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सोमवार, 5 अगस्त 2019

अनुच्छेद 370 : आतंकवाद ख़त्म होते ही जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य बना दिया जाएगा


हरिगोविंद विश्वकर्मा
जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने का प्रावधान अस्थाई है। समझा जा रहा है कि जैसे ही राज्य में आतंकवाद ख़त्म होगा, जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाएगा। दरअसल, कांग्रेस ने सात दशक के दौरान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 रूपी गुब्बारे में इतनी अधिक हवा भरती गई, इतनी अधिक हवा भरती गई कि वह गुब्बारा अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचकर 5 अगस्त 2019 को फट गया। अनुच्छेद 370 रूपी गुब्बार इतनी बुरी तरह फटा है कि उसका दो तिहाई हिस्सा ग़ायब हो गया। उसका एकवल एक खंड शेष रह गया। नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने सावन के तीसरे सोमवार जब जम्मू-कश्मीर के बारे में अपनी नीति घोषित की तो हर कोई हक्का-बक्का रह गया, क्योंकि तीन चार दिनों से चल रहा सस्पेंस अचानक ख़त्म हो गया था।

अनुच्छेद 370 को पूरी तरह ख़त्म नहीं किया गया है। उसका केवल वही खंड लागू रहेगा, जो कहता है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। उसके बाक़ी सारे प्रावधान ख़त्म कर दिए गए, जिसके चलते राज्य को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ था। अनुच्छेद 370 का ही अंग होने के कारण अनुच्छेद 35A अपने आप ख़त्म हो गया। केंद्र सरकार का सबसे अहम फ़ैसला यह रहा कि जम्मू-ख्समीर को दो केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील कर दिया गया। अब जम्मू-कश्मीर विधानसभा के साथ केंद्र शासित प्रदेश होगा जबकि लद्दाख बिना विधान सभा के केंद्र शासित प्रदेश बन गया है। जम्मू-कश्मीर का अलग संविधान और अलग ध्वज ख़त्म कर दिया गया। इस तरह डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सपना साकार हो गया। कई दशक से चल रही कश्मीर समस्या का स्थाई हल ज़रूरी था। राजनैतिक हलकों में केंद्र सरकार के क़दम की सराहना की जा रही है। मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए कई विरोधी दलों ने केंद्र सरकार के फैसले का समर्थन किया है।
दरअसल, नए जम्मू-कश्मीर के लिए जमीन तक़रीबन एक महीने से तैयार की जा रही थी। पिछले महीने खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' में जम्मू-कश्मीर पर काफी कुछ कहा था। पिछले चार दशक से राज्य के मुख्यमंत्री रहे फारूक अब्दुल्ला, ग़ुलाम नबी आज़ाद, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती भी कुछ दिनों से काफ़ी बेचैन दिख रहे थे। कई लोग, ख़ासकर अलगाववादी कह रहे हैं कि अगर 370 या 35 A को ख़त्म किया गया तो घाटी में विद्रोह हो जाएगा। हालांकि विद्रोह की धमकियां महज़ भ्रांति थीं, क्योंकि राज्य में जितने लोग इसके समर्थन में हैं, उससे अधिक विरोध में। इसलिए, बहुत होगा, मुट्ठी भर लोग श्रीनगर की सड़कों पर निकलेंगे। ऐसे विरोध प्रदर्शन घाटी में पिछले तीन दशक से तक़रीबन रोज़ाना ही हो रहे हैं। एक और विरोध राज्य प्रशासन झेल लेगा।

दरअसल, 8 अगस्त 1953 को कश्मीर को भारत से अलग करने की साज़िश रचने के आरोप जम्मू-ख्समीर सरकार को बर्ख़ास्त करके तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को गिरफ़्तार करके जब जेल में डाला गया था तब भी घाटी में भारी विरोध हुआ था, लेकिन वह विरोध भी धीरे-धीरे शांत हो गया। ठीक इसी तरह इस बार कोई विरोध होगा, तो वह भी शांत हो जाएगा। दरअसल, पिछले क़रीब सात दशक से सत्तासुख भोगने वाले अब्दुल्ला-मेहबूबा जैसे लोग अनुच्छेद 35A और 370 ख़त्म करना तो दूर इन पर चर्चा से भी डर जाते थे। बहस या समीक्षा की मांग सिरे से ख़ारिज़ कर देते थे। दरअसल, 35A 370 जैसे विकास-विरोधी प्रावधान को नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल डेमोक्रेटिक पार्टी जैसी पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए बनाए रखना चाहती थीं, क्योंकि यह उनकी सियासत को बनाए रखने का कारगर टूल बन गया था।

वस्तुतः अनुच्छेद 35A के चलते राज्य में बेटियों के साथ घोर पक्षपात होता है। गैर-कश्मीरी से शादी के बाद बेटियां नागरिकता और संपत्ति का अधिकार खो देती थीं। मिसाल के तौर पर डॉ. फारुक अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला और बेटी सारा अब्दुल्ला ने गैर-कश्मीर से शादी की है। उमर की नागरिकता और संपत्ति का अधिकार जस का तस है, जबकि सारा अब न तो जम्मू-कश्मीर की नागरिक नहीं हैं, न ही उनके पास संपत्ति का अधिकार है। दरअसल, अनुच्छेद 35A 370 की विसंगतियां सबसे पहले 2002 में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के एक फ़ैसले के बाद सामने आईं थी। हाईकोर्ट ने गैर-कश्मीरी से शादी करने वाली कुपवाड़ा की अमरजीत कौर को 24 साल बाद न्याय देते हुए उनकी नागरिकता मान्य की और उनको पैतृक संपति पर अधिकार पाने का अधिकार दिया था। हाईकोर्ट के फैसले का वहां के राजनीतिक दलों ने तीव्र विरोधा किया। दौ साल के भीतर 2004 में एसेंबली में परमानेंट रेज़िडेंट्स डिसक्वालिफ़िकेशन बिल पेश किया था। उसका मकसद हाईकोर्ट का फैसला निरस्त करना था। यह बिल क़ानून नहीं बन सका तो इसका श्रेय विधान परिषद को जाता है, जिसने इसे पास नहीं होने दिया। विभाजन के समय 20 लाख हिंदू शरणार्थी राज्य में आए थे, लेकिन अनुच्छेद 35A के चलते ही उन्हें स्टेट सब्जेक्ट नहीं माना गया। वे नागरिकता से वंचित कर दिए गए। इनमें 85 फीसदी पिछड़े और दलित समुदाय से हैं।

26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद शेख अब्दुल्ला प्रधानमंत्री बने थे। उन्होंने पं जवाहरलाल नेहरू से सांठगांठ कर जम्मू-ख्समीर के लिए विशेष दर्जा हासिल कर लिया। उसी के तहत संविधान में अनुच्छेद 370 शामिल किया गया। 1954 में 14 मई को राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने एक अध्यादेश जारी कर राज्य के हित में संविधान में अनुच्छेद 35A का प्रावधान किया गया। उस अध्यादेश को भारतीय संसद की मजूंरी नहीं ली गई। 35A राज्य के बाहर से आए लोगों को नागरिकता नहीं देता। उन्हें यहां ज़मीन ख़रीदने, सरकारी नौकरी करने वजीफ़ा या अन्य रियायत पाने का अधिकार भी नहीं था। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान का धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं लागू नहीं होता था। इतना ही नहीं निरंकुश राजनीतिक वर्ग यह कहता था कि भारत की एकता अखंडता के लिए जम्मू-कश्मीर राज्य  ज़िम्मेदार नहीं होगा।


