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सोमवार, 19 नवंबर 2018

बनारस की दिनचर्या का हिस्सा है गाली


हरिगोविंद विश्वकर्मा
सेंसर बोर्ड ने जिन गालियों को आधार बनाकर फिल्मकार विनय तिवारी की फिल्म "मोहल्ला अस्सी" को कई साल तक लटकाए रखा, वह गाली कोई अब्यूजिंग लैंग्वेज नहीं, बल्कि वह काशी यानी बनारस की सहज और स्वाभाविक भाषा और जीवनचर्या है। जो कमोबेश हर जबान पर गाहे-बगाहे आती रहती है। अगर आप बनारस में कुछ दिन रहें, वहां की गलियों में घूमें, लोगों से मिले और वहां के जन-जीवन में शामिल हों तो आपको भी लगेगा कि यह गाली एक तरह से बनारस की नेचुरल अभिव्यक्ति है। बनारस के लोगों के लिए यह गाली एक तरह से प्राण ऊर्जा का काम करती है। इससे चौबीस घंटे लोगों में ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है। बस, बनारस के इसी फलसफे को सबसे पहले भारतीय सेंसर बोर्ड और बाद में दूसरे वैधानिक संस्थान समझ नहीं पाए और मोहल्ला अस्सी को गाली-गलौज वाली फिल्म की कैटेगरी में रखकर अनावश्यक विलंब कर दिया। इस कारण काशी से दूर रहने वाले काशी की इस नेचुरलिटी को रूपहले परदे पर देखने से वंचित रह गए।

बहरहाल, कई साल की लंबी अदालती लड़ाई और जद्दोजहद के बाद विवादास्पद मोहल्ला अस्सी फिल्म अंततः पिछले शुक्रवार से सिनेमाघरों में रिलीज हो गई। वृहस्पतिवार की शाम अंधेरी पश्चिम के फन रिपब्लिक में इस फिल्म का प्रीमियर शो रखा गया था, जिसमें मोहल्ला अस्सी के अभिनेता-अभिनेत्री और फिल्म से जुड़े दूसरे लोगों के अलावा बड़ी संख्या में बॉलीवुड और मीडिया के लोग आमंत्रित थे। लोगों ने फिल्म देखने का बाद उसकी जमकर तारीफ की। वाकई कई कलाकारों ने फिल्म में जोरदार अभिनय किया है।

अगर फिल्म मोहल्ला अस्सी की बात करें तो, प्रचीनतम शहर बनारस की पृष्ठभूमि में बनी मोहल्ला अस्सी फिल्म भारतीय समाज, खासकर धर्मनिरपेक्षता पर करारा प्रहार करती है। दरअसल, फिल्म बताती है कि एक धर्म-निरपेक्ष समाज में जब सांप्रदायिकता के माहौल के धर्म जहर का रिसाव शुरू होना शुरू होता है, तब माहौल बदलने में समय नहीं लगता है। फिल्म के आखिर में यह भी संदेश दिया गया है कि इन बाहर हो रही घटनाओं से एक आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आता है। आम आदमी के जीवन में परिवर्तन तभी आता है जब वह समय के साथ खुद को सुधारने की कवायद में जुट जाता है।

इस फिल्म की कहानी दो ट्रेक पर चलती है। पहली पंडित धर्मनाथ पांडेय (सन्नी देओल) को समय के बदलाव के साथ अपने आदर्श ध्वस्त होते नजर आते हैं तो दूसरी ओर भारत की राजनीतिक परिस्थितियां विचलित कर देने वाली है। अस्सी पर पप्पू की चाय दुकान, पंडितों का मुहल्ला और वहां के घाट  इस द्वंद्व के चित्रण का मंच है। मंडल कमीशन और मंदिर-मस्जिद विवाद की गरमाहट पप्पू की चाय की चुस्कियों में भी महसूस की जाती है, जहां भाजपा, कांग्रेस और कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग अकसर चाय पर चर्चा करते देखे जाते हैं। फिल्म में बाजारवाद ने मूल्यों और परम्पराओं को निशाना बनाया गया है। सच पूछो तो यह फिल्म राजनीति व बाजारीकरण के प्रभावों से समाज, मूल्यों और परम्पराओं में पैदा हुए द्वंद्व को बयां करती है।

कुछ लोग जरूरतों के लिए मूल्यों को किनारे कर देते हैं और बाजारीकरण से पैदा अवसर भुनाते हैं। वहीं कुछ लोग लकीर के फकीर बनकर परंपराओं से अब भी चिपके हुए हैं, उसके लिए वे तमाम दिक्कतें भी उठाने को तैयार हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए परंपराओं को छोड़ने के लिए तैयार हैं, लेकिन लोकलाज की वजह से कोई कदम उठाने से डरते हैं, परंतु जैसे ही उन्हें मौका मिलता है, पहली जमात के लोगों में शामिल हो जाते हैं।

इस फिल्म को बनाया है विनय तिवारी ने और इसका निर्देशन चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने किया है। यह बहुत शानदार तरीके से बनाई गई है। मोहल्ला अस्सी में असली बनारस पूरी तरह जीवंत दिखता है। इस फिल्म में बनारस की गालियों के साथ साथ बनारस की गलियां और वहां का फक्कड़ जीवन खी उभर कर सामने आया है। साहित्य मनीषी डॉ काशीनाथ सिंह के चर्चित उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर बनी इस फिल्म में गाली का प्रचुर इस्तेमाल किया गया है। वैसे मूल उपन्यास में भी बनारस की स्वाभाविक गाली है। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास - झीनी झीनी बीनी चदरिया के बाद काशी का अस्सी में ही सबसे ज्यादा गाली का प्रयोग किया गया है।

बतौर नायक भले ही सन्नी देओल ने ठीकठाक अभिनय किया हैं लेकिन कन्नी गुरु के किरदार में रविकिशन की अभिनय ज्यादा सहज है। साक्षी तंवर, दयाशंकर पांडेय और मुकेश तिवारी, अखिलेंद्र मिश्र समेत सभी कलाकारों ने प्रभावी अभिनय किया है। संगीत के मामले में यह फिल्म पिछड़ गई है।

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

महिलाओं का रक्षा कवच बनेगी हैशटैग मीटू क्रांति

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अपनी पूरी पत्रकारिता के दौरान शक्तिशाली संपादक रहे एमजे अकबर को अगर पता होता कि जिन महिलाओं के साथ वह कथिततौर पर यौनचेष्टा, जैसा कि आरोप है, कर रहे हैं, वही महिलाएं कभी हैशटैग मीटू मुहिम के जरिए उनके कुकृत्य को दुनिया के सामने ला देंगी, जिसके चलते समाज में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाएगा, उनका मान-सम्मान और प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी, उन्हें ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ के शर्मनाक अंदाज़ में केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देना पड़ेगा, तो वह निश्चित रूप से किसी की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ यौनचेष्टा नहीं करते। कहने का मतलब हैशटैग मीटू ने लंपट टाइप पुरुषों के लिए एक 'टेरर क्रिएट' तो कर ही दिया। इस टेरर में जो इंपैक्ट है, वह भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और 354 में भी नहीं है। कहने का मतलब हैशटैग मीटू के रूप में महिलाओं को एक कारगर रक्षा कवच मिल गया है। इस बिना पर तो हैशटैग मीटू को मुहिम न कह कर एक क्रांति कहा जाना चाहिए।

पुरुष वर्ग में जिस तरह की घबराहट और बेचैनी हैशटैग मीटू क्रांति के बारे में देखी जा रही है, उसका यही तात्पर्य है कि इसके निश्चित रूप से दूरगामी परिणाम होंगे। यौन-शोषण पर अंकुश लगाने की दिशा में यह मील का पत्थर साबित होगा। यह हर महिला के लिए रक्षा कवच बनकर घर ही नहीं कार्यस्थल पर उसकी हिफाजत करेगा। वहशी स्वभाव के पुरुष हैशटैग मीटू के डर से महिलाओं की ओर देखने का दुस्साहस नहीं करेंगे। अभी कुछ सेलिब्रेटीज और बड़ी महिला पत्रकार सामने आई हैं। आगे आम महिलाएं सामने आने वाली हैं, क्योंकि मीटू क्रांति अब देश के कोने-कोने में पहुंच रही है। यह भी कह सकते हैं कि मीटू यौन शोषण के ख़िलाफ़ महिलाओं के संघर्ष का सबसे सशक्त माध्यम बन गया है। यह निश्चित तौर हर स्त्री को आज़ादी और गरिमा के साथ जीने का अवसर प्रदान करेगा। वे आज़ाद पक्षी की तरह खुले आसमान में उड़ सकेंगी।

अभिनेत्री तनुश्री दत्‍ता के हिम्मत की दाद देनी होगी। सबसे पहले खुले तौर पर तनु ने ही मीटू के ज़रिए अभिनेता नाना पाटेकर पर 'ग़लत तरीक़े से छूने' का आरोप लगाया था। उसके बाद से तो रोज़ाना नए-नए और सनसनीखेज़ मामले सामने आ रहे हैं। इनमें कई तो रोंगटे खड़े करने वाले हैं। महिलाओं के अनुभव पढ़कर हर कोई सोचने लगता है कि कोई पुरुष इतना वहशी भी हो सकता है, वह इतना भी नीचे गिर सकता है। कम से कम एमजे अकबर की हरकत तो इसी कैटेगरी में आती है। उन पर अब तक एक दो नहीं, पूरे दो दर्जन महिलाओं ने यौन शोषण का आरोप लगाया है। सभी महिलाओं के आरोप बेहद संगीन हैं। इसीलिए उनका मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा ले लिया गया। यक़ीनन इस तरह के चाल-चरित्र वाले व्यक्ति के लिए सरकार में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। सबसे अहम् बात, नाना और अकबर को छोड़ भी दें तो भी हैशटैग मीटू अभियान के चपेट में ऐसे नामचीन लोग आ रहे हैं, जिनकी समाज में बड़ी प्रतिष्ठा और सम्मानित छवि रही है। इन अभियान के चलते ऐसे लोग रातोंरात आसमान से फ़र्श पर गिर रहे हैं।

