी रुपया रोज़ाना औंधे मुंह गिर रहा था।
चार माह में डॉलर का मूल्य 53.58 से 68.82 रुपए पहुंच गया यानी रुपया 15.17 रुपए सस्ता हो गया। भारतीय मुद्रा जितनी आज़ादी के 40 साल बाद यानी सन् 1987 तक नहीं गिरी थी उतनी चार महीने में गिर गई। उस समय एक बार लगा, कहीं वर्ष ख़त्म होते-होते कहीं एक डॉलर की कीमत 100 रुपए न हो जाए। किसी के कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि रुपए को संभालने के लिए करें तो क्या करें।
ठीक उसी समय रघुराम राजन ने भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर का पदभार संभाला। चंद दिन में देश ने देखा कि रुपए का अवमूल्यन अचानक रुक गया। फिर रुपया डॉलर के मुक़ाबले मज़बूत होने लगा। यह किसी करिश्मे से कम नहीं था। इसके लिए राजन को क्रेडिट भले न दिया जाए, लेकिन यह उनके ही नेतृत्व में हो रहा था। राजन ने जादुई ढंग से रुपए का अवमूल्यन रोका ही नहीं, बल्कि उसे नीचे लाने में भी कामयाब रहे। फ़िलहाल, जब उनकी विदाई तय हो गई है, रुपया 67.19 पर है। यानी जब उन्होंने कार्यभार संभाला था, तब से 1.63 सुधरा हुआ है।
रिज़र्व बैंक के इतिहास में 23 गवर्नर हुए, जिनमें आज़ादी के बाद 21 गवर्नरों ने काम किया। इनमें पांच गवर्नर कार्यकारी रहे यानी कुछ महीने ही काम किया। 16 पूर्णकालिक गवर्नरों में मात्र दो ऐसे रहे, जिनके कार्यकाल में ओवरऑल रुपए का अवमूल्यन नहीं, बल्कि अधिमूल्यन हुआ यानी रुपया मज़बूत हुआ। रुपए को बेहतर स्थिति में करके जाने वाले राजन दूसरे गवर्नर हैं। इससे पहले 21वें गवर्नर वाईवी रेड्डी रुपए की स्थिति बेहतर करके गए थे। सबसे अहम बात है, रेड्डी को पांच साल का मौक़ा मिला जबकि राजन तीन साल में विदा हो रहे हैं।
चार सिंतबर 2013 को आरबीआई भवन पहुंचकर काम शुरू करने वाले राजन ने आते ही कमाल करना शुरू कर दिया। पहले भारतीय रुपए का अवमूल्यन रोका फिर साल ख़त्म होते-होते रुपए की फीकी पड़ी चमक को वापस लाने में कामयाब रहे। उनके चार महीने की मेहनत की बदौलत रुपया 31 दिसंबर 2013 को डॉलर के मुक़ाबले 68.82 से मज़बूत होकर 61.82 पर आ गया था। देश के अर्थशास्त्रियों ने राजन के क़दम की सराहना की और उम्मीद बंधने लगी कि उनके नेतृत्व में देश की सेंट्रल बैंक देश की ख़राब अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाएगी।
अगर रुपए के अवमूल्यन के इतिहास पर नज़र डाले तो 2008 से 2013 तक आरबीआई को लीड करने वाले सुब्बाराव का कार्यकाल सबसे निराशाजनक रहा। उनके पांच साल से कार्यकाल में रुपया 43.41 से 68.75 चला गया था यानी डॉलर 25.34 रुपए महंगा हुआ। सी रंगराजन (1992 से 97) का कार्यकाल भी बेहद ख़राब रहा और उनके दौर में डॉलर का मूल्य 22.72 से बढ़कर 36.36 रुपए हो गया। यानी रुपए में 13.64 का अवमूल्यन हुआ। इसी तरह डॉ बिमल जालान (1997-2003) के छह साल के पीरियड में रुपए में 10.24 का अवमूल्यन हुआ।
गवर्नरों के बाद राजनीतिक दलों की बात करें, तो आज़ादी के बाद कांग्रेस के शासन में रुपए का सबसे ज़्यादा अवमूल्यन हुआ। कांग्रेस 1947 से 1977, 1980 से 1989, 1991 से 1996 और 2004 से 2014 तक सत्ता में रही और इस दौरान भारतीय मुद्रा के भाव में 57.29 रुपए का पतन हुआ। चौंकाने वाला सच यह है कि रुपए में 57.29 में 45 से ज़्यादा की गिरावट के लिए अकेले एक्स पीएम मनमोहन सिंह ज़िम्मेदार रहे।
