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बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

संजय दत्‍त की रिहाई पर उठे सवाल, बाबा पर तकदीर मेहरबान है या सिस्‍टम?

हरिगोविंद विश्‍वकर्मा
1993 के मुंबई बम धमाकों से जुड़े मामले में दोषी संजय दत्त आज जेल से रिहा हो गए। पुणे की येरवडा जेल में अधिकारियों ने औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उन्हें रिहा कर दिया। जेल में अच्छे व्यवहार के चलते समय से पहले 114 दिन पहले उनकी रिहाई हुई है।
संजय दत्त ने येरवडा जेल में फहरा रहे तिरंगे को सैल्यूट किया, धरती को चूमा और फिर अपना बैग कंधे में डालकर जेल के बाहर आ गए। बाहर पत्नी मान्यता दत्त उनका इंतजार कर रही थीं। यहां से संजय दत्त सीधे पुणे एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गए। संजय दत्त सबसे पहले सिद्धिविनायक मंदिर जाएंगे। इसके अलावा अपनी मां नरगिस की कब्र पर भी जाएंगे।
अगर 257 निर्दोष लोगों की जान लेने वाले 1993 के मुंबई बम धमाकों में शामिल रहे लोगों के भाग्य की बात करें तो 123 आरोपियों में अगर याकूब मेमन सबसे बदनसीब रहा तो अभिनेता और नेता पुत्र संजय दत्त सबसे ख़ुशनसीब। तभी तो दो मई 2013 से मई 2014 के बीच पैरोल और फर्लो के तहत 118 दिन जेल से बाहर रहे संजय दत्त पूरी सजा काटे बगैर ही जेल से रिहा हो गए हैं।

संजू बाबा की रिहाई की खबर से उनके पूरे परिवार के साथ साथ बॉलीवुड भी बेहद खुश है। बॉलीवुड अभिनेता मनोज बाजपेयी ने संजय की रिहाई पर खुशी जताई। मनोज ने कहा कि मैं संजू (संजय) को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और खुश हूं कि वह एक-दो दिन में आखिरकार अपने परिवार और दोस्तों के पास वापस आ रहे हैं। हम उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं और हमेशा उनकी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं।
लेकिन संजय दत्‍त की इस रिहाई पर कई तरह के सवालों का घेरा भी मंडरा रहा है। उन सवालों में सबसे महत्‍वपूर्ण सवाल खुद संजय दत्‍त की इस पूरे बम कांड में भूमिका, उसके बाद उनकी देरी से गिरफ्तारी और फिर बाद में जेल के बाद फिर जेल वह बीच-बीच में 30 दिन 60 दिन जैसे अविध में बाहर आना। जाहिर है यह सारे सवाल उनकी किस्‍मत और हमारे सिस्‍टम से आकर जुड़ते हैं ।
आइए जानने की कोशिश करते हैं कि कैस संजय दत्‍त की किस्‍मत ने इस पूरे मामले में उनका साथ दिया और कैसे सिस्‍टम उनके लिए मेहरबान बनारहा।
दरअसल, यूं तो मुंबई सीरियल बमकांड में किसी न किसी किरदार में शामिल रहे सभी आरोपी निर्दोषों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार रहे और सभी याकूब मेमन जैसी कठोर सज़ा के हक़दार थे, लेकिन याकूब मेमन सबसे ज़्यादा बदनसीब रहा, उसके साथ तकदीर थी ही नहीं। जीने की प्रबल इच्छा रखने वाला याकूब जहां मुकद्दर के साथ के लिए तरसता रहा, वहीं शेष सभी आरोपियों को भाग्य का कुछ न कुछ साथ ज़रूर मिला।
फ़ांसी की सज़ा पाए 12 लोग अच्छी किस्मत के चलते मौत के मुंह में जाने से बच गए। हालांकि पुणे की येरवड़ा जेल से घर पहुंचे संजय दत्त सबसे ज़्यादा खुशनसीब रहे। संजय बमकांड में शामिल होने के आरोप में गिरफ़्तारी बावजूद भाग्य की बदौलत जांच ऐजेंसियों का कथित “फेवर” पाने में सफल रहे और अंततः आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप से मुक्त हो गए। इसीलिए उन्हें सबसे कम सज़ा मिली। यानी मुन्ना भाई यक़ीनन मुकद्दर का सिकंदर निकला।
संजय पर तकदीर मेहरबानी की फ़ेहरिस्त बड़ी लंबी है। उन पर पहली बार मुकद्दर तब मेहरबान हुआ जब 3 अप्रैल 1993 को पुलिस इंटरोगेशन के दौरान इब्राहिम मुस्तफ़ा चौहान उर्फ बाबा चौहान ने बताया कि इस साज़िश में एक बहुत बड़ी मछली शामिल है और उसने संजय दत्त का नाम लिया।“शांतिदूत” सुनील दत्त का बेटा साज़िश में शामिल है, यह सुनकर सबके होश उड़ गए और विशेष जांच टीम के मुखिया राकेश मारिया (फ़िलहाल मुंबई के पुलिस कमिश्नर) भी हतप्रभ रह गए।
चूंकि संजय पर मुकद्दर मेहरबान था, इसलिए, बाबा चौहान की जानकारी के बावजूद मारिया को सुनील दत्त के घर पर रेड करने की इजाज़त मुंबई पुलिस आयुक्त अमरजीत सिंह सामरा ने नहीं दी। वरना एके-56 राइफल उसी समय रिकवर हो जाती। हालांकि, खुलासा हुआ कि उसकी राजनीतिक वजह थी। राज्य में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी और सुनील दत्त की पहुंच बहुत ऊपर तक थी।
बहरहाल, 19 अप्रैल 1993 की रात मॉरीशस से लौटते ही संजय एयरपोर्ट पर अरेस्ट हो गए। लेकिन भाग्य उनके साथ था, इसलिए पुलिस ने उनसे आरोपी नहीं, बल्कि नेता-पुत्र तरह पूछताछ की। संजय ने तत्कालीन क्राइम ब्रांच हेड महेश नारायण सिंह और राकेश मारिया के सामने कबूल कर लिया कि मास्टरमाइंड दाऊद इब्राहिम का भाई अनीस उनका दोस्त है। दोनों की अक्‍सर फोन पर बातचीत होती है। अनीस ने 16 जनवरी 1993 को 3 एके-56 राइफ़ल्स, 9 मैगज़िन्स, 450 राउंड्स और 20 हैंडग्रेनेड्स का कन्साइनमेंट अबू सालेम (जो केवल राइफल मामले के चलते बमकांड का आरोपी बनाया गया है) फ़िल्मकार समीर हिंगोरा और बाबा चौहान के साथ भेजी। तीन दिन बाद यानी 18 जनवरी की शाम सालेम हनीफ़ कड़ावाला और मंज़ूर अहमद के साथ संजय के यहां फिर आया और 2 राइफ़ल, कुछ हैंडग्रेनेड और गोलियां लेकर गया। यानी संजय ने अनीस से ग़ैरक़ानूनी तौर पर घातक राइफ़ल ली।

बमकांड में दायर आरोप पत्र के मुताबिक, दाऊद ने 300 सौ चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 राइफ़ल्स और कई सौ ग्रेनेड्स, मैगज़िन्स, गोलियां और कई क्विंटल विस्फोटक आरडीएक्स 9 जनवरी और 9 फ़रवरी 1993 के बीच कई खेप में रायगड़ के दिग्घी जेट्टी और शेखाड़ी के रास्ते मुंबई भेजी। यह काम इब्राहिम मुश्ताक़ मेमन उर्फ टाइगर मेमन और मोहम्मद डोसा ने किए। हथियारों और विस्फोटकों को बम बनाने के लिए मुंबई और भिवंडी भेजा गया और बाद में उसी से 12 मार्च को धमाके को अंजाम दिया गया। हथियारों और आरडीएक्स से भरा एक ट्रक रायगड़ के जंगल के रास्ते नासिक होता हुआ गुजरात के लिए भी रवाना किया गया। कस्टम टीम ने ट्रक ट्रैप किया भी, लेकिन 8 लाख रुपये रिश्वत लेकर उसे जाने की इजाज़त दे दी।
यकीनन, कस्टम टीम के सभी लोगों को टाडा के तहत सज़ा हुई। ट्रक का सामान गुजरात के अंकलेश्वर (भरुच) में बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में छिपाया गया। यहां टीम में सालेम शामिल हुआ। हथियार तयशुदा ठिकानों और लोगों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सालेम की थी। 9 एके-56 राइफ़ल, सौ से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर सालेम सड़क के रास्ते मुंबई आया। उसने अनीस के कहने पर कन्साइनमेंट में से एक राइफ़ल संजय को दी।
यानी संजय ने ब्लास्ट के बाद जिस राइफल को नष्ट करने के लिए यूसुफ़ नलवाला को मॉरीशस से फोन किया, वह राइफ़ल दिग्घी जेटी पर ही उतारी गई थी। ये बातें यहां इसलिए विस्तार से बताई गई है, ताकि साफ़ हो जाए कि संजय से ग़लती नहीं हुई, बल्कि वह बमकांड की साज़िश का हिस्सा थे। फिर भी जांच एजेंसियां उनके साथ उस तरह पेश नहीं आईं जिस तरह बाक़ी आरोपियों के साथ। यह भाग्य का ही कमाल था।
बहरहाल, एक दर्जन से ज़्यादा लोगों को फांसी की सज़ा सुनाने वाली टाडा कोर्ट ने भी संजय का क़बूलनामा स्वीकार कर लिया कि वाक़ई संजय असुरक्षित महसूस कर रहे थे, इसलिए विनाशकारी ग़ैरक़ानूनी हथियार मंगवाए। संजय के मुताबिक, मुंबई दंगों के समय उन्हें धमकियां मिल रही थी, इसलिए उन्होंने अनीस से एके-56 मांगी। संजय के क़बूलनामे को स्वीकार करना और मान लेना कि उन्हें वाक़ई जानमाल का ख़तरा था, संजय पर भाग्य की कृपा से ही हुआ। मुकद्दर की ऐसी मेहरबानी राइफल से जुड़े दूसरे आरोपियों को नहीं मिली।
दरअसल, गिरफ्तारी के बाद सुप्रीम कोर्ट तक हाथ-पैर मारने के बावजूद साल भर तक संजय को बेल नहीं मिली। उनके बढ़ते जेल प्रवास से पिता सुनील दत्त बहुत विचलित हो गए। हर नेता का चक्कर लगाते हुए वह धुर कांग्रेस विरोधी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की शरण में गए। मज़ेदार बात यह रही कि इस बार याकूब की फांसी का विरोध कर रहे सेक्यूलर जमात कुछ लोगों ने उसी दौरान भी मीडिया के ज़रिए शोर मचाना शुरू किया कि टाडा का दुरुपयोग हो रहा है। यह भी कहा गया है कि टाडा के चलते बड़ी तादाद में ऐसे लोग जेलों में “सड़” रहे हैं, जिनका आतंकवाद से कुछ लेना-देना नहीं है।
ऐसे लोगों के केसों पर विचार करने के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार ने आईएएस और आईपीएस की एक क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी यानी अर्ध-न्यायिक समिति का गठन किया। भाग्य ने यहां भी संजय के साथ खड़ा हो गया और क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी ने भी माना कि संजय दत्त ही सबसे ज़्यादा “टाडा पीड़ित”आरोपी हैं। लिहाज़ा कमेटी ने उनके बेल की सिफ़ारिश कर दी और संजय केवल 18 महीने में ही जेल से बाहर आ गए। जबकि उसी केस में पकड़े गए बाबा, मंज़ूर, नलवाला, हिंगोरा और कड़ावाला को ज़मानत के लिए पांच साल या उससे ज़्यादा वक़्त इंतज़ार करना पड़ा।

