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रविवार, 19 जून 2016

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नरों की सूची - List of Reserve Bank governor

By Hari Govind Vishwakarma
List of Reserve Bank governor

1.       सर ओसबोर्न स्मिथ   01-04-1935 से 30-06-1937
2.       सर जेम्स टेलर      01-07-1937 से 17-02-1943
3.       सर सी डी देशमुख    11-08-1943 से 30-06-1949
4.       सर बेनेगल रामा राव  01-07-1949 से 14-01-1957
5.       केजी अंबेगांवकर            14-01-1957 से 28-02-1957
6.       एचवीआर लेंगर       01-03-1957 से 28-02-1962
7.       पीसी भट्टाचार्य       01-03-1962 से 30-06-1967
8.       एलके झा           01-07-1967 से 03-05-1970
9.       बीएन अडारकर       04-05-1970 से 15-06-1970
10.   एस जगन्नाथन      16-06-1970 से 19-05-1975
11.   एनसी सेनगुप्ता      19-05-1975 से 19-08-1975
12.   केआर पुरी          20-08-1975 से 02-05-1977
13.   एम नरसिम्हम्       02-05-1977 से 30-11-1977
14.   डॉ आईजी पटेल            01-12-1977 से 15-09-1982
15.   डॉ मनमोहन सिंह     16-09-1982 से 14-01-1985
16.   ए घोष             15-01-1985 से 04-02-1985
17.   आरएन मल्होत्रा            04-02-1985 से 22-12-1990
18.   एस वेंकटरमणन            22-12-1990 से 21-12-1992
19.   डॉ सी रंगराजन      22-12-1992 से 21-11-1997
20.   डॉ बिमल जालान     22-11-1997 से 06-09-2003
21.   डॉ वाईवी रेड्डी       06-09-2003 से 05-09-2008
22.   डॉ. डी सुब्बाराव            05-09-2008 से 04-09-2013

23.   डॉ रघुराम राजन      04-09-2013 से अब तक
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नरों की सूची
(List of Reserve Bank governor)

1948-66     4.79
1.       सर ओसबोर्न स्मिथ   01-04-1935 से 30-06-1937 2        0.00
2.       सर जेम्स टेलर       01-07-1937 से 17-02-1943 5       0.00
3.       सर सी डी देशमुख    11-08-1943 से 30-06-1949 6        0.00
4.       सर बेनेगल रामा राव  01-07-1949 से 14-01-1957 8    4.75
5.       केजी अंबेगांवकर      14-01-1957 से 28-02-1957
6.       एचवीआर लेंगर       01-03-1957 से 28-02-1962 5
7.       पीसी भट्टाचार्य        01-03-1962 से 30-06-1967 5    2.91 
8.       एलके झा            01-07-1967 से 03-05-1970 3    0.75
9.       बीएन अडारकर       04-05-1970 से 15-06-1970      
10.   एस जगन्नाथन  16-06-1970 से 19-05-1975 5 0.75 रुपया पाउंड-USD (1971)
11.   एनसी सेनगुप्ता      19-05-1975 से 19-08-1975
12.   केआर पुरी           20-08-1975 से 02-05-1977 2         0.36
13.   एम नरसिम्हम्        02-05-1977 से 30-11-1977
14.   डॉ आईजी पटेल       01-12-1977 से 15-09-1982 5        0.71
15.   डॉ मनमोहन सिंह     16-09-1982 से 14-01-1985 3          2.86
16.   ए घोष              15-01-1985 से 04-02-1985
17.   आरएन मल्होत्रा       04-02-1985 से 22-12-1990 5      5.21 
18.   एस वेंकटरमणन       22-12-1990 से 21-12-1992 2      5.22
19.   डॉ सी रंगराजन       22-12-1992 से 21-11-1997 5      13.64
20.   डॉ बिमल जालान      22-11-1997 से 06-09-2003 6      10.24
21.   डॉ वाईवी रेड्डी        06-09-2003 से 05-09-2008 5      -5
22.   डॉ. डी सुब्बाराव       05-09-2008 से 04-09-2013 5       25.34
23.   डॉ रघुराम राजन      04-09-2013 से अब तक    3       -1.56

रुपए में अवमूल्यन
1.       1949  1
2.       1952  4.75  सर बेनेगल रामा राव 
3.       1966  7.10  पीसी भट्टाचार्य      
4.       1973  7.66  एलके झा/एस जगन्नाथन 0.75
5.       1974  8.03 
6.       1975  8.41  केआर पुरी             0.36
7.       1976  8.97 
8.       1977  8.77  डॉ आईजी पटेल         0.71
9.       1978  8.20 
10.   1979  8.16 
11.   1980  7.89 
12.   1881  8.68 
13.   1982  9.48  डॉ मनमोहन सिंह       2.86
14.   1983  10.11
15.   1984  11.36
16.   1985  12.34 आरएन मल्होत्रा        5.21
17.   1986  12.60
18.   1987  12.95
19.   1988  13.91      
20.   1989  16.21
21.   1990  17.50 एस वेंकटरमणन
22.   1991  22.72
23.   1992  22.72 डॉ सी रंगराजन
24.   1993  28.14
25.   1994  31.39
26.   1995  32.43
27.   1996  35.52
28.   1997  36.36 डॉ बिमल जालान
29.   1998  41.33
30.   1999  43.12
31.   2000  45.00
32.   2001  47.23
33.   2002  48.62
34.   2003  46.60 डॉ वाईवी रेड्डी
35.   2004  45.28
36.   2005  44.01
37.   2006  45.17
38.   2007  41.20
39.   2008  43.41 डॉ. डी सुब्बाराव
40.   2009  48.32
41.   2010  45.65
42.   2011  46.61
43.   2012  55.7817
44.   2013  61.82 (अगस्त 2013 - 68.75)     डॉ रघुराम राजन
45.   2014  63.20
46.   2015  66.27
47.    

इस चार्ट को देखिए कांग्रेस को अंग्रेज़ सरकार से मज़बूत इकोनॉमी मिली थी पर उसे कांग्रेसी मैनेजर बरकरार नहीं रख पाए.


1.     सत्तारूढ़ पार्टी        कार्यकाल                          अवधि (वर्ष+माह)    यूएस डॉलर के मुक़ाबले रुपया  लाभ या हानि        
2.     अंग्रेज़ी शासन        15 अगस्त 1947           00+00           01.0000 to 01.0000        00.0000         
3.     कांग्रेस            15 अगस्त 4724 मार्च 77    29+07           01.0000 to 08.9000        08.9052 (हानि)     
4.     जनता पार्टी          24 मार्च 7714 जनवरी 80    02+05           08.9052 to 07.9882        00.9170 (लाभ)     
5.     कांग्रेस            14 जनवरी 8002 दिसंबर 89  09+11           07.9882 to 16.9320        08.9438 (हानि)
6.     जनता दल       02 दिसंबर 8921 जून 91     01+07           16.9320 to 20.5186        03.5866 (हानि)
7.     कांग्रेस            21 जून 9116 मई 96       04+11           20.5186 to 35.0250        14.5064 (हानि)     
8.     बीजेपी+राष्ट्रीय मोर्चा   16 मई 9619 मार्च 98  01+10           35.0250 to 39.5686        04.5436 (हानि)     
9.     बीजेपी                 19 मार्च 9822 मई 04       06+02           39.5686 to 43.8918        04.2232 (हानि)
10.  कांग्रेस               22 मई 0428 अगस्त 13     09+03           43.8918 to 68.8250        24.9332 (हानि)


 Note: सभी आंकड़े आरबीआई या अन्य अथेंटिक वेबसाइट्स से लिए गए हैं.      

मंगलवार, 14 जून 2016

बिना मोबाइल के जीवन

हरिगोविंद विश्वकर्मा 
आज मैं घर से बिना मोबाइल के निकला तो लगा कुछ भूल रहा हूं. पता नहीं क्यों रास्ते भर यही सोचता रहा कि आख़िर आज क्या भूल गया हूं, क्या मिस कर रहा हूं. हालांकि मैं वैसे भी बहुत ज़्यादा फोन या मैसेज नहीं करता, इसीलिए मेरा बिल बहुत कम आता है. इसके बावजूद मैं मोबाइल को बुरी तरह मिस कर रहा था. पता नहीं कब और क्यों मोबाइल जीवन से इस तरह जुड़ गया है कि न रहने पर बार-बार सोचने लगता था कि आख़िर मैं आज क्या भूल रहा हूं.

इसमें दो राय नहीं कि आजकल मोबाइल बहुउपयोगी हो गया है. कोई भी काम पड़ता है, तो बस मोबाइल ही देखते हैं. कॉल और संदेश ही नहीं, तारीख़ कितनी है, या दिन कौन सा है या फिर टाइम कितना हुआ है, इन सबके लिए मोबाइल पर बुरी निर्भरता है. इतना ही नहीं मोबाइल के कैलेंडर से आने वाले दिन में क्या प्रोग्राम है यह भी पता चलता है. कुल मिलाकर मोबाइल जीवनसाथी की तरह हो गया है. मतलब अपनों से ज़्यादा लगाव मोबाइस से...

हालांकि कमबख़्त मोबाइल ने चिट्ठियां लिखने-लिखवाने के मानव के ख़ूसूरत रोमांच को ही मार डाला. अन्यथा एक दौर वह भी था, जब किसी ख़ास का संदेश पाने के लिए लोग कई-कई दिन चिट्ठियों और चिट्ठी लाने वाले डाकिये का इंतज़ार करते थे, डाकिए को गांव में देखते ही उसके पास दौड़कर जाते थे और पूछते थे –मेरी कोई चिट्ठी है क्या...? तब लोग अर्जेंट संदेश देने के लिए तार करते थे. मुझे याद है 1983 में मेरे पिताजी का असामयिक निधन हुआ था, तब बड़े भाईसाहब को मुंबई में ख़बर देने के लिए बनारस से तार करना पड़ा. वह भी दो शब्द ही लिखा था –फादर एक्पायर्ड... बहरहाल, माबाइल ने आकर मानव जीवन की ख़ूबसूरत सी संचार प्रणाली को तहसनहस कर दिया. कह सकते हैं कि मोबाइल ने चिट्ठियों की परंपरा को ख़त्म कर दिया... इसके बावजूद मोबाइल से इतना प्यार?

आजकल हम लोग मोबाइल के इतने आदी हो गए हैं, यह ऑक्सीजन की तरह हो गया है. इसे आदत न कहकर मजबूरी भी कह सकते हैं. यह जीवन में इतने अंदर तक समा चुका है कि इसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं होती. यह उस प्रियतमा की तरह हो गया है, जिसे हम हर पल मिस करते हैं. तभी तो मेडिकल जगत के लोग लाख आगाह करते हैं कि मोबाइल से रेडिएशन होता है, जिससे सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ता है, पर कहां कोई मानने वाला. लोग लगाए रहते हैं कान से मोबाइल. आजकल लोग यात्रा करते हुए हरदम मोबाइल हैंडसेट कान से लगाए गाना सुनते रहते हैं. इसका सकारात्मक असर यह हुआ कि लोग यात्रा में अपने आप में ही मस्त रहते हैं, कई लोग कहते हैं कि मोबाइल के आने से ट्रेन, ख़ासकर लोकल ट्रोन में झगड़े वगैरह होने कम हो गए हैं. इस लिहाज़ ये मोबाइल बहुत अच्छा है.

दरअसल, अब उस कारण का ज़िक्र, जिससे यह पीस लिखने की नौबत आई ? दरअसल, पिछले साल मैंने जियोनी हैंडसेट ले लिया. बैटरी तो उसकी ठीक है, लेकिन हैंडसेट ठीक नहीं. कल अचानक कोई सीरियस प्रॉब्लम आ गया. इससे पूरा फोन ही बंद हो गया. लिहाज़ा, उसे सिम समेत मैकेनिक को दे दिया. यूं तो मोबाइल का इस्तेमाल, मैंने उसके आगमन के चार साल बाद यानी सन् 2000 से ही शुरू कर दिया था, लेकिन तब भी इनकमिंग कॉल इतने ज़्यादा महंगे होते थे कि हिम्मत नहीं पड़ती थी नियमित मोबाइल रखने की. लेकिन रिलायंस की मोबाइल जगत में एंट्री होते ही आम भारतीयों की तरह मेरे पास भी  सन् 2003 से नियमित मोबाइल आ गया था. उसी दौरान बनारस ट्रांसफर हुआ तो मुंबईवाला फोन ही लेकर गया, तब रिलांयस की लोकल रोमिंग फ्री होती थी, जो बाद में बंद हो गई. बहरहाल, उसी साल शायद सितंबर या अक्टूबर में मोबाइल का इनकमिंग कॉल फ्री हो गया. फिर तो मोबाइल जीवन से ऐसे जुड़ा कि फिर कभी जुदा ही नहीं हुआ. जम्मू-कश्मीर ट्रांसफर हुआ तो वहां भी पोस्टपेड सिम लेना पड़ा, क्योंकि तब प्रीपेड सिम जम्मू-कश्मीर के बाहर काम नहीं करता था. इस असुविधा को टालने के लिए पोस्टपेड सिम रखने की आदत पड़ गई.


