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रविवार, 17 अगस्त 2014

क्या महात्मा गांधी को सचमुच सेक्स की बुरी लत थी?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी की कथित सेक्स लाइफ़ पर एक बार फिर से बहस छिड़ गई है. लंदन के प्रतिष्ठित अख़बार द टाइम्स के मुताबिक गांधी को कभी भगवान की तरह पूजने वाली 82 वर्षीया गांधीवादी इतिहासकार कुसुम वदगामा ने कहा है कि गांधी को सेक्स की बुरी लत थी, वह आश्रम की कई महिलाओं के साथ निर्वस्त्र सोते थे, वह इतने ज़्यादा कामुक थे कि ब्रम्हचर्य के प्रयोग और संयम परखने के बहाने चाचा अमृतलाल तुलसीदास गांधी की पोती और जयसुखलाल की बेटी मनुबेन गांधी के साथ सोने लगे थे. ये आरोप बेहद सनसनीख़ेज़ हैं क्योंकि किशोरावस्था में कुसुम भी गांधी की अनुयायी रही हैं. कुसुम, दरअसल, लंदन में पार्लियामेंट स्क्वॉयर पर गांधी की प्रतिमा लगाने का विरोध कर रही हैं. बहरहाल, दुनिया भर में कुसुम के इंटरव्यू छप रहे हैं.
वैसे तो महात्मा गांधी की सेक्स लाइफ़ पर अब तक अनेक किताबें लिखी जा चुकी हैं. जो ख़ासी चर्चित भी हुई हैं. मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार जेड ऐडम्स ने पंद्रह साल के गहन अध्ययन और शोध के बाद 2010 में गांधी नैकेड ऐंबिशन लिखकर सनसनी फैला दी थी. किताब में गांधी को असामान्य सेक्स बीहैवियर वाला अर्द्ध-दमित सेक्स-मैनियॉक कहा गया है. किताब राष्ट्रपिता के जीवन में आई लड़कियों के साथ उनके आत्मीय और मधुर रिश्तों पर ख़ास प्रकाश डालती है. मसलन, गांधी नग्न होकर लड़कियों और महिलाओं के साथ सोते थे और नग्न स्नान भी करते थे.
देश के सबसे प्रतिष्ठित लाइब्रेरियन गिरिजा कुमार ने गहन अध्ययन और गांधी से जुड़े दस्तावेज़ों के रिसर्च के बाद 2006 में ब्रम्हचर्य गांधी ऐंड हिज़ वीमेन असोसिएट्स में डेढ़ दर्जन महिलाओं का ब्यौरा दिया है जो ब्रम्हचर्य में सहयोगी थीं और गांधी के साथ निर्वस्त्र सोती-नहाती और उन्हें मसाज़ करती थीं. इनमें मनु, आभा गांधी, आभा की बहन बीना पटेल, सुशीला नायर, प्रभावती (जयप्रकाश नारायण की पत्नी), राजकुमारी अमृतकौर, बीवी अमुतुसलाम, लीलावती आसर, प्रेमाबहन कंटक, मिली ग्राहम पोलक, कंचन शाह, रेहाना तैयबजी शामिल हैं. प्रभावती ने तो आश्रम में रहने के लिए पति जेपी को ही छोड़ दिया था. इससे जेपी का गांधी से ख़ासा विवाद हो गया था.
तक़रीबन दो दशक तक महात्मा गांधी के व्यक्तिगत सहयोगी रहे निर्मल कुमार बोस ने अपनी बेहद चर्चित किताबमाई डेज़ विद गांधी में राष्ट्रपिता का अपना संयम परखने के लिए आश्रम की महिलाओं के साथ निर्वस्त्र होकर सोने और मसाज़ करवाने का ज़िक्र किया है. निर्मल बोस ने नोआखली की एक ख़ास घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है, एक दिन सुबह-सुबह जब मैं गांधी के शयन कक्ष में पहुंचा तो देख रहा हूं, सुशीला नायर रो रही हैं और महात्मा दीवार में अपना सिर पटक रहे हैं. उसके बाद बोस गांधी के ब्रम्हचर्य के प्रयोग का खुला विरोध करने लगे. जब गांधी ने उनकी बात नहीं मानी तो बोस ने अपने आप को उनसे अलग कर लिया.
ऐडम्स का दावा है कि लंदन में क़ानून पढ़े गांधी की इमैज ऐसा नेता की थी जो सहजता से महिला अनुयायियों को वशीभूत कर लेता था. आमतौर पर लोगों के लिए ऐसा आचरण असहज हो सकता है पर गांधी के लिए सामान्य था. आश्रमों में इतना कठोर अनुशासन था कि गांधी की इमैज 20 वीं सदी के धर्मवादी नेता जैम्स वॉरेन जोन्स और डेविड कोरेश जैसी बन गई जो अपनी सम्मोहक सेक्स-अपील से अनुयायियों को वश में कर लेते थे. ब्रिटिश हिस्टोरियन के मुताबिक गांधी सेक्स के बारे लिखना या बातें करना बेहद पसंद करते थे. इतिहास के तमाम अन्य उच्चाकाक्षी पुरुषों की तरह गांधी कामुक भी थे और अपनी इच्छा दमित करने के लिए ही कठोर परिश्रम का अनोखा तरीक़ा अपनाया. ऐडम्स के मुताबिक जब बंगाल के नोआखली में दंगे हो रहे थे तक गांधी ने मनु को बुलाया और कहा अगर तुम मेरे साथ नहीं होती तो मुस्लिम चरमपंथी हमारा क़त्ल कर देते. आओ आज से हम दोनों निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के साथ सोएं और अपने शुद्ध होने और ब्रह्मचर्य का परीक्षण करें.
किताब में महाराष्ट्र के पंचगनी में ब्रह्मचर्य के प्रयोग का भी वर्णन है, जहां गांधी के साथ सुशीला नायर नहाती और सोती थीं. ऐडम्स के मुताबिक गांधी ने ख़ुद लिखा है, “नहाते समय जब सुशीला मेरे सामने निर्वस्त्र होती है तो मेरी आंखें कसकर बंद हो जाती हैं. मुझे कुछ भी नज़र नहीं आता. मुझे बस केवल साबुन लगाने की आहट सुनाई देती है. मुझे कतई पता नहीं चलता कि कब वह पूरी तरह से नग्न हो गई है और कब वह सिर्फ़ अंतःवस्त्र पहनी होती है. दरअसल, जब पंचगनी में गांधी के महिलाओं के साथ नंगे सोने की बात फैलने लगी तो नथुराम गोड्से के नेतृत्व में वहां विरोध प्रदर्शन होने लगा. इससे गांधी को प्रयोग बंद कर वहां से बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा. बाद में गांधी हत्याकांड की सुनवाई के दौरान गोड्से के विरोध प्रदर्शन को गांधी की हत्या की कई कोशिशों में से एक माना गया.
ऐडम्स का दावा है कि गांधी के साथ सोने वाली सुशीला, मनु, आभा और अन्य महिलाएं गांधी के साथ शारीरिक संबंधों के बारे हमेशा गोल-मटोल और अस्पष्ट बाते करती रहीं. उनसे जब भी पूछा गया तब केवल यही कहा कि वह सब ब्रम्हचर्य के प्रयोग के सिद्धांतों का अभिन्न अंग था. गांधी की हत्या के बाद लंबे समय तक सेक्स को लेकर उनके प्रयोगों पर भी लीपापोती की जाती रही. उन्हें महिमामंडित करने और राष्ट्रपिता बनाने के लिए उन दस्तावेजों, तथ्यों और सबूतों को नष्ट कर दिया गया, जिनसे साबित किया जा सकता था कि संत गांधी, दरअसल, सेक्स-मैनियॉक थे. कांग्रेस भी स्वार्थों के लिए अब तक गांधी के सेक्स-एक्सपेरिमेंट से जुड़े सच छुपाती रही है. गांधी की हत्या के बाद मनु को मुंह बंद रखने की सख़्त हिदायत दी गई. उसे गुजरात में एक बेहद रिमोट इलाक़े में भेज दिया गया. सुशीला भी इस मसले पर हमेशा चुप्पी साधे रही. सबसे दुखद बात यह है कि गांधी के ब्रम्हचर्य के प्रयोग में शामिल क़रीब-क़रीब सभी महिलाओं का वैवाहिक जीवन नष्ट हो गया.
ब्रिटिश इतिहासकार के मुताबिक गांधी के ब्रह्मचर्य के चलते जवाहरलाल नेहरू उनको अप्राकृतिक और असामान्य आदत वाला इंसान मानते थे. सरदार पटेल और जेबी कृपलानी ने उनके व्यवहार के चलते ही उनसे दूरी बना ली थी. गिरिजा कुमार के मुताबिक पटेल गांधी के ब्रम्हचर्य को अधर्म कहने लगे थे. यहां तक कि पुत्र देवदास गांधी समेत परिवार के सदस्य और अन्य राजनीतिक साथी भी ख़फ़ा थे. बीआर अंबेडकर, विनोबा भावे, डीबी केलकर, छगनलाल जोशी, किशोरीलाल मश्रुवाला, मथुरादास त्रिकुमजी, वेद मेहता, आरपी परशुराम, जयप्रकाश नारायण भी गांधी के ब्रम्हचर्य के प्रयोग का खुला विरोध कर रहे थे.
गांधी की सेक्स लाइफ़ पर लिखने वालों के मुताबिक सेक्स के जरिए गांधी अपने को आध्यात्मिक रूप से शुद्ध और परिष्कृत करने की कोशिशों में लगे रहे. नवविवाहित जोड़ों को अलग-अलग सोकर ब्रह्मचर्य का उपदेश देते थे. रवींद्रनाथ टैगोर की भतीजी विद्वान और ख़ूबसूरत सरलादेवी चौधरी से गांधी का संबंध तो जगज़ाहिर है. हालांकि, गांधी यही कहते रहे कि सरला उनकी महज आध्यात्मिक पत्नीहैं. गांधी डेनमार्क मिशनरी की महिला इस्टर फाइरिंग को भी भावुक प्रेमपत्र लिखते थे. इस्टर जब आश्रम में आती तो वहां की बाकी महिलाओं को जलन होती क्योंकि गांधी उनसे एकांत में बातचीत करते थे. किताब में ब्रिटिश एडमिरल की बेटी मैडलीन स्लैड से गांधी के मधुर रिश्ते का जिक्र किया गया है जो हिंदुस्तान में आकर रहने लगीं और गांधी ने उन्हें मीराबेन का नाम दिया.
दरअसल, ब्रिटिश चांसलर जॉर्ज ओसबॉर्न और पूर्व विदेश सचिव विलियम हेग ने पिछले महीने गांधी की प्रतिमा को लगाने की घोषणा की थी. मगर भारतीय महिला के ही विरोध के कारण मामला विवादित और चर्चित हो गया है. अपने इंटरव्यू में कभी महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर चलाने वाली कुसुम ने उनकी निजी ज़िंदगी पर विवादास्पद बयान देकर हंगामा खड़ा कर दिया है. कुसुम ने कहा, बड़े लोग पद और प्रतिष्ठा का हमेशा फायदा उठाते रहे हैं. गांधी भी इसी श्रेणी में आते हैं. देश-दुनिया में उनकी प्रतिष्ठा की वजह ने उनकी सारी कमजोरियों को छिपा दिया. वह सेक्स के भूखे थे जो खुद तो हमेशा सेक्स के बारे में सोचा करते थे लेकिन दूसरों को उससे दूर रहने की सलाह दिया करते थे. यह घोर आश्चर्य की बात है कि धी जैसा महापुरूष यह सब करता था. शायद ऐसा वे अपनी सेक्स इच्छा पर नियंत्रण को जांचने के लिए किया करते हों लेकिन आश्रम की मासूम नाबालिग बच्चियों को उनके इस अपराध में इस्तेमाल होना पड़ता था. उन्होंने नाबालिग लड़कियों को अपनी यौन इच्छाओं के लिए इस्तेमाल किया जो सचमुच विश्वास और माफी के काबिल बिलकुल नहीं है. कुसुम का कहना है कि अब दुनिया बदल चुकी है. महिलाओं के लिए देश की आजादी और प्रमुख नेताओं से ज्यादा जरूरी स्वंय की आजादी है. गांधी पूरे विश्व में एक जाना पहचाना नाम है इसलिए उन पर जारी हुआ यह सच भी पूरे विश्व में सुना जाएगा.
दरअसल, महात्मा गांधी हत्या के 67 साल गुज़र जाने के बाद भी हमारे मानस-पटल पर किसी संत की तरह उभरते हैं. अब तक बापू की छवि गोल फ्रेम का चश्मा पहने लंगोटधारी बुजुर्ग की रही है जो दो युवा-स्त्रियों को लाठी के रूप में सहारे के लिए इस्तेमाल करता हुआ चलता-फिरता है. आख़िरी क्षण तक गांधी ऐसे ही राजसी माहौल में रहे. मगर किसी ने उन पर उंगली नहीं उठाई. कुसुम के मुताबिक दुनिया के लिए गांधी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के आध्यात्मिक नेता हैं. अहिंसा के प्रणेता और भारत के राष्ट्रपिता भी हैं जो दुनिया को सविनय अवज्ञा और अहिंसा की राह पर चलने की प्रेरणा देता है. कहना न भी ग़लत नहीं होगा कि दुबली काया वाले उस पुतले ने दुनिया के कोने-कोने में मानव अधिकार आंदोलनों को ऊर्जा दी, उन्हें प्रेरित किया.
समाप्त

