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शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

पहले ही हो सकते थे पीटर मुखर्जी अरेस्‍ट, क्या रोका गया राकेश मारिया को..?

मीडिया टायकून और स्टार इंडिया के पूर्व सीईओ प्रीतम ऊर्फ पीटर मुखर्जी का अपनी पत्नी इंद्राणी मुखर्जी के परिवार या उसके द्वारा शीना बोरा की फिल्मी स्टाइल में की गई सनसनीखेज हत्या की कोई जानकारी न होने का तर्क पहले मुंबई पुलिस के गले भी नहीं उतरा था और सीबीआई भी उनसे इंप्रेस्‍ड नहीं हुई और देश की सबसे प्रतिष्ठित इनवेस्टिगेटिंग एजेंसी ने आख़िरकार पीटर को शीना बोरा हत्याकांड में गुरुवार की शाम गिरफ़्तार कर लिया। पीटर पर शीना बोरा हत्याकांड में जानकारी छुपाने और सबूत नष्ट करने जैसे संगीन आरोप लगाए गए हैं। अब उनके बेटे और शीना के लिव-इन पार्टनर राहुल मुखर्जी से सघन पूछताछ की जा रही है।
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पीटर मुखर्जी गिरफ़्तारी के बाद सवाल उठने लगा है कि चूंकि वह शुरू से बार-बार अपने बयान बदल रहे थे और उनकी भूमिका भी संदिग्ध हो गई थी, इसके बावजूद तत्कालीन मुबई पुलिस कमिश्नर राकेश मारिया ने उन्हें गिरफ़्तार क्यों नहीं किया? मारिया ख़ुद दो हफ्ते से ज़्यादा समय तक पीटर से पूछताछ ही करते रहे। हैरानी वाली बात है कि मारिया अपने ट्रांसफ़र की पूर्व संध्या तक पूछताछ ही करते रहे। इन परिस्थियों में सिर्फ़ दो ही सवाल उठ रहे हैं कि या तो मारिया पीटर को गिरफ़्तार नहीं करना चाहते थे या फिर उन्हें पीटर को गिरफ़्तार नहीं करने दिया गया और ट्रांसफर कर दिया गया। हालांकि मारिया के ट्रांसफर के एक दिन पहले देर रात तक ख़बर आईं कि पीटर मुखर्जी को पुलिस गिरफ्तार करने वाली है। यहां एक बात स्पष्ट है कि मारिया ने साफ़-साफ कहा भी था, पीटर मुखर्जी को क्लीन चिट नहीं दी गई है। अभी वह शक के दायरे में हैं।
दरअसल,  केस की शुरूआती जांच के दौरान पीटर से लगातार पूछताछ से ही साबित हो गया था कि पीटर गोलमोल जवाब दे रहे हैं जो पुलिस के गले नहीं उतर रहा है। इसी बीच बीजेपी के सांसद और पूर्व पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह का बयान आ गया था कि मारिया की पीटर से दोस्ती है। हालांकि इस पर मारिया ने सफ़ाई दी थी कि वह शीना हत्याकांड से पहले तक पीटर से मिले तक नहीं थे। मारिया ने यह भी कहा था कि अगर उन्हें इस केस को दबाना होता तो जो मर्डर तीन साल तक ओपन ही नहीं हुआ, उसे वह अब क्यों ओपन करते। फिर मारिया ने पीटर को अरेस्ट क्यों नहीं किया। अगर उनके ऊपर पीटर को गिरफ़्तार न करने का दबाव था, तो उन्हें इसका खुलासा करना चाहिए।
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दरअसल, शीना बोरा मर्डर केस में इंद्राणी की गिरफ़्तारी पर हैरानी का इज़हार करते हुए पीटर ने मीडिया से कहा था, "मेरी बीवी की छोटी बहन है। ऐसा मुझे 15 साल से पता है। मुझे मालूम नहीं था कि वो बहन नहीं बेटी है। मैं इंद्राणी के अभिभावकों से कभी मिला नहीं हूं। प्रॉपर्टी का विवाद है भी या नहीं, इस बारे में मुझे पता नहीं है। शीना और इंद्राणी के बीच तकरार हुई यह भी मुझे नहीं मालूम था। शीना का मेरे बेटे के साथ अफेयर था, लेकिन मैंने इसे अहमियत नहीं दी। इसके बाद से शीना मेरे पास कभी नहीं आई। बाद में इंद्राणी ने मुझे बताया गया था कि उसने शीना को पढ़ाई के लिए अमेरिका भेज दिया। हालांकि मेरे बेटे ने मुझे बताया था कि शीना अमेरिका से नहीं लौटेगी।“
मुख्य आरोपी इंद्राणी अपने पति पीटर से 17 साल छोटी है। पीटर से शादी के समय वह 30 साल की थी और पीटर 47 साल के थे। शादी से पहले इंद्राणी ने अपनी बेटी और बेटे के उम्र के शीना और मिखाइल बोरा को क्रमशः अपनी बहन और भाई बताकर पीटर से इंट्रोड्यूस किया था। पीटर इंद्राणी से बेइंतहां प्यार करते थे, इसलिए उसकी बात पर आंख मूंदकर भरोसा कर लिया, क्योंकि वह उनकी जीवनसंगिनी बनने जा रही थी। पीटर 12 साल तक इंद्राणी के पति के रूप में उसके साथ रहे, लेकिन इंद्राणी के शीना और मिखाइल से संबंधों से अनजान ही रहे।
दरअसल, वह इस रहस्य से महीने भर या साल दो साल अनभिज्ञ रह सकते थे। लेकिन 12 साल तक अंधेरे में रहने की बात किसी के गले नहीं उतर रही थी। दरअसल, हाईप्रोफाइल शीना हत्याकांड का सबसे बड़ा राज़ यही था।  लोग सोच रहे थे, वह आदमी जो एक विदेशी टीवी चैनल्स समूह को देश में स्टेबलिश्ड करने और नंबर वन बनाने की क्षमता रखता है। हज़ारों लाखों लोगों से मिलता हो और उनसे काम लेता हो। वहीं आदमी इतने लंबे समय तक अपनी ही बीवी के बच्चों की हक़ीक़त क्या वाक़ई नहीं जान पाया?
यही तर्क पहले मुंबई पुलिस के गले नहीं उतरा और अब सीबीआई के। इसीलिए शीना बोरा हत्याकांड की में पीटर को जानकारी छिपाने और सबूत मिटाने जैसे आरोपों के बिना पर गिरफ्तार कर लिया। सीबीआई ने पीटर को गिरफ्तार करने का फैसला करने से पहले उनसे कई घंटे पूछताछ की। बाद में सीबीआई प्रवक्ता ने कहा कि जांच के दौरान पीटर का नाम सामने आया और उन्हें गिरफ्तार किया गया है। कहा जा रहा है कि शीना बोरा हत्याकांड की जानकारी पीटर को थी, लेकिन उन्होंने उसे पुलिस के साथ शेयर नहीं किया। दरअसल, सीबीआई के सामने पीटर के बयानों में कथित विरोधाभास के बाद उनको गिरफ्तार करने का फैसला किया गया।
Rakesh Maria thinking for resigning after trasnfer
यह केस 29 सितंबर को सीबीआई को सौंपा गया था और 50 दिन की जांच के बाद सीबीआई ने इंद्राणी मुखर्जी, उनके पूर्व पति संजीव खन्ना और ड्राइवर श्याम राय के ख़िलाफ़ 19 नवंबर को करीब हज़ार पन्नों की चार्जशीट दायर की। इस केस में 150 गवाह हैं। चार्जशीट में सीबीआई ने कहा है कि इंद्राणी ने रात में शीना का शव अपने घर पर रखा और फिर उसे ठिकाने लगाने के लिए अगली सुबह रायगढ़ के जंगल ले गई। इस केस में सीबीआई इंद्राणी के ड्राइवर को सरकारी गवाह बना सकती है, क्योंकि उसका बयान 164 के तहत दर्ज कराया गया है।
शीना के जीवित रहते इंद्राणी उसे बेटी की बजाय बहन बता कर दुनिया के सामने पेश किया करती थी और उसकी हत्या के बाद इंद्राणी ने कथित रूप से उसके दोस्तों और परिवार वालों को बताया कि वह पढ़ाई करने अमेरिका चली गई है। इस मामले की जांच के दौरान पता चला कि शीना रिश्ते में अपने सौतेला भाई राहुल मुखर्जी से प्रेम किया करती थी, जो कि पीटर मुखर्जी की पहली शादी हुआ बेटा था। शुरुआती जांच के मुताबिक, इंद्राणी दोनों के इस रिश्ते के खिलाफ थी और यही शीना के कत्ल की वजह बनी।
आपको बता दें कि 24 साल की शीना बोरा का शव हत्या के तीन महीने बाद रायगढ़ के जंगल में मिला था। इस मामले में शीना की मां इंद्राणी पर आरोप है कि उसने अपने पूर्व पति संजीव खन्ना और ड्राइवर श्यामवर राय के साथ मिलकर अपनी बेटी की गला घोंट कर हत्या कर दी और फिर उसका शव जंगल ले जाकर जला दिया था। इंद्राणी, खन्ना और राय फिलहाल यहां न्यायिक हिरासत में बंद हैं।

बुधवार, 28 अक्टूबर 2015

कैसे बना राजेंद्र सदाशिव निखल्जे, छोटा राजन? क्‍यों हुई दाऊद से दुश्‍मनी?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अकसर लोग यह सोचकर हैरान होते हैं कि कभी एक दूसरे के जिगरी दोस्त रहे मुंबई के दो सबसे बड़े डॉन छोटा राजन (Chhota Rajan) और दाऊद इब्राहिम (Dawood Ibrahim) आख़िर एक दूसरे के ख़ून के प्यासे कैसे हो गए। कई लोग यह भी मानते हैं कि इनकी दोस्ती में दरार 1993 में मुंबई में सीरियल ब्लास्ट के बाद पड़ी, लेकिन यह सच नहीं है। अनगिनत लोगों को असमय मौत की नींद सुलाने वाले इन दोनों सरगनाओं की दोस्ती के दुश्मनी में बदलने की दास्तां बड़ी रोचक है और रोमांचक भी।

वस्तुतः, राजेंद्र सदाशिव निखल्जे उर्फ छोटा राजन उर्फ नाना की कहानी तिलकनगर चेंबूर में एक दो मंज़िली इमारत में शुरू हुई थी, जहां बाद में सह्याद्रि क्रीड़ा संघ की स्थापना हुई। यहीं बीएमसी में काम करने वाले सदाशिव तीन बेटों और दो बेटियों समेत सात लोगों के परिवार के साथ रहते थे। राजन का मन पढ़ने में बिल्कुल नहीं लगता था। पांचवी में फेल होने पर उसने स्कूल छोड़ दिया। बचपन से ही उसे मारधाड़ वाली फिल्में बहुत पसंद थी, क्योंकि वह ख़ुद भी मारपीट करता था। एक दिन उसने एक पुलिस वाले की लाठी छीनकर सबके सामने उसे बुरी तरह पीट दिया। इस जुर्म में वह गिरफ़्तार हुआ, लेकिन ज़मानत किसी और ने नहीं, बल्कि तत्कालीन डॉन राजन नायर (Rajan Nayar aka Bada Rajan) उर्फ अन्ना राजन ने ली।

नये छोकरों पर पैनी नज़र रखने वाला अन्ना ताड़ गया था कि इस छोकरें में दम है। दरअसल, राजेंद्र उर्फ राजन के अपराधों की चर्चा अन्ना तक पहुंच चुकी थी। ज़मानत लेने के बाद राजन विधिवत अन्ना के गैंग में शामिल हो गया। उसे साहकार सिनेमा घर पर टिकट ब्लैक करने का काम मिला। गैंग में दो राजन होने से लोगों को असुविधा होने लगी। लिहाजा, अन्ना को बड़ा राजन और राजेंद्र को छोटा राजन कहा जाने लगा। राजन के टपोरी से डॉन बनने में गुरु अन्ना का बड़ा योगदान रहा। छोटा राजन बहुत जल्दी अन्ना राजन गैंग में नंबर दो हो गया।

अस्सी के दशक के शुरू में शक्तिशाली करीम लाला के पठान गिरोह (Pathan Gang) को दाउद इब्राहिम कासकर और उसके साथियों से चुनौती मिलने लगी। पठानों ने दाऊद के भाई साबिर इब्राहिम को धोखे से मार दिया। बदला लेने में अन्ना ने दाऊद की मदद की और पठान गैंग के आमिरज़ादा की हत्या की सुपारी ले ली। 1983 में आमिर की कोर्ट में जज के सामने हत्याकर दी गई। बदला लेते हुए पठानों ने 24वें दिन अन्ना को एस्प्लानेड कोर्ट के बाहर दिन दहाड़े मार दिया। अन्ना के बाद राजन इस गैंग का सरगना हो गया। इस दौरान उसका परिचय दाऊद से हो चुका था। राजन ने अन्ना की हत्या की सुपारी लेने वाले अब्दुल कुंजू को मारने का प्लान बनाया।

इसी बीच दाऊद का राजन के घर आना-जाना शुरू हुआ। राजन पड़ोस में रहने वाली अपने बचपन की दोस्त हमउम्र सुताजा से प्यार करता था। दाऊद सुजाता को बहन कहने लगा और सुजाता उसे राखी बांधने लगी। सुजाता के कारण राजन और दाऊद की दोस्ती इमोशनल हो गई। यही इमोशनल रिश्ता दोनों को एक दशक तक दोस्ती की डोर में बंधा रहा। बहरहाल, राजन पर दाऊद बहुत ज़्यादा भरोसा करने लगा, जिससे राजन डी-कंपनी में नबर दो हो गया। पठान गैंग के समद खान को मारने में दाऊद के साथ छोटा राजन अपने साथियों के साथ था। 1986 में दाऊद के दुबई पलायन करने के बाद डी-कंपनी को संभालने की ज़िम्मेदारी छोटा राजन पर आ गई।

बहरहाल, 1987 में राजन भी दुबई पहुंच गया और डी-गैंग का कामकाज उसे सौंप दिया गया। अघोषित तौर पर वह सिंडिकेट में नंबर दो की हैसियत पा गया। उसने नए-नए छोकरों की भर्ती की, जिसमें साधु शेट्टी, मोहन कोटियन, गुरु साटम, रोहित वर्मा, भारत नेपाली, ओमप्रकाश सिंह जैसे शार्प शूटर थे। कहा जाता है, उसके रिजिम में डी-कंपनी में गुंडों की तादाद पांच हज़ार पार कर गई। उसने प्रोटेक्शन मनी यानी हफ़्ता वसूलने का काम शुरू किया, जिसका भुगतान न करने वाले की हत्या कर दी जाती थी। लिहाज़ा, ख़ौफ़ से व्यवसायी, फ़िल्मकार और बिल्डर एक तय राशि का भुगतान हर महीने करने लगे।

