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शनिवार, 9 मार्च 2013

औरतों को बस हर जगह 50 फीसदी प्रतिनिधित्व दे दें और कुछ न करें...!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
महिलाओं को ख़ुश करने के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौक़े पर भाति-भांति के प्रोग्राम्स होते हैं। यह मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाने की कवायद है। जैसे, कभी राष्ट्रपति, कभी प्रधानमंत्री तो कभी लोकसभा अध्यक्ष पद पर किसी महिला को बिठाकर या वाहवाही लूटने के लिए महिलाओं के लिए महिला बैंक बनाकर मान लेना कि महिला वूमैन इम्पॉवरमेंट हो गया। यह ठीक उसी तरह है जैसे प्रवचन सुनते समय तो सारे भक्त ख़ूब सिर हिलाकर दर्शाते हैं कि वे त्यागी हैं, कम से कम उनसे कोई अमानवीय कार्य नहीं होगा। लेकिन आम जीवन में तमाम तरह के पाप करते हैं। लोगों का हक़ मारते हैं और इसमें उन्हें तनिक भी अपराधबोध नहीं होता क्योंकि बाद में पूजापाठ करके मान लेते हैं कि पाप धुल गया। इसी तरह जो लोग धूम धड़ाके से महिला दिवस मनाते हैं, वे ही आम जीवन में महिलाओं का हक़ मारते आ रहे हैं। यह महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध है, इसका प्रायश्चित करने के लिए ही पुरुष प्रधान-समाज महिला दिवस मनाता है। 

सवाल उठता है कि क्या सचमुच समाज महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के हिमायती है, क्या सचमुच ये महिलाओं का उत्थान चाहते हैं। अगर हां, तो आज ज़रूरत है समाज में उन प्रावधानों को करने की, जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक पहुंचाएं। उसके लिए ज़रूरी है कि पहले जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि असली समस्या क्या है। दरअसल, किसी को पता ही नहीं कि असली समस्या क्या है। ज़ाहिर है अगर आपको मर्ज़ के नेचर का पता नहीं होगा तो आप अंदाज़ से दवा देंगे जिससे ठीक होने की बजाय कभी–कभी मरीज़ की मौत भी हो जाती है। इसलिए सबसे पहले जानिए कि प्रॉब्लम क्या है।

वस्तुतः समाज में महिलाओं की बहुत कम विज़िबिलिटी ही सबसे बड़ी समस्या या प्रॉब्लम है। यानी घर के बाहर महिलाएं दिखती ही नहीं, दिखती भी हैं तो बहुत कम तादाद में। सड़कों, रेलवे स्टेशनों और दफ़्तरों में उनकी प्रज़ेंस नाममात्र की है। मुंबई और दिल्ली जैसे डेवलप्ड सिटीज़ में भी महिलाओं की विज़िबिलिटी दस फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है। देश के बाक़ी हिस्सों में तो हालत भयावह है। चूंकि समाज में महिलाओं की आबादी 50 फ़ीसदी है तो हर जगह उनकी मौजूदगी भी उसी अनुपात में यानी 50 फ़ीसदी होनी चाहिए। अगर विज़िबिलिटी की इस समस्या को हल कर लिया गया यानी महिलाओं की प्रज़ेंस 50 फ़ीसदी कर ली गई तो महिलाओं की ही नहीं, बल्कि मानव समाज की 99 फ़ीसदी समस्याएं ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाएंगी। इसके बाद महिला दिवस मनाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। महिलाएं बिना किसी क़ानून के सही-सलामत और महफ़ूज़ रहेंगी।

इस क्रम में सबसे पहले केंद्र और राज्य सरकार में 50 फीसदी जगह महिलाओं को देने को लिए सरकार और राजनैतिक दलों पर फ़ौरन दबाव बनाया जाना चाहिए। यानी पूरे देश की हर सरकार में महिला मंत्रियों की संख्या पुरुष मंत्रियों के बराबर होनी चाहिए। इसी तरह विधायिका यानी संसद (लोकसभा-राज्यसभा) और राज्य विधानसभाओं समेत देश की हर जनपंचायत में महज़ 33 फ़ीसदी नहीं बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित की जानी चाहिए। हमारे देश में महिलाओं की आबादी फ़िफ़्टी परसेंट है तो विधायिका में आरक्षण 33 फ़ीसदी ही क्यों भाई? यह तो सरासर बेईमानी है। यानी संसद (लोकसभा-545 और राज्यसभा-245) में 890 सदस्यों में से 445 महिलाएं किसी भी सूरत में होनी ही चाहिए।

एक बात और, महिला आरक्षण का लाभ केवल एडवांस-फ़ैमिलीज़ यानी राजनीतिक परिवार की लड़कियां या महिलाएं ही हाईजैक न कर ले, जैसा कि अमूमन होता रहा है। क्योंकि पॉलिटिकल क्लास की ये महिलाएं अपने पति, पिता, ससुर या बेटे की पुरुष प्रधान मानसिकता को ही रिप्रज़ेंट करती हैं। इसलिए रिज़र्वेशन का लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब,  देहाती, आदिवासी,  दलित, पिछड़े वर्ग और मुस्लिम परिवार की महिलाओं को मिले यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, पुलिस बल, आर्मफोर्स, न्यायपालिका, बैंक, मीडिया हाउसेज़ और धार्मिक संस्थानों में आधी आबादी महिलाओं की होनी ही चाहिए। सरकारी और निजी संस्थानों, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी या अन्य शिक्षण संस्थानों में 50 प्रतिशत पोस्ट महिलाओं को दी जानी चाहिए। महिला घर में क्यों बैठें? वह काम पर क्यों न जाएं? अगर 50 परसेंट महिलाएं काम पर जाएंगी तो घर के बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होंगी यानी हर जगह जितने पुरुष होंगे उतनी ही महिलाएं। ज़्यादा संख्या निश्चिततौर पर महिलाओं का मोरॉल बुस्टअप करेगा। जब सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन, दफ़्तर, पुलिस स्टेशन, अदालत में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि वह महिला की ओर बुरी निग़ाह से देखे तक। क्योंकि महिलाओं की कम संख्या लंपट पुरुषों को प्रोत्साहित करती है। इस मुद्दे पर जो भी ईमानदारी से सोचेगा वह इसका समर्थन करेगा और कहेगा कि महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाना है तो उन्हें इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है।

कल्पना कीजिए, केंद्रीय और राज्य मंत्रिमंडल, लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं में पुरुषों के बहुमत की जगह बराबर संख्या में महिलाएं हो तो कितना बदलाव सा लगेगा। किसी ऑफ़िस में जाने पर 50 फ़ीसदी महिलाएं दिखने पर नारी-जाति वहां जाने पर रिलैक्स्ड फ़ील करेगी। पुलिस स्टेशन में आधी आबादी महिलाओं की होने पर ख़ुद महिलाएं शिकायत लेकर बेहिचक थाने में जाया करेंगी। जब लड़कियों को बड़ी तादाद में नौकरी मिलेगी तो उनमें सेल्फ़-रिस्पेक्ट पैदा होगा। वे अपने को पराश्रित और वस्तु समझने की मानसिकता से बाहर निकलकर स्वावलंबी बनेंगी। वे माता-पिता पर बोझ नहीं बनेंगी। उनकी शादी माता-पिता के लिए बोझ या ज़िम्मेदारी नहीं होगी। जब लड़कियां बोझ नहीं रहेंगी तो कोई प्रेगनेंसी में सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट ही नहीं करवाएगा। लोग लकड़ी के पैदा होने पर उसी तरह ख़ुशी मनाएंगे जैसे पुत्रों के आगमन पर मनाते हैं। यक़ीन मानिए तब 1000 लड़कों के सामने 100 लड़कियां होंगी। हमारा समाज संतुलित और ख़ुशहाल होगा। जहां हर काम स्त्री-पुरुष दोनों कर सकेंगे।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष-प्रधान समाज अपनी सत्ता महिलाओं को सौंपने के लिए तैयार होगा? इस राह में पक्षपाती परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की जानी चाहिए। यानी ढोल, गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारीजैसी चौपाई रचने वाले तुलसीदास जैसे पुरुष मानसिकता वाले कवियों को ख़ारिज़ करना पड़ेगा। इतना ही नहीं तुलसी के महाकाव्य रामचरित मानस को भी संशोधित करना पड़ेगा, जहां पत्नी की अग्निपरीक्षा लेने वाले और उसे गर्भकाल घर से निकालकर जंगल में भेजने वाले पति राम को मर्यादा पुरुषोत्तममाना गया है। हमें उस महाकाव्य महाभारत और उसके लेखक व्यास की सोच को भी दुरुस्त करना होगा जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले जुआड़ी पति युधिष्ठिर को धर्मराजमानता है। हमें उन सभी परंपराओ और ग्रंथो में संशोधन करना होगा जहां पुरुष (पति) को परमेश्वरऔर स्त्री (पत्नी) को चरणों की दासीमाना गया है। इतना ही नहीं हमें उन त्यौहारों में बदलाव करना होगा, जिसमें पति की सलामती के लिए केवल स्त्री के व्रत रखने का प्रावधान है, पत्नी की सलामती के लिए पति के व्रत रखने का प्रवधान नहीं है। इसके अलावा स्त्री को घूंघट या बुरका पहनने को बाध्य करने वाली नारकीय परंपराओं भी छोड़ना होगा। लेकिन सवाल खड़ा होता है, क्या यह पुरुष-प्रधान समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर हां तो बदलाव की शुरुआत तुरंत होनी चाहिए, अगर नहीं तो महिलाओं से रेप या अन्य अपराध पर घड़ियाली आंसू बहाने की कोई ज़रूरत नहीं।

