Powered By Blogger

शनिवार, 30 नवंबर 2019

आखिर शरद पवार ने क्यों दिया शिवसेना को ही समर्थन?


आखिर शरद पवार ने क्यों दिया शिवसेना को ही समर्थन?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अब जबकि महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी-कांग्रेस की महा विकास अघाड़ी सरकार ने राज्य विधान सभा में बहुमत हासिल कर लिया है। इस बात पर चर्चा करना समीचीन होगा कि महाराष्ट्र की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने अपने दो धुर विरोधी दलों भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना में से शिवसेना को ही समर्थन देने और तीन दलों की महा विकास अघाड़ी बनाकर राज्य सरकार में शामिल होने का फ़ैसला क्यों किया?

जब से शरद पवार ने यह निर्णय लिया है, तब से राजनीतिक टीकाकार इस बात पर माथापच्ची कर रहे हैं कि आख़िर मराठा क्षत्रप ने शिवसेना को ही समर्थन क्यों दिया? जब किसी दक्षिणपंथी दल के साथ जाना ही था तो पवार भाजपा के साथ क्यों नहीं गए, जबकि 2014 के विधान सबा चुनाव में किसी दल को बहुमत न मिलने पर उन्होंने भाजपा को समर्थन देने के साफ संकेत दे दिए थे। तो इस बार पवार ने भाजपा की बजाय शिवसेना को क्यों चुना? इस मुद्दे पर राजनीतिक टीकाकार आगे भी लंबे समय तक सिर खपाते रहेंगे।

दरअसल, महाराष्ट्र की सत्ता के कारीडोर से परिचित लोग मानते हैं कि भाजपा के साथ जाने पर पवार को फ़ायदा ही फ़ायदा था। भाजपा के साथ गठबंधन बनाने पर मुमकिन था कि कांग्रेस पवार का साथ न देती लेकिन इसके बावजूद पवार साहब के दोनों हाथ में लड्डू होते। मसलन, पहला लाभ यह होता कि एनसीपी को केंद्र सरकार में एक या वह चाहती तो दो मंत्री पद मिल सकते थे। मतलब ख़ुद पवार और उनकी लोकसभा सदस्य बेटी सुप्रिया सुले या सीनियर एनसीपी लीडर प्रफुल्ल पटेल केंद्र में कैबिनेट मंत्री बन सकते थे।

दूसरा एनसीपी के जिन नेताओं के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं, उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता। ज़ाहिर है इससे क़रीब 25 हज़ार करोड़ रुपए के महाराष्ट्र सहकारी बैंक घोटाले में मनी लॉन्डरिंग मामले में प्रवर्तन निदेशालय के राडार में आए ख़ुद शरद पवार और सिंचाई विभाग में कई हज़ार करोड़ के घोटाले में कथित तौर पर शामिल उनके भतीजे अजित पवार को राहत मिल सकती थी। इक़बाल मिर्ची के साथ कारोबारी रिश्ते के गंभीर आरोप का सामना कर रहे सीनियर एनसीपी लीडर प्रफुल्ल पटेल प्रवर्तन निदेशालय के शिकंजे से बच सकते थे। इसके अलावा दिल्ली के महाराष्ट्र सदन समेत कई घोटाले में कथित तौर पर शामिल होने के कारण लंबे समय तक जेल में बंद रहे छगन भुजबल और जयंत पाटिल को भी फ़ौरी तौर पर राहत मिल सकती थी।

ऊपर से भाजपा के साथ महाराष्ट्र में सरकार बनाने से शरद पवार जितना चाहते, उन्हें मंत्री पद मिल जाते। जबकि शिवसेना के साथ जाने से उनको 12 से अधिक मंत्री पद नहीं मिलने वाला। इसके बावजूद शरद पवार ने शिवसेना का साथ दिया। कहा जाता है कि अजित पवार को एनसीपी संसदीय दल का नेता चुने जाने के लिए हुई निर्वाचित विधायकों की बैठक में ख़ुद अजित पवार और धनंजय मुंडे भाजपा के साथ सरकार बनाने की पैरवी कर रहे थे, जबकि नवाब मलिक और दूसरे नेता भाजपा की बजाय शिवसेना को समर्थन देने की बात कर रहे थे।

सबकी राय सुनने के बाद शरद पवार ने अपना फ़रमान सुनाया। वह फ़रमान था कि एनसीपी भाजपा के साथ नहीं, बल्कि शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाएगी। दरअसल, एनसीपी में शरद पवार का क़द इतना ज़्यादा विशाल है कि बाक़ी सभी नेता उनके सामने बौने नज़र आते हैं। किसी में उनकी बात काटने की न कूवत है न हिम्मत। लिहाज़ा, सबके सब ने चुपचाप साहेब का आदेश सिरोधार्य कर लिया और यह निश्चित हो गया कि अगली सरकार में एनसीपी और कांग्रेस शामिल होंगे, क्योंकि कांग्रेस में भी पवार के फ़ैसले को काटने की किसी में हिम्मत नहीं है। इसके बाद आगे की रणनीति पर काम होने लगा।

जब मीडिया में ख़बर आई कि एनसीपी शिवसेना के साथ सरकार बनाएगी तो लोग भी हैरान हुए कि एनसीपी शिवसेना के साथ सरकार कैसे बनाएगी और उसमें कांग्रेस किस भूमिका में शामिल होगी? दरअसल, इसका जवाब खोजने के लिए शरद पवार के राजनीतिक जीवन पर नज़र डालनी पड़ेगी।

पवार पहली बार 18 जुलाई 1978 को मुख्यमंत्री बने थे। इसके लिए उनको अपने गुरु वसंतदादा पाटिल की सरकार गिरानी पड़ी थी। वह 20 महीने मुख्यमंत्री रहे। दूसरी बार वह 26 जून 1988 को मुख्यमंत्री बने जब राजीव गांधी ने उन्हें कांग्रेस में वापस लिया। इस बार वह लगभग तीन साल मुख्यमंत्री रहे। तीसरी और अंतिम बार शरद पवार 6 मार्च 1993 को मुख्यमंत्री बने और दो साल तक शासन किया।

1995 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस हार गई और पहली बार राज्य में शिवसेना-भाजपा भगवा गठबंधन सरकार बनी। 1999 में शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर एनसीपी बना ली और अपने बूते पर चुनाव में उतरे थे। 1999 के चुनाव में शिवसेना (69) और भाजपा (56) का गठबंधन केवल 125 सीट जीत सका। सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 20 विधायक का समर्थन भगवा गठबंधन को नहीं मिल सका। इसके बाद सरकार बनाने के लिए 75 सीट जीतने वाली कांग्रेस और 58 सीट जीतने वाली एनसीपी के बीच पोस्टपोल गठबंधन हुआ। 15 निर्दलीय विधायकों के समर्थन से विलासराव देशमुख पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने।

एनसीपी सरकार में अहम पार्टनर थी और सरकार उस पर निर्भर थी। लिहाज़ा, रोज़ाना सुबह-सुबह शरद पवार का फोन मुख्यमंत्री के सरकारी आवास वर्षा में आने लगा। पवार साहब देशमुख को ज़रूरी दिशा-निर्देश देते थे। चूंकि सरकार पवार के समर्थन के बिना चल नहीं सकती थी, इसलिए रोज सुबह पवार साहब का कॉल अटेंड करना देशमुख की मजबूरी थी। चुनाव से कुछ महीने पहले देशमुख की जगह सुशील कुमार शिंदे मुख्यमंत्री बने। उनको भी रोज़ाना पवार साहब का फोन अटेंड करना पड़ता था।

इसी तरह 2004 के चुनाव में भी शिवसेना (62)-भाजपा (54) गठबंधन को 116 सीट मिली। इस बार कांग्रेस की सीट 75 से घटकर 69 हो गई, जबकि एनसीपी 58 से 71 पर पहुंच गई। लेकिन पवार साहब ने मुख्यमंत्री पद पर दावा नहीं किया। वह उपमुख्यमंत्री पद से संतुष्ट हो गए। विलासराव देशमुख दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। इस बार भी रोज़ सुबह उनको पवार का कॉल अटेंड करना पड़ता था। 2008 में मुंबई पर आतंकी हमले के बाद क्षतिग्रस्त होटल ताज में बेटे रितेश देशमुख और फिल्मकार रामगोपाल वर्मा को ले जाने की गलती पर देशमुख को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा और अशोक चव्हाण नए मुख्यमंत्री बने। उनको भी रोज़ सुबह पवार साहब का फोन कॉल लेना पड़ता था।