बहहाल, आनेवाले एक-दो दिन बिना मोबाइल के रहना पड़ेगा.. फिर भी मोबाइल न रहने से एक सुकून भरी राहत है. कोई फोन नहीं, कोई मैसेज नहीं.. पूर्ण शांति है... आज मुझे लग रहा है कि वाक़ई बिना मोबाइल वाला जीवन इस मोबाइल वाले जीवन से बेहतर था...!

मंगलवार, 7 जून 2016

कविता - बदलाव - हरिगोविंद विश्वकर्मा

बदलाव

क्या सचमुच चाहता है समाज
स्त्री-पुरुष को देखना समान
तो इसके लिए
कुछ नहीं करना
बस बेटी को बना होगा
उत्तराधिकारी परिवार का
सामाजिक रूप से ही नहीं
क़ानूनी तौर पर भी
चली आ रही है परंपरा
पता नहीं कितनी सदियों से
पुत्र को बनाने का उत्तराधिकारी
भेट चढ़ गई है स्त्री
इस पुरुष-प्रधान परंपरा की
बन गई है नागरिक
दोयम दर्जे की
अबला, पराया धन, बोझ
और पता नहीं क्या-क्या
कहा जाने लगा है स्त्री को
अगर करना है मुक्त
ग़ुलामी के एहसास से उसे
तो देना होगा उसे अधिकार
पिता की संपत्ति पाने का
बहुत ज़्यादा नहीं
केवल दस साल के लिए
हां, इन दस सालों
बेटा नहीं, केवल बेटी ही होगी
वारिस माता-पिता की
तभी होगा नारी का
सही मायने में सशक्तिकरण
और वह पहुंच जाएगी
पुरुष के बराबर
बिना किसी आरक्षण के
मानिए यकीन
तब हो जाएंगी हल
अपने आप समाज की
सारी समस्याएं
क्योंकि अपने स्वभाव के चलते
नारी नहीं करेगी
पुरुष के साथ भेदभाव
जैसा कि पुरुष अब तक
करता रहा है नारी के साथ

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

सोमवार, 6 जून 2016

जम्मू-कश्मीर - धारा 370 हटाने से ही ख़त्म होगा आतंकवाद

हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो साल के कार्यकाल में केंद्र सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति कमोबेश कांग्रेस सरकार जैसी ही रही है। कांग्रेस की तरह बीजेपी भी वहां की क्षेत्रीय पार्टी, पीपुल्स डेमोक्रिटक पार्टी के साथ सत्ता सुख भोग रही है। इसके लिए बीजेपी ने पीडीपी को लिखित रूप में आश्वासन भी दिया है कि राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छे 370 को केंद्र की एनडीए सरकार जस का तस बनाए रखेगी यानी उससे कोई छोड़छाड़ नहीं किया जाएगा। ज़ाहिर है, अपने को घोर राष्ट्रवादी पार्टी मानने वाली बीजेपी ने फ़िलहाल कश्मीर में सत्ता सुख के लिए अपने सबसे अहम् एजेंडे को ठंडे बस्ते में डाल दिया। अब बीजेपी कह रही है, जब भारतीय संसद में दो तिहाई बहुमत मिलेगा, इस मसले को तब देखेंगे।

दरअसल, लोकसभा में चुनाव प्रचार के दौरान जम्मू की रैली में मोदी ने ही धारा 370 पर कम से कम बहस करने की बात कही थी। उस समय राष्ट्रवाद के पैरोकार उम्मीद करने लगे थे कि सत्ता में आने के बाद मोदी इस एजेंडे पर काम करेंगे। मोदी ने शुरुआत भी अच्छी की थी। उधमपुर के लोकसभा सदस्य डॉ. जीतेंद्र सिंह को पीएमओ में राज्यमंत्री बना दिया था और डॉ. जीतेंद्र धारा 370 पर बहस की बात करने लगे थे, तब भी लगा थी कि मोदी परंपरा से हटकर कोई क़दम उठाएंगे, लेकिन दो साल बाद हालात एकदम अलग हैं। बहस तो दूर बीजेपी ने पीडीपी को लिखकर दे दिया है कि यह मसला जस का तस रहेगा। यही तो कांग्रेस करती आ रही है।

पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी अपने पूरे कार्यकाल के दौरान इस बात पर अफ़सोस करते रहे कि बहुमत न होने के कारण धारा 370 को पर कोई फ़ैसला नहीं ले पा रहे हैं। कम से कम ऐसी शिकायत मोदी को नहीं है, क्योंकि उनके पास लोकसभा में 280 सीट का अच्छा बहुमत है। देश की जनता ने मोदी को बहुमत और एनडीए को 336 लोकसभा सदस्यों की शक्ति देकर यह संदेश दिया है कि भारत में सभी राज्यों को बराबर कर दीजिए। लिहाज़ा, मोदी के सत्ता में आते ही लोग धारा 370 को ख़त्म करने की चर्चा करने लगे थे।

यह सच है कि धारा 370 ख़त्म करने के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत यानी लोकसभा में 367 सीट और राज्यसभा में 164 सीट की ज़रूरत है। यह काम केंद्र नहीं कर सकता क्योंकि उसके पास दो तिहाई बहुमत न तो लोकसभा में है न ही राज्यसभा में। लेकिन, चूंकि मोदी ने ख़ुद चुनाव प्रचार के दौरान धारा 370 के औचित्य पर सवाल उठाया था और उन्हें उसी मुद्दे पर जनादेश मिला था। लिहाज़ा, कम से कम सरकार को इस मुद्दे पर संसद में बहस की पहल तो करनी चाहिए थी। ताकि पूरा देश सुनता कि उनके क़ानून-निर्माता किसी राज्य विशेष को स्पेशल स्टैटस देने के बारे में क्या सोच रखते हैं।

अगर कश्मीर में मौजूदा हालात पर बात करें तो एनआईटी का विवाद थम गया है, पर आतंकी वारदात और सीमापार से घुसपैठ बढ़ रही हैं। धीरे-धीरे घाटी में आतंकवाद की फिर से वापसी होती नज़र आ रही है। हैरानी की बात है कि यह घोर राष्ट्रवादी कहे जाने वाले प्रधानमंत्री के रिजिम में हो रहा है। इस बात में दो राय नहीं कि कश्मीर समस्या और आतंकवाद तब तक यथावत रहेगा, जब तक कठोर फ़ैसला लेते हुए विशेष राज्य का दर्जा देने वाले धारा 370 ख़त्म नहीं कर दी जाती। वाक़ई अगर कश्मीर समस्या सदा के लिए हल करना है तो भारतीय संसद को ज़बरदस्ती इस धारा को स्क्रैप कर देना चाहिए।

कई लोग आशंकित रहते हैं कि इसे ख़त्म करने से बवाल हो सकता है। यह महज़ भ्रांति है, क्योंकि राज्य में जितने लोग इस धारा के समर्थक हैं, उससे ज़्यादा इसके विरोधी। इसलिए, अगर संसद इसे ख़त्म करने का प्रस्ताव पारित करती है, तो बहुत होगा, मुट्ठी भर लोग श्रीनगर की सड़कों पर निकलेंगे। इस तरह का विरोध तो यहां 26-27 साल से आए दिन हो रहा है। एक और विरोध प्रशासन झेल लेगा, जैसे 8 अगस्त 1953 को तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को कथित तौर पर कश्मीर को भारत से अलग करने की साज़िश रचने के आरोप में डिसमिस करके जेल में डाल देने पर विरोध ज़रूर हुआ था परंतु वह धीरे-धीरे शांत हो गया। ठीक इसी तरह धारा 370 ख़त्म करने पर विरोध होगा, लेकिन धीरे-धीरे शांत हो जाएगा और कम से कम एक नासूर की स्थाई सर्जरी तो हो जाएगी।

कश्मीर का भूगोल ही ऐसा है कि वह स्वतंत्र देश के रूप में अपना अस्तित्व लंबे समय तक नहीं बनाए रख सकता। अगस्त 1947 में वह आज़ाद था, पर विभाजन के फ़ौरन बाद पाकिस्तान ने क़ब्ज़े के मकसद से कबीलाइयों के साथ हमला कर दिया और मुज़फ़्फ़राबाद व मीरपुर जैसे समृद्ध इलाकों पर क़ब्ज़ा कर लिया। कश्मीर पाकिस्तान से बचाने के लिए राजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला ने दिल्ली का रुख किया। 26 अक्टूबर 1947 को भारत में विलय के समझौते का बाद कश्मीर भारत का हिस्सा बना। मतलब, मान लीजिए, कश्मीर आज़ाद हो भी जाए, तो पाकिस्तान उसे आज़ाद नहीं रहने देगा। अगर पाकिस्तान से बच गया तो चीन घात लगाए बैठा है। जैसे तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लिया, वैसे ही कश्मीर पर क़ब्ज़ा कर लेगा। यानी कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व फिज़िबल नहीं है।

यह तथ्य अलगाववादी और दूसरे नेता भली-भांति जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि कश्मीर भारत से अलग नहीं हो सकता। लिहाज़ा, अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए आज़ादी का राग आलापते रहते हैं। देश के पैसे पर पल रहे ये लोग इतने भारत को अपना देश मानते ही नहीं और दुष्प्रचार करते रहते हैं। इनकी पूरी कवायद धारा 370 अक्षुण्ण रखने के लिए होती है। दरअसल, पिछले क़रीब सात दशक से सत्ता सुख भोगने वाले ये लोग इसे ख़त्म करना तो दूर इस पर चर्चा का भी विरोध करते हैं। बहस या समीक्षा की मांग सिरे से ख़ारिज़ करते हैं। सीएम मेहबूबा मुफ़्ती, उमर अब्दुल्ला आदि धमकी देते हैं कि अगर यह हटा तो कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा। इस बात में दो राय नहीं कि इस विकास-विरोधी प्रावधान को अब्दुल्ला-मुफ्ती जैसे सियासतदां और नैशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसी पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए बनाए रखना चाहती हैं, क्योंकि यह धारा उनके ऐय्याशी, निकम्मेपन और भ्रष्टाचार पर लीपापोती करने का कारगर टूल बन गया है।

अगर कहा जाए कि इस सीमावर्ती राज्य की समस्या के लिए केवल पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ज़िम्मेदार हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। नेहरू की अदूरदर्शिता और अहंकार का नतीजा आज पूरा मुल्क़ भुगत रहा है। धारा 370 का सबने कड़ा विरोध किया था, पर नेहरू अड़े रहे। ’अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता और मज़बूरी’ का हवाला देकर इसे लागू कराने में सफल रहे। नेहरू और शेख अब्दुला के बीच दिल्ली समझौते के बाद भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश किया गया।

देश के स्वरूप पर आघात करने वाले इस प्रावधान का डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने पुरज़ोर विरोध किया था। 1952 में मुखर्जी ने नेहरू से कहा, “आप जो करने जा रहे हैं, वह नासूर बन जाएगा और किसी दिन देश को विखंडित कर देगा। यह प्रावधान उन लोगों को मज़बूत करेगा, जो कहते कि भारत एक देश नहीं, बल्कि कई राष्ट्रों का समूह है।“ आज घाटी में जो हालात हैं उन्हें देखकर लगता है कि मुखर्जी की आशंका ग़लत नहीं थी?  धारा 370 के कारण ही राज्य मुख्यधारा से जुडऩे की बजाय अलगाववाद की ओर मुड़ गया। यानी देश के अंदर ही एक मिनी पाकिस्तान बन गया, जहां तिरंगे का अपमान होता है, देशविरोधी नारे लगाए जाते हैं और भारतीयों की मौत की कामना की जाती है।

एक उपलब्ध रिपोर्ट के मुताबिक़, डॉ. भीमराव आंबेडकर भी कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने ने शेख़ अब्दुल्ला को लताड़ते हुए साफ़ शब्दों में कह दिया था, “आप चाहते हैं, भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, वह आपके यहां सड़कें बनाए, आपको राशन दे और कश्मीर का वही दर्ज़ा हो जो भारत का है! लेकिन भारत के पास सीमित अधिकार हों और जनता का कश्मीर पर कोई अधिकार नहीं हो। ऐसे प्रस्ताव को मंज़ूरी देना देश के हितों से दग़ाबाज़ी करने जैसा है और मैं क़ानून मंत्री होते हुए ऐसा कभी नहीं करूंगा।“ तब अब्दुल्ला नेहरू से मिले जिन्होंने उन्हें गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेज दिया। आयंगर सरदार पटेल से मिले और उनसे कहा कि वह इस मामले में कुछ करें क्योंकि नेहरू ने अब्दुल्ला से इस बात का वादा किया था और अब यह उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ गया है।