इतना ही नहीं जिस ज़ैबुन्निसा क़ादरी (तब उसकी उम्र 64 साल थी) के घर में 2 एके-56 और हथियार 2 दिन रखे गए। उसे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा, जबकि उसके मुताबिक़,कन्साइनमेंट का बॉक्स खोलना तो दूर उसने देखा तक नहीं था। दूसरी ओर संजय ने बॉक्स को खोला ही नहीं था, बल्कि हथियार देखने के बाद अनीस को फोन करके बताया भी कि “भाई सामान मिल गया है” और नाम सामने आने पर मित्र नलवाला को फोन पर अपने बेडरूम में रखी एके-56 राइफ़ल और बाक़ी हथियार फ़ौरन नष्ट करने का निर्देश भी दिया था।
यह संजय दत्त के भाग्य का ही कमाल था कि देश की सर्वोत्तम जांच एजेंसी सीबीआई ने भी कई ऐसे फ़ैसले लिए जिसका सीधा लाभ केवल संजय को ही मिला। मसलन, संजय-अनीस बातचीत के कॉल्स डिटेल्स आरोप-पत्र से ही अलग कर दिए। जो इस्टेब्लिश्ड करता था संजय की अनीस से दंगे और बम धमाके के बीच बहुत ज़्यादा बातचीत हुई थी। इस साक्ष्य को जुटाने के लिए मुंबई पुलिस ने एड़ी-चोटी को ज़ोर लगाया था और दुबई तक गई थी, लेकिन सीबीआई ने उसे डस्टबिन में डाल दिया। यह दस्तावेज़ साबित कर रहा था कि संजय का अनीस से घनिष्ठ संबंध है और जो राइफ़ल उनको दी गई थी, वह रायगड़ समुद्र तट के रास्ते भेजे कन्साइन्मेंट के साथ लाई गई थी। यानी संजय आतंकवादी साज़िश का सीधे साझीदार थे, क्योंकि अनीस उनके “टच” में था। इससे केस बहुत स्ट्रॉंग हो रहा था। यह भाग्य का ही कमाल था कि सीबीआई फिर संजय पर मेहरबान हुई और सालेम का ट्रायल बमकांड के मुक़दमे से ही अलग कर दिया।
दरअसल, संजय और दाऊद-अनीस के बीच सालेम अहम कड़ी था, जो पुष्ट कर रहा था कि कम से कम संजय एके-56 राइफल लाने की साज़िश में सीधे तौर पर शामिल थे। यहां भाग्य का साथ होना संजय को कड़ी सज़ा से बचा लिया,क्योंकि सीबीआई अगर सख़्त होती तो संजय को कम से कम 10 साल की सज़ा मिल सकती थी। यह भाग्य का साथ ही था कि सीबीआई ने 2002 में संजय की छोटा शकील बातचीत के सार्वजनिक होने का भी संज्ञान नहीं लिया। हालांकि इसके बाद भी उसे संजय की बेल रद करने के लिए कोर्ट अप्रोच करना चाहिए था। केस के ट्रायल के दौरान भी संजय को मुकद्दर का साथ मिलता रहा। एके-56 राइफ़ल से जुड़े सभी आरोपियों को टाडा के तहत सज़ा मिली, लेकिन संजय को केवल आर्म्स ऐक्ट के तहत 6 साल की सज़ा हुई।
यह तकदीर की खेल था कि सीबीआई ने टाडा कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ही नहीं दी। किसी ने भी सीबीआई से पूछा भी नहीं कि भाई एक ही मामले में दो तरह के फ़ैसले कैसे आए गए और अगर आ गए हैं तो कम सज़ा पाने वाले आरोपी के ख़िलाफ़ जांच एजेंसी ने अपील क्यों नहीं की? उलटे सुप्रीम कोर्ट ने संजय की सज़ा एक साल और कम कर पांच साल कर दिया। निश्चित तौर पर यह भी भाग्य का ही खेल ही कहा जाएगा। जेल जाने के बाद भी संजय मुकद्दर का सिकंदर बने रहे। उनके समर्थन में जस्टिस मार्कंडेय काटजू जैसे सर्वमान्य लोग आ गए और “मानवीय” आधार पर उन्हें माफ़ीनामा देने की पैरवी करने लगे, उनकी अपील महाराष्ट्र के राज्यपाल के पास अब भी विचाराधीन है।
संजय के चाहने वालों का मानना है कि उनसे“ग़लती” हो गई। यानी संजय ने अपराध जान-बूझकर नहीं किया। अपराध उनसे अपने आप अनजाने में हो गया। मज़ेदार बात यह है कि जब संजय ने एके-56 मंगवाई थी, तब वह 33 साल के थे यानी बालिग हुए 15 साल बीत चुके थे। वह बांद्रा के जिस पॉश पाली हिल इलाक़े में रहते हैं, वहां कभी दंगा हुआ ही नहीं। दंगे पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि झुग्गीबाहुल्य क्षेत्रों में हुए थे। लिहाज़ा, संजय का ख़तरे की दुहाई देना सरासर बेमानी थी। उस समय संजय के परिवार को कोई ख़तरा नहीं था।

दंगा, दरअसल, मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ा से शुरू हुआ और मारकाट में सबसे जानमाल का नुक़सान भी मुसलमानों को ही उठाना पड़ा। छह दिसंबर 1992 को अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश की तरह मुंबई में भी दंगा भड़का था। देश की आर्थिक राजधानी में 6 से 10 दिसंबर 1992 और 6 से 15 जनवरी 1993 के दौरान दो चरण में ख़ून की होली खेली गई, जिसमें, दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग के मुताबिक़, कुल 850 लोग (575 मुसलमान और 275 हिंदू) मारे गए। तात्पर्य यह है कि संजय ने किसी तरह का ख़तरा न होने के बावजूद केवल शेखी बघारने के लिए एके-56 राइफ़ल जैसा ख़तरनाक़ हथियार मंगवाए थे और तकदीर का धनी होने के नाते उन्हें केवल पांच साल की सज़ा हुई।
1993 बमकांड से पहले तक डॉन दाऊद केवल ख़तरनाक अपराधी था, सो बॉलीवुड के सितारे चाहे-अनचाहे उसके बुलाने पर अकसर दुबई पहुंच जाते थे। इसमें उन्हें अच्छा नज़राना भी मिलता था। सिल्वर स्क्रीन के लोगों के लिए दुबई तो मुंबई के बाद दूसरा ठिकाना था। 90 के दशक में दुबई महफ़ूज़ ऐशगाह था। तब कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री नहीं होगा, जिसने दाऊद के सामने ठुमके न लगाए हों। संजय भी दाऊद के ग्लैमर से नहीं बच सके।
मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक एक बार अनीस के संपर्क में आने के बाद दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गई। वे अक्‍सर बात करने लगे। संजय पर्सनल इशूज़ भी शेयर करने लगे। संजय समेत बॉलीवुड के लोगों को दाऊद से रिश्ता रखने के ख़तरे का अहसास मुंबई की तबाही के बाद हुआ। अगर संजय बमकांड के बाद अनीस से संपर्क ख़त्म कर लेते तो माना जा सकता कि उनसे ग़लती हुई और भूल-सुधार करना चाहते हैं। लेकिन आरोपी होते हुए भी 2002 में संजय (तब उम्र 42 साल) ने शकील से फिर बात की और गोविंदा को सबक सिखाने का आग्रह किया। जिसे मुंबई पुलिस ने रिकॉर्ड कर लिया। यानी संजय ने अपनी पिछली ग़लतियों से कुछ भी नहीं सीखा। इसके बावजूद भाग्य ने उसका साथ दिया।
वैसे 257 हत्या के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार बम प्लांटर शोएब घंसार, असगर मुक़ादम, शाहनवाज़ कुरैशी,अब्दुल गनी तुर्क, परवेज़ शेख़, मोहम्मद इक़बाल, यूसुफ़ शेख, नसीम बरमारे, मोहम्मद फ़ारूक पावले, मुश्ताक तरानी और इम्तियाज घवाटे को भी मौत की सज़ा मिली थी, लेकिन तकदीर उनके साथ थी। कहा जा सकता है कि बमकांड में शामिल सभी अभियुक्त भाग्यशाली रहे कि उन्हें ग़ुनाह के मुक़ाबले कम सज़ा मिली।

वैसे,मुकद्दर ने संजय का साथ छोड़ा ही नहीं तभी तो संजय को जेल गए दो साल भी नहीं हुए हैं, लेकिन उस पर शुरू से फर्लो और पैरोल की बारिश हो रही है। हालांकि पूर्व आईपीएस एडवोकेट वाईपी सिंह संजय दत्त को दिए गए पैरोल को सही नहीं मानते हैं। सिंह के मुताबिक पैरोल रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर कैटेगरी के क़ैदियों को मिलता है। हालांकि वह भी मानते हैं कि संजय दत्त वाक़ई भाग्यशाली हैं, जो उसे हर जगह फेवर मिल रहा है। वैसे अभी संजय को भाग्य की ज़रूरत है, क्योंकि उसकी क्षमादान याचिका राज्यपाल के पास विचारीधीन हैं। ऐसे में भविष्य में तकदीर उन पर दोबारा मेहरबान हो जाए और वह सज़ा ख़त्म करने से पहले छूट जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

जेएनयू के वाइस चांसलर को जवाबदेह मानकर क्यों न उन्हें गिरफ़्तार किया जाए?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या वाक़ई जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय भारत में ही है? अगर हां, तो भारतीय क़ानून का पालन जेएनयू कैंपस में क्यों नहीं हो रहा है? आख़िर जेएनयू के वाइस चांसलर प्रो. ममिडाला जगदीश कुमार कौन होते हैं, दिल्ली पुलिस को उस शख़्स को गिरफ़्तार करने से रोकने वाले, जिस पर देशद्रोह का संगीन आरोप है और जिसके ख़िलाफ़ पुलिस ने लुकआउट नोटिस जारी कर रखा है। क्या भारत सरकार को जेएनयू कैंपस में पुलिस के प्रवेश को सुनिश्चित करने के लिए जेएनयू से प्रत्यर्पण संधि यानी एक्स्ट्रडिशन ट्रीटी साइन करनी पड़ेगी?