कई सीनियर क्राइम रिपोर्टर कहते हैं कि राजन उर्फ नाना ने डी-केंपनी के कामकाज को कॉरपोरेट रूप दे दिया। दाऊद उसकी कार्य-शैली का कायल था। कंपनी का कोई भी ऑपरेशन राजन के अप्रूवल के बिना नहीं होता था। राजन ने दाऊद गैंग को दुनिया का सबसे संपन्न, ताक़तवर और ख़तरनाक क्राइम सिंडिकेट बना दिया। दाऊद गिरोह की ताक़त समकालीन रशियन और इज़राइल माफिया गिरोहों से भी ज़्यादा बढ़ गई। राजन रिमोट कंट्रोल से अंडरवर्ल्ड में स्मगलिंग, हफ़्ता वसूली, हवाला और कान्ट्रेक्ट किलिंग के काले धंधे को चलाने लगा। सिंडिकेट ड्रग और हथियार तस्करी के धंधे में भी था, लेकिन हफ़्ता वसूली और रीयल इस्टेट से सबसे ज़्यादा पैसे बरस रहे थे।

सन् 1988 ख़त्म होते होते शकील अहमद बाबू उर्फ छोटा शकील भी दुबई पहुंचा। अब दाऊद के दोनों सबसे वफ़ादार साथी उसके पास थे। जैसा कि होता है, तरक़्की करने वाले हर शख़्स से कोई न कोई जलने वाला पैदा हो जाता है। ऐसा राजन के साथ भी हुआ। शकील के दुबई आते ही टकराव शुरू हो गया और शकील की मौजूदगी में डी कंपनी में राजन विरोधी लॉबी मज़बूत होने लगी. शरद शेट्टी और सुनील सावंत उर्फ सावत्या जैसे लोगों को नाना का बढ़ता क़द रास नहीं आया। किसी भी ऑपरेशन के लिए राजन से मंजूरी लेना उन्हें नागवार लगता था। लिहाज़ा वे दाऊद का कान भरने लगे। हालांकि दाऊद पर कोई असर नहीं हुआ, क्योंकि राजन उसका सबसे वफादार था और दोनों का रिश्ता भावानात्मक था।

राजन और दाऊद के रिश्ते में संदेह की दीवार सबसे पहले तब खड़ी हुई, जब राजन ने मई 1992 में शिवसेना के कॉरपोरेटर खीमबहादुर थापा की हत्या दाऊद से पूछे बिना करवा दी। इससे पहले दाऊद के शूटर ने उसके साथी की हत्या कर दी थी। इसी दौरान सावत्या और साटम के बीच मतभेद गहरा गए। शकील ने सावत्या का पक्ष लिया तो राजन ने साटम का साथ दिया। उसी समय अरुण गवली गिरोह ने ऐसा काम कर दिया जिससे दाऊद-राजन की दोस्ती में दरार पड़ गई। 26 जुलाई 1992 को नागपाड़ा में अरब गली के होटेल क़ादरी के सामने दाऊद के जीजा इब्राहिम इस्माइल पारकर और उसके ड्राइवर की हत्या गवली गिरोह के शूटरों ने कर दी। गवली ने पारकर को मारकर अपने भाई पापा गवली और अशोक जोशी की हत्या का बदला लिया। गवली ने दाऊद को भावनात्मक दर्द देने के लिए उसकी सबसे प्यारी हसीना पारकर के शौहर को निशाना बनाया। यह दाऊद के लिए बड़ा आघात था। हत्या का बदला लेने की ज़िम्मेदारी गैंग में नंबर दो होने के नाते छोटा राजन पर थी। उसने छोकरों से कह दिया था कि हत्यारे शैलेश हल्दनकर और बिपिन शेरे को जल्द से जल्द मार दिया जाए। मगर जेजे अस्पताल में उन तक पहुंचना बहुत कठिन था।

छोटा राजन ने दाऊद से कहा, “भाई पारकर भाई के मर्डर का बदला मैं लूंगा। हत्यारे जेजे में हैं और वहां कड़ी सिक्योरिटी है। जिससे अपने शूटर नहीं पहुंच पा रहे हैं। मगर जिस दिन डिस्चार्ज होंगे, वह दिन उनका आख़िरी दिन होगा। राजन के विरोधी दाऊद से उसकी शिकायत करने लगे। छोटा शकील एक दिन सेठ यानी दाऊद के पास पहुंचा और कहा, “बॉस, बदला लेने को लेकर नाना सीरियस नहीं। लिहाज़ा बदला लेने का एक मौक़ा मुझे दिया जाए। दाऊद पल सोचता रहा, फिर पहली बार छोटा राजन से बिना पूछे ही गो अहेडकह दिया। भाई की इजाज़त मिलते ही शकील के आदमी संतोष शेट्टी उर्फ अन्ना और सावत्या मुंबई चल दिए। दो दिन के अंदर बदले की कार्रवाई को अंतिम रूप दे दिया गया। 12 सितंबर 1992 को बृजेश सिंह, सुभाष ठाकुर, बच्ची पांडेय, सावत्या, श्याम गरिकापट्टी, श्रीकांत राय और विजय प्रधान जैसे ख़तरनाक शूटरों समेत 24 लोग जेजे में दाखिल हुए और बीमार शैलेश को गोलियों से छलनी कर दिया। फ़ायरिंग में दो पुलिसकर्मियों की भी जान गई। 10 लोग गंभीर रूप से ज़ख़्मी हुए जिनमें कई मरीज़ और नर्स भी थे। मुंबई में पहली बार एके 47 राइफ़ल, माउज़र और 9 एमएम पिस्तौल का इस्तेमाल हुआ। कुल 500 राउंड गोलियां चलीं। ऑपरेशन में भिवंडी-निज़ामपुर के मेयर जयंत सूर्याराव, तत्कालीन केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय के भतीजे वीरेंद्र राय और उल्हासनगर के कांग्रेस विधायक पप्पू कालानी से लॉजिस्टिक सपोर्ट मिला।

इस ऑपरेशन पर आपत्ति जताते हुए छोटा राजन ने कहा कि इतना तामझाम हुआ लेकिन केवल एक हत्यारा ही मारा जा सका। जेजे शूटआउट में दरकिनार किए जाने से नाना हैरान था, पर मौक़े की नज़ाकत समझकर चुप ही रहा। उसे डी-कंपनी के लिए गवली गैंग और दूसरे सरगनाओं से लोहा लेना पड़ रहा था। गवली के साथ सदा पावले, विजय तांडेल, सुनील घाटे और गणेश कोली जैसे शातिर शूटर थे, तो दशरथ रोहणे और तान्या कोली जैसे अपराधी कम ख़तरनाक नहीं थे। जेजे एपिसोड और चंद दूसरी घटनाक्रमों से राजन को लगने लगा कि दाऊद और उसके रास्ते अलग दिशा में जा रहे हैं।

1992 में दाऊद और राजन के बीच फासला और ज़्यादा गहराने लगा। दाऊद क्राइम वर्ल्ड का बेशक बेताज बादशाह था, पर उसे हमेशा डर सताता था कि कहीं अपने ही न उसे रास्ते से हटा दें। इस बीच एक और घटना ने दाऊद-राजन के बीच की खाई और चौड़ा कर दिया। राजन के ख़ास तैय्यब भाई को दाऊद के शूटरों ने मार डाला। राजन को बताया गया कि तैय्यब को बग़ाबत की सज़ा दी गई। इसी बीच दाऊद ने राजन से मुंबई की बजाय दुबई का कारोबार देखने को कहा, पर नाना तैयार नहीं हुआ।  दाऊद मुंबई में हिंदू नहीं, बल्कि कट्टर मुस्लिम कमांडर चाहता था। लिहाज़ा, राजन को साइडलाइन्ड कर अबू सलेम को यह दायित्व दे दिया गया। राजन समझ गया, कोई बड़ा गेम होने वाला है। लिहाज़ा, नया विकल्प तलाशने लगा। था तो वह दुबई में लेकिन दाऊद से दूर हो गया था। फिर एक दिन किसी अज्ञात जगह चला गया।

इसी दौरान मुंबई में सीरियल ब्लास्ट हुआ जिसने अंडरवर्ल्ड के समीकरण ही बदल दिए। अपराधी धर्म के आधार पर बंट गए। दाऊद को गद्दार कहता हुआ राजन औपचारिक रूप से अलग हो गया और डी-कंपनी को ख़त्म करने की कसम ले ली। देश-विदेश में फैले साथियों को उसने ऑपरेशन दाऊद पर काम बंद करने और अपने लिए काम करने का निर्देश दिया। राजन, गवली और नाईक बंधु हिंदू डॉन के रूप में उभरे, जबकि दाऊद की इमैज पाकिस्तानपरस्त मुस्लिम डॉन की बन गई। दाऊद ने 1994 में राजन के कई गुंडों की हत्या करवा दी। बदले में नाना ने डी-कंपनी के पांच वफादारों को मरवा दिया। दोनों डॉन एक दूसरे की कमज़ोरियां जानते थे। दाऊद के कराची जाने के बाद राजन मलेशिया के कुआलालंपुर शिफ़्ट हो गया। दो साल के भीतर उसने मुंबई ब्लास्ट के आरोपी डी-कंपनी के 18 शूटरों की हत्या करवा दी। मुंबई में दाऊद की तरफ़ से मोर्चा संभाले था, उसका नया शूटर अबू सालेम जबिक शॉर्प शूटर रोहित वर्मा राजन की ओर से था।

दोनों गैंग एक दूसरे के फ़ाइनांसर्स और सपोर्टर्स को भी मारने लगे। 1994 से 97 का समय बेहद ख़ून-खराबे वाला रहा। दाऊद ने राजन के दोस्त रमानाथ पय्यादे, बिल्डर ओमप्रकाश कुकरेजा और फिल्म निर्माता मुकेश दुग्गल को मरवा दिया तो राजन ने सावत्या को दुबई में मारा और दाऊद के साथी और ईस्ट-वेस्ट एयरलांइस के प्रमुख तकीउद्दीन वाहिद की हत्या रोहित वर्मा से करवा दी। राजन ने दाऊद के ख़ास नेपाली सांसद मिर्ज़ा दिलशाद बेग की काठमांडू में मरवा दिया। इसी दौरान दाऊद ने साधु शेट्टी समेत राजन के कई शूटरों को एनकॉउंटर स्पेशलिस्ट्स पुलिस अफसरों से मरवा दिया। इसके ग़ुस्साए राजन ने होटल मालिक दिनेश शेट्टी की हत्या करवा दी।

बेहद शक्तिशाली होने के बावजूद दोनों डॉन एक दूसरे से डरते थे। दाऊद के लिए राजन सबसे बड़ा ख़तरा है तो राजन के लिए दाऊद। ख़तरा भांपकर राजन लंबे समय तक समुद्र में याट में रहा। सन् 2000 में थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में पॉश इलाके में चरनकोर्ट नामक बिल्डिंग की पहली मंज़िल पर बड़ा घर लिया और रोहित वर्मा के परिवार के साथ रहने लगा। लेकिन छोटा शकील ने शरद शेट्टी की मदद से उसे खोज निकाला और शूटर मुन्ना झिंगड़ा ने अपने शूटरों के साथ हमला कर दिया जिसमें रोहित सपरिवार मारा गया जबकि राजन बाल-बाल बच गया। अगले दिन दोपहर तक मुंबई में ख़बर फैली कि राजन की हत्या हो गई। पर बाद में ख़बर का खंडन हो गया। बहरहाल, हमले का बदला लेते हुए 2003 में दुबई में राजन के शूटरों ने शरद शेट्टी को मार डाला।

इस दौरान राजन ने दाऊद को मारने के लिए अपने सात शॉर्प शूटर नेपाल के रास्ते कराची के उसके आवास तक भेजे थे. लेकिन ऑपरेशन लीक हो गया और दाऊद ऐन मौक़े पर वहां आया ही नहीं। उसे साज़िश की भनक लग गई थी। यह भी बात फैली थी कि दाऊद को सबक सिखाने के लिए राजन रॉ और आईबी की मदद कर रहा है। कहा जाता है कि क्राइम ब्रांच के कई डबल एजेंट दाऊद के आसपास हैं। वे दाऊद की डेली लोकेशन और दिनचर्या की जानकारी देते रहते हैं। बहरहाल दौऊद-राजन की यह जंग तभी ख़त्म हो सकती है जब दोनों में से किसी एक का अंत हो जाएं। बहरहाल, फ़िलहाल छोटा राजन गिरफ़्तार है और भारत में है, जबकि दाऊद अभी तक फ़रार है।


शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

पुरस्कार तो रिश्वत होता है, लिया ही क्यों था..?

पुरस्कार तो रिश्वत होता है, लिया ही क्यों था..?