जम्मू-कश्मीर जैसे सीमावर्ती क्षेत्र की समस्या के लिए अगर पं. नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराया जाए,  तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। नेहरू की अदूरदर्शिता नतीजा पूरा मुल्क़ भुगत रहा था। अनुच्छेद 370 का सभी ने कड़ा विरोध किया था, पर नेहरू अंत तक अड़े रहे। ‘अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता और मज़बूरी’ का हवाला देकर वह इसे लागू कराने में सफल रहे। यहां तक कि डॉ. भीमराव आंबेडकर भी कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने के पक्ष में नहीं थे। शेख़ अब्दुल्ला को लताड़ते हुए उन्होंने ने साफ़ शब्दों में कहा था, “आप चाहते हैं, भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, वह आपके यहां सड़कें बनाए, आपको राशन दे और कश्मीर का वही दर्ज़ा हो जो भारत का है! लेकिन भारत के पास सीमित अधिकार हों और जनता का कश्मीर पर कोई अधिकार नहीं हो। ऐसे प्रस्ताव को मंज़ूरी देना देश के हितों से दग़ाबाज़ी करने जैसा है। मैं क़ानून मंत्री होते हुए ऐसा कभी नहीं करूंगा।” अनुच्छेद 370 का पुरज़ोर विरोध करते हुए डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1952 में पं. नेहरू से कहा, “आप जो करने जा रहे हैं, वह नासूर बन जाएगा और किसी दिन देश को विखंडित कर देगा। यह प्रावधान भारत देश नहीं, कई राष्ट्रों का समूह मानने वालों को मज़बूत करेगा। आज घाटी में जो हालात हैं, उन्हें देखकर लगता है कि मुखर्जी की आशंका ग़लत नहीं थी। 370 के कारण ही राज्य अलगाववाद की ओर मुड़ गया। देश के अंदर ही मिनी पाकिस्तान बन गया, जहां तिरंगे का अपमान होता था, देशविरोधी नारे लगाए जाते थे और भारतीयों की मौत की कामना की जाती थी।


एक सच यह भी है कि केंद्र इस राज्य को आंख मूंदकर पैसे देता रहा है, फिर भी राज्य में उद्योग–धंधा खड़ा नहीं हो सका। यहां पूंजी लगाने के लिए कोई तैयार नहीं, क्योंकि यह धारा आड़े आती हैं। उद्योग का रोज़गार से सीधा संबंध है। उद्योग नहीं होगा तो रोज़गार के अवसर नहीं होंगे। राज्य सरकार की रोज़गार देने की क्षमता कम हो रही है। क़ुदरती तौर पर इतना समृद्ध होने के बावजूद इसे शासकों ने दीन-हीन राज्य बना दिया था। यह राज्य केंद्र के दान पर बुरी तरह निर्भर था। इसकी माली हालत इतनी ख़राब रही है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन का 86 फ़ीसदी हिस्सा केंद्र देता है। इतना ही नहीं इस राज्य के लोग, ख़ासकर राजनीतिक क्लास के लोग पूरे देश के पैसे पर ऐश करते रहे हैं। राजनीतिक हलकों में कहा जा रहा है कि नए जम्मू-कश्मीर का भरपूर विकास होगा। बेरोज़गारी कम होगी और आतंकवाद पर लगाम लग सकेगा।

बहरहाल, जो भी हो इस फ़ैसले के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह भारत के इतिहास में दर्ज हो गए हैं। कह सकते हैं कि जम्मू-कश्मीर की सर्जरी बहुत जरूरी था। अब जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल छह साल से घटाकर पांच साल कर दिया गया है। सूचना पाने का अधिकार यानी आरटीआई अब जम्मू-कश्मीर में भी लागू होगा। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर के नेताओं ने इतनी अति कर दी थी कि उन्हें उनकी औक़ात बनाता ज़रूरी था। अब सही मायने में देश का एक संविधान एक ध्वज हो गया है।


रविवार, 7 अप्रैल 2019

क्या सबसे ज़्यादा ख़तरा आडवाणी से ही है मोदी ब्रांड को?


क्या सबसे ज़्यादा ख़तरा आडवाणी से ही है मोदी ब्रांड को?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
जीवन के आख़िरी दौर में प्रवेश कर चुके भारतीय राजनीति के पुरोधा लालकृष्ण आडवाणी क्यों रिटायर नहीं होना चाहते। वह उम्र के उस दौर में है, जब सामान्यतया इंसान की शारीरिक-मानसिक काम करने लायक नहीं रह जाता। ऐसे समय आडवाणी सक्रिय है। उनकी सक्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह चुनाव के ऐन मौक़े पर ब्लॉग लिखकर सरकार और भारतीय जनता पार्टी को सलाह दे रहे हैं। ऐसी सलाह दे रहे हैं, जिसका उत्तर देने में बीजेपी के मैनेजर्स को असुविधा हो रही है।
दिसंबर के बाद से ही आडवाणी चुप थे। मगर चुनावी प्रक्रिया शुरू होते ही ब्लॉग लिख दिया। अपने ब्लॉग में आडवाणी ने लिखा, बीजेपी में राजनीतिक असहमति रखने वालों को देशद्रोही बताने की परंपरा नहीं रही है। ज़ाहिर है, आडवाणी के ब्लॉग के बाद बीजेपी बचाव की मुद्रा में आ गई। सोशल मीडिया गर्म चुनावी मौसम में और गर्मी भर दी है। बीजेपी के विरोधियों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पर निशाना साधने का मौका दे दिया है। ऐसी बात नहीं है कि आडवाणी ने अपनी विशेष  गांधी स्टाइल में मोदी पर पहली बार हमला बोला है। वह पिछले पांच साल से इसी तरह धीरे-धीरे ब्रांड मोदी की धार कम करने की असफल कोशिश कर रहे हैं।


अभी पिछले दिसंबर में अटलबिहारी वाजपेयी की शोकसभा में की एक फोटो वायरल हो गई थी, जिसमें मोदी और आडवाणी आमने सामने थे। तस्वीर में मोदी हाथ पीछे करके खड़े थे, जबकि आडवाणी हाथ जोड़े दीन-हीन अवस्था में दिख रहे थे। यह तस्वीर इतनी ज़्यादा अपीलिंग थी कि इसे देखकर भावुक किस्म का आम आदमी निष्कर्ष निकलने लगा था कि देखिए मोदी ने कभी गुरु रहे आडवाणी को किस अवस्था में लाकर खड़ा कर दिया। एकलव्य जैसी गुरु-शिष्य की परंपरा में विश्वास करने वाले लोग अगले पर मन ही मन कहने लगे कि शिष्य का व्यवहार ठीक नहीं और अंत में सबकी सहानुभूति आडवाणी के साथ हो गई।