दरअसल, सन् 1982 में मनमोहन क़रीब ढाई साल आरबीआई गवर्नर रहे, तब भारतीय मुद्रा 1.96 रुपए सस्ती हुई थी। नवंबर 1990 से वह आठ महीने प्रधानमंत्री (चंद्रशेखर सिंह) के आर्थिक सलाहकार रहे। तब रुपए में 2.97 का लॉस दर्ज हुआ था। जून 1991 से से 1996 तक मनमोहन वित्तमंत्री रहे, तब रुपया 14.51 गिरा। इसी तरह मई 2004 से वह 10 साल प्रधानमंत्री रहे। इस दौरान रुपया 24.93 सस्ता हुआ। इस तरह मनमोहन भारतीय मुद्रा के लिए अशुभ साबित हुए।
जिस अमेरिकी डॉलर का भाव आज 67.19 रुपए है, उसकी कीमत अंग्रेज़ों ने 15 अगस्त 1947 को जब नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस को सत्ता सौंपी, तब महज एक रुपया थी। यानी फ़िरंगी भारतीयों से बेहतर प्रशासक ही नहीं अर्थशास्त्री भी थे। अंग्रेज़ों ने ही एक अप्रैल 1935 को रिज़र्व बैंक को शुरू किया और सर ओसबोर्न स्मिथ पहले गवर्नर बने। सर सीडी देशमुख गवर्नर बनने वाले पहले भारतीय थे। सबसे अहम अंग्रेज़ों ने सन् 1773 से 1947 के बीच क़रीब पौने दो सौ साल शासन किया, लेकिन अर्थव्यवस्था गिरने नहीं दी। उनके शासन में देश पर एक पैसा भी विदेशी क़र्ज़ नहीं था।
नेहरू को कितना भी विज़नरी कहा जाए परंतु उनकी अगुवाई में अर्थ-व्यवस्था उत्तरोत्तर पतन ही हुआ। नेहरू ने 1951 में विदेशी कर्ज लेना शुरू किया। यह सिलसिला कभी थमा ही नहीं। क़र्ज़ का असर रुपए की सेहत पर पड़ा। नेहरू के पहले कार्यकाल में 1952 में डॉलर का दाम एक रुपए से बढ़कर 4.75 रुपए हो गया। उसके बाद रुपए का अवमूल्यन कभी तेज़ तो कभी सुस्त होता ही रहा।
नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ने देश की कमान संभाली, पर रुपए का पतन जारी रहा। इमरजेंसी के बाद कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई, तो डॉलर का मूल्य क़रीब 9 रुपए हो चुका था। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरराजी देसाई व चरण सिंह की कलह के चलते भले जनता सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई लेकिन जब चरण ने इंदिरा को सत्ता सौंपी तो रुपए की सेहत थोड़ी सुधरी हुई थी। डॉलर का भाव 7.99 रुपए आ चुका था।
कांग्रेस यानी इंदिरा के सत्ता में आते ही रुपया फिर गिरने लगा। राजीव गांधी भी रुपए की सेहत सुधार नहीं पाए. बोफोर्स तोप घोटाले के चलते जब 1989 में सत्ता से बाहर हुए तो रुपया 16.93 तक पहुंच गया था। यानी 10 साल के कांग्रेस शासन में रुपए में 8.94 की गिरावट दर्ज हुई। दूसरी बार बनीं ग़ैरकांग्रेसी सरकारें भी रुपए के लिए शुभ नहीं हुईं और अवमूल्यन जारी रहा। मई 1991 में जब पीवी नरसिंह राव ने चंद्रशेखर सिंह से सत्ता ली, तब डॉलर के मुक़ाबले रुपया 20.52 पर था।
1991 में राव ने मनमोहन को वित्तमंत्री बनाकर उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू की। उदारीकरण रुपए के लिए दिवास्वप्न साबित हुआ और अगले ही महीने ही रुपए का अभूतपूर्व अवमूल्यन हुआ और वह 25.61 तक आ गया। जब देश की जनता ने मई 1996 में कांग्रेस को सत्ता से बेदख़ल किया तो डॉलर की कीमत 35 रुपए हो चुकी थी।
