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रविवार, 30 जनवरी 2011

अयोध्या में न तो बाबरी मस्जिद थी न ही राम मंदिर

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अयोध्या में जिस विवादित स्थल को लेकर छह दशक से ज़्यादा समय से देश में सांप्रदायिक दंगे-फ़साद हो रहे हैं, जिनमें लाखों लोग मज़हब के नाम पर अपनी आहुति दे चुके हैं और जिसके चलते आज भी करोड़ों धर्मांध हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हैं, वहां न तो कभी बाबरी मस्जिद नाम की कोई मस्जिद थी न कोई राम मंदिर, जिसे तोड़कर मस्जिद बनवाई गई हो। यह ख़ुलासा आज से दस साल पहले ही हो चुका है और यह किसी ऐरे-ग़ैरे ने नहीं, देश के शीर्षस्थ कालजयी साहित्यकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले उपन्यासकार कमलेश्वर ने दस साल के गहन शोध, अध्ययन और तफ़तीश के बाद लिखे उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में किया है। सन् 2000 में प्रकाशित इस उपन्यास को नामवर सिंह, विष्णु प्रभाकर, अमृता प्रीतम, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, हिमांशु जोशी और अभिमन्यु अनत जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों ने विश्व-उपन्यास की संज्ञा देते हुए इसकी दिल खोलकर प्रशंसा की है। कई प्रतिष्ठित हिंदी-अंग्रेज़ी अख़बारों में उपन्यास की समीक्षा भी प्रकाशित हो चुकी है। मज़ेदार बात यह है कि भारत सरकार ने भी इस किताब को मान्यता दी है। अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने उपन्यास में पाकिस्तान बनने के बारे में दिए गए तथ्यों की दिल खोलकर तारीफ़ की थी और इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा था। ग़ौरतलब है कि साहित्य अकादमी केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के अधीन आता है और तब उसके मुखिया हिंदुत्व और राम मंदिर आंदोलन के बहुत बड़े पैरोकार डॉ. मुरली मनोहर जोशी थे। अगर कमलेश्वर के निष्कर्ष से सरकार को किसी भी तरह की आपत्ति होती तो कम से कम उन्हें सरकारी पुरस्कार नहीं दिया जाता। ये माना जाता है कि कोई सरकार किसी किताब को पुरस्कृत कर रही है तो वह सरकार उसमें लिखी हर बात से सहमत है।

बहरहाल, कमलेश्वर ने समय और किरदार की सीमाओं को तोड़कर बड़ी खूबसूरती से ‘कितने पाकिस्तान’ की रचना की है जिसमें ‘अदीब’ यानी लेखक ‘समय की अदालत’ लगाता है जिसमें महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना, अली बंधु, लार्ड माउंटबेटन, बाबर, हुमायूं, कबीर जैसे सैकड़ों विश्व-इतिहास के अहम किरदारों ने ख़ुद अपने अपने बयान दिए हैं। इसके अलावा कई दर्जन विश्व-प्रसिद्ध इतिहासकारों ने भी इस अनोखी अदालत में हर विवादास्पद घटनाओं पर गवाही दी है। किताब में इन्हीं बयानों और अंग्रेज़ों के कार्यकाल में तैयार गजेटियर, पुरातत्व विभाग के दस्तावेज़ों और इतिहास के नामचीन हस्तियों की आत्मकथाओं में उपलब्ध जानकारी को आधार बनाया गया है। जिनकी प्रमाणिकता पर संदेह करने का सवाल ही नहीं उठता।

‘कितने पाकिस्तान’ में कमलेश्वर ने कई अध्याय अयोध्या मुद्दे को समर्पित किया है। उपन्यास के मुताबिक अयोध्या में मस्जिद बाबर के आक्रमण और उसके भारत आने से पहले ही मौजूद थी। बाबर आगरा की सल्तनत पर 20 अप्रैल 1526 को क़ाबिज़ हुआ जब उसकी सेना ने इब्राहिम लोदी को हराकर उसका सिर क़लम कर दिया। एक हफ़्ते बाद 27 अप्रैल 1526 को आगरा में बाबर के नाम का ख़ुतबा पढ़ा गया।

मज़ेदार बात यह है कि ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी माना है कि अयोध्या में राम मंदिर को बाबर और उसके सूबेदार मीरबाक़ी ने 1528 में मिसमार करके वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। मीरबाक़ी का पूरा नाम मीरबाक़ी ताशकंदी था और वह अयोध्या से चार मील दूर सनेहुआ से सटे ताशकंद गांव का निवासी था। इसी तथ्य को आधार बनाकर हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने सितंबर में बहुप्रतीक्षित ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है। जिस पर अभी तक प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।

दरअसल, अयोध्या की मस्जिद (बाबरी मस्जिद नहीं) में एक शिलालेख भी लगा था जिसका जिक्र अंग्रेज़ अफ़सर ए फ़्यूहरर ने कई जगह किया है। फ़्यूहरर ने 1889 में आख़िरी बार उस शिलालेख को पढ़ा जिसे बाद में, किताब के अनुसार, अंग्रेज़ों ने नष्ट करवा दिया। शिलालेख के मुताबिक अयोध्या में मस्जिद का निर्माण इब्राहिम लोदी के आदेश पर 1523 में शुरू हुआ और 1524 में मस्जिद बनकर तैयार हुई। इतना ही नहीं, शिलालेख के मुताबिक, मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बल्क़ि ख़ाली जगह पर बनवाई गई थी। इसका यह भी मतलब होता है कि अगर विवादित स्थल पर राम या किसी दूसरे देवता का मंदिर था, जिसके अवशेष खुदाई करने वालों को मिले हैं, तो वह 15वीं सदी से पहले नेस्तनाबूद कर दिया गया था या ख़ुद नष्ट हो गया था। उसे कम से कम बाबर या मीरबाक़ी ने नहीं तोड़वाया जैसा कि इतिहासकारों का एक बड़ा तबक़ा और अनेक हिंदूवादी नेता कई दशक से मानते और दावा करते आ रहे हैं।

‘कितने पाकिस्तान’ के मुताबिक मस्जिद में इब्राहिम लोदी के शिलालेख को नष्ट करने में अंग्रेज़ अफ़सर एचआर नेविल ने अहम भूमिका निभाई। वह सारी ख़ुराफ़ात और साज़िश का सूत्राधार था। उसने ही आधिकारिक तौर पर फ़ैज़ाबाद का गजेटियर तैयार किया। नेविल की साज़िश में दूसरा फ़िरंगी अफ़सर कनिंघम भी शामिल था जिसे अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने हिंदुस्तान की तवारिख़ और पुरानी इमारतों की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी दी थी। कनिंघम ने बाद में लखनऊ का गजेटियर भी तैयार किया। किताब के मुताबिक दोनों अफ़सरों ने धोखा और साज़िश के तहत गजेटियर में दर्ज किया कि 1528 में अप्रैल से सितंबर के बीच एक हफ़्ते के लिए बाबर अयोध्या आया और राम मंदिर को तोड़कर वहां बाबरी मस्जिद नींव रखी थी। यह भी लिखा कि अयोध्या पर हमला करके बाबर की सेना ने एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं को हलाक़ किया जबकि फ़ैज़ाबाद के गजेटियर में आज भी लिखा है कि 1869 में, उस लड़ाई के क़रीब साढ़े तीन सौ साल बाद, अयोध्या-फ़ैज़ाबाद की कुल आबादी महज़ दस हज़ार थी जो 1881 में बढ़कर साढ़े ग्यारह हज़ार हो गई। सवाल उठता है कि जिस शहर की आबादी इतनी कम थी वहां बाबर या उसकी सेना ने इतने लोगों को हलाक़ कैसे किया या फिर इतने मरने वाले कहां से आ गए? यहीं, बाबरी मस्जिद के बारे में देश में बनी मौजूदा धारणा पर गंभीर सवाल उठता है।

बहरहाल, हैरान करने वाली बात यह है कि दोनों अफ़सरों नेविल और कनिंघम ने सोची-समझी नीति के तहत बाबर की डायरी बाबरनामा, जिसमें वह रोज़ाना अपनी गतिविधियां दर्ज करता था, के 3 अप्रैल 1528 से 17 सितंबर 1528 के बीच 20 से ज़्यादा पन्ने ग़ायब कर दिए और बाबरनामा में लिखे ‘अवध’ यानी ‘औध’ को ‘अयोध्या’ कर दिया। उल्लेखनीय बात है कि मस्जिद के शिलालेख का फ़्यूहरर द्वारा किए गए अनुवाद को ग़ायब करना अंग्रेज़ अफ़सर भूल गए। वह अनुवाद आज भी आर्कियोल़जिकल इंडिया की फ़ाइल में महफ़ूज़ है और ब्रितानी साज़िश से परदा हटाता है। इसके अलावा बाबर की गतिविधियों की जानकारी बाबरनामा की तरह हुमायूंनामा में भी है। लिहाज़ा, बाबरनामा के ग़ायब पन्ने से नष्ट सूचना हुमायूंनामा से ली जा सकती है। हुमायूंनामा के मुताबिक 1528 में बाबर अफ़गान हमलावरों का पीछा करता हुआ घाघरा (सरयू) नदी तक अवश्य गया था लेकिन उसी समय उसे अपनी बीवी बेग़म मेहम और अन्य रानियों और बेटी बेग़म ग़ुलबदन समेत पूरे परिवार के काबुल से अलीगढ़ आने की इत्तिला मिली। बाबर लंबे समय से युद्ध में उलझने की वजह से परिवार से मिल नहीं पाया था इसलिए वह तुरंत अलीगढ़ रवाना हो गया। पत्नी-बेटी और परिवार के बाक़ी सदस्यों को लेकर वह अपनी राजधानी आगरा आया और 10 जुलाई तक उनके साथ आगरा में ही रहा। उसके बाद बाबर परिवार के साथ धौलपुर चला गया। वहां से सिकरी पहुंचा, जहां सितंबर के दूसरे हफ़्ते तक रहा।

ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि, पुस्तक के मुताबिक, गोस्वामी तुलसीदास से पहले जम्बूद्वीप (तब भारत या हिंदुस्तान था ही नहीं था सो इस भूखंड को जम्बूद्वीप कहा जाता था) के हिंदू धर्म के अनुयायी नटखट कृष्ण और फक्कड़ शंकर की पूजा करते थे। तब राम का उतना क्रेज नहीं था। राम का महिमामंडन तो तुलसीदास ने किया और रामचरित मानस रचकर राम को हिंदुओं के घर-घर प्रतिष्ठित कर दिया। तुलसीदास १४९८ में पैदा हुआ और बाबर के कार्यकाल तक वह किशोर था और पत्नी का दीवाना तुलसादास अपनी मायावी दुनिया में मशगूल था। तुलसी ने रामचरित मानस की रचना बुढापे में की जो हुमायूं और अकबर का दौर था। रामचरित मानस के प्रचलन में आने के बाद ही राम हिंदुओं के देवता नंबर वन बने।
कुल मिलाकर ‘कितने पाकिस्तान’ में कमलेश्वर ने ऐतिहासिक तथ्यों का सहारा लेकर कहा है कि 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज़ चौकन्ने हो गए और ब्रिटिश इंडिया की नई पॉलिसी बनाई जिसके मुताबिक अगर इस उपमहाद्वीप पर लंबे समय तक शासन करना है तो इस भूखंड को धर्म के आधार पर विभाजित करना होगा। ताकि हिंदू और मुसलमान एक दूसरे से ही लड़ते रहें और उनका ध्यान आज़ादी जैसे मुद्दों पर न जाए। और, इसी नीति के तहत इब्राहिम लोदी की बनवाई मस्जिद ‘बाबरी मस्जिद’ बना दी गई और उसे ‘राम मंदिर’ से जोड़कर एक ऐसा विवाद खड़ा कर दिया जो सदियों तक हल नहीं हो। अंग्रेज़ निश्चित रूप से सफल रहे क्योंकि उस वक़्त पैदा की गई नफ़रत ही अंततः देश के विभाजन की मुख्य वजह बनी।

(समाप्त)

(Note: This article was written by Hari Govind Vishwakarma in 2003 (then he was bureau chief of UNI at Varanasi) when Kamleshwar got Sahitya Academy award but could't publish due to some reason)

बुधवार, 5 जनवरी 2011

राष्ट्रीय एकता के वाहक बनते टीवी सीरियल

हरिगोविंद विश्वकर्मा.
मनोरंजन टेलीविज़न चैनलों पर आने वाले धारावाहिकों की एक्स्ट्रामैरिटल अफ़ेयर और चाइल्ड-लेबर जैसे मसले पर चाहे जितनी आलोचना की जाए या विरोध हो लेकिन इतना तो सच है कि ये सीरियल्स फिलहाल राष्ट्रीय एकता के वाहक बनते जा रहे हैं। सोमवार से शुक्रवार शाम सात बजे से रात ग्यारह बजे तक प्रमुख टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले इन धारावाहिकों को नियमित देखने से देश के दूसरे हिस्से लोगों की जीवन-शैली और भाषा की जानकारी मिल रही है। ऐसे में कहें कि इन धारावाहिकों से देश की क्षेत्रीय जीवनशैली, भाषा, सभ्यता और संस्कार का गुपचुप तरीक़े से विस्तार हो रहा है तो कतई अतिशयोक्ति न होगा। वस्तुतः ये धारावाहिक हिंदी में हैं लेकिन इनकी कहानी और जीवनशैली अलग-अलग संस्कृति-भाषा का प्रतिनिधित्व करती है। संवादों में क्षेत्रीय भाषाओं और वेशभूषा के इस्तेमाल से इसे स्थानीय टच मिल रहा है।

मसलन, ज़ीटीवी पर नौ बजे आने वाले “पवित्र रिश्ता” में मराठीभाषी परिवारों की कहानी है। जिसमें बीच-बीच में पात्र मराठी बोलते हैं जिन्हें ग़ैर-मराठी दर्शक भी आसानी से समझ लेते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि यह धारावाहिक मराठी भाषा और मराठी संस्कृति को देश के अन्य हिस्से में पहुंचा रहा है। दूसरे प्रांतों के लोग जानने लगे हैं कि महाराष्ट्र या मुंबई में मराठी परिवार किस तरह रहता है और किस तरह की समस्याओं से दो-चार होता है। “अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो” में उत्तरप्रदेश के ठाकुर परिवार की कहानी है। जिसमें पूर्वांचल की वेशभूषा और भोजपुरी मिश्रित अवधी भाषा से देश के बाक़ी हिस्से के लोग रूबरू हो रहे हैं। सहारा वन पर आने वाले सीरियल “बिट्टो” में भी उत्तरप्रदेश की ही कहानी है और निचली जाति पर ऊंची जाति के अत्याचार की थीम पर आधारित है। “छोटी बहू” में ब्रजभाषा और मथुरा के आसपास रहने वाले लोगों की जीवन शैली देखने-सुनने को मिल रहा है। खासकर राजपुरोहित परंपरा को दिखाया जा रहा है। ठीक इसी तरह की कहानी स्टार प्लस के “प्रतिज्ञा” की है, जहां पूर्वांचल की वेशभूषा और भाषा दिखती है। “12/24 करोल बाग” और स्टार वन के “गीत हुई परायी” जैसे धारावाहिकों के पंजाबी डॉयलॉग दूसरी भाषा के लोग भी समझने लगे हैं। “मैं घर-घर खेली“ में उज्जैन के दो परिवार की कहानी है जहां मालवा जीवनशैली और भाषा दिखती है। “ससुराल गेंदा फूल” देश की राजधानी दिल्ली खासकर पुरानी दिल्ली की संस्कृति का दीदार होता है और वहां बोली जाने वाली भाषा सुनने को मिलती है। स्टार प्लस के “ये रिश्ता क्या कहता है” में उदयपुर में रहने वाले परंपरागत मारवाड़ी परिवार की कहानी है। इसके विपरीत कलर्स के चर्चित और विवादास्पद धारावाहिक “बालिका वधू” में राजस्थान के देहात में रहने वाले परिवारों दिनचर्या और रहन-सहन की कहानी है। इस सीरियलों में दर्शकों को मारवाड़ी भाषा के डॉयलॉग सुनने को मिलते हैं जिसे लोग अब आसानी से समझने लगे हैं। इसी चैनल पर ही अभी हाल ही शुरू “तेरे लिए” में बंगाली जीवन शैली और संस्कृति की झलक मिलती है, खासकर आदमियों द्वारा खींचा जाने वाले इक्के को देख सकते हैं। “चांद छुपा बादल” में शिमला में रहने वाले परिवारों की कहानी और जीवन शैली बयां करती है। इसमें भी संवादों में ज़्यादातर स्थानीय पहाड़ी भाषा सुनने को मिलती है। स्टार प्लास की लाडली, सोनी टीवी के चर्चित सीरियल “रंग बदलती ओढ़नी” और सब टीवी के “तारक मेहता का उल्टा चश्मा” में गुजराती परिवारों की कथाएं हैं तो “मिस्टर ऐंड मिसेज़ शर्मा इलाहाबाद वाले” में इलाहाबाद की कहानी है। इमैजिन के सीरियल “काशी” बिहार में निचले तबके की कहानी है जहां बचपन में ही लड़कियां व्याह दी जाती हैं। इस धारावाहिक में भोजपुरीयुक्त संवाद भी सुनने को मिलते हैं। सीरियल को संवाद के जरिए स्थानीय टच देने की सफल कोशिश की गई है। स्टारप्लस पर आने वाला “मर्यादा” हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश का रहन-सहन पर बेस्ड है। कलर्स के “न आना इस देश में लाड़ो” में उस समाज की कहानी है, जहां विवाह में गोत्र अहम माना जाता है। “मान रहे तेरा पिता” छत्तीसगढ़ में कोयले की खान की पृष्ठभूमि पर आधारित पिता-पुत्री के रिश्ते की भावनात्मक कहानी है। इसमें भी संवाद में भी स्थानीय भाषा होती है।