पिछले साल दिल्ली गैंगरेप पर महानायक अमिताभ बच्चन और उनकी पत्नी जया समेत बड़़ी तादाद में आंसू बहा रहे थे, पर क्या वे अपने घर में स्त्री को बराबरी का दर्जा दिए या देते हैं। क्या वे घर में बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं करते? टीवी न्यूज़ चैनलों पर सभी ने जया को राज्यसभा में भावुक होते और आंसू बहाते देखा गया था। क्या जया स्त्री के प्रति बायस नहीं हैं? क्या उनके घर में बेटी श्वेता को ग्रो करने का बेटे अभिषेक जैसा माहौल मिला? अमिताभ-जया की विरासत अकेले अभिषेक ही क्यों संभाल रहे हैं? क्या बॉलीवुड के सबसे बड़ी फ़ैमिली में श्वेता ने लड़की होने की कीमत नहीं चुकाई। उसे यही तो बताया गया कि फ़ीमेल होने के कारण वह पिता की विरासत नहीं संभाल सकती? लिहाज़ा उसे हाउसवाइफ़ बना दिया गया। इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लें, गांधी परिवार में राहुल से ज़्यादा टैलेंटेड होने के बावजूद प्रिंयका क्यों गृहणी बना दी गई हैं? क्या राजनीति की सबसे प्रतिष्ठित फ़ैमिली में प्रियंका नारी होने की कीमत नहीं चुका रही हैं? राजनीति में एकाध अपवाद को छोड़ दे तो हर जगह पिता की विरासत केवल बेटा ही क्यों संभाल रहा है। नवीन पटनायक, उमर अब्दुल्ला और अखिलेश यादव जैसे पुत्रों का पिता की विरासत संभालना, यह नहीं दर्शाता कि बड़े राजनीतिक घराने में ही बेटियों के साथ पक्षपात हो रहा है। इंदिरा गांधी जवाहरलाल नेहरू की उत्तराधिकारी इसलिए बन सकीं क्योंकि नेहरू को पुत्र ही नहीं था। इसी तरह उन्हीं एडवांस फ़ैमिलीज़ में बेटियां उत्तराधिकारी बन रही हैं जहां पुत्र हैं ही नहीं। जब विकसित परिवारों यानी रूलिंग फ़ैमिलीज़ में स्त्री के साथ खुला पक्षपात और दोयम दर्जे हो रहा है तो इस तरह के माहौल में दूर-दराज़ और पिछड़े इलाकों में स्त्री की क्या हैसियत होती होगी, कोई भी सहज कल्पना कर सकता है। ऐसे माहौल में हर जगह लड़कियों या महिलाओं की 50 फ़ीसदी मौजूदगी ही समस्या का एकमात्र हल है। मतलब सबसे यही अपील की जानी चाहिए कि औरतों को बस हर जगह 50 फीसदी प्रतिनिधित्व दे दें और कुछ न करें...!
 (समाप्त)



शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

लड़की की पहचान छिपाना क्या पुरुषवादी सोच व पिछड़ेपन की निशानी नहीं?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
बीजेपी लीडर सुषमा स्वराज ने जब लोकसभा में बयान दिया कि बलात्कार की शिकार लड़की अगर भविष्य में ठीक हो जाती भी है, तो वह एक ‘जिंदा लाश’ की तरह रहेगी। लोकसभा में विपक्ष की नेता का यह बयान ढेर सारे लोगों को बहुत ही नागवार लगा। कई राष्ट्रीय टीवी चैनल्स पर तो इस मसले पर ज़ोरदार बहस हुई, जहां सुषमा स्वराज को जमकर कोसा गया। दरअसल, उनके बयान का अर्थ निकाला गया कि रेप का शिकार होने का बाद महिला की दशा समाज में ‘अछूत’ की तरह हो जाती है। कोई उससे रिश्ता नहीं जोड़ना चाहता। आलोचकों का तर्क था कि समाज 21वीं सदी में पहुंच गया है, उसकी सोच बदल गई है। ख़ासकर रेप-विक्टिम को लेकर लोगों का नज़रिया उदार हो गया है। आधुनिक समाज में अब रेप-विक्टिम के लिए आइडेंटटिटी क्राइसेस नहीं हैं। इसलिए सुषमा स्वराज के बयान से असहमति जताई गई, उसकी आलोचना की गई। पूरा देश, ख़ासकर उस नारी जमात ने इस आलोचना से बड़ी राहत की सांस ली थी जो रेप जैसे दुःस्वप्न का शिकार रही है या जो दिन रात रेप या छेड़छाड़ के ख़तरे के साए से घिरी रहती है।


मगर दस दिन बाद सुषमा स्वराज तो कोसने वालों की कलई खुल गई। राजनीतिक समाज, सरकार और मीडिया के पुरुषवादियों ने भी तो वहीं किया, जिसकी आशंका सुषमा स्वराज ने जताई थी। ‘प्राइवेसी ऑफ़ द फ़ैमिली’ के नाम पर शहीद ब्रेवहार्ट ‘राष्ट्र की बेटी’ की पहचान ही छिपा ली गई। कहा गया कि पीड़ित लड़की के परिवार की प्राइवेसी पर कोई आंच न आए, इसलिए उसके पार्थिव शरीर को सिंगापुर से स्वदेश लाने तक बेहद गोपनीयता बरती गई। हालांकि सरकार का यह क़दम समाज के एक बड़े तबक़े, ख़ासकर महिलाओं को हजम नहीं हुई।

अगर सही पूछा जाए तो इस तरह की गोपनीयता की कोई ज़रूरत थी ही नहीं। लिहाज़ा इस क़दम को इंडियन मीडिया की बीमार, पिछड़ेपन और ‘पुरुषवादी’ सोच का परिणाम कहा जाना चाहिए। जो आज 21वीं सदी भी आदम के ज़माने में जी रहे हैं, जहां बलात्कार का शिकार होने के बाद लड़की अछूत मान ली जाती है, वह ज़िंदा लाश मान ली जाती है। उसका जीवन नरकमय मान लिया जाता है। सो इनसे बचने के लिए उसकी ही नहीं, उसके परिवार और निवास स्थान को छिपा दिया जाता है। यह खालिस पुरुषवादी मानसिकता का परिणाम है। इसी मानसिकता का जिक्र गाहे-बगाहे सुषमा स्वराज ने किया था जिस पर ऐतराज़ किया गया और फिर ख़ुद उसी परपंरा का पालन किया गया।

इस बात से गहरी निराशा हुई कि पुरुष-प्रधान मीडिया ने चालाकी से एक कुर्बानी, एक शहादत, एक सेक्रिफ़ाइस पर पानी ही नहीं फेरा, बल्कि बहादुर लड़की को गुमनामी में ढकेल दिया। कैसी बिडंबना है कि जो बहादुर लड़की छह-छह बलात्कारियों से लड़ी। और अपने साहस के चलते आज देश भर की लड़कियों ही नहीं, समस्त युवाओं की रोल मॉडल होनी चाहिए थी, उसे कोई कभी जान नहीं सकेगा कि आख़िर वह कौन थी? किस बहादुर माता-पिता की संतान थी और कहां की रहने वाली थी? मगर आनन-फ़ानन में गोपनीय रखने के फ़ैसले ने उसकी शहादत को व्यर्थ जाने दिया। जहां हर जगह महिलाओं के प्रति लोगों, खासकर पुरुषों के माइंडसेट में बदलाव के लिए कोशिशें हो रही हैं वहीं इस तरह की घटनाएं लोगों को हतोत्साहित करने वाली हैं।


कितनी दुखद बात है कि लड़की की दिलेरी का गुणगान करने की बजाए पूरा देश अचानक खुद शर्मिंदा हो गया। उसका गुपचुप अंतिम संस्कार कर दिया गया। आख़िर क्यों? इसमें उस मासूम की क्या गलती थी? अगर वह दरिंदों की हवस का शिकार हुई तो इसमें उस मासूम का क्या दोष? उसकी पहचान छिपाने की आख़िर ज़रूरत क्यों महसूस की गई
? उसकी पहचान छुपाकर क्या संदेश देने की कोशिश की जा रही है? यही कि लड़कियों ध्यान रखना इस तरह की कोई अनहोनी अगर तुम्हारे साथ हुई तो तुम्हें भी यह देश अछूत समझेगा! तुम्हें मरने के बाद सबकी नजरों से बचाकर चुपचाप दफ़न कर दिया जाएगा या तुम्हारी चिता जला दी जाएगी!

नारी को बराबरी का दर्जा देने वाले उम्मीद कर रहे थे कि कम से कम मरणोपरांत तो उस बहादुर लड़की की पहचान सार्वजनिक की जाएगी। उसके माता-पिता को 'बहादुर लड़की का मां-बाप' होने के लिए सम्मानित किया जाएगा। उसका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जाएगा। सात तोपों की सलामी दी जाएगी। पार्थिव शरीर के चहरे को खुला रखा जाएगा या उसकी एक फोटो रखी जाएगी। सब कुछ टीवी कैमरे के सामने लाइव होगा। और पूरी दुनिया जानेगी कि भारतीय समाज सचमुच बदल गया है, वहां लोग बलात्कार की शिकार बेटी के साथ किसी तरह का पक्षपात नहीं करते, उसे अछूत नहीं मानते, उसे उतना ही प्यार और सम्मान देते। जितना बेटों को। लेकिन, सारी उम्मीद धरी की धरी रह गई। चोरी से उसकी अंतिम संस्कार कर दिया गया।


दरअसल, माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में लड़की की मौत के बाद राजनीतिक जमात के चंद पुरुषवादी सोच के पैरोकारों के दिमाग़ में ख़ुराफ़ात आई कि लड़की का पार्थिव दिल्ली लाते समय अगर टीवी पर दिखाया गया तो उसके परिवार के प्राइवेसी डैमेज हो जाएगी। इस आशंका से सरकार को अवगत कराया गया, जहां पुरुषों का ही वर्चस्व है लिहाज़ा फ़ैसला किया गया कि पीड़ित के परिवार की ‘प्राइवेसी’ का सम्मान हो और अंतिम संस्कार को टीवी पर न दिखाया जाए। सरकार ने चैनल प्रमुखों को बताया गया कि इसे टीवी पर न दिखाया जाए। वहां भी पुरुष-प्रधान समाज के पैरोकार थे, सरकार ने तो उनके मन की बात कह दी थी। तुरंत स्वीकार कर लिया और सब कुछ गोपनीय रख लिया गया।


मज़ेदार बात यह है कि फोटो समेत लड़की के बारे में पूरा विवरण सोसल नेटवर्किंग साइट फेसबुक और इंटरनेट के ज़रिए आमतौर पर हर भारतीय ही नहीं, बल्कि विदेश में भी लोगों के पास पहुंच गया है। यानी गोपनीयता जैसी कोई बात रही ही नहीं। मतलब जिस मकसद से भारत की बहादुर बेटी का नाम छिपाया गया वह मकसद पूरा नहीं हो सका और उसकी पहचान पब्लिक हो गई। आज हर आदमी उसकी तस्वीर देख रहा है। इन पंक्तियों के लेखक के पास भी उसकी तस्वीर और पूरा विवरण है।