इसमें दो राय नहीं कि सोशल मीडिया पर इन दिनों हैशटैग मीटू के चलते पुरुष प्रधान भारतीय समाज में पुरुषों का विद्रूप चेहरा सामने आ रहा है। दरअसल, सदियों से स्त्री के साथ पुरुष जानवर जैसा व्यवहार करता रहा है। पुरुष की यौनचेष्टाओं को महिलाएं चुपचाप सहती आ रही हैं और ऊफ तक भी नहीं करती हैं। जो एकाध विरोध करती हैं, उन्हें बलात दबा दिया जाता है। यह मामला इसलिए भी सामने नहीं आ पाता है, क्योंकि सारा तंत्र ताक़तवर पुरुष के पक्ष में होता है। लिहाज़ा, हिम्मत करने वाली महिला पर तरह तरह के लांछन लगा दिए जाते है। हैशटैग मीटू के साथ भी यही हो रहा है। होना तो यह चाहिए था कि पुरुष प्रधान समाज और उसके पैरोकार सहिष्णुता का परिचय देते और आप-बीती सुनाने वाली महिलाओं के पक्ष में खड़े होते। उनके साहस की सराहना करते, लेकिन ये लोग यह भी सहन नहीं कर पाया। अब इनकी ओर से इस क्रांति के बारे में नकारात्मक बातें कही जा रही हैं। तरह-तरह के जोक्स बनाए जा रहे हैं। 21वी सदी में भी नारी को चरणों की दासी के रूप में देखने की इच्छा रखने वाले पुरुष तो विरोध कर ही रहे हैं, कई पितृसत्तावादी महिलाएं भी इसका यह कहकर विरोध कर रही हैं कि जब यौन शौषण हो रहा था, तब क्यों चुप रहीं। यह भी कहा जा रहा है कि काम निकालने के लिए अमुक महिला ने ही उस पुरुष को उकसाया होगा और काम निकल जाने के बाद अब आरोप लगा रही है। कई लोग कह रहे हैं, जब काम था तब ‘स्वीटू’ काम निकल गया तब ‘मी टू’।

इस तरह का कुतर्क करने वाले लोग भारतीय समाज में महिलाओं का वास्तविक स्थिति से या तो अनजान हैं या जानबूझ कर अनजान बन रहे हैं। यह तो सब जानते हैं कि भारतीय समाज में महिलाओं को सरवाइव करने के लिए घर में ही नहीं, बल्कि बाहर भी तरह तरह के समझौते करने पड़ते हैं। महिलाएं अब तक इतनी सक्षम नहीं हैं कि बिना काम या नौकरी के घर की बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर सकें। इसलिए मजबूरी में काम देने वाले, बॉस या प्रभावशाली सहकर्मी की उन हरकतों को भी सह लेती हैं, जिसे मजबूरी न होने पर कतई न सहतीं। कह सकते हैं कि पराश्रित बनाकर रखी गई महिलाएं यौन शोषण को ज़हर के घूंट की तरह पीकर चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती रही है। वस्तुतः समय के साथ ज़ुल्म और अत्याचार सहन करने की प्रवृत्ति उसके डीएनए में घुस गई और उसके भीतर विरोध करने का मैकेनिज़्म ख़त्म हो गया। इसके लिए भी हमारा समाज ही ज़िम्मेदार है। समाज का ताना-बाना ही ऐसा है कि छेड़छाड़ या यौन-उत्पीड़न या फिर इस तरह की किसी बात को सार्वजनिक करने पर पुरुष की नहीं, बल्कि महिला की ही बदनामी समझी जाती है। इसी अवधारणा के तहत बलात्कार या यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं का नाम तक गुप्त रखने की परंपरा है। ऐसे परिवेश में किसी स्त्री के लिए यौन-उत्पीड़न की घटना का सबूत पेश करना कितना दुष्कर है, यह इस समाज के ताने-बाने को समझना वाले ही समझ सकता है।

अगर रोज़ी-रोटी के लिए कोई महिला दूसरा रास्ता अपनाती या समझौते करती है अथवा बॉस या काम देने वाले उस पुरुष की यौनचेष्टा झेलती, जिसे वह दिल से पसंद नहीं करती, तो यह समाज के लिए और भी बड़ा कलंक है। मानव सभ्यता के इतने साल बाद भी हमने ऐसे समाज का सृजन कि किसी महिला को नौकरी या काम उसकी प्रतिभा के बल पर नहीं, बल्कि उसके महिला होने, उसकी सूरत, उसकी फिज़िक और उसके कंप्रोमाइज़ करने के आधार पर मिलती है। यह किसी स्वस्थ समाज का लक्षण तो बिल्कुल नहीं है। यहां हैशटैग मीटू के बारे में एक बात समझना बहुत ज़रूरी है। महिलाओं का देर से मुंह खोलना मुद्दा ही नहीं है। इसलिए यह कहने के कोई मतलब नहीं कि यौन शोषण के समय मुंह क्यों नहीं खोला। यहां एकमात्र मुद्दा यह है कि अमुक पुरुष ने किसी महिला की इच्छा के विपरीत उसे हासिल करने की चेष्टा की, यानी उसने क़ानूनन अपराध किया है। कोई भी अपराध समय के साथ कम या ख़त्म नहीं हो जाता। लिहाज़ा, उन पुरुषों का भी अपराध बिल्कुल नहीं हुआ है, जिन पर यौनचेष्टा के आरोप लग रहे हैं।  अब भी समय है कि इन लोगों के ख़िलाफ़ सुओ मोटो के तहत आपराधिक मामला दर्ज़ किया जाए और  उनके अपराध के लिए कानून के मुताबिक उनको सज़ा दी जाए, अन्यथा ये लोग ऐसे यौन अपराध आगे भी करते रहेंगा। इनकी नीयत अगर औरतों के प्रति तब ठीक नहीं थी तो अब भी ठीक नहीं होगी, क्योंकि इंसान की आदत कभी नहीं बदलती है।

कई क़ानूनविद्, जिनमें कई नामचीन महिलाएं भी शामिल हैं, कह रहे हैं कि मीटू के मामले सबूत मांगने वाली अदालतों में बिल्कुल नहीं ठहरेंगे, इसलिए इन मामलों में सज़ा मिलने की संभावना बहुत ही कम है। अगर सबूत मांगने वाली अदालत सज़ा नहीं दे सकी तो क्या हुआ, जिन-जिन लोगों के यौन अपराधों से परदा हटा है, उनकी हालत आज सज़ायाफ़्ता अपराधी से भी गई गुज़री हो गई है। हर जगह उन्हें संदेह की नज़र से देखा जा रहा है। यानी उनकी जीवन भर की कमाई उनसे छिन गई। इससे बड़ी सज़ा और कुछ हो ही नहीं सकती। इसका अर्थ यह ही कि यह अभियान बिल्कुल बेकार नहीं गया। सही मायने में अपराधी को सज़ा मिल रही है। वह जीवन भर इस ज़िल्लत से नहीं उबर पाएगा।

रविवार, 19 अगस्त 2018

मुंबई के नाथ टेकड़ीवाला बाबुलनाथ मंदिर

हरिगोविंद विश्वकर्मा 
सावन का महीना शुरू हो गया है। यह मनभावन महीना हिंदुओं के लिए बहुत अहम है। इसे सबसे पवित्र महीना माना जाता है। इस महीने में मुंबई के जिस धार्मिक स्थल में सबसे चहल पहल होती है वह मुंबई का बाबुलनाथ मंदिर है। इसके अलावा यहाँ महाशिवरात्रि और हर सोमवार को श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। 

प्राचीनकाल का ये शिव मंदिर मुंबई ही नहीं पूरे भारत में बने सबसे पुराने मंदिरों में से एक है।  गिरगांव चौपाटी के निकट मालाबार हिल्स की पहाड़ी पर बना यह प्राचीन मंदिर बबुल (बाबुल) के पेड़ के देवता के रूप में जाना जाता है, क्योंकि यह बबूल के पेड़ के देवता के रूप में विराजमान हैं। यहाँ के भगवान शंकर को मुंबई के लिफ्ट वाले शिवबाबा भी कहा जाता है।

हिंदू राजा भीमदेव ने 12 वीं शताब्दी में पवित्र शिवलिंग और मूर्तियों को बाबुलनाथ मंदिर के अंदर स्थापित करवाया था। यह मंदिर लंबे समय तक भूमि के अन्दर समाहित हो गया था। मौजूदा मंदिर को फिर से खोजा गया और जब मूल मूर्तियों को खोदकर बाहर निकाला जा रहा था तो पाँचवीं मूर्ति पानी में डूब कर टूट गई थी। आज मूलतः भगवान शिव, पार्वती, गणेश और हनुमान जी की चार मूर्तियाँ मंदिर में स्थापित हैं। 

वैसे तो मंदिर को लेकर कोई पक्के सुबूत अब तक किसी के हाथ नहीं लगे हैं, मगर कुछ इतिहासकार बताते हैं कि किसी ज़माने में यहाँ घना जंगल और चरागाह हुआ करता था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जहाँ पर आज मालाबार पहाड़ी है, आज से लगभग 300 साल पहले तक वहां चरागाह था, जिसमें बबूल के वृक्ष बहुतायत में थे। कहा जाता है कि इस इलाक़े की अधिकांश जमीन धनवान सोनार पांडुरंग की थी। पांडुरंग के पास अनेक गायें थीं, जिनकी देखभाल बाबुल नामक एक चरवाहा करता था, झुंड में कपिला नाम की भी एक गाय थी। वह हरी घास अधिक खाती थी और  अन्य गायों की अपेक्षा अधिक दूध देती थी। एक शाम कपिला ने दूध का एक भी बूँद नहीं दिया। पांडुरंग के पूछने पर बाबुल ने कहा कि कपिला दूध एक भगवान को पिला देती है। जहाँ गाय दूध गिराती थी, उसे खोदने पर एक स्वयंभू शिवलिंग निकला अर्थात काले पत्थर से निर्मित एक आत्म-अस्तित्व वाली शिवलिंग प्राप्त हुई। वही स्थान अब बाबुलनाथ मंदिर है।

मंदिर की वास्तुकला और अद्भभुत आन्तरिक संरचना को देखकर, ऐसा लगता है जैसे कैलाश पर्वत पर स्थित मंदिर वहीं पर मौजूद है। मंदिर की संपूर्ण छत और खंभे हिंदू पौराणिक कथाओं के सुंदर चित्रों से सुशोभित हैं। मंदिर का निर्माण सन् 1780 ई में हुआ था। अब तो मंदिर तक जाने के लिए लिफ़्ट यानी एस्केलेटर बना दिया गया है, जिससे भक्त आसानी से यहाँ पहुँच जाते हैं।

यदि आप एक व्यस्त शहरी जीवन जी रहे हैं तो धार्मिक स्थानों पर भ्रमण करने से आपके मन को शांति मिल सकती है। सदियों से यहां विराजमान बबूल देवता रोजाना सैकड़ों भक्तों को आशीर्वाद देकर उनकी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। रोजाना सैकड़ों की संख्या में भक्तों की भीड़ ऊंचाई पर स्थापित महादेव जी के इस अद्वितीय रूप के दर्शन करने को आती है।