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

दही-हांडी पर सख़्ती क्या संस्कृति पर हमला है?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
दही-हांडी का रोचक पर्व भारत ख़ासकर महाराष्ट्र के शहरों में दशकों नहीं, सदियों से धूमधाम से मनाया जाता रहा है. कृष्ण जन्माष्टमी के दिन होने वाले इस उत्सव में युवाओं के साथ-साथ किशोर और बच्चे भी उत्साह से शिरकत करते रहे हैं. किशोरों और बच्चों को इस पर्व में इसलिए शामिल किया जाता रहा है क्योंकि, बच्चों का वजन कम होता है और मटकी फोड़ते के लिए पिरामिड बनाते समय उन्हें आसानी से कंधे पर बिठाकर मटकी तक पहुंचा जा सकता है. यह काम कोई वयस्क आदमी नहीं कर सकता. यह कहना न तो ग़लत होगा, न ही अतिरंजनापूर्ण कि दही-हांडी का खेल मूलतः बच्चों, किशोकों और नवयुवकों का ही रहा है.

हालांकि, बाल मज़दूरी को समूल नष्ट करने का संकल्प ले चुके समाजसेवकों की आपत्ति के बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने जो आदेश दिया है, कम से कम उससे तो दही-हांडी की गौरवशाली परंपरा के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है. अब ख़तरा यह है कि कहीं अदालती दख़ल के चलते भारतीय संस्कृति की यह रोचक और रोमांचकारी परंपरा सदा के लिए ख़त्म न हो जाए. तभी तो कहा जा रहा है कि अदालत की ओर से दही-हांडी के जो तरीकों बताए गए हैं, वे प्राइमा फ़ेसाई अव्यवहारिक हैं और उन पर अमल करने से बेहतर है होगा, यह पर्व ही न मनाया जाए. इसी बिना पर कई लोगों ने हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का निर्णय लिया है.

दरअसल, सबसे पहले मुंबई पुलिस के प्रमुख राकेश मारिया ने बच्चों का सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, 12 साल उम्र तक के बच्चों के दही-हांडी के पिरामिड में भाग लेने पर रोक लगा दी. पुलिस प्रमुख ने मुंबई के पुलिस थानों को सख़्त निर्देश दे दिया कि नई गाइडलाइंस पर कड़ाई से अमल किया जाए ताकि बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके. मुंबई के पुलिस प्रमुख ने यह क़दम बाल मज़दूरी उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के दबाव में उठाया था.

बहरहाल, अब रही सही कसर ने बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश ने पूरी कर दी. हाईकोर्ट ने कहा कि दही-हांडी की टांगने की ऊंचाई 20 फीट से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए. इसके अलावा नाबालिगों यानी 18 साल से कम उम्र के लड़कों को पिरामिड बनाने में शामिल नहीं किया जाना चाहिए. दरअसल, अब कहा जा रहा है कि किसी वयस्क युवक, जिसका वजन कम से कम 60 किलोग्राम तो होगा, को अगर पिरमिड में सबसे ऊपर चढ़ाया गया तो नीचे के गोविंदाओं के दबने का ख़तरा रहेगा.