दरअसल, विशेष दर्जे के कारण राज्य में बेटियों के साथ घोर पक्षपात होता है। दूसरे राज्य के व्यक्ति से शादी करने पर वे स्टेट सब्जेक्ट यानी राज्य की नागरिकता खो देती हैं। कुपवाड़ा की अमरजीत कौर इस अमानवीय पक्ष की जीती जागती मिसाल हैं। गैर-कश्मीरी से शादी करने वाली अमरजीत को नागरिकता साबित करने और पैत्रृक संपति पर अधिकार साबित करने में 24 साल लग गए। दूसरे राज्य के पुरुष से शादी के बाद बेटियां नागरिक बनी रहेंगी या नहीं, इस मसले पर आज भी कोई साफ़ गाइडलाइन नहीं है। जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के 2002 के फ़ैसले के बाद धारा 370 की विसंगतियां प्रकाश में आईं। इसे बदलने की कोशिश तो दूर राजनीतिक दलों ने इस पर चर्चा भी नहीं की। इसी मंतव्य के तहत सन् 2004 में विधानसभा में ‘स्थाई नागरिकता अयोग्यता विधेयक’ यानी परमानेंट रेज़िडेंट्स डिसक्वालिफ़िकेशन बिल पेश हुआ। इसका मकसद ही हाईकोर्ट का फैसला निरस्त करना था। यह बिल क़ानून नहीं बन सका तो इसका सारा श्रेय विधान परिषद को जाता है जिसने इसे मंज़ूरी देने वाला प्रस्ताव ख़ारिज़ कर दिया।

एक सच यह भी है कि केंद्र इस राज्य को आंख मूंदकर पैसे देता है, फिर भी राज्य में उद्योग–धंधा खड़ा नहीं हो सका। यहां पूंजी लगाने के लिए कोई तैयार नहीं, क्योंकि यह धारा आड़े आती हैं। उद्योग का रोज़गार से सीधा संबंध है। उद्योग नहीं होगा तो रोज़गार के अवसर नहीं होंगे। राज्य सरकार की रोज़गार देने की क्षमता कम हो रही है। क़ुदरती तौर पर इतना समृद्ध होने के बावजूद इसे शासकों ने दीन-हीन राज्य बना दिया है। यह केंद्र के दान पर बुरी तरह निर्भर है। इसकी माली हालत इतनी ख़राब है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन का 86 फ़ीसदी हिस्सा केंद्र देता है। इतना ही नहीं इस राज्य के लोग पूरे देश के पैसे पर ऐश करते हैं।

दरअसल, धारा 370 को लागू करते समय नेहरू ने भरोसा दिया था कि यह अस्थायी व्यवस्था है जो समय के साथ घिस–घिस कर ख़ुद समाप्त हो जाएगी, लेकिन यह घिसने की बजाय परमानेंट हो गई। अब पीडीपी और एनसी क्रमशः सेल्फ़रूल और ग्रेटर ऑटोनॉमी के ज़रिए कश्मीर को 1953 से पहले की पोज़िशन में लाने की वकालत करते हैं। दरअसल, इन मुद्दों को उछालकर कश्मीरी नेतृत्व संकेत देता है कि धारा 370 को टच मत करो। ऐसे में यह कहना अतिरंजनापूर्ण कतई नहीं होगा कि मोदी ने चुनाव के दौरान यह मसला व्यापक राष्ट्रीय हित में उठाया था, लेकिन उस पर अमल नहीं किया। विशेषज्ञों का मानना है कि धारा 370 हटाने के बाद राज्य की 95 फ़ीसदी आबादी का विकास होगा जो अब तक मुख्यधारा से कटी हुई है क्योंकि सत्ता सुख भोगने वाले राजनेता अकेले ही अब तक सारी मलाई खाते रहे हैं।

गुरुवार, 2 जून 2016

प्रीति राठी : ज़िंदगी बचाने के सपने लेकर आई थी अपनी जिंदगी गंवाकर वापस गई

हरिगोविंद विश्वकर्मा
3 जून 2013
जी हां, सपनों के शहर में ज़िदगियां बचाने के सपने लेकर आई थी वह, लेकिन देखिए नियति का खेल, सपनों के उसी शहर ने उससे उसकी ही ज़िदगी छीन ली। और, इस शहर से आज (3 जून 2013) लौटा तो उसका पार्थिव शरीर। उस बदनसीब लड़की का नाम है प्रीति राठी। एसिड अटैक ने प्रीति से जिंदगी छीन ली जिसने खुद ज़िंदगियां बचाने की राह चुनी थी। जी हां, प्रीति ने सेवा को करियर बनाने का फ़ैसला किया था इसीलिए नर्सिंग को कोर्स किया था और नेवी के अस्पताल आईएनएस अश्विन पर उसकी पोस्टिंग हुई थी। ड्यूटी जॉइन करने के लिए ही वह सपनों के शहर मुंबई आई थी, लेकिन मुंबई नगरी की धरती पर क़दम रखा ही था कि एक वहशी दरिंदे ने उसके चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। दिल्ली की रहने वाली प्रीति महीने भर मौत से लड़ती रही। आख़िरकार शनिवार की शाम क़रीब चार बजे अति आधुनिक मेडिकल साइंस ने भी मौत के सामने सरेंडर कर दिया और बांबे अस्पताल के डॉक्टरों ने ख़ेद के साथ कहा, ‘सॉरी प्रीति ने दम तोड़ दिया’।
मुंबई को सपनों का शहर इसलिए कहा जाता है कि यहां जो भी आता है उसके सपने पूरे हो जाते हैं। बॉलीवुड में यह सिलसिला ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान तक लंबी परंपरा है। मुंबई ने सबके सपने पूरे किए, लेकिन प्रीति के सपने पूरे करने तो दूर मुंबई ने उसकी जान ही ले ली। मुंबई के चहरे पर लगा यह बदनुमा दाग़ शायद ही कभी धुल पाए।
क्योंकि मामले की जांच कर रही मुंबई पुलिस का सारा अटेंशन स्पॉट फ़िक्सिंग पर ही रह गया और वह प्रीति के साथ जस्टिस करने में फ़ेल रही। तभी तो प्रीति पर एसिड फेंकने वाला दरिंदा कौन है यह पुलिस पुख़्ता तौर पर तय नहीं कर सकी। प्रीति 2 मई 2013 को बांद्रा टर्मिनस के प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर उतरी थी। परिजनों के साथ वह अपना सामान उतार रही थी। इसी बीच दरिंदे ने उसके चेहरे पर एसिड फेंक दिया और फरार हो गया।
पहले रेलवे घूसकांड, उसके बाद स्पॉट फ़िक्सिंग और महेंद्र कर्मा वध ने मीडिया का अटेंशन डाइवर्ट कर दिया था और प्रीति के साथ हुए हादसे को उतनी कवरेज नहीं मिल पाई जितनी दिल्ली गैंगरेप की शिकार ज्योति सिंह को मिली थी। ख़ैर, प्रीति के साथ जो कुछ हुआ उससे नई जनरेशन की लड़कियों को नसीहत लेने और सतर्क रहने की ज़रूरत है। विकास के तमाम दावों के बावजूद यह देश पुरुष-प्रधान ही रहा। ऐसे समाज में स्त्री ख़ासकर लड़की पर क़दम-क़दम पर ख़तरा रहता है। यह ख़तरा तब तक बना रहेगा जब तक समाज में हर जगह उसकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर नहीं हो जाती या जब तक स्त्री आर्थिक रूप से पुरुष के बराबर नहीं हो जाती। आइए, प्रीति को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए यह संकल्प ले कि समाज में महिलाओं की बढ़ाकर पुरुषों के बराबर करने का अभियान आगे बढ़ाएंगे। जैसा कि हमें पता है घर के चहारदीवारी के बाहर महिलाओं की कम विज़िबिलिटी ही सबसे बड़ी समस्या या प्रॉब्लम है। यानी घर के बाहर महिलाएं दिखती ही नहीं, दिखती भी हैं तो बहुत कम तादाद में। सड़कों, रेलवे स्टेशनों और दफ़्तरों में उनकी प्रज़ेंस नाममात्र की है। चूंकि समाज में महिलाओं की आबादी 50 फ़ीसदी है तो हर जगह उनकी मौजूदगी भी उसी अनुपात में यानी 50 फ़ीसदी होनी चाहिए। अगर लड़कियों की विज़िबिलिटी की समस्या को हल कर लिया गया यानी महिलाओं की प्रज़ेंस 50 फ़ीसदी कर ली गई तो महिलाओं की ही नहीं, बल्कि मानव समाज की 99 फ़ीसदी समस्याएं ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाएंगी। महिलाएं बिना किसी क़ानून के सही-सलामत और महफ़ूज़ रहेंगी।
इस क्रम में सबसे पहले केंद्र और राज्य सरकार में 50 फीसदी जगह महिलाओं को देने को लिए सरकार और राजनैतिक दलों पर फ़ौरन दबाव बनाया जाना चाहिए। यानी पूरे देश की हर सरकार के कैबिनेट में महिला मंत्रियों की संख्या पुरुष मंत्रियों के बराबर होनी चाहिए। इसी तरह विधायिका यानी संसद (लोकसभा-राज्यसभा) और राज्य विधानसभाओं समेत देश की हर जनपंचायत में महज़ 33 फ़ीसदी नहीं, बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए आरक्षित (सुनिश्चित) की जानी चाहिए। हमारे देश में महिलाओं की आबादी फ़िफ़्टी परसेंट है तो विधायिका में आरक्षण 33 फ़ीसदी ही क्यों भाई? यह तो सरासर बेईमानी है। यानी संसद (लोकसभा-545 और राज्यसभा-245) में 790 सदस्यों में से 395 महिलाएं किसी भी सूरत में होनी ही चाहिए।
एक बात और, महिला आरक्षण की बेनिफ़िशियरी केवल एडवांस-फ़ैमिलीज़ यानी राजनीतिक परिवार की लड़कियां या महिलाएं न हों, जैसा कि अमूमन होता रहा है। क्योंकि पॉलिटिकल क्लास की ये महिलाएं अपने पति, पिता, ससुर या बेटे की पुरुष प्रधान मानसिकता को ही रिप्रज़ेंट करती हैं। इसलिए रिज़र्वेशन का लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब, देहाती, आदिवासी, दलित, पिछड़े वर्ग और मुस्लिम परिवार की महिलाओं को मिले यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, पुलिस बल, आर्मफोर्स, न्यायपालिका, बैंक, मीडिया हाउसेज़ और धार्मिक संस्थानों में आधी आबादी महिलाओं की होनी ही चाहिए। सरकारी और निजी संस्थानों, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी या अन्य शिक्षण संस्थानों में 50 प्रतिशत पोस्ट महिलाओं को दी जानी चाहिए। महिला घर में क्यों बैठें? वह काम पर क्यों न जाएं? अगर 50 परसेंट महिलाएं काम पर जाएंगी तो घर के बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होंगी यानी हर जगह जितने पुरुष होंगे उतनी ही महिलाएं। ज़्यादा संख्या निश्चिततौर पर महिलाओं का मोरॉल बुस्टअप करेगा। जब सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन, दफ़्तर, पुलिस स्टेशन, अदालत में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि वह महिला की ओर बुरी निग़ाह से देखे तक। या उस पर एसिड फेंके, क्योंकि महिलाओं की कम संख्या लंपट पुरुषों को प्रोत्साहित करती है। इस मुद्दे पर जो भी ईमानदारी से सोचेगा वह इसका समर्थन करेगा और कहेगा कि महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाना है तो उन्हें इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है।
कल्पना कीजिए, केंद्रीय और राज्य मंत्रिमंडल, लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं में पुरुषों के बहुमत की जगह बराबर संख्या में महिलाएं हो तो कितना बदलाव सा लगेगा। किसी ऑफ़िस में जाने पर 50 फ़ीसदी महिलाएं दिखने पर नारी-जाति वहां जाने पर रिलैक्स्ड फ़ील करेगी। पुलिस स्टेशन में आधी आबादी महिलाओं की होने पर ख़ुद महिलाएं शिकायत लेकर बेहिचक थाने में जाया करेंगी। जब लड़कियों को बड़ी तादाद में नौकरी मिलेगी तो उनमें सेल्फ़-रिस्पेक्ट पैदा होगा। वे अपने को पराश्रित और वस्तु समझने की मानसिकता से बाहर निकलकर स्वावलंबी बनेंगी। वे माता-पिता पर बोझ नहीं बनेंगी। उनकी शादी माता-पिता के लिए बोझ या ज़िम्मेदारी नहीं होगी। जब लड़कियां बोझ नहीं रहेंगी तो कोई प्रेगनेंसी में सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट ही नहीं करवाएगा। लोग लकड़ी के पैदा होने पर उसी तरह ख़ुशी मनाएंगे जैसे पुत्रों के आगमन पर मनाते हैं। यक़ीन मानिए तब 1000 लड़कों के सामने 100 लड़कियां होंगी। हमारा समाज संतुलित और ख़ुशहाल होगा। जहां हर काम स्त्री-पुरुष दोनों कर सकेंगे।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष-प्रधान समाज अपनी सत्ता महिलाओं को सौंपने के लिए तैयार होगा? इस राह में पक्षपाती परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की जानी चाहिए। यानी ‘ढोल, गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ जैसी चौपाई रचने वाले तुलसीदास जैसे पुरुष मानसिकता वाले कवियों को ख़ारिज़ करना पड़ेगा। इतना ही नहीं तुलसी के महाकाव्य ‘रामचरित मानस‘ को भी संशोधित करना पड़ेगा, जहां पत्नी की अग्निपरीक्षा लेने वाले और उसे गर्भावस्था के दौरान घर से निकालकर जंगल में भेजने वाले पति राम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’माना गया है। हमें उस महाकाव्य ‘महाभारत‘ और उसके लेखक व्यास की सोच को भी दुरुस्त करना होगा जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले जुआड़ी पति युधिष्ठिर को ‘धर्मराज’ मानता है। हमें उन सभी परंपराओ और ग्रंथो में संशोधन करना होगा जहां पुरुष (पति) को ‘परमेश्वर’ और स्त्री (पत्नी) को ‘चरणों की दासी’ माना गया है। इतना ही नहीं हमें उन त्यौहारों में बदलाव करना होगा, जिसमें पति की सलामती के लिए केवल स्त्री के व्रत रखने का प्रावधान है, पत्नी की सलामती के लिए पति के व्रत रखने का प्रवधान नहीं है। इसके अलावा स्त्री को घूंघट या बुरका पहनने को बाध्य करने वाली नारकीय परंपराओं भी छोड़ना होगा। और इस बदलाव की शुरुआत तुरंत होनी चाहिए। यही प्रीति के लिए हम सबकी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (समाप्त)