देश में फ़िलहाल पुरस्कार, ख़ासकर साहित्य अकादमी पुरस्कार, लौटाने का मानो सीज़न चल रहा है। कई साहित्यकारों की सोई हुई अंतरआत्मा धीरे-धीरे जाग रही है। उन्हें लग रहा है कि देश में इतने ढेर सारे अनर्थ कार्य हो रहे हैं और वे कुछ कर ही नहीं रहे हैं। कई लोगों को अतंरआत्मा की आवाज़ उचित लग रही है, कि जो कुछ हो रहा है, वह ठीक कतई नहीं हो रहा है। लिहाज़ा, उसका पुरज़ोर विरोध होना चाहिए। विरोध किस तरह करें,इस पर कन्फ़्यूज़न था।
दरअसल, सभी को पब्लिसिटी वाले विरोध की दरकार थी। उसी समय एक साहित्यकार के दिमाग़ में नायाब आइडिया आया और उन्होंने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया। उनके फ़ैसले से विरोध के तरीक़े के बारे में तमाम कंफ़्यूज़न दूर हो गए। सभी को पुरस्कार लौटाने वाला तरीक़ा सबसे ज़्यादा टीआरपी बटोरने वाला लगा। बस पुरस्कार लौटाने वालों की लाइन लग गई है। अब तक दो दर्जन से ज़्यादा लोग यह “त्याग” कर चुके हैं।
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कई लोगों ने जब पुरस्कार लौटाने वालों शाबाशी दी तो कई और साहित्यकार-कलाकार उत्साहित हो गए और अकादमी अवॉर्ड सरकार के मुंह पर दे मारा। बहरहाल, कई लोग सम्मान लौटाने वालों को केवल शाबाशी ही नहीं दे रहे हैं, बल्कि आह्वान भी कर रहे हैं कि बाक़ी लोग भी पुरस्कार लौटाने वाले क्लब की सदस्यता ग्रहण कर लें। इस तरह के बयान से सम्मान लौटाने के लिए साहित्यकारों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बन रहा है।
ज़ाहिर है, जो पुरस्कार नहीं लौटाएंगे, उन्हें नॉन-सेक्यूलर यानी कम्युनल या सांप्रदायिक साहित्यकार का पुरस्कार दे दिया जाएगा।  अकादमी पुरस्कार लौटाने के फैशन शो में कैटवॉक करने वाले कई बेनिफिशियरीज़ ने औपचारिक रूप से सम्मान नहीं लौटाया है। मतलब घोषणा तो कर दी, लेकिन पुरस्कार लौटाने की फॉर्मैंलिटी पूरी नहीं की। यानी उनका विरोध केवल घोषणाओं तक सीमित रहा। आमतौर पर अगर पुरस्कार लौटाने का मतलब जो कुछ मिला है, वह सब लौटा देना। धनराशि तो ब्याज समेत लौटानी चाहिए, क्योंकि लेखक ने राशि पर बैंक से व्याज लिया ही होगा। हालांकि उतना त्याग आज के सेक्यूलर साहित्यकार तो करेंगे नहीं। हां, उस राशि पर अब तक जितने ब्याज कमाए हैं, उसे तो वापस करना ही चाहिए था।
साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने का सिलसिला लेखक उदय प्रकाश से शुरू हुआ। वह अच्छे साहित्यकार ही नहीं अच्छे इंसान भी हैं। वह थोड़े ज़्यादा संवेदनशील हैं। दुनिया भर की सैर करते हुए विश्व-साहित्य पढ़ चुके हैं। युवावस्था में कहानियों से वाहवाही लूटने वाले उदय प्रकाश कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या से इतने विचलित हुए कि अकादमी पुरस्कार वापस कर दिया। उनका फेसबुक वॉल देखिए। उनके बाद जिस-जिस लेखक या कलाकार ने पुरस्कार लौटाया, उन्होंने उसे बधाई दी और आभार व्यक्त किया। जैसे वह कोई मूवमेंट चला रहे हैं और जो जो उसमें शामिल हो रहा है, उसे धन्यवाद दे रहे हैं। इतना ही नहीं, पुरस्कार लौटाने के समर्थन में जितने लेख लिखे गए, उन सभी लेखों को उदय प्रकाश ने अपने वॉल पर शेयर किया है। सभी लेख उनके वॉल पर पढ़े जा सकते हैं। वह फेसबुक पर जो कुछ लिख रहे हैं, उससे लॉबिंग की बू आ रही है।
हैरानी वाली बात है कि उन्होंने फेसबुक वॉल पर 26 मार्च 2015 रिपीट 26 मारट 2015 को लिखा है, "दोस्तो, क्या मुझे हिंदी साहित्य के लिए मिले समस्त पुरस्कारों को लौटा देना चाहिए?  मुझे लगता है, अवश्य! ये जीवन के माथे पर दाग हैं।" यानी पुरस्कार लौटाने का मन उदय प्रकाश ने बहुत पहले बना लिया था। कुलबर्गी की हत्या अच्छा मौक़ा था। इन सारी कवायदों से साफ़ लग रहा है कि पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को सत्ता की बाग़डौर सौंपने के देश की जनता के फ़ैसले से पुरस्कार लौटाने वाले तमाम साहित्यकार बुहत दुखी हैं और मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं। ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा है कि लेखक-वृंद तटस्थ हैं। दरअसल, पुरस्कार लौटाने वालों की संख्या गिनी जा रही है कि बहुमत में हुआ कि नहीं।
नयनतारा सहगल और कृष्णा सोबती ने पुरस्कार लौटाते समय जो पत्र लिखा है, उसके मुताबिक़, दिल्ली से सटे दादरी में मोहम्मद अखलाक़ की हत्या से विचलित होकर पुरस्कार वापस कर दिया। क्या दिल्ली या आसपास होने वाली हत्याओं से साहित्यकार ज़्यादा विचलित होते हैं? अगर नहीं तो पुणे में मोहम्मद सादिक शेख की हत्या से कोई लेखक विचलित क्यों नहीं हुआ। सोलापुर के सादिक की मौत अखलाक़ से बहुत ज़्यादा भयावह थी। कुछ लोग उसे दो जून 2014 की रात पुणे की एक सड़क पर लाठी डंडे से पीट रहे थे और वह चिल्ला-चिल्ला कर अपने जीवन की भीख मांग रहा था। लेकिन हत्यारे तब तक पीटते रहे जब तक वह मर नहीं गया।
सबसे हैरान करने वाली बात है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली के दंगे में क़रीब 2800 सिख कत्ल कर दिए गए। सबकी मौत कमोबेश अखलाक़ जैसी या उससे भी भयानक रहीं। इसके अलावा बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुंबई में भड़के दंगे में 900 लोग मार दिए गए, जिनमें ज़्यादातर मुस्लिम थे। सभी मौतें अखलाक़ से कई गुना वीभत्स और बर्बर थी, लेकिन किसी ने कोई पुरस्कार नहीं लौटाया।
इसी तरह 2002 में गोधरा में 59 लोगों को ज़िंदा जला दिया गया था। उसके बाद पूरे गुजरात में लोग थोक के भाव जलाए और मारे-काटे गए। दंगे के बाद सभी नरेंद्र मोदी को कोसते रहे, लेकिन पुरस्कार किसी ने भी नहीं लौटाया। 20 अगस्त 2013 को अंधविश्वास के प्रखर विरोधी नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हो गई। इस साल 16 फरवरी को कोल्हापुर में कॉमरेड गोविंद पानसरे पर हमला हुआ और चार दिन बाद उनका निधन हो गया। कुलबर्गी की हत्या पर पुरस्कार वापस करने वाले सारे साहित्यकार दाभोलकर और पानसरे की हत्या के समय सो रहे थे।
इसीलिए यहां डॉ. नामवर सिंह के वक्तव्य को कतई ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता कि महज़ सुर्खियां बटोरने के लिए लेखक और कलाकार पुरस्कार वापस कर रहे हैं। दरअसल, जब इन लोगों को साहित्य अकादमी या नाटक अकादमी पुरस्कार मिला था, तब किसी को पता ही नहीं चल सका था। अब ये लोग पुरस्कार वापस कर रहे हैं, तो सब लोग जान रहे हैं कि इस आदमी को पुरस्कार मिला था, अब वह उसे वापस कर रहा है। कुछ लोग यह सोच कर सहानुभूति जता रहे हैं कि देश में “ख़राब हालत” के लिए साहित्यकार-कलाकार अपने पुरस्कार की क़ुर्बान दे रहे हैं।
वैसे आम आदमी हैरान होता है, कि पुरस्कार हैं क्या और शुरु कब हुए? पुरस्कारों के शुरू होने के बारे में मज़ेदार तथ्य मिलते हैं। लब्बोलुआब, बड़े लोगों द्वारा खुश होकर छोटे लोगों को कुछ भेंट करना नज़राना, बख्शीश, उपहार या ईनाम कहा जाता है। यानी देने वाला दाता होता है, लेने वाला दीन। प्राचीन ग्रंथों में जिक्र आता है कि नर्तकियों के नृत्य से जब राजा खुश होते थे, तो नर्तकी को पुरस्कार यानी बख्शीश देते थे। इसी तरह अच्छी ख़बर सुनाने वाले अनुचरों को राजा द्वारा अपना आभूषण उतार कर देने की भी परंपरा रही है। यह परंपरा मध्यकाल में भी चलती रही। सुल्तान किसी की सेवा या स्वामिभक्ति से ख़ुश होने पर उसे इनाम या बख्शीश के रूप सुबेदारी या जागीरदारी दे देता था।
दरअसल, यह परंपरा अंग्रेजी शासन में भी जारी रही। अंग्रेज़ अपने भक्त भारतीयों को इनाम के रूप में रायबहादुर या दूसरी पदवी देते थे। उन्होंने गीताप्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार उर्फ भाई जी को रायबहादुर की पदवी देनी चाही थी, लेकिन भाई जी ने ठुकरा दिया। गोरों ने रवींद्रनाथ टेगोर को नाइटहुड दिया तो ले लिया, लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद लौटा दिया था। हालांकि टैगोर के फ़ैसले पर सवाल उठे थे कि देश पर बलात् शासन करने वाले अंग्रज़ों का सम्मान स्वीकार ही क्यों किया।
पुरस्कारों को रिश्वत कहा जाता है, क्योंकि क़रीब-क़रीब दुनिया का हर पुरस्कार मैनेज़्ड होता है। किसी पुरस्कार को स्वीकार करने का ही मतलब है कि देने वाली सरका या संस्थान के हर कार्य, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, में सहभागी होना। कई बार सरकारें या संस्थान मुंह बंद करने के लिए भी पुरस्कार देते हैं। यह भी कह सकते हैं कि हर सरकार या संस्थान पुरस्कार के पात्र उम्मीदवारों की भीड़ में अपने-अपने आदमी खोजते हैं, और अपने आदमी को सम्मान देना चाहते हैं। इसी कारण फ्रांस के महान दार्शनिक और अस्तित्ववाद के प्रणेता ज्यां पॉल सार्त्र ने जीवन भर कोई पुरस्कार लिया ही नहीं।
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सार्त्र मानते थे कि लेखक को पुरस्कार स्वीकार ही नहीं करना चाहिए। पुरस्कार ले लेने से लेने वाला न तो स्वतंत्र रह पाता है न ही तटस्थ। खुद सार्त्र ने 1964 में नोबेल पुरस्कार स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। पुरस्कार लेने से ही मना करते हुए सार्त्र स्वीडिश नोबेल अकादमी को लिखे पत्र में कहा था कि लेखक को खुद को किसी भी सरकार या संस्थान से जुड़ने नहीं देना चाहिए। पुरस्कार या सम्मान ग्रहण करने के बाद लेखक उस सरकार या संस्थान से जुड़ जाता है। इसी आधार पर सार्त्र ने 1945 में फ्रांस का सर्वोच्च सम्मान लिजन ऑफ द ऑनर भी लेने से मना कर दिया था। हालांकि सन् 1973 में विएतनाम के ले डुक थो ने भी नोबेल पुरस्कार लेने से मना कर दिया था, लेकिन उन्होंने यह फैसला देश के अंदरुनी हालात के मद्देनज़र लिया था।
बहरहाल, पुरस्कार देने की परंपरा दुनिया भर में रही है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उसी परंपरा का निर्वहन करते हुए आज़ादी मिलने पर भारत रत्न से लेकर पद्मविभूषण, पद्मश्री, अकादमी और खेलरत्न पुरस्कार आदि शुरू किया। लेकिन पुरस्कारों को लेकर देश में ऐसा माहौल रहा है कि सारे पुरस्कार संदिग्ध हो गए हैं। यहां तक कि भारत रत्न जैसे सर्वोच्च पुरस्कार पर भी राजनीति होती रही है। इसीलिए जब 1988 में तमिलनाडु के सीएम रहे एमजी रामचंद्रन को मरणोपरांत भारत रत्न दिया गया तो इसे राजनीतिक फायदा लेने वाला क़दम कहा गया। इसी तरह पुरस्कार का नियम बदलकर उन लोगों को भी पुरस्कार देने की शुरुआत कर दी गई, जिनका निधन आज़ादी के पहले हो चुका था।
सीधी सी बात है, जो बहुत ज़्यादा आदर्शवादी हैं, उन्हें कोई पुरस्कार लेना ही नहीं चाहिए, क्योंकि पुरस्कार देने वाली कोई भी सरकार या राजनीतिक पार्टी पाक-साफ़ नहीं होती। ऐसी सरकार या पॉलिटिकल पार्टी से पुरस्कार लेने का मतलब उसकी नीतियों का समर्थन करना होता है। मसलन, उदय प्रकाश को पता था कि कांग्रेस इमरजेंसी लगा चुकी है, 1984 में उसके राज में सिखों का क़त्लेआम हो चुका है, कांग्रेस के कार्यकाल में मुंबई में दंगे हुए और कांग्रेस के ज़माने में ख़ूब भ्रष्टाचार हुए, इसके बावजूद उदय प्रकाश ने कांग्रेस के दौर में साहित्य अकादमी पुरस्कार स्वीकार किया। यानी कहीं न कहीं उनके मन में भी ललक थी कि उनका नाम भी साहित्य अकादमी का पुरस्कार पाने वालों की फेहरिस्त में जुड़े। संवेदनशील होते हुए भी उन्होंने सरकारी पुरस्कार ले लिया। एक बार जब बेनिफिशियरी हो गए तब चुप रहना चाहिए था। संवेदनशील होने का नाटक नहीं करना चाहिए था।
ऐसा ही नाटक फणीश्वरनाथ रेणु ने किया था। पहले पद्मश्री लिया फिरा आपातकाल और सरकारी दमन के विरोध में पुरस्कार लौटा दिया था। इस फेहरिस्त में लेखक खुशवंत सिंह भी हैं। उन्हें इंदिरा गांधी के दौर में 1974 पद्मभूषण पुरस्कार दिया गया। उन्होंने अमृतसर स्वर्ण मंदिर में सेना के प्रवेश के विरोध में 1984 में इसे लौटा दिया था। मज़ेदार बात थी कि जब जरनैल सिंह भिंडरवाला स्वर्ण मंदिर जैसे पवित्र जगह से आतंकवादी गतिविधियों का संचालन कर रहा था, तब खुशवंत आहत नहीं हुए, लेकिन स्वर्ण मंदिर को आतंकियों चंगुल से छुड़ाने के लिए जवान घुसे तो खुशवंत हर्ट हो गए।
लेखिका व सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती राय की कहानी भी ऐसी है। उन्होंने अफगानिस्तान और इराक पर अमेरिकी सैन्य कार्रवाई के विरोध में 2006 में साहित्य अकादमी सम्मान ठुकरा दिया था। लेकिन मैग्सेसे सम्मान नहीं लौटाया। यह दोहरा मापदंड सम्मान वापस करने वाले साहित्यकारों को बेनकाब करता है। सवाल यह है कि पुरस्कार तो रिश्वत होता है, उसे लिया ही क्यों?

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

क्या लालू यादव जैसे सज़ायाफ़्ताओं के भाषण पर रोक लगनी चाहिए?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
बिहार चुनाव में वह सब हो रहा है, जो आमतौर पर आज़ादी के बाद से भारत के किसी भी चुनाव में होता रहा है. मसलन, इस बार भी नेताओं की भाषा तल्ख होते-होते अप्रिय शब्दों तक पहुंच गई है. खैर, अब चुनाव प्रचार के दौरान इस्तेमाल होने वाली भाषा मुद्दा ही नहीं रह गई, क्योंकि देश की जनता अपने कर्णधारों के मुंह से इस तरह की अशोभनीय भाषा सुनने के क़रीब-क़रीब आदी हो चुकी है. इन नेताओं पर अंकुश लगाना संभव भी नहीं है. हां, ऐसे में चर्चा इस बात पर ज़रूर होनी चाहिए कि कि राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालूप्रसाद यादव या फिर इंडियन नैशनल लोकदल के ओमप्रकाश चौटाला जैसे भारतीय न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए गए अपराधियों को जनता को संबोधित करने से नहीं रोका जाना चाहिए या नहीं?

अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद किसी आरोपी को ‘अपराधी’ ही संबोधित किया जाता है, क्योंकि उसके नाम के आगे ‘सज़ायाफ़्ता’ शब्द जुड़ जाता है. इसका मतलब यह हुआ कि सज़ायाफ़्ता आदमी ने अतीत में जो कुछ ग़लत काम किया था, वह अदालत में भी साबित हो गया कि वाक़ई उसका काम ग़लत था और उसी को आधार मानकर अदालत ने भी उस आदमी को अपराधी घोषित कर दिया है. ऐसे में अदालत द्वारा अपराधी घोषित किए गए लोगों पर सार्वजनिक सभाओं में बोलने पर रोक लगाने का प्रावधान तो होना ही चाहिए.

अब तक दो साल या उससे ज़्यादा अवधि की जेल की सज़ा पाने वाले नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक है. प्रथम दृष्ट्या यह प्रावधान अधूरा-अधूरा-सा लगता है. दो साल से ज़्यादा सज़ा पाने वाले अपराधी को जिस मकसद से चुनाव लड़ने देने से रोका जाता है, सज़ायाफ़्ता के धुंआधार चुनाव प्रचार करने से उस मकसद का पूरी तरह उल्लंघन हो जाता है, क्योंकि सज़ा पाने वाला अपराधी केवल बतौर प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ता है, चुनाव में होने वाले बाक़ी सभी कार्य वह आराम से और खुलेआम करता है.

दरअसल, जो व्यक्ति अदालत द्वारा एक बार अपराधी घोषित कर दिया गया है, वह जो कुछ बोलेगा वह जनता के सामने अपने आपको पाक-साफ़ साबित करने की ही कोशिश करेगा. वह अपने उस हर कार्य को भी जस्टीफाई करने की हर संभव कोशिश करेगा, जिसे करने के कारण उसे दंडित करते हुए जेल की सज़ा सुनाई गई है. यह तो न्याय-व्यवस्था में अपराध के लिए दंड देने की परिपाटी का भी उल्लंघन है.

चूंकि आमतौर पर सार्वजनिक मंच से भाषण देते समय वह सज़ायाफ़्ता न तो अपने वक्तव्य पर कोई अंकुश रख पाता है, न ही देश में ऐसे लोगों के लिए ऐसी कोई गाइडलाइंस तय की गई रहती है कि वह अमुक मुद्दे पर बोले और अमुक मुद्दे पर कुछ न बोले.

ऐसे में अपराधी जनता के सामने क्या बोल देगा, इसका कुछ भरोसा नहीं और उसकी बात का इंपैक्ट कितना होगा यह भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन, चूंकि वह आदमी या नेता सज़ायाफ़्ता है, इसलिए वह जो कुछ बोलेगा, वह उसी तरह समाज हित में नहीं होगा, जैसे का कोई काम समाज हित में नहीं होता है. या जैसे किसी अपराधी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह लोगों को साधुवचन सुनाएगा यानी जनता को नैतिकता, सिद्धांत और भाईचारे का संदेश देगा या लोगों को अच्छा नागरिक बनने की नसीहत देगा, क्योंकि वह ख़ुद ही अदालत द्वारा बुरा नागरिक और क़ानून तोड़ने वाला नागरिक घोषित किया जा चुका है और उसी आधार पर उसे सज़ा हुई है.

भारतीय संविधान की दो साल या उससे ज़्यादा की सज़ा पाए लोगों को चुनाव लड़ने से रोकने के प्रावधान के तहत ही लालूप्रसाद यादव बिहार विधान सभा चुनाव में बतौर प्रत्याशी भाग नहीं ले पा रहे हैं. लेकिन वह प्रचार के फ्रंट पर सुपरऐक्टिव हैं और आए दिन विवादास्पद बयान दे रहे हैं. लालूप्रसाद के भाषण से किसी की भावनाएं आहत हो रही है या नहीं हो रही हैं, यह बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन प्रथम दृष्ट्या ऐसी बातें तो बोल रहे हैं, जो बातें सार्वजनिक मंच से नहीं बोली जानी चाहिए.

चूंकि चुनाव प्रचार में ज़हर उगलने वाले नेताओं के ख़िलाफ़ निर्वाचन आयोग केवल एफआईआर दर्ज करवाता है. इस एफआईआर के तहत संभवतः आज़ाद भारत किसी बड़े नेता को अब तक सज़ा सुनाए जाने की मिसाल नहीं मिलती. हालांकि इस देश आईपीसी की 153, 153 ए और 153 बी के तहत किसी को सज़ा हुई हो इसकी मिसाल कम मिलती है. लिहाज़ा, विवादास्पद बयान दोने वाले नेताओं को चेतावनी देने के अलावा निर्वाचन आयोग भी बहुत कुछ नहीं कर पाता है. हां, बतौर निर्वाचन आयुक्त टीएन शेषन का कार्यकाल अपवाद रहा है. हालांकि कांग्रेस सरकार ने निर्वाचन आयोग को तीन सदस्यीय बनाकर शेषन के फैसले पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी, लेकिन शेषन को रिटायर होने तक नहीं रोक पाई. कहने का मतलब निर्वाचन आयोग के रोके भी नेता नहीं रुक रहे हैं.

ऐसे में क्या लालू प्रसादव, ओपी चौटाला और अभय चौटाला और रशीद मसूद जैसे सज़ायाफ़्ता नेताओं को भी जहर उगलने या ऊल-जलूल बोलने से नहीं रोका जा सकता है. ऐसे में सज़ायाफ़्ता नेताओं को कम से कम सार्वजनिक मंचों को शेयर करने से रोकना चाहिए. अभी हरियाणा विधान सभा चुनाव में इलाज के लिए जेल से बाहर आए चौटाला चुनाव प्रचार करने लगे थे, इसलिए उकी ज़मानत रद कर दी गई थी. गौरतबल है कि अक्टूबर 2013 में चारा घोटाले में पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद को प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट 120 बी 5 साल जेल और 25 लाख रुपये के जुर्माने की की सजा सुनाई गई थी.

लालू की ज़मानत याचिका झारखंड हाईकोर्ट ने ख़ारिज़ कर दी थी, लेकिन दो महीने से जेल की हवा खाने के बाद नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने लालू को जमानत दी थी, क्योंकि तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और सीबीआई ने लालू की जमानत का विरोध नहीं किया. लालू की तरफ से राम जेठमलानी ने पैरवी की थी. सजा सुनाए जाते ही जनप्रतिनिधि क़ानून के तहत लालू की लोकसभा सदस्यता रद हो गई थी और उन पर 11 साल यानी 2024 तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लग गई थी. लालू के साथ जेडीयू सांसद जगदीश शर्मा और जगन्नाथ मिश्रा को भी सजा सुनाई गई है. इसली तरह कांग्रेस को रशीद मसूद कोभी सज़ा सुनाई गई है, लेकिन इस पर बहस होनी चाहिए कि क्यों न सज़ायाफ़्ता से चुनाव प्रचार करने और वोट डालने का भी अधिकार छीन लिया जाना चाहिए.

शनिवार, 3 अक्टूबर 2015

फिर शर्मसार हुआ देश, यूपी में दबंगों ने लड़की को जिंदा जलाया, तमाशबीन रहे लोग !!



हरिगोविंद विश्वकर्मा
वह सपने देखने वाली लड़की थी। देहात और ग़रीब परिवार की लड़की करियर बनाने के लिए कृतसंकल्प थी। वह पढ़-लिखकर किसी स्कूल या विद्यालय में टीचर बनना चाहती थी, ताकि समाज की निरक्षरता दूर करने में ज़्यादा तो नहीं थोड़ी-बहुत मदद कर सके। इसलिए वह बीए की पढ़ाई कर रही थी। लेकिन शायद प्रकृति को यह भी मंज़ूर नहीं था। पड़ोसियों द्वारा क़रीब 90 फ़ीसदी जलाई गई वह लड़की आठ दिन तक इलाहाबाद के स्वरूपरानी नेहरू अस्पताल में मौत से लड़ती रही, लेकिन शनिवार (तीन अक्टूबर) को तड़के ढाई बजे उसने काल के सामने हथियार डाल दिए। उसकी जिस्म ठंडा हो गया और उसके सपने को भी मौत निगल गई।

दरअसल, यह घटना उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में लालगंज अजहारा तहसील के श्रीपुर उमरपुर गांव में 25 सितंबर की शाम पांच बजे हुई। उस समय सूर्यास्त होने में क़रीब घंटे भर बाक़ी था। हैवानियत पर उतरे पड़ोसियों ने घर के पीछे शौच के लिए गई अकेली और निहत्थी 19 साल की ज्योति विश्वकर्मा पर हमला कर दिया। उस पर मिट्टी का तेल डालकर उसके जिस्म में आग लगा दी, जिससे ज्योति धू-धू करके जलने लगी। पास-पड़ोस का कोई व्यक्ति रक्षा करने के लिए भी नहीं आया। असहाय ज्योति का जिस्म जलता रहा, वह चिल्लाती रही लेकिन सब तमाशाबीन बने थे। आसपास खड़े थे, लेकिन उसे बचाने या उसके जलते शरीर पर कंबल डालने कोई नहीं आया। अंततः जलती हुई ज्योति ने ख़ुद बचने का प्रयास किया और अपने घर में भागी, जहां उसकी मां मालती विश्वकर्मा शाम को परिवार के छह लोगों के लिए खाना बना रही थी।

जब जलती हुई ज्योति घर के अंदर घुसी तो मां और तीन बहनें घबरा गईं कि ज्योति के साथ यह क्या हो गया? सबने कंबल डालकर आग बुझाया लेकिन ज्योति पूरी तरह जल चुकी थी। बहरहाल, दो किलोमीट दूर रहने वाले लड़की के बड़े पिता को बुलाया गया, क्योंकि ज्योति के पिता सउदी अरब में कारपेंटरी के दिहाड़ी मज़दूर हैं। परिजन आनन-फानन ज्योति को लेकर प्रतापगढ़ जिला अस्पताल गए, लेकिन वहां उसे फौरन इलाहाबाद ले जाने की सलाह दी गई। इलाहाबाद में सरकारी अस्पताल में ले गए, जहां डॉक्टर हड़ताल पर थे। मजबूरी में घर वाले उसे सिविल लाइंस के एक निजी अस्पताल ले गए।

बीरेंद्र अस्पताल में ज्योति का इलाज शुरू हुआ। बाद में मामला उनसे भी नहीं संभला तो उसे इलाहाबाद के स्वरूपरानी नेहरू अस्पताल में भेज दिया गया। चहरे को छोड़कर ज्योति का बाक़ी सारा जिस्म जल चुका था। जब ज्योति के रिश्तेदार घटना की रिपोर्ट लिखवाने घर से दो किलोमीटर दूर जेठवारा पुलिस स्टेशन गए तो, जैसा कि आरोप है, थानाध्यक्ष चंद्रबली यादव ने उन्हें गाली देकर भगा दिया। जलाने की वारदात रिपोर्ट दबाव बनाने के बाद 26 सितंबर की शाम दर्ज की जा सकी। जब सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 27 सितंबर को कार्रवाई करने का आदेश दिया तब पुलिस ने मुख्य आरोपी ओमप्रकाश मौर्या समेत सभी चारों आरोपियों को गिरफ़्तार किया।

देश के दूर-दराज के इलाक़ों में होने वाली बर्बर घटना पर भी पुलिस और प्रशासन का क्यो रवैया होता है, यह इस घटना से साबित हो गया। कोई घटना दिल्ली या मुंबई में होती है तो मीडिया और आम जनता में उबाल आ जाता है। ब्रेकिंग न्यूज़ चलने लगती है लेकिन देहातों में होने वाली घटनाओं की कोई नोटिस भी नहीं लेता। कुछ साल पहले दिल्ली के गैंगरेप की पीड़ित लड़की को बचाने के लिए सिंगापुर तक ले जाया गया लेकिन ज्योति विश्वकर्मा को बुनियादी मेडिकल फैसिलिटीज़ बमुश्किल मयस्सर हो पाई। आठ दिन तक ज़िंदा रही ज्योति मजिस्ट्रेट को बयान दिए बयान में सभी चारों आरोपियों का नाम लिया है। उसे इलाज के लिए बड़े शहरों के अस्पताल में ले जाया जाता तो शायद उसका जीवन बचाया जा सकता था, परंतु ऐसा नहीं हुआ।

दरअसल, ज्योति उस समाज की थी जो आज़ादी के सात दशक बाद आज भी प्रजा मानी जाती है और इस समाज के इक्का दुक्का लोग ही गांवों में पाए जाते हैं। मौर्य बाहुल्य श्रीपुर गांव में ज्योति का  परिवार इकलौता विश्वकर्मा परिवार है। माता-पिता और चार बेटियों वाले परिवार में ज्योति की सबसे बड़ी थी। बाक़ी तीन बहने 14, 10 और सात साल की हैं। उसके पिता राजेंद्र विश्वकर्मा कारपेंटरी का काम करते हैं और इस समय सउदी अरब में दिहाड़ी मज़दूरी कर रहे हैं। आने जाने का किराया न होने और सउदी सरकार द्वारा इजाज़त न देने के कारण वह बड़ी बेटी तो देखने भी नहीं आ सके।

ज्योति के रिश्तेदार संजय कुमार विश्वकर्मा के मुताबिक़ टीचर बनने का सपना पाले ज्योति पास के बाबा सर्वजीत गिरी महाविद्यालय सरायभूपत कटरा गुलाब सिंह प्रतापगढ़ में बैचलर ऑफ़ आर्ट (बीए) के अंतिम साल में पढ़ रही थी। संजय ने बताया कि ज्योति के परिवार का दो बीघा खेत है। उस खेत पर पड़ोस में रहने वाले ओमप्रकाश मोर्या की नज़र थी। उसने दो महीने पहले ज्योति के खेत में ज़बरदस्ती दीवार खड़ी बना ली थी। इस ज़ोर-जबरदस्ती का ज्योति की मां मालती विरोध करती थी। परिवार को सबक सिखाने के लिए ज्योति की हत्या की गई। उधर ज्योति मौवन मौत के बीच झूल रही थी, इधर आरोपी पुलिस के साथ मिलकर केस वापस लेने के लिए ज्योति के परिजनों पर दबाव बना रहे थे और केस वापस न लेने पर बाक़ी लोगों की हत्या की धमकी दे रहे थे।

ज्योति की मौत से निराश और पस्त संजय कुमार कहते हैं, कभी-कभी लगता ही नहीं, बल्कि यह साबित भी हो जाता है कि यह देश, यहां का लोकतंत्र और यहां संविधान सब कुछ चंद लोगों के लिए ही है। आज़ादी के बाद जिन्हें मौक़ा मिला उन्होंने अपना ही विकास किया। बाक़ी लोगों की खोज-ख़बर लेने वाला कोई नहीं। ज्योति को बेहतर मेडिकेयर मिलता तो उसकी जान बच सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। काश ऐसा हो पाता। जो भी हो ज्योति को जिंदा जलाए जाने की घटना के चलते उत्तर प्रदेश एक बार फिर शर्मसार हुआ है।