जहां तक रेप या अन्य सेक्सुएल असॉल्ट विक्टिम्स की ख़बर की बात है तो मीडिया अकसर रेप विक्टिम्स की बाइट दिखाती है। तब उसकी आवाज़ तो सभी सुनते हैं। गोपनीयता के नाम पर केवल उसकी नाक तक चेहरा ढंका जाता है। जिससे उसकी पहचान अप्रत्यक्षरूप से सार्वजनिक हो ही जाती है। कई बार पीड़ित का फुटेज़ इस तरह व्लर किया जाता है कि देखने वाला जान जाता है कि वह कौन है। इसी तरह प्रिंट मीडिया में भी नाम बदल देने की परिपाटी है। हालांकि इन सब कवायदो से उसकी पहचान छिपती नहीं। 

दरअसल, लैंगिक अपराध की शिकार लड़कियों की पहचान छिपाने की परंपरा भी सोसाइटी में मेल डॉमिनेश की प्रतीक है। तर्क ये दिया जाता कि आगे चलकर इसका असर लड़की के पारिवारिक जीवन पर न पड़े। कोई उससे शादी करने से इनकार न करे। इसलिए उसकी पहचान गोपनीय रखने की कोशिश की जाती है। हालांकि ये तर्क ही एकदम बेहूदा है।

दरअसल, यह बड़ा खूबसूरत अवसर था। बलात्कार पीड़ित स्त्रियों के बारे में समाज के नज़रिए में बदलाव की पहल करने का। लेकिन दुर्भाग्य से पुरुष-प्रधान समाज के रहनुमाओं ने स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक बनाए रखने के लिए वह पहल नहीं होने दी।

(समाप्त)

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

पुरुष प्रधान समाज है, रेप तो होगा ही...!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की वारदात से हर आदमी सदमे में है। गली-मोहल्ला हो, सड़क हो, बस-ट्रेन हो या फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद, हर जगह यही आलम हैं। एक तरफ़ से लोग बहुत दुखी हैं। कहीं लोग आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं तो कहीं धरना प्रदर्शन। बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत देने की पुरज़ोर पैरवी की जा रही है। कहीं-कहीं तो रिएक्शन और आक्रोश एकदम एक्स्ट्रीम पर है, लोग इस तरह रिएक्ट कर रहे हैं कि अगर उनका बस चले तो तालिबानी सोच वालों की तरह रेपिस्ट्स को फ़ौरन फ़ांसी के फ़ंदे से लटका दें। यह भी संभब है कि देश में अचानक बने इस जनादेश के दबाव के चलते केंद्र सरकार रेपिस्ट के लिए मौत सुनिश्चित करने वाला बिल यथाशीघ्र संसद में पेश कर दे और वह पारित होकर क़ानून भी बन जाए। अगर ऐसा क़ानून बना तो यह क़दम समीचीन ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक भी होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल आज यह खड़ा हुआ है कि इस क़ानून से रेप जैसे वीभत्स और हैवानियत भरे अपराध पर पूरी तरह अंकुश लग पाएगा? यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता।

बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत का दंड देने से रेप की वारदातों पर विराम लगने की गारंटी आख़िर देगा कौन? क्या हत्या जैसे अपराध पर मौत की सज़ा का प्रावधान कर देने से हत्या की वारदात पर रोक लग गई? कोई तो बताए कि हत्यारों के लिए फ़ांसी की सज़ा मुकर्रर होने के बाद भी हत्याएं क्यो हो रही हैं? अभी महीने भर पहले कुख्यात हत्यारे कसाब को मृत्युदंड दिया गया। मगर हत्याएं लगातार हो रही हैं। इसका मतलब यही है कि जिस तरह फ़ांसी की सज़ा जैसे दंड के प्रावधान हत्याएं रोकने नाकाम हो रहे हैं, वैसे ही कैपिटल पनीश्मेंट रेप रोकने में कामयाब होगा, इस पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता। क्योंकि जब पुरुष पर शैतान या हैवानियत की सवारी होती है तो वह क्वांटम ऑफ़ पनीश्मेंट भूल जाता है। लिहाज़ा इस क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद भी स्त्री की इज़्जत से खेलने का दुस्साहस जारी रह सकता है।

दरअसल, हम हिंदुस्तानी बहुत भावुक किस्म के होते हैं। भावुकता में इंसान का विवेक और तर्क-क्षमता गौण हो जाती है। वह संतुलित ढंग से सोच ही नहीं पाता। यह कोरी भावुकता किसी भी इंसान को किसी समस्या की जड़ तक पहुंचने नहीं देती। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यह भावुकता सही मायने में समस्या को आइडेंटीफ़ाई करने में सबसे बड़ी बाधा होती है। जब तक इंसान भावुक होकर सोचेगा, किसी समस्या के सही हल का प्रतिपादन नहीं कर सकेगा। इसलिए आज भावुक होने की नहीं, बल्कि पहले इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है कि रेप जैसे अपराध को रोका कैसे जाए। रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में आती है। अगर ऐसा प्रावधान हो जाए कि रेप जैसा अपराध ही नियंत्रण हो जाए तो दंड पर ज़्यादा दिमाग़ खपाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। अगर इस बिंदु पर ग़ौर करेंगे तो सवाल उठेगा कि आख़िर बलात्कार जैसा जघन्य अपराध होता ही क्यों हैं। क्यों पुरुष औरत को एकांत में देखकर अपने विवेक, जो उसे इंसान बनाता है, भूल जाता है और हैवान बन जाता है? एक स्त्री जो हर इंसान के लिए आदणीय होती है, माता-बहन के समान होती है क्यों अविवेकी इंसान के लिए भोग की वस्तु बन जाती है? यानी किसी जगह स्त्री की कम संख्या से पुरुष उसे कमज़ोर मान लेते हैं और उसके साफ मनमानी करते हैं। इस विषय पर गंभीरता और संयम से विचार करने के बाद लगता है कि रेप ही नहीं, महिलाओं पर होने वाले छोटे-बड़े हर ज़ुल्म के लिए हमारे समाज का ताना-बाना ही मुख्यतौर पर ज़िम्मेदार है। हमारा समाज बुरी तरह मैल-डॉमिनेटेड है। ऐसे समाज में स्त्री पुरुष की बराबरी कर ही नहीं सकती क्योंकि यह ढ़ांचा स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक यानी सेकेंड सेक्स का दर्जा देता है। सभ्यता के विकास के बाद जब से मौजूदा समाज प्रचलन में आया है तब से स्त्री दोयम दर्जे की ही नागिरक रही है। शहरों में लड़कियों को जींस-टीशर्ट में देखकर हम कुछ समय के लिए भले ख़ुश हो लें कि समाज में महिलाएं पुरुषों की बराबरी कर रही हैं लेकिन सच तो यह है कि स्त्री कभी पुरुष की बराबरी कर ही नहीं पाई। यह एक स्त्री से बेहतर और कौन जान सकता है। दरअसल, पुरुष-प्रधान समाज की मानसिकता ही स्त्री को बराबरी का दर्जा देने भी नहीं देती।

आज ज़रूरत इस बात की है कि समाज में वे प्रावधान किए जाएं जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक पहुंचाएं। इसके लिए शुरुआत घर से करनी होगी। जो लोग दिल्ली गैंगरेप पर आंसू बहा रहे हैं, क्या वे अपने घर में स्त्री को बराबरी का दर्जा दिए या देते हैं। क्या वे घर में बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं करते? टीवी न्यूज़ चैनलों पर सभी ने जया बच्चन को राज्यसभा में भावुक होते और आंसू बहाते देखा। क्या जया स्त्री के प्रति बायस नहीं हैं? क्या उनके घर में बेटी श्वेता को ग्रो करने का बेटे अभिषेक जैसा माहौल मिला? अमिताभ-जया की विरासत को क्यों अकेले अभिषेक ही संभाल रहे हैं? क्या बॉलीवुड के सबसे बड़ी फ़ैमिली में श्वेता को अप्रत्यक्ष तौर पर यह नहीं बताया गया कि वह लड़की है लिहाजा पिता या माता की विरासत नहीं संभाल सकती? इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लें, गांधी परिवार में राहुल से ज़्यादा टैलेंटेड होने के बावजूद प्रिंयका क्यों हाउस-वाइफ़ बना दी गई हैं? क्या राजनीति की सबसे प्रतिष्ठित फ़ैमिली में प्रियंका नारी होने की कीमत नहीं चुका रही हैं?राजनीति में एकाध अपवाद को छोड़ दे तो हर जगह पिता की विरासत केवल बेटा ही क्यों संभाल रहा है। नवीन पटनायक, उमर अब्दुल्ला और अखिलेश यादव जैसे पुत्रों का पिता की विरासत संभालना, यह नहीं दर्शाता कि बड़े राजनीतिक घराने में ही बेटियों के साथ पक्षपात हो रहा है। इंदिरा गांधी जवाहरलाल नेहरू की उत्तराधिकारी इसलिए बन सकीं क्योंकि नेहरू को पुत्र नहीं था। इसी तरह उन्हीं एडवांस फ़ैमिलीज़ में बेटियां उत्तराधिकारी बन रही हैं जहां पुत्र हैं ही नहीं। जब विकसित परिवारों यानी रूलिंग फ़ैमिलीज़ में स्त्री के साथ खुला पक्षपात और दोयम दर्जे हो रहा है तो इस तरह के माहौल में दूर-दराज़ और पिछड़े इलाकों में स्त्री की क्या हैसियत होती होगी, कोई भी सहज कल्पना कर सकता है। हमारी संसद और सांसद महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण देने वाला बिल तो पास नहीं कर पाए। फिर ये लोग गैंगरेप पर आंसू क्यों बहा रहे हैं? ज़ाहिर है, सोनिया गांधी, जया बच्चन, सुषमा स्वराज जैसे राजनेता का स्त्रीप्रेम हक़ीक़त से परे लगता है। महिला आरक्षण पर इन नेताओं का मौन इन्हें पुरुष-प्रधान समाज की पैरोकार ही नहीं बनाता बल्कि यह भी दर्शाता है कि इन महिला नेताओं की भी पुरुषों की तरह महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने में कोई दिलचस्पी नहीं। सब अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं। अगर सचमुच ये लोग महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के हिमायती हैं तो संसद और राज्य विधान सभाओं समेत देश की हर जनपंचायतों में 33 फ़ीसदी नहीं बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित कर दें। देश में महिलाओं-आबादी फ़िफ़्टी परसेंट है तो आरक्षण 33 फ़ीसदी क्यों? एक बात और, महिला आरक्षण का लाभ केवल एडवांस परिवारों यानी राजनीतिक परिवार की लड़कियां या महिलाएं ही हाईजैक न करें, बल्कि इसका लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब, आदिवासी, दलित, पिछड़े और मुस्लिम परिवार की महिलाओं को मिले यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। चूंकि देश में आधी जनसंख्या महिलाओं की है, लिहाज़ा उनके लिए हर जगह 50 फ़ीसदी जगह आरक्षित की जानी चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, पुलिस, आर्मफोर्स, न्यायपालिका, मीडिया हाउसेज़ और धार्मिक संस्थानों में आधी आबादी महिलाओं की हो। सरकारी और निजी संस्थानों की नौकरियों में 50 प्रतिशत जगह महिलाओं को दी जानी चाहिए। बैंक हो, यूनिवर्सिटी हो या अन्य संस्थान हर जगह आधी जगह महिलाएं हों। महिला घर में क्यों बैठें? वह काम पर क्यों न जाएं? अगर 50 फ़ीसदी महिलाएं काम पर जाएंगी तो घर के बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होंगी। इससे उनका मोरॉल बुस्टअप होगा। जब सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन और दफ़्तरों में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि वह महिला की ओर बुरी निग़ाह से देखे तक। क्योंकि महिलाओं की कम संख्या लंपट पुरुषों को प्रोत्साहित करती है। इस मुद्दे पर जो भी ईमानदारी से सोचेगा वह इसका समर्थन करेगा और कहेगा कि महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाना है तो उन्हें इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है। जब संसद में 770 सदस्यों में से 385 महिलाएं होंगी, केंद्र और राज्यों के मंत्रिमंडल में महिला-पुरुष बराबर होंगे, ब्यूरोक्रेसी में 50 प्रतिशत स्त्री होगी, अदालतों में 50 फ़ीसदी जज महिलाएं होंगी, पुलिस थानों में पुलिस वालों की आधी संख्या लड़कियों की होगी तो अपने आप महिला पुरुष की बराबरी कर लेंगी। वह बिना किसी क़ानून के सही-सलामत औ महफ़ूज़ रहेगी।