भाषा और रहन-सहन के अलावा कई धारावाहिक हिंदुस्तानी समाज की परंपराओं के अलावा सामाजिक बुराइयों-कुरीतियों पर आधारित हैं। सोनी टीवी पर गोद भराई ऐसा ही धारावाहिक है जिसमें “गोद भराई” का धार्मिक संस्कार है। यह देश के हर हिस्से में मनाया जाता है खासकर घर की गर्भवती महिला के सात महीने पूरे करने पर होता है। बंगाली में इसे शाद कहते हैं। केरल में यह सीमंधा और तमिलनाडु में वेलाकप्पू नाम से मनाया जाता है। जीटीवी पर इन दिनों रानी लक्ष्मीबाई सीरियल आ रहा है जो लक्ष्मीबाई के जीवन पर आधारित है। इसी तरह पिछले दो दशक के दौरान “भारत एक खोज”, “रामायण” और “महाभारत”समेत कई ऐतिहासिक और पौराणिक धारावाहिकों का प्रसारण हुआ जिससे ऐतिहासिक और पौराणिक किरदारों के बारे में लोगों के जनरल नॉलेज में काफी इजाफा हुआ।

देश में छोटे परदे पर सीरियलों की उम्र 26 साल है जो बहुत कम है। यह सिलसिला दूरदर्शन ने सात जुलाई 1984 को शुरू किया। जब मनोहर श्याम जोशी की “हमलोग“ के रूप में मध्यम वर्ग की कहानी आई और बेहद लोकप्रिय हुई। आम भारतीय उसमें अपनी कहानी देखने लगा। तीन साल से ज़्यादा समय चक चले हमलोग के हर किरदार लोकप्रिय हुए। बहरहाल, अभी लंबा रास्ता तय करना है और उम्मीद की जानी चाहिए कि सीरियल राष्ट्रीय एकता के वाहक बने रहेंगे।

बेशक, यह देश की एकता और अखंडता मज़बूत करने के दृष्टिकोण से सकारात्मक प्रयास है। भविष्य में बाक़ी रिमोट हिस्सों के लोगों की जीवन-शैली को भी सीरियल के माध्यम से पेश किया जाए तो बूद्धू बक्से की प्रतिष्ठा में चार चांद लग जाएगा। गौरतलब है कि सिनेमा ने हिंदी को देश के कोने कोने में पहुंचाया है। अधिकृततौर पर हिंदी भले ही न राष्ट्रीय भाषा का दरजा पा सकी हो लेकिन अगर व्यवहारिक रूप से देखें तो हिंदी देश की संपर्क भाषा बन गई है। देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए हर जगह हिंदी बोलने समझने वाले मिल जाएंगे। दक्षिण में नेताओं के हिंदी विरोध को हिंदी सिनेमा ने इतिहास की चीज़ बना दी। आजकल हिंदी कर्नाटक और आंध्रप्रदेश ही नहीं तमिलनाडु और केरल के दूर-दराज़ के हिस्सों में भी धड़ल्ले से बोली जाने लगी है।

दरअसल, जानकारी की स्रोत किताबें होती हैं या फिर देशाटन। अपने देश में दोनों बेहद महंगी हैं। एक आम आदमी जीवन भर दो जून की रोटी जुटाने में व्यस्त रहता है। वह न तो किताब खरीद पाता है न ही उसे घूमने की फ़ुर्सत मिलती है फिर इन सबके लिए उसके पास उतना पैसा भी नहीं होता। ऐसे में ये सीरियल्स ही आम आदमी की जानकारी के स्रोत बन रहे हैं। समस्या यह है कि सैटेलाइट चैनलों की पहुंच केवल शहरों में है। देहातों में कहीं-कहीं लोगों ने सेटबाक्स लगा रखे हैं लेकिन बिजली की कमी के चलते निजी टीवी मनोरंजन से वंचित है रहते हैं। यानी देश की साठ फ़ीसदी आबादी आज भी टीवी देखने से वंचित रहती है। लेकिन जिस तरह दूरसंचार तकनीकी क्रांति कर रही है। भविष्य में संभव है यह मुश्किल काम आसान हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो इस देश की भाषाई अखंडता के लिए शुभ संकेत होगा।

(Note... I written this article around 3 months before)
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मंगलवार, 24 अगस्त 2010

कहानी - बदचलन

हरिगोविंद विश्वकर्मा

उसे लेकर मैं बुरी तरह उलझा था। ऐसा क्यों हुआ... उसने ऐसा क्यों किया... पूरे मामले को नए सिरे से समझने की कोशिश कर रहा था। मैं अभी तक सकते में था। कह लीजिए, मेरे अंदर घमासान-सा मचा था। हालांकि, पछतावा भी हो रहा था और ग़ुस्सा भी आ रहा था, मुझे अपने ऊपर। उसका रिऐक्शन मेरे लिए एकदम अप्रत्याशित था। हां, आख़िर उसका वीहैवियर उसके स्वभाव के एकदम विपरीत क्यों रहा। कहीं उसके बारे में मेरा पूरा का पूरा आकलन ग़लत तो नहीं था, उसकी प्रतिक्रिया तो कुछ ऐसी ही थी। ओ माई गॉड...! तब तो बहुत बड़ा अनर्थ हो गया। कैसे हुई मुझसे यह चूक...?

दरअसल, पिछले कई साल से वह इसी मोहल्ले में रह रही थी। पहले उसकी मां भी साथ रहती थी। दो साल पहले मां का स्वर्गवास हो गया और वह अकेली रह गई। तब से वह अकेली ही रह रही थी। कभी-कभार घर में एक वृद्ध महिला आ जाती थी, दो चार दिन के लिए। वह उसकी मौसी है। मौसी के वापस जाने के बाद वह फिर से अकेली हो जाती है। पास-पड़ोस के लोगों से वह ज़्यादा घुली-मिली नहीं थी।

नौकरी मिलने से पहले मैं घर पर ही रहता था। सो, उसे रोज़ सुबह घर से जाते और शाम को वापस लौटते देखता था। कभी-कभार रात भी हो जाती थी। परंतु जब से मैं ड्यूटी पर जाने लगा, उसकी दिनचर्या से अनजान हो गया। हालांकि लोग कहते थे कि वह देर रात रिक्शे से उतरती देखी जाती है। और, महीने में चार-पांच बार तो रात भर बाहर ही रहती है और एकदम सुबह घर लौटती है।

यह भी पता नहीं कि वह क्या काम करती है या कहां काम करती है। हालांकि लोग कहते हैं कि वह यहीं पास में किसी ऑफ़िस में काम करती है, जहां हफ़्ते में दो दिन शनिवार और रविवार अवकाश रहता है। कुछ लोग कहते हैं कि वह टीचर है। लेकिन सच क्या है भगवान ही जाने...

यह भी कहा जाता था कि उसकी शादी को कोई पांचेक साल गुज़र चुके हैं। उसकी शादी में मेरे घर वाले भी शामिल हुए थे। शादी के दौरान ही लेनदेन को लेकर विवाद हो गया और पर्याप्त दहेज की व्यवस्था न होने से उसकी विदाई नहीं हुई, वह ससुराल ही न जा सकी। कई लोग कानाफूसी करते हैं कि वह छूट गई है। जब तक उसकी मां जीवित थी, साथ रही। अब वह बिलकुल अकेली है। मां के निधन के कुछ महीने बाद एक दिन अचानक वह बहुत बीमार हो गई। उसे पास के अस्पताल में भर्ती कराया गया था। वह काफी सीरियस थी।

उन दिनों मैं पढ़ाई पूरी करके मुंबई में नया-नया आया था। घर वालों के कहने पर मुझे भी उसे देखने के लिए अस्पताल जाना पड़ा। पड़ोसी होने के नाते यह मेरा फ़र्ज़ भी था। उस दिन, जब मैं अस्पताल पहुंचा तो अचानक उसकी तबीयत और बिगड़ गई। उसकी मौसी रो रही थी, मैंने उन्हें ढांढ़स बंधाया। उसके लीवर में शायद कुछ सूजन आ गई थी। शरीर ज्वर से तप रहा था। वह बेहाश थी। उसका ऑपरेशन होने वाला था। ख़ून की तत्काल सख़्त ज़रूरत थी, लेकिन आसपास के ब्लडबैंकों में उसके ग्रुप का ख़ून ही न था। उसके कई रिश्तेदार आए थे। ख़ून देने की पहल कई लोगों ने की, पर किसी का ग्रुप भी उससे ना मिला जिससे कोई उसे ख़ून न दे सका। ब्लड डोनेशन की औपचारिक पहल मैंने भी की, हालांकि डर रहा था क्योंकि घर में किसी से पूछा नहीं था और मामला ख़ून एक अनजान लड़की को देने का था। मेरा संकट उस समय और बढ़ गया जब मेरा ग्रुप उसके ग्रुप का ही निकला और न चाहते हुए भी मुझे ख़ून देना पड़ा।

लेकिन उतने से ही काम नहीं होने वाला था, ख़ून की और ज़रूरत थी। इलाज कर रहे डॉ. बत्रा परेशान थे। ख़ून के अभाव में ऑपरेशन नहीं हो पा रहा था। और, उसकी हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी।