क्या यह किसी मज़ाक़ से कम है कि दिल्ली पुलिस की टीम दुर्दांत आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाने वाला उमर ख़ालिद का जेएनयू के गेट पर इंतज़ार कर रही है और खालिद अपने साथियों के साथ भारतीय क़ानून पर हंस रहा है। निश्चित तौर पर इस मुद्दे पर दुनिया में भारत की खिल्ली उड़ रही है कि एक यह देश देशद्रोह के आरोपियों को राजधानी में ही नहीं पकड़ पा रही है। यह देश की इमैज के लिए बहुत ख़तरनाक है। यह बहुत ही ग़लत परंपरा की शुरुआत भी हो रही है। पुलिस की काम में बाधा डालने के लिए जेएनयू के वाइस चांसलर को फौरन बर्खास्त करके उन्हें भी गिरफ्तार किया जाना चाहिए। यही एकमात्र विकल्प है।

बताइए, अफ़ज़ल गुरु को शहीद बताने वाले और भारत मुर्दाबाद के नारे लगाने वाले प्रोग्राम का आयोजन करने वाला उमर ख़ालिद जेएनयू कैंपस में बैठा है और वाइस चांसलर पुलिस टीम को कैंपस के अंदर जाने की इजाज़त नहीं दे रहे हैं। ऐसा लग रहा है जेएनयू भारत के अंदर कोई स्वतंत्र देश हैं, जहां देशद्रोह के आरोपी को पकड़ने के लिए पुलिस को वाइस चांसलर का मुंह देखना पड़ रहा है। यह तो कायरता की पराकाष्ठा है।

यहां यह सवाल नहीं है कि कन्हैया कुमार सिंह, खालिद उमर और उनके साथी देशद्रोह के दोषी हैं या नहीं, क्योंकि उन पर देशद्रोह के आरोपों की सत्यता की जांच करना अदालत का काम है और अदालत यह काम कार्यक्रम के फोटोग्राफ और वीडियों के रूप में उपलब्ध सबूतों और दूसरे साक्ष्यों की सत्यता की जांच करने के बाद तय करेगी। यहां सवाल यह है कि कन्हैया कुमार सिंह, खालिद उमर और उनके साथियों पर देशद्रोह का मामला पहले ही दर्ज किया जा चुका है और उसके लिए इन सबको गिरफ़्तार करके उनकी कोर्ट के सामने पेश होनी चाहिए।

इस गिरफ़्तारी में अड़ंगा डालनेवाले वाइस चांसलर प्रो. एम जगदीश कुमार जेएनयू के प्रशासनिक मुखिया हैं, इसलिए कैंपस में होने वाली हर गतिविधि के लिए वह भी सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है। अगर वह अच्छे काम के लिए ज़िम्मेदार हैं तो, देशद्रोह जैसे बुरे और राष्ट्रविरोधी काम के लिए भी वही ज़िम्मेदार हैं। अगर लोग देश के हर घटना के लिए देश के प्रधानमंत्री को जवाबदेह मानते हैं और प्रदेश की घटनाओं के लिए संबंधित मुख्यमंत्री को जवाबदेह मानते हैं तो किसी विश्वविद्यालय की हर घटना के लिए उसके वाइसचांलर को जवाबदेह मानना चाहिए। इस आधार पर जेएनयू की हर घटना के लिए वहां के वाइस चांसलर को क्यों नहीं जवाबदेह माना जाना चाहिए।

जेएनयू कैंपस के अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर अगर राष्ट्रविरोधी तत्व सिर उठा रहे हैं, तो कहीं न कहीं वाइस चांसलर ही जिम्मेदार है। लिहाज़ा, नौ फरवरी की घटना के लिए अगर कन्हैया कुमार सिंह, उमर खालिद और उनके साथी जितने ज़िम्मेदार हैं, उतने ही ज़िम्मेदार जेएनयूके वाइसचांसलर हैं। लिहाज़ा, अगर इस मसले पर अगर कन्हैया कुमार सिंह, उमर खालिद और उनके साथियोंपर मामला दर्ज किया गया है तो वाइस चांसलर के ख़िलाफ़ भी मुक़दमा दर्ज किया जाना चाहिए।

एक देश जो संयुक्त राष्ट्रसंघ की सबसे शक्तिशाली बॉडी सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की दावेदारी पेश कर रहा है, वह अपने राजधानी में एक विश्वविद्यालय की हरकतों से नहीं निपट पा रहा है। सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की दावेदारी का मतलब भारत दुनिया की समस्याओं को हल करने में अपना योगदान देना चाहता है। जेएनयू की घटना देश के इस दावे को निश्चित तौर पर खोखला बनाती है।

यह तो वहीं बात हुई कि जैएनयू कैंपस के अंदर शरण लिए छात्र देश के क़ानून को ठेंगा दिखाते रहे और देश वाइस चांसलर के परमिशन का इंतज़ार करता रहे। निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके बैबिनेट के इस मामले में कठोर फैसला करना चाहिए वरना देश के लोगों में यह भावना बढ़ जाएगी कि भारत एक सॉफ़्ट नेशन हीं नहीं कमज़ोर देश भी है। अगर केंद्र सरकार मौन रहती है तो दिल्ली हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को देश के क़ानून का पालन करवाने के लिए आगे आना चाहिए।


रविवार, 21 फ़रवरी 2016

जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सिंह को हीरो बनाना कितना उचित?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सिंह की कथित तौर पर देशद्रोह की आरोप में गिरफ़्तारी के समर्थन और विरोध में देश भर में प्रदर्शन हो रहे हैं। यूनिवर्सिटी में पिछले 9 फरवरी को संसद पर हमले की साज़िश में फ़ांसी पर लटकाए गए जैश-ए-मोहम्मद के दुर्दांत आतंकवादी मोहम्मद अफजल गुरू की तीसरी बरसी मनाने और देश विरोधी नारे लगाने के मुद्दे पर पूरा देश दो खेमे में बंट गया है। क़रीब 50 साल पुराने जेएनयू को लेकर पूरा देश तो नहीं, बौद्धिक खेमा ज़रूर लेफ्ट-राइट कर रहा है। लेफ़्ट-विंग के समर्थक बीजेपी और संघ परिवार को फासिस्ट करार देते हुए लामबंद हो रहे हैं। उसी तरह राइट-विंग के पैरोकार कम्युनिस्ट और सेक्यूलर विचारधारा के लोगों को देशद्रोही करार देते हुए उनके ख़िलाफ़ बयानबाज़ी कर रहे हैं। लेफ़्ट-राइट के इस कांव-कांव में असली मुद्दा गौण हो गया।

कन्हैया कुमार सिंह का काम देशद्रोह की कैटेगरी में आता हैं या नहीं, यह फोटोग्राफ और वीडियों के रूप में उपलब्ध सबूतों और दूसरे साक्ष्यों की सत्यता की जांच करने के बाद अदालत तय करेगी न कि मीडिया या नुक्कड़ चर्चाओं में शामिल लोग। इसके बावजूद कुछ देर के लिए मान लिया जाए कि कन्हैया सिंह निर्दोष हैं। यह भी मान लिया जाए, जैसा कि उनके पैरोकारों का आरोप है कि दिल्ली पुलिस ने उन पर नरेंद्र मोदी सरकार के इशारे पर देशद्रोह का मामला दर्आज किया है। परंतु कन्हैया सिंह के लिए आंदोलन और धरना-प्रदर्शन कर रहे लोग यह बताएं कि उनका नेता 9 फरवरी की शाम उस कार्यक्रम में क्या कर रहा था, जो अफ़ज़ल गुरु की बरसी के दिन ही आयोजित की गई थी। कन्हैया सिंह कोई नादान या अपरिपक्व व्यक्ति नहीं, वह कॉमरेड हैं और जेएनयू से पीएचडी कर रहे हैं। उन्हें यह जानकारी थी कि उनका दोस्त और डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन से जुड़ा उमर खालिद कई महीने से अफ़ज़ल बरसी मनाने में जुटा है। उसने 7 फरवरी को कश्मीर से 10 युवकों को दिल्ली बुलाया और सभी लोग जेएनयू कैंपस में ही ठहरे। 9 फरवरी की शाम 20-25 लोगों ने बेहद नियोजित ढंग अफ़ज़ल की बरसी मनाई। कन्हैया सिंह ने साबरमती ढाबे के पास कार्यक्रम में खालिद के साथ नारेबाजी कर रहे लोगों की अगुवाई की थी।

अफ़ज़ल को शहीद घोषित करने वाले किसी कार्यक्रम में शामिल होने से पहले हर समझदार व्यक्ति यह सोचेगा कि अफ़ज़ल को बलात् फ़ांसी पर नहीं लटका दिया गया। जांच एजेंसियों ने अफ़ज़ल के अलावा दिल्ली यूनिवर्सिटी के तत्कालीन प्रोफ़ेसर एसएआर गिलानी और दूसरे लोगों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया था। अफ़ज़ल ने एक टीवी इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि वह 2001 में संसद पर हमले का सूत्राधार था और जैश-ए-मोहम्मद के इंडिया चीफ़ गाज़ी बाबा के बराबर संपर्क में था। उसने यह भी माना था कि हमला करने वाले पांचों पाकिस्तानी आतंकियों को कश्मीर दिल्ली लेकर वही आया था। अफ़ज़ल ने अपने कार्य को जस्टीफाई करने के लिए आर्थिक तंगी का हवाला देते हुए कहा था कि पैसे के लिए वजह इस साज़िश में शामिल हुआ था।

बहरहाल, सुनवाई के बाद निचली अदालत ने अफ़ज़ल और गिलानी को फ़ांसी की सज़ा सुनाई थी। दिल्ली हाईकोर्ट ने अफ़ज़ल की सज़ा बरकरार रखी। इसके बाद भी अफ़ज़ल को बचाव के कई और अवसर दिए गए, लेकिन हर बार वह दोषी पाया गया। अंततः उसे 9 फरवरी 2013 को तिहाड़ जेल में फ़ांसी दी गई। उधर दिल्ली हाईकोर्ट ने गिलानी के ख़िलाफ़ जुटाए गए सबूत को पर्याप्त नहीं माना और उसे रिहा कर दिया। 

बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को कायम रखा और गिलानी को रिहा कर दिया, लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने संसद पर हमले में गिलानी के रोल को संदेहजनक मानते हुए कहा था कि ऐसा लगता है गिलानी संसद पर हमले का समर्थन कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि गिलानी ने अपने बचाव के लिए अपने ख़िलाफ़ लाए गए सबूतों की ग़लत व्याख्या की थी। अब गिलानी का प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में अफ़ज़ल और मकबूल बट के लिए प्रोग्राम करना सुप्रीम कोर्ट के उस संदेह को पुख़्ता किया है।

अंग्रेज़ों द्वारा 1870 में ताजी-रात-ए-हिंद यानी इंडियन पैनल कोड में शामिल किए गए क़ानून 124ए के मुताबिक़, इस कैटेगरी के आतंकवादी की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित करना और उसमें शिरकत करना देशद्रोह की कैटेगरी में आता है। यह नारेबाज़ी, व्यवस्था में सुधार की कैटेगरी में नहीं आता, क्योंकि नारेबाज़ी करने वाले लोग अफ़जल को शहीद बताते हुए देश के विरुद्ध नारे लगा रहे थे। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 20 जनवरी 1962 के केदारनाथ सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार मुक़दमे में साफ़ किया था कि सरकार के विरुद्ध कठोर शब्दों का प्रयोग अगर इस दृष्टि से किया गया है कि व्यवस्था या सिस्टम में सुधार हो तो वह दंडनीय अपराध नहीं होगा।