दरअसल, इस अति उत्साही और रोमांचकारी भारतीय परंपरा का आरंभ भगवान कृष्ण द्वारा बाल्यकाल में गोपियों की मटकी से माखन चुराने की घटनाओं से माना जाता है. लिहाज़ा, कहा जा सकता है कि यह त्यौहार ही बच्चों, किशोरों और नवयुवकों का है. मटकी असल में बच्चे फोड़ते हैं, नवयुवक तो अपने कंधे पर बिठाकर उन्हें सहारा देते हैं और मटकी तक पहुंचाते हैं. इसलिए यह कहने में कतई हर्ज़ नहीं कि इस त्यौहार का अट्रैक्शन ही बच्चे हैं. बच्चों की भागीदारी के बिना यह अधूरा-अधूरा सा लगेगा.

राज्य की सबसे बड़ी अदालत ने कई और ऐसे इंतज़ामात करने के भी निर्देश दिए हैं, जिन पर अमल करना मुश्किल भरा ही नहीं क़रीब-क़रीब असंभव है. मसलन, हाईकोर्ट ने कहा है कि मटकी-स्थल के आसपास ज़मीन पर गद्दे बिछाए जाएं. चूंकि गोविंदा का पर्व बारिश के मौसम में पड़ता है, ऐसे में खुले आसमान के नीचे गद्दे नहीं बिछाए जा सकते. इससे और गंभीर समस्या खड़ी हो सकती है. यह आयोजकों के लिए भी व्यवहारिक नहीं होगा. हाईकोर्ट ने गोविंदाओं के लिए सुरक्षात्मक कवच और हेलमेट का इंतज़ाम करने और मटकी सड़क या रास्ते पर न टांगने की भी निर्देश दिया है. इन आदेशों का पालन करना बहुत मुश्किल भरा होगा.

वस्तुतः हाल के वर्षों ख़ासकर टीवी चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट और इस त्यौहार को प्रॉडक्ट बेचने का ज़रिए बना देने के कारण इस अति प्राचीन पर्व का बड़ा घाटा हुआ. गोविंदा मंडलों का कॉमर्शलाइज़ेशन हो गया जिससे गलाकाट स्पर्धा शुरू हो गई. जिससे मटकी की ऊंचाई और इनामी राशि भयानक रूप से बढ़ने लगी. बाज़ारीकरण के चलते यह त्यौहार हंगामें वाला पर्व बन गया, इस कारण एक बहुत बड़ा तबक़ा इन आयोजनों से चिढ़ने लगा. कहा जा सकता है कि आयोजकों और बाज़ार को संचालित करने वाली कंपनियों की ओर से इसे मुनाफ़े का जरिया बना देने के चलते इस बेहद ख़ूबसूरत त्यौहार का बंटाधार ही हो गया.

वस्तुतः दही-हांडी में मिट्टी (अब ताबां या पीतल) के बर्तन में दही, मक्खन, शहद, फल और कैश धनराशि रखे जाते हैं. इस बर्तन को धरती से 30 फ़ीट ऊपर तक टांगा जाता है. बच्चे, किशोर और नवयुवक लड़केलड़कियां पुरस्कार जीतने के लिए समारोह में हिस्सा लेते हैं. ऐसा करने के लिए नवयुवक एकदूसरे के कंधे पर चढ़कर पिरामिड बनाते हैं. जिससे सबसे ऊपर पहुंचकर आसानी से मटकी को तोड़कर उसमें रखी सामग्री को प्राप्त कर लेता है. प्रायः रुपए की लड़ी रस्से से बांधी जाती है. इसी रस्से से वह बर्तन भी बांधा जाता है. इस धनराशि को उन सभी सहयोगियों में बांट दिया जाता है, जो उस मानव पिरामिड में भाग लेते हैं.

दरअसल, मुंबई में दही-हांडी के दौरान हादसे रोकने के लिए ही नई गाइडलाइंस तैयार की गई है. हादसों को रोकने के लिए हाईकोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की गईं, उन पर ही हाईकोर्ट ने फैसला दिया. मटकी फोड़ने के अभ्यास के दौरान दो दिन पहले 14 साल के लड़के की मौत हो गई थी. हाईकोर्ट के आदेश के बाद शहर के सभी थानों को आदेश दिया गया है कि अगर किसी गोविंदा मंडल में दही-हांडी फोड़ने वाली टीम में नाबालिग शामिल किया तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जाए. बहरहाल, अगर इस मामले में थोड़ा परिवेश और परंपरा को ध्यान में रखकर निर्णय किया गया होता तो ज़्यादा बेहतर होता. अब भी देर नहीं हुई है, इस अच्छी परपंरा को जीवित रखने की कोशिश की जानी चाहिए थी, इससे मुनाफ़ा कमाने वालों को अलग करने की ज़रूरत थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.


शनिवार, 9 अगस्त 2014

रक्षाबंधन : स्त्री की रक्षा के लिए ही राखी की परिकल्पना

हरिगोविंद विश्वकर्मा
गहन रिसर्च के बावजूद राखी का त्यौहार कब शुरू हुआ इसका एकदम सटिक प्रमाणिक जानकारी नहीं मिल सकी. इसके बावजूद लगता तो यही है कि मानव सभ्यता के विकसित होने के बाद जब समाज पर पुरुषों का वर्चस्व हुआ, तब स्त्री की रक्षा के उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही इस त्यौहार की परिकल्पना की गई होगी. मकसद यह रहा होगा कि समाज में पति-पत्नी के अलावा स्त्री-पुरुष में भाई-बहन का पवित्र रिश्ता कायम हो. बहरहाल, हो सकता है लेखक का आकलन शत-प्रतिशत सही न हो. लेकिन स्वस्थ्य समाज की संरचना के लिए ऐसा ही कुछ हुआ होगा. वैसे, हमारा देश उत्सवों और परंपराओं का देश है. सदियों से पूरे साल अनेक तीज-त्यौहार, पर्व, परंपराएं मनाए जाते रहे हैं. इन्हीं त्योहारों में रक्षा-बंधन यानी राखी भी है. यह त्यौहार भाई-बहन के बीच अटूट-बंधन और पवित्र-प्रेम को दर्शाता है. भारत के कुछ हिस्सों में इसे 'राखी-पूर्णिमा' के नाम से भी जाना जाता है.

स्कंध पुराण, पद्म पुराण भविष्य पुराण और श्रीमद्भागवत गीता में वामनावतार नामक कथा में राखी का प्रसंग मिलता है. मसलन, दानवेंद्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इंद्र ने विष्णु से प्रार्थना की. तब विष्णु वामन अवतार लेकर बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे. बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी. विष्णु ने तीन पग में आकाश पाताल और धरती नापकर बलि को रसातल में भेज दिया. इस प्रकार विष्णु द्वारा बलि के अभिमान को चकनाचूर कर देने से ही यह त्योहार बलेव नाम से भी मशहूर है. विष्णु पुराण के मुताबिक श्रावण की पूर्णिमा के दिन विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था. हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है.

भविष्य पुराण के मुताबिक सुर-असुर संग्राम में जब दानव हावी होने लगे तब इंद्र घबराकर बृहस्पति के पास गये. इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके पति के हाथ पर बांध दिया. संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था. मान्यता है कि लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से ही इंद्र विजयी हुए. उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन धागा बांधने की प्रथा शुरू हो गई.

महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा, मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं तब भगवान कृष्ण ने उनकी और उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्यौहार मनाने की सलाह दी थी. उनका कहना था कि राखी के धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं. जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई. द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी. यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था. कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया.

राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएं उन्हों माथे पर तिलक के साथ साथ हाथ में धागा बांधती थी. इस भरोसे के साथ कि धागा विजयश्री ले आएगा. मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की सूचना मिली. रानी ने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेज कर रक्षा याचना की. हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंचकर कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की. एक अन्य प्रसंगानुसार सिकंदर की पत्नी ने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांधकर मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया. पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी और अपनी बहन को दिए हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवन-दान दिया.


रक्षाबंधन श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इसीलिए इसे श्रावणी या सलूनो भी कहते हैं. राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बांधती हैं, परंतु कई समाज में छोटी लड़कियां संबंधियों को भी राखी बांधती हैं. कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बांधी जाती है. अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बांधने की परम्परा भी प्रारंभ हो गयी है जो प्रकृति को बचाने के एक प्रयास है. ज़ाहिर है, इस तरह के प्रयास को बढ़ावा देना चाहिए. 
राखी पर सभी को शुभकामनाएं.