2009 के चुनाव में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को जबरदस्त सफलता मिली और 144 सीट जीतकर यह गठबंधन बहुमत (145) के मुहाने पर पहुंच गया। हालांकि एनसीपी 71 से 62 सीट पर आ गई, लेकिन कांग्रेस 69 से 82 पर पहुंच गई। राज्य में फिर कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार बनी। अशोक चव्हाण पहली बार से अधिक शक्तिशाली मुख्यमंत्री के रूप में सत्तानशीं हुए। लेकिन पवार साहब का कॉल उनको लेना ही पड़ता था। महीने भर में ही आदर्श घोटाले के कारण चव्हाण की कुर्सी चली गई। 11 नवंबर 2010 को दिल्ली से पृथ्वीराज चव्हाण मुख्यमंत्री बनाकर भेजे गए। अब वर्षा में आने वाले पवार साहब के कॉल वही अटेंड करते थे। यह सिलसिला 2014 तक चला।

2014 में नरेंद्र मोदी लहर में पूरे देश की तरह यहां भी कांग्रेस-एनसीपी को पराजय का मुंह देखना पड़ा। भाजपा और शिवसेना ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। इस चुनाव में भाजपा को शानदार सफलता मिली परंतु 122 सीट जीतने के बावजूद भाजपा सत्ता से 23 सीट पीछे थी। लिहाज़ा, पवार ने भाजपा को समर्थन देने का साफ़ संकेत दे दिया। इससे शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे पर नवनिर्वाचित विधायकों का सरकार में शामिल होने के लिए ज़बरदस्त दबाव पड़ा और नौबत शिवसेना में विभाजन की भी आ गई। मजबूरी में उद्धव छोटे भाई के रूप में भाजपा-शिवसेना गठबंधन सरकार में शामिल होने के लिए तैयार हुए और देवेंद्र फड़णवीस राज्य के मुख्यमंत्री हुए।

शपथ लेने के बाद फडणवीस जैसे ही वर्षा में शिफ़्ट हुए, उन्हें रोज़ सुबह पवार साहब के कॉल आने लगे। फडणवीस नए-नए चीफ़मिनिस्टर बने थे, सो अनिच्छा के बावजूद वह पवार के कॉल अटेंड कर लेते थे। कुछ समय बाद उनको लगा कि वर्षा में कॉल करना और मुख्यमंत्री को ज्ञान देना पवार का शगल बन गया है। लिहाज़ा, उन्होंने पवार साहब का कॉल नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया। उनके नज़रअंदाज़ करने के बावजूद कुछ दिन तक पवार साहब के कॉल आते रहे लेकिन धीरे-धीरे कॉल आने बंद हो गए।

2019 के चुनाव में भाजपा को अपने बल पर बहुमत न मिलने से सत्ता की चाबी एक बार फिर पवार के हाथ में आती दिखी। अंतिम नतीजे आने से पहले ही उन्होंने अपने क़रीबी शिवसेना प्रवक्ता संजय राऊत की ओर चारा फेंक भी दिया। पवार जानते थे कि फडणवीस सीएम बनेंगे तो उनका कॉल अटेंड नहीं करेंगे, लेकिन शिवसेना का सीएम ऐसी हिमाक़त नहीं कर सकता। शिवसेना मुख्यमंत्री पद की लालच में पवार साहब के जाल में उलझ गई। चुनाव में सत्ता के लिए 50-50 प्रतिशत की भागीदारी की बात करने वाली जो शिवसेना 124 सीट मिलने और चुनाव प्रचार में देवेंद्र फडणवीस का बार बार नाम उछाले जाने पर चुप रही उसी पार्टी ने भाजपा को बहुमत से 40 सीट दूर देखकर उसके सामने ढाई साल का मुख्यमंत्री पद देने का प्रस्ताव रख दिया।

इसे भाजपा स्वीकार नहीं कर सकती थी। लिहाज़ा, पार्टी ने विपक्ष में बैठने का फैसला किया। यही तो शरद पवार साहब चाहते थे। लिहाज़ा, उनकी पसंद के उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन गए हैं। क़रीब पांच साल बाद अब फिर पवार साहब का कॉल मुख्यमंत्री सीधे अटेंड करेगा। यही तो पवार साहब चाहते थे, इसीलिए उन्होंने मज़बूत भाजपा (105 सीट) की जगह कमज़ोर शिवसेना (56 सीट) को समर्थन देने का फैसला किया और सरकार बनवाकर अमित शाह से बड़े चाणक्य का तग़मा हासिल कर लिया।

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

मी नाथूराम गोडसे बोलतोय !


हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारत एक सभ्य, सहिष्णु, सहनशील और क्षमाशील देश है। यहां अपराधी को माफ़ कर देने की समृद्ध परंपरा रही है। इसी परंपरा के तहत लोग मौत के बदले मौत यानी फ़ांसी की सज़ा का विरोध करते हैं। जिस हत्यारे को माफ़ी नहीं मिल पाती, फ़ांसी पर लटकाने के बाद लोग उसे माफ़ कर देते हैं। भारतीय इतिहास में केवल और केवल एक हत्यारा ऐसा है, जिसे मौत की नींद सुलाने के बाद भी क्षमा नहीं किया गया। वह हत्यारा है नाथूराम विनायक गोडसे। प्रखर वक्ता, लेखक-पत्रकार और दैनिक समाचार पत्र हिंदूराष्ट्र का संपादक। जिसने किसी ऐरे-गैरे की नहीं, बल्कि राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या की। इसीलिए पूरे देश के लिए तो नहीं, एक बड़े तबक़, जिन्हें गांधीवादी कहा जा सकता है, के लिए गोडसे से ज़्यादा घृणित व्यक्ति शायद ही धरती पर मिलेगा। ऐसे में अगर कोई उसी हत्यारे गोडसे को देशभक्त कह दे तो बवाल मचना स्वाभाविक है।

यह बवाल भोपाल से भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर के लोकसभा में गोडसे को देशभक्त कह देने से मचा है। साध्वी को केंद्र सरकार ने रक्षा मामलों की संसदीय समिति से बाहर कर दिया है और उनके संसदीय बैठक में भाग लेने पर रोक लगा दी गई है। मामला इतने से नहीं बना तो साध्वी से लोकसभा में माफ़ी मंगवाई गई। हालांकि, माफी मांगते समय उन्होंने एक सवाल भी उठा दिया कि कोर्ट का फ़ैसला आने से पहले उन्हें आतंकवादी कहना क्या उचित है? पिछली गर्मियों में भी साध्वी के गोडसे को देशभक्त कहने से भूचाल आ गया था। तब चुनाव चल रहा था, लिहाज़ा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके लिए वह साध्वी को जीवन भर माफ़ नहीं करने की बात कही थी। अहम बात यह कि गोडसे को देशभक्त कहने वाली उसी साध्वी को भोपाल की जनता ने लोकसभा सदस्य चुन लिया और नाथूराम को हत्यारा कहने वाले दिग्विजय सिंह को नकार दिया।
नाथूराम गोडसे देशभक्त था या नहीं, यह गंभीर बहस का विषय है। इस विषय पर अध्ययनशील बहस की जरूरत है। 30 जनवरी 1948 से पहले के उसके कार्यों, उसके व्यक्तित्व और उसके समाज के प्रति व्यवहार पर चर्चा होनी चाहिए। बतौर पत्रकार उसके लेखन की चर्चा होनी चाहिए। लेकिन इस देश में समस्या यह है कि गोडसे का नाम भर लेने से एक तबक़ा, जो ख़ुद को सेक्यूलर या धर्मनिरपेक्ष कहता आ रहा है, असहिष्णु और अलोकतांत्रिक हो जाता है। दरअसलइस देश में एक गोडसे-ग्रंथि पैदा हो गई है। जिसके कारण गोडसे का नाम सम्मान भर से लेने से ही लोग आक्रामक हो जाते हैं और नाम लेने वाले को ही अनाप-शनाप ही नहीं बोलते बल्कि उसके कैरेक्टर का भी पोस्टमॉर्टम करने लगते हैं। ऐसी सोच को सभ्य समाज तालिबानी सोच कहता हैजहां विरोध के लिए एक भी अल्फ़ाज़ नहीं होता। सबसे बड़ी बात कि यह कल्चर सहिष्णु और उदार माने जाने वाले भारतीय समाज में अस्तित्व में है और उन लोगों में है, जो ख़ुद को गांधीवाद का पैरोकार कहते हैं।