अगर इस प्रसंग के तह मे जाएं, तो मज़ेदार निष्कर्ष निकलता है। अमूमन होता है कि हम किसी से मिलते हैं, तो अभिवादन की भारतीय परंपरा के अनुसार हाथ जोड़ देते हैं या गर्मजोशी से हाथ मिलाते हैं या आत्मीयता थोड़ी अधिक होने पर गले लग जाते हैं। अभिवादन की यह औपचारिकता केवल चंद लमहों की ही होती हैं। लोग इसका नोटिस नहीं लेते, क्योंकि इसे भारतीय परंपरा में मानव का बहुत नैसर्गिक गेस्चर माना गया है। जो लोग हाथ जोड़कर अभिवादन करना पंसद करते हैं, वे भी कुछ पल हाथ जोड़ते हैं, फिर सामान्य अवस्था में आ जाते हैं। वीआईपी कल्चर वाले नेता पब्लिक अपीयरेंस में सबसे हाथ तो मिला नहीं पाते है, लिहाज़ा हाथ जोड़ लेते हैं।
आडवाणी के हावभाव और अभिवादन के तरीक़ा से पूरा देश वाकिफ रहा है। उनके हावभाव पर गौर करने वाले जानते है कि वह हमेशा से पब्लिक अपीयरेंस में हाथ जोड़कर आगे बढ़ते या लोगों से मिलते रहे हैं। 1990 के दशक में जब सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा पर निकले थे, तब भी आमतौर पर हाथ जोड़े रहते थे। वह हाथ जोड़े रहने वाली मुद्रा में इसलिए भी रहते थे, क्योंकि लगातार सामने लोग आते रहते थे, लिहाज़ा बार-बार हाथ जोड़ना और सामान्य अवस्था में आना असुविधाजनक था। इसी तरह, आडवाणी जब केंद्र में गृहमंत्री थे तब भी पब्लिक अपीयरेंस में हाथ जोड़े रहते थे। जून 2002 के दूसरे हफ़्ते में जब टाइम मैगज़िन के दिल्ली संवाददता नागरिक अलेक्स पैरी ने वाजपेयी को 'हॉफडेड पीएम' करार देते हुए चर्चित कवर स्टोरी लिखी, जिसके चलते उन्हें देश छोड़ना पड़ा और रातोरात आडवाणी उपप्रधानमंत्री बनाए गए थे, तक भी आडवाणी हाथ जोड़ने वाली मुद्रा में ही रहते थे। नब्बे के दशक के अंतिम और पिछले दशक के आरंभ के आडवाणी के विजुअल्स देखें तो वह हाथ जोड़े ही दिखेंगे।
दरअसल, आडवाणी की हाथ जोड़ने वाली स्टाइल जस की तस है, बस आजकल उसमें नई चीज़ जुड़ गई है। वह है चेहरे पर याचक वाला इक्सप्रेशन। पिछले चार-पांच साल से लोग उनमें हर मंच पर हाथ जोड़े याचक ही देख रहे हैं। ऐसा याचक, जिसके साथ बहुत ज़्यादा नाइंसाफ़ी हुई। आडवाणी का दूसरे नेताओं से सामना होने पर नहीं नोटिस नहीं लिया जाता, लेकिन जब सामना कभी उनके शिष्य रहे मोदी से होता है, तब हर कैमरामैन फोटो क्लिक कर लेता है। वाजपेयी की शोकसभा में हाथ मोदी भी जोड़े थे, लेकिन कुछ सेंकेंड के लिए, लेकिन आडवाणी हाथ जोड़े ही रहे और एक अवस्था ऐसी आ गई है कि मोदी सीधे खड़े दिखे और आडवाणी दीन-हीन याचक। इसी कारण वह तस्वीर वाइरल हुई।
आडवाणी की याचक मुद्रा वाली तस्वीर देखकर लगता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी अहंकारी हो गए और आडवाणी को दीन-हीन बना दिया। यह आडवाणी का अचूक हथियार है, महाबली अंग्रेज़ों के समक्ष महात्मा गांधी की अहिंसा की तरह। यह ब्रम्हास्त्र है और मोदी का पर्सनॉलिटी कल्ट डैमेज कर रहा है। इसके ज़रिए आडवाणी वह व्यक्त कर दे रहे हैं, जो वह मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने का विरोध कर नहीं व्यक्त कर सके थे।
हो सकता है आडवाणी यह नही चाहते हों, लेकिन उनकी दीनहीन याचक बुजुर्ग वाली मुद्रा मोदी को गाहे-बगाहे खलनायक शिष्य की इमैज दे रहा है। आडवाणी की इस मुद्रा से यही निष्कर्ष निकलता है कि जिस भाजपा को अपने ख़ून-पसीने से आडवाणी ने इस मुकाम तक पहुंचाया, उसी भाजपा में उनको राष्ट्रपति बनाना तो दूर की बात मोदी अब उनकी भी दुर्गति कर रहे हैं। आडवाणी का यह अचूक हथियार मोदी की छवि को नष्ट करने की वैसी ही ताक़त रखता है। ठीक वैसे ही जैसे अहिंसावादी ताक़त से गांधी जी ने अंग्रेज़ी साम्राज्य की नींव हिला दी थी।

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

क्या मोदी का अंधविरोध ही मुसलमानों का एकमात्र एजेंडा है?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारतीय मुसलमानों की समस्याओं को लेकर समय-समय पर कई तरह की सरकारी रिपोर्ट सामने आती रही हैं। यूपीए की तत्कालीन मनमोहन सरकार और महाराष्ट्र में पूर्व सीएम विलासराव देशमुख की ओर से भी मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति की पड़ताल के लिए अलग-अलग कमेटी गठित की गई, जिनमें मुसलमानों की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति को लेकर चौंकाने वाले तथ्य सामने आए।

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बहरहाल, अगर सोशल मीडिया या वॉट्सअप या दूसरे मेसेंजर्स पर पोस्ट हो रहे लेखोंविचारों या दूसरी सामग्रियों के कंटेंट पर गौर करेंतो एक तरफ़ से सारे मुसलमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं। केवल वही मुसलमान मोदी का समर्थन कर रहे हैंजो किसी न किसी तरह भाजपा या भाजपा नेताओं से जुड़े हैं। बाक़ी सब मोदी विरोधी खेमे में खड़े नज़र आ रहे हैं। चाहे अनपढ़ मजदूर मुसलमान हों या फिर उच्च शिक्षित मुस्लिम बुद्धिजीवीचाहे राजनेता हों अथवा सामाजिक कार्यकर्ताएक तरफ़ से सब के सब मोदी विरोध का परचम लहरा रहे हैं। मोदी का अंधविरोध इतना तीव्र है कि इन्हें मोदी के अलावा हर कोई मंजूर है। चाहे वह कोई भी हो। यहां तक कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे के विध्वंस के लिए कथित तौर पर सीधे ज़िम्मेदार लालकृष्ण आडवाणी से भी परहेज़ नहीं। बस मोदी को हटाओ। मोदी को हराओ। किसी भी क़ीमत पर हराओ। मोदी दोबारा प्रधानमंत्री न बनने पाएं।

इस अंध मोदी विरोध से आम आदमी ख़ासकर गैरमुस्लिम लोगों के मन में सवाल उठ रहा है कि क्या अंध मोदी विरोध ही मुसलमानों का एकमात्र एजेंडा हैआख़िर मुस्लिम बुद्धिजीवी दूसरे ज़रूरी मुद्दों पर इतने सक्रिय क्यों नहीं हैंक्या मुस्लिम समाज के समक्ष मोदी विरोध के अलावा और कोई समस्या नहीं हैदरअसलइस सवाल का जवाब तलाशने के लिए राजिंदर सच्चर कमेटीरंगनाथ मिश्रा आयोग और महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट पर गौर करना पड़ेगा। इन रिपोर्ट्स से पता चलता है कि आज की तारीख़ में मुस्लिम समाज के सामने सबसे ज़्यादा समस्या है। कोई दूसरा समाज आज इतनी समस्याओं से दो-चार नहीं हैजितना मुस्लिम समाज। सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट से सभी अवगत हैं। महाराष्ट्र में मुसलमानों की समस्या के लिए आज चर्चा करते हैं महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट्स की।