आख़िरकार डॉ. बत्रा ख़ुद बेड पर लेट गए और अपने असिस्टेंट से ख़ून निकालने को कहा। मेरी ज़िंदगी में पहली घटना थी, जब किसी डॉक्टर ने अपने मरीज को अपना ही ख़ून देने का फ़ैसला किया हो। मेरी ही नहीं, वहां मौजूद हर किसी की नज़र में डॉ. बत्रा का सम्मान अचानक बहुत बढ़ गया। वह महामानव का दर्जा पा गए। श्रद्धेय हो गए। उन्होंने जता दिया कि अन्य डॉक्टरों के लिए डॉक्टरी भले पैसा बनाने का ख़ालिस पेशा हो लेकिन उनके लिए पूजा है, सच्ची समाजसेवा है।

उस दिन ख़ून देने के बाद मैं कई घंटे अस्पताल में ही रहा। मन ही मन मना रहा था कि ख़ून देने की ख़बर घर वालों को न लगे। पूरे समय तनाव में था कि क्या जवाब दूंगा? एक अनजान लड़की को ख़ून देने के अपने फ़ैसले को कैसे जस्टीफ़ाई करूंगा? निश्चित तौर पर लोग नाराज़ होंगे। हालांकि मेरे ख़ून देने की ख़बर मुझसे पहले ही मेरे घर पहुंच गई, मेरे भैया ख़ुद अस्पताल आ गए मुझे लेने के लिए। वह किसी ज़रूरतमंद को ख़ून देने के मेरे फ़ैसले से बहुत ख़ुश थे। मुझे बड़ी तसल्ली हुई। मैं हलका महसूस करने लगा।

बहरहाल, ऑपरेशन के बाद उसकी तबीयत सुधरने लगी। चार-पांच दिन में ठीक भी हो गई और अस्पताल से डिसचार्ज कर दी गई। उसकी मौसी साथ ही रही। दो महीने में वह एकदम भली-चंगी हो गई और मौसी वापस चली गई। बीमारी के बाद उसका रूप और भी निखर आया। तक़रीबन तीस साल की उम्र में कह लीजिए कि उसका यौवन ग़ज़ब का गदराया हुआ था। सुंदर तो थी ही, देखने वाला पहली नज़र में ही मंत्रमुग्ध हो जाए। हां, उसकी मुस्कुराहट भी बड़ी क़ातिल थी। स्वभाव से भी बहुत चंचल। हर किसी से बिंदास बातचीत करती और बिना किसी प्रसंग के हंस भी देती थी। छोटी-मोटी बातों का कभी बुरा नहीं मानती थी।

एक बार जब मैं घर में अकेला था तभी वह आ गई और मेरे बहुत क़रीब आकर धीरे से ‘थैक्स’ बोली। शायद ख़ून देने के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया।

इस बीच एक कंपनी में मुझे नौकरी मिल गई। कंपनी बहुत दूर थी। मेरी दिनचर्या घर और कंपनी के बीच सिमट कर रह गई। आठ घंटे की नौकरी के लिए मुझे पांच-छह घंटे यात्रा में ख़र्च करने पड़ते थे। कुल 13 से 14 घंटे। मैं सुबह घर से निकलता और रात को ही लौट पाता। बस और लोकल गाड़ी की भीड़ में यात्रा करता हुआ मैं बुरी तरह थक जाता। इसीलिए बिस्तर पर पड़ते ही गहरी नींद की आगोश में चला जाता। और अगली सुबह सात बजे जगा दिया जाता। इस दौरान मेरे मोहल्ले में क्या कुछ होता रहा, मुझे पता ही न चला।

बहरहाल, शाम को आवारा लड़के धीरे-धीरे हमारे पड़ोस में जमा होने लगे। वह घर में होती तो लड़के दरवाज़े के सामने ही खड़े रहते। बाहर निकलती तो छींटाकशी करते, फब्तियां कसते। सड़कछाप मजनुंओं की तादाद दिनोंदिन बढ़ने लगी। हां, जिस दिन वह घर पर न होती तो वहां पूरी शांति रहती।

अलबत्ता, मुझे तो तब पता चला था, जब पानी सिर से काफी ऊपर निकल गया। वह मोहल्ले की नंबर एक बदमाश लड़की मानी जाने लगी। यह चर्चा आम हो गई कि दरवाज़े के सामने खड़े होने वाले आवारा लड़कों के साथ उसका चक्कर है।

एक बार मेरे अवकाश वाले दिन पड़ोस के भाजीवाले मास्टर घर आ गए। बात-बात में उन्होंने कहा –वह बहुत बदमाश लड़की है। एक बार मैंने ख़ुद आधी रात को नल के पास एक लड़के का साथ आपत्तिजनक अवस्था में पकड़ा था। अरे भाई, पक्की हरामी औरत है वह। रात में लड़कों के साथ स्कूल के अहाते में भी चली जाती है शरीर की प्यास बुझाने के लिए।

उनकी बात सुनकर मैं सकते में आ गया। क्योंकि वह मोहल्ले में बेहद सम्मानित व्यक्ति थे। उनकी देखी घटना झूठ तो हो ही नहीं सकती। लिहाजा, उसके बारे में मेरे ख़यालात बदलने लगे। मुझे लगा, ज़रूर उसमें खोट है। तभी तो पता नहीं कहां-कहां के आवारा लड़के उसके दरवाज़े पर हा-हा, हू हू करते रहते हैं। अगर वह सही होती तो विरोध तो करती।

ऐसी ही बातें बाद में मोहल्ले के कई और लोगों ने मुझे बताई। अब मेरे मन में यह बात घर कर गई कि वह सचमुच महाचालू और चरित्रहीन है, उसका नैतिक पतन हो चुका है। हालांकि, मैंने कभी उसे किसी लड़के से बात करते भी नहीं देखा था। हां, उसके घर के सामने आवारा किस्म के लड़कों का हुजूम ज़रूर मेरी नज़र में था।

धीरे-धीरे कानाफूसी होने लगी कि वह धंधा भी करती है। पैसे के लिए तन बेचती है। बड़े-बड़े हॉटेलों में क्लाइंट्स के पास जाती है। रात भर वहीं रहती है। लड़के भी अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए बिंदास उसके घर में घुस जाते हैं। और ना मालूम क्या क्या...

काफी अरसे बाद एक दिन वह मेरे घर आई। मेरा साप्ताहिक अवकाश था। मुझे देखकर मुस्करा दी और ‘हैलो’ बोली। औपचारिक अभिवादन के बाद मैं चुप हो गया। वह सामने कुर्सी पर बैठ गई और अंग्रेज़ी अख़बार पढ़ने लगी। उसके बाद तो हर अवकाश पर मैं उसे अपने घर में अख़बार पढ़ते हुए देखने लगा। वह ऐसे समय आती जब मैं घर पर ही होता। मुझसे बात भी करती थी। इसके बाद तो हमारी खूब बात होने लगी। कुछ दिन बाद वह कई-कई घंटे बैठने लगी। कई मसलों पर बात भी करती। बातचीत में काफी मैच्यौर्ड लगती थी। पहुंचते ही पूछती, ‘खाना हो गया’। मैं भी झट से ‘हां’ कह देता था। हमारे बीच व्यक्तिगत बात बिलकुल न होती थी। इसलिए हम एक दूसरे से अनजान ही रहे।

कोई साल भर पहले, एक दिन उसके घर के सामने जुटने वाले लड़कों में आपस में ही मारपीट हो गई। चाकूबाज़ी में एक लड़का घायल हो गया। चर्चा थी कि लड़ने वाले दोनों लड़के उसके प्रेमी हैं और मारपीट की जड़ भी वही थी। उसी के लिए दोनों में ख़ूनी तक़रार हुई।

चाकूबाज़ी की घटना के बाद पुलिस आ गई और पूछताछ के लिए उसे थाने ले गई। रात को मैं घर आया तो पता चला कि कई घंटे से वह थाने में ही है। उसकी मौसी और घर वालों के आग्रह पर मैं एक स्थानीय नेता के साथ थाने गया और देर रात उसे वापस लिवा आया। घर आते समय वह फूट-फूट कर रो रही थी। लेकिन मुझे लगा कि नाटक कर रही है। चरित्रवान होने का ढोंग। मुझ पर इंप्रेशन बना रही है।

दो दिन बाद भाजीवाले मास्टर ने बताया कि दोनों युवकों के साथ उसे रात में कई बार स्कूल के अहाते में आपत्तिजनक अवस्था में पकड़ चुके हैं। उन्होंने कहा –कार्तिक की कुतिया हो गई है साली। एक से मन नहीं भरता।

उस वारदात के बाद वह थाने में भी बदनाम औरत के रूप में दर्ज हो गई। उसके घर पुलिस वाले भी आने लगे। छोटी-मोटी बात पर उसे थाने बुलाया जाने लगा। कुल मिलाकर वह मोहल्ले की सीमा लांघकर आसपास के इलाके में कुख्यात हो गई। इस प्रकरण के बाद उसकी नौकरी भी छूट गई। वह घर पर ही रहने लगी। हां महीने में कई बार उसे काम से लौटते देखता था। शायद उसे कैज़ुअल या पार्टटाइम जॉब मिल गया था। महीने में चार-पांच बार मैंने उसे सुबह-सुबह घर लौटते देखा। मगर कभी नहीं पूछा कि वह क्या काम करती है?