वैसे सभ्य, स्वस्थ एवं स्वाधीन लोकतंत्र में सांस लेने वाले किसी भी उदार समाज में हर नागरिक के लिए किसी मुद्दे पर विरोध में आवाज़ उठाने या असहमत होने की बराबर की गुंज़ाइश होती है। यह गुंज़ाइश भारत में है भी। भारतीय संविधान ने हर भारतीय नागरिक को अधिकार दिया है जिससे वह किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से पक्ष या विपक्ष में अपने विचार व्यक्त कर सकता है। संविधान की भाषा में इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा जाता है। देश में यह आज़ादी हर नागरिक को मिली हुई है। ऐसे में अगर कोई नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ कहेभले ही वह प्रथमदृष्ट्या उसके पक्ष में ही लगता प्रतीत होतो भी उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाना चाहिए। उसकी बात सुनी जानी चाहिए कि वह अपने कथन के समर्थन में क्या तर्क या साक्ष्य दे रहा है।
हत्या बेहद अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात है। हत्या किसी भी की नागरिक की हो, उसकी भर्त्सना होती है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील इंसान को विचलित करती है। हर सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोचकर ही दहल उठता है। हत्या की वारदात में क़ुदरत द्वारा दी हुई बेशक़ीमती जान चली जाती है। हत्या को इसीलिए इंसान के जीने के अधिकार का हनन माना जाता है। दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत हत्याओं का विरोध करता है। इसके बावजूद भारत ही नहीं पूरी दुनिया में विभिन्न कारणों से रोज़ाना अनगिनत हत्याएं होती हैं। सभी में तो नहीं, कुछ हत्याओं में हत्यारे को दंड स्वरूप फ़ांसी पर लटका दिया जाता है और लोग उसे क्षमा करके आगे बढ़ जाते हैं।

लेकिन गोडसे को लेकर भारतीय समाज आज भी 1940 के दशक में ठहरा हुआ है। यहां सवाल यह भी है कि क्या भारत में हर हत्यारे को लेकर इतनी ही घृणा और नफ़रत है या केवल नाथूराम गोडसे के लिए ही? अगर नहीं तो गोडसे से अतिरिक्त घृणा इसलिए कि उसने राष्ट्रपिता की हत्या की। आम तौर पर देखा जाता है कि हत्या करने वाला शख़्स बचने का प्रयास करता है। लिहाज़ा, हत्या की वारदात को अंज़ाम देने के बाद घटना स्थल से भाग जाता है और पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर मुक़दमें की सुनवाई के दौरान बचने की हर संभव कोशिश करता है और अच्छे वकील की मदद लेता है। अदालतों द्वारा राहत न मिलने पर वह राष्ट्राध्यक्ष के समक्ष दया की गुहार लगाते हुए मर्सी पिटीशन तक दाख़िल करता है।

इस मामले में अगर नाथूराम की बात करें, तो वस्तुतः उसने गांधीजी की हत्या करने के बाद ही अपना ज़ुर्म क़बूल करते हुए कह दिया था कि उसने एक निहत्थे व्यक्ति की हत्या की है। एक इंसान का प्राण हरण किया है। एक जीती-जागती ज़िंदगी को ख़त्म किया है। लिहाज़ाउसे दंडस्वरूप फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। इसीलिए उसने हत्या करने के बाद भागने की बजाय ख़ुद को लोगों के हवाले कर दिया। वह चाहता तो भाग सकता था, क्योंकि उसके रिवॉल्वर में और गोलियां थीं। लेकिन उसने दंड पाने के लिए इक़बाल-ए-ज़ुर्म करके ख़ुद को क़ानून के हवाले करना उचित समझा ताकि उस पर मुक़दमा चले और उसे दंड दिया जा सके। इसलिए जब 10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के जज आत्माचरण ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुनाई तो उसने उसे बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लिया और ऊपरी अदालत में अपील न करने का फ़ैसला कर लिया। उसे सज़ा देने के लिए देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका कितनी हड़बड़ी में थी कि इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां भारत में 20-20 साल तक हत्यारों को फ़ांसी नहीं दी जाती वहीं, हत्या के 656 वें दिन गोडसे और दूसरे आरोपी नारायण आप्टे उर्फ नाना को फ़ांसी पर लटका दिया गया।

यह देश इतने पर ही नहीं रुका, गोडसे से जुड़ी हर वस्तु पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यहां तक कि अदालती कार्यवाही से जुड़े दस्तावेज़ के साथ-साथ अदालत में दिए गए गोडसे को बयान को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। उधर 15 नवंबर 1949 के दिन हरियाणा के अंबाला शहर में ग़म का माहौल था। उस दिन जब सारा शहर शोक के सागर में डूबा थातब अंबाला जेल में सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी दे दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने दुकानें बंद रखीं। कहने का मतलब उस समय भी एक बड़ा तबका ऐसा था, जिसकी सहानुभूति गोडसे के साथ थी, क्योंकि इनमें ज़्यादातर लोग विभाजन के बाद अपना घर-परिवार गंवाकर पाकिस्तान से भारत आए थे। ये लोग विभाजन के बाद गांधीजी के रवैये से असंतुष्ट थे।

दरअसलदेश के विभाजन के लिए गांधीजी को ज़िम्मेदार मानने वाला गोडसे चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करेंताकि वह बता सकें कि गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ। गांधी की हत्या के बाद अगली सुबह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन के लॉकअप में गए थे। गोडसे ने कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहींबल्कि राजनीतिक कारणों से की। आप अगर वक़्त दें तो मैं बताऊं कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?” 

दरअसल, गोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता थाइसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की थी। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार हो गए थेलेकिन उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादी आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थीलेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधीवाद पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।

कई लोगों का मानना है कि आज बाल ठाकरे अगर ज़िंदा होते तो ज़रूर भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के पक्ष में खड़े हो जाते। दरअसल, इस देश का एक बड़ा तबका नाथूराम गोडसे को देशभक्त मानता है। ऐसे लोग भाजपा और शिवसेना का समर्थन करते रहे हैं। भाजपा को दो लोकसभा चुनाव में जो जनादेश मिला है, वह धर्मनिरपेक्षता के लिए नहीं धर्मनिरपेक्षता की आड़ में उसका दुरुपयोग करने के विरोध में मिला है। ऐसे में इसम बात में दो राय नहीं, कि अगर भाजपा साध्वी के ख़िलाफ़ अधिक सख़्त होगी तो उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है।


शनिवार, 16 नवंबर 2019

क्या अब सत्ता का केंद्र नहीं रहा मातोश्री?

क्या अब सत्ता का केंद्र नहीं रहा मातोश्री?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की आज सातवीं बरसी है। क्या यह संयोग है कि उनकी बरसी ऐसे समय पड़ रही है, जब शिवसेना हिंदुत्व की बजाय राग सेक्यूलर गाने लगी है। हालांकि मौजूदा राजनीतिक हलचल के बीच एक सवाल उठ रहा है कि क्या बाल ठाकरे के बंगले मातोश्री की महत्ता अब कम होने लगी है? यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि जहां बाल ठाकरे हर किसी से केवल और केवल मातोश्री में मिलते थे, वहीं उनके पुत्र और उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे के दौर में लोग वार्ता के लिए मातोश्री आने की बजाय शिवसेना प्रमुख को मातोश्री से बाहर बुलाने लगे हैं।

दरअसल, महाराष्ट्र में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने के अटल अभियान में जुटे शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार के साथ पिछले 11 नवंबर को मातोश्री में बातचीत करने की बजाय बांद्रा बैंडस्टैंड के ताज़ लैंड्स इंड होटल में जाना चर्चा का विषय बना हुआ है। अभी यह चर्चा चल ही रही थी कि उद्धव ठाकरे और दो दिन बाद कांग्रेस मैनेजर्स अहमद पटेल, केसी वेणुगोपाल और मल्लिकार्जुन खड़गे से भी मातोश्री में बातचीत करने की बजाय बीकेसी के होटल ट्राइडेंट गए तो लोग मातोश्री का रुतबा कम होने की अटकल लगाने लगे।

दरअसल, मातोश्री मुंबई के बांद्रा पूर्व उपनगर में कलानगर का एक महज आलीशान बंगला ही नहीं, बल्कि बाल ठाकरे के दौर में सत्ता का सिंबल रहा। मातोश्री बंगला पिछले चार दशक से अधिक समय से महाराष्ट्र की राजनीति का एक प्रमुख केंद्र रहा। मुंबई में इस बंगले की महत्ता वर्षा और राजभवन से भी ज़्यादा नहीं, तो कभी कम भी नहीं रही है। मातोश्री की हैसियत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश दुनिया का कोई भी व्यक्ति अगर शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे से मिलना या उनके साथ किसी तरह की बातचीत करना चाहता था, तो उसे मातोश्री ही जाना पड़ता था।

मातोश्री की हैसियत का अंदाज़ा एक रोचक प्रसंग से सहज ही लगाया जा सकता है। 1995 में शिवसेना-भाजपा की भगवा गठबंधन सत्ता में थी और वरिष्ठ शिवसेना नेता मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे। उस समय एनरॉन के साथ बिजली संबंधी डील का मामला सुर्खियों में था। उसी सिलसिले में एनरॉन की तत्कालीन प्रमुख स्टाइलिश रेबेका मार्क-जस्बैश की मुख्यमंत्री मनोहर जोशी से मुलाकात होने वाली थी, लेकिन उस दिन जोशी को वेटिंग मोड पर डालकर रेबेका बाल ठाकरे के दरबार मातोश्री पहुंच गईं। मज़ेदार बात यह रही कि उसके बाद सरकार ने उनका कार्य कर भी दिया।

लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, नरेंद्र मोदी, जसवंत सिंह, नितिन गडकरी, गोपीनाथ मुंडे ही नहीं, बल्कि शरद पवार, प्रणव मुखर्जी और विलासराव देशमुख जैसे धुरंधर राजनेता भी बाल ठाकरे में मिलने के लिए मातोश्री का ही रुख करते थे। सुनील दत्त तो नियमित रूप से मातोश्री में मत्था टेकते थे, क्योंकि कहा जाता है कि 1993 में बम धमाके में शामिल रहे संजय दत्त को जमानत दिलाने में बाल ठाकरे का अहम किरदार था। इसी तरह अमिताभ बच्चन भी अकसर बाल ठाकरे से मिलने मातोश्री जाते थे।

अमिताभ के मातोश्री जाने से एक रोचक प्रसंग जुड़ा है। मुंबई के सांप्रदायिक दंगों पर 1995 में मणि रत्नम ने 'बॉम्बे' नाम से एक फ़िल्म बनाई थी। फ़िल्म में शिवसैनिक मुसलमानों को मारते-लूटते हुए दिखाए गए थे। अंत में बाल ठाकरे जैसा किरदार हिंसा पर दुख प्रकट करता दिखाई देता है। बाल ठाकरे ने फ़िल्म का विरोध किया और इसे मुंबई के सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं होने देने का एलान किया। अमिताभ बच्चन ठाकरे की कंपनी फ़िल्म की वितरक थी। अमिताभ मातोश्री गए और पूछा कि फिल्म का विरोध क्यों? तो बाल ठाकरे ने कहा, “फिल्म में मेरा किरदार निभाने वाला व्यक्ति दंगों पर दुख प्रकट कर रहा है। यह मुझे मंज़ूर नहीं। मैं कभी किसी चीज़ पर दुख नहीं प्रकट करता।"

दरअसल, 19 जून 1966 को अपने दादर के आवास श्रीकृष्णा सदन में शिवसेना की स्थापना करने वाले बाल ठाकरे का जन्म पुणे में हुआ और बचपन भिवंडी में गुज़रा। बाद में उनके पिता केशव ठाकरे (प्रबोधनकार ठाकरे) काला तालाव आ गए। साठ के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक ने कलाकारों के लिए बांद्रा पूर्व में मीठी नदी के पास एक कालोनी बनाई और उसका नाम कलानगर रखा। वहां सभी कलाकारों-साहित्यकारों और पत्रकारों को एक रुपए प्रति फुट के भाव से प्लॉट दिया। बाल ठाकरे कार्टूनिस्ट थे और ‘मार्मिक’ पत्रिका का प्रकाशन करते थे। लिहाज़ा उनको भी एक प्लॉट मिला और 1969 में पत्नी मीनाताई और बेटों समेत मातोश्री बंगले में आ गए थे। पहले मातोश्री एक मंजिला साधारण बंगला था।

साहित्यकार डॉ. पुष्पा भारती बताती हैं, ‘1969 में जब बालासाहेब रहने के लिए आए तो एक दिन डॉ. धर्मवीर भारती से मिलने के लिए हमारे घर आए। डॉक्टर साहब की लाइब्रेरी में एक से एक दुर्लभ किताबें देखकर वे बहुत खुश हुए और डॉक्टर साहब से कहा कि मुझे किताब पढ़ने के लिए नियमित आने की अनुमति दीजिए। इसके बाद कई बार वह कई बार मेरे यहां आए। 1995 में जब शिवेसना-भाजपा गठबंधन सत्ता महाराष्ट्र में आई तो मातोश्री बंगले में सुधार करके उसे तीन मंजिला कर दिया गया। उसके बाद ही यह बंगला धीरे-धीरे राजनीतिक हलचल का केंद्र बनता गया और अंत में शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित हो गया।

दरअसल, बाल ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव ठाकरे ने अपने पिता की बनाई ‘मातोश्री परंपरा’ को जारी रखने की भरसक कोशिश की। वह लोगों से मातोश्री में ही मिलते थे। अमित शाह भी उनसे मिलने एक बार मातोश्री गए थे। ठाकरे परिवार को जानने वाले राजनीतिक पत्रकारों का मानना है कि उद्धव ठाकरे में बाल ठाकरे जैसा करिश्मा उनमें नहीं दिखा। इसका असर कालांतर में दिखने भी लगा। वस्तुतः जब शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन किया था तो शिवसेना बड़े भाई के किरदार में थी, लेकिन आज दृश्य पूरी तरह बदल गया है।

बात सही भी है, बाल ठाकरे के दौर में शिवसेना की उंगली पकड़ कर चलने वाली भाजपा उद्धव ठाकरे के दौर में, ख़ासकर राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के उदय के बाद धीरे-धीरे कब शिवसेना से आगे निकल गई उद्धव को पता ही नहीं चला। 2014 के विधान सभा चुनाव तक शिवसेना की ताकत घट गई थी, लेकिन इस सच को स्वीकार करने के लिए उद्धव ठाकरे तैयार नहीं थे। लिहाज़ा, गठबंधन में शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने की शर्त रख दी। बातचीत के लिए भाजपा नेता मातोश्री जाने के लिए तैयार नहीं हुए तो उद्धव ठाकरे ने आदित्य ठाकरे और सुभाष देसाई को भाजपा नेताओं से मिलने भेजा। इसके बाद दोनों का 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया। चुनाव प्रचार में उद्धव की भाषा भाजपा नेताओं खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए बेहद तल्ख़ रही।

बहरहाल, महाराष्ट्र की जनता के जनादेश ने साबित कर दिया कि शिवसेना को अगर गठबंधन में रहना है तो छोटे भाई के रूप में ही रहना होगा, क्योंकि अकेले चुनाव लड़कर भाजपा 2009 के 46 सीट से 2014 में 122 सीट तक पहुंच गई, जबकि शिवसेना 45 से 63 तक ही सीमित रह गई। भाजपा को सरकार बनाने के लिए केवल 23 विधायकों की ज़रूरत थी। उद्धव पोस्ट-इलेक्शन गठबंधन नहीं करना चाहते थे, लेकिन शिवसेना विधायकों के दबाव और विद्रोह की आशंका के चलते उनको मजबूरी में सरकार में शामिल होना पड़ा।

बड़ा भाई से छोटा भाई बन जाने के अपमान के घूंट को उद्धव ठाकरे ने पी तो लिया, लेकिन उसे दिल से स्वीकार नहीं कर पाए। इसीलिए इस बार पहले बेटे आदित्य ठाकरे को देवेंद्र फड़णवीस की महाजनादेश यात्रा के समांतर विजय संकल्प मेलावा पर भेजा और उन्हें ‘नया महाराष्ट्र’ बनाने का आह्वान करने का निर्देश दिया। इस दौरान उनके निर्देश पर उनके लेफ़्टिनेंट संजय राउत आदित्य ठाकरे को राज्य का चीफ मिनिस्टर बनाने की बात करते रहे। उसी समय लग गया था, शिवसेना भाजपा और देवेंद्र फड़णवीस के लिए भस्मासुर साबित होने जा रही है।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

क्यों गोडसे का नाम भर लेने से असहिष्णु हो जाते हैं लोग ?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
नाथूराम विनायक गोडसे। दैनिक समाचार पत्र हिंदूराष्ट्र का संपादक और राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी का हत्यारा। बीती सदी का सबसे बड़ा विलेन। भारतीय भूमि पर पाकिस्तान नाम के देश का निर्माण करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना से भी बड़ा खलनायक। इतना बड़ा खलनायक कि लोग सार्वजनिक तौर पर उसके लिए सम्मानजनक संबोधन करने में भी हिचकते हैं। कोई उसे क़ातिल कहता है तो कोई आतंकवादी। कई लोग तो उसे आज़ाद भारत का पहला दहशतगर्द भी कहते हैं। कोई उसकी तुलना ओसामा बिन लादेन से करता है तो कोई अबु बकर अल बग़दादी से। दरअसलइस सहिष्णु देश में एक बड़ा तबका नाथूराम गोडसे का नाम सुनते ही असहिष्णु हो जाता है। कह सकते हैं कि इस देश में नाथूराम गोडसे को लेकर एक ग्रंथि पैदा हो गई है। जिसके कारण लोग गोडसे का नाम सम्मान भर से लेने से ही आक्रामक हो जाते हैं और नाम लेने वाले को ही अनाप-शनाप बोलने लगते हैं। हालांकि, एक तरह से इस तरह की सोच को तालिबानी सोच कहते हैंजहां विरोध के लिए एक भी अल्फ़ाज़ नहीं होता। सबसे बड़ी बात कि फ़िलहाल यह कल्चर भारतीय समाज में अस्तित्व में है।