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दरअसल2006 में राजिंदर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लोकसभा में पेश होने के बाद 2008 में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने राज्य में मुसलमानों की शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट डॉ. महमूदुर रहमान की अगुवाई में छह सदस्यीय समिति का गठन किया। उसे महमूदुर रहमान समिति कहा गया। समिति ने रिपोर्ट अक्टूबर 2013 में कांग्रेस-एनसीपी सरकार को सौंप दीलेकिन राज्य सरकार ने उसे सार्वजनिक नहीं किया। इस बीच रिपोर्ट मीडिया में लीक ज़रूर हो गई। महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसएसएनडीटी वीमेन यूनिवर्सिटी की इकोनॉमिक्स फैकेल्टी और मुंबई यूनिवर्सिटी के निर्मला निकेतन कॉलेज ऑफ़ सोशल वर्क समेतकुल सात विश्वसनीय संस्थानों के भरोसेमंद सर्वेज़ और स्टडीज़ का हवाला दिया गया है। रिपोर्ट में मुसलमानों के बारे में कई हैरान करने वाले तथ्य सामने आए। महाराष्ट्र मेंदेहात की बात छोड़ देंमुंबई जैसे शहर में रहने वाले मुसलमानों की भी हालत एकदम पिछड़ी मानी जाने वाली अनुसूचित जाति और जनजाति से भी बदतर अवस्था में है। मुसलमानों को बैंकें क़र्ज़ देने से कतराती हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक़ महाराष्ट्र में 1.20 करोड़ मुसलमान हैंजिनमें 15 साल तक की आबादी 37 फ़ीसदी हैजो ज़्यादा जन्म दर दर्शाती है। पुरुष मुखिया वाले हर मुस्लिम परिवार में औसतन 6.1 सदस्य हैं जबकि महिला मुखिया वाले परिवार में 4.9 सदस्य। रिपोर्ट में बताया गया है कि ग़रीबी और उचित मेडिकेयर का अभाव मुस्लिम 60 साल के बाद जल्दी मर जाते हैं। इसीलिए 60 साल या उससे ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी महज़ 6.6 फ़ीसदी है। यह भी सीरियस रिपोर्ट है। लिहाज़ा इस पर बहुत गंभीर शोध की ज़रूरत है। ताकि मुसलमानों को असामयिक मौत से बचाया जा सके। यह बहुत भयावह निष्कर्ष है।
समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़राज्य में केवल 10 फ़ीसदी मुसलमान अपने खेत में कृषि कार्य करते हैं। 49 फ़ीसदी यानी क़रीब आधी मुस्लिम आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे गुज़र बसर करने मजबूर है जबकि पूरे देश में 34.4 फ़ीसदी मुसलमान ग़रीब तबके के हैं। राज्य में 20 फ़ीसदी मुसलमानों के पास राशन कार्ड नहीं ही है। इसी तरह 59 फ़ीसदी मुसलमान स्लम और बहुत गंदी बस्तियों में रहते हैं। इनमें भी केवल 18 फ़ीसदी लोगों के घर पक्के हैं। राज्य में बहुत बड़ी तादाद में मुस्लिम युवक बेरोज़गार हैं। 32.4 फ़ीसदी मुसलमान छोटे-मोटे काम करते हैं। शायद यही वजह है कि 45 फ़ीसदी मुसलमानों की परकैपिटा आमदनी महज़ 500 रुपए ही है। 34 फ़ीसदी मुसलमानों (आबादी का एक तिहाई) की मासिक आमदनी 10 हज़ार रुपए से भी कम है। 24 फ़ीसदी 10 से 20 हज़ार महीने कमाते हैंजबकि 20 से 30 हज़ार कमाने वाले मुसलमानों की तादाद 3.8 फ़ीसदी है। 30 से 40 हज़ार रुपए कमाने वाले मुसलमानों की तादाद केवल 1.0 फ़ीसदी है। यह रिपोर्ट मुसलमानों की विपन्नता दिखाती है।
महमूदुर रहमान की रिपोर्ट यह भी कहती है कि मुस्लिम समाज काफ़ी संपन्न लोग भी हैं। देश के बाक़ी समुदायों की तरह मुसलमानों में भी मुट्ठी भर लोग ही बेहतर जीवन जी पाते हैं। यानी केवल 6.0 फ़ीसदी मुसलमान हर महीने 50 हज़ार या उससे ज़्यादा आमदनी करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में महमूदुर रहमान की रिपोर्ट तक़रीबन सच्चर कमेटी जैसी ही है। शिक्षा में मुसलमानों की दशा बहुत दयनीय है। जहां देश में साक्षरता की दर 74 फ़ीसदी हैवहीं मुसलमानों मे साक्षरता मात्र 67.6 फ़ीसदी हैं। महाराष्ट्र में यह 65.5 फ़ीसदी से भी नीचे है। हालांकि,प्राइमरी स्तर पर मुस्लिम बच्चे हिंदुओं से बेहतर स्थिति में हैं। यानी हिंदुओं के 38 फ़ीसदी बच्चे प्राइमरी तक पहुंचते हैंतो मुसलमानों के 47 फ़ीसदी बच्चे स्कूल तक पहुंच जाते हैं। आमतौर पर 14 साल की उम्र में मुस्लिम बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं और बाल मज़दूर के रूप में काम करने लगते हैं। आर्थिक तंगी इसकी मुख्य वजह है। सेकेंडरी यानी 12वीं तक केवल 4.2 फ़ीसदी बच्चे पहुंच पाते हैं। उच्च शिक्षा का मुस्लिमों का आंकड़ा भयावह है। महज़ 3.1 युवक स्नातक तक पहुंचते हैं। ज़ाहिर है, इसीलिए उच्च कक्षाओं में मुसलमान दिखते ही नहीं।

रिपोर्ट के मुताबिक़राज्य में मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा का आंकड़ा तो बेहद निराश करने वाला है। महज़ एक फ़ीसदी लडकियां कॉलेज तक पहुंचती हैं। उच्च शिक्षा हासिल न कर पाने के कारण वे नौकरी वगैरह नहीं कर पाती और मजबूरी में पुरुषों का अत्याचार सहती हैं। उनके शौहर उनके विरोध के बावजूद एक से ज़्यादा निकाह कर लेते हैं। 2006 की थर्ड नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वें के मुताबिक़2.55 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाओं के पतियों के पास एक से अधिक बीवियां पाई गई थीं। मुसलमानों में दूसरे समुदायों की तुलना में अविवाहितोंतलाकशुदा और विधवाओं की संख्या बहुत ज़्यादा है। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिमों में मैरिटल स्टैटस महज़ 29 फ़ीसदी है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 33 फ़ीसदी बच्चे उर्दू पढ़ते हैंतो शहरों में क़रीब आधे (49 फ़ीसदी) बच्चे उर्दू पढ़ते हैं। 96 फ़ीसदी स्टूडेंट्स जनरल स्टडी करते हैं। महज़ 4 फ़ीसदी ही तकनीकी संस्थानों में जाते हैं। वोकैशनल एजुकेशन का परसेंटेज 0.3 फ़ीसदी यानी नहीं के बराबर है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि सरकारी ही नहींनिजी क्षेत्र में भी मुसलमानों को बहुत कम नौकरियां मिलती हैं।

अगर मीडिया में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की बात करें तो उर्दू मीडिया को छोड़ दें तो बाक़ी मीडिया जैसे बौद्धिक संस्थानों में भी इक्का-दुक्का मुस्लिम पत्रकार देखने को मिलते हैं। महमूदुर रहमान कमेटी का साफ़ निष्कर्ष है कि महाराष्ट्र में वाक़ई बहुमत में मुसलमानों की हालत बहुत दयनीय है। कमोबेश यही तर्क देते हुए सच्चर कमेटी भी मुस्लिम समाज के विकास पर ख़ास ध्यान देने की बात कही थी। संभवतः इसी तरह की रिपोर्ट के आधार पर 2007 की रंगनाथ मिश्रा कमेटी ने नौकरी में मुसलमानों को 10 फ़ीसदी आरक्षण देने की पैरवी की थी।
इन रिपोर्ट्स के आधार पर कहा जा सकता है कि मुस्लिम समाज आज ग़रीबीअशिक्षाबेरोजगारी और स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्या का सामना कर रहा है। लेकिन कोई बुद्धिजीवी इन समस्याओं पर नहीं सोचता। सब राग मोदी विरोध’ आलाप रहे हैं। गौर करने वाली बात है कि मुसलमानों का मोदी विरोध 2014 चुनाव में भी ऐसा ही था। मुसलमान मोदी का विरोध तब से कर रहे हैं जब सितंबर 2013 में उन्हें भाजपा ने प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया था। इसके बाद अधिकांश खाते-पीते मुसलमान चुनाव में मोदी के विरोध में लंगोट बांध कर खड़े हो गए। कोई मोदी के सिर इनाम रख रहा थातो कोई गला काटने की बात कर रहा था। कांग्रेस नेता इमरान मसूद ने तो मोदी को बोटी-बोटी काट डालने की धमकी दे डाली थी। लोग ऐसी हवा बना रहे थे कि मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो मुसलमानों की शामत आ जाएगी। यह अंध विरोध अभियान नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए वरदान साबित हुआ। मुसलमानों के विरोध के बावजूद मोदी प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे।