लेकिन क्या ऐसा होगा? क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष पुरुष-प्रधान समाज अपनी सत्ता महिलाओं को सौंपेगा?सबसे बडा सवाल यह है। इसमें हमारी परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की ज़रूरत है। अगर हम सही मायने में महिलाओं के पुरुष के बराबर खड़ा करने की परिकल्पना करते हैं तो हमें तुलसीदास जैसे कवियों को ख़ारिज़ करना पड़ेगा जो ढोल, गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी जैसी चौपाई रचता है। हमें उस काव्य और उसके रचयिता को अस्वीकार करना पड़ेगा, जहां पत्नी की अग्निपरीक्षा लेने वाले और उसे गर्भकाल घर से निकालकर जंगल में भेजने पति कोमर्यादा पुरुषोत्तम से अलंकृत किया जाता है। हमें उस महाकाव्य और उसके लेखक का बहिष्कार करना होगा जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले जुआड़ी पति को धर्मराज मानता है। हमें उन सभी ग्रंथों किताबों की होली जलानी होगी जो पति को परमेश्वर और पत्नी को चरणों की दासी मानता है। इतना ही नहीं हमें उन त्यौहारों की तिलांजलि देनी होगी जिसमें स्त्री को पति की सलामती के लिए व्रत रहने का प्रावधान करता है। इसके अलावा स्त्री को घूंघट या बुरके पहनने को बाध्य करने वाली नारकीय परिपाटी भी छोड़नी होगी। लेकिन सवाल फिर खड़ा होता है क्या यह समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर हां तो उस बदलाव की शुरुआत तुरंत हो जानी चाहिए, अगर नहीं तो महिलाओं से रेप या अन्य अपराध पर घड़ियाली आंसू बहाने की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि वस्तुतः यह समाज पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है और ऐसे समाज में रेप नहीं रोका जा सकता। चाहे रेपिस्ट को पब्लिकली ज़िंदा जलाने का क़ानून बना दिया जाए। यानी पुरुष प्रधान समाज है, रेप तो होगा ही क्योंकि अपनी जटिलताओं के चलते यह समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक बना देता है।
(समाप्त)

लड़की की पहचान छिपाना क्या पुरुषवादी सोच व पिछड़ेपन की निशानी नहीं?


लड़की की पहचान छिपाना क्या पुरुषवादी सोच व पिछड़ेपन की निशानी नहीं?
Hari Govind Vishwakarma
हरिगोविंद विश्वकर्मा
बीजेपी लीडर सुषमा स्वराज ने जब लोकसभा में बयान दिया कि बलात्कार की शिकार लड़की अगर भविष्य में ठीक हो जाती भी है तो वह एक ‘जिंदा लाश’ की तरह रहेगी। लोकसभा में विपक्ष की नेता का बयान ढेर सारे लोगों को बड़ा नागवार लगा। कई राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर इस मसले पर ज़ोरदार बहस हुई, जहां सुषमा को जमकर कोसा गया। दरअसल, उनके बयान का अर्थ निकाला गया कि रेप का शिकार होने का बाद महिला की दशा समाज में ‘अछूत’ की तरह हो जाती है। कोई उससे रिश्ता नहीं जोड़ना चाहता। आलोचकों का तर्क था कि समाज 21वीं सदी में पहुंच गया है, उसकी सोच बदल गई है। ख़ासकर रेप-विक्टिम को लेकर लोगों का नज़रिया उदार हो गया है। आधुनिक समाज में अब रेप-विक्टिम के लिए आइडेंटटिटी क्राइसेस नहीं हैं। इसलिए सुषमा के बयान से असहमति जताई गई, उसकी आलोचना की गई। पूरा देश, ख़ासकर उस नारी जमात ने इस आलोचना से बड़ी राहत की सांस ली थी जो रेप जैसे दुःस्वप्न का शिकार है या जो दिन रात रेप या छेड़छाड़ के ख़तरे के साये से घिरी रहती है।
मगर दस दिन बाद सुषमा स्वराज तो कोसने वालों की कलई खुल गई। राजनीतिक समाज, सरकार और मीडिया के पुरुषवादियों ने भी तो वहीं किया जिसकी आशंका सुषमा स्वराज ने जताई थी। ‘प्राइवेसी ऑफ़ द फ़ैमिली’ के नाम पर शहीद ब्रेवहार्ट ‘राष्ट्र की बेटी’ की पहचान ही छिपा ली गई। कहा गया कि पीड़ित लड़की के परिवार की प्राइवेसी पर कोई आंच न आए इसलिए उसके पार्थिव शरीर को सिंगापुर से स्वदेश लाने तक जिस तरह की गोपनीयता बरती गई। वह एक बड़े समाज ख़ासकर महिलाओं को हजम नहीं हुई।
अगर सही पूछा जाए तो इस तरह की गोपनीयता की कोई ज़रूरत थी ही नहीं। लिहाज़ा इस क़दम को इंडियन मीडिया की बीमार, पिछड़ेपन और ‘पुरुषवादी’ सोच का परिणाम कहा जाना चाहिए। जो आज 21वीं सदी भी आदम के ज़माने में जी रहे हैं, जहां बलात्कार का शिकार होने के बाद लड़की अछूत मान ली जाती है, वह ज़िंदा लाश मान ली जाती है। उसका जीवन नरकमय मान लिया जाता है। सो इनसे बचने के लिए उसकी ही नहीं, उसके परिवार और निवास स्थान को छिपा दिया जाता है। यह खालिस पुरुषवादी मानसिकता का परिणाम है। इसी मानसिकता का जिक्र गाहे-बगाहे सुषमा स्वराज ने किया था जिस पर ऐतराज़ किया गया और फिर ख़ुद उसी परपंरा का पालन किया गया।
इस बात से गहरी निराशा हुई कि पुरुष-प्रधान मीडिया ने चालाकी से एक कुर्बानी, एक शहादत, एक सेक्रिफ़ाइस पर पानी ही नहीं फेरा बल्कि बहादुर लड़की को गुमनामी में ढकेल दिया। कैसी बिडंबना है कि जो बहादुर लड़की छह-छह बलात्कारियों से लड़ी। और अपने साहस के चलते आज देश भर की लड़कियों ही नहीं, समस्त युवाओं की रोल मॉडल होनी चाहिए थी, उसे कोई कभी जान नहीं सकेगा कि आख़िर वह कौन थी। किस बहादुर माता-पिता की संतान थी और कहां की रहने वाली थी। मगर आनन-फ़ानन में गोपनीय रखने के फ़ैसले ने उसकी शहादत को ब्यर्थ जाने दिया। जहां हर जगह महिलाओं के प्रति लोगों, खासकर पुरुषों के माइंडसेट में बदलाव के लिए कोशिशें हो रही हैं वहीं इस तरह की घटनाएं लोगों को हतोत्साहित करने वाली हैं।
कितनी दुखद बात है कि लड़की की दिलेरी का गुणगान करने की बजाए पूरा देश अचानक खुद शर्मिंदा हो गया। उसका गुपचुप अंतिम संस्कार कर दिया गया। आख़िर क्यों? इसमें उस मासूम की क्या गलती थी। अगर वह दरिंदों की हवस का शिकार हुई तो इसमें उस मासूम का क्या दोष? उसकी पहचान छिपाने की आख़िर ज़रूरत क्यों महसूस की गई। ये पहचान छुपाकर क्या यह संदेश देने की कोशिश हो रही है? यही कि लड़कियों ध्यान रखना अगर इस तरह की कोई अनहोनी अगर तुम्हारे साथ हुई तो तुम्हें भी ये देश अछूत समझेगा! तुम्हें मरने के बाद सबकी नजरों से बचाकर चुपचाप दफ़न कर दिया जाएगा या तुम्हारी चिता जला दी जाएगी!
नारी को बराबरी का दर्जा देने वाले उम्मीद कर रहे थे कि कम से कम मरणोपरांत तो उस बहादुर लड़की की पहचान सार्वजनिक की जाएगी। उसके माता पिता को बहादुर लड़की का मां-बाप होने के लिए सम्मानित किया जाएगा। उसका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जाएगा। सात तोपों की सलामी दी जाएगी। पार्थिव शरीर के चहरे को खुला रखा जाएगा या उसकी एक फोटो रखी जाएगी। सब कुछ टीवी कैमरे के सामने लाइव होगा। और पूरी दुनिया जानेगी कि भारतीय समाज सचमुच बदल गया है, वहां लोग बलात्कार की शिकार बेटी के साथ किसी तरह का पक्षपात नहीं करते, उसे अछूत नहीं मानते, उसे उतना ही प्यार और सम्मान देते। जितना बेटों को। लेकिन, सारी उम्मीद धरी की धरी रह गई। चोरी से उसकी अंतिम संस्कार कर दिया गया।
दरअसल, माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में लड़की की मौत के बाद राजनीतिक जमात के चंद पुरुषवादी सोच के पैरोकरों के दिमाग़ में ख़ुराफ़ात आई कि लड़की का पार्थिव दिल्ली लाते समय अगर टीवी पर दिखाया गया तो उसके परिवार के प्राइवेसी डैमेज होगी। इस आशंका से सरकार को अवगत कराया गया, जहां पुरुषों का ही वर्चस्व है लिहाज़ा फ़ैसला किया गया कि पीड़ित के परिवार की ‘प्राइवेसी’ का सम्मान हो और अंतिम संस्कार को टीवी पर न दिखाया जाए। सरकार ने चैनल प्रमुखों को बताया गया कि इसे टीवी पर न दिखाया जाए। वहां भी पुरुष-प्रधान समाज के पैरोकार थे, सरकार ने तो उनके मन की बात कह दी थी। तुरंत स्वीकार कर लिया और सब कुछ गोपनीय रख लिया गया।
मज़ेदार बात यह है कि फोटो समेत लड़की के बारे में पूरा विवरण सोसल नेटवर्किंग साइट फेसबुक और इंटरनेट के जरिए आमतौर पर हर भारतीय ही नहीं विदेश में भी लोगों के पास पहुंच गया है। यानी गोपनीयता जैसी कोई बात रही ही नहीं। मतलब जिस मकसद से भारत की बहादुर बेटी का नाम छिपाया गया वह मकसद पूरा नहीं हो सका और उसकी पहचान पब्लिक हो गई। आज हर आदमी उसकी तस्वीर देख रहा है। इन पंक्तियों के लेखक के पास भी उसकी तस्वीर और पूरा विवरण है।
जहां तक रेप या अन्य सेक्सुएल असॉल्ट विक्टिम्स की खबर की बात है तो मीडिया अकसर रेप विक्टिम्स की बाइट दिखाती है। तब उसकी आवाज़ तो सभी सुनते हैं। गोपनीयता के नाम पर केवल उसकी नाक तक चेहरा ढंका जाता है। जिससे उसकी पहचान अप्रत्यक्षरूप से सार्वजनिक हो ही जाती है। कई बार पीड़ित का फुटेज़ इस तरह व्लर किया जाता है कि देखने वाला जान जाता है कि वह कौन है। इसी तरह प्रिंट मीडिया में भी नाम बदल देने की परिपाटी है। हालांकि इन सब कवायदो से उसकी पहचान छिपती नहीं। दरअसल, लैंगिक अपराध की शिकार लड़कियों की पहचान छिपाने की परंपरा भी सोसाइटी में मेल डॉमिनेश की प्रतीक है। तर्क ये दिया जाता कि आगे चलकर इसका असर लड़की के पारिवारिक जीवन पर न पड़े। कोई उससे शादी करने से इनकार न करे। इसलिए उसकी पहचान गोपनीय रखने की कोशिश की जाती है। हालांकि ये तर्क ही एकदम बेहूदा है।
दरअसल, यह बड़ा खूबसूरत अवसर था। बलात्कार पीड़ित स्त्रियों के बारे में समाज के नज़रिए में बदलाव की पहल करने का। लेकिन दुर्भाग्य से पुरुष-प्रधान समाज के रहनुमाओं ने स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक बनाए रखने के लिए वह पहल नहीं होने दी।(समाप्त)