अब वह साप्ताहिक अवकाश के दिन मेरे पास और ज़्यादा वक़्त गुज़ारने लगी। कह लीजिए कि सुबह से शाम मेरे घर में बैठी रहती। और तो और कई बार वह तिपाई पर ही सो जाती। मैं संकोचवश कुछ बोल नहीं पाता था। इस दौरान या तो मुझसे बात करती या अख़बार, पत्रिका या कोई पुस्तक पढ़ती रहती। वह कई चर्चित किताबों और उपन्यासों एवं उनके किरदारों के बारे में बात करती थी। कभी-कभार तो नामचीन विदेशी लेखकों की बात करके मुझे भी चौंका देती। विश्व-साहित्य में इतना अपडेटेड होने की उसकी क़ाबिलियत का मैं कायल हो गया। उसके चरित्र और रुचि में भारी विरोधाभास पर अकसर हैरान होता।

एक दिन दूसरे पड़ोसी रामू मास्टर मेरे घर आ गए। वह भी उसके बारे में भाजीवाले मास्टर की ही तरह विचार रखते थे।

बात-बात में उन्होंने कहा –पटा लिया आपने भी तितली... मैं चौंककर उनकी ओर देखा।

–आजकल, उन्होंने कहा, वह आपके घर खूब आती है। बहती गंगा में आप भी हाथ धो रहे हैं... अच्छा है! माल अच्छा है! मोहल्ले और आसपास के छोकरे ही नहीं पुलिस वाले तर रहे हैं, आप भी तर जाइए! इतना अच्छा मौक़ा मिलने पर चूकना मूर्खता है!

रामू मास्टर की बात मुझे बहुत बुरी लगी और मैंने उन्हें डांटकर चुप करा दिया। पर उनकी बात से मेरी नींद हराम हो गई। पहली बार मैंने अपने को बेचैन पाया। मेरा ध्यान बार-बार उसकी ओर जा रहा था। देर रात तक मैं न मालूम क्या-क्या सोचता रहा।

मैंने महसूस किया कि रामू मास्टर की बात से मेरे अंदर आग लग गई है। जिसमें मेरा विवेक धू-धू करके जल रहा है। मन में विकृत विचार जन्म लेने लगे। उसी समय मुझे लग गया था कि कुछ न कुछ अनर्थ होने वाला है क्योंकि धीरे-धीरे मेरा अपने मन पर से नियंत्रण ढीला हो रहा था। मेरे अंदर दो व्यक्ति पैदा हो गए। एक उसकी ओर आकर्षित होता, दूसरा मना करता। मेरे अंदर अंतरद्वंद्व का सिलसिला शुरू हो गया।

उसे लेकर हमेशा ही उलझा रहता। एक दिन अचानक मन में ख़याल कौंधा, क्या वह मुझसे पटेगी? अगले पल सिर झटक दिया कि मैं क्या वाहियात सोच रहा हूं? अंतरद्वंद्व चलता रहा। मेरे अंदर का एक व्यक्ति कहता, मैं भी कोशिश करूं, अगले क्षण अंदर का दूसरा व्यक्ति कहता, नहीं कभी नहीं। यह ग़लत है।

मेरे चरित्र और कामदेव के बीच लंबे समय तक संघर्ष चलता रहा। फिर मैंने महसूस किया कि कामदेव चरित्र पर भारी पड़ रहे हैं। कुछ बातें न चाहते हुए भी मैं कर रहा था। मसलन, जब भी वह घर आती मैं अपने दरवाज़े पर खड़ा रहता। आते-जाते उसका कोई ना कोई अंग मुझसे ज़रूर छू या टकरा जाता। इससे मुझे सुख मिलता। मैंने महसूस किया कि मैं उसके उरोजों और कूल्हों को भी छूने की भरसक कोशिश करता हूं। मुझे अपने ऊपर दया आने लगी, कि मैं स्पर्श-मनोरोगी होता जा रहा हूं। छू जाने पर उसका विशेष ढंग से हंसना और पलक झपकाना, मेरी धड़कन बढ़ा देता। इन सब हरकतों से मुझे लगता, वह लिफ़्ट दे रही है। वह जब भी मेरे घर आती तो मुझे बहुत अच्छा लगता।

मुझे लगा वह मेरे मनोभाव अच्छी तरह समझती है। इसके बावजूद मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि कुछ कहता। मैं हरदम यही सोचता, काश वह ही पहल करती! लेकिन वह आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रही थी। मेरी व्याकुलता दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी।

मेरी इस हालत के लिए रामू मास्टर ज़िम्मेदार थे। आज सुबह वह मेरे पास बैठे थे। इधर-उधर की बातें हो रही थीं। मुझे पता था जल्द ही वह उसका ही जिक्र करेंगे।

–आख़िरकार तितली आप पर ही मरने लगी। उन्होंने मुस्कराकर धीरे से कहा।

ना मालूम क्यूं इस बार मुझे उनकी बात बुरी नहीं लगी। मैंने मुस्कराकर प्रशंसा-पत्र ग्रहण कर लिया। हालांकि मुझे मेरी ही मुस्कराहट अच्छी नहीं लगी। फिर भी एक कुटिल मुस्कान मेरे चेहरे से चिपक गई। मुझे ख़ुद से घृणा हुई।

–हमें भी दिलवाओ यार! बातचीत में रामू मास्टर और आगे बढ़ गए।

–क्या...? मैं उनका मतलब समझ गया।

–जिसका मज़ा आप लूट रहे हैं। वह बेशर्मी पर उतर आए।

–मास्टर आप ग़लत समझ रहे हैं। अबकी बार मुझे सफ़ाई देनी पड़ी।

–अब हमीं से झूठ मत बोलो यार।

उसी समय वह घर में आ गई। और सोफे पर बैठकर अख़बार देखने लगी। रामू मास्टर के चेहरे पर अर्थ भरी मुस्कान थी। थोड़ी देर बाद वह चले गए। मैं भी एक किताब निकाल कर पन्ने पलटने लगा।

कमरे में नीरवता पसरी थी। मैं सोच रहा था, हमारे बीच अब तो कुछ होना ही चाहिए।

–यह आदमी आपके यहां बहुत ज़्यादा आता है क्या...? अचानक वह बिना किसी भूमिका के बोली।

–कौन...? रामू मास्टर...?

–हां...!

–हां, आ जाते हैं कभी-कभार। नेक इंसान हैं। मैंने अपनी तरफ़ से सफ़ाई दी –मैं नहीं जाता इन लोगों के पास। ये ही आ जाते हैं।

वह बग़ौर मुझे ही देख रही थी। देखे जा रही थी। शायद मेरी रामू मास्टर से मेलजोल के बारे में सोच रही थी।

–आपको पता है... उसका स्वर तेज़ था।

–क्या...?

–यही कि हमारे बारे में ये लोग क्या चर्चा करते हैं।

–तुम्हीं बताओ न...! क्या चर्चा करते हैं...? मैं जानने को उत्सुक हो गया।

–फिलहाल तो यह चर्चा है कि... वह रुक गई। थोड़ा विराम लेकर बोली... कि मैं आपसे भी फंस गई हूं। वह उसी तरह बग़ौर देख भी रही थी। मुझे पढ़ने की कोशिश कर रही थी शायद... बाद में हलके से मुस्करा दी थी।

उसकी बात सुनकर रोमांच से मेरे रोंगटे खड़े हो गए। शरीर में सनसनी हुई। दिल की धड़कनें असामान्य। पक्का यक़ीन हो गया कि वह मुझे खुला लिफ़्ट दे रही है। अचानक, पता नहीं कैसे, मेरा हाथ उसकी ओर बढ़ गया और उसके हाथ को नरमी के साथ पकड़ लिया। उसने भी विरोध नहीं किया उस समय। मुझे यही लगा, शायद मेरी सांसे गरम हो रही हैं।

–क्या सचमुच ऐसी अफवाह है...? मैंने उसका हाथ धीरे से दबा दिया। हालांकि अंदर ही अंदर डर रहा था और कांप भी रहा था।

वह हंस दी। पर इस बार उसकी हंसी फीकी-सी थी। पहली बार मुझे उसकी हंसी में व्यंग्य की गंध आई।