सोमवार, 30 मई 2016

हेमंत करकरे ज़िंदा होते तो क्या प्रज्ञा को फंसाने के आरोप में गिरफ़्तार हो जाते ?


हरिगोविंद विश्वकर्मा
कोई भी स्त्री या पुरुष किसी मुक़दमे में या तो कसूरवार होता है या बेकसूर।  क्या कोई आरोपी कसूरवार और बेकसूर दोनों हो सकता है? एक जाहिल आदमी भी कहेगा -नहीं! लेकिन मालेगांव ब्लास्ट 2008 की मुख्य आरोपी साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर दोषी भी हैं और बेकसूर भी। जब दिल्ली और महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार थी, तब वह दोषी थीं। अब दोनों जगह बीजेपी की सरकार है, तब वह बेकसूर हैं। मतलब यहां दोषी होने या न होने का फ़ैसला कोर्ट नहीं, राजनीतिक दल कर रहे हैं। संभवतः इस तरह की विचित्र मिसाल भारत जैसे देश में ही देखने को मिल सकती है, जहां कोई किसी केस में दोषी है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी वफादारी किस राजनीतिक दल के प्रति है। यानी यहां अदालत का रोल ही ख़त्म कर दिया गया।

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जैसा कि सब जानते हैं, न्यायिक हिरासत में क़रीब आठ साल से जेल में बंद साध्वी प्रज्ञा को नैशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी यानी एनआईए के 13 मई 2016 को दायर पूरक आरोपपत्र में क्लीनचिट दी जा चुकी है। उम्मीद की जा रही है कि क़ानून की औपचारिक प्रक्रिया पूरी होते ही वह कम से कम इस केस से बरी कर दी जाएंगी और संभव है कि वह जेल से रिहा भी हो जाएं। साध्वी को बरी करने का मतलब ब्लास्ट में उनके ख़िलाफ़ जांच एजेंसियों के पास इतने सबूत नहीं थे, जिससे उन्हें दोषी साबित कर सज़ा दिलाई जा सके। इसका यह भी मतलब होता है कि साध्वी और अन्य दूसरे पांच आरोपियों को बिना पर्याप्त सबूत के ही गिरफ़्तार कर लिया गया था। यानी जिस अपराध ने उनकी ज़िंदगी ही नष्ट नहीं कर दी, बल्कि आठ साल की सज़ा भी दी, उस अपराध को उन्होंने किया ही नहीं था। और, यह सब अमानवीय काम मुंबई आतंकी हमले में शहादत देने वाले महाराष्ट्र एटीएस के पूर्व मुखिया हेमंत करकरे के इशारे पर हुआ था।

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इसी तरह ब्लास्ट के दूसरे आरोपी सैन्य अफसर लेफ़्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित सहित मकोका की कठोर धारा के तहत अरेस्टेड 11 में से 10 आरोपियों के ख़िलाफ़ मकोका लगाने के सबूत ही नहीं हैं। लिहाज़ा, एनआईए ने सभी आरोपियों को मकोका से मुक्त कर दिया है। दरअसल, एनआईए का गठन कांग्रेस के कार्यकाल में मुंबई आतंकी हमले के बाद 31 दिसंबर 2008 को हुआ था और उसे मालेगांव ब्लास्ट 2008 का केस एक अप्रैल 2011 को सौंपा गया था। तब तक जांच महाराष्ट्र एटीएस ही कर रहा था और दो आरोपपत्र (मुख्य और पूरक) दायर भी कर चुका था। यानी एनआईए को केस दिए जाने तक क़रीब ढाई साल प्रज्ञा (गिरफ्तारी- 23 अक्टूबर 2008) और पुरोहित (गिरफ़्तारी- 5 नवबंर 2008) एटीएस की कस्टडी में थे।

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हालांकि, पुरोहित की पत्नी अपर्णा पुरोहित आरोप लगाते हुए कहती हैं, "एटीएस पुरोहित को 29 अक्टूबर 2008 से ही हिरासत में लेकर पूछताछ कर रही थी। पुरोहित के साथ थर्ड डिग्री और अमानवीय तरीके से इनरोगेशन हुआ। पूछताछ ने नाम पर कर्नल आरके श्रीवास्तव के अलावा करकरे, खानविलकर, परमवीर सिंह और शेखर बागड़े जैसे पुलिस अफसर पुरोहित को टॉर्चर करते रहे। इतना टॉर्चर किया कि पुरोहित का घुटना फिर से क्षतिग्रस्त हो गया। गौरतलब है पुरोहित कश्मीर में एक आतंकी मुठभेड़ में घायल हुए थे और उनके घुटने की बड़ी सर्जरी हुई थी।" बहरहाल, इसी तरह के आरोप एटीएस पर साध्वी प्रज्ञा भी लगाती हैं। उनका आरोप है कि कस्टडी के दौरान उऩहें थर्ड डिग्री टॉर्चर किया गया और एक महिला के रूप में उनकी मर्यादा को तार-तार किया गया।

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अब सवाल उठता है कि इतनी लंबी कस्टडी के दौरान आख़िर पूरी एटीएस की टीम थर्ड डिग्री टॉर्चर और मर्यादा भंग करने के बावजूद प्रज्ञा, पुरोहित और दूसरे नौ आरोपियों के ख़िलाफ़ ऐसे सबूत क्यों नहीं जुटा पाई, जिनसे उनकी गिरफ़्तारी को न्यायोचित ठहराया जाता और मालेगांव ब्लास्ट में आरोपियों की संलिप्तता साबित की जा सकती। ले-देकर सबूत के रूप में एटीएस के पास एक क्षतिग्रस्त बाइक और सभी आरोपियों एवं गवाहों एकबालिया बयान थे, जिसे, जैसा कि आरोपियों और गवाहों का आरोप है, एटीएस ने थर्ड डिग्री इंटरोगेशन के ज़रिए ज़बरदस्ती कबूलवाया था। यानी बिना फुख़्ता सबूत के एक महिला और सैन्य अधिकारी को जेल में रखने का क्या औचित्य था? इस सवाल का जवाब करकरे अगर ज़िंदा होते तो उन्हें देना ही पड़ता।

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साध्वी और पुरोहित के आरोपों से सवाल उठता है, क्या करकरे अपने पद का दुरुपयोग कर रहे थे? क्या वह निष्पक्ष नहीं, बल्कि पूर्वाग्रहित और पक्षपाती पुलिस अधिकारी थे? क्या हर केस की जांच वह इसी तरह कर रहे थे? क्या साध्वी और पुरोहित को गिरफ़्तार कर उन्होंने ब्लंडर किया था? क्या उन्होंने किसी व्यक्ति या व्यक्तियों अथवा राजनीतिक दल के इशारे पर “हिंदू आतंकवाद” का हव्वा खड़ा किया? जिसका इस्तेमाल अब पाकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ अकसर कर रहा है। इन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर करकरे सारी सूचनाएं कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह से क्यों शेयर करते थे? वह एटीएस चीफ के रूप में तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को रिपोर्ट करते थे या फिर दिग्विजय सिंह को? अगर वह दिग्विजय को रिपोर्ट नहीं करते थे, तब उन्हें अकसर फोन क्यों करते थे? इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर एटीएस और एनआईए की ओर से दायर तीनों आरोप पत्रों में भी नहीं मिलता है।

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कई लोग पूछते हैं कि जब करकरे की जान को वाक़ई ख़तरा था, जैसा कि दिग्विजय सिंह दावा करते हैं कि करकरे ने उनसे कहा था कि उनकी जान को ख़तरा है, तब करकरे ने दिग्विजय को ही यह बात क्यों बताई? मान लीजिए करकरे की जान को वाक़ई ख़तरा था तब, उन्होंने राज्य के मुखिया चीफ मिनिस्टर या विभाग के मुखिया गृहमंत्री अथवा स्टेट पुलिस के मुखिया पुलिस महानिदेशक या मुंबई पुलिस के चीफ पुलिस कमिश्नर को बताने की बजाय दिग्विजय सिंह को बताना क्यों उचित समझा? जबकि दिग्विजय उस समय संसद सदस्य भी नहीं थे। क्या इस तरह की कोई मिसाल मिलती है? जब किसी शीर्ष पुलिस अफसर को किसी नेता से गुहार लगाते सुना गया? क्या किसी पुलिस अफसर के ऑफिशियल फोन से किसी ऐसे नेता को फोन कभी किया गया है, जिस नेता से उसका कोई फ़ॉर्मल कनेक्शन ही न हो।

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बतौर सबूत दिग्विजय सिंह टेलीफोन कॉल के आइटमाइज़्ड बिल भी सार्वजनिक कर चुके हैं। जिससे साबित हो जाता है कि करकरे उन्हें अपने ऑफिशियल लैंडलाइन से वाक़ई कॉल किया करते थे। करकरे की इस कांग्रेस नेता से इतनी आत्मीयता थी कि वह उनसे निजी बातें भी शेयर करते थे। दरअसल, करकरे के मारे जाने के एक साल बाद दिग्विजय ने छह दिसंबर 2010 को मुंबई में एक सभा में यह दावा किया था कि मुंबई आतंकी हमले में मारे जाने से पहले करकरे ने उन्हें फोन किया था और कहा था कि मालेगांव ब्लास्ट में “हिंदू आतंकवादियों” को पकड़ने से उनकी जान को पक्षिणपंथी यानी हिंदू संगठनों से ख़तरा है।

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दिग्विजय सिंह का बयान इतना विवादास्पद और शर्मसार करने वाला था कि कांग्रेस को आधिकारिक रूप से उनके बयान को उनका निजी विचार बताना पड़ा। यहां तक कि करकरे की पत्नी कविता करकरे ने भी एक बयान जारी करके दिग्विजय सिंह के दावे की निंदा की थी। दरअसल, दिग्विजय सिंह के बयान से लगा कि मुंबई पर आतंकी हमला लश्कर-ए-तैयबा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने करकरे को रास्ते से हटाने के लिए सीआईए और मोसाद के साथ मिलकर रची है।

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इतना ही नहीं, दिग्विजय ने उर्दू के पत्रकार अज़ीज़ बर्नी की किताब “आरएसएस की साज़िशः 26/11” का विमोचन भी किया, जिसमें बर्नी ने भी साबित करने की हर संभव कोशिश की है कि 1993 के बाद देश में जितने ब्लास्ट हुए हैं, सब “हिंदू आतंकवादी” कर रहे हैं। हालांकि, इसके लिए बाद में बर्नी को माफ़ी भी मांगनी पड़ी थी। इसी दौरान क़रीब तीन दशक तक महाराष्ट्र पुलिस सेवा में रहे आईपीएस एसएम मुश्रीफ़ की किताब “हू किल्ड करकरे” आई, जिसमें में भी दावा किया गया कि करकरे की हत्या कसाब ने नहीं की, बल्कि आरएसएस के इशारे पर इंटेलिजेंस ब्यूरो ने करवाई। बहरहाल, इस तरह की अतार्किक बात किताब में लिखने वाले बर्नी और मुश्रीफ़ के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई न तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने की और न ही भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने।

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दरअसल, इसमें दो राय नहीं कि दिग्विजय का बयान और करकरे से बातचीत के सबूत मालेगांव बमकांड में करकरे की भूमिका संदिग्ध बना देता है। मामले से जुड़े वकीलों और पत्रकारों का तो यहां तक कहना है कि अगर करकरे ज़िदा रहे होते तो गलत जांच के आरोप में उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई संभव थी, जिनमें उऩकी गिरफ़्तारी की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। तो क्या करकरे अगर ज़िंदा होते तो वाक़ई गिरफ़्तार किए जा सकते थे? एनआईए के पूरक आरोप पत्र से पूरी जांच व्यवस्था पर सवालिया निशान पैदा हो गया है। इस साजिश की तहकीकात करने वाली तमाम भारतीय जांच एजेंसियों की साख़ ही संदिग्ध हो गई है।

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राजनीतिक गलियारे में यह सवाल कौंधने लगा है कि तथाकथित ‘हिंदू आतंकवाद’ का हव्वा खड़ा करने के लिए एक महिला को झूठी साज़िश में क्या फंसाया गया?  जब क्लीनचिट देना था, उसे बिना किसी पुख़्ता सबूत के इस केस में आठ साल तक जेल में क्यों रखा गया। दूसरा सवाल है कि अगर साध्वी वाकई तथाकथित हिंदू टेरर मॉड्यूल से जुड़ी और मालेगांव ब्लास्ट में शामिल रही हैं तो उन्हें और दूसरे आरोपियों को एनआईए की ओर से राहत क्यों दी गई? इतना ही नहीं सवाल यह भी है कि पुरोहित समेत 11 में से दस आरोपियों पर से मकोका क्यों हटा लिया गया?