कांग्रेस शासन में इकॉनमी इतनी ख़स्ताहाल हो गई थी कि एचडी देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल रुपए को संभाल नहीं पाए। जनता दल के 22 महीने की अवधि में रुपया 4.5 कमज़ोर हुआ। गुजराल ने मार्च 1998 में अटलबिहारी बाजपेयी को सत्ता सौंपी, तब रुपया 39.57 पर था। सत्ता संभालने के दो महीने बाद ही यानी 11 और 13 मई को अटल ने परमाणु परीक्षण कर दिया, जिससे अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया, लेकि भारत और भारतीय रुपए ने इस प्रतिबंध को बहादुरी से झेला। परमाणु विस्फोट वाले महीने में रुपए की कीमत 40.47 थी।
बहरहाल, संकट ख़त्म होने के बाद रुपए में फिर गिरावट शुरू हो गई, जिसकी रफ़्तार थामने में सरकार असफल रही। एनडीए के रिजिम में जून 2002 में रुपया लुढ़ककर 48.98 तक आया। हालांकि बाद में रिज़र्व बैंक ने इसे संभाला और रुपए की कीमत में इज़ाफ़ा भी हुआ। अटल सरकार का पतन मई 2004 में हुआ और एक महीने पहले तक रुपया संभलकर 43.89 तक आ गया था।
सन् 2004 के चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। सोनिया गांधी ने मनमोहन को प्रधानमंत्री बना दिया। मनमोहन कारोबारियों, खासकर शेयर बाज़ार में जुआ खेलने वाले तेजड़ियों और बिल्डरों के लिए सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बन गए। उनके पहले कार्यकाल में जो भी रियल इस्टेट में कूदा, कुबेर बन गया। लेकिन वह रुपए का अवमूल्यन नहीं रोक पाए और उनके कार्यकाल में ही डॉलर का 50 रुपए को पार कर गया। 2009 का चुनाव आया पर बीजेपी कांग्रेस की नाकामियों को भुनाने में नाकाम रही और मनमोहन की दूसरी बार बतौर प्रधानमंत्री ताजपोशी हुई, लेकिन इस बार रुपए ने अवमूल्यन के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। संभवतः देश के लोग भारतीय रुपए और अर्थ-व्यवस्था का हित चाहते थे इसीलिए मनमोहन से कहना पड़ा, प्लीज़ बस करिए, बहुत हो गया, अपनी तशरीफ़ वापस ले जाइए।
मनमोहन के नरेंद्र मोदी आए, उनके कार्यकाल में क्रूड ऑयल का भाव 116 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 25 डॉलर प्रति बैरल तक आ गया। इससे भारतीय रुपए पर अवमूल्यन का संकट नहीं आया। और उनके दो साल के कार्यकाल में भारतीय मुद्रा डॉलर के मुक़ाबले साठ के नीचे थी। यानी जिस दिन मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उस दिन राजन के नेतृत्व में रुपया 58.63 पर था। मोदी सरकार की पहली सालगिरह पर 63.98 पर रहा और दूसरी सालगिरह पर 66.96 रहा। हालांकि दो साल में डॉलर आठ रुपए महंगा होना ज़्यादा है, पर यह 2013 के 68.82 के मुक़ाबले ज़्यादा नहीं लगता। यानी, राजन के नेतृत्व में रिज़र्व बैंक संतोषजनक काम कर रहा है। इसके बावजूद राजन को तीन साल में जाना पड़ रहा है।
बहरहाल, बीजेपी नेता डॉ सुब्रमण्यम स्वामी पता नहीं क्यों राजन से नाराज़ हो गए और उनके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल लिया। उन्हें इस तरह अमेरिका भेजने की बात कर रहे थे, जैसे राजन भारतीय न होकर अमेरिकी नागरिक हों। जो भी हो बीजेपी एक बेहतरीन अर्थशास्त्री की सेवाओं से ख़ुद को वंचित कर रही है। जबकि मौजूदा दौर में सरकार को ज़रूरत थी।