समाप्त

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

गांधीजी की हत्या न हुई होती तो उन्हें ही मिलता शांति नोबेल सम्मान

हरिगोविंद विश्वकर्मा
दो अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्मे मोहनदास कर्मचंद गांधी की 30 जनवरी 1948 को अगर हत्या न हुई होती, तो उस साल दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित शांति नोबेल पुरस्कार उन्हें ही मिलता। दरअसल, महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोड्से ने उनकी हत्या करके उन्हें दुनिया के सबसे ज़्यादा मान्य शांति पुरस्कार से वंचित कर दिया। इसीलिए, उस साल का शांति नोबेल पुरस्कार स्वीडिश अकादमी ने यह कहते हुए किसी को नहीं दिया कि नोबेल कमेटी किसी भी “ज़िंदा” उम्मीदवार को इस लायक़ नहीं समझती।

स्वीडिश नोबेल अकादमी यानी नोबेल फाउंडेशन की अधिकृत वेबसाइट नोबेलप्राइज़डॉटऑर्ग के मुताबिक नोबेल कमेटी ने अपनी प्रतिक्रिया में जो टिप्पणी की उसमें “ज़िंदा” शब्द के इस्तेमाल से आभास होता है कि अगर गांधीजी की हत्या न की गई होती तो उस साल का शांति नोबेल पुरस्कार उन्हें दिया जाना तय था। वस्तुतः महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए पांच बार सन् 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था।

1937 में पहली बार नॉर्वे की संसद “स्टॉर्टिंग” के लेबर पार्टी सदस्य ओले कोल्बजोर्नसन ने एमके गांधी का नाम सुझाया था. कोल्बजोर्नसन नोबेल कमेटी के 13 सदस्यों में से एक थे। ख़ुद कोल्बजोर्नसन ने महात्मा गांधी का नामांकन नोबेल कमेटी को नहीं किया था। बल्कि गांधीजी का समर्थन मशहूर गांधीवादी संस्था “फ्रेंड्स ऑफ़ इंडिया” की नार्वे शाखा की एक शीर्ष महिला सदस्य ने किया था। उस प्रपोज़ल में गांधीजी के कार्यों का विस्तृत विवरण था। मसलन, पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में गांधी ने किस तरह अहिंसक संघर्ष यानी सत्याग्रह किया और सफलता रहे।

वेबसाइट नोबेलप्राइज़डॉटऑर्ग पर नोबेल कमेटी की ओर से उन कारणों जिक्र किया गया है, जिनके चलते गांधीजी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिल पाया। नोबेल कमेटी के उस समय के सलाहकार जैकब वार्म-मूलर की गांधीजी के बारे में निगेटिव कमेंट के चलते उन्हें सन् 1937 में नोबेल पुस्कार नहीं दिया गया। जैकब वार्म-मूलर ने लिखा था, “भारतीय राजनीति के शलाका पुरुष गांधीजी निःसंदेह अच्छे, विनम्र और आत्मसंयमी व्यक्ति हैं। भारत की क़रीब-क़रीब संपूर्ण जनता उन्हें बेइंतहां प्यार और सम्मान देती है। लेकिन गांधीजी अहिंसा की अपनी नीति पर सदैव क़ायम नहीं रहे। इतना ही नहीं गांधीजी को इन बातों की कभी कोई परवाह नहीं रही कि अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ उनका शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन कभी भी हिंसक रूप ले सकता है, जिसमें जान-माल का भारी नुक़सान हो सकता है।“ वार्म-मूलर ने यह टिप्पणी दरअसल 1920-21 में गांधीजी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के संदर्भ में की थी. जब गोरखपुर के चौरीचौरा में भीड़ ने एक पुलिस थाने को आग लगा दी जिसमें कई पुलिसकर्मियों जिंदा जल गए। इसके बाद भारत में हिंदू-मुस्लिम क्लैश और विभाजन जैसे घटनाक्रमों ने यह साबित कर दिया कि वार्म-मूलर की इस तरह की आशंका पूरी तरह बेबुनियाद नहीं थी।

नोबेल कमेटी के सलाहकार जैकब वार्म-मूलर ने यह भी लिखा, “गांधीजी का आंदोलन केवल भारतीय हितों तक सीमित रहा, यहां तक कि दक्षिण अफ़्रीका में उनका आंदोलन भी भारतीय लोगों के हितों के लिए था. गांधीजी ने अश्वेत समुदाय लिए कुछ नहीं किया जो उस समय भारतीयों से भी बुरी ज़िंदगी गुज़र-बसर कर रहे थे।“ वार्म-मूलर ने यहां तक लिखा, “गांधी के बदलती नीति और क़िरदार के बारे में उनके अनुयायी ही हैरान रह जाते हैं। गांधीजी बेशक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं, लेकिन वह तानाशाह भी हैं, जो किसी की बात सुनता ही नहीं। वह घनघोर आदर्शवादी व राष्ट्रवादी हैं। गांधीजी बार-बार ईसा यानी शांतिदूत के रूप में सामने आते थे, लेकिन फिर अगले पल अचानक वह साधारण राजनेता बन जाते हैं।“

वार्म-मूलर के तर्क से नोबेल कमेटी सहमत हो गई। उसका विचार बन गया कि गांधीजी अंतरराष्ट्रीय कानून के समर्थक नहीं हैं। वह  न तो प्राथमिक तौर पर मानवीय सहायता कार्यकर्ता हैं न ही अंतरराष्ट्रीय शांति कांग्रेस में कोई योगदान किया है। इसके अलावा तब अंतरराष्ट्रीय शांति आंदोलन में गांधीजी के कई आलोचक भी थे। इस कारण उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया। उनकी जगह नोबेल ब्रिटेन के राजनेता और इंटरनैशनल पीस कैंपेन के संस्थापक-अध्यक्ष और लेखक रॉबर्ट सेसिल को दिया गया। किसी ब्रिटिशर को नोबेल देने से कुछ लोग यह कहने लगे कि कमेटी गांधीजी को नोबेल से सम्मानित कर अंग्रेज़ी साम्राज्य की नाराज़गी मोल लेना नहीं चाहती थी। यह धारणा मित्था है क्योंकि कई दस्तावेज़ों से साबित हो चुका है कि नोबेल कमेटी पर ऐसा कोई दबाव ब्रिटश सरकार की तरफ़ से नहीं था। बहरहाल, इसी तरह सन् 1938 और 1939 में भी गांधीजी को नामांकन के बावजूद नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया।

बहरहाल, नॉर्वे के इतिहासकार और नोबेल पीस प्राइज़ एक्सपर्ट ओइविंड स्टेनरसेन ने पिछले साल नोबेल पुरस्कार कैलाश सत्यार्थी को दिए जाने के बाद “वॉल स्ट्रीट जर्नल” से बातचीत के दौरान कहा था कि स्वीडिश अकादमी महात्मा गांधी जैसी महान शख़्सियत को नोबेल पुरस्कार न दे पाने के अपराधबोध से हमेशा ग्रस्त रही। अकादमी ने शिद्दत से महसूस किया कि गांधीजी को नोबेल पुरस्कार न देने का निर्णय ऐतिहासिक भूल थी। उसी अपराधबोध से उबरने के लिए जब-जब भारत, भारतीय मूल, भारतीय उपमहाद्वीप या भारत से संबंधित किसी भी व्यक्ति का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए आया, तब-तब नोबेल कमेटी ने त्वरित फैसला लिया। तीन भारतीयों - 1979 में मदर टेरेसा (शांति), 1998 में अमर्त्य सेन (अर्थशास्त्र), 2014 में कैलाश सत्यार्थी (शांति), तीन भारतीय मूल के लोगों – 1968 में डॉ. हरगोबिंद खुराना (चिकित्सा), 1983 में डॉ. सुब्रमणियम चंद्रशेखर (भौतिक) और 2001 में त्रिनिडाड में जन्मे ब्रिटिश लेखक सर विद्याधर सूरजप्रसाद नायपाल, तीन भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों- 1979 में पाकिस्तानी अब्दुस सलाम (भौतिक), 2006 में बांग्लादेशी मोहम्मद यूनुस (शांति) और 2014 में पाकिस्तानी मलाला यूसुफ़जई (शांति) और 1989 में भारत में रहने वाले तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा को नोबेल पुरस्कार देने का फ़ैसला बिना देरी किए लिया गया। ख़ुद स्टेनरसेन ने कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई को नोबेल से सम्मानित करने के स्वीडिश अकादमी के फ़ैसले को “स्मार्ट मूव” माना था।

दूसरी बार गांधी के नाम का चयन भारत के आज़ाद होने के बाद 1947 में किया गया। यूनाइटेड प्रॉविंस के प्रीमियर गोविंद वल्लभ पंत, बॉम्बे प्रेसिडेंसी के प्राइम मिनिस्टर बीजी खेर और सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली के स्पीकर गणेश वासुदेव मावलंकर ने उन्हें नामांकित किया। उस साल तत्कालीन नोबेल कमेटी के सलाहकार जेन्स अरुप सीप थे। गांधीजी के बारे में उनकी रिपोर्ट वोर्म-मूलर की तरह आलोचनात्मक नहीं थी। फिर भी तत्कालीन नोबेल कमेटी प्रमुख गुन्नर जान ने अपनी डायरी में लिखा कि सीप की रिपोर्ट गांधी के अनुकूल है लेकिन एकदम स्पष्ट रूप से उनके पक्ष में नहीं है।

गुन्नर जान के लिखा कि कार्यकारी सदस्य हरमैन स्मिट और क्रिश्चियन ऑफटेडल ने गांधीजी का समर्थन किया था। लेकिन तभी 27 सितंबर 1947 को रायटर की ख़बर आई कि गांधीजी ने युद्ध का विरोध करने का अपना फ़ैसला छोड़ दिया है और भारतीय संघ को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध करने की इजाज़त दे दी है। दरअसल, उस दिन प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा, “मैं हर तरह के युद्ध का विरोधी हूं, लेकिन पाकिस्तान चूंकि कोई बात नहीं मान रहा है, इसलिए पाकिस्तान को अन्याय करने से रोकने के लिए भारत को उसके ख़िलाफ़ युद्ध के लिए जाना चाहिए।“

बहरहाल, गुन्नर जान लेबर लिखा है कि उस समय गांधीजी की पैंतरेबाज़ी से राजनेता मार्टिन ट्रैनमील और पूर्न विदेशमंत्री बर्गर ब्राडलैंड उनका मुखर विरोध करने लगे और कमेटी में गांधीजी का विरोध करने वालों की संख्या बढ़ गई। कमेटी ने आमराय से गांधीजी के युद्ध वाले बयान को शांति-विरोधी माना और 1947 का नोबेल पुरस्कार मानवाधिकार आंदोलन क्वेकर को दे दिया गया। इस पर सफ़ाई देते हुए नोबेल कमेटी के अध्यक्ष ने लिखा है, “नॉमिनेटेड लोगों में गांधीजी सबसे बड़ी शख़्सियत थे। उनके बारे में बहुत-सी अच्छी बातें कही जा सकती थीं। वह शांति के दूत ही नहीं, बल्कि सबसे बड़े देशभक्त थे। वह बेहतरीन न्यायविद और अधिवक्ता थे।“ अंत में नोबेल कमेटी अध्यक्ष ने कमेटी के फ़ैसले का समर्थन करते हुए आगे लिखा कि हमें यह भी दिमाग में रखनी चाहिए कि गांधीजी भोले-भाले नहीं हैं।“

गांधीजी को 1948 साल में तीसरी बार (पांचवा नॉमिनेशन) चयनित किया गया, लेकिन चार दिन बाद 30 जनवरी को उनकी हत्या कर दी गई। इस घटना के चलते नोबेल कमेटी इस पर विचार करने लगी कि गांधीजी को मरणोपरांत पुरस्कार दिया जाए या नहीं। उस समय नोबेल फाउंडेशन के नियमों के मुताबिक़ विशेष परिस्थितियों में मरणोपरांत पुरस्कार देने का प्रावधान था। रिपोर्ट में लिखा गया, “गांधीजी को पुरस्कार देना संभव था, लेकिन वह न तो किसी संगठन से संबंधित थे और न ही कोई वसीयत छोड़कर गए थे। लिहाज़ा, पुरस्कार राशि किसे दी जाए, इस बारे में अकादमी ने चर्चा की, परंतु जवाब नकारात्मक रहा। 18 नवंबर 1948 को अकादमी ने फ़ैसला किया कि इस साल नोबेल पुरस्कार किसी को नहीं दिया जाएगा। इस तरह गांधीजी को नोबेल पुरस्कार देने की अंतिम कोशिश भी बेकार गईं।

वैसे तो शांति के लिए नोबेल पुरस्कार का मुद्दा हमेशा से विवाद का विषय बना रहा है। सन् 1901 से शुरू हुआ यह सम्मान अब तक 95 लोगों को दिया जा चुका है. यह विडंबना ही है कि गांधी के अहिंसा के सिद्धांत के पैरोकार मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला जैसे लोगों को शांति नोबेल दिया गया लेकिन गांधीजी को नहीं। अकसर चर्चा होती है कि क्या गांधीजी जैसे असाधारण नेता नोबेल के मोहताज थे? कई लोग मानते हैं कि गांधीजी का क़द इतना विशाल है कि नोबेल पुरस्कार उनके सामने छोटा पड़ता है। अगर स्वीडिश अकादमी अगर गांधीजी को नोबेल पुरस्कार देती तो इससे उसी की शान बढ़ जाती। खैर ऐसा नहीं हुआ।
समाप्त

बुधवार, 30 सितंबर 2015

नेताजी सुभाष चंद्र बोस - भारतीय राजनीति के कर्ण

हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारतीय राजनीति के कर्ण माने जाने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत के बारे में नया खुलासा करते हुए कहा है कि फ्रांस की खुफिया रिपोर्ट ने 15 जुलाई 2017 को दावा किया कि नेताजी की मौत हवाई हादसे में नहीं हुई है। पेरिस के इतिहासकार जेबीपी मूर का दावा है कि नेताजी की मौत ताइवान के प्लेन क्रैश में नहीं हुई है, बल्कि नेताजी के ठिकाने के बारे में दिसंबर 1947 तक पता नहीं था। मूर के दावे के बाद एक बार फिर से यह साफ हो जाता है कि फ्रांस नेताजी के प्लेन क्रैश में 18 अगस्त 1945 में मारे जाने के दावे को मानने को तैयार नहीं है। आपको बता दें कि मूर पेरिस के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानमें प्रोफेसर हैं।  मूर का कहना है कि फ्रांस की खुफिया विभाग का मानना है कि बोस 18 अगस्त 1947 में प्लेन क्रैश में नहीं मारे गए थे, बल्कि वह इंडो-चीन से बच निकलने में सफल हुए थे, उनके ठिकाने के बारे में 11 दिसंबर 1947 तक किसी को पता नहीं था। इससे साफ है कि वह कहीं ना कहीं 1947 तक जिंदा थे।