सबसे अहम बात यह है कि पिछले पांच साल कै दौरान मुसलमानों के अहित को लक्ष्य करके मोदी सरकार ने कोई भी फ़ैसला नहीं लिया। ट्रिपल तलाक़ विरोधी अध्यादेश को मुस्लिम विरोधी कतई नहीं कहा जा सकता। मुस्लिम महिलाओं को ट्रिपल तलाक़ की विभीषिका से मुक्त कराना हर भारतीय का फ़र्ज़ हैचाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। ऐसे में वह अध्यादेश समय की मांग है। मुसलमानों को भी यह स्वीकार करना होगा कि उनके यहां महिलाओं की हालत ज़्यादा दयनीय है। लिहाज़ामुस्लिम समाज को समझना होगा कि सबसे पहले उन समस्याओं को हल करने के लिए आगे आना होगा। उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कोई न कोई वजह तो है जिसके कारण देश में हर क्षेत्र में मुसलमान दूसरे समुदाय से पिछड़ रहे हैं। यह सोचना होगा कि क्यों आतंकवाद इस्लाम के गर्भ से पैदा हो रहा हैक्यों दुनिया भर के जिहादी मुसलमान ही हैंआतंकवाद का कोई धर्म नहीं होतायह कहकर इस समस्या को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस बारे में ‘बीइंग द अदर: द मुस्लिम इन इंडिया’ की लेखिका सईद नकवी लिखती हैं, “इस देश का मुसलमान दरअसल विकास की कीमत पर एक खास किस्म की मजहबी और सांस्कृतिक सनक का शिकार होकर रह गया है। इसके लिए मुसलमानों को तालीम देने वाले मुल्ले ही दोषी हैं।” 

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लिहाज़ा मोदी विरोध से पहले मुल्लाओं और मुल्लापन को विरोध करना होगा। मुसलमानों को उन कारकों का विरोध करना होगा जो उनके सर्वांगीण विकास में बाधक है। मुसलमान सालों से भारतीय संस्कृति और देश का हिस्सा हैं और उन्हें अपने विकास के लिए इन जमीनी समस्याओं से अपनी आने वाली पीढ़ी को निजात दिलानी होगी। सरकारों की ओर से उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति की पड़ताल समस्याओं को सुलझाने के लिए की गई है ना की राजनीतिक औजार के रूप में उनका इस्तेमाल करने के लिए। बेहतर होगा कि देश के मुसलमान अपनी समस्याओं को आगे आकर समझें और उसका समाधान निकालें। 

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

इंडियन एयरलांइस के विमान IC-814 को अपहृत करके कंधार ले जाने वाला उस्ताद गौरी वायुसेना के हमले में मारा गया


भारत दुश्मन को उसके घर में घुसकर मारने वाला इज़राइल व अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा देश बना
हरिगोविंद विश्वकर्मा
14 फरवरी 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में आतंकी हमले के बाद 12 दिन बाद आज तड़के भारतीय वायु सेना ने लाइन ऑफ कंट्रोल पार करके पाकिस्तान में जैश-ए-मोहम्मद के बालाकोट कैंपों पर 1000 किलोग्राम बम गिराया जिससे सभी शिविर तबाह हो गए। इसके अलावा जैश का अल्फा-3 कंट्रोल रूम भी नष्ट कर दिया गया है। वायुसेना ने बताया कि हमले में तकरीबन 300 आतंकवादी भी मारे गए हैं। भारत आगे भी कार्रवाई करेगा और अगर पाकिस्तान की ओर से किसी भी तरह क प्रतिक्रिया या दुस्साहस किया जाता है तो भारतीय सेना पूरी दमखम के साथ सामना करने के लिए तैयार है।
भारतीय वायुसेना का ऑपरेशन इस्लामाबाद से 190 किलोमीटर दूर बालाकोट, जहां कई आतंकी शिविर है, में किया गया। ऑपरेशन को सर्जिकल स्ट्राइक 2 कहा जा रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक 2 भी पहली सर्जिकल स्ट्राइक की तर्ज पर रात में की गई। वायुसेना ने इस बार तीन जगहों पर बमबारी की। पहला हमला वायुसेना के विमानों 3.45 बजे से 3.53 बजे के बीच किया। इसी तरह दूसरा और तीसरा हमला क्रमशः 3.48 से 3.55 बजे के बीच और 3.58 से 4.04 बजे के बीच हुआ। इसमें केवल 19 मिनट लगे और निशाने पर आतंकवादी संगठन के ठिकाने थे। 

सीधे शब्दों में कहें तो यह घर में घुसकर मारने की कार्रवाई। 14 फरवरी के पुलवामा आतंकी हमले का बदला लेते हुए भारतीय वायुसेना के मिराज 2000 विमानों ने एलओसी के उस पार जाकर आतंकवादी टेरर लॉन्चिंग पैड पर अंधाधुंध बम गिराए। यह साहसिक कार्रवाई करने के बाद दुश्मन को घर में घुसकर मारने वाला भारत इज़राइल और अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा देश बन गया है। इससे पहले दुश्मन को उसके घर में घुस कर केवल अमेरिका और इज़राइल ही मारते रहे हैं। अब भारत इन दोनों देशों के समकक्ष पहुंच गया है।

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विदेश सचिव विजय गोखले ने मीडिया को बताया कि विश्वसनीय खुफिया जानकारी मिली थी कि देश के विभिन्न हिस्सों में जैश-ए-मोहम्मद एक और आत्मघाती आतंकी हमले की कोशिश कर रहा था। फिदायीन जिहादियों को इस काम के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा था। इसलिए भारत ने बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के सबसे बड़े कैंप पर हमला किया। आज तड़के भारत ने बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद का सबसे बड़ा प्रशिक्षण शिविर को ध्वस्त कर दिया। इस ऑपरेशन में जैश-ए-मोहम्मद में बड़ी संख्या में आतंकवादी, प्रशिक्षक, सीनियर कमांडर, फिदायीन हमला करने वाले जिहादी मारे गए। बालाकोट में बड़ी संख्या में जैश के आतंकवादी, ट्रेनर, सीनियर कमांडर को सफाया कर दिया गया। इस कैंप का नेतृत्व मसूद अजहर का बहनोई मौलाना यूसुफ अजहर उर्फ उस्ताद गौरी कर रहा था। वह भी मारा गया। उस्ताद गौरी इंडियन एयरलांइस के विमान IC-814 को अपहृत करके कंधार ले गया। जिसके बदले भारत को मौलाना मसूद अजहर समेत 5 आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा था।  