मोदी सरकार के लोग दावा कर रहे हैं कि सरकार शानदार काम कर रही है, लेकिन मंदी का दौर छंटने का नाम नहीं ले रहा है। यह कमोबेश 2004 जैसा दौर है, जब अटल सरकार ‘फीलगुल’ के ज़रिए दावा कर रही थी कि सरकार अच्छा काम कर रही है, लेकिन जनता चुनाव में कनविंस्ड नहीं हुई। 2004 में कांग्रेस को सत्ता दी तो देश की एकॉनमी में बूम आ गया। इसलीए अगर अटल सरकार जैसी हालत 2019 मोदी सरकार की भी हो तो हैरान की बात नहीं होगी, क्योंकि बेहतर शासन करने के बावजूद बीजेपी विशेषज्ञों की मदद लेने में कांग्रेस जैसी परिपक्व नहीं है। शायद इसीलिए 2004 में मंदी थी और 2016 में भी मंदी है।
भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. रघुराम गोविंदा राजन को भले ही नरेंद्र मोदी सरकार राजनीतिक वजह से दूसरा कार्यकाल नहीं दे रही है, लेकिन इस अर्थशास्त्री को सर्वश्रेष्ठ गवर्नर के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। सन् 2013 में जब रुपया अनियंत्रित होकर रोज़ औंधे मुंह गिर रहा था और महज़ 120 दिन में 15.17 गिरकर 68.82 तक आ गया था, उसी समय डॉ. राजन रुपए के लिए संकटमोचक बनकर आए थे और उन्होंने रुपए को केवल संभाला ही नहीं, बल्कि उसकी स्थिति बेहतर करने में भी कामयाब रहे।
सन् 2013 की गर्मियों में रुपए का ज़बरदस्त अवमूल्यन शुरू हुआ था। चूंकि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार का आख़िरी साल शुरू हो गया था, इसलिए सरकार के काम खड़े हो गए। भ्रष्टाचार के ढेर सारे आरोपों से पहले ही सरकार पस्त थी। उस पर भारतीय मुद्रा भी परेशानी खड़ी करने लगी। रुपया तत्कालीन गवर्नर डॉ. डी सुब्बाराव से संभल ही नहीं रहा था। वह बिलकुल असहाय दिख रहे थे। केंद्र सरकार और वित्त मंत्रालय में खलबली मची गई थी।
सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि उस समय प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री के रूप में पी चिदंबरम, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाह परिषद के अध्यक्ष के रूप में सी रंगराजन, योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में मोंटेकसिंह अहलूवालिया और ख़ुद गवर्नर के रूप में सुब्बाराव जैसे पांच अर्थशास्त्र के महारथी देश को चला रहे थे, फिर भी रुपया रोज़ाना औंधे मुंह गिर रहा था।
चार माह में डॉलर का मूल्य 53.58 से 68.82 रुपए पहुंच गया यानी रुपया 15.17 रुपए सस्ता हो गया। भारतीय मुद्रा जितनी आज़ादी के 40 साल बाद यानी सन् 1987 तक नहीं गिरी थी उतनी चार महीने में गिर गई। उस समय एक बार लगा, कहीं वर्ष ख़त्म होते-होते कहीं एक डॉलर की कीमत 100 रुपए न हो जाए। किसी के कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि रुपए को संभालने के लिए करें तो क्या करें।
