हरिगोविंद विश्वकर्मा
आज मैं घर से बिना
मोबाइल के निकला तो लगा कुछ भूल रहा हूं. पता नहीं क्यों रास्ते भर यही सोचता रहा
कि आख़िर आज क्या भूल गया हूं, क्या मिस कर रहा हूं. हालांकि मैं वैसे भी बहुत
ज़्यादा फोन या मैसेज नहीं करता, इसीलिए मेरा बिल बहुत कम आता है. इसके बावजूद मैं
मोबाइल को बुरी तरह मिस कर रहा था. पता नहीं कब और क्यों मोबाइल जीवन से इस तरह
जुड़ गया है कि न रहने पर बार-बार सोचने लगता था कि आख़िर मैं आज क्या भूल रहा
हूं.
इसमें दो राय नहीं
कि आजकल मोबाइल बहुउपयोगी हो गया है. कोई भी काम पड़ता है, तो बस मोबाइल ही देखते हैं. कॉल और संदेश ही नहीं, तारीख़ कितनी है, या दिन कौन सा है या फिर टाइम कितना हुआ है, इन सबके लिए मोबाइल पर बुरी निर्भरता है. इतना
ही नहीं मोबाइल के कैलेंडर से आने वाले दिन में क्या प्रोग्राम है यह भी पता चलता
है. कुल मिलाकर मोबाइल जीवनसाथी की तरह हो गया है. मतलब अपनों से ज़्यादा लगाव
मोबाइस से...
हालांकि कमबख़्त
मोबाइल ने चिट्ठियां लिखने-लिखवाने के मानव के ख़ूसूरत रोमांच को ही मार डाला.
अन्यथा एक दौर वह भी था, जब किसी ख़ास का संदेश पाने के लिए लोग कई-कई दिन
चिट्ठियों और चिट्ठी लाने वाले डाकिये का इंतज़ार करते थे, डाकिए को गांव में
देखते ही उसके पास दौड़कर जाते थे और पूछते थे –मेरी कोई चिट्ठी है क्या...? तब लोग अर्जेंट संदेश देने के लिए तार करते थे. मुझे याद है 1983 में मेरे
पिताजी का असामयिक निधन हुआ था, तब बड़े भाईसाहब को मुंबई में ख़बर देने के लिए बनारस
से तार करना पड़ा. वह भी दो शब्द ही लिखा था –फादर एक्पायर्ड... बहरहाल, माबाइल ने
आकर मानव जीवन की ख़ूबसूरत सी संचार प्रणाली को तहसनहस कर दिया. कह सकते हैं कि
मोबाइल ने चिट्ठियों की परंपरा को ख़त्म कर दिया... इसके बावजूद मोबाइल से इतना
प्यार?
आजकल हम लोग मोबाइल
के इतने आदी हो गए हैं, यह ऑक्सीजन की तरह हो गया है. इसे आदत न कहकर मजबूरी भी कह सकते हैं. यह जीवन में
इतने अंदर तक समा चुका है कि इसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं होती. यह उस
प्रियतमा की तरह हो गया है, जिसे हम हर पल मिस करते हैं. तभी तो मेडिकल जगत के लोग
लाख आगाह करते हैं कि मोबाइल से रेडिएशन होता है, जिससे सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ता है, पर कहां कोई मानने वाला. लोग लगाए रहते हैं कान
से मोबाइल. आजकल लोग यात्रा करते हुए हरदम मोबाइल हैंडसेट कान से लगाए गाना सुनते
रहते हैं. इसका सकारात्मक असर यह हुआ कि लोग यात्रा में अपने आप में ही मस्त रहते
हैं, कई लोग कहते हैं कि मोबाइल के आने से ट्रेन, ख़ासकर लोकल ट्रोन में झगड़े
वगैरह होने कम हो गए हैं. इस लिहाज़ ये मोबाइल बहुत अच्छा है.
दरअसल, अब उस कारण का ज़िक्र, जिससे यह पीस लिखने की नौबत आई ? दरअसल, पिछले साल मैंने जियोनी हैंडसेट ले लिया.
बैटरी तो उसकी ठीक है, लेकिन हैंडसेट ठीक नहीं. कल अचानक कोई सीरियस प्रॉब्लम आ
गया. इससे पूरा फोन ही बंद हो गया. लिहाज़ा, उसे सिम समेत मैकेनिक को दे दिया. यूं तो मोबाइल का
इस्तेमाल, मैंने उसके आगमन के चार साल बाद यानी सन् 2000 से ही शुरू कर दिया था, लेकिन तब भी इनकमिंग कॉल इतने ज़्यादा महंगे होते थे कि
हिम्मत नहीं पड़ती थी नियमित मोबाइल रखने की. लेकिन रिलायंस की मोबाइल जगत में
एंट्री होते ही आम भारतीयों की तरह मेरे पास भी सन् 2003 से नियमित मोबाइल आ गया था. उसी दौरान बनारस ट्रांसफर हुआ तो मुंबईवाला फोन ही
लेकर गया, तब रिलांयस की लोकल रोमिंग फ्री होती थी, जो बाद में बंद हो गई. बहरहाल,
उसी साल शायद सितंबर या अक्टूबर में मोबाइल का इनकमिंग कॉल फ्री हो गया. फिर तो
मोबाइल जीवन से ऐसे जुड़ा कि फिर कभी जुदा ही नहीं हुआ. जम्मू-कश्मीर ट्रांसफर हुआ
तो वहां भी पोस्टपेड सिम लेना पड़ा, क्योंकि तब प्रीपेड सिम जम्मू-कश्मीर के बाहर
काम नहीं करता था. इस असुविधा को टालने के लिए पोस्टपेड सिम रखने की आदत पड़ गई.
बहहाल, आनेवाले
एक-दो दिन बिना मोबाइल के रहना पड़ेगा.. फिर भी मोबाइल न रहने से एक सुकून भरी
राहत है. कोई फोन नहीं, कोई मैसेज नहीं.. पूर्ण शांति है... आज मुझे लग रहा है कि वाक़ई
बिना मोबाइल वाला जीवन इस मोबाइल वाले जीवन से बेहतर था...!
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