सचिन तेंदुलकर : विज्ञापन के लिए वक़्त है, संसद के लिए नहीं!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
सचिन तेंदुलकर, लता मंगेशकर और अमिताभ बच्चन हर काम केवल और केवल अपने या अपने परिवार या अपनी कंपनी के फ़ायदे के लिए करते हैं. ये महान व्यक्तित्व इतनी ऊंचाई तक पहुंचने के बावजूद कभी निहित स्वार्थ से ऊपर नहीं ऊठ पाए. जिसके चलते आदत इनके महान क़द को छोटा कर देता है.

शुक्रवार को सचिन ने दिल्ली में एक प्रोग्राम में ग़लत बयानी कर दी. उन्होंने कहा कि वह अपने बड़े भाई अजीत तेंदुलकर की बीमारी (बाईपास सर्जरी) के चलते संसद में नियमित नहीं जा सके. यह एकदम सफ़ेद झूठ है. अजीत के बाइपास सर्जरी पिछले हफ़्ते मुंबई के जसलोक अस्पताल में डॉ. सुधांशु भट्टाचार्य ने की अगवाई में डॉक्टर्स की एक टीम ने की जबकि सचिन संसद मनोनीत किए जाने के बाद से ही राज्य सभा से ग़ायब हैं.

कांग्रेस द्वारा राज्यसभा सदस्य बनाने जाने के बाद भी वह लगातार विज्ञापन की शूटिंग के लिए ख़ूब समय निकालते रहे हैं, क्योंकि उससे उनको मोटी रकम मिलती है. इसीलिए, क्रिकेट को अलविदा कहने के बावजूद महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली के साल भर बाद भी बाद सचिन विज्ञापन से सबसे ज़्यादा कमाई करने वाले खिलाड़ी हैं. सचिन आज भी बहुराष्ट्रीय कंपनी अविवा, कोकाकोला, अदिदास, तोशीबा, फ़्यूचर ग्रुप, एसएआर ग्रुप, स्विस घड़ी कंपनी ऑडिमार्स से जुड़े हुए हैं. कई छोटी-मोटी कंपनियों के प्रॉडक्ट भी बेचते रहते हैं. तभी तो 2013 में फ़ोर्ब्स ने उनकी कमाई 22 मिलियन डॉलर बताई थी. दरअसल, राज्यसभा में सचिन जाएं या न जाएं, उनको उतना ही पैसा (वेतन-भत्ता) मिलेगा. लिहाज़ा संसद में बैठकर वक़्त जाया करने की बजाय वह अपना कीमती वक़्त कॉमर्शियल शूटिंग्स को देते हैं.

एक क्रिकेटर के रूप में सचिन तेंदुलकर ने कभी कोई ऐसी पारी नहीं खेली जिसे भारत को जीत मिली हो. इसीलिए, “विज़डन की 100 बेस्ट इनिंग्स में सचिन की कोई पारी नहीं है. जबकि सुनील गावस्कर, वीवीएस लक्ष्मण, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली, गुलडप्पा विश्वनाथ, कपिलदेव और वीरेंद्र सेहवाग जैसे अनेक भारतीय बल्लेबाज़ रहे हैं जिनकी कोई न कोई पारी विज़डन का 100 बेस्ट पारियों में रही है.

सचिन की टेस्ट मैच, एक दिवसीय मैच और टी-20 मैचों में बल्लेबाज़ी का बारीक़ी से अध्ययन करें तो जब भी भारत संकट में रहा, वह सस्ते में पैवेलियन लौट गए. टेस्ट मैच में एक बार पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत मैच जीतने की पोज़िशन में था लेकिन शतक बनाने के थोड़ी देर बाद ही सचिन आउट हो गए और भारत मैच हार गया. सचिन ने 200 टेस्ट की 329 पारियों में 53 के औसत से 15921 रन बनाए लेकिन उनके ज़्यादातर शतक ड्रा हुए मैचेज़ में रहे. वह गेंदबाज़ों की तूफानी या शॉर्टपिच गेंद कभी विश्वास से नहीं खेल पाए इसीलिए डेल स्टेन, डोनाल्ड, मैकग्रा, लिली, वकार, विशप मलिंगा या ली की गेंदों के सामने उनके खाते में बहुत ज़्यादा रन नहीं हैं. उनका खेल बांग्लादेश या जिंब्ब्वे की फिसड्डी टीमों के ख़िलाफ़ सबसे उम्दा रहा है. उनका करीयर बेस्ट अविजित 248 भी बांग्लादेश के ख़िलाफ़ ही है. दरअसल, यूएनआई में नौकरी के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने काफ़ी रिसर्च के बाद सचिन पर इसी तरह की एक बढ़िया रिपोर्ट फ़ाइल की थी लेकिन उसे सचिन विरोधी क़रार देते हुए एजेंसी ने रिलीज़ नहीं की क्योंकि उस समय सचिन के बारे में निगेटिव लिखना तो दूर कोई सोचता भी नहीं था.

सचिन ने राज्यसभा की मर्यादा को ही नहीं घटाया बल्कि, भारतरत्न पुरस्कार की प्रतिष्ठा में भी बट्टा लगा दिया है.  भारत रत्न पुरस्कार पा चुका खिलाड़ी टीवी पर लोगों से एक ख़ास किस्म के प्रोडक्ट ख़रीदने की अपील करता है. जबकि दुनिया जानती है सारे किरदार टीवी विज्ञापन में झूठ बोलते हैं. सचिन एक आम अभिनेता या खिलाड़ी के रूप में यह झूठ बोलते तो कोई हर्ज़ नहीं था, लेकिन यह झूठ सचिन भारत रत्न के रूप में बोलते हैं. इसका निश्चित तौर पर ग़लत संदेश जाता है.


एक बात और, अगर पर्याप्त अटेंडेंस न होने पर किसी छात्र को परीक्षा में बैठने से रोका जा सकता है तो संसद की कार्यवाही से बिना कारण ग़ायब रहने वाले हर सदस्य की सदस्यता रद की जानी चाहिए ताकि ऐसे लोगों को मौक़ा मिले जिनके पास संसद (लोकसभा-राज्यसभा) विधानसभा या अन्य जनपंचायत के लिए पर्याप्त समय हो.

सोमवार, 30 जून 2014

ग़ज़ल - कैसी है ज़िंदगी...?

कैसी है ज़िंदगी...?

बेतरतीब सा सफ़र है टुकड़ों में ज़िंदगी
देखना अभी कितनी बंटती है ज़िदगी.

लाख कोशिश की पर समेट नहीं पाया
हर क़दम पर देखो बिखरी है ज़िंदगी.

सोचा था मेहनत से गुज़र जाएगा जीवन
यहां तो उस तरह की है ही नहीं ज़िंदगी.

शर्तिया होगी मौत ऐसे जीवन से बेहतर
उसे भी आने नहीं देती कमबख़्त ज़िंदगी.

हे मां क्यों पढ़ा गई सतयुग का पाठ
देख तो हो गई है कैसी बदतर ज़िंदगी.

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

सोमवार, 12 मई 2014

व्यंग्य : हे मतदाताओं! तुम भाड़ में जाओ!!