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साध्वी-पुरोहित प्रकरण से देश की इंवेस्टिगेटिंग सिस्टम ही नहीं, न्याय-व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़ा हो गया है। इसका जवाब जज की कम संख्या पर भावुक होने वाले मुख्य न्यायायधीश जस्टिस तीर्थसिंह ठाकुर के लिए भी देना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि मान लीजिए, अगर केंद्र, राज्य सरकार या महाराष्ट्र एटीएस ने किसी व्यक्ति, खासकर किसी महिला, को झूठे केस में फंसा दिया था तो देश की अदालतें आठ साल तक क्या कर रही थीं। साध्वी की ज़मानत किस सबूत के आधार पर सुप्रीम कोर्ट तक ख़ारिज़ होती रही और अगर प्रज्ञा वास्तव में साज़िश में शामिल रही हैं, तो उन्हें अब क्लीनचिट क्यों दी जा रही है। एजेंसियों से यह क्यों नहीं पूछा गया कि प्रज्ञा अगर वह निर्दोष थीं तो उन्हें क्लीनचिट देने में इतना लंबा वक़्त कैसे लग गया।

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कहा जाता है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्रिक देश है, यहां स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका है। हर नागरिक को बोलने, लिखने, रहने और धर्म के चयन के मौलिक अधिकार मिले हैं। लिहाज़ा, देश की सबसे बड़ी अदालत को ज़िम्मेदारी लेनी ही होगी कि कोई सरकार या जांच एजेंसी किसी भी नागरिक, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, को बिना सबूत के लंबे समय तक जेल में न रखे। यदि ऐसा होता है, तो यह मौलिक अधिकार का उल्लंघन है, जिसे रोकना न्यायपालिका का काम है। लेकिन साध्वी और पुरोहित के केस में न्यायपालिका या तो पहले अपनी ज़िम्मेदारी सही तरीक़े से नहीं निभा पाई या अब नहीं निभा पा रही है, क्योंकि दोनों में से केवल एक ही संभव है। या तो साध्वी के ख़िलाफ़ सबूत होगा या सबूत नहीं होगा। सबूत पहले था लेकिन अब नहीं है, यह फ़ॉर्मूला नहीं चलेगा। अगर क्लीनचिट दी जा रही है, तो एटीएस से पूछना होगा कि इतनी प्रतिष्ठित संस्था क्या ऐसे ही काम करती है?

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पूरक आरोप पत्र में एनआईए ने एटीएस पर कई गंभीर आरोप भी लगाए हैं। आरोप इतने ज्यादा संगीन हैं कि एटीएस की भूमिका की ही जांच की नौबत आ गई है। यहां फोरेंसिक साइंस लैबोरेटरी कर्नाटक के डायरेक्टर रह चुके बीएम मोहन के दावे पर गौर करना होगा, क्योंकि उनके कार्यकाल में कई अहम नारको टेस्ट हुए थे। बीएम मोहन ने आईबीएन7 के डॉ. प्रवीण तिवारी से बातचीत के दौरान दावा किया है कि सिमी के कुछ आतंकियों का नार्को करते समय समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव ब्लास्ट के बारे में उन्हें अहम् जानकारियां मिली थीं। मोहन का दावा है कि इन इनपुट्स के आधार पर जांच एजेंसियां अगर सबूत जुटातीं, तो आतंकवादी धमाकों की कहानी कुछ और होती। उनका कहना है कि नार्को, ब्रेन मैपिंग, लाइ डिटेक्टर तीनों ही टेस्ट में सिमी के आतंकियों ने समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव ब्लासट मे हाथ होने की बात स्वीकार की थी। इन लोगों ने सिमी चीफ सफदर नागौरी की पूरी साज़िश का ख़ाका तैयार किए जाने की बात भी कही थी।

अमरनाथ यात्रा - खतरों-बाधाओं के बावजूद बड़ी रोमांचक होती है बर्फीली पहाड़ों की यात्रा

हेमंत करकरे ने आख़िर एफएसएल के इनपुट्स पर ध्यान देकर जांच क्यों नहीं की। जब साध्वी और अन्य के ख़िलाफ़ सबूत नहीं मिले तो दूसरे अंगल की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया गया? करकरे काबिल अफसर माने जाते थे। मुंबई के कई पत्रकार उन्हें बहुत अच्छा इंसान भी मानते हैं। वह सात साल रॉ के अधिकारी के रूप में ऑस्ट्रेलिया में रह चुके थे और कहा जाता है कि कंधार विमान हाइजैक में आतंकियों से संपर्क स्थापित करने में अहम रोल निभाया था और आईबी के अजित डोवाल की मदद की थी, जिससे सभी यात्री सुरक्षित भारत लाए जा सके थे। संभवतः इसीलिए सीएम मिनिस्टर विलासराव देशमुख ने जनवरी 2008 में उन्हें केपी रघुवंशी की जगह एटीएस प्रमुख बनाया था। बहरहाल, मालेगांव ब्लास्ट की सुनवाई फिलहाल मुंबई कोर्ट में चल रही है। लिहाजा, अदालत को ही तय करना होगा कि इनमें से किन तथ्यों के आधार पर केस की सुनवाई आगे बढ़ाई जाए, क्योंकि अंततः मालेगांव ब्लास्ट में दूध का दूध पानी का पानी अदालत को ही करना है। ताकि साध्वी को क्लीनचिट देने से उठे सवालों का जवाब मिल सके।

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साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का नासिक कोर्ट में दिया गया शपथपत्र - 14 अक्टूबर, 2008 को सुबह मुझे कुछ जांच के लिए एटीएस कार्यालय से काफी दूर ले जाया गया, वहां से दोपहर में मेरी वापसी हुई। उस दिन मेरी पसरीचा से कोई मुलाकात नहीं हुई। मुझे पता नहीं था कि पसरीचा कहां है। 15 अक्टूबर को दोपहर बाद मुझे और पसरीचा को एटीएस के वाहनों में नागपाड़ा स्थित राजदूत होटल ले जाया गया जहां कमरा नंबर 315 और 314 में हमे बंद कर दिया गया। यहां होटल में हमने कोई पैसा जमा नहीं कराया और न ही यहां ठहरने के लिए कोई खानापूर्ति की। सारा काम एटीएस ने ही किया। मुझे होटल में रखने के बाद एटीएस के लोगों ने मुझे एक मोबाइल दिया और मुझे उसी फोन से अपने रिश्तेदारों और शिष्यों (जिसमें मेरी एक महिला शिष्य भी शामिल थी) को फोन करने के लिए कहा और कहा कि मैं फोन करके लोगों को बताऊं कि मैं एक होटल में रूकी हूं और सकुशल हूं। मैंने उनसे पहली बार यह पूछा कि आप मुझसे यह सब क्यों कहलाना चाह रहे हैं। समय आने पर मैं उस महिला शिष्य का नाम भी सार्वजनिक कर दूंगी। एटीएस की इस प्रताड़ना के बाद मेरे पेट और किडनी में दर्द शुरू हो गया। मुझे भूख लगनी बंद हो गयी। मेरी हालत बिगड़ रही थी। होटल राजदूत में लाने के कुछ ही घण्टे बाद मुझे एक अस्पताल में भर्ती करा दिया गया जिसका नाम सुश्रुसा हास्पिटल था। मुझे आईसीयू में रखा गया। इसके आधे घण्टे के अंदर ही भीमाभाई पसरीचा भी अस्पताल में लाये गये और मेरे लिए जो कुछ जरूरी कागजी कार्यवाही थी वह एटीएस ने भीमाभाई से पूरी करवाई. जैसा कि भीमाभाई ने मुझे बताया कि श्रीमान खानविलकर ने हास्पिटल में पैसे जमा करवाये. इसके बाद पसरीचा को एटीएस वहां से लेकर चली गयी जिसके बाद से मेरा उनसे किसी प्रकार का कोई संपर्क नहीं हो पाया है। इस अस्पताल में कोई 3-4 दिन मेरा इलाज किया गया। यहां मेरी स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा था तो मुझे यहां से एक अन्य अस्पताल में ले जाया गया जिसका नाम मुझे याद नहीं है। यह एक ऊंची ईमारत वाला अस्पताल था जहां दो-तीन दिन मेरा ईलाज किया गया। इस दौरान मेरे साथ कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं रखी गयी। न ही होटल राजदूत में और न ही इन दोनो अस्पतालों में. होटल राजदूत और दोनों अस्पताल में मुझे स्ट्रेचर पर लाया गया, इस दौरान मेरे चेहरे को एक काले कपड़े से ढंककर रखा गया। दूसरे अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद मुझे फिर एटीएस के आफिस कालाचौकी लाया गया। इसके बाद 23-10-2008 को मुझे गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के अगले दिन 24-10-2008 को मुझे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, नासिक की कोर्ट में प्रस्तुत किया गया जहां मुझे 3-11-2008 तक पुलिस कस्टडी में रखने का आदेश हुआ। 24 तारीख तक मुझे वकील तो छोड़िये अपने परिवारवालों से भी मिलने की इजाजत नहीं दी गयी। मुझे बिना कानूनी रूप से गिरफ्तार किये ही 23-10-2008 के पहले ही पालीग्रैफिक टेस्ट किया गया। इसके बाद 1-11-2008 को दूसरा पालिग्राफिक टेस्ट किया गया। इसी के साथ मेरा नार्को टेस्ट भी किया गया। मेरा लाई डिटेक्टर टेस्ट और नार्को एनेल्सिस टेस्ट बिना मेरी अनुमति के किये गये। सभी परीक्षणों के बाद भी मालेगांव विस्फोट में मेरे शामिल होने का कोई सबूत नहीं मिल रहा था। आखिरकार 2 नवंबर को मुझे मेरी बहन प्रतिभा भगवान झा से मिलने की इजाजत दी गयी। मेरी बहन अपने साथ वकालतनामा लेकर आयी थी जो उसने और उसके पति ने वकील गणेश सोवानी से तैयार करवाया था। हम लोग कोई निजी बातचीत नहीं कर पाये क्योंकि एटीएस को लोग मेरी बातचीत सुन रहे थे। आखिरकार 3 नवंबर को ही सम्माननीय अदालत के कोर्ट रूम में मैं चार-पांच मिनट के लिए अपने वकील गणेश सोवानी से मिल पायी। 10 अक्टूबर के बाद से लगातार मेरे साथ जो कुछ किया गया उसे अपने वकील को मैं चार-पांच मिनट में ही कैसे बता पाती? इसलिए हाथ से लिखकर माननीय अदालत को मेरा जो बयान दिया था उसमें विस्तार से पूरी बात नहीं आ सकी। इसके बाद 11 नवंबर को भायखला जेल में एक महिला कांस्टेबल की मौजूदगी में मुझे अपने वकील गणेश सोवानी से एक बार फिर 4-5 मिनट के लिए मिलने का मौका दिया गया। इसके अगले दिन 13 नवंबर को मुझे फिर से 8-10 मिनट के लिए वकील से मिलने की इजाजत दी गयी। इसके बाद शुक्रवार 14 नवंबर को शाम 4.30 मिनट पर मुझे मेरे वकील से बात करने के लिए 20 मिनट का वक्त दिया गया जिसमें मैंने अपने साथ हुई सारी घटनाएं सिलसिलेवार उन्हें बताई, जिसे यहां प्रस्तुत किया गया है।

बुधवार, 25 मई 2016

भारत को क्या मिला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विश्वनेता बनने से?