प्राइमा फेसाई साफ़ लग रहा है कि जेएनयू, जिसे सारा देश शिक्षा के विशेष मंदिर के रूप में देखता आया है, ऐसे नकारा और असामाजिक तत्वों का अड्डा बन गया है, जो देश की एकता अखंडता का भी सम्मान नहीं करते हैं। ऐसे में इस मामले में कन्हैया सिंह और खालिद उमर समेत हर दोषी के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई होनी ही चाहिए। कन्हैया सिंह ही नहीं, बल्कि खालिद की जिस-जिस ने मदद की उन सबके ख़िलाफ़ आएआईआर दर्ज किया जाना चाहिए। बेशक भारत एक डेमोक्रिटिक नेशन हैं। बेशक यह सभ्य देश अपने हर नागरिक को कुछ बुनियादी अधिकार देता है। इसका यह मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि लोगों को देश के विरुद्ध काम करने का लाइसेंस मिल गया है। कोई भी नागरिक अगर देश हित के ख़िलाफ़ काम करने लगे तो उससे सख़्ती से निपटना समय की मांग है।

जेएनयू में वामपंथी संगठनों की शह पर कश्मीरी छात्र, ख़ासकर अलगाववादी बेहद ऐक्टिव रहते हैं. इससे पहले भी जेएनयू में ऐसी राष्ट्रविरोधी हरकतें होती रही हैं। अफजल को फांसी देने के बाद भी यहां बवाल हुआ था। बेशक जेएनयू ने देश को बड़े-बड़े बुद्धिजीवी दिए हैं। लेकिन देश विरोधी गतिविधियां के यहां पनपने से जेएनयू की छवि ख़राब हुई है। कांग्रेस की कनफ़्यूज़िग पॉलिसी ने पहले ही कश्मीर समस्या पैदा कर दी है। अब अलगाववादी तत्वों से बहुत सख़्ती से निपटने का समय आ गया है।

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

आउटडेटेड पुरुषवादी परंपराओं को ध्वस्त करने का वक़्त

हरिगोविंद विश्वकर्मा
इस साल गणतंत्र दिवस के दिन अहमदनगर जिले में शनि शिंगणापुर मंदिर के चबूतरे तक जाने की हिंदू महिलाओं की कोशिश और महालक्ष्मी (मुंबई) के हाजीअली दरगाह में मुस्लिम महिलाओं को प्रवेश देने की मांग, दरअसल, सदियों से चली आ रही आउटडेटेड पुरुषवादी परंपराओं को गिराने की शुरुआत भर है। लकीर के फकीर पुरुष प्रधान समाज के पैरोकार अगर होश में नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं, जब भूमाता रण रागिनी ब्रिगेड की अध्यक्ष तृप्ति देसाई और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह संस्थापक नूरजहां साफिया नियाज़ ने नेतृत्व में हर भारतीय महिला पुरुषवादी परंपरा से लड़ने के लिए तैयार हो जाएगी। लिहाज़ा, समय के साथ सोच और व्यवहार में बदलाव वक़्त का तकाजा है, जो भी ऐसा नहीं करेगा, वह निश्तिच रूप से आउटडेट घोषित कर दिया जाएगा।

साढ़े चार सौ साल से भी अधिक पुराने शनि शिंगणापुर मंदिर के चबूतरे पर महिलाओं का जाना और उनका सरसों का तेल चढ़ाना मना है। पता नहीं किसने इस बेतुकी और पक्षपातपूर्ण परंपरा का आरंभ किया है। इसी तरह छह सदी से ज़्यादा पुराने हाजीअली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर मनाही है। जबकि किसी भी धार्मिक पुस्तक में कही नहीं लिखा है कि महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर भेदभाव किया जाए। ज़ाहिर सी बात है, इस तरह की दकियानूसी परंपराएं पुरुष-प्रधान समाज में हर जगह हैं। पहले तो महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर ही अघोषित पाबंदी थी, लेकिन वक्त के साथ उसमें बदलाव आया और महिलाओं सीमित संख्या में ही सही हर जगह दिखती हैं।

महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर किसी तरह का भेदभाव करना और उन्हें किसी भी धर्मस्थल पर जाने से रोकना दरअसल सामाजिक और मानवीय दोनों तरह का अपराध है। यह भारतीय संविधान में महिलाओं को मिले अधिकार का भी गंभीर हनन है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं। चाहे वे शनि शिंगणपुर के शनि मंदिर के पुजारी हों या सबरीमाला मंदिर के पुजारी या फिर मस्जिदों के मौलवी सबके सब मानवता के खिलाफ अपराध के दोषी हैं और इन सबके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की जानी चाहिए और पूरे देश में हर धार्मिक स्थल पर जाने की महिलाओं को आज़ादी दी जानी चाहिए। शनि शिंगणापुर के मुद्दे पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस को फ़ैसला लेने के लिए अधिकृत किया गया है।

यहां तक कि मासिक धर्म (रजोधर्म) या पीरियड के समय भी किसी महिला को किसी धार्मिक अनुष्ठान से दूर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि पीरियड हर महीने गर्भाशय की सफाई का एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। उसके बाद स्त्री गर्भधारण (अगर चाहे तो) के लिए शारीरिक तौर पर तैयार होती है। इसे उसी तरह की सफाई माना जा सकता है, जिस तरह स्त्री-पुरुष दैनिक नित्यकर्म करते हैं। अगर नित्यकर्म अशुद्ध नहीं है, तो पीरियड को भी अशुद्ध नहीं माना जा सकता। अब तो मेडिकल से जुड़े लोग कहने लगे हैं कि पीरियड के समय सहवास करने में कोई हानि नहीं होती। मेडिकल साइंस के मुताबिक़, महिला का शरीर भी कमोबेश पुरुष की तरह ही है। पुरुष का शरीर स्पर्म पैदा करता है तो स्त्री के शरीर में एग्स पैदा होते हैं, जिसकी ब्रिडिंग गर्भाशय में होता है और नौ महीने बाद मानव जन्म लेता है। लिहाज़ा, स्त्री को अशुद्ध कहने का मतलब संतानोत्पत्ति को ही अशुद्ध कहना है।

राहुल सांकृत्यायन के “वोल्गा से गंगा” के मुताबिक आठ से दस हज़ार साल पहले मानव दो पैरों पर खड़ा होने के बाद निर्वस्त्र हाल में एक झुंड में जंगलों और गुफाओं में रहता था। तब मनुष्य का शरीर इतना मज़बूत होता था कि कोई बीमारी नहीं लगती थीं। आजकल जानवरों की तरह उस समय हर स्त्री-पुरुष का अनगिनत लोगों से सेक्सुअल रिलेशनशिप होता था, इसलिए किसी शिशु का पिता कौन है, यह कोई नहीं जानता था। हां, दूध पीने के कारण माता को सब लोग पहचानते थे। झुंड की सबसे ताक़तवर महिला ही झुंड की मुखिया होती थी। यह परंपरा कई हज़ार साल तक चलती रही। महिला मुखिया झुंड के हर सदस्य के साथ इंसाफ करती थी। इसलिए उस समय आपसी झगड़े या लड़ाइयां भी बहुत कम हुआ करती थीं। तब सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट या अबॉर्शन की प्रथा भी नहीं थी। लिहाज़ा, धरती पर स्त्री और पुरुष की तादाद लगभग बराबर होती थी। यानी जनसंख्या संतुलित थी। यह तथ्य मानव विकास पर लिखी गई किताबों में भी मिलता है। कभी-कभार जब दो झुंडों की आपस में संघर्ष होती था तब दोनों झुंड की मुखिया स्त्रियां ही आपस में मलयुद्ध करती थीं।

हुआ यूं कि एक बार एक झुंड की महिला मुखिया किसी कारण से मर गई। उसी समय उस झुंड पर दूसरे झुंड ने आक्रमण कर दिया। तब लड़ाई के लिए मर चुकी महिला मुखिया के बलिष्ठ बेटे, जो उसका प्रेमी भी था, को आगे आना पड़ा। उसका दूसरे झुंड की मादा से भयानक मलयुद्ध हुआ। पुरुष ने दूसरे झुंड की महिला को हार दिया। मानव समाज के विकास की संरचना में यह घटना अहम मोड़ थी। पुरुष ने पहली बार महसूस किया कि औसतन वह महिला से ज़्यादा ताक़तवर है। इसके बाद झुंड प्रमुख पद को सबसे ताकतवर पुरुष हथियाने लगे। यहीं से पुरुष आधिपत्य शुरू हुआ और स्त्री के साथ पक्षपात होने लगा। पुरुष उसे महज भोग की वस्तु समझने लगा और उसके मानवीय अधिकारों का भी हनन करने लगा। परिवारवाद प्रथा शुरू होने पर शुरू में एक पुरुष कई-कई पत्नियां रखता था, लेकिन स्त्री को दूसरे पुरुष की ओर देखने पर कुलटा कह दिया जाता था। जब शिक्षा की अवधारणा शुरू हुई तो पुरुष ने उस पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद धर्म की स्थापना हुई। पुरुष आधिपत्य का कराण हर धर्म पुरुष प्रधान बनाए गए। जितने भी धार्मिक ग्रंथ रचे गए सबके सब पुरुषों ने रचे और सबमें पुरुष को ही महिमामंडित किया गया। जितने त्यौहार बनाए गए सब के सब पुरुष वर्चस्व के प्रतीक हैं। पत्नी पति के लिए व्रत रहती है, लेकिन कोई पति अपनी पत्नी के लिए व्रत नहीं रहता।

सारी पुरुष-प्रधान परंपराएं कमोबेश आज भी बदस्तूर जारी हैं। घर के बाहर हर जगह पुरुष ही दिखते हैं। महिलाओं की विज़िबिलिटी 10-15 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है। सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति के दौर में भी मुंबई-दिल्ली जैसे महानगर छोड़ दिए जाएं तो महिलाओं की घर के बाहर विज़िबिलिटी पांच फ़ीसदी भी नहीं है। महिलाओं की कम विज़िबिलिटी के चलते दुस्साहसी पुरुष उनके साथ उनकी मर्जी के विरुद्ध हरकते करते हैं। उनके साथ भेदभाव करते हैं। महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों की असली वजह यही है, जिसे क़ानून को सख़्त करके नहीं रोका जा सकता। इसके लिए देश में हर जगह महिलाओं को 50 प्रतिशत जगह आरक्षित करनी पड़ेगी। हर जगह जितने पुरुष है उतनी स्त्री करनी ही पड़ेगी। शनि शिंगणापुर और हर मंदिर मस्जिद में महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित ही नहीं करना पड़ेगा बल्कि शनि शिंगणापुर और सबरीमाला जैसे धर्मस्थलों पर महिला पुजारी भी नियुक्त करना पड़ेगा।

कितने शर्म की बात है, कि अपने ही धर्म के स्थल पर जाने के लिए महिलाओं को आंदोलन करना पड़ रहा है और तथाकथित लोग मध्यस्थता कर रहे हैं। यहां जनता दल अध्यक्ष शरद यादव का बयान समीचीन है कि शनि मंदिर शिंगणापुर और हाजीअली दरगाह में महिलाओं का प्रवेश रोकने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए ऐसे लोगों को फौरन जेल भेजा जाना चाहिए। भारतीय संविधान जब स्त्री-पुरुष को पूजा या इबादत का समान अधिकार देता है, तब ये पुजारी या मौलवी कौन होते हैं स्त्रियों को रोकने वाले? समाज के इन तथाकथित ठेकेदारों को महिलाओं को इन धर्मस्थलों में जाने से रोकने का अधिकार किसने दे दिया?