–तुम हंसी क्यों...? अबकी बार मैंने उसका हाथ सहलाते हुए पूछा।

–यही कि आपको लेकर भी मैं गच्चा खा गई। उसकी आवाज़ बहुत कठोर थी, बेहद निर्मम।

–मतलब...? मुझे उसकी हरकत से धक्का-सा लगा।

जवाब देने की जगह उसने अपना हाथ तेज़ी से खींच लिया।

–मतलब कि आप भी ठहरे एक साधारण पुरुष, जिसे औरत चाहिए! है ना! आपके अंदर भी वासना की आग में जलता मर्द देख रही हूं जो मुझे पाने की जुगत में है। सोचा था, मोहल्ले में तमाम हवसियों के बीच कोई ऐसा भी है जिसे अपना मान सकती हूं, दोस्त कह सकती हूं। उसके पास सुरक्षित महसूस कर सकती हूं। लेकिन साफ़ दिख रहा है कि आपकी भी नज़र मेरे जिस्म, मेरी जवानी, मेरे उरोजों पर है। आज यक़ीन हो गया कि दुनिया के सारे मर्द एक जैसे होते हैं। औरत के भूखे, विवेकहीन, असामाजिक। सामाजिक प्राणी की जगह केवल प्राणी। पशु। जिसकी केवल दो ही ज़रूरतें होती हैं, संभोग और भोजन। इसीलिए इनकी निग़ाह स्त्री के तन पर होती है। स्त्री की लाचारी का बेज़ा फायदा उठाना चाहते हैं। मौक़े की तलाश में रहते हैं। दोस्ती और हमदर्दी को ढोंग रचते हैं। जबकि होते हैं सब के सब बलात्कारी। भाजीवाले मास्टर ने भी मुझे पाने की कोशिश की। छी...! सफल न हुआ तो मैं चरित्रहीन हो गई। बदनाम कर दिया साले ने। उस कृतघ्न के कारण ही आज मेरी यह हालत है। हे भगवान मैं क्या करूं? वह फूट-फूटकर रोने लगी। मुझे तो काटो तो ख़ून नहीं। जैसे किसी ने आसमान से खींचकर ज़मीन पर ला पटक दिया हो।

वह तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गई।

मैं एकदम जड़वत्। कोई जवाब ही नहीं सूझा। किंकर्तव्यविमूढ़। चेतनाशून्य।

हादसा कहूं या और कुछ और... उसे गुज़रे कई घंटे बीत चुके हैं मगर मैं उसी तरह स्तंभित हूं...

–ऐसा क्यों किया उसने। मैं तब से लगातार सोच ही रहा था –क्या मैं उसे बहुत बुरा आदमी लगा। या मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर ग़लती की। उसका रिऐक्शन इस तरह नहीं होना चाहिए था।

मैं लगातार सोचे जा रहा था। कभी अपने ऊपर ग़ुस्सा आता तो कभी उस पर।

–जब मुझसे इतना ही परहेज़ था, मैं इतना ही बुरा था तो क्यों आती थी मेरे पास... क्यों बैठती थी दिन-दिन भर... मैं फिर से बड़बड़ाने लगा –जो भी हो, वह मेरे बारे में ग़लत धारणा बना कर गई है।

शाम हो गई। हादसे को पूरे सात घंटे।

–ग़लती तो मेरी ही थी। मेरे अंतःकरण से आवाज़ आई। हां, किस हक़ से मैंने उसका हाथ पकड़ा। आख़िर मेरी भी मंशा तो ग़लत ही थी। मुझे उसके घर जाकर माफ़ी मांगनी चाहिए।

मैं सोचता रहा। उसके घर जाऊं या नहीं। फिर महसूस किया कि मेरे पांव ख़ुद उसके घर की ओर बढ़ रहे हैं। मैं बुदबुदाया –मुझे उसके सामने ग़लती मान लेनी चाहिए और सॉरी बोलना चाहिए।

मैंने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी।

क़रीब पांच मिनट तक खड़ा रहा। मुझे लगा कि दरवाज़ा नहीं खोलेगी। लौट रहा था कि दरवाज़ा खुल गया।

उसका चेहरा बुझा था। मुझे देख रही थी। मैं उसके बग़ल से घर में दाख़िल हो गया। उसने दरवाज़ा बंद किया और मेरे पास आ गई।

अचानक फिर लरज पड़ी, –प्लीज़... मुझे पाने की कोशिश न करो...! दहेजलोभी पति ने तलाक़ दे दिया। अब मेरे पास कोई और ठौर नहीं। सो मुझे अपनी ही नज़र में मत गिराओ। दुनिया की नज़र में पहले ही गिर चुकी हूं। अब अपनी ही नज़र में नहीं गिरना चाहती। जब लोग मेरे बारे में ऊलजलूल बकते हैं तो मेरी आत्मा, मेरा चरित्र मुझे दिलासा देते हैं कि लोग झूठ बोल रहे हैं। यही मेरा आत्मबल है जो मुझे तमाम अपमान और जिल्लत झेलने की ताक़त देता है। इसीलिए दुनिया की परवाह नहीं करती। किसी को सफ़ाई नहीं देती। मुझे लोगों से चरित्र प्रमाण-पत्र नहीं चाहिए। जिनका चरित्र ख़ुद संदिग्ध है, वे क्या दूसरों को चरित्र प्रमाण-पत्र देंगे। चूंकि लोग ग़लत हैं सो मैंने कभी किसी की परवाह नहीं की। आपके घर में मुझे ज़्यादा सुरक्षा का अहसास होता रहा है। तभी तो पढ़ते-पढ़ते बिंदास सो भी जाती थी। आपसे एक अटूट रिश्ता सा बन गया था। हमारी रुचि भी मेल खाती थी। आपका स्वभाव मुझे आकर्षित करता था। भावनात्मक संबल मिलता था आपसे। ओह... कितना पाक था हमारा रिश्ता। स्त्री-पुरुष संबंधों से बहुत ऊपर। मुझे लगा था इस बस्ती में एक इंसान भी है जिसकी आत्मा निष्पाप है, अकलुष है। पर मैं यहां भी छली गई। आपसे दोस्ती का भ्रम पाल बैठी। पता नहीं इस शरीर में ऐसा क्या है कि हर पुरुष ललचाई नज़र से देखता है। हर जगह वासना की भूखी निग़ाहे घूरती हैं। सोचती हूं, इस चेहरे, इस यौवन को नष्ट कर दूं लेकिन मुझसे यह भी नहीं हो पाता। लड़की हालात से कितनी लाचार होती है, आप नहीं समझ सकते। मेरी पीड़ा, मेरी व्यथा भी आपके गले नहीं उतरेगी क्योंकि आप एक पुरुष हैं। आप क्या कोई भी पुरुष किसी नारी का दर्द नहीं समझ सकता। आज लग रहा है, दुनिया में अकेली हूं। विलकुल तन्हा। पता नहीं अब हवसियों से लड़ पाऊंगी भी या नहीं। कितनी बदनसीब हूं मैं। हे प्रभु। मेरी रक्षा करना। अब मैं कहां जाऊं। कहां मिलेगा सहारा और संरक्षण।

मुझसे रहा नहीं गया और उसकी ओर बढ़ गया।

सॉरी.. मुझसे ब्लंडर हो गया। तुम्हें समझ ही न पाया। प्लीज़ माफ़ कर दो। मैं तो तुम्हारा दोस्त बनने के भी क़ाबिल नहीं। माफ़ कर दो ना प्लीज... प्लीज़...

कहना चाहा कि आओ जीवन का आगे का सफ़र साथ मिलकर तय करें, अगर तुम्हें मंजूर हो तो तुम्हें सहारा और संरक्षण देने में मुझे गर्व महसूस होगा लेकिन ये वाक्य ज़बान से निकले ही नहीं।

वह चुप हो गई थी। मैं उसे सामान्य होने का मौक़ा देना चाहता था। सो वापस हो लिया। इस बार मैंने ख़ुद को हलका महसूस किया।

॰॰॰॰॰

बुधवार, 14 जुलाई 2010

ग़ज़ल - आ गए क्यों उम्मीदें लेकर

आ गए क्यों उम्मीदें लेकर
करूं तुम्हें विदा क्या देकर...

लाख मना की पर ना माने
क्यों रह गए तुम मेरे होकर...

अपना लेते किसी को तुम भी
आखि‍र क्यों रहे खाते ठोंकर...

जी ना सके इस जीवन को
क्या पाए खुद को जलाकर...

अब तो मेरी तमाम उम्र में
रहोगे चुभते कांटे बनकर...