ठीक उसी समय रघुराम राजन ने भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर का पदभार संभाला। चंद दिन में देश ने देखा कि रुपए का अवमूल्यन अचानक रुक गया। फिर रुपया डॉलर के मुक़ाबले मज़बूत होने लगा। यह किसी करिश्मे से कम नहीं था। इसके लिए राजन को क्रेडिट भले न दिया जाए, लेकिन यह उनके ही नेतृत्व में हो रहा था। राजन ने जादुई ढंग से रुपए का अवमूल्यन रोका ही नहीं, बल्कि उसे नीचे लाने में भी कामयाब रहे। फ़िलहाल, जब उनकी विदाई तय हो गई है, रुपया 67.19 पर है। यानी जब उन्होंने कार्यभार संभाला था, तब से 1.63 सुधरा हुआ है।
रिज़र्व बैंक के इतिहास में 23 गवर्नर हुए, जिनमें आज़ादी के बाद 21 गवर्नरों ने काम किया। इनमें पांच गवर्नर कार्यकारी रहे यानी कुछ महीने ही काम किया। 16 पूर्णकालिक गवर्नरों में मात्र दो ऐसे रहे, जिनके कार्यकाल में ओवरऑल रुपए का अवमूल्यन नहीं, बल्कि अधिमूल्यन हुआ यानी रुपया मज़बूत हुआ। रुपए को बेहतर स्थिति में करके जाने वाले राजन दूसरे गवर्नर हैं। इससे पहले 21वें गवर्नर वाईवी रेड्डी रुपए की स्थिति बेहतर करके गए थे। सबसे अहम बात है, रेड्डी को पांच साल का मौक़ा मिला जबकि राजन तीन साल में विदा हो रहे हैं।
चार सिंतबर 2013 को आरबीआई भवन पहुंचकर काम शुरू करने वाले राजन ने आते ही कमाल करना शुरू कर दिया। पहले भारतीय रुपए का अवमूल्यन रोका फिर साल ख़त्म होते-होते रुपए की फीकी पड़ी चमक को वापस लाने में कामयाब रहे। उनके चार महीने की मेहनत की बदौलत रुपया 31 दिसंबर 2013 को डॉलर के मुक़ाबले 68.82 से मज़बूत होकर 61.82 पर आ गया था। देश के अर्थशास्त्रियों ने राजन के क़दम की सराहना की और उम्मीद बंधने लगी कि उनके नेतृत्व में देश की सेंट्रल बैंक देश की ख़राब अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाएगी।
अगर रुपए के अवमूल्यन के इतिहास पर नज़र डाले तो 2008 से 2013 तक आरबीआई को लीड करने वाले सुब्बाराव का कार्यकाल सबसे निराशाजनक रहा। उनके पांच साल से कार्यकाल में रुपया 43.41 से 68.75 चला गया था यानी डॉलर 25.34 रुपए महंगा हुआ। सी रंगराजन (1992 से 97) का कार्यकाल भी बेहद ख़राब रहा और उनके दौर में डॉलर का मूल्य 22.72 से बढ़कर 36.36 रुपए हो गया। यानी रुपए में 13.64 का अवमूल्यन हुआ। इसी तरह डॉ बिमल जालान (1997-2003) के छह साल के पीरियड में रुपए में 10.24 का अवमूल्यन हुआ।
गवर्नरों के बाद राजनीतिक दलों की बात करें, तो आज़ादी के बाद कांग्रेस के शासन में रुपए का सबसे ज़्यादा अवमूल्यन हुआ। कांग्रेस 1947 से 1977, 1980 से 1989, 1991 से 1996 और 2004 से 2014 तक सत्ता में रही और इस दौरान भारतीय मुद्रा के भाव में 57.29 रुपए का पतन हुआ। चौंकाने वाला सच यह है कि रुपए में 57.29 में 45 से ज़्यादा की गिरावट के लिए अकेले एक्स पीएम मनमोहन सिंह ज़िम्मेदार रहे।
दरअसल, सन् 1982 में मनमोहन क़रीब ढाई साल आरबीआई गवर्नर रहे, तब भारतीय मुद्रा 1.96 रुपए सस्ती हुई थी। नवंबर 1990 से वह आठ महीने प्रधानमंत्री (चंद्रशेखर सिंह) के आर्थिक सलाहकार रहे। तब रुपए में 2.97 का लॉस दर्ज हुआ था। जून 1991 से से 1996 तक मनमोहन वित्तमंत्री रहे, तब रुपया 14.51 गिरा। इसी तरह मई 2004 से वह 10 साल प्रधानमंत्री रहे। इस दौरान रुपया 24.93 सस्ता हुआ। इस तरह मनमोहन भारतीय मुद्रा के लिए अशुभ साबित हुए।