आपको याद होगा, पिछली गर्मियों में लोकसभा चुनाव के दौरान बतौर भाजपा उम्मीदवार साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर के चुनाव प्रचार के दौरान नाथूराम गोडसे को देशभक्त कह देने से पूरे देश में भूचाल-सा आ गया था। एक बार तो भाजपा भी टेंशन में आ गई थी कि कहीं साध्वी के बयान से उसका राजनीतिक खेल तो गड़बड़ नहीं हो जाएगा। लिहाज़ा, भाजपा की ओर से प्रज्ञा को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया। इतना ही नहीं, सर्वोच्च भाजपा नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्पष्टीकरण देना पड़ा। उन्होंने कहा कि इस बयान के लिए वह साध्वी को जीवन भर माफ़ नहीं कर सकेंगे। विपक्ष तो साध्वी की उम्मीदवारी को ही खारिज़ करने की मांग कर रहा था। अंततः ‘गोडसे आतंकवादी नहीं देशभक्त थे’ बोलने वाली साध्वी प्रज्ञा को भारी दबाव के चलते अनमने ढंग से माफ़ी मांगनी पड़ी। इसके बावजूद भोपाल की जनता ने साध्वी को ही अपना प्रतिनिधि यानी लोकसभा सदस्य चुन लिया।

वैसे स्वस्थ लोकतंत्र में सांस लेने वाले किसी भी सभ्य समाज में हर नागरिक के लिए किसी मुद्दे पर विरोध में आवाज़ उठाने या असहमत होने की बराबर की गुंजाइश होती है। भारत में यह गुंजाइश है भी। भारतीय संविधान ने हर भारतीय नागरिक को एक अधिकार दिया है जिससे वह किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से पक्ष में या विपक्ष में अपना विचार व्यक्त कर सकता है। संविधान की भाषा में इसी को अभिव्यक्ति की आजादी कहा जाता है। देश में यह आज़ादी हर नागरिक को मिली हुई है। ऐसे में अगर कोई नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ कहेभले ही वह प्रथमदृष्ट्या गोडसे के पक्ष में ही लगता प्रतीत होतो भी उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाना चाहिए। उसकी बात सुनी जानी चाहिए कि वह अपने कथन के समर्थन में क्या तर्क या साक्ष्य दे रहा है।

यह सच है और साबित भी हो चुका है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को सरेआम गोली मार दी थी जिससे घटनास्थल पर ही बापू की मौत हो गई थी। यानी गोडसे ने एक इंसान ही नहींबल्कि इस देश को आज़ादी दिलाने वाले महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महात्मा गांधी की जीवनलीला ख़त्म कर दी थी। यानी वह राष्ट्रपिता की जान लेने वाला हत्यारा था। इसके लिए उसे क़ानून के अनुसार सज़ा मिलनी चाहिए। उसे क़ानून के अनुसार सज़ा देने के लिए उसके ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत मुकदमा चलाया गया। उसे निचली अदालत ने दोषी क़रार दिया और फ़ांसी की सज़ा सुनाई। जिसे गोडसे ने स्वीकार किया। चूंकि बाक़ी आरोपियों ने फ़ैसले को चुनौती दी, जिससे नाथूराम की भी शिमला हाईकोर्ट में पेशी हुई। हाईकोर्ट ने सुनवाई के दौरान दूसरे आरोपियों की तरह गोडसे को भी अपना बचाव करने का पूरा अवसर दिया। इसका लाभ उठाकर गोडसे ने अपने कृत्य को न्यायोचित ठहराने के लिए बहुत लंबा बयान दिया था। अंत में हाईकोर्ट ने भी दोषी माना और मौत की सज़ा को बरक़रार रखा। अंत में गोडसे और कथित तौर पर उसका साथ देने वाले उसके सहयोगी नारायण आप्टे उर्फ नाना को फ़ांसी दे दी गई।

लेकिन यह भी सच है कि गोडसे को सज़ा देने में जांच दल और अदालतों द्वारा असाधारण तेज़ी दिखाई गई और हत्या के एक साल 10 महीने और 15 दिन भीतर गोडसे और आप्टे को फ़ांसी पर लटका दिया गया। भारत में स्वतंत्रता के बाद 70 साल के दौरान अधिकारिक सरकारी आंकड़ों के अनुसार केवल 52 लोगों को फ़ांसी की सजा दी गई है। हालांकि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के अनुसार 1947 से अब तक कुल 755 लोगों की मृत्युदंड दिया गया है। सबसे अहम अपराध के बाद न्यूनतम पांच साल से पहले किसी को सज़ा नहीं दी गई। हत्या के 15-15 साल ही नहीं 20-20 साल और कहीं कहीं 25 साल बाद तक आरोपी को फ़ांसी नहीं दी जाती। विलंब के कारण कई ग़ुनाहग़ारों की मौत की सज़ा को उम्रक़ैद में तब्दील हो गई। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना की फ़ांसी की सज़ा सुप्रीम कोर्ट ने उम्रक़ैद में बदल दी, क्योंकि दया याचिका पर फ़ैसला लेने में राष्ट्रपति ने कुछ ज़्यादा देर कर दी। 2013 में 22 पुलिसकर्मियों के हत्या करने वाले चंदन तस्कर वीरप्पन के 15 साथियों की फ़ांसी को उम्रक़ैद में बदल दिया गया। 2014 में खालिस्तानी आतंकी देवेंद्रपाल सिंह भुल्लर की फ़ांसी उम्रक़ैद हो गई।

ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आख़िर क्यों नाथूराम और नाना को हत्या की वारदात के दो साल से भी कम समय में फ़ांसी दे दी गईक्या गोडसे और आप्टे के साथ न्यायपालिकाकार्यपालिका और विधायिका की तरफ़ से घोर नाइंसाफी हुई थी? भारतीय पुलिस और भारतीय न्यायालयों ने महात्मा गांधी हत्याकांड के मुक़दमे की सुनवाई में जितनी तेज़ी दिखाईवैसी मिसाल भारतीय न्यायपालिका के संपूर्ण इतिहास में देखने को नहीं मिलती। इस प्रकरण का जो भी निष्पक्ष और विचारपूर्वक अध्ययन करेगाउसे निश्चित रूप से संदेह होगा है कि संभवतः भारतीय लोकतंत्र के तीनों स्तंभों - न्यायपालिकाकार्यपालिका और विधायिका - ने 30 जनवरी 1948 को ही तय कर लिया था कि गांधी के हत्यारों को जल्दी से जल्दी फ़ांसी पर लटकाना है। यानी तीनों स्तंभों ने उसी दिन साज़िश रच दी थी कि हत्यारों को मृत्युदंड से कम सज़ा नहीं देनी है और यथाशीघ्र देनी है। वरना निचली अदालतहाईकोर्ट और प्रिवी काउंसिल (तब तक सुप्रीम कोर्ट का गठन नहीं हुआ था) ने डेढ़ साल से भी कम समय में फ़ांसी की सज़ा को अंतिम स्वीकृति दे दी थी।

वस्तुतः नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या करने के बाद ही अपने ज़ुर्म का इक़बाल करते हुए कह दिया था कि उसने एक निहत्थे व्यक्ति की हत्या की है। एक इंसान का प्राण हरण किया है। एक ज़िंदगी को ख़त्म की है। लिहाज़ाउसे दंडस्वरूप फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। अपने इसी तर्क के चलते उसने अपनी सज़ा के ख़िलाफ हाईकोर्ट में अपील नहीं की। उसने यह भी कहा था कि गांधी की हत्या के कार्य को उसने अकेले अंजाम दिया हैइसलिए उसके अपराध की सज़ा उससे संबंधित दूसरे लोगों को कतई नहीं मिलना चाहिए। यही बात कहने वह हाईकोर्ट गया था। इसीलिए जब जुलाई में प्रिवी काउंसिल ने बाक़ी आरोपियों की अपील को ख़ारिज़ किया तो सप्ताह भर के भीतर गोडसे और आप्टे को 15 नवंबर 1949 को फ़ांसी देने की तारीख़ मुक़र्रर कर दी गई। तमाम जन भावना की अनदेखी करते हुए उस दिन अंबाला जेल में दोनों को फ़ांसी के फंदे पर लटका दिया गया।