हरिगोविंद विश्वकर्मा

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

कविता : चित्रकार की बेटी

तुम बहुत अच्छे इंसान हो
धीर-गंभीर और संवेदनशील
दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने वाले
बहुत कुछ मेरे पापा की तरह
तुम्हारे पास है बहुत आकर्षक नौकरी
कोई भी युवती सौभाग्य समझेगी अपना
तुम्हारी जीवन-संगिनी बनने में
मैं भी अपवाद नही हूं
तभी तो
अच्छा लगता है मुझे सान्निध्य तुम्हारा
इसे प्यार कह सकते हो तुम
हां तुममें जो पुरूष है
उससे प्यार करने लगी हूं मैं
स्वीकार नहीं कर पा रही हूं
फिर भी परिणय प्रस्ताव तुम्हारा
तुम एक चित्रकार हो
और मैं चित्रकार की बेटी
तुम्हारे अंदर देखती हूं मैं
अपने चित्रकार पापा को
एक ऐसा इंसान
जो पूरी ज़िंदगी रहा
दीन-हीन और पराजित
अपराधबोध से ग्रस्त
अपनी बेटी-पत्नी से डरता हुआ
पैसे-पैसे के लिए संघर्ष करता हुआ
हारता हुआ ज़िंदगी के हर मोर्चे पर
तमाम उम्र जो ओढ़े रहा
स्वाभिमान की एक झीनी चादर
उसके स्वाभिमान ने
उसके सिद्धांत ने
बनाए रखा उसे तमाम उम्र कंगाल
और छीन लिया मुझसे
मेरा अमूल्य बचपन
मेरी मां का यौवन
मेरी मां सहेजती रही
उस चित्रकार को
पत्नी की तरह ही नहीं
एक मां की तरह भी
एक संरक्षक की तरह भी
उसे खींचती रही
मौत के मुंह से
सावित्री की तरह
फिर भी वह चला गया
ख़ून थूकता हुआ
मां को विधवा और मुझे अनाथ करके
बेशक वह था एक महान चित्रकार
एक बेहद प्यार करने वाला पति
एक ख़ूब लाड़-दुलार करने वाला पिता
लेकिन वह चित्रकार था
एक असामाजिक प्राणी भी
समाज से पूरी तरह कटा हुआ
आदर्शों और कल्पनाओं की दुनिया में
जीने वाला चित्रकार
कभी न समझौते न करने वाला ज़िद्दी कलाकार
लेकिन जब वह बिस्तर पर पड़ा
भरभरा कर गिर पड़ीं सभी मान्यताएं
बिखर गए तमाम मूल्य
अंतत दया का पात्र बनकर
गया वह इस दुनिया से
उसके भयावह अंत ने
ख़ून से सनी मौत ने
हिलाकर रख दिया बहुत अंदर से मुझे
नफ़रत सी हो गई मुझे
दुनिया के सभी चित्रकारों से
मेरे अंदर आज भी
जल रही एक आग
जब मैं देखती हूं अपनी मां को
ताकती हूं उसकी आंखों में
तब और तेज़ी से उठती हैं
आग की लपटें
पूरी ताक़त लगाती हूं मैं
ख़ुद को क़ाबू में रखने के लिए
ख़ुद को सहज बनाने में
इसीलिए
तुमसे प्यार करने के बावजूद
तुम्हारे साथ
परिणय-सूत्र में नहीं बंध सकती मैं
जो जीवन जिया है मेरी मां ने
एक महान चित्रकार की पत्नी ने
मैं नहीं करना चाहती उसकी पुनरावृत्ति
तुम्हारी जीवनसंगिनी बनकर
नहीं दे पाऊंगी तुम्हें
एक पत्नी सा प्यार
इसलिए मुझे माफ़ करना
हे अद्वितीय चित्रकार

हरिगोविंद विश्वकर्मा

सोमवार, 12 जुलाई 2010

ग़ज़ल - जिंदगी भर

जोड़-घटाने में उलझे रहे जिंदगी भर
सौदा घाटे का करते रहे जिंदगी भर

एक गुनाह की बड़ी कीमत चुकाई
खुद से ही डरते रहे जिंदगी भर

दुनिया के सामने आखिर आ ही गया
जिस राज को छिपाते रहे जिंदगी भर

कामयाबियों के नाम पर शिफर ही रहे
न मालूम क्या करते रहे जिंदगी भर

दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका
जिस शख्स से चिपके रहे जिंदगी भर

कलियुग का मतलब जान नहीं पाए
सतयुग का भ्रम पाले रहे जिंदगी भर

झूठ बोलने का साहस कभी न हुआ
सच से भी कतराते रहे जिंदगी भर

खुद रोने लगते थे कहीं देखकर आंसू
बस आंसू ही बहाते रहे जिंदगी भर

दिल को हमेशा दिमाग से ऊपर रखा
भावनाओं में बहते रहे जिंदगी भर

आखिर देखने भी नहीं आया वह शख्स
जिसका इंतजार करते रहे जिंदगी भर

हरिगोविंद विश्वकर्मा

संभल जाऊंगा

ऐसा ना सोचो कि मैं बिखर जाऊंगा
बस संभलते संभलते संभल जाऊंगा

मौसम क्या वह तो बदलता रहता है
फूल की तरह मैं कभी गिर जाऊंगा

वक़्त भर देता है हर तरह के ज़ख्म
मैं भी इस दौर से निकल जाऊंगा

कब पूरी हुई है आरजू हर किसी की
यही सोचकर अपना मन बहलाऊंगा

नसीबवाले रहे जिन्हें मोहब्बत मिली
उनका नाम ना लो बिफर जाऊंगा

हरिगोविंद विश्वकर्मा

शनिवार, 10 जुलाई 2010

जीवन का डिब्बा

डिब्बे में से निकालकर
कर देता हूं खर्च मैं
रोजाना एक दिन
मुझे नहीं है पता
बचे हैं कितने दिन
जीवन के डिब्बे में
लेकिन मुझे मालूम है
इसी तरह
एक-एक करके
खर्च कर डालूंगा मैं
अपने तमाम दिन
एक दिन
आएगा ऐसा भी
जब डिब्बा
हो जाएगा खाली
और उसमें से
निकालना पड़ेगा
खाली हाथ मुझे
बिना दिन के
मुझे खाली हाथ देखकर
पार्थिव कहेंगे लोग मुझे
फिर देंगे जला
या कर देंगे दफन
कोई मुझे
एक दिन तो दूर
अपना एक पल भी
नहीं देगा
दान में या उधार
मेरी पत्नी भी
मेरे बच्चे भी
मेरा परिवार भी
मेरे दोस्त भी…

हरिगोविंद विश्वकर्मा

मेरी उम्मीदें

बेक़ाबू अकसर हो जाती हैं मेरी उम्मीदें
मेरी बात नहीं मानती हैं मेरी उम्मीदें

हर रोज़ सुला देता हूं अपने ही हाथों
पर सुबह जाग जाती हैं मेरी उम्मीदें

जानती हैं तुम हो दरिया के उस किनारे
फिर भी ज़ोर मारती हैं मेरी उम्मीदें

पस्त नहीं होती तेरी उदासीनता से
मुझे मज़बूर करती हैं मेरी उम्मीदें

इन्हें शायद दर्द का अंदाज नहीं होता
तभी तो दर्द बढ़ाती हैं मेरी उम्मीदें

मन को दिखाती हैं ढेर सारे सपने
फिर मुझको रुलाती हैं मेरी उम्मीदें

पैदा हो गईं ये पता नहीं कैसे ये
मुझे लाचार करती हैं मेरी उम्मीदें

ज़हर देना ही पड़ेगा इन्हें एक दिन
मेरे दर्द की सबब हैं मेरी उम्मीदें

माफ करना हे मेरे सपनों की परी
सब मुझसे लिखवाती हैं मेरी उम्मीदें

हरिगोविंद विश्वकर्मा

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

गांधीजी की सेक्स लाइफ

गांधीजी की सेक्स लाइफ
Monday, 26 April 2010 16:50

यह लेख मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार जैड ऐडम्स की नई किताब “गांधीः नेकेड ऐंबिशन” की समीक्षा भर है॥
हरिगोविंद विश्वकर्मा