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

पुरुष प्रधान समाज है, रेप तो होगा ही...!


पुरुष प्रधान समाज है, रेप तो होगा ही...!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की वारदात से हर आदमी सदमे में है। गली-मोहल्ला हो, सड़क हो, बस-ट्रेन हो या फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद, हर जगह यही आलम हैं। एक तरफ़ से लोग बहुत दुखी हैं। कहीं लोग आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं तो कहीं धरना प्रदर्शन। बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत देने की पुरज़ोर पैरवी की जा रही है। कहीं-कहीं तो रिएक्शन और आक्रोश एकदम एक्स्ट्रीम पर है, लोग इस तरह रिएक्ट कर रहे हैं कि अगर उनका बस चले तो तालिबानी सोच वालों की तरह रेपिस्ट्स को फ़ौरन फ़ांसी के फ़ंदे से लटका दें। यह भी संभब है कि देश में अचानक बने इस जनादेश के दबाव के चलते केंद्र सरकार रेपिस्ट के लिए मौत सुनिश्चित करने वाला बिल यथाशीघ्र संसद में पेश कर दे और वह पारित होकर क़ानून भी बन जाए। अगर ऐसा क़ानून बना तो यह क़दम समीचीन ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक भी होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल आज यह खड़ा हुआ है कि इस क़ानून से रेप जैसे वीभत्स और हैवानियत भरे अपराध पर पूरी तरह अंकुश लग पाएगा? यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता।

बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत का दंड देने से रेप की वारदातों पर विराम लगने की गारंटी आख़िर देगा कौन? क्या हत्या जैसे अपराध पर मौत की सज़ा का प्रावधान कर देने से हत्या की वारदात पर रोक लग गई? कोई तो बताए कि हत्यारों के लिए फ़ांसी की सज़ा मुकर्रर होने के बाद भी हत्याएं क्यो हो रही हैं? अभी महीने भर पहले कुख्यात हत्यारे कसाब को मृत्युदंड दिया गया। मगर हत्याएं लगातार हो रही हैं। इसका मतलब यही है कि जिस तरह फ़ांसी की सज़ा जैसे दंड के प्रावधान हत्याएं रोकने नाकाम हो रहे हैं, वैसे ही कैपिटल पनीश्मेंट रेप रोकने में कामयाब होगा, इस पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता। क्योंकि जब पुरुष पर शैतान या हैवानियत की सवारी होती है तो वह क्वांटम ऑफ़ पनीश्मेंट भूल जाता है। लिहाज़ा इस क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद भी स्त्री की इज़्जत से खेलने का दुस्साहस जारी रह सकता है।

दरअसल, हम हिंदुस्तानी बहुत भावुक किस्म के होते हैं। भावुकता में इंसान का विवेक और तर्क-क्षमता गौण हो जाती है। वह संतुलित ढंग से सोच ही नहीं पाता। यह कोरी भावुकता किसी भी इंसान को किसी समस्या की जड़ तक पहुंचने नहीं देती। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यह भावुकता सही मायने में समस्या को आइडेंटीफ़ाई करने में सबसे बड़ी बाधा होती है। जब तक इंसान भावुक होकर सोचेगा, किसी समस्या के सही हल का प्रतिपादन नहीं कर सकेगा। इसलिए आज भावुक होने की नहीं, बल्कि पहले इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है कि रेप जैसे अपराध को रोका कैसे जाए। रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में आती है। अगर ऐसा प्रावधान हो जाए कि रेप जैसा अपराध ही नियंत्रण हो जाए तो दंड पर ज़्यादा दिमाग़ खपाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। अगर इस बिंदु पर ग़ौर करेंगे तो सवाल उठेगा कि आख़िर बलात्कार जैसा जघन्य अपराध होता ही क्यों हैं। क्यों पुरुष औरत को एकांत में देखकर अपने विवेक, जो उसे इंसान बनाता है, भूल जाता है और हैवान बन जाता है? एक स्त्री जो हर इंसान के लिए आदणीय होती है, माता-बहन के समान होती है क्यों अविवेकी इंसान के लिए भोग की वस्तु बन जाती है? यानी किसी जगह स्त्री की कम संख्या से पुरुष उसे कमज़ोर मान लेते हैं और उसके साफ मनमानी करते हैं। इस विषय पर गंभीरता और संयम से विचार करने के बाद लगता है कि रेप ही नहीं, महिलाओं पर होने वाले छोटे-बड़े हर ज़ुल्म के लिए हमारे समाज का ताना-बाना ही मुख्यतौर पर ज़िम्मेदार है। हमारा समाज बुरी तरह मैल-डॉमिनेटेड है। ऐसे समाज में स्त्री पुरुष की बराबरी कर ही नहीं सकती क्योंकि यह ढ़ांचा स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक यानी सेकेंड सेक्स का दर्जा देता है। सभ्यता के विकास के बाद जब से मौजूदा समाज प्रचलन में आया है तब से स्त्री दोयम दर्जे की ही नागिरक रही है। शहरों में लड़कियों को जींस-टीशर्ट में देखकर हम कुछ समय के लिए भले ख़ुश हो लें कि समाज में महिलाएं पुरुषों की बराबरी कर रही हैं लेकिन सच तो यह है कि स्त्री कभी पुरुष की बराबरी कर ही नहीं पाई। यह एक स्त्री से बेहतर और कौन जान सकता है। दरअसल, पुरुष-प्रधान समाज की मानसिकता ही स्त्री को बराबरी का दर्जा देने भी नहीं देती।