देशवासियों को “तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा” का नारा देने वाले स्वतंत्रता आंदोलन के असली हीरो नेताजी सुभाषचंद्र बोस को अगर भारतीय राजनीति का कर्ण कहा जाए, तो अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। जैसे महाभारत में महाबली कर्ण के साथ जीवन पर्यंत, यहां तक कि मृत्यु तक, अन्याय होता रहा, उसी तरह नेताजी के साथ पूरे जीवनकाल ही नहीं, मृत्यु के बाद भी अन्याय पर अन्याय ही हुआ. वह भी उनके अपने ही देश में। दरअसल, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस तीनों समान स्टैचर के नेता थे, लेकिन जहां अंग्रेज़ों का “ब्लूआई परसन” होने के कारण गांधी और नेहरू भारतीय राजनीति में युधिष्ठिर और अर्जुन बनने का गौरव हासिल करने में सफल रहे, वहीं ब्रिटिश हुक्मरानों की आंख की किरकिरी रहे सुभाषबाबू के खाते में केवल उपेक्षा, अपमान, पलायन और मौत ही आई।

कहा जाता है, सुभाषबाबू के आज़ाद हिंद फ़ौज में भर्ती होने की भारतीय युवकों में दीवानगी देखकर ब्रिटिश सरकार के होश भी उड़ गए थे। बहरहाल, बाग़ी तेवर और सशस्त्र संघर्ष की पैरवी करने के कारण ही जंग-ए-आज़ादी के महानायक को लंबे समय तक निर्वासन का जीवन बिताना पड़ा। दूसरी ओर गांधी-नेहरू की अगुवाई वाली उदार कांग्रेस हमेशा ही अंग्रेज़ों की कृपापात्र रही। तब गांधी-नेहरू जहां उदारवादी गुट का नेतृत्व करते थे, वहीं नेता जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय नेता थे। सत्तासुख भोगने वाले नेहरू ही नहीं कांग्रेसियों ने भी बोस के साथ इंसाफ़ नहीं किया। उनसे जुड़े तमात तत्यों को इतने लंबे समय तक इस तरह छिपाया कि हर देशवासी उनकी मंशा पर शक करने लगा।

इतिहास और इतिहासकारों ने भी सुभाषचंद्र बोस के साथ कर्ण जैसा व्यवहार किया। भारतीय इतिहासकारों ने महात्मा गांधी और पं. नेहरू के कार्यों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जबकि नेताजी की नीति और कार्यों को इस तरह पेश नहीं किया गया, जितना वह डिज़र्व करते थे। कांग्रेस, ख़ासकर गांधी, अपनी अहिंसावादी नीति के चलते सुभाष को पसंद ही नहीं करते थे। उनकी इच्छा के विपरीत 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद नेताजी ने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन करके प्रगतिशील क़दम उठाया था। इसकी ख़ूब सराहना हुई, लेकिन यह नीति गांधी के आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी, लिहाज़ा गांधी और उनके समर्थक नेताजी का विरोध करने लगे।

इसी तरह अगले साल (सन् 1939 में) कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में सुभाष और गांधी फिर आमने-सामने आ गए। जैसे ही सुभाषबाबू ने दोबारा अध्यक्ष का चुनाव लड़ने की घोषणा की, गांधी ने यूरोप के लंबे प्रवास से स्वदेश लौटे नेहरू को नामांकन दाखिल करने को कहा, लेकिन स्मार्ट नेहरू ने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का नाम आगे कर दिया। मगर पराजय के डर से मौलाना ने अपना नाम वापस ले लिया। अंत में गांधी ने आनन-फानन में आंध्रप्रदेश के नेता डॉ. पट्टाभी सितारमैया का नामांकन भरवाया। लेकिन वह सुभाषबाबू से हार गए। नेताजी को 1580 वोट मिले थे, जबकि सितारमैया को 1377 वोट। गांधी ने इसे अपनी व्यक्तिगत हार माना और सार्वजनिक तौर पर कहा, “सुभाषबाबू की जीत मेरी व्यक्तिगत हार है।” ऐसा लगा, गांधी कांग्रेस वर्किंग कमिटी से इस्तीफ़ा दे देंगे। उनके विरोध के चलते ही सुभाषबाबू ने अध्यक्ष से त्यागपत्र दे दिया। फिर डॉ. राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए थे।

इतिहासकार बताते हैं कि सुभाषबाबू आज़ादी के संघर्ष के पुरोधा महात्मा गांधी का बहुत सम्मान करते थे। उनके विचार बेशक भिन्न थे लेकिन वह अच्छी तरह जानते थे कि गाधी और उनका मक़सद एक ही है, यानी देश की आज़ादी। बस दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं। महात्मा गांधी को सबसे पहले ‘राष्ट्रपिता’ कहकर नेताजी ने ही संबोधित किया था। बाद में उन्हें औपचारिक रूप से राष्ट्रपिता मान लिया गया।

23 जनवरी 1897 को उड़ीसा (तब उड़ीसा ब्रिटिश बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था) में कटक के बंगाली परिवार में जन्मे नेताजी सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी 64 अति गोपनीय फाइलों को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी द्वारा सार्वजनिक करने के बाद कहा जा रहा है कि नेताजी 1945 के बाद भी जीवित थे। तो क्या 18 अगस्त 1945 को ताइवान के ताईहोकू हवाई अड्डे (अब ताइपेई डोमेस्टिक एयरपोर्ट) पर विमान हादसे में नेताजी के मरने की झूठी ख़बर फैलाई गई? ऐसे में इस तरह की आशंका की गहन जांच कराकर देश को सच बताने की ज़रूरत है ताकि नेताजी की मौत की सात दशक पुरानी अनसुलझी गुत्थी सुलझ सके।

इस खुलासे के बाद अब सवाल यह भी उठता है कि क्या देश के नेहरू के स्टेनों रहे श्यामलाल जैन की बात, जैसा कि बीजेपी नेता डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी दावा करते रहे हैं, सही है कि नेताजी की हत्या नेहरू के कहने पर रूसी तानाशाह जोसेफ स्तालिन ने करवा दी थी। डॉ स्वामी के मुताबिक़ “मेरठ निवासी श्यामलाल नेहरू के स्टेनो थे। नेताजी की मौत की ख़बर के पब्लिक होने के नेहरू ने उन्हें आसिफ अली के घर बुला कर एक पत्र टाइप करावाया था, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली को लिखा था कि उनका वॉर क्रिमिनल रूस के क़ब्ज़े में है। हालांकि, श्यामलाल ने खोसलाकमीशन के सामने यह बयान दिया था, लेकिन उनके पास अपने बयान के समर्थन में कोई सुबूत नहीं था।“

सुभाषचंद्र बोस की मौत के रहस्य पर चार क़िताबें “बैक फ्रॉम डेड इनसाइड द सुभाष बोस मिस्ट्री” (2005), “सीआईए'ज आई ऑन साउथ एशिया” (2008), “इंडिया'ज बिगेस्ट कवरअप” (2012) और “नो सेक्रेट” (2013) लिखने वाले और एनजीओं ‘मिशन नेताजी’ के संस्थापक पत्रकार-लेखक अनुज धर ने तीन साल पहले ही कह दिया था कि कांग्रेस और कांग्रेस का एक बंगाली नेता दोनों नहीं चाहते थे कि नेताजी के बारे में रहस्यों से परदा हटे। अनुज ने कड़ी मेहनत से लिखी क़िताबों में ताइवान सरकार के हवाले से दावा किया है कि 15 अगस्त से पांच सितंबर 1945 के दौरान कोई विमान हादसा नहीं हुआ था।

अनुज का दावा सीआईए की रिपोर्ट से मेल खाता है। दरअसल, नेताजी की कथित मौत के 20 दिन बाद तीन सितंबर 1945 को अमेरिकी सेना ने जापानी सेना को हराकर ताइवान पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद अमेरिकी की ख़ुफिया एजेंसी सीआईए ने अपनी रिपोर्ट में साफ़-साफ़ कहा था कि ताइवान में पिछले छह महीने से कोई विमान हादसा नहीं हुआ था। यहां इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि अपनी कथित मौत से दो दिन पहले 16 अगस्त 1945 को नेताजी वियतनाम के साइगॉन शहर से भागकर मंचूरिया गए थो जो उस समय रूस के क़ब्ज़े में था।

सुभाषबाबूजी के निजी गनर रहे जगराम भी दावा करते हैं कि नेताजी की विमान दुर्घटना में मौत नहीं हुई थी, उनकी हत्या कराई गई होगी। उनका कहना था कि अगर विमान हादसे में नेताजी की मौत होती तो कर्नल हबीबुर्रहमान ज़िंदा कैसे बच जाते? क्योंकि वह दिन रात साये की तरह नेताजी के साथ रहते थे। यही बात ख़ुद कर्नल हबीबुर्रहमान ने कही है।

नेताजी की रहस्यमय मौत की जांच के लिए अब तक तीन जांच कमेटी/कमिशन की नियुक्ति की जा चुकी है. सबसे पहली शाहनवाज़ कमेटी 1956 में नेहरू ने गठित की. दूसरा जीडी खोसला कमीशन 1970 में इंदिरा गांधी ने बनाया और तीसरा एनएम मुखर्जी कमीशन का गठन 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने किया। खोसला कमीशन ने कहा था कि नेताजी की मौत विमान हादसे में हुई। लेकिन अनुज धर का मानते हैं कि खोसला कमीशन के गवाह कांग्रेसी और इंटेलिजेंस ब्यूरो के ही लोग थे। लिहाज़ा उस पर भरोसा नही किया जा सकता।

बहरहाल, मुखर्जी कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में नेताजी की विमान हादसे में मौत होने की संभावनाओं से इनकार कर दिया था। रिपोर्ट 17 मई 2006 को लोकसभा में पेश की गई थी, लेकिन कांग्रेस नीत सरकार ने रिपोर्ट अस्वीकार कर दिया था। हालांकि इस साल मई में नेताजी की सुश्री प्रपौत्री राज्यश्री चौधरी ने कहा था कि अगर मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट बिना संपादित किए संसद में रख दी जाए तो सच सामने आ जाएगा। तथ्यों पर आधार पर सुश्री चौधरी ने दावा किया था कि नेहरू ने कुर्सी के लिए स्टालिन के जरिए अमानवीय यातनाएं देकर साइबेरिया में नेताजी को मरवाया।

नेताजी कटक शहर के मशहूर वक़ील जानकीनाथ बोस और प्रभावती की 14 संतानों (6 बेटियां और 8 बेटे) में नौवीं संतान थे। उनकी पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल, प्रेज़िडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई। इंडियन सिविल सर्विस की तैयारी के लिए वे केंब्रिज विश्वविद्यालय भेजे गए। जहां परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया। उनका मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आज़ादी हासिल की जा सकती है। इसीलिए ब्रिटिश के चंगुल से निकलकर अफगानिस्तान और रूस होते हुए जर्मनी जा पहुंचे।

सुभाषबाबू ने दुनिया भर का भ्रमण किया। हिटलर-मुसोलिनी के दौर में वह यूरोप में रहे और दोनों से मिले भी। उन्होंने 1937 में अपनी सेक्रेटरी ऑस्ट्रियन नागरिक एमिली शेंकल से शादी कर ली थी। नेताजी ने 1943 में जर्मनी छोड़कर जापान चले गए और वहां से सिंगापुर। वहीं 21 अक्टूबर को आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन किया था। रासबिहारी बोस आज़ाद हिंद फ़ौज के नेता थे। फ़ौज का पुनर्गठन किया गया और महिलाओं के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का गठन किया, जिसकी मुखिया कैप्टन लक्ष्मी सहगल बनी। नेताजी आजाद हिंद फ़ौज के साथ चार जुलाई 1944 को बर्मा (म्यानमार) पहुंचे। यहीं पर उन्होंने अपना नारा, "तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा" दिया।

देश को आज़ादी का सपना दिखाने वाले सुभाषबाबू के साथ आज़ादी मिलने का बाद उसी देश ने सौतेला व्यवहार किया। लिहाज़ा, वक़्त का तकाजा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मुद्दे पर निजी दिलचस्पी लेकर सात दशक से जारी रहस्य से परदा हटाएं,ताकि पूरा मुल्क जान सके कि सुभाषबाबू के साथ आख़िर हुआ क्या था?

सोमवार, 28 सितंबर 2015

केजरीवाल की महत्वकांक्षा की भेंट चढ़ गईं “आप” की संभावनाएं

हरिगोविंद विश्वकर्मा
बिहार विधानसभा चुनाव में जहां हर प्रमुख राजनीतिक दल अपनी-अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, वहीं अपने आपको राष्ट्रीय पार्टी कहने वाली आम आदमी पार्टी की मैदान में उतरने की हिम्मत ही नहीं पड़ रही है। “आप” सुप्रीमो (अरविंद केजरीवाल के लिए परफेक्ट नाम) अरविंद केजरीवाल देश के क्षेत्रीय दलों की तर्ज पर अपने को दो साल से सेक्यूलर कहने वाले नीतीश कुमार का समर्थन कर रहे हैं।

जो नेता जनता के हित में काम करने का बड़े-बड़े दावे करता रहा हो, उसका जनता का सामना करने में हिचकिचाना यही दर्शाता है कि दल या नेता आश्वस्त नहीं हैं कि उसे जनता का सहयोग मिलेगा ही। यानी उसे यह एहसास हो गया कि पिछले नौ-दस महीने में ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिसे बिना विज्ञापन के जनता जान सके। जिस काम को बताने के लिए इश्तेहार देना पड़े, आमतौर पर उसे काम माना ही नहीं जाता है।

विधानसभा चुनाव में “आप” दूसरे सेक्यूलर दलों की तरह नीतीश कुमार का समर्थन कर रही है। अरविंद भूल गए कि सेक्यूलर पॉलिटिक्स के नाम पर बीजेपी और नरेंद्र मोदी को गरियाने का फॉर्मूला देश 2014 के आम चुनाव में रिजेक्ट कर चुका है। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ देश भर में उपजे आक्रोश के कारण जन्मी इस पार्टी ने चारा घोटाले में सज़ायाफ़्ता लालूप्रसाद यादव और भ्रष्टाचार के कारण रिजेक्टेड कांग्रेस से हाथ मिलाने वाले नीतीश कुमार को समर्थन देने की घोषणा करके पार्टी का बहुत बड़ा नुक़सान कर दिया है जो आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर दिखेगा।

अगर 2014 के आम चुनाव की बात करें तो “आप” ने देश में 432 उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन चार ही लोकसभा में पहुंचे। पंजाब और दिल्ली की 13 सीट में से 12 पर “आप” के प्रत्याशी पहले या दूसरे नंबर पर रहे। वैसे कुल 14 प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे। 47 स्थानों पर “आप” के लोग तीसरे नंबर पर रहे। पार्टी पूरे देश में दो फ़ीसदी वोट बटोरने में सफल रही। महज डेढ़ साल पुरानी पार्टी के लिए यह बुरा प्रदर्शन कतई नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि बीजेपी को अपने पहले चुनाव में केवल दो सीटें मिली थीं। लेकिन केजरीवाल मीडिया के झांसे में आ गए और दिल्ली में सभी सात सीटों पर “आप” की हार से मान बैठे कि उनकी पार्टी वाक़ई देश में हार गई।