क्या राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी असामान्य सेक्स बीहैवियर वाले अर्द्ध-दमित सेक्स मैनियॉक थे? जी हां, महात्मा गांधी के सेक्स-जीवन को केंद्र बनाकर लिखी गई किताब “गांधीः नेकेड ऐंबिशन” में एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री के हवाले से ऐसा ही कहा गया है। महात्मा गांधी पर लिखी किताब आते ही विवाद के केंद्र में आ गई है जिसके चलते अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उसकी मांग बढ़ गई है। मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार जैड ऐडम्स ने पंद्रह साल के अध्ययन और शोध के बाद “गांधीः नेकेड ऐंबिशन” को किताब का रूप दिया है।
किताब में वैसे तो नया कुछ नहीं है। राष्ट्रपिता के जीवन में आने वाली महिलाओं और लड़कियों के साथ गांधी के आत्मीय और मधुर रिश्तों पर ख़ास प्रकाश डाला गया है। रिश्ते को सनसनीख़ेज़ बनाने की कोशिश की गई है। मसलन, जैड ऐडम्स ने लिखा है कि गांधी नग्न होकर लड़कियों और महिलाओं के साथ सोते ही नहीं थे बल्कि उनके साथ बाथरूम में “नग्न स्नान” भी करते थे।
महात्मा गांधी हत्या के साठ साल गुज़र जाने के बाद भी हमारे मानस-पटल पर किसी संत की तरह उभरते हैं। अब तक बापू की छवि गोल फ्रेम का चश्मा पहने लंगोटधारी बुजुर्ग की रही है जो दो युवा-स्त्रियों को लाठी के रूप में सहारे के लिए इस्तेमाल करता हुआ चलता-फिरता है। आख़िरी क्षण तक गांधी ऐसे ही राजसी माहौल में रहे। मगर किसी ने उन पर उंगली नहीं उठाई। ऐसे में इस किताब में लिखी बाते लोगों ख़ासकर, गांधीभक्तों को शायद ही हजम हों। दुनिया के लिए गांधी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के आध्यात्मिक नेता हैं। वह अहिंसा के प्रणेता और भारत के राष्ट्रपिता भी हैं। जो दुनिया को सविनय अवज्ञा और अहिंसा की राह पर चलने की प्रेरणा देता है। कहना न होगा कि दुबली काया वाले उस पुतले ने दुनिया के कोने-कोने में मानव अधिकार आंदोलनों को ऊर्जा दी, उन्हें प्रेरित किया।
नई किताब यह खुलासा करती है कि गांधी उन युवा महिलाओं के साथ ख़ुद को संतप्त किया जो उनकी पूजा करती थीं और अकसर उनके साथ बिस्तर शेयर करती थीं। बहरहाल, ऐडम्स का दावा है कि लंदन से क़ानून की पढ़ाई करने के बाद वकील से गुरु बने गांधी की इमैज कठोर नेता की बनी जो अपने अनोखी सेक्सुअल डिमांड से अनुयायियों को वशीभूत कर लेता है। आमतौर पर लोग के लिए यह आचरण असहज हो सकता है पर गांधी के लिए सामान्य था। ऐडम्स ने किताब में लिखा है कि गांधी ने अपने आश्रमों में इतना कठोर अनुशासन बनाया था कि उनकी छवि 20वीं सदी के धर्मवादी नेताओं जैम्स वॉरेन जोन्स और डेविड कोरेश की तरह बन गई जो अपनी सम्मोहक सेक्स अपील से अनुयायियों को क़रीब-क़रीब ज्यों का त्यों वश में कर लेते थे। ब्रिटिश हिस्टोरियन के मुताबिक महात्मा गांधी सेक्स के बारे लिखना या बातें करना बेहद पसंद करते थे। किताब के मुताबिक हालांकि अन्य उच्चाकाक्षी पुरुषों की तरह गांधी कामुक भी थे और सेक्स से जुड़े तत्थों के बारे में आमतौर पर खुल कर लिखते थे। अपनी इच्छा को दमित करने के लिए ही उन्होंने कठोर परिश्रम का अनोखा स्वाभाव अपनाया जो कई लोगों को स्वीकार नहीं हो सकता।
किताब की शुरुआत ही गांधी की उस स्वीकारोक्ति से हुई है जिसमें गांधी ख़ुद लिखा या कहा करते थे कि उनके अंदर सेक्स-ऑब्सेशन का बीजारोपण किशोरावस्था में हुआ और वह बहुत कामुक हो गए थे। 13 साल की उम्र में 12 साल की कस्तूरबा से विवाह होने के बाद गांधी अकसर बेडरूम में होते थे। यहां तक कि उनके पिता कर्मचंद उर्फ कबा गांधी जब मृत्यु-शैया पर पड़े मौत से जूझ रहे थे उस समय किशोर मोहनदास पत्नी कस्तूरबा के साथ अपने बेडरूम में सेक्स का आनंद ले रहे थे।
किताब में कहा गया है कि विभाजन के दौरान नेहरू गांधी को अप्राकृतिक और असामान्य आदत वाला इंसान मानने लगे थे। सीनियर लीडर जेबी कृपलानी और वल्लभभाई पटेल ने गांधी के कामुक व्यवहार के चलते ही उनसे दूरी बना ली। यहां तक कि उनके परिवार के सदस्य और अन्य राजनीतिक साथी भी इससे ख़फ़ा थे। कई लोगों ने गांधी के प्रयोगों के चलते आश्रम छोड़ दिया। ऐडम ने गांधी और उनके क़रीबी लोगों के कथनों का हवाला देकर बापू को अत्यधिक कामुक साबित करने का पूरा प्रयास किया है। किताब में पंचगनी में ब्रह्मचर्य का प्रयोग का भी वर्णन किया है, जहां गांधी की सहयोगी सुशीला नायर गांधी के साथ निर्वस्त्र होकर सोती थीं और उनके साथ निर्वस्त्र होकर नहाती भी थीं। किताब में गांधी के ही वक्तव्य को उद्धरित किया गया है। मसलन इस बारे में गांधी ने ख़ुद लिखा है, “नहाते समय जब सुशीला निर्वस्त्र मेरे सामने होती है तो मेरी आंखें कसकर बंद हो जाती हैं। मुझे कुछ भी नज़र नहीं आता। मुझे बस केवल साबुन लगाने की आहट सुनाई देती है। मुझे कतई पता नहीं चलता कि कब वह पूरी तरह से नग्न हो गई है और कब वह सिर्फ अंतःवस्त्र पहनी होती है।”
किताब के ही मुताबिक जब बंगाल में दंगे हो रहे थे गांधी ने 18 साल की मनु को बुलाया और कहा “अगर तुम साथ नहीं होती तो मुस्लिम चरमपंथी हमारा क़त्ल कर देते। आओ आज से हम दोनों निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के साथ सोएं और अपने शुद्ध होने और ब्रह्मचर्य का परीक्षण करें।” ऐडम का दावा है कि गांधी के साथ सोने वाली सुशीला, मनु और आभा ने गांधी के साथ शारीरिक संबंधों के बारे हमेशा अस्पष्ट बात कही। जब भी पूछा गया तब केवल यही कहा कि वह ब्रह्मचर्य के प्रयोग के सिद्धांतों का अभिन्न अंग है।
ऐडम्स के मुताबिक गांधी अपने लिए महात्मा संबोधन पसंद नहीं करते थे और वह अपने आध्यात्मिक कार्य में मशगूल रहे। गांधी की मृत्यु के बाद लंबे समय तक सेक्स को लेकर उनके प्रयोगों पर लीपापोती की जाती रही। हत्या के बाद गांधी को महिमामंडित करने और राष्ट्रपिता बनाने के लिए उन दस्तावेजों, तथ्यों और सबूतों को नष्ट कर दिया, जिनसे साबित किया जा सकता था कि संत गांधी दरअसल सेक्स मैनियैक थे। कांग्रेस भी स्वार्थों के लिए अब तक गांधी और उनके सेक्स-एक्सपेरिमेंट से जुड़े सच को छुपाती रही है। गांधीजी की हत्या के बाद मनु को मुंह बंद रखने की सलाह दी गई। सुशीला भी इस मसले पर हमेशा चुप ही रहीं।
किताब में ऐडम्स दावा करते हैं कि सेक्स के जरिए गांधी अपने को आध्यात्मिक रूप से शुद्ध और परिष्कृत करने की कोशिशों में लगे रहे। नवविवाहित जोड़ों को अलग-अलग सोकर ब्रह्मचर्य का उपदेश देते थे। ऐडम्स के अनुसार सुशीला नायर, मनु और आभा के अलावा बड़ी तादाद में महिलाएं गांधी के क़रीब आईं। कुछ उनकी बेहद ख़ास बन गईं। बंगाली परिवार की विद्वान और ख़ूबसूरत महिला सरलादेवी चौधरी से गांधी का संबंध जगज़ाहिर है। हालांकि गांधी केवल यही कहते रहे कि सरलादेवी उनकी “आध्यात्मिक पत्नी” हैं। गांधी जी डेनमार्क मिशनरी की महिला इस्टर फाइरिंग को प्रेमपत्र लिखते थे। इस्टर जब आश्रम में आती तो बाकी लोगों को जलन होती क्योंकि गांधी उनसे एकांत में बातचीत करते थे। किताब में ब्रिटिश एडमिरल की बेटी मैडलीन स्लैड से गांधी के मधुर रिश्ते का जिक्र किया गया है जो हिंदुस्तान में आकर रहने लगीं और गांधी ने उन्हें मीराबेन का नाम दिया।
ऐडम्स ने कहा है कि नब्बे के दशक में उसे अपनी किताब “द डाइनैस्टी” लिखते समय गांधी और नेहरू के रिश्ते के बारे में काफी कुछ जानने को मिला। इसके बाद लेखक की तमन्ना थी कि वह गांधी के जीवन को अन्य लोगों के नजरिए से किताब के जरिए उकेरे। यह किताब उसी कोशिश का नतीजा है। जैड दावा करते हैं कि उन्होंने ख़ुद गांधी और उन्हें बेहद क़रीब से जानने वालों की महात्मा के बारे में लिखे गए किताबों और अन्य दस्तावेजों का गहन अध्ययन और शोध किया है। उनके विचारों का जानने के लिए कई साल तक शोध किया। उसके बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे।
इस बारे में ऐडम्स ने स्वीकार किया है कि यह किताब विवाद से घिरेगी। उन्होंने कहा, “मैं जानता हूं इस एक किताब को पढ़कर भारत के लोग मुझसे नाराज़ हो सकते हैं लेकिन जब मेरी किताब का लंदन विश्वविद्यालय में विमोचन हुआ तो तमाम भारतीय छात्रों ने मेरे प्रयास की सराहना की, मुझे बधाई दी।” 288 पेज की करीब आठ सौ रुपए मूल्य की यह किताब जल्द ही भारतीय बाज़ार में उपलब्ध होगी। “गांधीः नेकेड ऐंबिशन” का लंदन यूनिवर्सिटी में विमोचन हो चुका है। किताब में गांधी की जीवन की तक़रीबन हर अहम घटना को समाहित करने की कोशिश की गई है। जैड ऐडम्स ने गांधी के महाव्यक्तित्व को महिमामंडित करने की पूरी कोशिश की है। हालांकि उनके सेक्स-जीवन की इस तरह व्याख्या की है कि गांधीवादियों और कांग्रेसियों को इस पर सख़्त ऐतराज़ हो सकता है।