स्वयंभू शिवलिंग - जंगलेश्वर महादेव मंदिर

हरिगोविंद विश्वकर्मा
वैसे तो सावन में हर शिवमंदिर में शिव भक्त आते हैं, लेकिन जंगलेश्वर महादेव मंदिर में बम-बम भोले बोलने वालों की भारी भीड़ उमड़ती है। इसीलिए बारिश के इस महीने में जंगलेश्वर मंदिर गुलजार रहता है। सोमवार के दिन तो भक्तों का रेला ही नहीं थमता है। घटकोपर पश्चिम में बना मंदिर करीब दो सौ साल पुराना है। बेहद सुकून देने वाला यह मंदिर भक्तों को संपूर्ण आनंद देता है। विशाल गुंबद और अर्धचंद्राकार स्तंभों वाले इस प्राचीन शिवमंदिर में विशालाकार स्वयंभू शिवलिंग दूर से ही नजर आता है। इस मंदिर के गर्भगृह में लिंग रूप में स्वयंभू रूप में प्रकटे महादेव, देवी पार्वती, गणेश, माता गंगा और माता लक्ष्मी विराजमान हैं। 1994 में समाजसेवक बाल सुर्वे ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। जीर्णोद्धार के बाद इसका पूरा स्वरूप ही बदल गया है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, सदियों पहले खैरानी रोड जंगल और पहाड़ से घिरा था। यहां की बंजर भूमि में सर्पों का बसेरा था। माना जाता है कि जब भी कहीं कोई संकट आता है, वहां सर्प दिखाई देने लगते हैं। यह भी कहा जाता है कि सांपों के कारण यहां कोई भी जीवित नहीं बच पाता था। कालांत में संयोग से यहां साधु-संत आने लगे। साधुओं ने उबड़-खाबड़ जमीन समतल करके छोटा-सा मंदिर बनाया और उसमें शिवलिंग स्थापित कर दिया। बाद में इस पूरे इलाके में सर्प दिखाई देने बंद हो गए और इलाका मानवों से आबाद होने लगा। धीरे-धीरे यह मंदिर साधुओं के बीच बहुत लोकप्रिय हो गया। कहते हैं, एक दिन एक सांप मंदिर परिसर में आया और शिव की मूर्ति के बगल में बैठ गया। साधुओं ने उसे दूध पिलाया। उस दिन से वह सांप नियमित रूप से शिवलिंग के बगल में बैठने लगा। बाद में यह मंदिर सांप का स्थाई निवास बन गया, यह सिलसिला लंबे समय तक चला। बहरहाल, जैसे जैसे समय बीतने लगा और यहां की जनसंख्या बढ़ने लगी, उसके साथ ही सांप मंदिर परिसर से गायब होते गए।

एक दूसरी पौराणिक कथा के मुताबिक दौ सौ साल पहले यह बीहड़ इलाका घने जंगल से घिरा था। एक दिन जंगल साफ़ करते समय, जंगली महाराज उर्फ जंगली बाबा नाम के साधु को महादेव का दुर्लभ शिवलिंग मिला। साधु ने उसे मंदिर में स्थापित किया। चूंकि शिवलिंग धरती से निकला था, इसलिए जंगलेश्वर मंदिर में शिवलिंग को स्वयंभू शिवलिंग माना जाता है। जंगली महाराज के नाम पर इस मंदिर का नाम जंगलेश्वर महादेव मंदिर पड़ा। 

यह मंदिर करीब दो एकड़ भूखंड में फैला है। यहां स्थानीय इलाकों के लोग ही नहीं राज्यों के दूसरे हिस्से के लोग भी भगवान शिव की प्रार्थना करने आते हैं। कहा जाता है कि जो भी पूजा करता है उसकी तपस्या पूरी हो जाती है।

बाबुलनाथ के बाद यह प्राचीनतम मंदिर है। मंदिर में सोमवार को जुटने वाले हजारों भक्तों में ज्यादातर उत्तर भारतीय और गुजराती होते हैं। महाशिवरात्रि को भी भारी भीड़ उमड़ती है। इस मंदिर में सिर्फ शांति का वास है।
संभाजी लाड, 
सदस्य, 
जंगलेश्वर महादेव मंदिर भक्त मंडल

बहुत पुराना होने के कारण यह मंदिर जीर्ण अवस्था में था। जीर्णोद्धार के बाद इसकी भव्यता बढ़ गई। भगवान शिव की महिमा अपरंपार है, उनके पास सोने का दिल है। भोलेनाथ सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।  
-दीवाकर महाराज, 
पुजारी,
जंगलेश्लर महादेव मंदिर

शनिवार, 11 अगस्त 2018

सावन का आकर्षण - तुंगारेश्वर महादेव मंदिर

हरिगोविंद विश्वकर्मा

अगर आप शिवभक्त हैं और प्रकृति से प्रेम करते हैं, लेकिन व्यस्तता या किसी दूसरे कारण से सावन महीने में वसई के तुंगारेश्वर महादेव मंदिर नहीं जा पाए हैं तो यकीन मानिए आप बेहद सुकून देने वाले आनंद से वंचित हैं। वैसे तो सावन में महादेव के हर मंदिर में भक्त आते हैं, लेकिन शिव को अत्यंत प्रिय इस महीने में सातिवली पहाड़ियों पर स्थित तुंगारेश्वर मंदिर में भक्तों का भारी हुजूम उमड़ता है। यह स्थान इतना मनोरम और हरियाली भरा है कि यहां से वापस लौटने का मन ही नहीं करता। यह मान्यता है कि तुंगारेश्वर महादेव की परिवार के साथ पूजा करने से पारिवारिक सुख शांति मिलती है और यश व शोहरत में वृद्धि होती है।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान महादेव शंकर भोलेनाथ को सावन महीना बहुत प्रिय है। इसीलिए सावन में शिव का दर्शन-पूजन और अभिषेक भक्तों के लिए एक अनुष्ठान की तरह होता है। दरअसल, पूरे सावन मास में शैव संप्रदाय के अनुयायी बाबा भोलेनाथ के बारह ज्योतिर्लिंगों में से किसी एक जगह सामर्थ्य के अनुसार जलाभिषेक करते हैं। जो भक्त ज्योतिर्लिंग नहीं जा पाते हैं, वे किसी प्राचीन शिव मंदिर में श्रावणी पूजा करते हैं। इसीलिए तुंगारेश्वर महादेव मंदिर समेत तमाम प्राचीन मंदिरों में सावन में भीड़ होती है।

समुद्र तल से 2177 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस जगह, तुंगारेश्वर मंदिर के अलावा काल भैरव मंदिर, जगमाता मंदिर और बालयोगी सदानंद महाराज मठ भी है। यहां महाशिवरात्रि पर जनसैलाब उमड़ता है। मौजूदा तुंगारेश्वर मंदिर तीन सदी से भी अधिक पुराना है। वैसे इसका जिक्र पुराण में भी मिलता है। इसे वास्तु का ध्यान रखकर बनाया गया है, इससे यहां आने वालों को धनात्मक ऊर्जा बहुत ज्यादा मिलती है। शिवलिंग के करीब एक खास जगह ध्यान लगाने से सकारात्मक ऊर्जा अधिकतम स्तर तक पहुंच जाती है। यह देश के सबसे सुकून देने वाले मंदिरों में से है, क्योंकि यह मनोरम स्थल पर बना है।

यह मान्यता है कि यहां तुंगा नाम का राक्षस रहता था, जो ऋषि-मुनियों को बहुत प्रताड़ित करता था। तुंगा को परशुराम ने पराजित करके सबकी उससे रक्षा की। परशुराम ने देवी निर्मला को भी तुंगा के चंगुल से बचाया। उन्होंने उसे बंधक बना कर यहीं रखा। यहां तुंगा भगवान शिव की आराधना करने लगा। उसकी तपस्या से भगवान शिव प्रस्न्न हुए और शिव के कहने पर परशुराम ने तुंगा को मुक्त कर दिया। तुंगा से पूजित यहां के शिव कालांतर में तुंगारेश्वर के नाम से मशहूर हुए। परशुराम ने आदि शंकराचार्य के साथ शुपारक में ध्यान किया था, वही गांव बाद में शुपारक और आजकल सोपारा (नालासोपारा) कहलाता है।

तुंगारेश्वर का इलाका वसई का प्रमुख पर्यटन स्थल भी है। यहां दूर से श्रद्धालु आते हैं। तुंगारेश्वर नदी की खूबसूरती का कोई पारावार नहीं। यही नहीं ये जगह कई छोटे-बड़े जलप्रपातों (वॉटर फॉल्स) के लिए जानी जाती है। यहां चिंचोटी वॉटर फॉल भी है। यहाँ दो झरने हैं, एक 
से ठंडा और दूसरे से गर्म पानी निकलता है। यह मानसून के दौरान घूमने के लिए सबसे आदर्श स्थल है। तुंगारेश्वर वन्यजीव अभयारण्य बनाकर तुंगारेश्वर पहाड़ियों को वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। यहां आना शानदार अनुभव होता है।

मंदिर का अस्तित्व त्रेतायुग से है। मंदिर देश के पवित्रतम स्थल में गिना जाता है। आज बालयोगी श्री सदानंद महाराज के हाथों महाभिषेक और महाआरती होगी।   
पुरुषोत्तम पाटिल
अध्यक्ष - श्री तुंगारेश्वर देवस्थान विश्स्त मंडल

तुंगारेश्वर अभयारण्य यहां की ऑक्सीजन की जरूरत पूरा करता है। इसे और भी हरा भरा बनाने के लिए नए वृक्ष लगाया जाना जरूरी है।
राजीव पाटिल, पूर्व मेयर वसई-विरार

बुधवार, 11 जुलाई 2018

संजू - हिरानी की हैरान करने वाली फ़िल्म

संजू - हिरानी की हैरान करने वाली फ़िल्म
हरिगोविंद विश्वकर्मा
अभिनेता संजय दत्त की बायोपिक ‘संजू’ हिट हो गई। राजकुमार हिरानी ने दोस्ती का फ़र्ज़ निभा दिया। करोड़ों की कमाई कर रहे हैं सो अलग। फ़िल्म देखने वाले हर दर्शक को मुंबई बमकांड के षड्यंत्र और उसमें संजय दत्त की भूमिका के बारे में भी पढ़ना चाहिए ताकि वे जान सकें और यह महसूस कर सकें कि अगर संजय दत्त ने हथियार लाने की जानकारी मुंबई पुलिस को समय रहते दे दी होती तो निश्चित रूप से 257 निर्दोष लोगों की जान बच जाती। ब्लास्ट की जांच करने वाले पूर्व पुलिस कमिश्नर महेश नारायण सिंह कहते हैं कि अगर संजय दत्त ने जनवरी 1993 में ही अपने महान देशभक्त पिता सुनील दत्त को एके 56 के बारे में बता दिया होता और अगर सुनील दत्त पुलिस को बता देते तो शायद मार्च 1993 के मुंबई ब्लास्ट न होते।