कल्पना कीजिए, जनवरी 2014 का वक़्त जब एक से एक धुरंधर लोग आम आदमी पार्टी की तारीफ़ और समर्थन करने लगे थे। मेधा पाटकर जैसी अराजनीतिक शख्सियत भी “आप” के टिकट पर चुनाव मैदान में कूद गई थीं। उस समय ऐसा लगा भी था कि भारतीय राजनीति में एक अलग पार्टी का प्रादुर्भाव हुआ है, जिसकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। लेकिन इस साल गर्मियों में अरविंद के गाली देते स्टिंग ने सब कुछ ध्वस्त कर दिया। आदर्शवाद और संस्कार की डींग हांकने वाले आदमी के मुंह से अपने से ज़्यादा उम्र वाले वरिष्ठ साथियों के लिए गाली सुनकर हर किसी सबका सिर शर्म से झुक गया। अरविंद कभी योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार जैसे सौम्य लोगों को गाली देंगे, यह किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।

दरअसल, सिद्धांत यह कहता है कि गाली-गलौज़ करने वाला कोई आदमी जब शरीफ़ आदमी की भाषा बोलने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि वह अभिनय कर रहा है, क्योंकि कोई शरीफ़ आदमी कितने ही ग़ुस्से में क्यों न हो, कम से कम वह किसी से गाली-गलौज़ नहीं कर सकता या किसी से मारपीट नहीं कर सकता। जो गाली-गलौज़ करता है, वह सब कुछ हो सकता है, शरीफ़ आदमी नहीं हो सकता. हां, वह शरीफ़ आदमी होने की उम्दा ऐक्टिंग ज़रूर कर सकता है। अरविंद भी लगता है अभिनय ही कर रहे थे, जो वास्तव में स्वभावतः गाली-गलौज़ करने वाले व्यक्ति हैं।

अपने जन्म के साल भर के भीतर ही दिल्ली में शानदार जीत हासिल करके सरकार बनानी वाली “आप” ने देश को कांग्रेस-बीजेपी से इतर वैकल्पिक राजनीति देने की जो प्रबल संभावनाएं पैदा की थी, वे सभी छह महीने के भीतर टांय-टांय फिस्स हो गईं। कांग्रेस के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ देश भर में उपजे आक्रोश के कारण जन्मी इस पार्टी के बारे में अगर कहें कि राष्ट्रीय पार्टी बनने की इस दल की तमाम उम्मीदें पार्टी सुप्रीमो केजरीवाल की बदतमीज़ी, महत्वकांक्षा, उच्चकांक्षा और अपरिपक्वता की भेंट चढ़ गईं, तो कोई ग़लत नहीं होगा।

दरअसल, देश को अलग तरह की राजनीति परोसने का दावा करने वाले अरविंद ने पावर इन्जॉय करने के लिए ऐसे क़दम उठाए और ऐसे लोगों को प्रमोट किया जिसके चलते साल भर पहले अपने को राष्ट्रीय पार्टी कहने वाला यह दल दिल्ली की क्षेत्रीय दल बनकर रह गया है। अगर दिल्ली के अगले एसेंबली इलेक्शन तक यह पार्टी समाजवादी पार्टी (उप्र), तृणमूल कांग्रेस (बंगाल), अन्नाद्रमुक (तमिलनाडु), तेलुगु देशम (सीमांध्र), टीआरएस (तेलंगाना), नैशनल कॉन्फ्रेंस (जम्मू-कश्मीर) और राष्ट्रीय जनता दल (बिहार) की तरह स्थाई रूप से दिल्ली का क्षेत्रीय दल बन जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।

पहले लगा था कि केजरीवाल देश के युवाओं की उम्मीद हैं, लेकिन उनकी हरकतों ने तमाम उम्मीदों पर पानी फेर दिया। अब भविष्य में वह नीतीश कुमार को समर्थन देने के फ़ैसले को कितना भी जस्टिफ़ाई करें, शायद ही किसी के गले उतरे। नीतीश अगर जीते तो उसी सरकार की अगुवाई करेंगे जिसमें आरजेडी और कांग्रेस रहेंगे। यानी नीतीश का समर्थन करके अरविंद ने अप्रत्यक्ष रूप से लालू प्रसाद और कांग्रेस का समर्थन किया है।

दिल्ली में अभूतपूर्व सफलता ने “आप” के नेताओं शीर्ष नेताओं को कांग्रेस-बीजेपी जैसी पार्टियों के नेताओं की तरह अहंकारी बना दिया। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते समय अरविंद ने अपने  नेताओं से कहा था, “कुछ भी हो, किसी भी क़ीमत पर अपने ऊपर अंहकार को हावी मत होने देना, क्योंकि अहंकार ने बीजेपी और कांग्रेस का बेड़ा गर्क किया। लेकिन सबसे ज़्यादा अहंकार उनके अंदर ही भर गया। गाली वाला स्टिंग इसका सबसे बड़ा सबूत है।

कहने का मतलब “आप” भी अब वह सबकुछ करने लगी है, जो बीजेपी और कांग्रेस जैसी पार्टियां आज़ादी के बाद से करती आ रही हैं। पहले लगता था कि मीडिया “आप” और अरविंद को लेकर पूर्वाग्रहित है लेकिन लोग मानने लगे हैं कि मीडिया ग़लत नहीं है। धीरे-धीरे साफ़ लगने लगा है कि अरविंद उसी तरह पदलोलुप और उच्चाकांक्षी हैं जिस तरह दूसरे दलों का हाईकमान।

पत्नी के साथ मारपीट जैसे शर्मनाक हरकत के आरोपी सोमनाथ भारतीय के बारे में जागने में केजरीवाल ने बड़ी देर कर दी। ठीक उसी तरह जैसे फ़र्ज़ी डिग्रीधारी जीतेंद्र सिंह तोमर के मामले में। अरविंद के इन दोनों क़रीबी नेताओं ने आम आदमी के मन में आम आदमी पार्टी की बची-खुची क्षवि को पूरी तरह नष्ट कर दी।

सोमवार, 14 सितंबर 2015

क्या देश में धर्मनिरपेक्षता की सियासत ही ख़त्म कर देंगे ओवैसी?

हरिगोविंद विश्‍वकर्मा
लोकसभा सदस्य असदुद्दीन ओवैसी और उनके फ़ायरब्रांड भाई विधायक अकबरूद्दीन की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन को अल्पसंख्यक समाज से मिल रहे बड़े जनसमर्थन से भारतीय जनता पार्टी का तो नहीं, सेक्यूलरिज़्म यानी की धर्मनिरपेक्षता का झंडा लेकर चलने वाले समाजवादी पार्टी और जनता दल यूनाइटेड जैसे दलों के नेताओं का बल्डप्रेशर ज़रूर बढ़ रहा है।

88 साल पुरानी इस पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव में मैदान में उतरने का फ़ैसला किया है। मुबंई समेत समूचे महाराष्ट्र में मुलायम सिंह यादव की पार्टी का सफ़ाया करने वाली एमआईएम के बिहार (उत्तर भारत) का रुख करने पर राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि क्या असद-अकबर की जोड़ी देश में सेक्यूलरिज़्म की सियासत ख़त्म कर देंगी? कहा जा रहा है कि एमआईएम मुलायम, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी के लिए सबसे ज़्यादा ख़तरा बन रही है।

ओवैसी ने कहा है कि पार्टी बिहार के सीमांचल क्षेत्र के मुस्लिम बाहुल्य अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार में उम्मीदवार उतारेगी। हालांकि सीटों की संख्या का अभी खुलासा नहीं किया है। अख़्तर इमाम को बिहार में पार्टी का अध्यक्ष भी नियुक्त करते हुए ओवैसी ने राज्य के पिछड़ेपन के लिए कांग्रेस, नीतीश कुमार और अन्य दूसरी पार्टियों को ज़िम्मेदार ठहराया। नीतीश के ख़िलाफ़ उनके बयान से साफ़ है, वे चुनाव में उनका जमकर विरोध करेंगे।

दरअसल, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र और बिहार के बाद असद के एजेंडे में उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे राज्य हैं, जहां साल-दो साल में विधानसभा चुनाव होंगे। इन राज्यों में मुस्लिम मतदाता ही सेक्यूलर दलों के भाग्य का फ़ैसला करते रहे हैं। वैसे मतदाता जिस तरह से अकबर के भड़काने वाले और नफ़रत भरे भाषणों के दीवाने हो रहे हैं, उससे सेक्यूलर पार्टियों की चिंता बढ़ना लाज़िमी है। राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि आने वाला समय धर्मनिरपेक्षता के नज़रिए से कोई सुखद संकेत नहीं दे रहा है। कह सकते हैं, अच्छे दिन नहीं, बहुत बुरे दिनों की दस्तक हो रही है। अपने को सेक्यूलर कहने वाले नेता अप्रासंगिक हो रहे हैं। इसका सीधा फ़ायदा बीजेपी और एमआईएम को मिल रहा है।

राजनीति पर नज़र रखने वालों का मानना है कि एमआईएम को हैदराबाद की क्षेत्रीय पार्टी कहकर ख़ारिज़ करना बड़ी भूल होगी। इसने कर्नाटक और महाराष्ट्र में बेस बना लिया है। पार्टी अब उत्तर भारत में पांव फैला रही है। बिहार में एसेंबली चुनाव लड़ना उसी रणनीति का हिस्सा है। संभावना भी जताई जा रही है कि बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे राज्यों में अल्पसंख्यकों का एक बहुत बड़ा वोटबैंक एमआईएम से जुड़ सकता है। मुलायम यादवों और मुस्लिम वोटों के दम पर ही अपने परिवार को देश का सबसे ताक़तवर परिवार बनाते हुए शासन कर रहे हैं।

अगर यूपी में उनसे मुस्लिम वोटबैंक खिसका तो निश्चित तौर पर बाप-बेटे का राजनीतिक कॅरियर ख़त्म हो सकता है, क्योंकि असदुद्दीन ऐसा मुंबई में कर चुके हैं। कुछ महीने पहले मुंबई के बांद्रा पूर्व सीट पर उपचुनाव एवं औरंगाबाद कॉरपोरेशन इलेक्शन में एमआईएम ने ख़ूब वोट बटोरे। बांद्रा में पार्टी ज़रूर तीसरे नंबर पर रही, परंतु औरंगाबाद कॉरपोरेशन में 25 सीट जीत ली। इससे पहले 2012 में मराठवाड़ा की नांदेड़ नगरपालिका में इसके 12 नगरसेवक चुने गए थे। विदेश में शिक्षा ग्रहण करने वाले ओवैसी बंधु महाराष्ट्र एसेंबली इलेक्शन में भी सक्रिय रहे। अकबर ने तो तूफानी प्रचार किया था।

मुंबई, ठाणे के मुंब्रा, औरंगाबाद, नांदेड और परभणी में उनकी चुनावी सभाओं में बहुत भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी। ईसाई महिला से निकाह करने के बावजूद 44 साल के अकबर हिंदुओं के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक बयान देने के लिए जाने जाते हैं। कुछ साल पहले हैदराबाद में हिंदुओं के ख़िलाफ़ दिया गया उनका ख़तरनाक बयान यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। जो भी सुनता है, सन्न रह जाता है। यक़ीन नहीं होता कि दूसरे मजहब के ख़िलाफ़ किसी के मन में इतनी नफ़रत भरी है। ख़ासकर धर्मनिरपेक्ष संविधान पर चलने वाले भारत जैसे देश में।

इतिहास गवाह है, किसी क़ौम विशेष के ख़िलाफ़ इतना ज़हर कभी किसी नेता ने नहीं उगला था। यहां तक कि मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना या अली बंधु ने भी कभी खुले मंच से कुछ नहीं कहा था। इतिहासकारों के मुताबिक़ सन् 1946 में विभाजन से ठीक पहले मुस्लिम लीग ने ऐक्शन प्लान ज़रूर चलाया था, लेकिन गुप्त रूप से। बहरहाल, अकबर की उस बयान के कारण ही गिरफ़्तारी भी हुई थी और काफ़ी जद्दोजहद के बाद ज़मानत मिली थी। जेल से बाहर आते ही वह मुसलमानों, ख़ासकर युवाओं के सुपरहीरो बन गए।

बुद्धिजीवी तबक़े का मानना है कि नफ़रत भरे बयानों के लिए मुस्लिम समाज द्वारा अकबर की भर्त्सना होनी चाहिए थी, उनका बहिष्कार होना चाहिए था। जैसे गैर-मराठियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वाले राज ठाकरे को मराठी समाज ने ही चुनाव में रिजेक्ट कर दिया। लेकिन अकबर को भारी समर्थन मिल रहा है। अब तो कई बुद्धिजीवी और सेक्यूलर पत्रकार भी एमआईएम के टिकट की आस लगा बैठे हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि वोटर्स अकबर के नफ़रत भरे बयान का वोटों के ज़रिए स्वागत कर रहे हैं।

महाराष्ट्र में वोटरों के समर्थन का असर था कि एमआईएम को राज्य की एसेंबली में एंट्री मिल गई। पार्टी ने मुंबई की 14 सीटों समेत राज्य में कुल 24 उम्मीदवार खड़े किए थे। जिनमें एनडीटीवी के पुणे पूर्व संवाददाता इम्तियाज जलील (औरंगाबाद पश्चिम) और वारिस यूसुफ पठान (भायखला) जीतने में सफल रहे। तीन सीटों पर एमआईएम दूसरे नंबर पर रही और नौ साटों पर तीसरे स्थान पर। बाक़ी दस सीटों पर भी पार्टी को भरपूर वोट मिले। सबसे अहम, किसी भी एमआईएम उम्मीदवार की ज़मानत जब्त नहीं हुई। यह सेक्यूलर दलों को हैरान करने वाला डेटा है। महाराष्ट्र में कांग्रेस की नैया डुबोने में इस डेटा का बहुत बड़ा योगदान रहा।

बहरहाल, अकबर की सियासत को जिस तरह पसंद किया जा रहा है, वह ख़तरनाक संकेत हैं। एमआईएम का उदय दर्शाता है कि कांग्रेस से मुंह मोड़ चुके वोटर आने वाले दिनों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनतादल यूनाइटेड या तृणमूल कांग्रेस को वोट नहीं देंगे। वे एमआईएम को वोट दें सकते हैं। तब इस देश का धर्म के आधार पर पूरी तरह ध्रुवीकरण हो सकता है।

मतलब, सेक्यूलरिज़्म की राजनीति करने वाले तेज़ी से हाशिए पर जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, सेक्यूलर लोग संघ परिवार, बीजेपी या नरेंद्र मोदी को जितनी गाली देते हैं, संघ और मोदी उतना ही फ़ायदा मिलता है। गुजरात दंगों के बाद सेक्यूलर नेता 12 साल तक हर मंच से मोदी को ‘हत्यारा मोदी’ कहते रहे। इसकी परिणति 2014 के आम चुनाव में मोदी और बीजेपी के लिए 282 सीट के बहुमत के रूप में हुई।