मोदी की विदेश नीति की समीक्षा
हरिगोविंद विश्वकर्मा
दो साल के कार्यकाल में 35 देशों की यात्रा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ख़ुद तो विश्वनेताओं की क़तार में आ गए, लेकिन उनके विदेश दौरे और विदेश नीति से देश को कितना फायदा हुआ? यह चर्चा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि जनता ने 1984 के के बाद पहली बार किसी नेता को स्पष्ट बहुमत दिया था और मोदी ने सत्ता संभालते समय सबको साथ लेकर चलने का संकेत दिया था। शपथग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ समेत दक्षिण एशियाई सहयोग समिति सार्क के सभी राष्ट्राध्यक्षों को बुलाया था।

मोदी के इस क़दम को शपथग्हण डिप्लोमेसी कहते हुए राजनयिक स्तर पर सराहा गया था। विदेशी मामलों में दख़ल रखने वाले टीकाकारों ने इसे एक सकारात्मक शुरुआत करार दिया था। पड़ोसियों से संबंध सुधारने की दिशा में इसे अच्छी पहल मानकर पूरे देश ने भी उस क़दम का स्वागत और सराहना की थी। अब सवाल उठता है कि मोदी पड़ोसी देशों से मधुर संबंध बनाने में कामयाब रहे या नहीं, इसका आकलन ज़रूरी है। वैसे मोदी ख़ुद तो विश्वनेता बन गए, क्योंकि उनकी एक अपील पर संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भारत की प्राचीन योग परंपरा को स्वीकार कर 21 जून को अतंरराष्ट्रीय योग दिवस मानने की घोषणा कर दी। भारत जैसे देश के लिए यह बहुत बड़ी बात थी।

अगर मोदी के दो साल का आकलन करें तो कई फ्रंट पर सफलता उम्मीद से ज़्यादा मिली जबकि कई मोर्चे पर उनकी विदेश नीति असफल रही है। योग के बाद मोदी की सबसे बड़ी कामयाबी दूसरी सालगिरह के ऐन मौक़े पर मिली। जब भारत ने ईरान के साथ चाबहार पोर्ट परियोजना के डील पर प्रेसिडेंट हसन रोहानी और मोदी की मौजूदगी में हस्ताक्षर किया। इस समझौते के महत्व पर ज़्यादा कुछ नहीं लिखा गया लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि अभी तक भारत अपने सामान अफगानिस्तान, ईरान समेत मध्य एशिया और पूर्वी यूरोप तक समुद्री रास्ते से पाकिस्तानी बंदरगाहो के ज़रिए भेजता रहा है।

लिहाज़ा, इस डील से नई दिल्ली की कारोबार के क्षेत्र में इस्लामाबाद पर निर्भरता ख़त्म ही नहीं होगी और देश वाया अफगानिस्तान सीधे ईरान और दूसरे देशों में माल भेज सकेगा। इतना ही नहीं, आतंकवादियों की सप्लाई करने वाले इस कनफ्यूज़्ड देश को भारत भविष्य में अलग-थलग करने में भी कामयाब हो सकता है। ख़ुद पाकिस्तानी हुक़्मरान भी महसूस करने लगे हैं कि अगर चाबहार परियोजना सफल हुई तो उनका देश विश्वमंच पर अलग-थलग पड़ सकता है। लिहाजा, समझौते को मोदी के दो साल के कार्यकाल की सबसे बड़ी जीत मानने में गुरेज नहीं।

वैसे सत्ता की बाग़डोर संभालने के बाद से ही मोदी ने जिस तरह मिशन विश्व-भ्रमण शुरू किया, उससे राजनीतिक हलक़ों में अटकलें लगाई जाने लगीं कि कहीं उनकी इच्छा विश्वनेता बनने की तो नहीं है? जानकार कहने लगे थे कि मोदी के बेतहाशा विदेश दौरे से लगता है कि पांच साल में वह अपने को विश्वनेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। फिलहाल, मोदी 35 देशों की यात्रा और क़रीब 50 देशों के राष्ट्राध्यक्षों या शासनाध्यक्षों से मुलाकात करके विश्वनेता की क़तार में आ गए हैं।

शपथ लेने के बाद भूटान से विदेश दौरे जो सिलसिला शुरू हुआ, वह जारी है। मोदी अब तक अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, बेल्जियम, टर्की और कनाडा जैसे बड़े देशों और अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश, ब्राज़ील, फिजी, ईरान, आयरलैंड, कज़ाकिस्तान, किर्जिज़्स्तान, नेपाल, मंगोलिया, मलेशिया, मॉरीशस, बर्मा, पाकिस्तान, फ़िज़ी, सउदी अरब, सिंगापुर, सेचेलिस, श्रीलंका, तजाकिस्तान, तुर्कमिनिस्तान, यूनाइटेड अरब अमीरात और उज़्बेकिस्तान जैसे मध्यम और छोटे देशों की यात्रा कर चुके हैं। सिंगापुर तो वहां के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे ली कुआन येव के अंतिम संस्कार में चले गए थे। जहां उनके क़दम रूस, फ्रांस, सिंगापुर और नेपाल की धरती पर दो-दो बार पड़े हैं, वहीं अपने मित्र बराक ओबामा के देश अमेरिकी वह तीन बार जा चुके हैं। मोदी ओबामा को भी गणतंत्र दिवस के मौक़े पर भारत बुलाने में भी सफल रहे और बराक के साथ 'मन की बात' भी पेश किया। अब चौथी बार जाने की तैयारी कर रहे हैं और सितंबर में पांचवी बार अमेरिका पहुंचेंगे।

पिछले दो साल में प्रधानमंत्री के विदेश दौरे की देश-विदेश की मीडिया में सबसे ज़्यादा चर्चा रही। अलबत्ता, लकीर के फकीर की तरह काम करने वाली भारतीय विदेश नीति को रिसेट करने के लिए उनकी काफी तारीफ भी हुई। मोदी डिप्लोमैसी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि भारत और अमेरिका की दोस्ती उनके कार्यकाल में पहले से ज्यादा मज़बूत हुई। हालांकि, कूटनीतिक स्तर पर इस डिप्लोमेसी की असफलता यह रही कि ओबामा मोदी के ही कार्यकाल से पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमान बेच रहे हैं। वैसे, राहत की बात यह है कि यूएस कांग्रेस ने पाकिस्तान को मदद देने वाले बिल को रोक लिया है।

बहरहाल, जैसे अटलबिहारी वाजपेयी पाकिस्तान के साथ मधुर संबंध के हिमायती थे, उसी लाइन ऑफ ऐक्शन पर मोदी भी चल रहे हैं। इसीलिए क्रम में नवाज़ शरीफ के जन्मदिन अचानक पाकिस्तान पहुंच गए और उन्हें बधाई दी। लेकिन उनकी बथडे डिप्लोमेसी कारगर नहीं हुई, क्योंकि पाकिस्तान पीठ में छुरा घोंपने की अपनी आदत से बाज़ नहीं आया और पठानकोट में आतंकवादी हमला हो गया। आम चुनाव में कांग्रेस की पाकिस्तान नीति को जमकर कोसने वाले मोदी की सरकार ने भी वही सब किया जो भारत कांग्रेस की छत्रछाया में पिछले कई दशक से करता आ रहा है। यानी विरोध दर्ज कराना और हमले का प्रमाण देना।

अगर भारत-नेपाल संबंधों की विवेचना करें तो भारत अपने इस परंपरागत मित्र भी नाराज़ करता नज़र आ रहा है। दरअसल, नेपाल के नए संविधान में उचित भागीदारी को लेकर असंतुष्ट मधेसी समुदाय ने नेपाल-भारत सीमा पर क़रीब पांच महीने नाकेबंदी कर रखी, इससे नेपाल में ज़रूरी सामान की भारी किल्लत हुई। भारत ने इस नाकेबंदी को ख़त्म करवाने में वह भूमिका नहीं निभाया जो निभा सकता था। संभवतः उसी से सबक लेकर नेपाल ने चीन के साथ रेल परियोजनाओं पर समझौता किया है, ताकि काठमांडो की नई दिल्ली पर निर्भरता कम हो। यह चीन की बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत है।

चीन ने यहीं नहीं भारत को आंख दिखाया, बल्कि बीजिंग ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में जैश-ए मोहम्मद के सरगना मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने के भारत के प्रस्तावन को वीटो कर दिया। मोदी के कार्यकाल में विदेश नीति की यह सबसे बड़ी असफलता रही। इतना ही नहीं जर्मनी में रह रहे उइगुर नेता डोलकुन इसा को अमेरिकी ‘इनीशिएटिव्‍स फॉर चाइना’ की ओर से एक कॉन्‍फ्रेंस में शामिल होने के लिए भारत बुलाया गया था। लेकिन उन्हें जारी वीजा भारत ने चीन के विरोध में रद्द कर दिया। दरअसल, चीन इसा को उसी तरह आतंकवादी मानता है, जैसे भारत मौलाना मसूद को। चीन का कहना है कि उसके मुस्लिम बहुल प्रांत शिनजियांग में आतंकवाद को बढ़ावा देने में वर्ल्‍ड उइगुर कांग्रेस का ही हाथ है। तुर्किक मूल के मुसलमानों की तादाद शिनजियांग में एक करोड़ हैं। वह शिनजियांग में चीनी आबादी का विरोध करते हैं और इससे कई साल से शिनजियांग अशांत प्रांत माना जाता है।

दरअसल, चीन के साथ रिश्ते पर बात करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि आर्थिक व सामरिक दृष्टि से बीजिंग नई दिल्ली से बीस है। ऐसे में मोदी कितने ही बड़े राष्ट्रवादी क्यों ना हों, लेकिन चीन को नाराज़ करने का जोखिम नहीं ले सकते। चीन को वैश्विक शक्ति उसकी आर्थिक ताकत के कारण माना जाता है। मोदी के नेतृत्व में भारत को पता है कि केवल स्थायी और ऊंची आर्थिक वृद्धि दर के बल पर भारत, चीन के साथ एशिया के पॉवर गैप को भर सकता है। लिहाज़ा, मोदी चाहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्‍था मज़बूत हो और वह इस एजंडे पर काम भी कर रहे हैं।

वैसे मोदी डिप्लोमैसी की बड़ी उपलब्धि प्रवासी भारतीयों के साथ कनेक्टिविटी रही। जैसे आम चुनाव में मोदी देश के हर शहर को गुजरात से जोड़ रहे थे, उसी तरह आजकल वह हर देश को भारत से जोड़ रहे हैं। मतलब, वह हर देश के साथ देश का रिश्ता गढ़ ही लेते हैं। टीकाकार मोदी की इस ख़ूबी के क़ायल भी हैं। वैसे, मोदी अपनी हर विदेश यात्रा की जमकर मार्केटिंग भी करते हैं। इस तरह की रिपोर्टिंग करवाते हैं कि सूचनाओं के लिए मीडिया पर निर्भर देश की अवाम सोचने लगती है कि मोदी का क्रेज़ जैसे चुनाव में देश में था, अब वही क्रेज़ अब विदेशों में है। अमेरिका में मैडिसन स्क्वेयर गार्डन हो या चीन का शंघाई, हर जगह मोदी ने भारतीय मूल के लोगों को संबोधित किया। जापान, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, मंगोलिया और तेहरान में भी भारतीय मूल के लोगों ने मोदी मैजिक अनुभव किया।

मोदी की विदेश यात्राओं का कितना फ़ायदा इस देश या देशवासियों को हुआ? इस पर अभी कुछ कहना बहुत जल्दबाज़ी होगी। हां, इतना ज़रूर है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो विज़िबल हो। यानी चाबहार पोर्ट डील के अलावा विश्वमंच पर अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जो उल्लेखनीय या ऐतिहासिक घटना कहलाए। यह दावा करना कि मोदी की विदेश यात्राओं से दुनिया में भारत की हैसियत बढ़ गई है, सही नहीं होगा। ऐसा कहने वाले झूठे आशावाद की परिकल्पना कर रहे हैं।

राष्ट्रीय हित साधने में भारत को चीन से नसीहत लेनी चाहिए। अपना राष्ट्रीय हित साधने में बीजिंग नंबर एक है। अपने फ़ायदे के लिए चीन कब क्या कर दे, कोई नहीं जानता?  इसीलिए कोई चीन पर विश्वास नहीं रहता है। चीन ने पाकिस्तान तक से दोस्ती सोची समझी रणनीति के तहत की है। चीन अपने को सिर्फ़ अपने प्रति जिम्मेदार मानता है, इसीलिए अमेरिका ही नहीं पश्चिम के सभी देश चीन से आशंकित रहते हैं और भारत में चीन का विकल्प दिखते हैं। लिहाज़ा, ये देश विश्वमंच पर पीठ थपथपाने वाला आशावादी बयान देकर नई दिल्ली को प्रोत्साहित करते रहते हैं। मोदी को भी विदेशों से वहीं प्रोत्‍साहन मिला है, और वह उसी से गदगद हैं।