हे मतदाताओं! तुम भाड़ में जाओ!!
हरिगोविंद विश्वकर्मा
हे मतदाताओं! तुम भाड़ में जाओ! मैं तुम्हारे आगे हाथ नहीं जोड़ने वाला। मैं तुम्हें इस क़ाबिल ही नहीं मानता, कि तुम्हारे आगे हाथ जोड़ूं। मैं तुमसे वोट भी नहीं मांगूंगा। मुझे पता है, तुम इस बार मुझे वोट नहीं दोगो, क्योंकि तुम मुझसे नाराज़ हो। ठीक उसी तरह जैसे, पांच साल पहले तुम मेरे विरोधी से नाराज़ थे। मैं जानता हूं, पिछले पांच साल के दौरान मैंने कुछ भी नहीं किया, इसलिए तुम नाराज़ होगे ही। तुम नाराज़ रहो मेरे ठेंगे से। पांच साल पहले, करोड़ों रुपए फूंककर मैं चुनाव लड़ा था। तुम्हारे भाइयों का शराब पिलाई थी। ढेर सारे लोगों को कैश भी बांटे थे। चुनाव में इतनी दौलत ख़र्च की थी, तो उसकी भरपाई क्यों न करता। मैं समाजसेवा के लिए पॉलिटिक्स में नहीं आया हूं। मैं इतना बड़ा बेवकूफ भी नहीं हूं, कि समाजसेवा के लिए इस गंदे क्षेत्र में आऊं। तुम लोग भले बेवकूफ़ी करो, मैं बेवकूफ़ी नहीं कर सकता। इसीलिए अपने कार्यकाल में पांच साल मैंने जमकर पैसे बनाए। कह सकते हो, मैंने हर काम पैसे लेकर किया। मैंने सरकारी पैसे हज़म किए। इन सबका तुम्हें बुरा नहीं लगना चाहिए था, परंतु बुरा लगा। तो बुरा लगता रहे। मुझे रत्ती भर फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम मुझे वोट दो या न दो। इससे भी मेरी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। बहुत होगा, मैं चुनाव हार जाऊंगा। वह तो इस क्षेत्र में हर पांच साल बाद होता है। इस बार भी हारने पर पांच साल घर बैठूंगा। इतने पैसे बनाया हूं, उसे ख़र्च करूंगा। परिवार के साथ देश-विदेश घूमूंगा। मुझे पता है इस बार तुम मेरे उसी विरोधी को वोट दोगे, जिसने मुझसे पहले तुम्हारी वाट लगाई थी। इस बार तुम उसे जीताओगे, तो वह पांच साल तक फिर तुम्हारी वाट लगाएगा। इतनी वाट लगाएगा, इतनी वाट लगाएगा कि अगली बार तुम मजबूरन फिर मुझे वोट दोगे। तुम्हारे पास और कोई विकल्प ही नहीं है। देश में लोकतंत्र के आगमन से यही होता आ रहा है। आगे भी होता रहेगा। बेटा, यह तुम्हारी नियति है। तुम्हारे पास नागनाथ या सांपनाथ हैं। तुम उन्हीं में किसी को चुनने के आदी हो चुके हो।

दरअसल, सबसे पहले तुम पर हिंदू राजाओं ने शासन किया। तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं किया। तुम्हें हर चीज़ से तुम्हे वंचित रखा। बाद में मुस्लिम सुल्तानों ने तुम्हारा ख़ून चूसा। उसके बाद आए अंग्रेज़। उन्होंने भी तुम्हारा जमकर दोहन किया। सबसे अंत में बारी आई मेरे जैसे देशभक्तों की। मैंने देखा कि शोषण का तुम विरोध तो दूर उफ् तक नहीं करते। ऐसे में मैं क्यों पीछे रहता। मैं जुट गया अपना और अपने परिवार की तरक़्क़ी करने में। आज मैं पोलिटिकल फ़ैमिली बनाकर ऐश कर रहा हूं। तुम्हें ख़ूब लूट रहा हूं। आगे भी ऐसे ही लूटता रहूंगा। मैं तुम्हें इसी तरह ग़ुलाम बनाए रखूंगा। सदियों से ग़ुलाम रहने के कारण ग़ुलामी तुम्हारे जीन्स यानी डीएनए में घुस गई है। मैंने तुम्हें ऐसा ट्रीटमेंट दिया है कि अब तुम मन से हमेशा ग़ुलाम ही रहोगे। मेरे चमचे बने रहोगे। मेहनत तुम करोगे और मौज़ मैं करूंगा।

हां, तुम्हारे पास कोई ईमानदार आएगा। तुम्हारा अपना कोई हितैषी बनेगा और तुम्हारे हित की बात करेगा। तुम्हें हम नेताओं की असलियत बताएगा और तुमसे वोट मांगेगा। ताकि तुम्हारा भला करे। मैं जानता हूं, तुम उसे वोट नहीं दोगे, बल्कि तुम उसकी टांग खींचोगे। उसे गाली दोगे। उसे फटकारोगे। ज़लील करोगे। उसके बारे में तरह-तरह की बातें फैलाओगे। कई ग़लत खुलासे करोगे। वह ईमानदार भी रहेगा तो भी तुम उस पर भरोसा नहीं करोगे, क्योंकि अपने समाज के लोगों को गरियाने का हुर तुम्हारे अंदर इस तरह फिट कर दिया गया है, कि वह कभी ख़त्म ही नहीं होगा। तुम अपने हर हितैषी को दुश्मन ही समझोगे। यह तुम्हें कलियुग का शाप है।

देखो न, तुम अपनी औक़ात नहीं देखते और बातें करते हो प्रधानमंत्री की। तुम चर्चा करते हो कि इसे पीएम बनाना है, उसे पीएम बनाना है। इसे सीएम बनाना है, उसे सीएम बनाना है। यहां तक कि जो नेता तुम्हें जानता तक नहीं तुम उसे भी पीएम बनाने की बात करते हो। तुम रेलवे टिकट लेने के लिए कई-कई दिन लाइन में खड़े रहते हो। लोकल ट्रेन में गेहूं की बोरी की तरह ठुंस जाते हो। रसोई गैस पाने के लिए धक्के खाते हो। पुलिस और सरकारी कर्मचारियों की गाली सुनते हो। तुम्हारी फरियाद कोई नहीं सुनता। तुम दर-दर भटकते हो। नौकरी पाने के लिए रिरियाते हो। नौकरी लग गई तो उसे बचाए रखने के लिए चाटुकारिता करते हो। तुम दीन-हीन रहोगे तब भी बात करोगे पीएम की। दिल्ली सल्तनत की। आजकल तो तुममें से कुछ लोग फ़ेसबुक पर आ गए हैं। एक स्मार्ट फोन लेकर हरदम अपने लोगों के ख़िलाफ़ कुछ न कुछ पोस्ट करते रहते हैं। कमेंट दो-चार लोग लाइक क्या करने लगे, बन गए बुद्धिजीवी। बुद्धिजीवी का स्वभाव होता है, वह उसी की वाट लगाता है जो उसकी मदद करना चाहता है। तुम भी वही करते हो। एक राज़ की बात बताऊं, तुम जैसे हो वैसे ही रहो। तुम बदलोगे तो मेरे और मेरे लोगों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ जाएगा। इसलिए तुम जैसे हो वैसे ही रहो हमेशा। शोषित, दमित और उत्पीड़ित।

व्यंग्य : एक इंटरव्यू दे दीजिए प्लीज़....

हरिगोविंद विश्वकर्मा
हे नेताजी आप महान हैं. आप देशवासियों के भाग्यविधाता हैं. भारत के इतिहास में आप जैसा करिश्माई नेता न तो कभी हुआ था, न तो अब है और न ही कभी भविष्य में होगा. आप श्रेष्ठों में श्रेष्ठ हैं. बस आप हमें अपना एक इंटरव्यू दे दीजिए, प्लीज़! चाहे जैसे भी हो, एक बार मेरे साथ बैठ जाइए. मुझसे बातचीत कर लीजिए, आप जो कहेंगे, मैं वहीं पूछूंगा. या अगर मैं ग़लती से कोई अप्रिय सवाल पूछ बैठूं तो आप मुझे बिना संकोच के डांट दीजिएगा, इससे मेरा कतई अपमान नहीं होगा. मुझे सुविधानुसार ही इंटरव्यू दीजिएगा. मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. मुझे तो बस आपके एक अदद इंटरव्यू से मतलब. मुझे सवाल से नहीं, इंटरव्यू से मतलब है सरकारजी. इस समय आपका एक इंटरव्यू लेना ही मेरी जीवन का मकसद है. इसलिए एक इंटरव्यू दे दीजिए प्लीज़.

हे नेताजी, आपने ऐरे, गैरे, नत्थू खैरे को इंटरव्यू दे दिया. आपके दर से कोई खाली नहीं गया. जो भी आपके यहां आया, उससे आपने बातचीत कर ली. केवल मैं ही अभागा वंचित रह गया, आपका इंटरव्यू लेने से. अब मेरी प्रतिष्ठा दांव पर है. लोग ताने पर ताने दे रहे हैं. कहते हैं, आप नेताजी का इंटरव्यू नहीं कर सके. आपकी पत्रकारिता में अब वह धार नहीं रही. इसीलिए नेताजी ने आपको इंटरव्यू नहीं दिया. आपका असर होता तो आपको भी इंटरव्यू ज़रूर मिलता. बतौर पत्रकार, अब, मेरी क्रेडिबिलिटी, मेरी साख, आपके एक इंटरव्यू की मोहताज़ हो गई है. इसलिए कह रहा हूं, अब मेरी इज़्ज़त आपके हाथ में है. इसे तो बचा लीजिए. बस एक इंटरव्यू दे दीजिए, प्लीज़.