अगर एमआईएम के इतिहास की बात करें तो इसकी स्थापना नवाब महमूद नवाज़ ख़ान क़िलेदार ने 1927 में की थी। एमआईएम के नेता भारत से अलग होने वाले मोहम्मद अली जिन्ना और अली बंधुओं के खेमे में थे। विभाजन के लिए दबाव बनाने के लिए इन लोगों ने 1928 में मुस्लिम लीग से गठबंधन भी किया था।

1944 में नवाब की मौत के बाद निज़ाम के पैरोकार एडवोकेट क़ासिम रिज़वी एमआईएम के अध्यक्ष बने थे। वह भी हैदराबाद स्टेट के भारत में विलय के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भारत के ख़िलाफ़ संघर्ष भी छेड़ दिया था। उनके राष्ट्रविरोधी कार्य को रोकने के लिए सेना को हैदराबाद में ऑपरेशन पोलो शुरू करना पड़ा था। सरदार बल्लभभाई पटेल ने एमआईएम पर प्रतिबंध लगाने के बाद रिज़वी को नज़रबंद करवा दिया। नौ साल बाद उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया था कि चुपचाप सीधे पाकिस्तान चले जाएंगे। रिज़वी पार्टी की ज़िम्मेदारी अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंपकर पाकिस्तान चले भी गए थे। अब्दुल ओवैसी के बाद एमआईएम की कमान उनके बेटे सुल्तान सलाउद्दीन ओवैसी ने संभाली और वह लोकसभा के लिए भी चुने गए। असद और अकबर सुल्तान के ही पुत्र हैं।

यह संयोग ही है कि 1928 में एमआईएम ने विभाजन के मुद्दे पर मुस्लिम लीग का साथ दिया था। 20वीं सदी के आरंभ में माहौल ऐसा ही था। दरअसल, अंग्रेज़ों ने बंग-भंग के ज़रिए अलगाववाद का पौधा 1906 में रोपा था और उसी समय 1906 में जनाब सैयद अहमद ख़ान ने मुस्लिम लीग की स्थापना की थी। महज 41 साल की उम्र में मुस्लिम लीग ने देश का धर्म के आधार पर विभाजन करवा दिया। लिहाज़ा, देश के व्यापक हित में राष्ट्रवादियों को एमआईएम की राजनीति से सावधान रहने की ज़रूरत है।

शनिवार, 12 सितंबर 2015

हिंदी दिवस पर आदर्श भाषण

हरिगोविंद विश्वकर्मा
आदरणीय, अध्यक्ष महोदय, गुरुवृंद, मंचासीन तमाम महानुभाव, अभिभावक और बच्चों, सबको मेरा करबद्ध नमन, प्रणाम और शुभाशीष...

हिंदी दिवस पर आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं...

हरिगोविंद विश्वकर्मा
हिंदी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। य़ह अपने आप में पूर्ण रूप से एक समर्थ और सक्षम भाषा है। सबसे बड़ी बात यह भाषा जैसे लिखी जाती है, वैसे बोली भी जाती है। दूसरी भाषाओं में कई अक्षर साइलेंट होते हैं और उनके उच्चारण भी लोग अलग अलग करते हैं, लेकिन हिंदी के साथ ऐसा नहीं होता। इसीलिए हिंदी को बहुत सरल भाषा कहा जाता है। हिंदी कोई भी बहुत आसानी से सीख सकता है। हिंदी अति उदार, समझ में आने वाली सहिष्णु भाषा होने के साथ भारत की राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका भी है।

पूरब से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण, आप देश के किसी कोने में चले जाइए, दो अलग-अलग भाषा के लोग जब एक दूसरे से बात करेंगे तो केवल हिंदी में ही। महाराष्ट्र का उदाहरण ले सकते हैं, जब यहां कोई गुजरातीभाषी व्यक्ति किसी मराठीभाषी व्यक्ति से मिलता है, तो दोनों हिंदी में बातचीत करते हैं। इसी तरह जब कोई दक्षिण भारतीय को किसी मराठीभाषी या गुजरातीभाषी या बंगालीभाषी से कुछ कहना चाहता है तो वह भी केवल हिंदी का ही सहारा लेता है।

आप चेन्नई या तमिलनाडु के किसी दूसरे इलाक़े में चले जाइए। राजनीतिक रूप से हिंदी का विरोध करने के बावजूद वहां लोग धड़ल्ले से हिंदी बोलते हैं। जो तमिलनाडु की जनता को हिंदी विरोधी जनता मानते हैं, उन्हें भी वहां तमिल लोगों को हिंदी बोलते देखकर हैरानी होगी कि हिंदी का सबसे ज़्यादा विरोध करने वाले तमिलनाडु में भी दूसरी भाषा के लोग आमतौर पर हिंदी में ही बात करते हैं। यही हाल केरल में है। सीमांध्र-तेलंगाना और कर्नाटक में तो हिंदी रच बस गई है।

पिछले साल भोपाल में 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी माना कि भारत में हिंदी सर्वमान्य भाषा है। बचपन का अनुभव शेयर करते हुए प्रधानमंत्री कहा था कि गुजरात के वड़नगर रेलवे स्टेशन, जहां वह पैदा हुए थे, पर चाय बेचते समय जब भी उनसे कोई गैर-गुजरातीभाषी रेल यात्री मिलता था, तो वह हिंदी ही बोलता था, उससे टूटी-फूटी हिंदी बोलते-बोलते वह भी हिंदी सीख गए। यानी जो बात हमारे देश के प्रधानमंत्री कह रहे हैं, उसमें कोई बात तो ज़रूर होगी।

हिंदी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है। विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा कई अवसरों पर अमेरिकी नागरिको को हिंदी सीखने की सलाह दे चुके हैं। वह कहते हैं भविष्य में हिंदी सीखे बिना काम नहीं चलेगा। यह सलाह अकारण ही नहीं थी। भारत उभरती हुई विश्व-शक्ति के रूप में पूरे विश्व में जाना जा रहा है। यहां संस्कृत और भाषा हिंदी को ध्वनि-विज्ञान और दूर संचारी तरंगों के माध्यम से अंतरिक्ष में अन्य सभ्यताओं को संदेश भेजे जाने के नज़रिए से सर्वाधिक सही पाया गया है।

हिंदी भाषा का इतिहास की बात करें तो यह भाषा लगभग एक हज़ार साल पुरानी मानी जाती है। सामान्यतः प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही 'पद्म' रचना प्रारंभ हो गयी थी। हिंदी भाषा व साहित्‍य के जानकार अपभ्रंश की अंतिम अवस्‍था 'अवहट्ठ' से हिंदी का उद्भव स्‍वीकार करते हैं। चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने इसी अवहट्ठ को 'पुरानी हिंदी' नाम दिया। हिंदी चीनी के बाद विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी और इसकी बोलियां उत्तर एवं मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। विदेशों में भी लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरीशस, गयाना, सूरीनाम और नेपाल की जनता भी हिंदी बोलती है। एक अनुमान के अनुसार भारत में 42.2 करोड़ लोगों की आम भाषा हिंदी है। वैसे इस देश में क़रीब एक अरब लोग हिंदी बोलने और समझते हैं।

इसी तरह हिंदी साहित्य का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। भाषा वैज्ञानिक डॉ हरदेव बाहरी के शब्दों में, 'हिंदी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से शुरू होता है। साहित्य की दृष्टि से आरंभ में पद्यबद्ध रचनाएं मिलती हैं। वे सभी दोहा के रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश होते हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परंपरा आगे चलकर शैरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरंतर बढ़ता गया। हिंदी को कवि विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किंतु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिंदी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब शुरू हुआ। इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि शुरू में हिंदी शब्द का प्रयोग मुस्लिम आक्रांताओं ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य 'भारतीय भाषा' का था।

दरअसल, हिंदी को हर क्षेत्र में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर ही सन् 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को हर साल हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।  निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान के 17 वें अध्याय की धारा 343/एक में वर्णित है: भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। भारतीय संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा। 14 सितंबर 1949 को ही संविधान सभा ने लंबी बहस के बाद एक मत से निर्णय लिया था कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। बहस में देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी भाग लिया था। संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 को पं. नेहरू ने तीन प्रमुख बातें कही थीं-
·         पहली बात- किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता।
·         दूसरी बात- कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती।
और
·         तीसरी बात- भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना ही होगा।
संविधान सभा की भाषा संबंधी बहस लगभग 278 पृष्ठों में छपी है। इस संबंध में डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगार की अहम भूमिका रही। बहस में सहमति बनी कि भारत की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। हालांकि देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों तथा अंग्रेज़ी को 15 वर्ष या उससे अधिक अवधि तक प्रयोग करने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। अंतत: आयंगर-मुंशी का फ़ार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार कर लिया गया। वास्तव में अंकों को छोड़कर संघ की राजभाषा के सवाल पर अधिकतर सदस्य सहमत हो गए। अंकों के बारे में भी यह स्पष्ट था कि अंतर्राष्ट्रीय अंक भारतीय अंकों का ही एक नया संस्करण है। कुछ सदस्यों ने रोमन लिपि के पक्ष में प्रस्ताव रखा, लेकिन देवनागरी को ही अधिकतर सदस्यों ने स्वीकार किया।

भारत में भले ही अंग्रेज़ी बोलना सम्मान की बात मानी जाती हो, पर विश्व के बहुसंख्यक देशों में अंग्रेज़ी का इतना महत्त्व नहीं है। हिंदी बोलने में हिचक का एकमात्र कारण पूर्व प्राथमिक शिक्षा के समय अंग्रेज़ी माध्यम का चयन करना है। आज भी भारत में अधिकतर लोग बच्चों का दाख़िला ऐसे अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में करवाना चाहते हैं। जबकि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु सर्वाधिक आसानी से अपनी मातृभाषा को ही ग्रहण करता है और मातृभाषा में किसी भी बात को भली-भांति समझ सकता है। अंग्रेज़ी भारतीयों की मातृभाषा नहीं है। अत: भारत में बच्चों की शिक्षा का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम हिंदी ही है।

देश की मौजूदा शिक्षा पद्धति में बालकों को पूर्व प्राथमिक स्कूल में ही अंग्रेज़ी के गीत रटाए जाते हैं। घर में बालक बिना अर्थ जाने ही अतिथियों को अंग्रेज़ी में कविता सुना दे तो माता-पिता का मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है। कई अंग्रेज़ी भाषी विद्यालयों में तो किसी विद्यार्थी के हिंदी बोलने पर ही मनाही होती है। हिंदी के लिए कई जगह अपमानजनक वाक्य लिखकर तख्ती लगा दी जाती है। अतः बच्चों को अंग्रेज़ी समझने की बजाय रटना पड़ता है, जो अवैज्ञानिक है। ऐसे अधिकांश बच्चे उच्च शिक्षा में माध्यम बदलते हैं और भाषिक कमज़ोरी के कारण ख़ुद को समुचित तरीक़े से अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं और पिछड़ जाते हैं। इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिंदी पढ़ता है, फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिंदी छुड़वा ही देता है।

हिंदी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिह्न लगाए जाते हैं। वैज्ञानिक विषयों, प्रक्रियाओं, नियमों और घटनाओं की अभिव्यक्ति हिंदी में कठिन मानी जाती है, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। हिंदी की शब्द संपदा अपार है। हिंदी में से लगातार शब्द बाहर हो जाते हैं तो कई शब्द प्रविष्ट होते हैं। हिंदी के अनेक रूप आंचलिक या स्थानीय भाषाओं और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं। इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है, किंतु हिंदी को वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम विश्व भाषा बनाने के लिए इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना होगा। अनेक क्षेत्रों में हिंदी की मानक शब्दावली है, जहां नहीं है, वहां क्रमशः आकार ले रही है।

जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है, वह कही गई बात का आशय संप्रेषित करता है, किंतु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है, जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ निकले। इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छा शक्ति की कमी और भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है। हिंदी को समक्ष बनाने में सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओं के साहित्य को आत्मसात कर हिंदी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषयवस्तु को हिंदी में अभिव्यक्त करने की है। हिंदी के शब्दकोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है। इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओं, विदेशी भाषाओं, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना बहुत ज़रूरी है।

तकनीकी विषयों और गतिविधियों को हिंदी भाषा के माध्यम से संचालित करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उनकी पहुंच असंख्य लोगों तक हो सकेगी। हिंदी में तकनीकी शब्दों के विशिष्ट अर्थ सुनिश्चित करने की ज़रूरत है। तकनीकी विषयों के रचनाकारों को हिंदी का प्रामाणिक शब्द कोष और व्याकरण की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब और जैसे समय मिले, पढ़ने की आदत डालनी होगी। हिंदी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी यानी किसी भाषा, बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं, अपितु भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है। चूंकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती।

हिंदी भाषा की चर्चा बॉलीवुड यानी हिंदी सिनेमा की चर्चा किए बिना अधूरी मानी जाएगी। जी हां, हिंदी के प्रचार-प्रसार में हिंदी सिनेमा की सबसे ज़्यादा भूमिका रही है। हिंदी फिल्में शुरू से देश दुनिया में हिंदी का अलख जगाती रही हैं। यही वजह है कि जितने लोकप्रिय हिंदी फ़िल्मों में काम करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री हुए, उतने लोगप्रिय दूसरी भाषा के कलाकार नहीं हो पाए। आजकल तमाम चैनलों पर प्रसारित हिंदी सीरियल हिंदी का वैश्वीकरण कर रहे हैं। हिंदी की चर्चा पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के ज़िक्र के बिना पूरी हो ही नहीं सकती क्योंकि दुनिया में हिंदी का परिचय बतौर विदेश मंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने कराया था। जहां भारतीय नेता विदेशों में हिंदी बोलने में संकोच करते हैं, वहीं चार अक्टूबर 1977 को दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में वाजपेयी ने हिंदी में भाषण दिया और उन्होंने इसे अपने जीवन का अब तक का सबसे सुखद क्षण बताया था। यहां, यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि सभी भारतीय भाषाओं की हिंदी बड़ी बहन है। बड़ी बहन अपनी सभी छोटी बहनों का ख़याल रखती है।


जैसा कि आप लोगों को पता है और मैं पहले बता चुका/चुकी हूं कि पिछले साल भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में कुल 29 देशों के पांच हज़ार से ज़्यादा हिंदी विद्वानों और प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया लिया। प्रधानमंत्री के अलावा इसमें केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी हिस्सा लिया। उन्होंने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर ज़ोर दिया। यानी अगर देश का गृहमंत्री हिंदी की पैरवी कर रहा है तो यह उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी को अपने देश में आधिकारिक रूप से वही सम्मान मिल जाएगा जो चीनी को चीन में, जापानी को जापान में मिला हुआ है।

इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात ख़त्म करता/करती हूं।

जय हिंद
जय हिंदी