भारत की विश्वमंच पर आज भी वही औक़ात है, उसकी जो स्वतंत्रता मिलने के समय थी। मोदी जिस देश की यात्रा करते हैं, वह देश संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का समर्थन करता है। अमेरिका भी कई बार समर्थन कर चुका है। चीन व पाकिस्तान के छोड़ दें, तो हर छोटा-बड़ा देश मानता है कि भारत को वीटो पावर मिलनी चाहिए। मोदी के शासन में लोग वही जुमला दोहराते हैं. अगर ध्यान से देखे तो निकट भविष्य में भारत को स्ताई सदस्यात मिलेगी, इसमें बड़ा संदेह है। कभी-कभी तो लगता है कि भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य कभी नहीं बन पाएगा।

मोदी के सत्ता संभालते समय थी देश ने कयास लगाया था कि कुछ ठोस क़दम उठाए जाएंगे। मसलन, स्विस और दूसरे विदेशी बैंकों में जमा काला धन भारत आएगा। भारत की छवि सशक्त देश की बनेगी, लेकिन इस फ्रंट पर लफ़्फ़ाज़ी के सिवाय हुआ कुछ नहीं। काले धन पर तो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को सफाई द्नी पड़ी कि वह चुनावी जुमला था। यानी मोदी ने कैजुअली कह दिया था कि उनकी सरकार हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए जमा करवाएगी।

सीमा पर पाकिस्तानी रेंजर्स अंधाधुंध फायरिंग करते रहते हैं। हाफिज़ सईद भारत को धमकी देता रहता है। मुंबई आतंकी हमले के मास्टरमाइंड ज़किउर रहमान लखवी जेल से बाहर है। भारत विरोध जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाया। दाऊद इब्राहिम के बारे में नई दिल्ली अब भी प्रमाण देने में व्यस्त है कि यह अपराधी कराची में ही है। इससे भारत की छवि दुनिया में “साफ़्ट नेशन”की बन गई है। साफ़्ट नेशन की यही इमैज विश्वमंच पर भारत की भूमिका को सीमित कर देती है। वाजपेयी ने परमाणु विस्फोट करके इस इमैज से निकलने की कोशिश की थी, लेकिन बहुमत न होने से वह बैकफुट पर आ गए थे। मोदी के साथ ऐसी कोई मज़बूरी नहीं थी। उन्हें महानायक बनने का सुनहरा मौक़ा मिला था, लेकिन उनके एक साल के कामकाज पर नज़र डालें तो यही लगता है, फिलहाल मोदी वह मौक़ा गंवा रहे हैं।

बुधवार, 18 मई 2016

कानून को ठेंगा : कितनी शादियां करेगा वह

हरिगोविंद विश्वकर्मा
क़रीब छह साल पहले उसने दूसरी शादी की थी। वह भी बिना तलाक़ लिए। इसके बावजूद तब किसी को कोई आपत्ति न हुई थी। अब वह तीसरी शादी करने जा रहा है। और मज़ेदार बात यह है कि इस बार भी किसी को कोई आपत्ति नहीं है। ज़ाहिर है आने वाले दिनों में वह चौथी, पांचवी या उससे अधिक शादियां कर सकता है क्योंकि किसी को कोई आपत्ति ही नहीं। यानी अगर कोई आपत्ति न करे तो करते रहो शादी पर शादी... है न विचित्र वाकया।

यह घटना है मुंबई से सटे डोंबिवली का। जहां इन दिनों सुनील सालन नाम का शख़्स तीसरी शादी की तैयारी कर रहा है। मज़ेदार बात ये हैं कि लोकल पुलिस भी ख़ामोश हैं क्योंकि इस शादी से किसी को कोई ऐतराज़ नहीं है। मानपाड़ा थाने के इंचार्ज ने कहा कि सालन की दोनों बीवियों, बच्चों, दोनों सास-ससुर और सालों और बाक़ी रिश्तेदारों को कोई आपत्ति नहीं। फिर पुलिस क्या करे। हां, दूसरी पत्नी के एक रिश्तेदार को आपत्ति है लेकिन उनकी आपत्ति मायने नहीं रखती क्योंकि वह बहुत दूर के रिश्तेदार हैं।

दरअसल, तीसरी बार फेरे लेने के लिए क़रीब-क़रीब तैयार सालन की दो बीवियों से कुल पांच संतानें हैं। फिलहाल तो उसे अपनी नई-नवेली दुल्हन का इंतज़ार है तो दोनों बीवियों को छोटी बहन के रूप में आने वाली नई-नवेली सौतन का। जबकि पांचों बच्चे नई-नवेली मम्मी को देखने के लिए लालायित हैं। ज़ाहिर है ऊपर से घर में हर्ष-उल्लास है। लेकिन अंदर ही अंदर हर कोई मज़बूर है। विरोध करना मुसीबत को न्यौता देने के समान है।

अगर, पूरे मामले पर ग़ौर करे तो सुनील मानपाड़ा पुलिस स्टेशन की हद में रहता पड़ता है। उत्तराधिकार में बहुत बड़ी संपत्ति पिता से मिली है। यानी अच्छा खाता कमाता है। उम्र चालीस के ऊपर है। उसने 18-19 साल पहले प्रेम-विवाह किया था। जब ख़ूबसूरत प्रेमिका बीवी बनी तो लगा कि घर-परिवार में ख़ुशहाली का बसेरा हो गया। फिर बच्चे भी हुए। एक-एक करके तीन। घर में किलकारियां गूंजने लगीं। औसत सोच-समझ वाली एक भारतीय महिला को और क्या चाहिए। लिहाज़ा सालन की बीवी को लगा वह धरती की सबसे ख़ुशनसीब औरत है।
शायद उसकी ख़ुशी को किसी की नज़र लग गई। जी हां. तीसरे बच्चे के जन्म के बाद सालन की प्रेमिका से पत्नी बनी महिला में दिलचस्पी कम होने लगी। जिस स्त्री के साथ वह कभी जीने मरने की कसमें खाता था, जो स्त्री कभी उसे चांद की टुकड़ा नजर आती थी, वही उसे अचानक कुरूप लगने लगी। सालन का मन बीवी की ओर से पूरी तरह विरक्त हो गया। इसी दौरान उसकी मुलाकात दूसरी युवती से हुई जो अविवाहित थी। जान-पहचान दोस्ती में बदल गई। चंद दिन बाद ही सालन ने महसूस किया कि उसका दिल युवती पर आ गया है। यानी दोस्ती प्यार में बदल गई।

सालन ने प्रपोज़ किया और प्रेमिका ने हां कर दी। सालन के मन में लड्डू फूटने लगे। बस क्या था, सालन दूसरी शादी की योजना बनाने लगा। इसकी भनक पत्नी को लग गई। उसने विरोध किया और रोना-धोना शुरू किया। पर सालन ने उससे साफ़-साफ़ कह दिया कि विरोध करेगी तो बच्चों समेत उसे घर से निकाल देगा। पत्नी को अपनी असली हैसियत का पता चला कि वह पति की रहमोकरम पर है। यानी अगर स्त्री कमा नहीं रही है और विशुद्ध हाऊसवाइफ़ है तो 21वीं सदी में वह अबला ही है।

उसे अपना ही नहीं बच्चों का भी भविष्य अंधकारमय दिखा। लिहाज़ा उसने हालात से समझौता करना ही मुनासिब समझा। अपना विरोध वापस ले लिया। बस क्या था, सालन ने दूसरी शादी कर ली। यानी एक स्त्री ने ही उससे उसका पति छीन लिया। बहरहाल, पहली पत्नी और तीनों बच्चों ने घर के छठे सदस्य का स्वागत किया। दूसरी पत्नी से भी दो बच्चे हुए। यानी कुल दो बीवियां और पांच बच्चे। आठ सदस्यों का परिवार। दूसरी बीवी का दूसरा बच्चा तो अभी दो साल का ही है। पिछले एक साल से सालन का मन फिर भटकने लगा। चंद महीने पहले उसकी जान-पहचान तीसरी युवती से हुई। कुछ दिन में रिश्ता इतना गहराया शारीरिक संबंध बन गया। वे एक दूसरे के बिना जीने की कल्पना तक से कतराने लगे। सालन ने घर में जब ये फ़ैसला सुनाया तो सब सन्न। किसी को कुछ सूझा नहीं।

दरअसल, सालन घर का कमाने वाला इकलौता सदस्य है। उसे रोका गया तो भी वह नहीं रुकेगा। हां, जीवन-यापन के लिए जो पैसे वह दोनों पत्नियों और पांचों बच्चों को दे रहा है, उसे भी बंद कर देगा। इसीलिए घर के लोगों ने उसके फ़ैसले को स्वीकार करना ही श्रेयस्कर समझा क्योंकि किसी के पास और कोई चारा नहीं।

सुनील सालन तो एक मिसाल भर है। पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में बड़ी संख्या में पुरुषों के पास दो या दो से ज़्यादा पत्नियां हैं। सालन जैसे ग़ुमनाम पुरुष ही नहीं कई नामचीन नेता, पत्रकार, साहित्यकार और बुद्धिजीवियों की दो-दो पत्नियां है, इनमें कुछ लोगों के पास तीन-तीन बीवियां हैं। इन महिलाओं को पत्नी या बीवी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि पत्नी तो केवल पहली ही होती है। बाक़ी स्त्रियों को तो पत्नी का दर्जा ही नहीं मिलता। इस्लाम को छोड़ दें तो हर मज़हब में पति या पत्नी से वैधानिक रूप से बिना तलाक़ लिए किसी भी पुरुष या स्त्री की शादी संभव नहीं।

कई पुरुष मिलेंगे जिन्होंने पत्नी से बिना वैधानिक तलाक़ के दूसरी शादी कर ली है। उत्तर प्रदेश बिहार में तो इसकी बहुतायत है। शादी के बाद कई बार पुरुषों का कंवारी लड़की से शारीरिक संबंध हो जाता है, और वे शादी कर लेते हैं। लेकिन बिना वैधानिक तलाक़ के हुई शादी ग़ैरक़ानूनी मानी जाती है। देश की कोई अदालत ऐसी महिलाओं को पत्नी का दर्जा नहीं देती। दूसरी शादी के लिए बीवी से कंसेंट के नाम पर स्टैंप पेपर पर दस्तख़त करवा लेते हैं। इस तरीक़े को फ़िल्मी तलाक़ कह सकते हैं। जी हां, फ़िल्मों में तलाक़ के काग़ज़ात ख़ुद या किसी के हाथ या पोस्ट से भेज दिए जाते हैं और साइन कर देने से तलाक़ मान लिया जाता है।

दुनिया की कोई भी अदालत इस तलाकनामे को मंज़ूर नहीं करती और रद्दी की टोकरी में फेंक देती है। दरअसल, हर अदालत पति-पत्नी के वैधानिक अलगाव को ही तलाक़ को मानती। ये तलाक़नामा फ़ैमिली कोर्ट की ओर से जारी होता है। पति और पत्नी, विधिवत अलग होने के लिए फ़ैमिली कोर्ट में याचिका दाख़िल करते हैं। दोनों को नोटिस जारी होता है और अदालत में बयान दर्ज होता हैं। एक दूसरे से अलग होने की ठोस वजह बताई जाती। इसके बाद भी फ़ैमिली कोर्ट रिश्ता तोड़ने से पूर्व सुलह का एक और मौक़ा देती है। हां, दंपति के बीच सुलह की हर संभावना ख़त्म होने पर ही तलाक़ की इजाज़त दी जाती है। तलाक़ के बाक़ी सभी तरीक़े फ़र्ज़ी तलाक़ माने जाते हैं।

वैसे कई मुस्लिम देशों में भी एक से ज़्यादा निकाह की रवायत ख़त्म कर दी गई है। अपने देश में भी एक से अधिक निकाह यानी पहली बीवी के होते दूसरी शादी की वैधता पर बहस चल ही रही है। ये बहस तब शुरू हुई जब राजस्थान पुलिस ने लियाक़त अली को पहली पत्नी के रहते निकाह करने पर नौकरी से निकाल दिया जिसे राजस्थान हाईकोर्ट ने भी सही ठहराया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी उस पर मुहर लगा दी। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा कि कोई कर्मचारी पत्नी के होते दूसरी शादी करेगे तो नौकरी से हाथ धो बैठेगा। 1986 के बहुचर्चित केस का फ़ैसला 25 जनवरी, 2010 को आया। यानी अब धर्म का बहाना लेकर भी कोई दूसरी शादी करेगा तो मामला अदालत तय करेगी चाहे वो मुस्लिम ही क्यों न हो। टर्की और ट्यूनीशिया में पत्नी के होते निकाह ग़ैरक़ानूनी है। मिश्र, सीरिया, जॉर्डन, इराक, यमन, मोरक्को और यहां तक कि पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी इस पर अदालतें फैसला सुनाती हैं। लेकिन भारत में तमाम अदालतों की आलोचना के बाद ये आज भी जारी है।