सोमवार, 25 जनवरी 2016

भारतीय लोकतंत्र पर चंद राजनीतिक परिवारों क़ब्ज़ा

हरिगोविंद विश्वकर्मा
आज गणतंत्र दिवस है। यह देश का एक राष्ट्रीय पर्व है जो हर साल 26 जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया था। दरअसल, भारत को स्वतंत्र और पूर्ण लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के लिए 26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा ने मौजूदा संविधान को अपनाया था। एक साल दो महीने बाद इसे लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ विधिवत लागू किया गया था। इस तारीखः का चयन इसलिए भी हुआ, क्योंकि 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था।

गणतंत्र समारोह पिछले 66 साल से मनाया जा रहा है। ऐसे में यह आकलन तो होना ही चाहिए कि जिस मकसद से भारत को भारतीय गणराज्य यानी इंडियन रिपब्लिक बनाया गया था, वे मकसद पूरे हुए या नहीं? अगर नहीं तो क्योंइस दृष्टि से यह आकलन करने का सर्वोत्तम दिन है, कि आज़ादी या लोकतंत्र का लाभ किन-किन लोगों को सबसे ज़्यादा मिला? इतना ही नहीं, क्या ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें कोई शेयर ही नहीं मिला। यह बहुत बड़ा विषय है, इसलिए आज भारतीय राजनीति में लोकतंत्र को हाईजैक करने वालों पर ही चर्चा सीमित रहेगी।

किसी परिवार में पैदा होना कोई गुनाह नहीं है। इसके लिए किसी को दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि कोई कहां पैदा हो, यह प्रकृति तय करती है, लेकिन किसी को उसकी योग्यता और उसके परिश्रम से बहुत ज़्यादा मिल जाना तो गंभीर दोष है और अगर किसी को किसी ख़ास परिवार में पैदा होने के कारण उसकी योग्यता और उसके परिश्रम से ज़्यादा मिला है तो यह बेशक ग़लत है, यह असामाजिक, असंवैधानिक और अनैतिक भी है। कोई नौसिखिया व्यक्ति इसीलिए मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बन जाए कि वह किसी ख़ास आदमी का बेटा या उसके परिवार का है, इसे तो ग़लत कहा जाएगा। तब योग्यता या कॉम्पीटिशन का क्या मतलब रह गया ?

वंशवाद के नाम पर गांधी परिवार को सबसे ज़्यादा कोसा जाता रहा है, जबकि यह सच है कि दूसरे दलों में परिवारवाद - मुलायम-लालू-पासवान-सिंधिया-बादल-ठाकरे-मुंडे-पवार-संगमा-करुणानिधि - ज़्यादा में फैल गया है। बहरहाल, मुद्दा इंदिरा की हत्या के बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के बाद ज़्यादा मुखर हुआ और तब से गाहे-बगाहे चलता ही रहा है। देश की राजनीति में परिवारवाद को लेकर चाहे जितनी भी बात की जाए, लेकिन कोई दल इससे अछूता नहीं रहा। राजनीति में परिवारवाद ख़त्म होने की बजाय वटवृक्ष की तरह फैलता जा रहा है। यह कई दशक से कोई दूसरा नेतृत्व तैयार ही नहीं होने दे रहा है।

भारतीय राजनीति में वंशवाद यानी परिवारवाद पर ब्रिटिश लेखक पैट्रिक फ्रेंच ने बहुत लंबे शोध के बाद एक किताब लिखी है, जो 2011 में प्रकाशित हुई और ख़ासी चर्चित भी रही। मजेदार बात यह कि वंशवाद उससे भी आगे बढ़ चुक है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. पिछले चुनाव में 80 करोड़ लोग मतादादा थे। आबादी के हिसाब से दुनिया का हर छठा व्यक्ति भारतीय था, मगर हर 10 में से तीन सांसद एक ही परिवार से आते रहे हैं।

पैट्रिक के अनुसार पिछली लोकसभा में 28.6 फीसदी सदस्य वंशानुगत थे, 6.4 फीसदी इंडस्ट्री या बिजनेस से सीधे आए थे और 9.6 फीसदी अन्य तरह के कनेक्शनों से लोकसभा में थे. केवल 46.8 फीसदी सदस्य ही वंशानुगत नहीं थे। पिछली लोकसभा में 30 साल से कम उम्र के सभी सदस्य परिवार के प्रतिनिधि थे, जबकि 40 साल तक के 65 फीसदी सदस्य वंशानुगत। अगर महिला की बात करें तो क़रीब 70 फीसदी महिला सदस्य राजनीतिक पारिवार की थीं। पैट्रिक फ्रेंच कहते हैं कि अगर संसद में 33 फीसदी रिज़र्वेशन हो गया परिवार की भागीदारी और बढ़ जाएगी।

66 साल के लोकतंत्र में सबसे पिछड़े राज्य यूपी में मुलायम यादव परिवार सबसे ज़्यादा तरक्की किया और तक़रीबन हर सदस्य किसी न किसी पद पर है। मुलायम आजमगढ से लोकसभा में हैं तो बहू डिंपल यादव कन्नौज से। बेटा अखिलेश यादव सूबे का सीएम है, तो भाई रामगोपाल यादव राज्यसभा में हैं। दूसर भाई शिवपाल यादव राज्य में पीडब्ल्यूडी मंत्री हैं, तो दो भतीजे धर्मेंद्र यादव बदायूं और अक्षय यादव फिरोजाबाद से एमपी हैं। अब बड़े भाई का पोता तेज़ प्रताप यादव भी मैनपुरी से लोकसभा में पहुंच गया है। यह राज्य की ग़रीब जनता का जनादेश है। इसी तरह केवल बेटे को उत्तराधिकारी मानने वाले चारा घोटाले में सज़ायाफ़्ता लालूप्रसाद यादव के दोनों बेटे तेजस्वी और तेजस नीतीश कुमार के बिहार मंत्रिमंडल में मंत्री हैं यह बिहार की जनता जनार्दन का फ़ैसला है।

मजेदार बात यह है कि कई परिवार में तो राजनीति करने लायक जितने भी सदस्य हैं वे सभी किसी न किसी पद पर हैं। कुछ परिवारों ने तो दो-दो दलों में अपनी पैठ बना रखी है और हवा के रूख के हिसाब से अपने भविष्य की राजनीति को तय करते हैं। लेकिन वंश का माल खाकर तरक्की हासिल करना क्या उचित है। पैट्रिक फ्रेंच डाटाबेस के मुताबिक वंशानुगत लोकसभा सदस्य गैर-वंशानुगत सदस्य के मुकाबले औसतन 4.5 गुना अमीर हैं. अगर वंशानुगत सदस्यों में उन सदस्यों की संपत्ति देखी जाए जिनके एक से ज्यादा पारिवारिक कनेक्शन हैं यानी हाइपर वंशानुगत सदस्य, तो पता चलता है कि हाइपर वंशानुगत सदस्य बाकी वंशानुगत सदस्यों के मुकाबले लगभग दोगुना संपत्ति वाले हैं।

बिहार ही नहीं, पंजाब का कैबिनेट भी वंशवाद को पुष्ट करने के लिए काफी है। पंजाब यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आशुतोष ने एमए की छात्रा गुनरीत कौर की थीसीस का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि बादल के पुत्र सुखबीर डिप्टी सीएम हैं, भतीजे मनप्रीत वित्तमंत्री, दामाद आदेश सिंह कैरों (पूर्व सीएम कैरों के पौत्र) मंत्री, करीबी रिश्तेदार, जनमेजा सिचाई मंत्री। सुखबीर के साले बिक्रमाजीत मजीठिया मंत्री रहे हैं। प्रकाश बादल की पत्नी सुरिंदर कौर अकाली दल महिला शाखा की संरक्षक हैं। बहू हरसिमरत कौर केंद्र में मंत्री। शासन ऐसा कर रहा है कि आतंकवादी बेख़ौफ़ राज्य में आने लगे हैं। इसी तरह कैप्टन अमरिंदर सिंह, सिमरनजीत सिंह मान की पत्नी और बेअंत सिंह के बाद सीएम हरचरण सिंह बरार की बहू आपस में बहन हैं।

प्रो आशुतोष कहते हैं, जैसे प्रचीनकाल में हिंदू और मध्यकाल में मुस्लिम शासक अपने राज्य के विस्तार के लिए दूसरी जाति और धर्म में शादियां करते थे या दूसरे रिश्ते बनाते थे उसी तरह आज के राजनेता करते रहे हैं। परिवारिक सदस्य होने के नाते राजनीति में सफल होने के लिए संसाधन आसानी से मिल जाते हैं. आर्थिक संसाधनों के साथ-साथ वंशानुगत राजनीतिक नेटवर्क का फायदा भी मिलता है। परिवार से होने के नाते क्षेत्र व समाज में पारिवारिक दबदबा, खानदानी और जातिगत समर्थन विरासत में मिलता है. इसके चलते राजनीति और सत्ता तक उनकी पहुंच आसानी से हो जाती है। इसके अलावा अनुशासन, वरिष्ठता और नियम-कायदे उन पर लागू नहीं होते हैं। लेकिन आम कार्यकर्ता पर सब कुछ लागू होता है और अगर वह सब अर्हताएं पूरी भी करें तब भी कोई खानदानी नेता सार कि-धर को गुड़गोबर कर सकता है।

कह सकते हैं कि लोकतंत्र के इस तमाशे में हर तरह के लोग हैं। विश्व के लोकतंत्रिक इतिहास में भारत ऐसा देश है, जहां परिवारवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई है। आज़ादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतानात्रिक परंपरा अपनी जड़े दिनोंदिन गहरी करती जा रही है। राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़े इतनी जम चुकी है कि देश का लोकतंत्र परिवारतंत्र नजर आने लगा है। इस परिवारतंत्र को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, यह सवाल दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। प्राचीन और मध्यकाल के राजा और सुल्तानों की जगह पोलिटिकल फैमिलीज़ ने ले ली है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। पहले जैसे राजा का बेटा राज बनता था, वैसे है आज प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का बेटा (या बेटी) प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनता है। इसका साफ मतलब है कि इन दलों में नेतृत्व करने के लिए दूसरा नाम आना असंभव है।