जिस अमेरिकी डॉलर का भाव आज 67.19 रुपए है, उसकी कीमत अंग्रेज़ों ने 15 अगस्त 1947 को जब नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस को सत्ता सौंपी, तब महज एक रुपया थी। यानी फ़िरंगी भारतीयों से बेहतर प्रशासक ही नहीं अर्थशास्त्री भी थे। अंग्रेज़ों ने ही एक अप्रैल 1935 को रिज़र्व बैंक को शुरू किया और सर ओसबोर्न स्मिथ पहले गवर्नर बने। सर सीडी देशमुख गवर्नर बनने वाले पहले भारतीय थे। सबसे अहम अंग्रेज़ों ने सन् 1773 से 1947 के बीच क़रीब पौने दो सौ साल शासन किया, लेकिन अर्थव्यवस्था गिरने नहीं दी। उनके शासन में देश पर एक पैसा भी विदेशी क़र्ज़ नहीं था।
नेहरू को कितना भी विज़नरी कहा जाए परंतु उनकी अगुवाई में अर्थ-व्यवस्था उत्तरोत्तर पतन ही हुआ। नेहरू ने 1951 में विदेशी कर्ज लेना शुरू किया। यह सिलसिला कभी थमा ही नहीं। क़र्ज़ का असर रुपए की सेहत पर पड़ा। नेहरू के पहले कार्यकाल में 1952 में डॉलर का दाम एक रुपए से बढ़कर 4.75 रुपए हो गया। उसके बाद रुपए का अवमूल्यन कभी तेज़ तो कभी सुस्त होता ही रहा।
नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ने देश की कमान संभाली, पर रुपए का पतन जारी रहा। इमरजेंसी के बाद कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई, तो डॉलर का मूल्य क़रीब 9 रुपए हो चुका था। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरराजी देसाई व चरण सिंह की कलह के चलते भले जनता सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई लेकिन जब चरण ने इंदिरा को सत्ता सौंपी तो रुपए की सेहत थोड़ी सुधरी हुई थी। डॉलर का भाव 7.99 रुपए आ चुका था।
कांग्रेस यानी इंदिरा के सत्ता में आते ही रुपया फिर गिरने लगा। राजीव गांधी भी रुपए की सेहत सुधार नहीं पाए. बोफोर्स तोप घोटाले के चलते जब 1989 में सत्ता से बाहर हुए तो रुपया 16.93 तक पहुंच गया था। यानी 10 साल के कांग्रेस शासन में रुपए में 8.94 की गिरावट दर्ज हुई। दूसरी बार बनीं ग़ैरकांग्रेसी सरकारें भी रुपए के लिए शुभ नहीं हुईं और अवमूल्यन जारी रहा। मई 1991 में जब पीवी नरसिंह राव ने चंद्रशेखर सिंह से सत्ता ली, तब डॉलर के मुक़ाबले रुपया 20.52 पर था।
1991 में राव ने मनमोहन को वित्तमंत्री बनाकर उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू की। उदारीकरण रुपए के लिए दिवास्वप्न साबित हुआ और अगले ही महीने ही रुपए का अभूतपूर्व अवमूल्यन हुआ और वह 25.61 तक आ गया। जब देश की जनता ने मई 1996 में कांग्रेस को सत्ता से बेदख़ल किया तो डॉलर की कीमत 35 रुपए हो चुकी थी।
कांग्रेस शासन में इकॉनमी इतनी ख़स्ताहाल हो गई थी कि एचडी देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल रुपए को संभाल नहीं पाए। जनता दल के 22 महीने की अवधि में रुपया 4.5 कमज़ोर हुआ। गुजराल ने मार्च 1998 में अटलबिहारी बाजपेयी को सत्ता सौंपी, तब रुपया 39.57 पर था। सत्ता संभालने के दो महीने बाद ही यानी 11 और 13 मई को अटल ने परमाणु परीक्षण कर दिया, जिससे अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया, लेकि भारत और भारतीय रुपए ने इस प्रतिबंध को बहादुरी से झेला। परमाणु विस्फोट वाले महीने में रुपए की कीमत 40.47 थी।