आज ज़रूरत इस बात की है कि समाज में वे प्रावधान किए जाएं जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक पहुंचाएं। इसके लिए शुरुआत घर से करनी होगी। जो लोग दिल्ली गैंगरेप पर आंसू बहा रहे हैं, क्या वे अपने घर में स्त्री को बराबरी का दर्जा दिए या देते हैं। क्या वे घर में बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं करते? टीवी न्यूज़ चैनलों पर सभी ने जया बच्चन को राज्यसभा में भावुक होते और आंसू बहाते देखा। क्या जया स्त्री के प्रति बायस नहीं हैं? क्या उनके घर में बेटी श्वेता को ग्रो करने का बेटे अभिषेक जैसा माहौल मिला? अमिताभ-जया की विरासत को क्यों अकेले अभिषेक ही संभाल रहे हैं? क्या बॉलीवुड के सबसे बड़ी फ़ैमिली में श्वेता को अप्रत्यक्ष तौर पर यह नहीं बताया गया कि वह लड़की है लिहाजा पिता या माता की विरासत नहीं संभाल सकती? इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लें, गांधी परिवार में राहुल से ज़्यादा टैलेंटेड होने के बावजूद प्रिंयका क्यों हाउस-वाइफ़ बना दी गई हैं? क्या राजनीति की सबसे प्रतिष्ठित फ़ैमिली में प्रियंका नारी होने की कीमत नहीं चुका रही हैं?राजनीति में एकाध अपवाद को छोड़ दे तो हर जगह पिता की विरासत केवल बेटा ही क्यों संभाल रहा है। नवीन पटनायक, उमर अब्दुल्ला और अखिलेश यादव जैसे पुत्रों का पिता की विरासत संभालना, यह नहीं दर्शाता कि बड़े राजनीतिक घराने में ही बेटियों के साथ पक्षपात हो रहा है। इंदिरा गांधी जवाहरलाल नेहरू की उत्तराधिकारी इसलिए बन सकीं क्योंकि नेहरू को पुत्र नहीं था। इसी तरह उन्हीं एडवांस फ़ैमिलीज़ में बेटियां उत्तराधिकारी बन रही हैं जहां पुत्र हैं ही नहीं। जब विकसित परिवारों यानी रूलिंग फ़ैमिलीज़ में स्त्री के साथ खुला पक्षपात और दोयम दर्जे हो रहा है तो इस तरह के माहौल में दूर-दराज़ और पिछड़े इलाकों में स्त्री की क्या हैसियत होती होगी, कोई भी सहज कल्पना कर सकता है। हमारी संसद और सांसद महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण देने वाला बिल तो पास नहीं कर पाए। फिर ये लोग गैंगरेप पर आंसू क्यों बहा रहे हैं? ज़ाहिर है, सोनिया गांधी, जया बच्चन, सुषमा स्वराज जैसे राजनेता का स्त्रीप्रेम हक़ीक़त से परे लगता है। महिला आरक्षण पर इन नेताओं का मौन इन्हें पुरुष-प्रधान समाज की पैरोकार ही नहीं बनाता बल्कि यह भी दर्शाता है कि इन महिला नेताओं की भी पुरुषों की तरह महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने में कोई दिलचस्पी नहीं। सब अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं। अगर सचमुच ये लोग महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के हिमायती हैं तो संसद और राज्य विधान सभाओं समेत देश की हर जनपंचायतों में 33 फ़ीसदी नहीं बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित कर दें। देश में महिलाओं-आबादी फ़िफ़्टी परसेंट है तो आरक्षण 33 फ़ीसदी क्यों? एक बात और, महिला आरक्षण का लाभ केवल एडवांस परिवारों यानी राजनीतिक परिवार की लड़कियां या महिलाएं ही हाईजैक न करें, बल्कि इसका लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब, आदिवासी, दलित, पिछड़े और मुस्लिम परिवार की महिलाओं को मिले यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। चूंकि देश में आधी जनसंख्या महिलाओं की है, लिहाज़ा उनके लिए हर जगह 50 फ़ीसदी जगह आरक्षित की जानी चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, पुलिस, आर्मफोर्स, न्यायपालिका, मीडिया हाउसेज़ और धार्मिक संस्थानों में आधी आबादी महिलाओं की हो। सरकारी और निजी संस्थानों की नौकरियों में 50 प्रतिशत जगह महिलाओं को दी जानी चाहिए। बैंक हो, यूनिवर्सिटी हो या अन्य संस्थान हर जगह आधी जगह महिलाएं हों। महिला घर में क्यों बैठें? वह काम पर क्यों न जाएं? अगर 50 फ़ीसदी महिलाएं काम पर जाएंगी तो घर के बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होंगी। इससे उनका मोरॉल बुस्टअप होगा। जब सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन और दफ़्तरों में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि वह महिला की ओर बुरी निग़ाह से देखे तक। क्योंकि महिलाओं की कम संख्या लंपट पुरुषों को प्रोत्साहित करती है। इस मुद्दे पर जो भी ईमानदारी से सोचेगा वह इसका समर्थन करेगा और कहेगा कि महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाना है तो उन्हें इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है। जब संसद में 770 सदस्यों में से 385 महिलाएं होंगी, केंद्र और राज्यों के मंत्रिमंडल में महिला-पुरुष बराबर होंगे, ब्यूरोक्रेसी में 50 प्रतिशत स्त्री होगी, अदालतों में 50 फ़ीसदी जज महिलाएं होंगी, पुलिस थानों में पुलिस वालों की आधी संख्या लड़कियों की होगी तो अपने आप महिला पुरुष की बराबरी कर लेंगी। वह बिना किसी क़ानून के सही-सलामत औ महफ़ूज़ रहेगी।

लेकिन क्या ऐसा होगा? क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष पुरुष-प्रधान समाज अपनी सत्ता महिलाओं को सौंपेगा?सबसे बडा सवाल यह है। इसमें हमारी परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की ज़रूरत है। अगर हम सही मायने में महिलाओं के पुरुष के बराबर खड़ा करने की परिकल्पना करते हैं तो हमें तुलसीदास जैसे कवियों को ख़ारिज़ करना पड़ेगा जो ढोल, गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी जैसी चौपाई रचता है। हमें उस काव्य और उसके रचयिता को अस्वीकार करना पड़ेगा, जहां पत्नी की अग्निपरीक्षा लेने वाले और उसे गर्भकाल घर से निकालकर जंगल में भेजने पति कोमर्यादा पुरुषोत्तम से अलंकृत किया जाता है। हमें उस महाकाव्य और उसके लेखक का बहिष्कार करना होगा जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले जुआड़ी पति को धर्मराज मानता है। हमें उन सभी ग्रंथों किताबों की होली जलानी होगी जो पति को परमेश्वर और पत्नी को चरणों की दासी मानता है। इतना ही नहीं हमें उन त्यौहारों की तिलांजलि देनी होगी जिसमें स्त्री को पति की सलामती के लिए व्रत रहने का प्रावधान करता है। इसके अलावा स्त्री को घूंघट या बुरके पहनने को बाध्य करने वाली नारकीय परिपाटी भी छोड़नी होगी। लेकिन सवाल फिर खड़ा होता है क्या यह समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर हां तो उस बदलाव की शुरुआत तुरंत हो जानी चाहिए, अगर नहीं तो महिलाओं से रेप या अन्य अपराध पर घड़ियाली आंसू बहाने की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि वस्तुतः यह समाज पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है और ऐसे समाज में रेप नहीं रोका जा सकता। चाहे रेपिस्ट को पब्लिकली ज़िंदा जलाने का क़ानून बना दिया जाए। यानी पुरुष प्रधान समाज है, रेप तो होगा ही क्योंकि अपनी जटिलताओं के चलते यह समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक बना देता है।
(समाप्त)

शनिवार, 1 सितंबर 2012

ग़ज़ल - ख़ुदाहाफ़िज़ कहती तो जाओ, जाने से पहले...


ख़ुदाहाफ़िज़ कहती तो जाओ, जाने से पहले... 
एक बार मुस्कराती तो जाओ, जाने से पहले... 
कहती थी अकसर रिश्ता निभाओगी हमेशा... 
वो फसाना सुनाती तो जाओ, जाने से पहले...
पीठ में खंजर मारा पर जान निकली नहीं...
मेरे सीने में उतारती जाओ, जाने से पहले...
ऐसे ही तड़पता रहूंगा गर न जान निकली...
मुझे मुक्त करती तो जाओ, जाने से पहले...
पहले ज़िंदा लाश था, अब लाश हो जाऊंगा...
मुझेफ़न करती तो जाओ, जाने से पहले...
अपना ख़याल रखोगीख़ुद करोगी हिफ़ा...
आखिरी वादा करती तो जाओ, जाने से पहले...
हरिगोविंद विश्वकर्मा