आप जैसा कहेंगे, वैसा ही इंटरव्यू लूंगा. आपका इंटरव्यू लेने के अपना फ़ॉर्मेट को ही बदल दूंगा. आपके साथ अच्छे कपड़े पहनकर बैठूंगा. नहीं-नहीं, आपकी पंसद के कपड़े पहन लूंगा. हां, आप जो भी कहेंगे, वहीं कपड़े पहनूंगा. आप कहेंगे तो कपड़े उतारकर केवल चड्ढी-बनियान में इंटरव्यू लूंगा. आप इससे भी खुश नहीं होंगे तो दंडवत करते हुए आपसे सवाल पूछूंगा. इससे भी संतुष्ट न हुए तो एक पांव पर खड़े होकर इंटरव्यू लूंगा. या फिर आप चाहेंगे तो नाक रगड़कर सवाल पूछूंगा. आप आराम से कुर्सी पर या सोफे पर बिराजना, मैं नीचे फ़र्श या ज़मीन पर बैठूंगा. इससे मेरी अवमानना नहीं होगी क्योंकि आपके इंटरव्यू के लिए मैंने अपना सेल्फ़-रिस्पेक्ट ताक पर रख दिया है. मैंने अपने को इतना बदला, सो कृपा करिए. बस एक इंटरव्यू दे दीजिए, प्लीज़.
                                                   

इंटरव्यू में मुझे आपकी तारीफ़ करने का मौक़ा मिलेगा. जो मैं अब तक नहीं कर सका. मैं नादान आपका आलोचक जो था. केवल और केवल आपकी आलोचना करता रहा. जो मन में आया वहीं आपको कहता रहा. सरकारजी, सच पूछो तो मैंने घनघोर पाप किया है. अब मैं अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहता हूं. आपका एक इंटरव्यू लेना चाहता हूं. ताकि मैं बता सकूं पूरी दुनिया को, कि मैं ग़लत था. आप सही थे. आपकी खासियत के बारे में, आपके जादू के बारे में बताऊंगा, सारी दुनिया को. जिसके चलते आजकल हर कोई आपका लट्टू है. आप पर फ़िदा है. आपकी जय-जयकार कर रहा है. हमें भी जय-जयकार करने का मौक़ा दीजिए. एक इंटरव्यू दे दीजिए, प्लीज़.

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

घर हुआ सपना कांग्रेस-शासन में! (हरिगोविंद विश्वकर्मा)

घर हुआ सपना कांग्रेस-शासन में!
 हरिगोविंद विश्वकर्मा
मुंबई को सपनों का शहर कहा जाता है। माना जाता है कि यहां सपने पूरे होते हैं। इसीलिए देश के कोने-कोने से लोग अपने सपने संजोए यहां भागे चले आते हैं। लेकिन सपने साकार करने वाली नगरी क्या अब भी मुंबई सपने साकार करती है? बिना किसी भेदभाव के अब तक लोगों को रोटी कपड़ा और मकान देती आई मुंबई अब बदलने लगी है। इस हक़ीक़त से कोई भी असहमत नहीं होगा कि मुंबई ने अब अपना घरबनाने के सपने को साकार करना बंद कर दिया है। यानी मायानगरी में आशियाने का ख़याल ही सपना हो गया है। दरअसल, यह सब हुआ है कांग्रेस के 10 साल के शासन में। मुंबई ही नहीं देश के हर छोटे-बड़े शहर में रियल इस्टेस के भाव में दस गुना तक की बढ़ोतरी हुई है जिससे अब औसत आदमी के लिए घर बनाना किसी सपने जैसा हो गया है।

सन् 2004 तक मुंबई शहर तो नहीं, उपनगरों में ज़रूर घर ख़रीदना मुमकिन था। लोग-बाग बैंक से क़र्ज़ लेकर या मित्रों-रिश्तेदारों से मदद मांगकर किसी तरह सिर पर छांव बना लेते थे। क़रीब 225 वर्गफ़ीट क्षेत्रफल का घर तब चार-पांच लाख रुपए तक मिल जाता था। वन बेडरूम-हॉल-किचन (बीएचके) का सेट आठ से दस लाख में उपलब्ध था। लेकिन कांग्रेस की सरकार क्या बनी, रातोंरात सब कुछ बदल गया। घर के दाम में मानो पंख लग गए। चार-पांच लाख के फ़्लैटों की कीमत 10 साल में 35 से 40 लाख पहुंच गई। आठ से दस लाख के घर 75 से 90 लाख के हो गए। चूंकि लोगों की आमदनी में उस हिसाब से इज़ाफ़ा नहीं हुआ, लिहाज़ा महंगाई की मार झेल रहा आम आदमी घर खरीद ही नहीं सकता। कांग्रेस-रिजिम में बिल्डर और रियल इस्टेट कारोबारी जमकर फल-फूल रहे हैं। अब तो हालत यह हो गई है कि अगर आप किसी तरह कमा-धमाकर अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं तो मुंबई में रहने की तो कल्पना ही मत कीजिए। इतना ही नहीं आसपास के नगरों में रहने का भी ख़्वाब मत देखिए क्योंकि अब विरार-बोइसर या कल्याण-उल्हासनगर-टिटवाला में भी घर ख़रीदना आपकी हैसियत से परे हो गया है।

अभी कुछ महीने पहले बंगलुरु की फ़र्म नाइट फ़्रैंक इंडियाने देश में फ़्लैट की कीमतों पर सर्वे किया था। सर्वे के मुताबिक मुंबई में 30 फ़ीसदी अंडर-कंस्ट्रक्शन फ़्लैट्स की कीमत करोड़ रुपए से अधिक है जबकि 52 फ़ीसदी घरों के दाम 60-70 लाख से ऊपर। जो सस्ते घर उपलब्ध हैं उनमें ज़्यादातर स्लम रिडेवलपमेंट अथॉरिटी के 225 से 270 वर्गफ़ीट के रेंज के कम क्षेत्रफल के छोटे घर हैं, जिनकी कीमत 35-45 लाख के बीच है। अगर रिडेवलपमेंट योजना की बिल्डिंगों को छोड़ दें तो मुंबई में औसत इमारतों, यानी पांच, सात या नौ मंज़िल की बिल्डिंग, का निर्माण ही बंद हो गया है। अब हर जगह केवल और केवल गगनचुंबी टॉवर्स बनाए जा रहे हैं जो औसतन 25 से 40 और कोई-कोई 50 मंज़िल के हैं। देश की सबसे ऊंची इमारत भी मुंबई में ही बनाई जा रही है। इन बहुमंज़िली इमारतों में वन बीएचके सेट का कॉन्सेप्ट ही नहीं हैं। यानी जो फ़्लैट बन रहे हैं, उनमें सबसे छोटा घर दो बीएचके है, जिसकी न्यूनतम जगह 900 वर्गफ़ीट है।

दो साल पहले जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिए महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने सर्कुलर जारी किया कि बिल्डरों को सुपरबिल्टअप एरिया के मुताबिक नहीं, बल्कि कारपेट एरिया के हिसाब से फ़्लैट बेचने पड़ेगे। सरकार के फ़रमान से लोग ख़ुश हुए कि घर के दाम गिरेंगे। वे भी घर ख़रीद सकेंगे लेकिन हुआ उलटा। घर के दाम बढ़ते ही गए। मज़ेदार बता यह है कि नए सरकारी नॉर्म के मुताबिक आज की तारीख़ में सुपरबिल्टअप एरिया के हिसाब से घर बेचा नहीं जा सकता लेकिन यह फ़ाइलों की बात है। क़ानून बना दिया गया, पर ध्यान नहीं दिया गया कि उस पर अमल हो रहा है या नहीं। सरकार और नेताओं के आशीर्वाद से दिन दूना रात चौगुना तरक़्क़ी कर रहे बिल्डर कारपेट-एरिया की बजाय ग्राहकों से सुपरबिल्टअप का चार्ज ले रहे हैं। ग़ौर करने वाली बात है कि रजिस्ट्री कारपेट-एरिया पर ही हो रही है यानी बाक़ी टैक्सेज़ वगैरह कारपेट-एरिया पर ही लग रहे हैं।