बहरहाल, संकट ख़त्म होने के बाद रुपए में फिर गिरावट शुरू हो गई, जिसकी रफ़्तार थामने में सरकार असफल रही। एनडीए के रिजिम में जून 2002 में रुपया लुढ़ककर 48.98 तक आया। हालांकि बाद में रिज़र्व बैंक ने इसे संभाला और रुपए की कीमत में इज़ाफ़ा भी हुआ। अटल सरकार का पतन मई 2004 में हुआ और एक महीने पहले तक रुपया संभलकर 43.89 तक आ गया था।
सन् 2004 के चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। सोनिया गांधी ने मनमोहन को प्रधानमंत्री बना दिया। मनमोहन कारोबारियों, खासकर शेयर बाज़ार में जुआ खेलने वाले तेजड़ियों और बिल्डरों के लिए सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बन गए। उनके पहले कार्यकाल में जो भी रियल इस्टेट में कूदा, कुबेर बन गया। लेकिन वह रुपए का अवमूल्यन नहीं रोक पाए और उनके कार्यकाल में ही डॉलर का 50 रुपए को पार कर गया। 2009 का चुनाव आया पर बीजेपी कांग्रेस की नाकामियों को भुनाने में नाकाम रही और मनमोहन की दूसरी बार बतौर प्रधानमंत्री ताजपोशी हुई, लेकिन इस बार रुपए ने अवमूल्यन के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। संभवतः देश के लोग भारतीय रुपए और अर्थ-व्यवस्था का हित चाहते थे इसीलिए मनमोहन से कहना पड़ा, प्लीज़ बस करिए, बहुत हो गया, अपनी तशरीफ़ वापस ले जाइए।
मनमोहन के नरेंद्र मोदी आए, उनके कार्यकाल में क्रूड ऑयल का भाव 116 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 25 डॉलर प्रति बैरल तक आ गया। इससे भारतीय रुपए पर अवमूल्यन का संकट नहीं आया। और उनके दो साल के कार्यकाल में भारतीय मुद्रा डॉलर के मुक़ाबले साठ के नीचे थी। यानी जिस दिन मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उस दिन राजन के नेतृत्व में रुपया 58.63 पर था। मोदी सरकार की पहली सालगिरह पर 63.98 पर रहा और दूसरी सालगिरह पर 66.96 रहा। हालांकि दो साल में डॉलर आठ रुपए महंगा होना ज़्यादा है, पर यह 2013 के 68.82 के मुक़ाबले ज़्यादा नहीं लगता। यानी, राजन के नेतृत्व में रिज़र्व बैंक संतोषजनक काम कर रहा है। इसके बावजूद राजन को तीन साल में जाना पड़ रहा है।
बहरहाल, बीजेपी नेता डॉ सुब्रमण्यम स्वामी पता नहीं क्यों राजन से नाराज़ हो गए और उनके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल लिया। उन्हें इस तरह अमेरिका भेजने की बात कर रहे थे, जैसे राजन भारतीय न होकर अमेरिकी नागरिक हों। जो भी हो बीजेपी एक बेहतरीन अर्थशास्त्री की सेवाओं से ख़ुद को वंचित कर रही है। जबकि मौजूदा दौर में सरकार को ज़रूरत थी।
मोदी सरकार के लोग दावा कर रहे हैं कि सरकार शानदार काम कर रही है, लेकिन मंदी का दौर छंटने का नाम नहीं ले रहा है। यह कमोबेश 2004 जैसा दौर है, जब अटल सरकार ‘फीलगुल’ के ज़रिए दावा कर रही थी कि सरकार अच्छा काम कर रही है, लेकिन जनता चुनाव में कनविंस्ड नहीं हुई। 2004 में कांग्रेस को सत्ता दी तो देश की एकॉनमी में बूम आ गया। इसलीए अगर अटल सरकार जैसी हालत 2019 मोदी सरकार की भी हो तो हैरान की बात नहीं होगी, क्योंकि बेहतर शासन करने के बावजूद बीजेपी विशेषज्ञों की मदद लेने में कांग्रेस जैसी परिपक्व नहीं है। शायद इसीलिए 2004 में मंदी थी और 2016 में भी मंदी है।
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