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

हाउसवाइफ़ स्त्री की नियति

हरिगोविंद विश्वकर्मा
मुंबई से सटे डोंबिवली में सुनील सालन नाम का शख़्स रहता है। पिता से काफी संपत्ति मिली है। अच्छा खाता कमाता है। उम्र चालीस के ऊपर है। 19 साल पहले प्रेम-विवाह किया था। 10 साल में तीन बच्चे हुए। फिर पहली पत्नी से बिना तलाक़ लिए दूसरा प्रेम-विवाह कर लिया। दूसरी से भी दो बच्चे। यानी दो बीवियां और पांच बच्चे। आजकल वह तीसरे प्रेम-विवाह की तैयारी कर रहा है। हैरान करने वाली बात है कि लोकल पुलिस ख़ामोश है। मानपाड़ा पुलिस कहती है, सालन की दोनों बीवियों या रिश्तेदारों को आपत्ति ही नहीं तब पुलिस क्या करे। हां, एक रिश्तेदार को आपत्ति ज़रूर है पर दूसरी बीवी का भाई है जिसे पत्नी का दर्जा ही नहीं हासिल सो आपत्ति बेमानी है। सालन ने जब दूसरी शादी की थी तब भी किसी को आपत्ति न थी। संभव है वह आगे चौथी, पांचवी या उससे अधिक शादियां करे क्योंकि किसी को कोई आपत्ति ही नहीं। यानी अगर आपत्ति नहीं तो करते रहो शादी पर शादी... है न विचित्र वाकया।
सालन तो मिसाल भर है। पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में बड़ी तादाद में पुरुषों के पास दो-तीन बीवियां हैं। नारी को बराबरी का दर्जा देने की पैरवी करने वाले कई लोगों ने भी एक से अधिक शादी की है। कुछ बिना तलाक के तो कुछ फ़र्ज़ी तलाक लेकर। यानी कंसेंट के नाम पर बीवी से स्टैंपपेपर पर दस्तख़त करवा लिया। हालांकि दुनिया की कोई अदालत ऐसे तलाक़ मंज़ूर नहीं करती। सच पूछो तो पति-पत्नी के वैधानिक अलगाव को ही सही तलाक़ को माना जाता है जो फ़ैमिली कोर्ट जारी करती है। पति-पत्नी, विधिवत अलग होने के लिए याचिका दाख़िल करते हैं। फिर नोटिस जारी होता है, बयान दर्ज होता हैं। अलग होने की ठोस वजह पूछी जाती है। इसके बाद भी रिश्ता ख़त्म करने से पूर्व सुलह का एक और मौक़ा दिया जाता है। और, सुलह की हर संभावना ख़त्म होने पर ही तलाक़नामा जारी होता है।
हालांकि, चालाक और संपन्न पुरुषों ने इसका भी तोड़ निकाल लिया है। वे वकीलों और कोर्ट-कर्मचारियों की मिली-भगत से वैध तलाक़नामा हासिल कर लेते हैं। वकीलों और कोर्ट-कर्मियों के ख़तरनाक गठजोड़ के चलते वे शादियां भी टूट रही हैं जो कम से कम क़ानून के डर से निभाई तो जा सकती थीं। दरअसल, अनपढ़, लाचार पत्नियों को फुसलाकर अदालत लाया जाता है जहां वकील उसका बयान और दस्तख़त लेकर आधिकारिक तलाक़नामा हासिल कर लेते हैं। सबसे बड़ी बात यह सामाजिक अपराध करने में वकीलों को तनिक भी झिझक या अपराधबोध नहीं होता। पुरुषों, वकीलों और कोर्ट-कर्मियों का ये नापाक गठजोड़ पति को परमेश्वर मानने वाली नारी को पराजित कर देता है। मुंबई या य शहरों में रहने वाले यूपी-बिहार या दूसरे राज्यों के पुरुष इसी तरह दो बीवियां रखते हैं। पहली गांव में दूसरी शहर में। इसमें, दरअसल, समस्या तब आती है जब कोई विवाद होता और मामला पुलिस स्टेशन या कोर्ट पहुंचता है।
वैसे मान्यता है कि शादी-संस्थान का प्रावधान इसलिए किया गया ताकि एक पुरुष एक स्त्री के साथ शांतिपूर्ण जीवन गुजारे और संतान पैदा करे जिससे कुदरत का जीवनचक्र चलता रहे। इसीलिए अगर इस्लाम को छोड़ दें तो हर मजहब में एक ही शादी का प्रावधान है। वैसे कई मुस्लिम देशों में भी एक से ज़्यादा निकाह की रवायत ख़त्म कर दी गई है। भारत में भी एक से अधिक निकाह यानी पहली बीवी के होते दूसरी शादी की वैधता पर बहस चल रही है। बहस तब शुरू हुई जब 1986 में राजस्थान पुलिस ने लियाक़त अली को पहली बीवी के रहते निकाह करने पर नौकरी से निकाल दिया जिसे राजस्थान हाईकोर्ट ने भी सही ठहराया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी 2010 में उस फैसले पर मुहर लगा दी। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा कि कोई कर्मचारी बीवी के होते दूसरा निकाह करेगा तो नौकरी से हाथ धो बैठेगा। यानी धर्म का बहाना लेकर भी कोई दूसरी शादी करेगा तो कोर्ट दख़ल देगी चाहे पुरुष मुस्लिम ही क्यों न हो। टर्की और ट्यूनीशिया में पत्नी के होते निकाह ग़ैरक़ानूनी है। मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, इराक, यमन, मोरक्को और यहां तक कि पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी वैवाहिक मसलों पर फैसला अदालतें सुनाती हैं। लेकिन भारत में तमाम आलोचना के बाद ये आज भी जारी है। इस्लाम के इसी प्रावधान का फायदा उठाकर कई औरतें दूसरी स्त्रियों से पति छीनती रही हैं।
अगर बिगमी क़ानून के ट्रायल पर गौर करें तो उसकी रफ़्तार कछुआ चाल से भी धीमी है। मुकदमे के निपटारे में कई दशक लग जाते हैं। दिल्ली के 41 वर्षीय जगदीश प्रसाद ने पहली पत्नी से तलाक विए बिना 1970 में दूसरी शादी कर ली। पत्नी ने अदालत गई पर तीस हज़ारी कोर्ट में मुक़दमे के निपटारे में 37 साल लग गए। अगस्त 2008 में फ़ैसला आने के समय जगदीश 78 साल का हो चुका था। हालांकि अदालत ने उसे बिगमी को दोषी क़रार दिया गया और सज़ा और ज़ुर्माना हुआ लेकिन इतनी लंबी अदालती लड़ाई तोड़कर रख देती है। इसीलिए स्त्री क़ानून के झमेले में न पड़कर पति की इच्छा को स्वीकार कर लेती है।
पुरुष-महिला के बीच समानता की बढ़-चढ़कर बात हो रही है। मगर सालन जैसे लोगों का बार-बार शादी करके इस दावे को झुठलाता है। स्त्री को मनोरंजन की वस्तु समझने वालों पर अंकुश लगाने के लिए कठोर क़ानून समय की मांग है। दरअसल, सालन की दोनों बीवियां उसकी तीसरी शादी का विरोध इसलिए भी नहीं कर पा रही हैं क्योंकि वे जीवन-यापन के लिए पति पर बुरी तरह निर्भर हैं। उनके पास किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है। विरोध मुसीबत को न्यौता देने के समान है। रहने-खाने को मिला है, वही बहुत। विरोध करने पर उससे भी हाथ धोना पड़ सकता है। इसीलिए न चाहते हुए भी पति की ज्यादती क़बूल कर रही हैं। अन्यथा जैसे कोई पुरुष अपनी बीवी के जीवन में किसी दूसरे पुरुष की कल्पना तक नहीं कर पाता। उसी तरह महिला भी पति के जीवन में दूसरी स्त्री कैसे सहन करेंगी। लेकिन सामाजिक असुरक्षा के चलते वे भारी मन से पति की इच्छा को स्वीकार करती हैं। मतलब औरत अगर कमा नहीं रही है, खालिस हाऊसवाइफ़ है तो 21वीं सदी में भी अबला ही है। समय की मांग है कि स्त्री को सही मायने में इम्पॉवर किया जाए। उत्तराधिकार क़ानून पर सख़्ती से अमल हो। इसमें बेटी को पिता की संपत्ति में हिस्सेदार तो बनाया गया है लेकिन इस क़ानून पर अमल परंपरा के ख़िलाफ़ माना जाता हैं। आउटडेटेड परंपराएं बेटी को पराया धन कहती हैं और पिता की संपत्ति में उसका हिस्सा नहीं मानती। तभी तो आज भी बेटियां शादी के बाद मायके से चली जाती हैं और पैतृक-संपत्ति पर उनका दावा ख़त्म हो जाता है। बेटा या बेटे पिता की दौलत पर ऐश करते हैं। सालन की तरह।


लेखक टीवी 9 मुंबई से संबद्ध हैं।

शनिवार, 30 अप्रैल 2011

अजब-गजब : जब मध्य रेलवे ने एलटीटी-गुवाहाटी एक्सप्रेस को बिना चार्ट के रवाना कर दिया।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

जी हां, आपको यकीन नहीं होगा मगर बात सही है। मध्य रेलवे ने शनिवार (30 अप्रैल 2011) की सुबह ये कारनामा किया। दरअसल, कुर्ला के लोकमान्य तिलक टर्मिनस पहुंचने वाले यात्रियों को बताया गया कि सुबह 0805 बजे रवाना होने वाली एलटीटी-गुवाहाटी एक्सप्रेस दो से ढाई घंटे लेट है। और दस बजे के बाद ही रवाना होगी। फिर घोषणा की गई कि ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर लगने वाली है। और ट्रेन 0808 बजे प्लेटफ़ॉर्म नंबर चार पर लग भी गई। कुछ लोग रिस्क लेकर चढ़ भी गए। लेकिन अधिकांश लोग चार्ट का इंतजार करने लगे। लेकिन 0835 तक चार्ट नहीं लगा। इसके बाद एक कर्मचारी चार्ट लेकर आया और एस-1 से चार्ट लगाना शुरू किया। वह एस-11 तक पहुंचा था कि ट्रेन रेंगने लगी। उसके बाद के कोचेज़ में चार्ट ही नहीं लगा। लोगों में अफरा-तफरी मच गई, दौड़कर ट्रेन में चढने लगे। किसी समझदार ने चेन पुलिंग करके ट्रोन रोक दी। लेकिन एक मिनट रुककर ट्रेन फिर रवाना हो गई। हालांकि क़रीब सभी यात्री ट्रेन में घुस गए। लेकिन उनमें ज्यादातर यात्री अपनी सीट पर नहीं पहुंच सके। सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं और बच्चों को हुई। बहरहाल, मध्य रेल के जनसंपर्क अधिकारी एके जैन को सूचना दी गई। उन्होंने एलटीटी के ऑन ड्यूटी स्टेशन मास्टर श्री गोयल से बात की तो उन्होंने स्वीकार किया कि गलती हो गई और खेद भी व्यक्त किया। उन्होंने कल्यण के रेल अधिकारियों से आग्रह किया कि वहां ट्रेन को थोड़ा देर रोक कर लोगों को अपने अपने सीट पर जाने में मदद करें। जिस ट्रेन में दो दो हज़ार से ज़्यादा यात्री यात्रा कर रहे हो उसके साथ इतनी लापरवाही के बदले क्या केवल सॉरी कहना काफी है... दरअसल, रेल में भ्रष्टाचार इस कदर घर कर गया है कि हर आदमी पैसे बनाने की ही जुगत में रहता है। जो भी पब्लिक को डिल करता है वह चाहता है किसी न किसी तरह पैसे बनाए। न तो किसी का ध्यान रेल गाड़ियों के आवागमन या उनमें बुनियादी सुविधाओं पर न ही यात्रियों की खोज-खबर परेशानी पर। इन दिनों गर्मियों की छुट्टी आ गई है हर कोई गांव जाना चाहता है लेकिन इन दिनों गांव जाना एक दिवास्वप्न जैसा हो गया है।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

बुरका महिला के लिए पुरुष की खोजी मोबाइल जेल

बुरक़ा पुरुष की महिला के लिए खोजी मोबाइल जेल
डॉ. शाज़िया नवाज़
हिंदी अनुवाद
हरिगोविंद विश्वकर्मा

हम सभी जानते हैं कि बुरक़े का धर्म या मज़हब से कोई लेना देना नहीं। धर्म केवल ये कहता है कि औरते ऐसे कपड़े पहने ताकि उच्चश्रृंखल न दिखें। फिर बुरक़ा या घूंघट आया कहा से? दुनिया भर में महिलाएं अपने चेहरे को ढंकती क्यों हैं? बुरक़ा पुरुष द्वारा खोजी गई वह चलती-फिरती जेल है जिसके अंदर वह उस स्त्री को रखता है जिससे वह प्रेम करता है। अगर इसमें मोहब्बत होती तो मैं इसे शायद मंज़ूर कर लेती। उस सूरतेहाल में यह जेल स्त्री को किसी दूसरे मायने में ज्यादा स्वीकार्य होती। तब किस स्वभाव का पुरुष उस इंसान को जेल में रखेगा जिसे वह मोहब्बत करता है। ऐसे में बुरक़ा उस तरह की जेल अधिक है जिसमें पुरुष ‘अपनी स्त्री’ को रखता है। औरत के ब्रेनवाश की प्रक्रिया बचपन में ही शुरू हो जाता है। बहुत कम उम्र में ही उसे बताया जाता है कि तुम्हें ख़ुद को पुरुषों से छिपाना है। तुम्हारा चेहरा छुपाकर रखना ‘धर्म’ है। औरत को पुरुषों से भयभीत रहना भी सिखाया जाता है। बहुत कम उम्र से औरत को बताया जाता है कि पुरुष ख़तरनाक़ होते हैं उन पर ऐतबार नहीं किया जा सकता। स्त्री से कहा जाता है, तुम केवल अपने पिता और भाई पर ऐतबार कर सकती हो। क्योंकि पुरुष आपको सहजता से फुसला सकता है। पाकिस्तान में तो औरतों को बताया जाता है ‘पुरुष भेड़िया यानी कामुक और क्रूर होता है जबकि औरत भेड़ या सीधी-सादी होती है।‘ इस नसीहत के चलते ही ज्यादतर पुरुष भेड़िये की तरह व्यवहार करने लगते हैं जबकि औरत भेड़ बन जाती है।