दरअसल, जब भी सेना कोई ऐसा ऑपरेशन करती है जो स्पेशिफिक टारगेट ओरिएंटेड होता है यानी वह ऑपरेशन जिसमें सिविलियन्स को कोई नुकसान नहीं होता, केवल दुश्मन की सेना या जो टारगेट पर है उस पर स्ट्राइक करती है और उसी को नुकसान पहुंचाती है। इस तरह का हमला सेना की योजनाबद्ध तरीके से करती है। भारत पहले ही साफ कर दिया था कि पुलवामा आतंकी हमले का बदला लिया जाएगा। इसके बाद वायसेना ने रणनीति बनाई और पीएमओ से गो अहेड का सिग्नल मिलने के बाद भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान एलओसी के अंदर घुस गए और जैश के आतंकवादी पैड अल्फा-3 कंट्रोल को नष्ट कर दिया।
दरअसल, इस तरह का हमला 'सरप्राइज' होता है, यानी टारगेट पर अचानक हमला कर दिया जाता है ताकि सामने वाले को जवाब देने का मौका ही न मिले। असल में यह वायुसेना का नियंत्रित हमला था। इसे वायुसेना ने खास तरह से डिजाइन किया था। भारतीय सेना की घर में घुसकर मारने की यह तीसरी घटना है। इससे पहले सेना ने दो साल दो सर्जकल स्ट्राइक किया था। सितंबर 2016 में स्पेशल फोर्सेज के कमांडोज़ कश्मीर में एलओसी के अंदर जाकर आतंकी लांच पैड को नष्ट किए थे, उससे पहले जून 2015 में म्यानमार के जंगल में घुसकर नगा आतंकवादियों को मार डाला था।

घर में घुसकर मारने के हुनर में इज़राइल अमेरिका से भी ज़्यादा ख़तरनाक रहा है। इज़राइल डिफेंस फोर्सेस के 100 कमांडो ने 4 जुलाई 1976 को यूगांडा में 'पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन फॉर फिलिस्तीन'  के आतंकवादियों के ख़िलाफ़ यूगांडा के एंटेबे हवाई अड्डे पर सर्जिकल स्ट्राइक किया था और सभी फिलीस्तीन आतंकवादियों को मौत के घाट उतार दिया था। दरअसल, फिलीस्तीन आतंकियों ने फ्रैंच विमान का अपहरण करके 106 इज़राइली नागरिकों को बंधक बना लिया था। सबसे बड़ी बात यूगांडा का राष्ट्रपति आतंकवादियों का समर्थन कर रहा था। उस कार्रवाई में इजराइली कमांडो ने यूगांडा के 37 जवानों को भी मार डाला था। अततः अपने नागरिकों को मुक्त कराकर इज़राइल वापस लौट गए थे। इज़राइल ने उस ऑपरेशन को 'ऑपरेशन एंटेबे' का नाम दिया था। उस ऑपरेशन में इज़राइल के मौजूदा प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के भाई लेफ्टिनेंट कर्नल योनातन नेतन्याहू शहीद हो गए थे।
सर्जिकल स्ट्राइक शब्द पहली बार 2001 में तब चर्चा में आया था। जब अमेरिका की अगुवाई में तालिबान और अल कायदा के ठिकानें पर हमला किया गया। अमेरिकी सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक के तहत एयरक्राफ्ट का इस्तेमाल किया था। बहरहाल, सर्जिकल स्ट्राइक का यह सिलसिला 2003 में शुरू हुए इराक युद्ध में भी चला। इराक युद्ध के दौरान इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन को पकड़ने के लिए अमेरिकी सेनाएं सर्जिकल स्ट्राइक करती थीं। अमेरिकी और 2004 में सद्दाम हुसैन को पकड़ने के लिए अमेरिका ने सर्जिकल स्ट्राइक किया था। दुनिया का सबसे बड़ा सर्जिकल स्ट्राइक अमेरिका ने मई 2011 में किया था और दुनिया के मोस्टवांटेड आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को उसके ठिकाने पर घुस कर मार गिराया और उसका शव समुद्र में फेंक दिया। इस कार्य को अंजाम दिया अमेरिकी की इलीट पोर्स यूएस नेवी सील्स ने।

इसी तरह 1961 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैंनेडी ने क्यूबा के फीडल कास्ट्रो को सत्ताच्युत करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक किया था और कास्ट्रो को हटाने में सफल रहा। इस लड़ाई में स्पेशल फोर्स के कमांडोज़ ने कास्ट्रो समर्थक 100 सैनिकों को मार डाला था। 1979 में ईरानी छात्रों ने तेहरान में 53 अमेरिकी कर्मचारियों को अमेरिकन दूतावास में बंधक बना लिया था। जिमी कार्टर का वह सर्जिकल स्ट्राइक –ऑपरेशन ईगल क्लॉ- असफल रहा, क्योंकि अमेरिकन स्पेशल फोर्सेस को भारी नुसान उठाना पड़ा और किसी बंधक को छुड़ाया नहीं जा सका। 1989 में पनामा के तानाशह मैनुएल नोरिगा को सत्ताच्युत करने के लिए अमेरिका की स्पेशल फोर्सेस ने सर्जिकल स्ट्राइक किया। इस ऑपरेशन को अंजाम लादेन को मारने वाली यूएस नेवी सी ने दिया। हमले के बाद अततः नोरिगा ने समर्पण कर दिया।

सन् 1993 में यूएस स्पेशल फोर्स को सोमाली सेनापति मोहम्मद फराह ऐदीदी को पकड़ने के लिए किया गया सर्जिकल स्ट्राइक बुरी तरह असफल रहा। विरोधी सैनिकों ने दो यूएस ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर को मार गिराया। 18 अमेरिकी जवान मारे गए जबकि 70 ज़ख्मी हुए। सन् 2003 में इराकी सेना ने सीरिया में यूएस सोल्जर जेसिका लिंच को पकड़ लिया। नौ दिन बाद अमेरिकी स्पेशल फोर्स ने अस्पताल पर सर्जिकल स्ट्राइक करके जसिका को छुड़ा लिया। सन् 2003 में ही सीआईए ने सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान में किया। दरअसल 9/11 का की प्लानर खालिद शेख मोहम्मद समेत कई आतंकवादियों के पकड़ने के लिए यह ऑपरेशन किया गया। सर्जिकल स्ट्राइक रावलपिंडी में हुई थी। सन् 2006 में इराक में अल क़ायदा नेता अबु मुसाब अल-ज़रवाक़ी को पकड़ने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक किया था। इस हमले में अबु मुसाब अल-ज़रवाक़ी अमेरिकी सेना के हाथ मारा गया।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

कुलभूषण जाधव भारत वापस आएंगे या सरबजीत जैसा होगा हाल?

कुलभूषण जाधव भारत वापस आएंगे या सरबजीत जैसा होगा हाल?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
जम्मू कश्मीर के पुलवामा आतंकी हमले में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने और पाकिस्तान को कड़ा सबक़ सिखाने के अलावा एक और बात आजकल हर भारतीय के मन में कौंध रही है कि क्या भारत पूर्व इंडियन नेवी ऑफ़िसर कुलभूषण जाधव को सकुशल स्वदेश लाने में सफल हो सकेगा या इस भारतीय सपूत का हश्र सरबजीत सिंह की तरह ही होगा?