परिवारवादी नेताओं ने राज्य में कैसा शासन किया। एक तस्वीर उसकी भी देखिए। सन् 1943 में ब्रिटिश सरकार ने हेल्थ सेवा के लिए सर जोसेफ भोरे की अध्यक्षता में समिति का गठन किया था, जिसने 1946 में रिपोर्ट दे दी थी। भोरे समिति ने कहा था, हेल्थ सर्विस उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। पैसे के अभाव में किसी नागरिक को अच्छी स्वास्थ सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता है। अंग्रेज़ सिफ़ारिश को मानकर इलाज मुफ़्त करने वाले थे, लेकिन उनके जाने के बाद आज़ाद भारत में उस रिपोर्ट को डस्टबिन में डाल दिया गया। मतलब अपनी तथाकथित ग़ुलाम जनता के लिए जितने चिंतित गोरे थे, उतनी अपनी सरकार नहीं रही हैं।

सबसे अहम बात यह कि अंग्रेज़ जब देश को भारतीयों के हवाले कर रहे थे, तब देश पर एक पाई भी क़र्ज़ नहीं है, आज हर भारतीय पर औसतन 45 हज़ार रुपए से ज़्यादा क़र्ज़ है। इसी तरह अंग्रेज़ों के समय भारतीय रुपया डॉलर के बराबर था, लेकिन आज एक डॉलर 64 रुपए के बराबर हो गया है। ऐसे हालात में ऐसे बहुत सारे लोग भी मिलेंगे, जो निःसंकोच कह देंगे कि इससे बेहतर को अंग्रेज़ों का शासन था। 

कहा जाता है कि अमेरिका में एक फ़ीसदी लोग शासन करते हैं। यानी महज एक फ़ीसदी लोगों ने डेमोक्रेसी को हाइजैक कर लिया है। भारत में इससे भी कम लोगों ने यह काम कर दिया है। जी हां, भारत में तो यह आधा या एक चौथाई फ़ीसदी नहीं है। लोकतंत्र के 66 साल में एक करोड़ या उससे ज़्यादा वार्षिक आमदनी वाले केवल 42,800 (बयालिस हज़ार आठ सौ) लोग हैं, जो कुल आबादी का 0.00354 फ़ीसदी है। यही लोग लोकतंत्र के लाभार्थी रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि भारत में लोकतंत्र 66 साल के सफ़र के दौरान इसे परिवारतंत्र में बदलने वाली कैंसर जैसी बीमारी लग गई है इस कैंसर जैसी बीमारी का इलाज केवल एक डॉक्टर कर सकता है और वह है भारतीय मतदाता।

समाप्त


रविवार, 24 जनवरी 2016

जूझारू रोहित को मौत में क्यों नज़र आया समाधान?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
इसमें कोई संदेह नहीं कि आत्महत्या एक अमानवीय, दुखद, दहलाने वाली और निंदनीय वारदात होती है। वह किसी अच्छे नागरिक की हो या बुरे की। वह किसी विद्वान की हो या अज्ञानी की। हर हाल में होती तो है हानि एक मनुष्य जीवन की ही। इसमें क़ुदरत से मिली एक बेशकीमती जान चली जाती है, जिसे कोई मां पूरे नौ महीने अपने गर्भ में पालती है। इसीलिए इसे इंसान के जीने के अधिकार का हनन भी माना जा सकता है। आत्महत्या कमोबेश हर संवेदनशील को विचलित करती है। कोई आम आदमी इनके बारे में सोच कर ही थरथरा उठता है। इसके बावजूद, कोई अगर अपनी ही हत्या जैसा घातक क़दम उठाए, तो मन और भी ज़्यादा विचलित होता है। हर आदमी सोचने लगता है कि आख़िर ऐसा क्या हुआ उसके साथ, जिसके चलते उस इंसान ने अपने आपको ही ख़त्म कर लिया?

कमोबेश, विजयवाड़ा के गुरुज़ाला टाउन के दलित समुदाय के छात्र रोहित वेमुला की पिछले हफ़्ते कथित ख़ुदकुशी ऐसे ही सवाल खड़े करती है कि आख़िर ऐसा क्या हुआ जो एक मिशनरी किस्म के जूझारू छात्र ने अचानक से हथियार डाल दिया और उसे अपने तमाम संघर्षों का हल केवल और केवल अपनी मौत में ही नज़र आया। लिहाज़ा, उसने मौत का आलिंगन भी कर लिया। देखिए रोहित का सूइसाइड नोट...

मैं राइटर बनना चाहता था, साइंस का राइटर, लेकिन नौबत ऐसी आ गई है कि अब राइटर के नाम पर मैं अपने हाथ से अपना ही सूइसाइड नोट लिख रहा हूं... कमोबेश यही लिखकर उसने मौत को आत्मसात् कर लिया था। कोई हफ़्ताभर पहले... रोहित की आत्महत्या पर किसी तरह, पक्ष या विपक्ष में चर्चा से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि रोहित का किरदार था कैसा? साइंटिस्ट और साइंस लेखक बनने का सपना देखने वाला साइंस का छात्र कैसे साइंस से सोशल साइंस की दुनिया में चला गया ? जी हां, रोहित ने एमएससी साइंस से की थी, लेकिन पीएचडी वह सोशल साइंस से कर रहा था। यह बहुत बड़ा बदलाव था उसमें जो उसमें छात्र राजनीति का हिस्सा बनने के बाद आया।

दरअसल, जब रोहित गांव से हैदराबाद आया तो खालिस मेधावी छात्र था। उसने अपने दोस्त के आग्रह पर सबसे पहले 2009 के छात्रसंघ के चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उम्मीदवार को वोट भी दिया था। तब वह साइंस से पढ़ाई कर रहा था। दरअसल, 2004 में हैदराबाद वह एक मिशन लेकर आया था, लेकिन संभवतः विश्वविद्यालय की राजनीति ने उसे भ्रमित कर दिया। साइंटिस्ट बनने का मकसद पीछे रह गया और वह नये ज़माने की राजनीति का हिस्सा बन गया। हैदराबाद पहुंचने पर रोहित के पहले परिचित आंध्रप्रदेश रेज़िडडेंशियल कॉलेज के प्रिंसिपल बी कोंडैया, जो 2004 में वहां लेक्चरर थे, उसे मधुरभाषी और असाधारण प्रतिभाशाली छात्र बताते हैं। कोंडैया के शब्दों में, वह राजनीति से पूरे तरह अछूता था। वह तक तक सही ट्रैक पर था। बारहवीं में उसे 600 में सले 521 अंक मिले थे, 86 फ़ीसदी अंक। रोहित के केमिस्टी टीचर ने भी बताया कि वह फिज़िक्स, केमिस्ट्री और बॉटनी में आसाधारण रूप से तेज़ छात्र था।

22 जुलाई 2010 में फेसबुक वॉल पर अंग्रेज़ी में लिखा, मैंने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया है। विश्वविद्यालय में माहौल खुशगंवार है। यहां बहुत अच्छे लोग हैं। मैं बहुत अच्छा महसूस कर रहा हूं। कुछ अच्छे दोस्त बनाने की सोच रहा हूं। एक ख़ास दोस्त के मुताबिक यूजीसी जूनियर रिसर्च फेलोशिप के लिए चयनित होते ही रोहित को हर महीने 28 हज़ार रुपए वजीफा मिलने लगे जिसमें से, बताया जाता है, वह हर महीने 20 हजार रुपए अपनी मां को गांव में भेजता था। पहले वह स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (छात्रों की लेफ़्ट विंग) से जुड़ा था, लेकिन 2014 में अंबेडकर स्टूडेंट असोसिएशन से जुड़कर वह उसका युवा विचारक बन गया था। संभवतः वह इसीलिए सोशल साइंस विषय पर में रिसर्च कर रहा था।

बड़ी अहम बात यह कि मौत में हर समस्या का समाधान उसे अचानक नहीं, बल्कि तीन साल पहले ही लगने लगा था। दरअसल, दिल्ली गैंगरेप की पीड़ित लड़की ज्योति सिंह की सिंगापुर में मौत के बाद अगर रोहित का फेसबुक वाल पर देखा जाए तो यही लगेगा कि ज्योति प्रकरण से ही उसका व्यवस्था से मोहभंग होना शुरू हो गया था। उसने 29 दिसंबर 2012 को लिखा, 545 चुने हुए लोग लड़की के लिए कोई स्टैंड लेने में असफल रहे। एक ऐसा देश, जहां राजनेता चुने हुए दलाल की तरह काम करते हों, जो बिना रिश्वत के काम ही न करें। एक ऐसा देश, जहां बुराई के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में छात्र शर्म यार डर महसूस करें। एक ऐसा देश, जहां बुद्धिजीवी रुपए बनाने वाली मशीन की तरह चालित हो। ऐसी जगह मौत ही हमें समस्याओं से मुक्त कर सकती है। यानी रोहित के व्यक्तित्व में ख़ुदकुशी के लिए जगह तीन साल पहले से बनने लगी थी। हां, विश्वविद्यालय में छोटे से अपराध के लिए बहुत लंबी सज़ा ने बेशक उसे हताश कर दिया होगा और उसने मौत को गले लगाना ही श्रेयस्कर समझा होगा।

रोहित के साथ सब ठीक चल रहा था, लेकिन पिछले साल 30 जुलाई को देश के क़ानून (जिसे निष्पक्ष मानते हैं) द्वारा मुबंई में 257 निर्दोष लोगों की हत्या के दोषी ठहराए गए आतंकवादी याक़ूब मेमन को फ़ांसी के विरोध में अंबेडकर स्टूडेंट असोसिएशन ने प्रोटेस्ट मार्च निकाला। दरअसल, देश में सेक्युलर जमात के तथाकथित बुद्धिजीवी पता नहीं किस फिलॉसफी के तहत याक़ूब जैसे आतंकवादियों को डिफेंड करते रहे हैं। वैसे, याक़ूब के समर्थन में एएसए जैसे किसी दलित संगठन के उतरने की बात हज़म नहीं होती। याक़ूब मुंबई की आलिशान इमारत में रहने वाला अरबपति चार्टर्ड अकाउंटेट था। उसका दलित जैसे मसलों से कोई लेना-देना तक नहीं था। फिर भी अंबेडकर स्टूडेंट असोसिएशन ने उसके लिए प्रोटेस्ट मार्च क्यों किया? ज़ाहिर है, रोहित अपने मकसद से भटका हुआ लग रहा था। याक़ूब के मसले पर एएसए का स्टैड प्रथमदृष्ट्या मूर्खतापूर्ण लगता है, क्योंकि याक़ूब किसी ह्यूमन राइट वायलेशन का शिकार नहीं था। उसे फांसी सुप्रीम कोर्ट ने दी थी। उसे बचाव के हर संभव मौके दिए गए। यहां तक कि उसकी फ़ांसी टालने वाली याचिका पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने आधी रात को सुनवाई की। हर बार जजों पाया कि अंबेडकर ने जो संविधान बनाया है, उसके मुताबिक़ याक़ूब फ़ांसी का ही हक़दार है। पूरे विवेक के साथ सुप्रीम कोर्ट ने याकूब को फांसी पर लटकाने का फ़ैसला सुनाया था। लिहाज़ा, याकूब को फ़ांसी का विरोध असंवैधानिक था और अंबेडकर विरोधी भी। यानी रोहित और उसके साथी भ्रमित थे। इसी मुद्दे पर रोहित का अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से टकराव हुआ और केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने एचआरडी मिनिस्टर स्मृति ईरानी को पत्र लिखा। इसमें दो राय नहीं कि हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति अप्पाराव पोडिले ने रोहित समेत पांच छात्रों को विश्वविद्यालय और हॉस्टेल से निकाल कर उनसे भी बड़ा गुनाह किया। इस बिना पर बंडारू और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ तेलंगाना पुलिस का एफ़आईआर ग़लत नहीं है।