मिसाल के तौर पर मुंबई के पश्चिमी उपनगर गोरेगांव में फ़िलहाल फ़्लैट के भाव 12 से 16 हज़ार रुपए प्रति वर्गफ़ीट के बीच है। यहां सबसे छोटे घर 900 वर्गफ़ीट कारपेट एरिया के हैं जिनका सुपरबिल्टअप क्षेत्रफल 1420 से 1450 वर्गफ़ीट के बीच है। ये फ़्लैट कारपेट भाव पर नहीं धड़ल्ले से सुपरबिल्टअप रेट पर बेचे जा रहे हैं। कारपेट-एरिया के अनुसार मौज़ूदा भाव से फ़्लैट की कीमत एक करोड़ से थोड़ा ज़्यादा (1 करोड़ 8 लाख) है। पर सुपरबिल्टअप दाम 1 करोड़ 74 लाख रुपए कर देता है। इस पर 9 लाख रुपए वेहिकल पार्किंग चार्ज लिया जाता है जो कि क़ानूनन मुफ़्त है। इसके अलावा दो साल की अवधि के लिए सोसाइटी चार्ज के रूप में 4 लाख रुपए (यानी लगभग 18 हज़ार रुपए प्रति माह) वसूला जाता है। इसमें आजकल 100 रुपए प्रति वर्गफ़ुट फ़्लोरराइज़ चार्ज भी लगने लगा है। यानी अगर 31वीं मंज़िल पर घर है तो 3100 रुपए प्रति वर्गफ़ुट के हिसाब से 38 लाख 75 हज़ार रुपए फ़्लोरराइज़ चार्ज लगेगा। मतलब ले देकर फ़्लैट की कीमत सवा दो करोड़ रुपए (2.225 करोड़) की सीमा को पार कर जाती है।

मज़ेदार बात यह है कि काग़ज़ पर फ़्लैट की कीमत कारपेट-एरिया के अनुसार ही होती है। बल्कि रेट को और भी कम कर दिया जाता है। मतलब घर की रजिस्ट्री बहुत कम दर पर होती है। कारपेट एरिया के अलावा बाक़ी क्षेत्रफल की जो भी धनराशि होती है उसका भुगतान कैश में होता है। दो करोड़ के फ़्लैट का औसतन व्हाइट-ट्रांज़ैक्शन केवल 80 से 85 लाख रुपए या उससे भी कम में होता है। यानी 60 फ़ीसदी से ज़्यादा धनराशि ब्लैकमनी होती है। रेवेन्यू और आयकर विभाग के लोग बिल्डरों के साथ मिलकर अपने ही विभाग को चूना लगाते हैं। कहा जा सकता है कि अंधेरगर्दी और लूट-खसोट के खेल में बिल्डरों के अलावा नेता, नौकरशाह, राजस्व अफ़सर, ब्यूरोक्रेट्स, सरकारी कर्मचारी, पुलिस, आयकर विभाग और बाक़ी एजेंसियों के लोग शामिल रहते हैं। यह तो मुंबई का उदाहरण है। पूरे देश में रियाल इस्टेट का मुंबई  फ़ॉर्मूला ही लागू है। कोई औसत आमदनी वाला आदमी घर खरीद कर दिखाए। पूरा जीवन बैंक का इंटरेस्ट भरते भरते गुज़ार जाएगा।

कांग्रेसी ज़ोर-शोर से कह रहे हैं कि देश तरक़्की कर रहा है। इनसे कौन पूछे कि तरक़्की का मतलब क्या नागरिकों को शहर से बाहर खदेड़ देना है। फिलहाल, काग्रेस यही कर रही हैं। आख़िर उस विकास का क्या मतलब जब आदमी घर ही न खरीद पाए। इतनी महंगाई में औसत आमदनी वाली आदमी कैसे रहेगा मुंबई जैसे शहर में? यानी देश की आर्थिक राजधानी में 10-20 हज़ार रुपए महीने कमाने वालों के लिए कोई ग़ुंज़ाइश ही नहीं रह गई है। वह घर के सपने तो देख सकता है लेकिन अपने देश और अपने शहर में ही घर नहीं खरीद सकता। ऐसे में अगर कहें कि इस विकसित भारत से बेहतर तो अपना पिछड़ा भारत ही था, जहां कम से कम आदमी थोड़ी कोशिश करके रोटी, कपड़ा और मकान तो जुटा लेता था। जिस देश में एक बड़ा तबक़ा दिन भर पसीना बहाने के बाद भी सौ रुपए न कमा पाता हो, वहां करोड़ों रुपए के घर की बात बड़ी अटपटी लगती है। लेकिन सच तो यही है।

समाप्त

मंगलवार, 4 मार्च 2014

राज ठाकरे से नितिन गडकरी की मुलाक़ात का मतलब?

राज ठाकरे से नितिन गडकरी की मुलाक़ात का मतलब?
मासूम उत्तर भारतीय बच्चों को मारने वालों को माफ़ी नहीं!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
मुंबई, ठाणे और महाराष्ट्र के बाक़ी इलाक़ों में रहने वाले उत्तर भारतीयों सावधान हो जाओ। नौकरी के लिए परीक्षा देने आए तुम्हारे बच्चों को मुबई के रेलवे स्टेशनों, सड़कों और परीक्षा केंद्रों पर दौड़ा-दौड़ा कर पिटवाने वाले राज ठाकरे को भूलना नहीं। पिछले एक हफ़्ते में पूर्व बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी राज ठाकरे से दो बार मिले हैं। ये दोनों नेता बहुत अच्छे दोस्त हैं। यानी बीजेपी के रिजिम में भी राज ठाकरे प्रोटेक्टेड रहेंगे। उत्तर भारतीय लोगों के ख़िलाफ़ अपमानजनक कमेंट करते रहेंगे, ज़हर उगलते रहेंगे क्योंकि बीजेपी के मैनेजर गडकरी उनके दोस्त हैं।

हे उत्तरभारतीयों! अब तुम्हें तय करना है कि तुम्हारे अपने मासूम बच्चों की पिटने वालों, पिटवाने वालों और हमलावरों से दोस्ती रखने वालों को इस लोकसभा चुनाव में वोट देना है या नहीं? यक़ीन मानो जो लोग नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी या सेक्युलरिज़्म का हवाला देकर इन हमलावरों से दोस्ती गांठ रहे हैं। या इन हमलावरों से किसी भी तरह से जुड़े हैं। उनकी बातों में आना है या नहीं, यह तुम्हें ही तय करना है। निश्चित तौर पर अगर तुम्हारे अंदर का स्वाभिमान मरा नहीं है, उन बच्चों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटने का दृश्य नहीं भूले होगे तो तुम लोग इनको कतई वोट नहीं दोगो।

तुम्हारे बीच के वे नेता जो इन हमलावरों से जुड़े हैं, उनके दोस्त हैं, या उनके ख़ेमे में हैं, उनके अपने स्वार्थ हैं। उनके अपने स्वार्थ के आगे तुम्हारा हित कहीं ठहरता ही नहीं। इस बात को ज़ेहन में रखना। इसलिए इस तरह के अवसरवादी नेताओं से भी सावधान रहना क्योंकि ये अवसरवादी अपना हित साधने के लिए यानी विधायक, सांसद या मंत्री बनने के लिए तुम्हारा इस्तेमाल कर रहे हैं। यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं सत्ता के लालची ये स्वार्थी नेता उत्तर भारतीय समाज के लिए हमलावरों से भी ज़्यादा ख़तरनाक हैं। ये विभीषण की कैटेगरी में आते हैं।

उत्तर भारतीय छात्रों की पिटाई करवाने वाले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे को कांग्रेस और बीजेपी दोनों प्रमोट कर रही हैं। कांग्रेस ने कभी राज ठाकरे के ख़िलाफ़ उचित कार्रवाई नहीं की तो अब बीजेपी चुनाव में उनका साथ और समर्थन चाह रही है। यानी ये दोनों राष्ट्रीय पार्टियां उत्तर भारतीय छात्रों पर हुए हमले की सीधी दोषी हैं। कांग्रेस शासन में संरक्षण इंन्जॉय करने वाले राज ठाकरे आज भी मराठी धरती पुत्रों का हवाला देकर उत्तर भारत के लोगों का हड़काते रहते हैं, अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते हैं और कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियां मौन धारण किए रहती हैं।

बीजेपी ने तो अपनी मुंबई इकाई में उत्तर भारतीयों का पत्ता ही साफ़ कर दिया है। कोई है बीजेपी नेता जिसे आज की तारीख़ में उत्तर भारतीयों का हितैषी या प्रतिनिधि कहा जा सके। मुंबई बीजेपी ने उत्तर भारतीय नेताओं को चुन-चुनकर हाशिए पर डाल दिया। ऐसे में उत्तर भारतीय वोटों की उम्मीद यह पार्टी क्या राजनाथ सिंह के नाम किस आधार पर कर रही है। ज़ाहिर हैं कांग्रेस और बीजेपी में यहां भी कोई ख़ास अंतर नहीं है जैसे देश के बाक़ी हिस्सों में। दोनों पार्टियां एक ही सिक्के की दो पहलू हैं।