दुनिया देख चुकी है कि पाकिस्तान के लाहौर की सेंट्रल जेल में कैसे सरबजीत को पीट पीटकर मार डाला गया था। सरबजीत के बारे में पाकिस्तान की बताई कहानी के अनुसार, 26 अप्रैल 2013 को तक़रीबन दोपहर के 4.30 बजे सेंट्रल जेल, लाहौर में कुछ कैदियों ने ईंट, लोहे की सलाखों और रॉड से सरबजीत पर हमला कर दिया था। नाजुक हालत में सरबजीत को लाहौर के जिन्ना अस्पताल में भर्ती करवाया गया। इलाज के दौरान वह कोमा में चले गए और 1 मई 2013 को जिन्ना हॉस्पिटल के डॉक्टरों  ने सरबजीत को ब्रेनडेड घोषित कर दिया। लिहाज़ा उनका शव भारत वापस आया था।

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कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान की सैनिक अदालत ने फांसी की सज़ा सुनाई है और वह फिलहाल जेल में बंद है। भारत की ओर से पाकिस्तान के इस एकतरफा फ़ैसले को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस को चुनौती दी है। इस केस की अगली सुनवाई 19 फरवरी से हेग में शुरू हो रही है। इस मुक़दमे में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में भारत का पक्ष बेहद मज़बूत है। अगर भारत की ओर से इस केस में किसी तरह की बड़ी भूल या ब्लंडर नहीं किया गया तो इस बात की पूरी संभावना है कि अंतरराष्ट्रीय अदालत भारत के पक्ष में फ़ैसला दे सकता है। अगर यह मुमकिन हुआ तो भारतीय विदेश नीति के लिए यह इतिहास की सबसे बड़ी जीत होगी। हेग में इस केस की अगली सुनवाई के दौरान पाकिस्तान अपना पक्ष रखेगा। इस तरह कह सकते हैं कि जाधव का मामला आने वाले दिनों में एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियों में आने वाला है।

अंतरराष्ट्रीय अदालत में पिछले साल 31 दिसंबर, 2018 को पाकिस्तान ने जाने या अनजाने एक ऐसा क़दम उठाया जिससे भारत और कुलभूषण जाधव का पक्ष और भी ज़्यादा मज़बूत हो गया। पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने अंतरराष्ट्रीय अदालत के उस फ़ैसले के पक्ष में वोट दिया, जिसका संदर्भ भारत ने कुलभूषण जाधव के केस में दिया है। पाकिस्तान के इस क़दम को कुलभूषण केस में किया गया सेल्फ़-गोल माना गया था। दरअसल, पहले सुनवाई के दौरान भारत ने कुलभूषण को कांसुलर ऐक्सेस न देने के मामले में 2004 के अवीना केस और दूसरे मेक्सिकन नागरिकों के संदर्भ में इंटरनेशनल कोर्ट के फ़ैसले से जोड़ दिया था। इस केस में अमेरिका पर वियना कन्वेंशन का उल्लंघन करने का आरोप साबित हुआ था। अमेरिका ने मेक्सिको को मौत की सजा पाए मेक्सिकन नागरिकों को कांसुलर ऐक्सेस नहीं दी थी।

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दरअसल, पाकिस्तान ने उस समय भारत समेत 68 दूसरे देशों के साथ संयुक्त राष्ट्र के उस प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया था, जिसमें कहा गया है कि अमेरिका अंतरराष्ट्रीय अदालत के अवीना फ़ैसले को तत्काल जस का तस लागू करे। अमेरिका 14 साल से लागू करने से इनकार कर रहा है। चूंकि पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय अदालत के फ़ैसले के पक्ष में वोट दिया है, इसलिए यही फ़ैसला कुलभूषण के मामले में अब उसके गले की हड्डी बनने जा रहा है। भारत की ओर से निश्चित तौर पर कोर्ट के समक्ष अवीना जजमेंट के समर्थन में पाकिस्तान के वोट देने का मसला भी उठाया जाएगा।

अंतरराष्ट्रीय अदालत में जिरह के दौरान भारत की ओर से यही पूछा जाएगा कि अगर पाकिस्तान अवीना जजमेंट को लागू करने का पक्षधर है, जो वस्तुतः भारत के स्टैड का केंद्र बिंदु है तो वह कुलभूषण जाधव केस में उसी फ़ैसले को मानने से इनकार क्यों कर रहा है? अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पाकिस्तान अपने स्टैड के ख़िलाफ़ जाकर वोट दे दिया था। इससे पहले वह कहता था कि कुलभूषण जाधव का मामला अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। जाधव को जासूस बताकर पाकिस्तान की सैन्य अदालत मौत की सजा सुना चुकी है और इसके बाद भी भारत को जाधव तक पहुंचने की राजनयिक पहुंच की अनुमति नहीं दी। कुलभूषण के बारे में भारत की ओर से 16 बार राजनयिक के ज़रिए जानकारी मांगी गई, लेकिन पाकिस्तान लगातार इनकार करता रहा और कोई जानकारी नहीं दी।

वस्तुत: वियना संधि समझने के लिए अवीना केस ठीक से समझना बहुत ज़रूरी है। अवीना केस मेक्सिको के 54 नागरिकों का मामला है, जिन्हें अमेरिका के विभिन्न राज्यों में मौत की सज़ा सुनाई गई थी। मेक्सिको ने जनवरी 2003 में अमेरिका के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय अदालत की शरण में पहुंचा। मेक्सिको ने कहा कि उसके नागरिकों को गिरफ़्तार कर मुक़दमा चलाया गया और दोषी ठहराकर मौत की सज़ा सुना दी गई, जो वियना कन्वेंशन के अनुच्छेद 36 का सीधा उल्लंघन है। दरअसल, दुनिया के सभी स्वतंत्र एवं संप्रभु देशों के बीच आपसी राजनयिक संबंध को लेकर राष्ट्र संघ की पहल पर सबसे पहले सन् 1961 में वियना सम्मेलन हुआ। इसमें राजनियकों को विशेष अधिकार देने के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि का प्रावधान किया गया। 1963 में इस संधि को और विस्तृत रूप दिया गया। इसे ‘वियना कन्वेंशन ऑन कांसुलर रिलेशंस’ कहा गया। इसका मकसद विभिन्न देशों के बीच कांसुलर रिलेशंस का ख़ाका तैयार करना था। किसी देश का कांसुल दूसरे देश में दो तरह के काम करता है। पहला, मेजबान देश में अपने नागरिकों के हितों की रक्षा करना। दूसरा, उस देश के साथ आर्थिक और वाणिज्यिक संबंध स्‍थापित करना।

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इस अहम अंतरराष्ट्रीय संधि में कुल 79 अनुच्छेद हैं, जिनमें अनुच्छेद 36 सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। इसके तहत अगर कोई विदेशी नागरिक गिरफ़्तार किया गया है या हिरासत में लिया गया है तो बिना किसी देरी के उसका (गिरफ्तार व्यक्ति का) उसके देश के दूतावास या कांसुलेट से तुरंत संपर्क कराया जाना चाहिए और गिरफ़्तारी या हिरासत में रखने की सूचना उन्‍हें दी जानी चाहिए। गिरफ़्तार विदेशी नागरिक के आग्रह पर पुलिस को संबंधित दूतावास या राजनयिक को फ़ैक्स करके इसकी सूचना भी देनी पड़ेगी। फ़ैक्स में गिरफ़्तार व्यक्ति का नाम, गिरफ़्तारी की जगह और वजह भी बतानी होगी। गिरफ़्तार विदेशी नागरिक को किसी भी सूरत में राजनयिक पहुंच देनी होगी। वियना संधि का ड्राफ्ट इंटरनेशनल लॉ कमीशन ने तैयार किया। 1964 में यह संधि लागू हुई। फरवरी 2017 तक इस संधि पर कुल 191 देशों ने दस्तख़त कर चुके थे। अंतरराष्ट्रीय अदालत ने अमेरिका को वियना कन्वेंशन का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन करने का दोषी ठहराया और अपने फ़ैसले में कहा कि अमेरिका मेक्सिकन नागिरकों को सुनाई गई सजा पर फिर से विचार करे और मेक्सिको को कांसुलर ऐक्सेस दे।