दरअसल, फेलोशिप बंद हो जाने से रोहित भयानक आर्थिक संकट में था। वह उसी व्यवस्‍था का शिकार हो गया, जिसने अब तक पता नहीं कितने दलित या मजबूर छात्रों की जान ली है। रोहित के सूइसाइडल नोट को ध्यान से पढ़ें, तो पता चलता है कि उसमें खालीपन का अहसास भर गया था, जिसने ख़ुदकुशी जैसा क़दम उठाने को मजबूर किया। दरअसल, फेलोशिप बंद होने से उसके पास खाने को भी पैसे नहीं थे। दरअसल, दलित समुदाय के लोग चूंकि आर्थिक तौर पर बहुत कमज़ोर होते हैं, इसलिए व्यवस्था के हल्के प्रहार को भी झेल नहीं पाते हैं। आज़ादी के क़रीब सात दशक के दौरान दलित समुदाय के लोगों को संविधान से ख़ूब सहूलियत मिली, लेकिन तमाम सहूलियतें जगजीवन राम, मायावती, रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे धनाध्य दलित नेता हज़म करते रहे और दलित समुदाय की हालत, ख़ासकर सामाजिक और आर्थिक स्थिति कमोबेश पहले जैसी ही रही। मतलब, दलितों के आरक्षित नौकरी धनी दलित छीनते रहे। दलित संसदीय या विधानसभा सीटों से करोड़पति दलित नेता संसद या विधान सभा में पहुंचते रहे। ये नेता अपनी व्यक्तिगत हैसियत बढ़ते रहे, लेकिन उनका समाज पहले की तरह वैसे ही मुख्यधारा से कटा रहा। इसीलिए आज भी ढेर सारे दलित छात्र आरक्षण के बावजूद पढ़ नहीं पाते, उनकी सीटे रिक्त रहती हैं, या भरी जाती हैं तो आर्थिक रूप से संपन्न दलित नेताओं के बाल-बच्चों द्वारा। बेशक आरक्षण ने अनुसूचित जाति-जनजाति छात्रों की संख्या बढ़ाई है। परंतु आबादी के अनुपात के हिसाब से अब भी यह संतोषजनक नहीं है। हालांकि असमानता और शोषण को जीवन मूल्य समझने वाले यथास्थितवादी लोग इस बदलाव से चिढ़ते हैं।


बहरहाल, रोहित बहुत ग़रीब पृष्ठिभूमि से आया था। उसके सूइसाइड नोट में काटे गए अंश बताते हैं कि उसका अंबेडकर स्टूडेंट यूनियन से भी मोहभंग हो गया था। संभवतः आतंकी याक़ूब का समर्थन करके शायद उसमें आत्मग्लानि भर गई थी। जिसके चलते उसके अंदर खालीपन का अहसास भर जाना स्वाभाविक था। यह इस देश की सामूहिक त्रासदी है. रोहित जैसे न जाने कितने नागरिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ते हुए इसी तरह के खालीपन से भर जाते हैं। भयानक ग़रीबी झेलते हुए पीएचडी तक पहुंचने वाले इन छात्रों को उनके अपराध से कई गुना ज़्यादा सज़ा दी गई थी? सात महीने से बंद फेलोशिप ने रोहित तोड़ दिया था। उसे कोई समाधान नहीं मिल रहा था। उसने अपने सूइसाइड नोट में अपनी तंग हालत का ज़िक्र किया है। भयानक आर्थिक तंगी के कारण क़र्ज़दार हो चुके रोहित को अंततः मौत ही एकमात्र समाधान नज़र आया, जो उसके दिमाग़ में तीन साल से चल रहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केवल भावुक होने से ही काम नहीं चलेगा, बल्कि इस प्रकरण में सभी जवाबदेह और ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ ऐक्शन लेना होगा। यह सही क्षतिपूर्ति होगी। वैसे ख़बर आ रही है कि कुलपति को लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया है। यह ऐक्शन लेने के रास्ते में सकारात्मक पहल है।

रविवार, 10 जनवरी 2016

क्या शास्त्रीजी की मौत के रहस्य से कभी हटेगा परदा ?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
कई मौतें ऐसी होती हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी या कहें हमेशा रहस्य ही बनी रहती हैं। ठीक ऐसी ही मौत देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की भी थी। जो क़रीब पांच दशक गुज़र जाने के बाद भी रहस्य ही बनी हुई है। दरअसल, भारत पाकिस्तान के बीच 1965 का युद्ध ख़त्म होने के बाद 10 जनवरी 1966 को शास्त्रीजी ने पाकिस्तानी सैन्य शासक जनरल अयूब ख़ान के साथ तत्कालीन सोवियत रूस के ताशकंद शहर में ऐतिहासिक शांति समझौता किया था। हैरानी वाली बात यह रही कि उसी रात शास्त्रीजी का कथित तौर पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।

बताया जाता है कि समझौते के बाद लोगों ने शास्त्रीजी को अपने कमरे में बेचैनी से टहलते हुए देखा था। शास्त्रीजी के साथ ताशकंद गए इंडियन डेलिगेशन के लोगों को भी लगा कि वह परेशान हैं। डेलिगेशन में शामिल शास्त्रीजी के इनफॉरमेशन ऑफ़िसर कुलदीप नैय्यर ने लिखा है, रात में मैं सो रहा था कि किसी ने अचानक दरवाजा खटखटाया। वह कोई रूसी महिला थी। उसने बताया कि आपके पीएम की हालत सीरियस है। मैं जल्दी से उनके कमरे में पहुंचा। वहां एक व्यक्ति ने इशारा किया कि ही इज़ नो मोर। मैंने देखा कि बड़े कमरे में बेड पर एक छोटा-सा आदमी पड़ा था।

कहा जाता है कि जिस रात शास्त्रीजी की मौत हुई, उस रात खाना उनके निजी सर्वेंट रामनाथ ने नहीं, बल्कि सोवियत में भारतीय राजदूत टीएन कौल के कुक जान मोहम्मद ने बनाया था। कहा जाता है कि आलू पालक और सब्ज़ी खाकर शास्त्रीजी सोने चले गए थे। मौत के बाद शरीर के नीला पड़ने से लोगों ने आशंका जताई थी कि कहीं उन्हें खाने में ज़हर तो नहीं दे दिया गया था। उनका निधन 10-11 जनवरी की रात डेढ़ बजे हुआ। आधी रात में विदेशी मुल्क के पीएम की मौत से भारतीय प्रतिनिधि मंडल सन्नाटे में था। जिस व्यक्ति ने चंद घंटे पहले ऐतिहासिक समझौता किया था, उसकी सहसा मौत से पूरा देश सकते में था।

शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री ने उनके मौत के रहस्य की गुत्थी सुलझाने की सरकार से अपील की थी. सुनील शास्त्री का कहना था कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक नहीं थी। उनकी लाश उन्होंने देखी तो छाती, पेट और पीठ पर नीले निशान थे और कई जगह चकत्ते पड़ गए थे। जिन्हें देखकर साफ़ लग रहा था कि उन्हें ज़हर दिया गया है. पत्नी ललिता शास्त्री का भी यही मानना था कि उनकी मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी. अगर हार्टअटैक आया तो उनका शरीर नीला क्यों पड़ गया था! यहां वहां चकत्ते पड़ गए थे। उनकी मौत का सच फौरन सामने आ जाता, अगर उनका पोस्टमार्टम कराया गया होता। लेकिन ताज्जुब की बात कि एक पीएम की रहस्यमय मौत हुई और शव का पोस्टमार्टम नहीं कराया गया।

बहरहाल, बाद में बताया जाता है कि उस दिन आधी रात को शास्त्रीजी खुद चलकर सेक्रेटरी जगन्नाथ के कमरे में गए, क्योंकि उनके कमरे में घंटी या टेलीफोन नहीं था। वह दर्द से तड़प रहे थे। उन्होंने दरवाजा नॉक कर जगन्नाथ को उठाया और डॉक्टर को बुलाने का आग्रह किया। जगन्नाथ ने उन्हें पानी पिलाया और बिस्तर पर लेटा दिया। शास्त्रीजी समेत पूरे इंडियन डेलिगेशन को ताशकंद से 20 किलोमीटर दूर गेस्टहाउस में ठहराया गया था, इसीलिए वक्त पर चिकित्सा सुविधा न मिलने से उनकी मौत हो गई।

शास्त्रीजी की सादगी से हर कोई प्रभावित हो जाता था। उनका जन्म दो अक्टूबर 1904 को रामनगर चंदौली (तब वाराणसी) में हुआ। असली नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। पिता शारदाप्रसाद श्रीवास्तव शिक्षक थे, जो बाद में केंद्र की नौकरी में आ गए। शास्त्रीजी की पढ़ाई हरीशचंद्र डिग्री कॉलेज और काशी विद्यापीठ में हुई। एमए करने के बाद उन्हें 'शास्त्री' की उपाधि मिली। स्वतंत्रता के बाद उन्हें उत्तप्रदेश का संसदीय सचिव बनाया गया। गोविंदबल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में उन्हें गृहमंत्री बनाया गया। बतौर गृहमंत्री उन्होंने भीड़ नियंत्रित करने के लिए लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग करवाया। परिवहन मंत्री रहते हुए उन्होंने महिला कंडक्टरों की नियुक्ति की।

1951 में प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह कांग्रेस महासचिव बनाए गए। 1952, 57 और 62 के चुनाव में कांग्रेस को मिली भारी विजय का श्रेय शास्त्री को दिया गया। उनकी प्रतिभा और निष्ठा को देखकर ही नेहरू की मृत्यु के बाद 1964 में उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को प्रधानमंत्री का पद की शपथ ली। उन्होंने 26 जनवरी 1965 को देश के जवानों और किसानों को अपने कर्म और निष्ठा के प्रति सुदृढ़ रहने और देश को खाद्य के क्षेत्र में आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य से जय जवान, जय किसान' का नारा दिया। यह नारा आज भी लोकप्रिय है।

शास्त्री के बारे में कहा जाता है कि वह हर निणर्य सोच-विचार कर ही लेते थे। कई जानकार मानते हैं कि शास्त्रीजी का ताशकंद समझौते पर दस्तख़त करना ग़लत फ़ैसला था। यह बात उन्हें महसूस होने लगी थी जिससे उन्हें दिल का दौरा पड़ा। कुछ लोग बताते हैं कि देश तब घोर आर्थिक संकट से घिरा था। शास्त्रीजी उसे हल करने में सफल नहीं हो रहे थे। लिहाज़ा, उनकी आलोचना होने लगी थी।

शास्त्री अकसर कहते थे, हम चाहे रहें या न रहें, हमारा देश और तिंरगा झंडा सदा ऊंचा रहना चाहिए’. वह उन नेताओं में थे जो अपने दायित्व अच्छी तरह समझते थे। छोटे कद और कोमल स्वभाव वाले शास्त्रीजी को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कभी वह सफल प्रधानमंत्री बनेंगे। एक बार उन्हें रेलमंत्री बनाया गया, एक ट्रेन हादसे के बाद उन्होंने रेलमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। वह ऐसे राजनेता थे जो अपनी गलती को सभी के सामने स्वीकार करते थे। बताया जाता है कि जब 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर शाम 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया तब तीनों रक्षा अंगों के चीफ ने पूछा कि क्या किया जाए। तब शास्त्रीजी ने कहा, आप देश की रक्षा कीजिए और बताइए कि हमें क्या करना है?”