फ़िलहाल इस बात पर चर्चा जरूरी है कि क्या संजय ने अपराध जान-बूझकर किया या उनसे अनजाने में हो गया। जब संजय ने मुंबई बमकांड के मास्टर माइंड और मुख्य आरोपी दाऊद इब्राहिम कासकर के भाई अनीस से अपनी और अपने परिवार की रक्षा करने के लिए एके-56 मंगवाई थी, तब उनकी उम्र 33 साल थी यानी उन्हें बालिग हुए 15 साल बीत चुका था। मज़ेदार पहलू यह है कि संजय बांद्रा के जिस पॉश पाली हिल इलाक़े में रहते हैं, वहां तो दंगा हुआ ही नहीं। मुंबई के दंगे पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि झुग्गीबाहुल्य क्षेत्रों में हुए थे। सो संजय का अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की दुहाई देना सरासर बेमानी है। यानी उस समय कम से कम संजय या उनके परिवार के लिए किसी तरह के ख़तरे का सवाल ही नहीं पैदा होता था। संजय दत्त के सांसद पिता सुनील दत्त के पास पहले ही 3 लाइसेंसी हथियार थे।

दंगे, दरअसल, मुस्लिम इलाकों से ही शुरू हुए और उस मारकाट में सबसे जानमाल का नुकसान अल्पसंख्यक समुदाय को ही उठाना पड़ा। वस्तुत: 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश की तरह मुंबई में भी दंगा भड़क उठा था। देश की आर्थिक राजधानी में 6 से 10 दिसंबर 1992 और 6 से 15 जनवरी 1993 के दौरान दो चरण में ख़ून की होली खेली गई, जिसमें, दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग के मुताबिक, कुल 850 लोग (575 मुसलमान और 275 हिंदू) दंगे में मारे गए। कहने का तात्पर्य संजय ने किसी तरह का ख़तरा न होने के बावजूद केवल शेखी बघारने के लिए एके-56 राइफ़ल जैसा ख़तरनाक़ हथियार मंगवाया था।

सच पूछो तो, 1993 में मुंबई बम विस्फोट से पहले तक माफिया डॉन दाऊद केवल वांछित ख़तरनाक अपराधी था, इसलिए बॉलीवुड के सितारे चाहे-अनचाहे उनके बुलाने पर अकसर दुबई पहुंच जाते थे। इसके लिए उन्हें अच्छा नज़राना मिल जाता था। सिल्वर स्क्रीन के लोगों के लिए दुबई तो मुंबई के बाद दूसरा ठिकाना था। नब्बे के दशक में कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री नहीं होगा, जिसने दाऊद के दरबार में ठुमके न लगाए हों। तब दुबई एक महफ़ूज़ ऐशगाह था। लिहाज़ा, संजय दत्त भी दाऊद ऐंड कंपनी के ग्लैमर से ख़ुद को नहीं बचा पाए। मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक एक बार वे अनीस के संपर्क में आए तो दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गई। उनमें अकसर बातचीत होने लगी। संजय अनीस से अपने पर्सनल इशूज़ भी शेयर करने लगे। संजय समेत बॉलीवुड के लोगों को दाऊद या उससे जुड़े अपराधियों से ताल्लुक़ात रखने के ख़तरे का अहसास 12 मार्च 1993 को मुंबई में भारी तबाही के बाद हुआ। अगर संजय दत्त मुंबई धमाकों के बाद अनीस से जान-पहचान ख़त्म कर लेते तो इस बात में थोड़ा दम रहता कि उनसे अनजाने में ग़लती हुई है और वे भूल-सुधार करना चाहते हैं। लेकिन बमकांड का आरोपी होते हुए भी 2002 में संजय (तब उनकी उम्र 42 साल थी) ने छोटा शकील से फिर बातचीत की और उससे अभिनेता गोविंदा को सबक सिखाने का आग्रह किया, जिसे मुंबई पुलिस ने रिकॉर्ड कर लिया। यानी संजय दत्त ने अपनी ग़लतियों से कुछ भी नहीं सीखा। उच्च पदों पर बैठे लोगों को माफी या सज़ा कम करने की किसी भी अपील पर विचार करते समय इस तथ्य को ज़ेहन में ज़रूर रखना चाहिए था।

हालांकि इस सच को नहीं भूलना चाहिए कि संजू बाबा पर शुरू से हर कोई मेहरबान रहा है। चूंकि उन्हें फ़िल्म में हीरो की तरह पेश किया गया है, तो इस बात की पड़ताल ज़रूरी है कि संजय को कांग्रेस सांसद का बेटा होने का कहां-कहां फ़ायदा मिला और किस-किस ने उन पर मेहरबानी की बरसात की। 12 मार्च 1993 के बाद से संजय दत्त से जुड़े घटनाक्रम पर ग़ौर करने के बाद यह साफ़ हो जाता है कि अभिनेता पर मेहरबानियों की बरसात शुरू से हो रही है। यह सिलसिला तब शुरू हुआ जब पहली बार उनका नाम बमकांड में सामने आया।

पहली मेहरबानी मुंबई पुलिस की ओर से तब हुई जब बमकांड में सज़ायाफ़्ता इब्राहिम मुस्तफ़ा चौहान उर्फ बाबा ने 3 अप्रैल 1993 को संजय का नाम लिया। बाबा ने ख़ुलासा किया कि इस साज़िश में एक बहुत बड़ी मछली शामिल है जिसका नाम सुनकर लोगों के होश उड़ जाएंगे। जब बाबा ने हैवीवेट कांग्रेस सांसद सुनील दत्त के बेटे संजय दत्त का नाम लिया तो विशेष जांच टीम के मुखिया राकेश मारिया भी हतप्रभ रह गए। किसी ने सोचा भी न था कि पदयात्रा करने वाले “शांति के पुजारी” का बेटा बम धमाके की साज़िश का हिस्सेदार हो सकता है। बहरहाल, मुन्नाभाई पर मेहरबानी हुई और तत्कालीन पुलिस आयुक्त अमरजीत सिंह सामरा ने राकेश मारिया को संजय का घर रेड करने की इजाज़त नहीं दी। हालांकि बाद में खुलासा हुआ कि इसके पीछे राजनीतिक वजह थी क्योंकि संजय के पिता कांग्रेस के लॉ मेकर थे। सूबे में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी और कांग्रेस के लोकप्रिय सांसद सुनील दत्त की पार्टी के आला नेताओं से अच्छी ट्यूनिंग थी।

बहरहाल, 19 अप्रैल 1993 की रात मॉरीशस से लौटते ही संजय गिरफ़्तार कर लिए गए। लेकिन गिरफ़्तारी के बाद उनसे पुलिस बेहद शराफ़त से पेश आई। यह भी पुलिस की ओर से की गई मेहरबानी थी क्योंकि रात में संजय को अफ़सर के केबिन में रखे सोफ़े पर सोने की इजाज़त दी गई। उनसे आरोपी की तरह नहीं, राजनेता के बेटे की तरह पूछताछ की गई यानी उनसे थर्ड डिग्री इंटरोगेशन नहीं हुआ। हालांकि संजय ने “ईमानदारी” से एमएन सिंह (तत्कालीन क्राइम ब्रांच प्रमुख) और मारिया को बता दिया कि दाऊद का भाई अनीस उनका दोस्त है और दोनों की अकसर बातचीत होती रहती है। अनीस ने तीन एके-56 राइफ़ल्स, 9 मैगज़िन्स, 450 राउंड्स (गोली) और 20 हैंडग्रेनेड्स (हथगोले) का कन्साइनमेंट उनके पास भेजा। संजय के मुताबिक प्रतिबंधित हथियारों की ख़ेप लेकर अनीस का आदमी अबू सालेम 16 जनवरी 1993 की सुबह उनके घर आया। सालेम के साथ समीर हिंगोरा और बाबा चौहान भी थे। बहरहाल, तीन दिन बाद यानी 18 जनवरी की शाम सालेम हनीफ़ कड़ावाला और मंज़ूर अहमद के साथ फिर संजय के घर आया और 2 एके-56 राइफ़ल, कुछ हैंडग्रेनेड और गोलियां वापस लेकर गया। यानी संजय ने उसी अनीस से ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से एके-56 राइफ़ल मंगवाई जो बमकांड का मुख्य आरोपी था। दरअसल, आरोप पत्र के मुताबिक, दाऊद ने 300 सौ चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 राइफ़ल्स और सैकड़ों की संख्या में ग्रेनेड, मैगज़िन, गोलियां और कई क्विंटल विस्फोटक पावडर आरडीएक्स (दाऊद की साज़िश कितनी भयंकर थी कि पुलिस ने विस्फोट के बाद भी  3.5 टन आरडीएक्स, 71 AK 47 और AK 56 और सैकड़ों ग्रेनेड ज़ब्त किया) 9 जनवरी और 9 फ़रवरी 1993 के बीच कई खेप में रायगड़ के दिघी जेट्टी और शेखाड़ी के रास्ते मुंबई में भेजी। ये काम एक अन्य मास्टर माइंड टाइगर मेमन और मोहम्मद डोसा लेकर आए। हथियारों और आरडीएक्स से भरा ट्रक रायगड़ के जंगल के रास्ते नासिक होता हुआ गुजरात रवाना हुआ। कस्टम की टीम ने ट्रक को ट्रैप किया भी लेकिन आठ लाख रुपए रिश्वत मिलने पर उसे जाने की इजाज़त दे दी। कस्टम की उस टीम के लोगों को टाडा के तहत सज़ा सुनाई गई।बहरहाल, ट्रक का सामान गुजरात के भरुच ज़िले में बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में छिपाया गया। यहां अंकलेश्वर में इस टीम में अबू सालेम शामिल हो गया। हथियारों को पूर्व निर्धारित ठिकानों और लोगों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सालेम को दी गई। वह 9 एके-56 राइफ़ल, सौ से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर सड़क के रास्ते मुंबई आया। सालेम ने अनीस के कहने पर उसी कन्साइनमेंट में से एक राइफ़ल संजय को दी। यानी संजय ने 12 मार्च के धमाके के बाद जिस राइफल को नष्ट करने के लिए यूसुफ़ नलवाला को मॉरीशस से फोन किया, वह राइफ़ल दिग्घी जेटी पर ही उतारी गई थी।