अमेरिका को अंतरराष्ट्रीय अदालत ने वियना संधि का उल्लंघन करने का दोषी ठहराया और कहा कि अमेरिका सजा पर पुनर्विचार करे और मेक्सिको को कांसुलर ऐक्सेस दे। भारत ने इंटरनेशनल कोर्ट में कुलभूषण का केस इसी संधि के तहत उठाया है। अनुच्छेद 36 के प्रावधानों का हवाला देते हुए भारत ने कहा कि पाकिस्तान कुलभूषण के बारे में कोई जानकारी क्यों नहीं दे रहा है? जाधव को राजनयिक पहुंच दूर क्यों रखा जा रहा है? भारत कुलभूषण के ख़िलाफ़ दायर आरोपपत्र की कॉपी मांग रहा है, लेकिन पाकिस्तान साफ़ इनकार कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून के जानकारों का भी मानना है कि पाकिस्तान तथ्य जिस तरह छुपा रहा है या सूचना देने से आनाकानी कर रहा है, वह संदेह पैदा कर रहा है। कम से कम कोई देश किसी भी विदेशी जासूस के साथ ऐसा सलूक नहीं करता कि संबंधित देश को उसके बारे में कोई जानकारी ही न दी जाए। हेग में पिछली सुनवाई में भारत ने अपना पक्ष बड़ी मज़बूती से रखा था। कुलभूषण की गिरफ़्तारी को भारत ने वियना संधि का उल्लंघन साबित कर किया तो अदालत ने इस्लामाबाद को जमकर लताड़ लगाई थी। इसलिए इस बार इमरान ख़ान सरकार ज़्यादा सतर्क है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा है कि कथित भारतीय जासूस के खिलाफ पक्के सबूत पेश करेगा। पाकिस्तान की कानूनी टीम इस पर दिन रात काम कर रही है।

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पाकिस्तान का आरोप है कि कुलभूषण जाधव भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के लिए काम करते थे। वह ईरान से इलियास हुसैन मुबारक़ पटेल के नकली नाम पर पाकिस्तान आया जाया करते थे। इस्लामाबाद का कहना है कि 29 मार्च 2016 को उन्हें बलूचिस्तान प्रांत के किसी जगह से गिरफ़्तार किया गया। पाकिस्तान का दावा है कि कुलभूषण बलूचिस्तान में विध्वंसक गतिविधियों में शामिल रहे हैं। इसी आरोप के लिए 11 अप्रैल 2017 को पाकिस्तान के मिलिट्री कोर्ट ने कुलभूषण को मौत की सजा सुनाई, जिसका भारत सरकार व भारतीय जनता ने भारी विरोध किया। भारत सारे आरोपों से इनकार करता आया है। उसका कहना है कि कुलभूषण को ईरान से किडनैप कर लिया गया। भारत हमेशा उन्हें इंडियन नेवी से रिटायर्ड ऑफ़िसर ही कहता रहा है जो ईरान में अपना बिज़नेस कर रहे थे। भारत ने साफ़ कर दिया है कि कुलभूषण जाधव का देश की सरकार से कोई लेना-देना नहीं है।भारत का दावा है कि कुलभूषण को ईरान से किडनैप किया गया। सन् 1970 में महाराष्ट्र के सांगली में जन्मे कुलभूषण के पिता सुधीर जाधव मुंबई पुलिस में वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। उनका बचपन दक्षिण मुंबई में गुजरा था। उम्र में बड़े उन्हें भूषण और छोटे उन्हें “भूषण दादा” कहते थे। फुटबॉल के शौक़ीन कुलभूषण ने 1987 में नेशनल डिफेन्स अकादमी में प्रवेश लिया। 1991 में नौसेना में शामिल हुए। सेवा-निवृति के बाद ईरान में व्यापार शुरू किया था। उसी सिलसिले में वह ईरान में थे, जहां से अपहृत करके उन्हें पाकिस्तान ले जाया गया था।

भारत में लोग कुलभूषण की गिरफ़्तारी की ख़बर आने के बाद से ही ख़ासे परेशान हैं। वॉट्सअप, फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल नेटवर्किंग पर कुलभूषण को बचाने के लिए कई साल से मुहिम चल रही है और उन्हें किसी भी क़ीमत पर सकुशल देश में लाने की अपील प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से की जा रही है। भारत में लोगों का मानना है कि सरकार को अपनी पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए ताकि कुलभूषण को सही सलामत वापस स्वदेश वापस लाया जा सके।

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

मीनारा मस्जिद - मुंबई का अजमेर शरीफ



हरिगोविंद विश्वकर्मा
यूं तो माहे रमज़ान हर मुसलमान के लिए खास होता है और ज़्यादातर मुलमान पूरे महीने भर रोजा रखते हैं। रोजे के इस महीने में दक्षिण मुंबई की मशहूर मस्जिद मीनारा मस्जिद में नमाज पढ़ने और सजदा करने का मौका मिल जाए तो इबादत में चांर चांद लग जाता है। इसीलिए रमजान महीने में मीनारा मस्जिद में चहल-पहल बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। सबसे बड़ी बात महीने भर यहां रोजाना ढाई हजार लोग एक साथ पांचों वक्त की नमाज अता करने हैं।
मीनारा मस्जिद मुंबई की सबसे पुरानी मस्जिदों में से एक रही है। इसका निर्माण सन् 1835-1840 के बीच हुआ। मीनारा मस्जिद के मुख्य ट्रस्टी जनाब अब्दुल वहाब बताते हैं कि मीनारा मस्जिद के निर्माण के बाद से ही यहां नमाज अता करने का सिलसिला शुरू हो गया था, लेकिन मीनारा मस्जिद की ओनर मीनारा मस्जिद ट्रस्ट का पंजीकरण बॉम्बे की ब्रिटिश हुकूमत में चैरिटी विभाग में 30-35 साल बाद 1879 में हो पाया। दो मंजिली (ग्राउंड फ्लस वन प्लस टैरेस) यह पाक मस्जिद 1850 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में फैली है। इसके पहले मुख्य ट्रस्टी जनाब अली मोहम्मद मर्चेंट थे।
मीनारा मस्जिद का निर्माण हलाई मेमन जमात के कारोबारी परिवार ने करवाया। इस्लाम में बहुत ज्यादा आस्था रखने वाले हलाई मेमन जमात का परिवार अपनी आमदमी का एक बड़ा हिस्सा धर्म-कर्म, इबादत और दान पर खर्च कर देता था। मीनारा मस्जिद और दूसरे धर्मस्थलों का निर्माण उसके परोपकार का हिस्सा था। यह मस्जिद रंग बिरंगी सजावट के चलते रात में जगमग करती रहती है।
दरअसल, बॉम्बे के सात टापुओं में से दो बॉम्बे और मजगांव द्वापों को रिक्लेम करने के बाद बनी जगह पर मेमन समुदाय के कारोबारी आकर बसे। उस समय आसपास कोई मस्जिद नहीं थी। इससे जमात के लोगों को नमाज अता करने में असुविधा होती थी। उसी असुविधा को दूर करने के लिए मीनारा मस्जिद का निर्माण कराने का फैसला लिया। जनाब अब्दुल वहाब बताते हैं कि पूरा मोहम्मद अली रोड और आसपास के इलाके को मेमन समुदाय ने ही बसाया और गुलजार किया है। मेमन समुदाय के कारोबारियों ने ही उस दौर में मीनारा मस्जिद के अलावा जकारिया मस्जिद समेत कई मस्जिदों और गरगाहों का निर्माण करवाया।
मीनारा मस्जिद की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस मस्जिद परिसर में एक दरगाह भी है और यहां अजमेर शरीफ की तरह कई सूफी संतों की मजारें भी है। इस कारण नमाज के लिए इसकी अहमियत बहुत बढ़ जाती है। मीनारा मस्जिद एक तरह से मोहम्मद अली रोड ही नहीं पूरी दक्षिण मुंबई की ताज की तरह है। पिछले साल इस मस्जिद में सोलर सिस्टम लगा दिया गया। यहां की बिजली की खपत का 35 हिस्सा सोलर ऊर्जा से आता है। उसके लिए टैरेस पर सोलर पैनल लगाए गए है। मीनारा मज्सिद मुंबई की पहली मस्जिद है जहां गैरपरंपरागत ऊर्जा का इस्तेमाल हो रहा है। कुल मिलाकर यह मस्जिद विश्व बंधुत्व एवं भाईचारे का संदेश देती है।