बेटे सुनील शास्त्री ने अपनी किताब ‘‘लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी’’ में लिखा है मां शास्त्रीजी के कदमों की आहट से उन्हें पहचान लेती थीं और प्यार से धीमी आवाज़ में कहती थीं ‘‘नन्हें, तुम आ गये?”  शास्त्री का अपनी मां इतना लगाव था कि वह उनका चेहरा देखे बिना नहीं रह पाते थे। किसी ने सच ही कहा है कि वीर पुत्र को हर मां जन्म देना चाहती है। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए मरणोपरांत 1966 में उन्हें 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। शास्त्रीजी उन्हीं वीर पुत्रों में हैं जिन्हें आज भी भारत की माटी याद करती है।

सोमवार, 4 जनवरी 2016

केजरीवाल और दिल्ली सरकार से पंगा नरेंद्र मोदी का बालहठ

हरिगोविंद विश्वकर्मा
नववर्ष की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली दिल्ली सरकार फिर आमने-सामने आ गए। दिल्ली के गृहमंत्री सतेंद्र जैन का आदेश नहीं मानने पर जिन दो अफसरों को सस्पेंड किया गया था, केंद्र ने उनके सस्पेंशन को रद्द कर दिया। केंद्र के क़दम के बाद दिल्ली की लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार एक बार फिर अपने आपको असहाय महसूस कर रही है। जो भी हो, केंद्र के क़दम से प्राइमा फेसाई यह साफ़ हो गया है कि केंद्र को चाहे जो भी क़ीमत चुकानी पड़े, वह केजरीवाल सरकार को पूरे पांच साल तक काम करने ही नहीं देगी।

दरअसल, इस बार पंगा सरकारी वकील और तिहाड़ जेल के कर्मियों की वेतनवृद्धि को लेकर हुआ। दिल्ली सरकार ने बिना केंद्र की मंजूरी के कैबिनेट से पास करके फ़ाइल लेफ़्टिनेंट गवर्नर नज़ीब जंग के पास भेज दी थी। नज़ीब ने संविधान का हवाला देकर फ़ाइल केंद्र के पास भेज दी। सतेंद्र जैन दिल्ली गृह विभाग में स्पेशल सेक्रेटरी यशपाल गर्ग और सुभाष चंद्रा से नोटिफिकेशन जारी करने का आग्रह कह रहे थे, परंतु संविधान का हवाला देते हुए दोनों अफ़सर आनाकानी कर रहे थे। इस पर सतेंद्र जैन ने दोनों को सस्पेंड कर दिया था। संविधान के मुताबिक दोनों निलंबित अफ़सरान दानिक्स कैडर में आते थे और और उन्हें केंद्र की मंजूरी के बाद केवल लेफ़्टिनेंट गवर्नर ही निलंबित कर सकते हैं। दरअसल, केंद्र शासित प्रदेशों के अधिकारियों को दानिक्स कैडर का माना जाता है. दानिक्स अफसरों का चयन संघ लोकसेवा आयोग की सिविल सर्विस परीक्षा के माध्य से किया जाता है।

2013-14 में केजरीवाल सरकार ने 49 दिन में गुड गवर्नेंस का परिचय दिया था। इसी आधार पर दिल्ली के लोगों ने सोचा था कि आम आदमी पार्टी को वोट देकर वे अच्छा फ़ैसला कर रहे हैं। पर केजरीवाल के दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी, कैबिनेट और भारतीय जनता पार्टी जिस तरह शुरू से नज़ीब जंग के ज़रिए जनता द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार को काम नहीं करने दे रहे हैं, उससे पूरे देश में बीजेपी के बारे में कम से कम अच्छा संदेश तो नहीं जा रहा है। केजरीवाल हर जगह कैमरे के सामने यही कह रहे हैं, “प्रधानमंत्री जी हमें काम करने दीजिए।“ इससे ख़ुद प्रधानमंत्री की छवि सबसे ज़्यादा ख़राब हो रही है। कमोबेश पिछले बिहार विधान सभा के चुनाव नतीजों में बीजेपी की इस कथित खुलेआम बेईमानी का भी कहीं न कहीं योगदान ज़रूर था।

हालांकि दूसरे कार्यकाल में केजरीवाल ख़ुद ही बेनकाब हो रहे थे। एक-एक करके वही क़दम उठा रहे थे, जिसकी कभी वह मुखालफत किया करते थे। उन्होंने जिस तरह गाली देकर आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों को निकाल बाहर फेंका था, वह कार्यशैली कमोबेश सोनिया गांधी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, जयललिता या ममता बैनर्जी जैसी सुप्रीमो कल्चर वाली थी। लेकिन, चूंकि आम आदमी पार्टी को दिल्ली की जनता ने ख़ुद अभूतपूर्व समर्थन दिया था, ऐसे में नरेंद्र मोदी, उनके कैबिनेट और बीजेपी को जनता के फ़ैसले को स्वीकार कर राज्य सरकार को उसी तरह चलने देना चाहिए था, जिस तरह आमतौर पर इस देश में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार चलती है। लेकिन केंद्र ने केजरीवाल के कामों में अनावश्यक दख़ल देकर उन्हें ख़ुद एक्सपोज़ होने ही नहीं दिया।

देश का आम आदमी यह भलीभांति जानता है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला है। लोग यह भी जानते हैं कि चूंकि भारत सरकार का मुख्यालय दिल्ली में है, इसलिए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता और यह संभव भी नहीं। साथ में लोग की जानकारी में यह भी है कि दिल्ली में विधान सभा का चुनाव उसी तरह होता है, जिस तरह देश में लोकसभा या किसी राज्य की विधानसभा के लिए चुनाव होता है। लोग यह भी जानते हैं कि कोई भी जनता जब किसी नेता को सरकार का नेतृत्व करने के लिए चुनती है, तो इसका मतलब यही होता है कि जनता पूरे होशों-हवास से उस नेता या उस दल अथवा उस गठबंधन को देश या राज्य में पांच साल तक शासन करने, जिसे नरेंद्र मोदी ‘सेवा’ कहते हैं, का अधिकार दिया है। इसी तरह देश की जनता ने मई 2014 में नरेंद्र मोदी और बीजेपी को वोट दिया था, तो दिल्ली की जनता ने साढ़े आठ महीने बाद अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को वोट दिया।

इन परिस्थितियों में संविधान का हवाला देकर लोकतांत्रिक चुनाव में जीत दर्ज करने वाले नेता, दल या गठबंधन को काम न करने देना अनैतिक, असंवैधानिक अपरिपक्व और तानाशाही भरा क़दम माना जाता है। ख़ासकर तब, जब केजरीवाल सरकार पुलिस को छोड़कर उन विषयों पर फैसले कर रही है, जो सीधे दिल्ली की जनता के हितों से जुड़े हैं। कम से कम केजरीवाल दिल्ली में पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति करने की हिमाकत तो कर नहीं रहे हैं, न ही वह केंद्र सरकार के कामकाज में दख़ल दे रहे हैं या कोई अवरोध खड़ा कर रहे हैं। वह अपने दायरे में रहकर काम कर रहे हैं, लेकिन केंद्र संविधान का हवाला देकर नज़ीब जंग के ज़रिए उनके हर फ़ैसले को पलट रहा है। देश के लोग इस बात का भी बहुत अच्छी तरह नोटिस ले रहे हैं और मुमकिन है साल भर बाद उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव में उसकी अभिव्यक्ति करें भी।

इस बात पर संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं कि प्रधानमंत्री, उनका कैबिनेट और बीजेपी पिछले 11 महीने से वह सब कर रहे हैं, जिसे तानाशाही कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। लोकतांत्रिक ढंग से जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को संविधान या क़ानून का हवाला देकर कोई फ़ैसले न लेने देना, एक तरह से अघोषित आपातकाल है। ऐसी मिसाल केवल 1975 में मिली थी, जब कई निर्वाचित सरकारों को इंदिरा गांधी ने बर्खास्त कर दिया था। दिल्ली में अप्रत्यक्ष रूप से वहीं सब हो रहा है, जिसे दिल्ली की जनता की इनसल्ट कहें तो ग़लत नहीं होगा।

नज़ीब जंग जो कुछ कर रहे हैं, उसे बीजेपी या उसके शासन के बेनिफिशियरीज़ के अलावा दूसरा कोई व्यक्ति अप्रूव नहीं कर सकता। नज़ीब केंद्र के इशारे पर लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को कोई काम नहीं करने दे रहे हैं। लोग समझ रहे हैं कि मोदी सरकार दिल्ली और दिल्ली की जनता के साथ खुला पक्षपात और बेइमानी कर रही है। जब यही सब करना था तो दिल्ली में विधान सभा या मुख्यमंत्री की क्या ज़रूरत? आख़िर जब काम ही नहीं करने देना था तो दिल्ली में विधान सभा का चुनाव कराने की क्या ज़रूरत थी? दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगे रहने देना था।

दरअसल, दिल्ली की जनता ने बीजेपी को वोट क्यों नहीं दिया? इस पर बीजेपी लीडरशिप ने कभी विचार ही नहीं किया। नरेंद्र मोदी ने 26 मई 2014 प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। उनके पास लोकसभा में 282 सीट यानी पूर्ण बहुमत से 10 सीट ज़्यादा थी। सरकार की गैरमौजीदगी में लेफ़्टिनेंट गवर्नर तब दिल्ली के शासक थे। यानी एक तरह से बीजेपी ही दिल्ली की सरकार चला रही थी। तब बीजेपी ने कोई अहम फ़ैसला नहीं लिया। वह सरकार बनाने का असफल जोड़तोड़ करती रही। 13 फरवरी को केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। यानी 26 मई 2014 से 12 फरवरी 2015 तक यानी 263 दिन दिल्ली का शासन बीजेपी के हाथ में था और जनता को दिल जीतने के लिए किसी नेता के लिए यह पर्याप्त समय था। लेकिन बीजेपी उसे भुना नहीं पाई। कांग्रेस से परेशान दिल्ली की जनता बीजेपी के 263 दिन के कार्यकाल में भी परेशान रही इसलिए उसने आम आदमी पार्टी को वेट दिया। इसमे जनता की क्या ग़लती, जिसका बदला नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार दिल्ली के लोगों से ले रही है। अब भी वक़्त है, नरेंद्र मोदी, उनका कैबिनेट और बीजेपी बालहठ छोड़कर दिल्ली सरकार को काम करने दें। ताकि केजरीवाल यह कह न सकें कि मोदी ने उन्हें काम ही नहीं करने दिया।