इसके बावजूद, आतंकवाद एवं विध्वंस निरोधक क़ानून (टाडा) जज ने संजय दत्त का वह क़बूलनामा स्वीकार कर लिया जिसमें मुन्नाभाई ने कहा था कि वह असुरक्षित महसूस कर रहा था इसलिए उसने घातक और ग़ैरक़ानूनी हथियार लिए। संजय दत्त और उनसे सहानुभूति रखने वाले शुरू से यह तर्क दे रहे हैं कि मुंबई दंगों के समय उनको धमकियां मिल रही थीं, इसलिए संजय ने अनीस से एके-56 मांगी। मतलब साफ़ है, जो लोग इन मुद्दे पर बेलौस टिप्पणी कर रहे हैं, उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी ही नहीं। मतलब संजय के क़बूलनामे को स्वीकार करना और मान लेना कि उनके परिवार को जानमाल का ख़तरा था, अभिनेता के लिए टाडा जज पीडी कोड़े की ओर से की गई अहम मेहरबानी थी।

दरअसल, गिरफ़्तार होने के बाद संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट तक जाने के बावजूद साल भर तक बेल नहीं मिली। ज़मानत रद होने के बाद बेटे का जेल प्रवास साल भर से ज़्यादा खिंचने से सुनील दत्त विचलित हो गए। वह हर पार्टी के नेता का चक्कर लगाने लगे। उन्होंने धुर कांग्रेस विरोधी शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के बंगले पर भी गए। दरअसल, उसी दौरान सेक्यूलर जमात लोगों की ओर से यह शोर मचाया जाने लगा कि टाडा क़ानून का दुरुपयोग हो रहा है। यह भी कहा गया है कि टाडा क़ानून के चलते बड़ी तादाद में ऐसे लोग जेलों में सड़ रहे हैं जिनका आतंकवाद से कुछ लेना-देना भी नहीं। ऐसे लोगों के मामलों पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार ने नौकरशाहों और पुलिस अफ़सरों की एक क़्वासी-ज्यूडिशियल (अर्धन्यायिक) कमेटी का गठन किया गया। यहां संजय दत्त पर एक और बहुत बड़ी मेहरबानी हुई। क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी ने सबसे पहले संजय को ही सबसे ज़्यादा “टाडा पीड़ित” माना और उनको ज़मानत पर रिहा करने की सिफ़ारिश कर दी। संजय के 18 महीने में ही जेल से बाहर आने में मातोश्री की विशेष कृपा रही। जबकि इसी मामले में बाबा चौहान, मंज़ूर अहमद, यूसुफ़ नलवाला, समीर हिंगोरा और हनीफ़ कड़ावाला जैसे लोगों को ज़मानत के लिए 5 साल या उससे अधिक इंतज़ार करना पड़ा। इतना ही नहीं सालेम ने जिस 64 वर्षीय ज़ैबुन्निसा क़ादरी के घर में 2 एके-56 और हथियार 2 दिन रखे थे। उसे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा और अदालत ने उसे पांच साल की सज़ा सुनाई है। हालांकि कन्साइनमेंट का बॉक्स खोलना तो दूर ज़ैबुन्निसा ने तो उसे देखा तक नहीं जबकि संजय ने बॉक्स को खोला था और हथियार देखने के बाद अनीस को फोन पर बताया भी कि “सामान” मिल गया। हैरानी वाली बात यह है कि 12 मार्च 1993 को सीरियल ब्लास्ट की ख़बर सुनकर मॉरीसश में शूटिंग कर रहे संजय डर गए और अपने मित्र नलवाला को फोन करके कहा कि उनके घर (बेडरूम) में रखी एक 56 राइफ़ल और बाक़ी हथियार फ़ौरन नष्ट कर दे।

बहरहाल, सीरियल ब्लास्ट की जांच का ज़िम्मा संभालने के बाद सीबीआई ने जाने या अनजाने कई ऐसे फ़ैसले लिए जिसका सीधा लाभ केवल और केवल संजय दत्त को मिला। मसलन संजय की अनीस से बातचीत के कॉल्स डिटेल्स को आरोप पत्र से ही अलग कर दिया। मुंबई पुलिस ने इसे जुटाने में कड़ी मेहनत की थी लेकिन सीबीआई ने उसे डस्टबिन में फेंक दिया। इस दस्तावेज़ से आसानी से सिद्ध हो रहा था कि संजय का अनीस से बहुत घनिष्ठ संबंध है और जो राइफ़ल संजय को दी गई वह दाऊद द्वारा रायगड़ समुद्र तट के रास्ते भेजे गए कन्साइन्मेंट के साथ देश में लाई गई थी। यानी संजय उस आतंकवादी साज़िश में सीधे सीधे शामिल हो जाते क्योंकि दाऊद का भाई उनके “टच” में था। सीबीआई ने दूसरी और सबसे बड़ी मेहरबानी संजय पर सालेम के ट्रायल को बमकांड के मुक़दमे से अलग करके की। जी हां, सालेम को भारत लाए जाने के बाद उसके केस को बमकांड से अलग कर दिया गया। सीबीआई की ओर से तर्क दिया गया कि मुक़दमे की सुनवाई में अनावश्यक देरी से बचने के लिए ऐसा किया गया। दरअसल, संजय और दाऊद-अनीस के बीच सालेम अहम कड़ी था जो पुष्ट कर देता कि कम से कम संजय एके-56 लाने की साज़िश में शामिल थे। यह सीबीआई या कहें कांग्रेस (तब सीबीआई की असली बॉस) की ओर से संजय पर बड़ी मेहरबानी थी जिसने उन्हें कम से कम 10 साल की सज़ा से बाल-बाल बचा लिया। देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी ने 2002 में संजय की छोटा शकील से बातचीत का भी संज्ञान नहीं लिया। हालांकि इसके बाद उसे संजय की बेल रद करने के लिए कोर्ट में अप्रोच करना चाहिए था। इसे सीबीआई की संजय के लिए एक और मेहरबानी कहा जा सकता है।

केस के ट्रायल के दौरान भी संजय को मेहरबानी का प्रतिसाद मिलता रहा और सालेम की लाई एके-56 राइफ़ल से जुड़े सभी आरोपियों को टाडा के तहत लंबी सज़ा मिली लेकिन संजय केवल आर्म्स ऐक्ट के तहत दोषी माने गए और उन्हें केवल 6 साल की सज़ा सुनाई गई। सीबीआई इसके बाद भी संजय पर मेहरबानी की बारिश करती रही और टाडा कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ही नहीं दी। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट में भी किसी माननीय जस्टिस ने यह सवाल नहीं किया कि एक ही मामले में दो तरह के फ़ैसले कैसे आए और अगर आ गए हैं तो कम सज़ा पाने वाले के ख़िलाफ़ अपील क्यों नहीं की गई। उलटे देश की सबसे बड़ी अदालत ने संजय दत्त की सज़ा एक साल और कम कर दी। अगर सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल किया होता तो शर्तिया संजय के वकीलों के लिए जवाब देना आसान नहीं होता।

जस्टिस मार्कंडेय काटजू की अगुवाई में लोग संजय दत्त के जेल जाने के बाद इनको “मानवीय” आधार पर माफ़ कर देने की पैरवी कर रहे थे। संभवत: उसी अपील का नतीजा रहा है संजय दत्त को बार बार पेरोल और फर्लो के तहत जेल से बाहर आने का अवसर मिलता रहा। बहरहाल, संजय दत्त अपनी सज़ा पूरी करके सामान्य नागरिक की तरह जीवन जी रहे हैं, ऐसे में उनका मूल्याँकन करते समय उन ग़लतियों पर भी प्रकाश डालना होगा जिनके कारण देश की न्याय व्यवस्था ने उन्हें सज़ा सुनाई थी।
समाप्त

सोमवार, 9 जुलाई 2018

मुन्ना बजरंगी : ख़त्म कहानी हो गई

हरिगोविंद विश्वकर्मा
तीन दशक तक क़रीब दर्जनों लोगों को असमय मौत की नींद सुलाने वाले पूर्वांचल के कुख्यात डॉन मुन्ना बजरंगी को उसी की स्टाइल में आज 9 जुलाई 2018) मौत की नींद सुला दिया गया। यह काम मुन्ना की ही बिरादरी के दुर्दांत अपराधी सुनील राठी ने बागपत जेल में किया। उसने जेल में ही मुन्ना को गोलियों से भून डाला। मुन्ना को रविवार को ही झांसी जेल से बागपत जेल लाया गया था। उसे अलग बैरक में सुनील राठी और विक्की सुंहेड़ा के साथ रखा गया था। उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपराध जगत में सुनील राठी का नाम बड़ा है। अहम बात यह भी है कि 29 जून को मुन्ना की पत्नी सीमा सिंह ने झांसी जेल प्रशासन और एसटीएफ के साथ मिलकर मुन्ना की हत्या करवाने की आशंका जताई थी।

उत्तर प्रदेश समेत देश भर के अपराध जगत में अपने नाम का खौफ पैदा करने वाले अपराधी मुन्ना बजरंगी की कहानी ख़त्म होने तक उसके नाम की दहशत लोगों में कायम थी। उसका असली नाम प्रेम प्रकाश सिंह था। उसका जन्म 1965 में जौनपुर के मड़ियाहूं तहसील में पड़ने वाले जमालापुर-रामपुर के पूर्व कसेरू से सटे पूरेदयाल गांव में हुआ था। कसेरू पूरेदयाल के लोगों को पता नहीं था कि जिस प्रेमप्रकाश को प्यार-दुलार दे रहे हैं वही एक दिन क्राइम किंग बनकर उनके सामने आएगा और बुलेट के बल पर अपने नाम का ख़ौफ़ पैदा कर देगा।

प्रेमप्रकाश के पिता पारसनाथ सिंह का सपना था कि उनका सबसे छोटा बेटा पढ़ लिखकर नामचीन और बड़ा आदमी बने। मुन्ना बड़ा आदमी तो बना लेकिन सभ्य समाज का नहीं, बल्कि अपराध जगत का बड़ा आदमी। उसने पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी और गांव में ही मटरगश्ती करने लगा। इसी दौरान वह अपराधी किस्म के युवकों की बुरी संगत में आ गया। किशोर अवस्था तक आते आते उसे ऐसे शौक लग गए जो जुर्म की दुनिया में ढकेलने के लिए पर्याप्त थे। गांव के लोग बताते हैं कि उसे हथियार रखने का बड़ा शौक था।

मुन्ना ने पहला अपराध 15 साल की नाबालिग उम्र में 1980 में किया, जब कहीं से एक देसी कट्टे का इंतजाम कर लिया। गोपालापुर बाजार में गोली मारकर छिनैती की। उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 307 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। 17 साल की उम्र में उसने गांव के झगड़े में कट्टा निकाल कर फ़ायर कर दिया। यह 1982 का साल था, जब उसके खिलाफ पास के सुरेरी थाने मे मारपीट और अवैध असलहा रखने का मामला धारा 147, 148, 323 के तहत दर्ज हुआ।