गोडसे ने नई दिल्ली के गांधीजी की हत्या बिड़ला हाउस परिसर में 30 जनवरी 1948 को शाम पांच बजकर सत्रह मिनट पर की थी। जब पेट्रोलिंग कर रहे तुगलक रोड थाने के इंस्पेक्टर दसौंधा सिंह और पार्लियामेंट थाने के डीएसपी जसवंत सिंह 5.22 बजे बिड़ला हाउस गेट पर पहुंचेतो वहां अफरा-तफरी का माहौल था। गांधी के अनुयायी रो-चिल्ला रहे थे। किसी से पुलिस अधिकारियों को पता चला किसी ने गांधीजी को गोली मार दी और ख़ुद को जनता के हवाले कर दिया है। गांधीजी को गोली मारने के बाद अपराधी द्वारा ख़ुद को जनता के हवाले करने की बात सुनकर दोनों पुलिस अफसर हैरान हुए। तब तक गांधीजी का शव अंदर उनके कमरे में ले जाया जा चुका था। लिहाज़ाजसवंत सिंह के आदेश पर दसौंधा सिंह और कुछ पुलिस वाले नाथूराम को तुगलक रोड थाने ले गए। रात को क़रीब पौने दस बजे थाने के दीवान-मुंशी डालू राम ने हत्या की एफ़आईआर लिखी। उस वक्त थाने में दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस डीवी संजीवी और डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल डीडब्ल्यू मेहता भी मौजूद थे। इसके बाद नाथूराम औपचारिक रूप से अंडर अरेस्ट हो गया।

हत्याकांड की जांच पूरी होने के बाद मुक़दमे की सुनवाई 27 मई 1949 को शुरू हुई। सभी नौ आरोपियों को लाल किला में बनाई गई विशेष अदालत में लाया गया और दिल्ली पुलिस ने हत्याकांड की जांच करके आठ आरोपियों के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दाख़िल किया। कहते हैं कि दिल्ली पुलिस की प्रताड़ना और डर के चलते नौवा आरोपी दिगंबर बड़गे सरकारी गवाह बन गया। बहरहाल, 21 जून को सभी पर आरोप तय कर दिए गए और अदालत की कार्यवाही शुरू हुई। 10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के जज आत्माचरण ने नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फ़ांसी की सज़ा और पांच आरोपियों विष्णु करकरेमदनलाल पाहवागोपाल गोडसेशंकर किस्तैया और डॉ. दत्तात्रय परचुरे को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई और विनायक दामोदर सावरकर को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया गया। यानी हत्या के एक साल 11 दिन बाद फैसला आ गया।

नाथूराम के अलावा बाकी सभी आरोपियों ने निचली अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ ईस्ट पंजाब हाईकोर्ट में अपील की। उसके बाद हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों जस्टिस अमरनाथ भंडारीजस्टिस अच्छरूराम और जस्टिस गोपालदास खोसला की पूर्ण पीठ ने 23 मई 1949 को मुक़दमे की सुनवाई शुरू की। हाईकोर्ट ने गोडसे और आप्टे की फ़ांसी की सज़ा और विष्णु करकरेमदनलाल पाहवागोपाल गोडसे और शंकर किस्तैया की उम्र क़ैद की सज़ा को बरकरार रखा और डॉ. दत्तात्रय परचुरे को रिहा कर दिया। सबसे अहम् बात हाईकोर्ट का फ़ैसला 22 जून 1949 को यानी एक महीने से एक दिन कम में ही आ गया। यहां अविश्वसनीय रूप से अदालत ने भी अभूतपूर्व तेज़ी दिखाई।

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीदिल्ली के अनुसार भारत में सन् 2000 से अब तक निचली अदालतें कुल 1617 क़ैदियों को मौत की सज़ा सुना चुकी हैंजिनमें से केवल 71 क़ैदियों को मृत्युदंड की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट व्दारा की गई है। पिछले दो दशक से तो भारत में फ़ांसी की सज़ा पर अमल ही नहीं हो रहा हैक्योंकि ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने 1995 के बाद 5 अपराधियों को मौत की सज़ा दी है। इस सदी में केवल 4 लोगों को फ़ांसी हुईउनमें 3 मोहम्मद अजमक कसाबमोहम्मद अफ़ज़ल गुरु और याक़ूब मेमन तो आतंकवादी थे। एक बच्ची से बलात्कार करके हत्या करने के अपराधी धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त 2004 को कोलकाता के अलीपुर जेल में फ़ांसी दे दी गई थी।

दिल्ली गैंग रेप के आरोपियों को वारदात के छह साल बाद भी फ़ांसी नहीं दी जा सकी है। निचली अदालत ने पांचों को पहले ही सुना दी थी. उसे दिल्ली हाईकोर्ट ने बरकरार भी रखा। सुप्रीम कोर्ट भी उस सज़ा पर अपनी मुहर लगा चुका है। लेकिन अभी तक अपराधी ज़िंदा हैं। कहने का मतलब भारतीय न्यायपालिका शुरू से लचर रही है। कोई भी केस होउसे टालने की परंपरा रही है। ऐसे में किसी किसी एक केस में अदालतों के साथ पूरे सिस्टम का कुछ ज़्यादा सक्रिय होकर आनन-फानन में फ़ैसला देना मन में संदेह पैदा करता है। अगर गोडसे और आप्टे के साथ वाक़ई नाइंसाफी हुई तो कह सकते हैं कि 15 नवंबर का दिन शोक का दिन है। कहते हैं, हरियाणा के अंबाला शहर में 15 नवंबर 1949 को ग़म का माहौल था भी। उस दिन जब सारा शहर शोक के सागर में डूबा थातो सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने दुकानें बंद रखीं।

दरअसल, देश के विभाजन के लिए गांधीजी को ज़िम्मेदार मानने वाला गोडसे चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करेंताकि वह बता सकें कि गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ। गांधी की हत्या के बाद गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन गए थे। गोडसे ने कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहींबल्कि राजनीतिक कारणों से की। आप अगर वक़्त दें तो मैं बताऊं कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?” दरअसलगोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता थाइसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार थेलेकिन उन्हें जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादियों आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थीलेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधी की हत्या पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।

रविवार, 10 नवंबर 2019

शिवसेना का ट्रांसफॉर्मेशन – पहले कट्टर मराठीवाद, फिर कट्टर हिंदुत्व और अब सेक्युलर शिवसेना

शिवसेना का ट्रांसफॉर्मेशन – पहले कट्टर मराठीवाद, फिर कट्टर हिंदुत्व और अब सेक्युलर शिवसेना

हरिगोविंद विश्वकर्मा
महाराष्ट्र की राजनीति के अगर मौजूदा हालात पर नज़र डालें तो साफ़ है कि अगर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस ने शिवसेना का समर्थन किया तो शिवसेना का राज्य में अपना मुक्यमंत्री बनाने का सपना तीसरी बार और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की मौत के बाद पहली बार साकार कर सकती है। जो भाजपा के साथ गठबंधन में रहते संभव नहीं था। हालांकि इसके लिए इस भगवा पार्टी को भगवा राजनीति की ही तिलांजलि देनी होगी, जो उसकी अब तक पहचान रही है।

भारत में क़रीब सात दशक के लोकतांत्रिक इतिहास में कई दलों ने अपनी विचारधारा में समय के साथ बदलाव किए। इसकी जीती जागती मिसाल शिवसेना है। अपने जन्म के समय से मराठी मानुस का नारा देकर पहले दक्षिण भारतीयों फिर उत्तर भारतीयों के खिलाफ जहर उगलने वाली शिवसेना बाद में कट्टर हिदुत्ववाद का रास्ता अख़्तियार कर लिया और अब भगवा की पैरोकार यह राजनीतिक पार्टी राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा वाले दो दलों एनसीपी और कांग्रेस का समर्थन लेने जा रही है।

दरअसल, शिवसेना का जन्म 19 जून 1966 को कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने कांग्रेस नेता महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक की शह पर किया था। बाद में कांग्रेस ने शिवसेना का इस्तेमाल मुंबई ट्रेड यूनियान्स खासकर मिलों में कम्युनिस्टों के वर्चस्व को ख़त्म करने लगी। इससे बाल ठाकरे की ताक़त बढञने लगी। इसी बीच ठाकरे की कांग्रेस से मतभेद हो गया और शिवसेना कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित हुई। बहराहल, पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशक में शिवसेना ने मराठी मानुस का नारा दिया और दक्षिण भारतीयों के खिलाफ हमले की आक्रामक मुहिम शुरू की। इसके बाद शिवसेना के निशाने पर उत्तर भारतीय खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग आ गए। शिवसेना के लोग उनको परप्रांतीय कहकर उन पर हमला करने लगे। उत्तर भारतीयों पर शिवसेना के हमले की बात उत्तर भारतीय अभी तक नहीं भूले हैं।