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हमारे पुरुष कहते हैं कि औरत को परदा करना चाहिए जबकि हम औरतों के पास पुरुष के लिए किसी तरह का विचार या नज़रिया नहीं होता। ये विचार औरत को नुकसान पहुंचाने और उनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करने का होता है। इसलिए वे (पुरुष) हमें (औरत) जेल में रखना चाहते हैं ताकि हमें लेकर उनका दिमाग़ साफ़ रहे। यह तो तोड़ा-मरोड़ा हुआ तर्क है। लेकिन क्या यक़ीनन उनका ये विचार यहां रुक जाता है? हक़ीक़त की दुनिया में उन्हें इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि आप बुरक़े में हैं, वे आपको तंग करेंगे ही। मेरा अनुभव बताता है कि चेहरे पर परदा सड़कों-गलियों में होने वाली छेड़छाड़ या छींटाकशी से मेरी कभी हिफ़ाज़त नहीं कर पाता। पाकिस्तान से छोटे शहरों में घर से निकलने पर हमेशा या मेरे फिता या मेरे भाई साथ होते हैं। अन्यथा गलियों से अकेले गुज़रते समय हमारे जिस्म पर चाहे जितने कपड़े हों, पुरुष चिल्लाएंगे, छींटाकशी करेंगे, पीछा करेंगे और हमारे जिस्म को छूने की कोशिश करेंगे।

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इसी के चलते औरत अपने घर से अकेली नहीं निकल सकती। और उसके साथ हमेशा घर का कोई पुरुष रहता है। पाकिस्तान और दूसरे मुस्लिम मुल्कों में पुरष अपने घर की औरतों की दूसरों से हिफ़ाज़त करते हैं। हां, लाहौर जैसे पाकिस्तान के बड़े शहरों में माहौल अलग होता है, आप यकीन करें या न करें. यहां औरतों को यौन-शोषण जैसी समस्या से औरत अपेक्षाकृत कम दो चार होती है। यहां हमारे आसपास के पुरुष सिर न ढंकने और परदा न करने वाली औरतों के सानिध्य आदी होते हैं। पुरुष अधिक शिक्षित होते हैं, इतना ही नहीं ख़ुद उनकी बहन और मां ज़्यादा आज़ाद होती हैं। आइए, अब बात करते हैं अमेरिका की, जी हां, यहां तो गलियों में पुरुष का व्यवहार अनुभव करना विस्मयकारी अनुभव रहा है। मैं जो चाहूं पहन कर आसपास जा सकती हूं। किसी की क्या मजाल की बुरी नज़र भी डाले। इससे मेरी समझ में आया कि बुरक़ा ख़तरनाक़ पुरुषों को हमसे दूर नहीं रखती, बल्कि यह समाज का धारण है। ख़ासकर क़ानून पर अमल का नतीजा जो किसी देश में स्त्री को महफ़ूज़ रखती है। हवाई के खूबसूरत बीच पर मस्ती भरी ठंड हवाओं के सुखद स्पर्श का मेरा पहला अनुभव हैरतअंगेज रहा। वरना पुरुष ने बुरक़ा कहे जाने वाले शामियाने में रखकर स्त्री से खुशनुमा मौसम को इंजॉय करने का उसका बुनियादी हक़ ही लूट लिया है। बुरक़े के भीतर अंधेरा होता है, गर्मी होती है, स्त्री को पुरुष ने वहां केवल इसलिए ढकेल दिया है कि स्त्री के बारे में उसके पास कोई विचार नहीं है तो वो बुरके के अंदर घुटती रहे रहे। डॉक्टर्स विचार को खुदा की बनाई स्वस्थ परंपरा मानते हैं। किसी सभ्य मुल्क में अगर सामने वाले की रज़ामंदी के बग़ैर आपने अपने विचार उस पर थोपने की कोशिश की तो आप 10-20 साल के लिए जेल भेज दिए जाएंगे।

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दबाए हुए समाज के पुरुष के लिए ये समझना बड़ा मुश्किल है कि खुले समाज के पुरुष वास्तव में अपने विचार पर अंकुश लगाना सीख गए हैं और उसके लिए वे औरतों पर दोषारोपण नहीं करते। जब फ्रांस में बुरक़े पर रोक की बात आती हैं, जहां यह तर्क दिया जाता है कि औरत जो चाहे उसे पहनने की आज़ादी होनी चाहिए और ये आज़ादी काम नहीं करती... हर समाज में ड्रेसकोड और आज़ादी की एक सीमा है। आपकी आज़ादी वहीं ख़त्म हो जाती है जहां से हमारा रास्ता शुरू होता है। नंगेपन के पैरोकार अकसर मांग करते हैं कि सड़क पर बिना कपड़े के घूमना उनका अधिकार और आज़ादी है जो पूरी होनी चाहिए। ज़ाहिर है उन्हें उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी जा सकती ताकि दूसरे समाज में अव्यवस्था न फैले। इसी तरह एक इंसान की उपर से नीचे तक परदे में रहना भी सुरक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है। आपको पता ही नहीं परदे में कौन है। ये अब ख़तरनाक दुनिया हो गई है। आप अपने बच्चे को पार्क में खेलने की इजाज़त नही दे सकता जहां सिर से पांव तक बुरके में ढंके लोग बैठे हैं। क्या मुसलमानों को फ्रांस से बुरक़े पर रोक लगाने की मांग करने का अधिकार है ऐसे में जब पश्चिम की औरते कम कपड़े में मुस्लिम देशों नहीं घूम सकती। आप उम्मीद कर रहे हैं कि वे आपकी संस्कृति का सम्मान करें और जब वे आपके देश में आए तब भी और जब आप उनके यहां जाए तब भी।

(नोट.. सुश्री शाज़िया नवाज़ पाकिस्तान की प्रमुख लेखिका और बुद्धिजीवी हैं, फ़्रांस में बुरक़े पर रोक लगाने के फ़ैसले पर पाकिस्तान में बहस चल रही है, उस बहस में शिरकत करते हुए बुरक़े पर उनका यह अंग्रेज़ी आर्टिकल पाकिस्तान की प्रमुख बेवसाइट “लेट अस बिल्ड पाकिस्तान” में प्रकाशित हुआ है। उसी लेख का यह हिंदी अनुवाद है।)

रविवार, 10 अप्रैल 2011

A Letter to Pakistani Friends By Hari Govind Vishwakarma

I fully agree with you, I would like to suggest you, please once go to Jammu & Kashmir and live for at least one year. Believe me; your thinking, perception and mind-set about valley will totally be changed. If we talk about the freedom, it means we should be ruled by our own people. Am I right? So, I will tell you the reality of this so-called freedom.


India and Pakistan got freedom in 1947 and since then two counties have been ruled by their own people, India by politicians and Pakistani by politicians and army rulers (Generals are also our own people). But, if you will compare our rule with British, you will say British rulers were much much better. We will talk about India as this country enjoyed fully democratic system of governance.

It means, if you are ruling by your own people then there should not any discrimination, partiality, injustice with any citizen or violation of human rights of people but I am sorry to say this is not happening in India (I can’t say about your country but firmed that same thing happening in other part of this sub-continent). Why this is happening? Any moment you thought?

I am telling you; actually the entire population in India and Pakistan have divided into ruling class and ruled class. The population of ruling class is less than 10 percent but they possessed more than 90 assets and resources of the nation while the population of ruled class is more than 90 percent but they have only less than 10 percent assets and resources of the country. So the ruled class fights one another for snatching their share in remaining 10 percent assets and resources.

The ruling class is enjoying everything, including VIPs-status while ruled class is facing so hardship even for bread and butter. In Mumbai, Mukesh Ambani, (ruling class person) has constructed 35 story-apartment (which monthly electric bill is Rs 35 laks) as his residence while lakhs of people (ruled class) are living in slum without any facility. It means ruling class was never bother about the ruled class. So ruling class must boost on freedom, self-sules etc.

Now come to Jammu and Kashmir. This state is also ruling by their-own people since 1948 when Raja Hari Singh and Lord Mountbatten signed the letter after accession to India. The state was ruled by RC Kak, Mehr Chand Mahajan, Sheikh Abdullah, Bakshi Ghulam Mohammad, Khwaja Shamsuddin, Ghulam Mohammed Sadiq, Syed Mir Qasim, Farooq Abdullah, Ghulam Mohammad Shah, Mufti Mohammad Sayeed, Ghulam Nabi Azad and Omar Abdullah , all these people were Kashmiri.

Despite so huge amount of help from centre state is not self-dependent. This state is the second most corrupt state in the country. I visited everywhere but more than 30 percent areas are still deprived by road connectivity. There are only two hospitals one each at Jammu and Srinagar. So most of injured or patients lose their lives during on the way. Student from Punchh, Rajouri, Doda, Ramban, Kishtwar, Baramula, Kupwada and Bodinpura come to Jammu or Srinagar for higher education.

Means all facilities, entertainment, health service, education, sports and administration are centralized to Jammu and Srinagar. Ruled class is deprived and ruling class is enjoying the life. In remote areas youth don’t have job or employment, people don’t have source of income. They need food, cloth, house, education, employment first later power or freedom.

One more point, this is big conspiracy of ruling class that ruled class people, army soldiers and militants (according to you freedom fighter), are killing each other while people from ruling class, politicians, are busy in dialogues in air-conditioned rooms in New Delhi.

Just tell me who is enjoying more freedom, people in India or in Pakistan? I think the democratic government is more liberal so Indian are enjoying more freedom than Pakistan as your country has been ruling by Generals most of time. The geography and topography of Jammu and Kashmir do not allow the freedom. It will be with India or Pakistan otherwise it will be captured by China as China captured Tibet in 1949.

I think our object must be better governance and equal opportunities for everyone. This is much better than freedom. I think you will be agreed with me.