मटन लेने के विवाद के चलते मुन्ना ने अपने गांव में एक व्यक्ति की हत्या कर दी और भदोही से ट्रेन पकड़कर मुंबई भाग आया। शुरुआती दिनों में उसका ठिकाना सांताक्रुज़ का वाकोला रहा, जहां वह एक निर्माणाधीन इमारत में रहने लगा। यहां उसने एक गिरोह बनाया। 1983 में ही मुन्ना मुंबई उपनगर के 14 पेट्रोल पंप लूट लिया। कुछ दिनों बाद ही मुंबई क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर आरडी कुलकर्णी ने मुन्ना और उसके तीन साथियों के साथ गिरफ़्तार किया। उसे जेल भेज दिया गया। छह महीने बाद उसे ज़मानत मिली और वह आर्थर रोड जेल से बाहर आया। इसके बाद वह फ़रार हो गया और जौनपुर वापस लौट गया।

इसके बाद पुलिस ने उसे धीरे धीरे पेशेवर अपराधी बना दिया। मुन्ना अपराध के दलदल में धंसता ही चला गया। उसने पहली हत्या 1984 में रामपुर के व्यापारी भुल्लन सेठ के पैसे छीनने के लिए की थी। उसी साल रामपुर थाने में उसके खिलाफ हत्या और डकैती के दो और मुक़दमे दर्ज हुए।  उसका क्राइम ग्राफ तेजी से बढ़ने लगा। अंततः वह कांट्रेक्ट किलर बन गया। जौनपुर से फ़रार होकर वह वाराणसी में डिप्टी मेयर अनिल सिंह के पास गया और उनके साथ रहा। वहां भी कई आपराधिक घटना को अंजाम दिया।

वहां से वह जौनपुर चला गया। वहां कुख्यात बदमाश विनोद सिंह चितोड़ी उर्फ़ नाटे विनोद का साथी बन गया। नाटे से दोस्ती निभाने के लिए उसने बदलापुर पड़ाव पर पलकधारी पहलवान की हत्या कर दी। विनोद चितोड़ी के इशारे पर 1993 में जौनपुर के लाइन बाज़ार थाना के कचहरी रोड पर दिन दहाड़े भाजपा नेता रामचंद्र सिंह, सरकारी गनर अब्दुल्लाह और भानु सिंह की हत्या कर दी। इसी दौरान मुन्ना जौनपुर के कादीहद के दबंग माफिया और सहदेव इंटर कॉलेज भोड़ा के प्रिंसिपल पीटी टीचर गजराज सिंह और उसके अपराधी बेटे आलम सिंह के साथ हो लिया। मुन्ना बाप-बेटे के साथ काम करने लगा था। सुरेरी थाना क्षेत्र से शुरू हुआ वारदातों का सिलसिला बढ़ने लगा। पूर्वांचल में उसकी तूती बोलने लगी। उसके बाद उसने फिर वाराणसी का रुख किया। 1995 में उसने कैंट में छात्र नेता रामप्रकाश शुक्ल की हत्या कर दी। इसी तरह वाराणसी में राजेंद्र सिंह और बड़े सिंह की एके 47 से भूनकर अपने मित्र अजय यादव की हत्या का बदला लिया। वह बृजेश सिंह और मुख़्तार अंसारी के समांतर तीसरे डान के रूप में उभरा।

नब्बे के दशक में जौनपुर के दो युवक राजनीति के क्षितिज पर बड़ी तेज़ी से उभरे। इनका नाम था कैलाश दूबे और राजकुमार सिंह। कैलाश रामपुर के ब्लाक प्रमुख चुने गए तो राजकुमार पंचायत सदस्य निर्वाचित हुए। दो  स्थानीय युवकों का उभरना गजराज सिंह को हजम नहीं हुआ। उसने दोनों को रास्ते से हटाने की सुपारी मुन्ना को दे दी। 24 जनवरी 1996 की शाम जमालापुर बाजार के जानकी मंदिर तिराहे पर मुन्ना ने कैलाश, राजकुमार और राजस्व अमीन बांकेलाल तिवारी पर एके-47 से अंधाधुंध फायरिंग कर उनकी हत्या कर दी। हमले में रामपुर थाने के उपनिरीक्षक लोहा सिंह, जो कुछ साल बाद थाना प्रभारी हुए, घायल हो गए। इस केस में कैलाश के भाई लालता दुबे ने मुन्ना के अलावा गजराज, उनके पुत्र आलम सिंह और अन्य लोगों पर प्राथमिकी दर्ज कराई।

बड़ी-बड़ी हत्वााएं करके मुन्ना ने अपना नेटवर्क देश की राजधानी दिल्ली तक बढ़ा लिया। 1998 से 2000 के बीच उसने कई हत्याएं कीं। व्यापारियों, डाक्टरों और धनाढ्य लोगों से वह फिरौती वसूलने लगा। इतना ही नहीं, वह सरकारी ठेकों में भी हस्तक्षेप करने लगा। 2002 के बाद उसने एक बार फिर से पकड़ बनाने के लिए वाराणसी के चेतगंज में एक सोने के कारोबारी की दिन दहाड़े हत्या कर दी। मुन्ना के जेल प्रवास कैदौरान उसकी पत्नी का संबंध उसके बड़े भाई भुवाल सिंह से हो गया और पत्नी ने अपने जेठ से ही विवाह कर लिया। इसके बाद मुन्ना ने फैजाबाद की सीमा सिंह से शादी की।

इस सदी के शुरुआती दिनों में पूर्वांचल में सरकारी  ठेकों, देसी शराब के ठेकों और वसूली के अवैध धंधे पर माफिया डॉन मुख्तार का कब्जा था। मुख्तार किसी को अपने सामने खड़ा नहीं होने देता था। लिहाजा, तेजी से उभरे गाजीपुर से भाजपा विधायक कृष्णानंद राय उसके लिए चुनौती बन गए। कृष्णानंद राय पर मुख्तार के जानी दुश्मन ब्रृजेश सिंह का वरदहस्त था। 2004 में कृष्णानंद राय गाजीपुर से विधानसभा चुनाव जीत गए। उनका बढ़ता प्रभाव मुख्तार को रास नहीं आया। लिहाज़ा उन्हें खत्म करने की जिम्मेदारी मुन्ना को दी। मुन्ना 29 नवंबर 2005 को कृष्णानंद समेत सात लोगों को दिन दहाड़े मौत की नींद सुला दिया। उसने अपने साथियों के साथ मिलकर करीमुद्दीनपुर में हाइवे पर कृष्णानंद की दो गाड़ियों पर एके 47 से 400 गोलियां बरसाई। कृषणानंद की बुलेटप्रूफ कार में होने के बावजूद हत्या कर दी।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हर मृतक के शरीर से 60 से 80 गोलियां निकली। इस हत्याकांड से हड़कंप मच गया। हर कोई मुन्ना के नाम से ही डरने लगा। कृष्णानंद की हत्या के अलावा कई केस में उत्तर प्रदेश पुलिस, एसटीएफ और सीबीआई मुन्ना को खोजने लगी। उस पर सात लाख रुपए का इनाम घोषित किया गया। लिहाजा वह लगातार अपना स्थान बदलता रहा। उसका उत्तर या बिहार में रहना मुश्किल और जोखिम भरा हो गया। दिल्ली भी सुरक्षित नहीं थी। इसलिए वह मुंबई आ गया और एक लंबा अरसा यहीं गुजारा। इस दौरान वह कई बार विदेश भी गया। उसके अंडरवर्ल्ड से रिश्ते भी मजबूत हो गए। यहीं से वह फोन पर अपने लोगों को निर्देश देने लगा।

बहरहाल, 29 अक्टूबर 2009 को दिल्ली पुलिस ने मुन्ना को मुंबई के मालाड उपनगर से नाटकीय ढंग से गिरफ्तार किया। तब वह ऑटो रिक्शा चालक के भेस में था। कहते हैं कि उसे पुलिस के साथ दुश्मनों से भी खतरा था। सो वह मालाड में दिखाने को आटो चलाने लगा, ताकि किसी को संदेह न हो। जब उसके खास लोगों को जानकारी हुई तो सब को आश्चर्य हुआ। दरअसल उसे एनकाउंटर का डर सता रहा था। इसलिए योजना के तहत गिरफ्तार हो गया। दरअसल, मुन्ना की गिरफ़्तार सुनियोजित तरीके से हुई थी। इसमें तब मुंबई में कांग्रेस के बेहद प्रभावशाली नेता रहे कृपा शंकर सिंह ने अहम भूमिका निभाई थी।

गिरफ्तारी के बाद तक़रीबन चार साल नज़रबंद रहने के बाद मुन्ना में राजनीति की चाहत जगने लगी। उसने एक महिला को गाजीपुर से भाजपा टिकट दिलवाने की कोशिश की। जिसके चलते मुख्तार से संबंध खराब हो गए। बीजेपी से लिफ़्ट न मिलने पर उसने कांग्रेस का दामन थाम लिया और मुंबई में कांग्रेस के एक बहुत प्रभावशाली नेता की शरण में चला आया। कहा तो यह भी जाता है कि तब मुन्ना ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उनके लिए काम भी किया था।

2009 में उसको मिर्जापुर जिला जेल में रखा गया। कृष्णानंद हत्याकांड मे उसे मिर्जापुर से 10 अप्रैल 2013 को सुल्तानपुर जिला जेल में शिफ्ट किया गया था। 2012 के विधान सभा चुनाव के समय मुन्ना तिहाड़ जेल में था। उसने सपा का टिकट लेने की कोशिश की, ताकि साइकिल से विधायक बन जाए। पर सपा ने मड़ियाहूं सीट से श्रद्दा यादव को उम्मीदवार बनाया। मुन्ना बतौर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरा लेकिन कामयाब नहीं हो सका। जिला पंचायत चुनाव के चलते उसे सितंबर 2015 में झांसी जेल भेज दिया गया। कुछ समय के लिए वह 2017 मे पीलीभीत जेल में भी रहा। मई 2017 में उसे फिर झांसी जेल भेजा गया। जहां यह खौफनाफ अपराधी अपने किए कि सजा काट रहा था। कल उसे बागपत जेल में लाया गया था और आज उसका काम तमाम हो गया।