बहराहल, अयोध्या में भगवान श्री राम के मंदिर के लिए राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू होने के बाद सहसा शिवसेना में बदलाव आया। उसके लिए कट्टर मराठीवाद से भी ऊपर कट्टर हिंदुत्वाद हो गया। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने घोषित तौर पर कट्टर हिदुत्व का रास्ता अपना लिया। इसके बाद कई मामलों में शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर भाजपा से भी ज़्यादा आक्रामक रही। सीनियर ठाकरे और उनका मुखपत्र सामना देश के मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलते रहे। इसीलिए महाराष्ट्र ही नहीं देश के हिंदू उनके नाम के आगे हिदुं हृदय सम्राट का अलंकरण लगाया जाने लगा। बाल ठाकरे तो यहां तक दावा करते रहे कि अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को कारसेवा में गए शिवसेना कार्यकर्ताओं ने ही ढहाया था। इसके बाद से ही देश में शिवसेना हिंदुत्व की प्रतिनिधि दल रहा है। लोग शिवसेना को भाजपा से ज्यादा कट्टर हिदुत्ववाली पार्टी मानते थे।

बाल ठाकरे के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उनके बेटे उद्धव ठाकरे भी कट्टर हिंदुत्व के रास्ते पर ही चलते रहे। वह भाजपा पर राम मंदिर निर्माण की राह में आई बाधाओं के जानबूझकर दूर न करने का भी आरोप लगाते रहे। इतना ही नहीं उद्धव ने अपने बेटे आदित्य ठाकरे के साथ अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण पर जोर देने के लिए पिछले वर्ष अयोध्या का दौरा किया। उनके उस दौरे को खूब हाइप भी मिला, क्योंकि ठाकरे परिवार का कोई सदस्य पहली बार महाराष्ट्र के बाहर निकला था।

यह संयोग ही है कि जब अयोध्या विवाद का सैद्धांतिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने हल कर दिया और रामलला के विवादित स्थल को हिंदुओं को राम मंदिर बनाने के लिए सौंप दिया, ठीक उसी समय शिवसेना उस मुकाम पर पहुंच गई जब उसे कट्टर हिंदुत्व या अपना महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री दोनों में से एक का चयन करना है। एनसीपी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने पर निश्चित तौर पर शिवसेना को कट्टर हिंदुत्व का मार्ग छोड़ना पड़ेगा। शिवसेना अब अपने उस नारे को भी छोड़ना पड़ेगा, जिसमें वह अब तक अयोध्या के बाद काशी और मथुरा की बात करती रही है।

इस तरह भाजपा और शिवसेना के बीच 1980 के दशक के अंत से चला आ रहा गठबंधन रविवार की शाम भाजपा के राज्य में सरकार न बनाने के फ़ैसले के साथ टूट गया। इसीलिए भाजपा ने राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी को बताया कि शिवसेना के कथित बेईमानी और गठबंधन का धर्म निभाने से इनकार करने के कारण वह राज्य में सरकार नहीं बनाने का फैसला किया है। इसके बाद राज्यपाल ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी शिवसेना से पूछा कि क्या वह राज्य में सरकार के गठन के लिए इच्छुक है और इसके लिए उसके पास विधायक बल है?

शिवसेना प्रवक्ता और उद्धव ठाकरे के लेफ़्टिनेंट संजय राऊत ने कहा कि पार्टी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के हवाले से कहा कि शिवसेना सरकार बनाएंगी। वैसे भी भाजपा के सरकार बनाने से इनकार करने के बाद शिवसेना के लिए
शिवसेना के पास केवल 56 विधायक हैं। यानी सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 88 विधायकों के समर्थन के लिए शिवसेना सेक्यूलर दलों एनसीपी -कांग्रेस पर निर्भर रहेगी। यानी शिवसेना को अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपने दो परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों एनसीपी और काग्रेस का समर्थन लेना पड़ेगा। ये दोनों दल शिवसेना को तभी समर्थन देंगे जब शिवसेना कट्टर हिदुत्ववाद के अपने एजेंडे को ठंडे बस्ते में डाल देगी। 

इन परिस्थियों में यहां अब सवाल उठेगा कि बाल ठाकरे की शिवसेना उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे के अनुवाई में सत्ता के लिए अपने कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता वाक़ई छोड़ देगी और सेक्यूलर शब्द को हमेशा छद्म कहने वाली शिवसेना सेक्यूलर रास्ता अख़्तियार करेगी? शिवसेना सत्ता के लिए अगर कट्टर हिंदुत्ववाद का मार्ग छोड़कर सेक्यूलर शिवसेना में ट्रांसफॉर्म होती है तो यह महाराष्ट्र ही नहीं देश की राजनीति में बहुत बड़ा परिवर्तन होगा।

वैसे भाजपा और शिवसेना का गठबंधन अवसरवादिता की मिसाल रहा है। इसलिए भारत की राजनीति का यह सबसे कम भरोसेमंद गठबंधन रहा। जब यह गठबंधन शुरू हुआ तो शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में थी। जब तब बाल ठाकरे जिंदा थे, तब तक शिवसेना गठबंधन में बड़े भाई के ही किरदार में रही, लेकिन उनके निधन के बाद शिवसेना सिमटने लगी और 2014 के बाद भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गई। इसे उद्धव ठाकरे कभी दिल से स्वीकार नहीं कर पाए।

अगर 2014 के महाराष्ट्र चुनाव प्रचार के दौरान उद्धव ठाकरे के भाषण को फिर से सुनें, तो यह साफ लगता है कि उनके मन में भाजपा और भाजपा शीर्ष नेताओं के खिलाफ बहुत अधिक विष भरा हुआ है, जिसे वह जब भी मौका मिलेगा तो उगल देंगे। इसीलिए इस बार विधान सभा चुनाव में जब भाजपा पिछली बार की बहुमत से 23 की तुलना में 40 सीट पिछड़ गई, तो उद्धव को 2014 के चुनाव और उसके बाद छोटे भाई का दर्जा स्वीकार करने के अपमान का बदला लेने का स्वर्णिम मौका मिल गया।

शिवसेना दरअसल, 2014 के बाद से ही इस मौक़े को तलाश रही थी, चूंकि भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में पहुंच गई थी, लिहाज़ा, वह वेट एंड वॉच के मोड में रही। मौके की तलाश में ही 2014 में छोटे भाई भाजपा को 127 सीट से अधिक देने को तैयार न होने वाली शिवसेना 2019 में खून का घूंट पीकर 144 की बजाय 124 सीट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गई।

उद्धव ठाकरे और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत जानते थे कि कांग्रेस-एनसीपी साथ चुनाव लड़ रहे हैंलिहाजाभाजपा के साथ गठबंधन करके लड़ने पर ही वह विधान सभा में सम्मानजनक सीट हासिल कर सकती है। अन्यथा वह बहुत ज्यादा घाटे में जा सकती है। उसके सामने 2014 का उदाहरण था, जब चुनाव में पूरी ताक़त लगाने के बावजूद वह 63 सीट से आगे नहीं बढ़ पाईजबकि भाजपा उसके लगभाग दोगुना यानी 122 सीट जीतने में सफल रही। इसीलिए फिफ्टी-फिफ्टी फॉर्मूले की बात करने वाले उद्धव और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत भाजपा से केवल 124 सीट मिलने पर चुप रहे। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान, जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे नेता बोल रहे थे कि इस बार चुनाव देवेंद्र फडवीस के नेतृत्व मे लड़ा जा रहा है और वहीं अगले पांच साल मुख्यमत्री रहेंगे, तब भी पिता-पुत्र ने खामोश रहने में अपना हित समझा।

24 अक्टूबर का दिन उद्धव ठाकरे और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत के लिए बदला लेने का दिन था। चुनाव परिणाम में भाजपा की 18 सीट कम होने से दोनों नेता अचानक से फिफ्टी-फिफ्टी फॉर्मूले का राग आलापने लगे और ढाई-ढाई साल का मुख्यमंत्री और सरकार में बराबर मंत्रालय की मांग करने लगे। वह जानते थे कि भाजपा पिछली बार की तरह मजबूत पोजिशन में नहीं है, वह शिवसेना के समर्थन के बिना सरकार नहीं बना सकती। अचानक से शिवसेना की बारगेनिंग पावर बहुत बढ़ गई थी।

महाराष्ट्र में भगवा गठबंधन में ‘बड़ा भाई’ बनने की हसरत पाले उद्धव ठाकरे की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थी। वह बार-बार हवाला दे रहे हैं कि उन्होंने अपने पिता और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे को वचन दिया है कि महाराष्ट्र में एक न एक दिन शिवसैनिक को मुख्यमंत्री बनाकर ही रहेंगे। हां इसके लिए उन्हें अपने कट्टर हिंदूत्वाद के एजेंडे को छोड़ना पड़ेगा जो शिवसेना की एक तरह से पहचान रही है। 