हमारा देश 26 जनवरी 1950 को लागू किए गए 397 अनुच्छेदों वाले संविधान से चल रहा है। इसमें अब तक सौ से ज़्यादा संशोधन किए गए हैं। देश का वहीं संविधान देश के हर नागिरक को रोज़ी-रोटी के लिए देश के किसी भी कोने में जाने, रहने और काम करने का अधिकार देता है। इसीलिए देश के हर कोने के लोग दूसरी जगह बसे हैं। इसी को हम विविध संस्कृति के नाम से जानते हैं। जिसे हम गंगा-जमुनी संस्कृति भी कहते हैं। लेकिन राज ठाकरे जैसे सत्ता के लालची अरबपति नेता मराठीभाषियों की भावनाओं को अपने स्वार्थ के लिए भड़काते हैं। तो ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ फ़ॉस्टट्रैक कोर्ट में मामला चलवाकर इन्हें यथाशीघ्र सज़ा दी जानी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इस राजनीति को बेनक़ाब करने का वक़्त आ गया है।

अगर उत्तर प्रदेश, बिहार और बाक़ी प्रदेशों के लोग रोज़ी-रोटी के लिए मुंबई की रुख करते हैं तो इसके लिए 67 साल तक शासन करने वाली कांग्रेस, बीजेपी, जनता पार्टी, जनता दल और इन दलों के नेता जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरसिंह राव, मनमोहन सिंह के अलावा मोराजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथप्रताप सिंह, चंद्रशेखर सिंह, एचडी देवेगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और अटलबिहारी वाजपेयी को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। क्योंकि इन नेताओं ने देश का संतुलित विकास नहीं किया। मुंबई को अगर विरार तक मान लें, तो यह शहर देश की 60-65 किलोमीटर में समुद्री सीमा में सिमटा है और देश के पास 7000 हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा की समुद्री सीमा है। इस लिहाज़ से देश में 100 से ज़्यादा मुंबई विकसित की जा सकती थी। लेकिन नहीं की गई। कल्पना कीजिए, इस देश के पास 100 से ज़्यादा मुंबई जैसे शहर होते तो क्या मुंबई में इतनी भयानक भीड़ होती? कौन चाहेगा अपनी मिट्टी से दूर ऐसी जगह रहे जहां उसे बाहरी कहा जाता है और तमाम तरह के अपमान झेलने पड़ते हैं। अपने गांव तक आने-जाने के लिए स्ट्रगल करना पड़ता है।

अगर मुंबई के ओरिजिन की बात करें तो कभी यह सात टापुओं पर बसा वीरान इलाक़ा था। यहां हर कोई बाहर से ही आया है। हां, कोई बहुत पहले आ गया था, कोई बाद में आया, कोई अब आ रहा है और कोई भविष्य में आएगा। यहां अगर ठाकरे परिवार की बात करें तो आधुनिक डीएनए विश्लेषण से यह साबित हो गया है कि ठाकरे के पूर्वज चंद्रसेनिया कायस्थ समुदाय से आते हैं जिनका मूल चिनाब नदी यानी कश्मीर है। यानी वे कश्मीर से ही निकलकर पूरे देश में फैले और बिहार, मध्य प्रदेश होते हुए महाराष्ट्र (तब महाराष्ट्र था ही नहीं) में पहुंचे। यानी जब हर कोई मुंबई में बाहर से आया है तो कोई किसी को बाहरी कैसे कह सकता है। इसलिए सबको भारतीय कहना ज़्यादा प्रासंगिक होगा।

बहुत से लोगों को पता नहीं है कि वाराणसी में बहुत बड़ी तादाद में मराठी और बंगाली रहते हैं। मराठियों और बंगालियों ने बनारस में काशी की संस्कृति को आत्मसात कर लिया है। इसलिए वे वहां अपने को बाहरी नहीं समझते। फिर उत्तर प्रदेश बिहार जैसे राज्यों में इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया जाता कि कौन कहां से आया है। लिहाज़ा किसी के साथ भाषा के आधार पर भेद किया ही नहीं जाता। ऐसे में यह सवाल जायज है कि फिर मुंबई में उत्तर प्रदेश के लोगों को किस बिना पर परप्रांतीय या बाहरी कैसे कहा जा सकता है? ख़ासकर जब महाराष्ट्र राज्य ही 1960 में बना हो तो कैसे कोई यही का आदमी अपने आपको धरती पुत्र और बाक़ी लोगों को बाहरी कह सकता है। इस तरह की नफ़रत फैलाने वालों के ख़िलाफ़ जब यह सिलसिला शुरू हुआ तभी ऐक्शन लिया जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। कांग्रेस ऐसे तत्वों को बढ़ावा देती रही। ऐसी कांग्रेस को कभी माफ़ नहीं किया जाना चाहिए जिसने कुछ चुनिंदा राज्यों के अलावा कहीं भी विकास नहीं किया लिहाज़ा हर जगह से लोग रोज़ी रोटी की तलाश में अपना घर बार छोड़कर चले जाते हैं और वहां राज ठाकरे जैसे लोगों की राजनीति के शिकार होते हैं।

आज़ादी के बाद कांग्रेस पूरे समय केवल और केवल वोट बैंक की राजनीति करती रही है। एक साज़िश के तहत मुसलमानों को शिक्षा से वंचित रखा। नतीजा सामने हैं, आज सरकारी नौकरियों में मुसलमान अपनी आबादी के अनुपात में कहीं है भी नहीं। इतनी बड़ी आबादी और सरकारी नौकरी में इतना कम प्रतिनिधित्व हैरान करता है। इसलिए यह क़ौम आज भी सुरक्षा के नाम पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे अवसरवादी राजनीतिक दलों को वोट देने के लिए मज़बूर है। और ये पार्टियां और उनके मुस्लिम नेता इस क़ौम को बेवकूफ़ बनाते हैं।

उत्तर भारतीयों की तरह मुसलमानों का मुद्दा कम अहम नहीं है। छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुंबई में दिसंबर और जनवरी में दो चरण में दंगे (हुए तो कतई नहीं) करवाए गए। जिसमें हज़ार से ज़्यादा निर्दोष लोग मारे गए। उसकी जांच के लिए श्रीकृष्णा आयोग का गठन हुआ। आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी दी लेकिन आज कहां है वह रिपोर्ट। 1999 में कांग्रेस ने उसी रिपोर्ट को लागू करने का वादा करके मुसलमानों का वोट हासिल किया था। आज मुंबई दंगे को लोग पूरी तरह भूल गए हैं जबकि उस मारकाट के दोषी शायद ही किसी को सज़ा मिली होगी।

ज़ाहिर सी बात है कि अगर कांग्रेस-एनसीपी सीरियस होती तो श्रीकृष्ण आयोग में दोषी ठहराए गए लोगों के ख़िलाफ़ फ़ॉस्टट्रैक कोर्ट में मुक़दमा चलता और उन्हें उनके ग़ुनाह के लिए जेल भेजा जाता लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया। मुसलमानों का हितैषी होने का दंभ करने वाले भी विधायक और मंत्री का पद पाते ही अपनी क़ौम को भूल गए। लिहाज़ा आज ये सभी कैरेक्टर जब आप के पास वोट के लिए आएं तो क्या आपको उन्हें वोट देना चाहिए? नहीं बिलकुल नहीं। हां, आपके पास इन नेताओं के अलावा और कोई ऑप्शन न हो तो राइट टू रिजेक्ट का इस्तेमाल कीजिए लेकिन सत्तावर्ग के इन कथित दलालों को वोट कभी मत देना।

कुल मिलाकर ख़ुशहाल और शांतिपूर्ण जीवन हर आदमी का सपना होता है। समाज और शहर ऐसा हो जो अपने परिवार जैसा लगे। ऐसे में नफ़रत फैलाने का क्या तुक? जो लिहाज़ा लोग नफ़रत की आग पर अपनी रोटी सेंकते हैं उन्हें आइडेटिफ़ाई करके बाहर का रास्ता क्यों न दिखा दिया जाए और इसके लिए चुनाव जैसा लोकतंत्र का महापर्व सबसे शुभ और पाक घड़ी है।

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