मंगलवार, 12 जून 2018

समाजसेवी संत का दुखद अंत


हरिगोविंद विश्वकर्मा
ज़िंदगी भर दूसरों को शांति का पाठ पढ़ाने वाले हाईप्रोफाइल आध्यात्मिक संत भय्यूजी महाराज उर्फ उदय सिंह देशमुख अपने परिवार में शांति स्थापित करने में असफल रहे और बताया जा रहा है कि पारिवारिक कलह के चलते आज अपने ही हाथों 50 साल की उम्र में ही अपनी इहलीला समाप्त कर ली। उनके कमरे से सुसाइड नोट मिला है जिसमें उन्होंने 'मैं जीवन के तनावों से ऊब चुका हूँ और ये तनाव अब सहन नहीं कर पाऊंगा" की बात लिखी है। साथ ही उन्होंने कहा है कि मेरी आत्महत्या के लिए किसी को भी जिम्मेदार न ठहराया जाए। वह गाहे बगाहे किसी न किसी विवाद में फंस जाते थे और उनका अंत भी विवादास्पद ही रहा। भय्यूजी पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर तब चर्चा में आए थे जब उन्होंने दिल्ली में अनशन में बैठे समाजसेवी अण्णा हजारे के लोकपाल के लिए चल रहे आंदोलन में मध्यस्थता करके अण्णा का अनशन तोड़वाया। बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कई मुख्यमंत्रियों समेत बड़ी संख्या में सियासतदां उनसे नियमित सलाह लेते थे।

भय्यूजी के अनुयायियों की मान्यता यह है कि उन्हें भगवान दत्तात्रेय का आशीर्वाद हासिल है। महाराष्ट्र में उन्हें राष्ट्रसंत का दर्जा मिला था। बताते हैं कि सूर्य की उपासना करने वाले भय्यूजी को घंटों जल समाधि करने का अनुभव था। राजनीतिक क्षेत्र में उनका खासा प्रभाव रहा। उनके ससुर महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख से उनके करीबी रिश्ते रहे। नितिन गडकरी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत भी उनके भक्तों की सूची में शामिल थे। महाराष्ट्र की राजनीति में उन्हें संकटमोचक के तौर पर देखा जाता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपने सद्भावना उपवास को खुलवाने के लिए जिन शीर्ष संतों, महात्माओं और धर्मगुरुओं को आमंत्रित किया था, उसमें भय्यू महाराज भी शामिल थे। उनके भक्तों की फेरिस्त में लता मंगेशकर, पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, आनंदी बेन पटेल, उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे, आशा भोंसले, अनुराधा पौडवाल, मिलिंद गुणाजी समेत देश-दुनिया की नामी हस्तियां रही है।

वह जमीन से जुड़े संत थे और अक्सर ट्रैक सूट में भी नजर आ जाते थे। एक किसान की तरह वह कभी अपने खेतों को जोतते-बोते दिखते थे, तो कभी क्रिकेट के शौकीन नजर आते थे। घुड़सवारी और तलवारबाजी में महारथ के अलावा कविताओं में भी उनकी दिलचस्पी थी। जवानी में उन्होंने सियाराम शूटिंग-शर्टिंग के लिए पोस्टर मॉडलिंग भी की थी। हाल ही में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कई संतों को राज्यमंत्री का दर्जा दिया था, उनमें भय्यूजी भी शामिल थे। हालांकि उन्होंने इसे ठुकरा दिया था। मालवा से निकलकर देश-विदेश में अपनी आध्यात्मिक छवि के लिए पहचाने जाने वाले भय्यूजी ने मॉडलिंग के दुनिया से अपना करियर शुरू किया था और उसके बाद उन्होने शोहरत भरी मॉडलिंग की जिंदगी को अलविदा कहकर आध्यात्म के सफर पर चल पड़े।

भय्यूजी महाराज सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे। उन्होंने श्री सद्गुरु दत्त धार्मिक एवं पारमार्थिक ट्रस्ट का गठन किया. यह ट्रस्ट मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में सक्रिय है। वह पद, पुरस्कार, शिष्य और मठ परंपरा के विरोधी रहे। व्यक्तिपूजा को तो वह अपराध की श्रेणी में रखते थे। हालांकि बाद में वह खुद उन्हीं बुरी  परंपरा के शिकार हो गए। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण और समाज सेवा के बडे़ काम किए। सोलापुर के पंडारपुर की वेश्याओं के 51 बच्चों को उन्होंने पिता के रूप में अपना नाम दिया। यही नहीं बुलढाणा के खामगांव में उन्होंने आदिवासियों के बीच 700 बच्चों का आवासीय स्कूल बनवाया। उनका ट्रस्ट द्वारा किसानों के लिए धरतीपुत्र सेवा अभियान व भूमि सुधार, जल मिटटी व बीज परीक्षण प्रयोगशाला, बीज वितरण योजना भी चलाता है। ट्रस्ट अब तक 7,709 कन्याओं का विवाह करा चुका है।

भय्यूजी ग्लोबल वॉर्मिंग से भी खासे चिंतित थे। संभवतः इसीलिए गुरु दक्षिणा के नाम पर वह अपने शिष्यों से कम से कम एक पेड़ जरूर लगवाते थे। अब तक 18 लाख से ज्यादा पेड़ लगवा चुके हैं। मध्य प्रदेश के आदिवासी जिलों देवास और धार में करीब एक हजार तालाब खुदवा चुके हैं। वह शिष्यों से कभी नारियल, शॉल या फूलमाला भी नहीं स्वीकार करते थे। वह अपने शिष्यों से अपील करते थे कि फूलमाला और नारियल पर पैसा बर्बाद करने की बजाय उसे शिक्षा में लगाएं। ऐसे ही पैसे से उनका ट्रस्ट करीब 10 हजार बच्चों को स्कॉलरशिप देता है।


भय्यूजी महाराज गृहस्थ जीवन में रहते हुए संत-सी जिंदगी जीते थे। 29 अप्रैल 1968 में मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले के शुजालपुर में जन्मे भय्यूजी की पहली शादी औरंगाबाद की माधवी निमबालकर से हुई थी। उससे उनकी एक बेटी कुहू पुणे में पढ़ती है। माधवी के निधन के बाद उन्होंने 30 अप्रैल 2017 को एमपी के शिवपुरी की बेहद खूबसूरत डॉ. आयुषी के साथ दूसरी शादी कर ली। हालांकि दूसरी शादी के दौरान ही एक महिला ने उन पर खुद से संबंधों का आरोप लगाया। इसी महिला ने वर्ष 2005 में उनके खिलाफ मुकदमा दायर करते हुए उन्हें अपने पुत्र चैत्नय का पिता बताया। ये महिला उनकी श्रद्धालु थी और उसका नाम सीमा वानखडे था। एक दूसरी महिला मल्लिका राजपूत नाम की अभिनेत्री ने आरोप लगाया था कि भय्यूजी ने उसे प्रेम के मोहजाल में फंसाकर रखा और दूसरे नंबरों से छुप छुपकर उसे फोन लगाते हैं। मल्लिका ने भय्यूजी के साथ अपनी कई फोटो भी जारी की थी।


मंगलवार, 1 मई 2018

जस्टिस दीपक मिश्रा से भी ज़्यादा संदिग्ध आचरण वाले न्यायाधीश




हरिगोविंद विश्वकर्मा
सुप्रीम कोर्ट ने जज बीएच लोया की मौत की एसआईटी जांच से इनकार क्या किया, वामपंथी विचारकों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों की भृकुटी ही तन गई है। इन लोगों ने सामूहिक रूप से देश की सबसे बड़ी अदालत के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है। भारतीय न्याय पालिका के इतिहास में संभवतः पहली बार सुप्रीम कोर्ट के किसी फ़ैसले के ख़िलाफ़ इतना ज़्यादा हो हल्ला मच रहा है। अदालत को इससे पहले किसी ने इतना खुलकर पक्षपाती करार नहीं दिया था, जितना पक्षपाती अपने को सेक्यूलर कहने वाले कट्टरपंथी जमात के लोग आजकल कह रहे हैं। कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष के निशाने पर सीधे देश के मुख्य न्यायधीश जस्टिस दीपक मिश्रा हैं।

जस्टिस दीपक मिश्रा के करीयर पर नज़र डालें तो साफ़ पता चलता है कि उन्हें जज नियुक्त करने से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भेजने तक सब कुछ कांग्रेस के ही कार्यकाल में हुआ है। जज बनने से पहले वह वकालत करते थे। पीवी नरसिंह राव के कार्यकाल में उन्हें 17 फरवरी 1996 को उड़ीसा हाईकोर्ट में अतिरिक्त जज बनाया गया। मनमोहन सिंह के शासन में वह 2009 में पटना हाईकोर्ट एवं 2010 में दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने। इतना ही नहीं, 10 अक्टूबर 2011 को कांग्रेस के कार्यकाल में उन्हें एलिवेट करके सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया गया। बीजेपी के शासन में पिछले साल 28 अगस्त को वह सीनियारिटी के आधार पर 14 महीने के लिए मुख्य न्यायाधीश बनाए गए। अब उनको जज बनाने वाली कांग्रेस उन्हें किसी भी कीमत पर हटाना चाहती है। कारण यह है कि उन्होंने जज लोया की मौत की जांच एसआईटी से कराने का आदेश देने से इनकार कर दिया।

कांग्रेस की नज़र में जस्टिस दीपक मिश्रा तब आए जब उन्होंने याक़ूब मेमन की फ़ांसी पर रोक लगाने वाली सभी याचिकाओं को आधी रात को निरस्त कर दिया, जिससे मुंबई सीरियल ब्लास्ट के मास्टरमाइंड अपराधी को फांसी पर लटकाया जा सका। कांग्रेस ने पहली बार महसूस किया कि इस जज की निष्ठा कम से कम कांग्रेस में तो बिलकुल नहीं है। कांग्रेस को शक था कि यह जज यह राष्ट्र को सेक्युलरिज़्म से ऊपर मानता है। जस्टिस दीपक मिश्रा ने जब देश के सिनेमाघरों में राष्ट्रगान ज़रूरी करने का आदेश दिया, तब कांग्रेस का शक हक़ीक़त में बदल गया। कांग्रेस ने मान लिया कि यह जज पक्का राष्ट्रवादी है। इतना ही नहीं, जब जस्टिस ने जज लोया के केस की एसआईटी जांच से मना कर दिया तो कांग्रेस ने पक्के तौर उन्हें न्यायाधीश नहीं, बल्कि भाजपा का आदमी मान लिया।