क्या शिवसेना कांग्रेस- एनसीपी के साथ जाने के लिए कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता छोड़ देगी?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के बीच 1980 के दशक के अंत से शुरू हुए रोमांस का शिवसेना की हठधर्मिता के चलते क़रीब-क़रीब अंत हो गया है। इसीलिए भाजपा ने राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी को रविवार की शाम बता दिया कि महागठबंधन के प्रमुख सहयोगी शिवसेना के गठबंधन का धर्म निभाने से इनकार करने के कारण वह राज्य में सरकार बनाने की स्थिति में फिलहाल नहीं है। इस साथ ही भाजपा नेताओं ने शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस के संभावित गठबंधन को शुभकामनाएं दी।

भाजपा के सरकार बनाने से असमर्थता जताने के तुरंत बाद शिवसेना प्रवक्ता और उद्धव ठाकरे के लेफ़्टिनेंट संजय राऊत ने कहा कि अगर उद्धव ठाकरे बोले हैं कि महाराष्ट्र का अगला मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा तो मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा ही। यानी भाजपा के सरकार बनाने से इनकार करने के बाद शिवसेना के लिए अपना मुख्यमंत्री बनाने की स्वर्णिम मौका है। लेकिन उसके पास केवल 56 विधायक हैं। यानी सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 88 विधायक एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन के होंगे। 

इसका मतलब शिवसेना को अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपने दो परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों एनसीपी और काग्रेस का समर्थन लेना पड़ेगा। ऐसे में यहां अब सवाल यह उठता है कि हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे की शिवसेना उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे के अनुवाई में सत्ता के लिए कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता छोड़ देगी और सेक्यूलर शब्द को ‘छद्म’ कहने वाली शिवसेना सेक्यूलर रास्ता अख़्तियार करेगी? अगर शिवसेना सत्ता के लिए कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता छोड़कर ‘सेक्यूलर शिवसेना’ में ट्रांसफॉर्म होगी तो यह महाराष्ट्र की राजनीति में बहुत बड़ा परिवर्तन होगा।

राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू होने के बाद शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने कट्टर हिदुत्व का रास्ता अपना लिया था। बाल ठाकरे तो यहां तक दावा करते रहे कि अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को शिवसेना कार्यकर्ताओं ने ही ढहाया। इसके बाद से ही शिवसेना देश में हिंदुत्व की प्रतिनिधि दल रहा है। कई मामलों में शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी से भी ज़्यादा आक्रमाक रही है। सीनियर ठाकरे और उनका मुखपत्र सामना देश के मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलते रहे। इसीलिए महाराष्ट्र ही नहीं देश के हिंदू उनके नाम के आगे ‘हिदुं हृदय सम्राट’ का अलंकरण लगाया जाने लगा।

ठाकरे के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव भी कट्टर हिंदुत्व के रास्ते पर चलते रहे। वह भाजपा पर राम मंदिर निर्माण की राह में आई बाधाओं के जानबूझकर दूर न करने का भी आरोप लगाते रहे। इतना ही नहीं उद्धव अपने बेटे के साथ अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण पर जोर देने के लिए पिछले वर्ष अयोध्या का दौरा किया। उनके उस दौरे को खूब हाइप भी मिला, क्योंकि ठाकरे परिवार का कोई सदस्य पहली बार महाराष्ट्र के बाहर निकला था।

यह संयोग ही है कि जब अयोध्या विवाद का सैद्धांतिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने हल कर दिया और रामलला के विवादित स्थल को हिंदुओं को राम मंदिर बनाने के लिए सौंप दिया, ठीक उसी समय शिवसेना उस मुकाम पर पहुंच गई जब उसे कट्टर हिंदुत्व या अपना महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री दोनों में से एक का चयन करना है। एनसीपी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने पर निश्चित तौर पर शिवसेना को कट्टर हिंदुत्व का मार्ग छोड़ना पड़ेगा। शिवसेना अब अपने उस नारे को भी छोड़ना पड़ेगा, जिसमें वह अयोध्या के बाद काशी और मथुरा की बात करती रही है।

अगर 2014 के महाराष्ट्र चुनाव प्रचार के दौरान उद्धव ठाकरे के भाषण को फिर से सुने तो यह साफ हो जाएगा कि उनके मन में भाजपा और भाजपा नेताओं के खिलाफ बहुत अधिक विष भरा है, जिसे वह जब भी मौका मिलेगा तो उगल देंगे। इसीलिए जब इस बार विधान सभा चुनाव में भाजपा पिछली बार की 23 की तुलना में 40 सीट पिछड़ गई तो उद्धव को 2014 के चुनाव और उसके बाद छोटे भाई का दर्जा स्वीकार करने के अपमान का बदला लेने का मौका मिल गया।

शिवसेना दरअसल, 2014 के बाद से ही मौका तलाश रही थी, चूंकि भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में पहुंच गई थी, लिहाज़ा, वह वेट एंड वॉच के मोड में रही। मौके की तलाश में ही 2014 में छोटे भाई ‘भाजपा’ को 127 सीट से अधिक देने को तैयार न होने वाली शिवसेना 2019 में 144 की बजाय 124 सीट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गई।

शिवसेना जानती थी कि भाजपा के साथ गठबंधन बनाकर लड़ने पर ही वह विधान सभा में सम्मानजनक सीट हासिल कर सकती है। उसके सामने 2014 का उदाहरण था, जब चुनाव में पूरी ताक़त लगाने के बावजूद शिवसेना 63 सीट से आगे नहीं बढ़ पाई, जबकि भाजपा उसके लगभाग दोगुना यानी 122 सीट जीतने में सफल रही, इसीलिए फिफ्टी-फिफ्टी फॉर्मूले की बात करने वाले उद्धव और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत 124 सीट मिलने पर चुप रहे।

दरअसल, शिवसेना नेता जानते थे कि कांग्रेस एनसीपी का गठबंधन हो गया है, लिहाजा, उसके लिए भाजपा के साथ लड़ना लाभदायक होगा। अन्यथा वह बहुत ज्यादा घाटे में जा सकती है। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान, जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे नेता बोल रहे थे कि इस बार चुनाव देवेंद्र फडवीस के नेतृत्व मे लड़ा जा रहा है और वहीं अगले पांच साल मुख्यमत्री रहेंगे, तब भी पिता-पुत्र ने खामोश रहने में अपना हित समझा।

24 अक्टूबर का दिन उद्धव ठाकरे और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत के लिए बदला लेने का दिन था। चुनाव परिणाम में भाजपा की 18 सीट कम होने से दोनों नेता अचानक से फिफ्टी-फिफ्टी फॉर्मूले का राग आलापने लगे और ढाई-ढाई साल का मुख्यमंत्री और सरकार में बराबर मंत्रालय की मांग करने लगे। वह जानते थे कि भाजपा पिछली बार की तरह मजबूत पोजिशन में नहीं है, वह शिवसेना के समर्थन के बिना सरकार नहीं बना सकती। अचानक से शिवसेना की बारगेनिंग पावर बहुत बढ़ गई।


महाराष्ट्र में भगवा गठबंधन में ‘बड़ा भाई’ बनने की हसरत पाले उद्धव ठाकरे की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थी। इसीलिए मुंबई की वरली सीट से आदित्य ठाकरे चुनाव मैदान में उतारे और विधायक चुने गए। प्रमुख उद्धव ठाकरे बार-बार हवाला दे रहे हैं कि उन्होंने अपने पिता और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे को वचन दिया है कि महाराष्ट्र में एक न एक दिन शिवसैनिक को मुख्यमंत्री बनाकर ही रहेंगे।

दरअसल, 1988-89 में जब प्रमोद महाजन और बाल ठाकरे ने भाजपा और शिवसेना के बीच गठबंधन का फैसला किया तब भाजपा को राज्य में कोई ख़ास जनाधार नहीं था। उस समय शिवसेना बड़े भाई और भाजपा छोटे भाई के किरदार में थी। 1995 में जब भगवा गठबंधन की सरकार बनी तब शिवसेना के मनोहर जोशी मुख्यमंत्री और भाजपा के गोपीनाथ मुंडे उपमुख्यमंत्री बने थे। यह सिलसिला 2014 के लोकसभा चुनाव तक जारी रहा, लेकिन 2014 के विधान सभा चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा बड़े भाई के किरदार में आ गई। इस अदला-बदली को उद्धव मन से कभी स्वीकार नहीं कर सके। अब भाजपा से बदला लेने का मौका मिल तो अवसर क्यों चूकते। यानी पहले मराठी मानुस, फिर कट्टर हिंदुत्व की राह पर चलने वाली शिवसेना अब एनसीपी और कांग्रेस के साथ धर्मनिरपेक्ष हो जाएगी।