इस्लाम के इसी प्रावधान का फायदा उठाकर कई स्त्रियां दूसरी स्त्रियों के पति छीन चुकी हैं। हेमा मालिनी और अनुराधा बाली इसकी मिसाल हैं। प्रकाश कौर से धर्मेंद्र को छीनने के लिए हेमा मालिनी ख़ुद आयशा बी बन गईं जबकि धर्मेंद्र को दिलावर खान बना दिया। इसी तरह अनुराधा ने चंदर मोहन को सीमा विश्नोई से छीनने के लिए ख़ुद फ़िज़ा बन गई जबकि चंदर को चांद मोहम्मद बना दिया। यानी बिगमी क़ानून के शिकंजे से बचने के लिए इन लोगों ने मज़हब का सहारा लिया।

आज पुरुष-महिला के बीच समानता की बढ़-चढ़कर हो रही है। मगर सालन जैसे लोगों का ऐयाशी के लिए बार-बार शादी करके इस दावे को झुठलाते हैं। ये समय की मांग है कि स्त्री को महज मनोरंजन समझने वालों पर अंकुश लगाने के लिए कठोर क़ानून बनाने की ज़रूरत है। इतना ही नहीं उत्तराधिकार क़ानून पर सख़्ती से अमल किया जाना चाहिए। इसमें बेटी को पिता की संपत्ति में हिस्सेदार तो बना दिया गया है लेकिन इस क़ानून पर अमल परंपरा के ख़िलाफ़ माना जाता हैं। और परंपरा यह है कि बेटी पराया धन होती है, उसका पिता की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं। तभी तो आज भी लड़कियां शादी के बाद मायके चली जाती हैं और पिता की संपत्ति पर उनका दावा ख़त्म हो जाता है जबकि बेटा या बेटे पिता की दौलत पर ऐश करते हैं।

दरअसल, सुनील सालन की दोनों बीवियां उसकी तीसरी शादी का विरोध इसलिए भी नहीं कर पा रही हैं क्योंकि वे जीवन-यापन के लिए पति पर बुरी तरह निर्भर हैं। दोनों महिलाओं के पास किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है। इसीलिए न चाहते हुए भी पति की तीसरी शादी को क़बूल कर रही हैं। अन्यथा जैसे कोई पुरुष अपनी बीवी के जीवन में किसी दूसरे पुरुष की कल्पना तक नहीं कर पाता। उसी तरह महिला भी अपने पति के जीवन में दूसरी स्त्री सहन नहीं कर सकती। लेकिन सामाजिक असुरक्षा के चलते वे भारी मन से पति की इच्छा को स्वीकार करती हैं।

अगर बिगमी क़ानून के ट्रायल पर गौर करें तो उसकी रफ़्तार बहुत धीमी होती है। मुकदमे के निपटारे में सालों-साल लग जाते हैं। दिल्ली के 41 वर्षीय जगदीश प्रसाद ने पहली पत्नी से तलाक विए बिना 1970 में दूसरी शादी कर ली। पत्नी ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। तीस हज़ारी कोर्ट में मुक़दमे के निपटारे में 37 साल ख़र्च हो गए। अगस्त 2008 में फ़ैसला आने के समय जगदीश 78 साल का हो चुका था। हालांकि अदालत ने उसे बिगमी को दोषी क़रार दिया गया और सज़ा और ज़ुर्माना हुआ लेकिन इतनी लंबी अदालती लड़ाई तोड़कर रख देती है। इसीलिए स्त्री क़ानून के झमेले में न पड़ कर पति की इच्छा को स्वीकार कर लेती हैं।

समाप्त


मंगलवार, 17 मई 2016

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री कहीं वाक़ई फ़र्ज़ी तो नहीं !

हरिगोविंद विश्वकर्मा
लगता है, दिल्ली के चीफ़ मिनिस्टर अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी अभी तक दिल्ली सरकार में मंत्री रहे अपने विधायक जीतेंद्र सिंह तोमर की फ़र्ज़ी डिग्रियों के मामले में गिरफ़्तारी और फिर तिहाड़ जेल की हवा खाने के वाक़ये से नहीं उबर पाएं हैं। इसीलिए अरविंद समेत आप के क़रीब-क़रीब सभी प्रमुख नेता इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री को फ़र्ज़ी साबित करने के लिए जी जान से जुटे हुए हैं। इस क्रम में 'आप' नेताओं की ओर से रोज़ाना नए-नए खुलाए करने के दावे किए जा रहे हैं।

'आप' के लीडरान आशुतोष, संजय सिंह आदि दावा कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जो डिग्री बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और वित्तमंत्री अरुण जेटली ने जारी की है, वह फ़र्ज़ी है। आशुतोष ने तंज कसते हुए कहा है कि जालसाज़ी करने के लिए भी अक्ल चाहिए। हो सकता है, उनका इशारा जीतेंद्र सिंह तोमर की ओर हो, जिन्होंने ‘अक्ल का इस्तेमाल’ करते हुए बड़ी चतुराई से फ़र्ज़ी डिग्री को एक बार तो असली साबित ही कर दिया था, लेकिन संबंधित संस्थानों की ओर से डिग्री देने से इनकार करने पर बेचारे फंस गए थे और मंत्रिपद ही नहीं गया, ख़ुद भी जेल गए।

बहरहाल, आशुतोष ने दावा किया है कि बैचलर और मास्टर की डिग्रियों में नरेंद्र मोदी के नाम में अंतर है, जो नहीं होना चाहिए। आशुतोष का तर्क है कि किसी का नाम बदलने के लिए क़ानूनी प्रक्रिया होती है। आशुतोष ने यह भी दावा करते हैं कि 1977 की मार्कशीट है, लेकिन डिग्री 1978 की है। बीए की मार्कशीट पर नाम नरेंद्रकुमार दामोदरदास मोदी लिखा है, जबकि एमए डिग्री में नरेंद्र दामोदरदास मोदी  है। हालांकि इस बार में गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति महेश पटेल साफ़ कर चुके हैं कि ख़ुद मोदी ने 1981 में दाखिला लेते समय प्रवेश फॉर्म पर नरेंद्रकुमार मोदी लिखा था, जो डीयू के सर्टिफिकेट में लिखा था, लेकिन मोदी ने ही 1982 में नरेद्र मोदी कर दिया था। यहां सवाल यह भी है कि क्या कोई संस्थान किसी छात्र को नाम में संशोधन करने की इजाजत देता है। इस बात की पड़ताल होनी चाहिए।

वैसे अरविंद केजरीवाल को उनकी हरकतों और बड़बोलेपन की वजह से भले ही लोगों ने उन्हें सीरियसली लेना बंद कर दिया हो और उन पर सोशल मीडिया में जोक पर जोक बनाए जा रहे हों, लेकिन देश के प्रधानमंत्री की डिग्री के बारे में अरविंद और आम आदमी पार्टी के आरोप को बिना गहन जांच के ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता है। ऐसे में गाहे-बगाहे मन में सवाल ज़रूर उठता है कि कहीं नरेंद्र मोदी की बीए की डिग्री और उसके बाद एमए की डिग्री वाक़ई फ़र्ज़ी तो नहीं है।

दरअसल, कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी ने महज़ 17 साल की उम्र में अपना घर छोड़कर निकल गए थे। तब तक उन्होंने केवल 10वीं तक की पढ़ाई बड़नगर के गुजराती मीडियम के भागवताचार्य नारायणाचार्य हाईस्कूल से पूरी की थी। इंटर में उन्होंने एडमिशन तो लिया था, लेकिन इंटर पूरा किए बिना घर से चले गए थे। बहराहल, वापस आकर मोदी ने दोबारा 12वीं पास की या नहीं, यह जानकारी कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इसकी पुष्टि केवल प्रधानमंत्री ही कर सकते हैं।

अलबत्ता, सन् 1990 में तत्कालीन पत्रकार (अब सीनियर कांग्रेस लीडर) राजीव शुक्ला के टीवी कार्यक्रम ‘रूबरू’ में तत्कालीन बीजेपी जनरल सेक्रेटरी नरेंद्र मोदी ने स्वीकार किया था कि उन्होंने नियमित रूप से केवल स्कूली शिक्षा पूरी की है। जब शुक्ला ने दोबारा पूछा कि स्कूली शिक्षा का मतलब प्राइमरी तक? तब मोदी ने कहा था –प्राइमरी नहीं, हाईस्कूल। उसी इंटरव्यू में मोदी ने कहा कि बाद में संघ के एक अधिकारी के आग्रह पर उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एक्सटर्नल इग्ज़ाम देकर राजनीति शास्त्र में बीए किया और उसके बाद गुजरात विश्वविद्यालय से एक्सटर्नल एग्ज़ाम देकर संपूर्ण राजनीति शास्त्र से एमए कर लिया।

बहरहाल केजरीवाल ने डीयू से आग्रह किया है कि प्रधानमंत्री की डिग्री वेबसाइट पर सार्वजनिक करे और यह सुनिश्चित करे कि डिग्री के दस्तावेज सुरक्षित हैं। 'आप' का आरोप है कि वास्‍तव में डीयू के पास ऐसे डाक्‍यूमेंट्स ही नहीं हैं, जिससे साबित हो कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने 1978 में यूनिवर्सिटी से डिग्री हासिल की। पीएम ने यह जानकारी वर्ष 2014 के चुनाव के अपने हलफनामे में दी है।

'आप' का कहना था कि उसने पीएम मोदी की ओर से दी गई ग्रेजुएशन की तारीख वाले दिन 'नरेंद्र महावीर मोदी' के ग्रेजुएट होने की जानकारी हासिल की है। आप के अनुसार, यह 'नरेंद्र महावीर मोदी'  राजस्थान के अलवर से हैं जबकि पार्टी ने स्‍कूल सर्टिफिकेट के आधार पर कहा है कि पीएम मोदी गुजरात के बड़नगर से हैं। पीएम मोदी जैसे नाम वाले शख्स ने माना कि 1975 से 1978 तक डीयू में था।

सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय प्रधानमंत्री की डिग्री सही मानता है, लेकिन उसके पास कोई रिकॉर्ड नहीं है। डीयू की केंद्रीय जन सूचना अधिकारी जयचंद्रा ने पिछले साल सितंबर में मुंबई के आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली को भेजे जबाब में कहा था चार दशक पुराना रिकॉर्ड उनके पास नहीं हैं। इसलिए वर्ष 1978 में पास छात्र-छात्राओं की जानकारी के लिए संबंधित कॉलेज से संपर्क करें। मगर विवाद बढ़ने के बाद डीयू ने मोदी की डिग्री सार्वजनिक की। विश्वविद्यालय प्रशासन ने तर्क दिया है कि मोदी ने 1978 में कक्षाएं अटेंड की थी और परीक्षा में पास हुए थे, लेकिन विश्वविद्यालय के पास कोई रिकॉर्ड नहीं है।

क्या ऐसा संभव है, जहां से कोई छात्र पढ़ाई किया हो, उस संस्थान के पास उस छात्र का कोई रिकॉर्ड ही न हो। किसी भी व्यक्ति ने जहां भी पढ़ाई की है, अगर वहां जाकर रिकॉर्ड मांगे तो पूरा रिकॉर्ड मिलेगा, क्योंकि हर छात्र का रिकॉर्ड सुरक्षित रखना संस्थान की ज़िम्मेदारी होती है। ऐसे में दिल्ली विश्वविद्यालय जैसा संस्थान ऐसा कैसे कह सकता है कि मोदी ने चूंकि 40 साल पहले पढ़ाई की थी, इसलिए उनका कोई रिकॉर्ड नहीं है।

बहरहाल, आम आदमी पार्टी के नेताओं का यह भी कहना है कि सत्तर और अस्सी के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय डिग्री पाने वाले सभी छात्रों को सर्टिफिकेट हाथ ले लिखकर देता था, लेकिन मोदी की जो डिग्री जारी की गई है, वह कंप्यूटराइज़्ड फॉन्ट में है। इससे संदेह गहरा जाता है। इतना ही नहीं, जिस तरह गुजरात विश्वविद्यालय ने मोदी के भरे गए फॉर्म को झेरॉक्स कॉपी जारी करके साबित कर दिया है कि मोदी ने 1981 से 83 तक उनके यहां पढ़ाई की थी, उसी तरह दिल्ली विश्वविद्यावय को भी पूरा दस्तावेज़ सार्वजनिक कर देना चाहिए। मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, उनकी डिग्री पर ससपेंस कतई ठीक नहीं। अगर इसमें लेट किया गया तो आम लोगों को लगने लगेगा कि दाल में कहीं कुछ काला है। वैसे सोशल मीडिया पर कानाफूसी होने लगी है कि कहीं प्रधानमंत्री की डिग्री कहीं वाक़ई फ़र्ज़ी तो नहीं हैं!