लिहाज़ा, देश की सबसे पुरानी पार्टी जस्टिस दीपक मिश्रा पर महाभियोग चलाकर उन्हें पद से हटाना चाहती है। इसीलिए आनन फानन में राज्यसभा के 54 सदस्यों के हस्ताक्षर वाला महाभियोग नोटिस उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू को दिया गया। नोटिस में कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर न्यायाधीशों की प्रेस कॉन्फ्रेंस का हवाला किया गया, जिसमें इन चारों जजों ने कहा कि लोकतंत्र ख़तरे में है, क्योंकि महत्वपूर्ण मुक़दमे इनको नहीं दिए जा रहे हैं। मतलब अगर किसी जज को उसकी पसंद का मुक़दमा नहीं दिया जाएगा तो लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा। इतना ही नहीं, महाभियोग नोटिस में पॉसिबली, लाइकली (संभवतः) और मे बी, कैन बी (हो सकता है) जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया था। विधि विशेषज्ञों की मदद से नोटिस पर विचार करने के बाद ही उपराष्ट्रपति ने उसे ख़ारिज़ किया, क्योंकि नोटिस में दिए गए तथ्य महाभियोग चलाने लायक नहीं थे। किसी भी क़ीमत पर जस्टिस दीपक मिश्रा को हटाने पर आमादा वामपंथी विचारक और मुस्लिम बुद्धिजीवी उपराष्ट्रपति के फ़ैसले पर भी सवाल उठा रहे हैं।

बहरहाल, सवाल यहां यह उठता है कि अगर जस्टिस दीपक मिश्रा जज लोया के मामले में कांग्रेस के अनुकूल फ़ैसला देते तब क्या वह कांग्रेस के गुडविल लिस्ट में रहते? यानी वह कह देते कि जज लोया हार्टअटैक से नहीं मरे, बल्कि एक साज़िश के तहत उनकी हत्या की गई है, लिहाज़ा उनकी मौत की एसआईटी या उससे भी बड़ी एजेंसी से जांच होनी चाहिए, ताकि लोया के हत्यारों की शिनाख़्त की जा सके, तब शायद कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष को उनका भ्रष्टाचार न दिखता। सवाल यहां यह भी है कि कांग्रेस को जस्टिस दीपक मिश्रा का भ्रष्टाचार उनको जज बनाते समय क्यों नहीं दिखा? कांग्रेस इस सवाल का भी जवाब नहीं देगी कि अगर उनका आचरण इतना संदिग्ध था तब उन्हें हाईकोर्ट का जज क्यों बनाया गया? क्या हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के जज की चयन प्रक्रिया इतनी लचर और कमज़ोर है कि भ्रष्टाचार करने वाला व्यक्ति भी जज बन सकता है।

बहरहाल, अगर न्यायाधीशों के कथित भ्रष्टाचार की बात करें तो इतिहास गवाह है कि कांग्रेस कई जजों के भ्रष्टाचार पर आंख मूंदती रही है। 1989-91 में देश के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस रंगनाथ मिश्रा (जस्टिस दीपक मिश्रा के चाचा) कांग्रेस को बहुत प्रिय रहे। उन्होंने 1984 के सिख दंगों के मामले में कांग्रेस के नेताओं को क्लीन चिट दे दिया था। सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग जज के रूप में उन्होंने सिख की हत्या की जांच करने वाले आयोग की अध्यक्षता की। पूछताछ और जांच की कार्यवाही अत्यधिक पक्षपातपूर्ण तरीक़े से निपटाया और कांग्रेस नेताओं को क्लीन चिट दे दिया। जबकि आधिकारिक जांच रिपोर्ट और सीबीआई जांच में कांग्रेस के नेताओं के ख़िलाफ़ गंभीर साक्ष्य मिले थे। बहरहाल, कांग्रेस ने रंगनाथ मिश्रा को पुरस्कृत करते हुए राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिया।

कांग्रेस को 1991 में 18 दिनों के लिए मुख्य न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति कमल नारायण सिंह कभी भ्रष्टाचारी नहीं दिखे। उन पर आरोप लगा कि जैन एक्सपोर्ट्स और उसकी सिस्टर कन्सर्न जैन शुद्ध वनस्पति के पक्ष में फ़ैसला देते समय जज साहब अप्रत्याशित रूप से बेहद उदार हो गए। उनके आदेश से कंपनी ने औद्योगिक नारियल का तेल आयात किया था, जबकि उस पर प्रतिबंध लगा था। कंपनी पर कस्टम विभाग के लगाए 5 करोड़ रुपए के ज़ुर्माने को भी जस्टिस सिंह ने अपने आदेश में घटाकर 35 फ़ीसदी कम कर दिया। बाद में न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया ने उस आदेश को रद्द कर दिया और टिप्पणी भी की, "मैं वर्तमान हलफ़नामे पर टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं लेकिन मैं न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बारे में चिंतित हूं।"

राजनीतिक दलों को सन् 1994-1997 के दौरान मुख्य न्यायाधीश रहे एएम अहमदी का पक्षपात या भ्रष्टाचार नहीं दिखा, जब अहमदी ने भोपाल गैस त्रासदी में हज़ारों नागरिकों को इंसाफ़ से वंचित कर दिया। उन्होंने हत्या के लिए ज़िम्मेदार यूनियन कार्बाइड कंपनी के ख़िलाफ़ अपराधी हत्या के आरोप को ही खारिज कर दिया। उनके फ़ैसले पर भी गंभीर टिप्पणी हुई कि न्याय के साथ विश्वासघात किया गया। सबसे मज़ेदार बात यह रही अहमदी ने बाद में यूनियन कार्बाइड अस्पताल ट्रस्ट मंडल का अध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं अहमदी ने पर्यावरण संबंधी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अंगूठा दिखाते हुए बड़खल और सूरजकुंड झील के पांच किलोमीटर के दायरे में कांत एनक्लेव, फरीदाबाद में अपना शानदार घर बनवाया। 1998 में मुख्य न्यायाधीश रहे एमएम पुंछी का वह फ़ैसला किसी को पक्षपात या भ्रष्टाचार के दायरे में नहीं लगा, जब उन्होंने शिकायतकर्ता से समझौता करने के आरोप में जेल की सज़ा भुगत रहे एक प्रभावशाली व्यक्ति को अपने मन से बरी कर दिया। जबकि यह नॉर्म का खुल्मखुल्ला उल्लंघन था।

मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस आदर्श सेन आनंद पर तो फ़र्ज़ी हलफ़नामे से ज़मीन हथियाने के एक नहीं तीन-तीन गंभीर आरोप लगे। जस्टिस आनंद पर आरोप था कि उन्होंने जम्मू कश्मीर के होटल व्यापारी के पक्ष में फ़ैसला दिया, बदले में व्यापारी ने उनकी बेटी को औने-पौने दाम पर भूखंड दे दिया। जस्टिस आनंद सेन ने तो अपने ख़िलाफ़ घोटाले को प्रकाशित करने वाले पत्रकार विनीत नारायण को बहुत टॉर्चर किया था। उनको अब तक का सबसे भ्रष्ट मुख्य न्यायाधीश कहें तो हैरानी नहीं। वह कितने ताक़तवर थे इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भ्रष्टाचार के बारे में आनंद से क़ानून मंत्री राम जेठमलानी ने स्पष्टीकरण मांगा तो आनंद ने उनको क़ानूनमंत्री पद से हटवा दिया। उस समय कांग्रेस या किसी दूसरे दल के किसी सांसद ने आनंद के ख़िलाफ़ महाभियोग लाना तो दूर, लाने की सोची भी नहीं। सबसे अहम जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल उस समय जस्टिस आनंद का बचाव कर रहे थे।

न्यायमूर्ति वाईके सभरवाल भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं रहे। उन्होंने कुछ बिल्डरों और न्यायाधीश के बेटों को फायदा पहुंचाने के लिए दिल्ली में कॉमर्शियल गालों को सील करने का आदेश दिया। इसके बाद उनका बेटा भी रियल इस्टेट के कारोबार में उतर गया और एक लाभ पाने वाले बिल्डर का पार्टनर बन गया। सबसे हैरानी वाली बात यह रही कि उनके बेटे की कंपनी का पंजीकृत ऑफिस न्यायाधीश का सरकारी घर था। लेकिन उनके ख़िलाफ़ किसी ने महाभियोग लाने के बारे में सोचा भी नहीं। इसके अलावा समय समय पर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज ऐसे फ़ैसले देते रहे हैं, जिनसे फेवर और भ्रष्टाचार की बू आती है, लेकिन कभी किसी जज पर महाभियोग नहीं लाया गया।

विनीत नारायण की किताब 'भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार' में कहा गया कि हवाला कांड को मुख्य न्यायाधीश रहे जगदीश शरण वर्मा पर गंभीर आरोप लगाया है। उनके मुताबिक जस्टिस वर्मा ने एक साज़िश के तहत बिना सघन जांच के ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसी तरह तीन साल पहले बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस अभय थिप्से ने अभिनेता सलमान ख़ान को हिट रन केस में कुछ घंटे के भीतर आनन-फानन में सुनवाई करके ज़मानत दे दिया और जेल जाने से बचा लिया था। जस्टिस एआर जोशी ने अपने रिटारमेंट से पहले सलमान खान को रिहा ही कर दिया। इसी तरह कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस सीआर कुमारस्वामी ने महाभ्रष्टाचारी जे जयललिता को निर्दोष करार देकर फिर उसे मुख्यमंत्री बना दिया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने वह फ़ैसला बदल दिया और जयललिता तो नहीं उनकी सहेली शशिकला जेल में हैं। ज़ाहिर है, इस तरह के अप्रत्याशित फ़ैसलों के पीछे सुनियोजित लेन-देन होता है।

अब तक भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में केवल एक  न्यायाधीश के ख़िलाफ़ महाभियोग की कार्यवाही की गई। 1993 में संसद में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी को एक जांच आयोग की रिपोर्ट के बाद भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा। कपिल सिब्बल ने उस वक़्त लोकसभा में रामास्वामी का जोरदार बचाव किया। नरसिंह राव सरकार के दौरान लाया गया वह महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा में पारित नहीं हुआ। हालांकि संसद में महाभियोग का सामना करने वाले रामास्वामी इकलौते जज हैं।

जो भी हो, स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की मर्यादा और विश्वसनीयता को बनाए रखी जाए। देश की संवैधानिक संस्थाओं को राजनीति से दूर रखने की ज़िम्मेदारी केवल सरकार या सत्तारूढ़ दल अथवा गठबंधन की नहीं, बल्कि हर राजनीतिक दल और हर नेता की होती है। और राजनेता अगर संसद के किसी सदन लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य है तो उसकी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही कई गुना ज़्यादा बढ़ जाती है। इतना तो तय है कि कांग्रेस ने जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ महाभियोग चलाने का फ़ैसला सही समय पर नहीं लिया। भारतीय समाज में न्यायपालिका को बहुत सम्मान से देखा जाता रहा है। जनता का यह विश्वास अब तक इसलिए भी कायम रहा क्योंकि उसकी सत्ता स्वायत्ता और स्वतंत्र रही। इसी कारण वह लोकतंत्र का अभिभावक रहा है। न्यायपालिका का राजनीतिकरण जम्हूरियत की बुनियाद को कमज़ोर करेगा।
समाप्त